Monday, October 27, 2014

सूर्य उपासना का वैज्ञानिक दृष्टिकोण---विजय राजबली माथुर



हमारी पृथ्वी १ लाख ११ हज़ार ६ सौ कि .मी .प्रति घंटे की गति से घूमते  हुए अपने से १३ लाख गुने बड़े और ९ करोड़ ३० लाख मील की दूरी पर स्थित सूर्य की परिक्रमा कर रही है .सब ग्रहों का परिवार एक सौर परिवार है .एक अरब सौर परिवारों क़े समूह को एक निहारिका कहते हैं और ऐसी १५०० निहारीकाएँ वैज्ञानिक साधनों द्वारा देखी गई हैं .एक आकाश गंगा में २०० अरब तारें हैं और अरबों आकाश गंगाएं विद्यमान हैं .सूर्य हमारी पृथ्वी का निकटतम तारा है .सूर्य पर प्रतिक्षण हीलियम और हाईड्रोजन क़े विस्फोट हो रहे हैं जिनकी ऊर्जा और प्रकाश हम पृथ्वी वासियों क़े लिए जीवन दायनी शक्ति है .प्रिज्म (prism ) से विश्लेषण करने पर पता चलता है कि सूर्य की एक किरण में ७ रंग होते हैं -

१ .बैंगनी ,२ .नीला ,३ .आसमानी ,४ .हरा ,५ .पीला ,६ .नारंगी ,७ .लाल .


हमारे प्राचीन ऋषियों ने इस तथ्य को बहुत पहले ही खोज लिया था.किन्तु महाभारत -काल क़े बाद वैदिक सिद्धांतों का क्षरण होता चला गया और कुरान की तर्ज़ पर पुराण क़े रचयिताओं ने सारे सिद्धांतों को मटियामेट कर नयी नियमावलियां  गढ़ लीं जो आज तक खूब जोर -शोर से प्रचलित हैं.सूर्य की किरण क़े सात रंगों को ७ घोड़ों में तब्दील कर दिया गया और दुष्प्रचारित किया जाने लगा कि सूर्य को सात घोड़ो का रथ खींच रहा है -इसी बात ने आधुनिक वैज्ञानिकों को यह कहने का मौका दे दिया कि हमारा देश जाहिलों का देश था ,वेद गडरियों क़े गीत थे ,यहाँ केवल शून्य का आविष्कार हुआ ,बाक़ी सारा विज्ञान पश्चिम की देन है -आदि ,आदि.

सारे तीज -त्यौहार गलत मान्यताओं और गलत तरीकों से मनाये जाने लगे -आज भी वही प्रक्रिया जारी है.
गलत बातें कितनी तेज़ी से फैलती हैं उसका एक नमूना प्रस्तुत है :

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी  को 'सूर्य षष्ठी' कहते  हैं  जो बिहार में बड़ी धूम -धाम से चार दिनों तक मनाई जाती है ;अब पूरे देश में उसका प्रचलन बढ़ता जा रहा है .
लेकिन कहीं भी इसे मनाने में कोई वैज्ञानिक आधार नहीं लिया जा रहा है. मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से आस्था और विश्वास क़े आधार पर कई लोग लाभ प्राप्त होने की तसल्ली भर कर सकते हैं .
वस्तुतः १६ जूलाई को दक्षिणायन होने क़े बाद मध्य अक्टूबर में सूर्य तुला राशि में आ जाता है जोकि,सूर्य की नीच राशि है. इस समय पृथ्वी से अधिक दूर होने क़े कारण सूर्य का ताप कुछ क्षीण प्राप्त होता है. उधर खरीफ की फसलें पक कर तैयार हो चुकती  हैं अतः इस समय दीपावली क़े बाद कार्तिक शुक्ल षष्ठी पर विशेष सूर्य उपासना का विधान रखा गया था ,जिसे विकृत रूप में हम व्यापक रूप से फैलते देख रहे हैं .
                      
 वैदिक (वैज्ञानिक ) पद्धति

पदार्थ विज्ञान (Material -Science ) क़े आधार पर जिस हवन पद्धति को हमारे ऋषियों ने अपनाया था उसमे  यजुर्वेद क़े अध्य्याय ३ क़े मन्त्र सं .९ और १० द्वारा सूर्य स्तुति की आहुतियाँ ही पहले -पहल सामग्री क़े साथ दैनिक होम में भी दी  जाती हैं उससे पूर्व १२ आहुतियों में सामग्री का प्रयोग नहीं करते हैं. ३ में समिधा औए ९ में केवल  घी का ही प्रयोग करतेहैं :-

पहली आहुति -ॐ सूर्यो ज्योति ज्योर्तिः सूर्यः स्वाहा -अर्थात सूर्य क़े प्रकाश क़े प्रकाशक परमात्मा की प्रसंन्त्ता क़े लिए हम स्तुति करते हैं.
दूसरी आहुति -ॐ सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चा : स्वाहा -अर्थात सर्वविद्ध्या और ज्ञान क़े दाता सर्वेश्वर क़े अनुग्रह क़े लिए हम स्तुति करते हैं .
तीसरी आहुति -ॐ ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा -अर्थात जिसकी ज्योति से सारा जगत जगमग हो रहा ,उसी जगदीश्वर की प्रसंन्त्ता क़े लिए हम स्तुति करते हैं.
चौथी आहुति -ॐ सजूदेर्वेन सवित्रा    सजूरुषसेन्द्र्वत्या जुषाण:   सूर्यो वेतु स्वाहा -अर्थात सर्व लोक में व्यापक सर्व -शक्तिमान सर्वनियन्ता सर्वेश्वर की प्रीती प्राप्त करने क़े लिए हम स्तुति करते हैं.

अग्निहोत्र से पूर्व मनसा परिक्रमा क़े प्रथम मन्त्र "ॐ प्राची....." द्वारा भी सूर्य की ही सर्वप्रथम आराधना की गयी है:-



हे ज्ञानमय प्रकाशक!बंधन विहीन प्यारा
प्राची में रम रहा तू रक्षक पिता हमारा
रवि -रश्मियों से जीवन पोषण विकास पाता.
अज्ञान क़े अँधेरे में तू ,प्रभा दिखाता
हम बार बार भगवन!करते तुम्हे नमस्ते
जो द्वेष हों परस्पर वह तेरे न्याय हस्ते

उपस्थान मन्त्रों में भी प्रथम तीन मन्त्र सूर्य आहुति क़े ही हैं:-

रवि -रश्मि क़े रमैय्या! पावन प्रभो दिखा दो 
अज्ञान की तमिस्त्रा भू लोक से मिटा दो 
देवों क़े देