Monday, April 14, 2014

दीवार पर लिखे को न समझा तो भारत झेलेगा प्रकृति का रौद्र रूप......




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"Friday, July 8, 2011


विकास या विनाश

१९४७ में जब हमारा देश औपनिवेशिक गुलामी से आजाद हुआ था तो हमारे यहाँ सुई तक नहीं बंनती थी और आज हमारे देश में राकेट ,मिसाईलें तक बनने लगी हैं.विकास तो हुआ है जो दीख रहा है उसे झुठलाया नहीं जा सकता.लेकिन यह सारा विकास ,सारी प्रगति,सम्पूर्ण समृद्धि कुछ खास लोगों के लिए है शेष जनता तो आज भी भुखमरी,बेरोजगारी,कुपोषण आदि का शिकार है.गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर हुआ है.आजादी का अर्थ यह नहीं था.इसके लिए सरदार भगत सिंह,चंद्रशेखर आजाद,रामप्रसाद बिस्मिल,अश्फाक उल्लाह खां,रोशन लाल लाहिरी आदि अनेकों क्रांतिकारियों ने कुर्बानी नहीं दी थी.यह मार्ग विकास का नहीं ,विनाश का है.

विकास का लाभ आम जन को मिले इस उद्देश्य से प्रेरित नौजवानों नें नक्सलवाद का मार्ग अपना लिया और छत्तीस गढ की भाजपा सरकार ने इन्हें कुचलने हेतु 'सलवा-जुडूम' तथा एस पी ओ का गठन स्थानीय युवकों को लेकर कर लिया था जिसे भंग करने का आदेश देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि,"इस सशस्त्र विद्रोह के लिए सामजिक,आर्थिक विषमता,भ्रष्ट शासन तंत्र और 'विकास के आतंकवाद'  हैं".

जस्टिस बी.सुदर्शन रेड्डी का मत है-"मिडिल क्लास की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए हो रहे औद्योगिकीकरण व् अंधाधुंध माइनिंग के कारण किसान जमीन-जंगल से लगातार बेदखल हो रहे हैं.नक्सल आंदोलन के पैदल सिपाही यही किसान और आदिवासी हैं"

(Hindustan-08/07/2011-Lucknow-Page-16)


"कोरिया की पास्को कं.को उड़ीसा में ५० वर्ष तक लौह अयस्क ले जाने हेतु किसानों की उपजाऊ जमीन दे दी गयी है लेकिन किसान कब्ज़ा नहीं छोड़ रहे हैं और ऐसा करना उनका जायज हक है.२४ जून को सारे देश में किसानों के प्रति एकजुटता प्रदर्शित करने हेतु 'पास्को विरोधी दिवस' मनाया गया था (इस ब्लाग में इस आशय का एक लेख भी दिया था),किन्तु अधिकाँश लोग अपने-अपने में मस्त थे,उन्हें उड़ीसा के गरीब किसानों से कोई मतलब नहीं था .नंदीग्राम और सिंगूर में हल्ला बोलने वाली मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी भी चुप्पी साधे रहीं.

'नया जमाना',सहारनपुर के संस्थापक संपादक स्व.कन्हैया लाल मिश्र'प्रभाकर' ने आर.एस.एस.नेता लिमये जी से एक बार कहा था कि शीघ्र ही दिल्ली की सत्ता के लिए सड़कों पर संघियों-कम्यूनिस्टों के मध्य संघर्ष होगा.दिल्ली नहीं तो छत्तीस गढ़ में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पूर्व यह हो ही रहा था.१९२५ में आजादी के आंदोलन को गति प्रदान करने हेतु जब 'भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी' का गठन किया गया तो ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपने पृष्ठपोषक बुद्धिजीवियों को बटोर कर आर.एस.एस.का गठन करवा दिया जिसने साम्राज्यवाद की सहोदरी 'साम्प्रदायिकता' को पाला-पोसा और अंततः देश का विभाजन करा दिया.१९४७ में हुआ विभाजन १९७१ में एक और विभाजन लेकर आया जिसने दो राष्ट्रों की थ्योरी को ध्वस्त कर दिया.भारत के ये तीनों हिस्से भीषण असमानता के शिकार हैं.तीनों जगह सत्ताधीशों ने अवैध्य कमाई के जरिये जनता का खून चूसा है.तीनों जगह आम जनता का जीवन यापन करना बेहद मुश्किल हो रहा है.सरकारें साम्राज्यवाद के आधुनिक मसीहा अमेरिका के इशारे पर काम कर रही हैं न कि अपने-अपने देश की जनता के हित में.

तीनों देशों में फिरकापरस्त लोग अफरा-तफरी फैला कर जीवन की मूलभूत समस्याओं से ध्यान हटा रहे हैं.लोक-लुभावन नारे लगा कर पूंजीपतियों के पिट्ठू ही साधारण जन को ठग कर सत्ता में पहुँच जाते हैं.जाति,धर्म.सम्प्रदाय,गोत्र ,क्षेत्रवाद की आंधी चला कर सर्व-साधारण को गुमराह कर दिया जाता है.जो लोग गरीबों के रहनुमा हैं किसानों और मजदूरों के हक के लड़ाका हैं वे अपने अनुयाइयों के वोट हासिल नहीं कर पते हैं और सत्ता से वंचित रह जाते हैं.नतीजा साफ़ है जो प्रतिनिधि चुने जाते हैं वे अपने आकाओं को खुश करने की नीतियाँ और क़ानून बनाते हैं ,आम जन तो उनकी वरीयता में होता ही नहीं है.

क्या आम जनता इसके लिए उत्तरदायी है?कुछ हद तक तो है ही क्योंकि वही तो जाति,धर्म ,सप्रदाय के बहकावे में गलत लोगों को वोट देकर भेजती है.लेकिन इसके लिए जिम्मेदार मुख्य रूप से समाज में प्रचलित अवैज्ञानिक मान्यताएं और धर्म के नाम पर फैले अंध-विशवास एवं पाखण्ड ही हैं.विज्ञान के अनुयायी और साम्यवाद के पक्षधर सिरे से ही धर्म को नकार कर अधार्मिकों के लिए मैदान खुला छोड़ देते हैं जिससे उनकी लूट बदस्तूर जारी रहती है और कुल नुक्सान साम्यवादी-विचार धारा तथा वैज्ञानिक सोच को ही होता है.

धर्म=जो धारण करता है वही धर्म है -यह धारणा कैसे अवैज्ञानिक और मजदूर-किसान विरोधी हो गयी.लेकिन किसान-मजदूर विरोधी लोग जम कर धर्म की गलत व्याख्या प्रस्तुत करके किसान और मजदूर को उलटे उस्तरे से लूट ले जाते हैं क्योंकि हम सच्चाई बताते ही नहीं तो लोग झूठे भ्रम जाल में फंसते चले जाते हैं.

भगवान=भूमि का 'भ'+गगन का 'ग'+वायु का 'व्'+अनल(अग्नि)का अ ='I'+नीर(जल)का' न ' मिलकर ही भगवान शब्द बना है यह कैसे अवैज्ञानिक धारणा हुयी,किन्तु हम परिभाषित नहीं करते तो ठग तो भगवान के नाम पर ही जनता को लूटते जाते हैं.

(चूंकि प्रकृति के ये पांचों तत्व(भगवान) खुद ही बने हैं इनको किसी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही सम्मिलित रूप से 'खुदा' हैं। इनका कार्य उत्पत्ति (GENERATE),पालन (OPRATE) और संहार (DESTROY)है अर्थात ये ही GOD हैं )
मंदिरों से प्राप्त खजाने इस बात का गवाह हैं कि ये मंदिर बैंकों की भूमिका में थे जहाँ समाज का धन सुरक्षित रखा गया था लेकिन आज इसे 'ट्रस्ट'के हवाले करके समृद्ध लोगों की मौज मस्ती का उपाय मुकम्मिल करने की बातें हो रही हैं.१९६२ में गोला बाजार,बरेली में हम लाला धरम प्रकाश जी के मकान में किराए पर रहते थे.जो दीवार कच्ची अर्थात मिट्टी की बनी थी उसे ढहा कर उन्होंने पक्की ईंटों की दीवार बनवाई .कच्ची दीवार से गडा खजाना निकला तुरंत पुलिस पहुँच गयी क्योंकि कानूनन पुराना खजाना सरकार  या समाज की संपत्ति है.पुलिस को भेंट चढा कर उन्होंने रिपोर्ट लगवा दी खजाने की खबर झूठी थी.लेकिन मंदिरों से प्राप्त खजाने की खबर तो झूठी नहीं है फिर इसे किसी ट्रस्ट को क्यों सौंपने की बातें उठ रही हैं ,यह क्यों नहीं सीधे सरकारी खजाने में जमा किया जा रहा है?यदि यह धन सरकारी खजाने में पहुंचे तो गरीब तबके के विकास और रोजगार की अनेकों योजनाएं परिपूर्ण हो सकती हैं.जो करोड़ों लोग भूख से बेहाल हैं उन्हें दो वक्त का भोजन नसीब हो सकता है.

कहीं भी किसी भी उपासना स्थल से प्राप्त होने वाला खजाना राष्ट्रीय धरोहर घोषित होना चाहिए न कि किसी विशेष हित -साधना का माध्यम बनना चाहिए.चाहे संत कबीर हों ,चाहे स्वामी दयानंद अथवा स्वामी विवेकानंद और चाहे संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन डाक्टर अम्बेडकर सभी ने आम जन के हित पर बल दिया है न कि वर्ग विशेष के हित पर.अतः यदि समय रहते आम जन का समाज ने ख्याल नहीं किया तो आम जन बल प्रयोग द्वारा समाज से अपना हक हासिल कर ही लेगा."

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उपर्युक्त लेख में सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों को ही शामिल किया गया है किन्तु यदि प्रकृति की 'प्रकृति' को न समझा गया तो जैसा  कि वैज्ञानिक खोजें बता रही हैं भारत को उत्तराखंड,कुम्भ,देवघर,आदि सरीखी प्राकृतिक विभीषीकाओं  का निश्चय ही सामना करना पड़ेगा। यदि इनसे बचाव करना है तो इस अवैज्ञानिक विकास (वस्तुतः विनाश ) की प्रक्रिया को पूर्ण विराम देकर मानवोचित समाज-व्यवस्था भी स्थापित करनी होगी,समानता पर आधारित राज-व्यवस्था भी स्थापित करनी होगी और प्रकृति से सामंजस्य वाली प्राचीन भारतीय पद्धती भी पुनर्स्थापित करनी होगी। ऐसी संभावनाएं फिलहाल अभी तो न के बराबर हैं। अतः तैयार रहना होगा प्राकृतिक प्रकोप झेलने को।
  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है। 
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28-04-2015 : 

1 comment:

VIJAY KUMAR VERMA said...

विचारणीय और सार्थक पोस्ट।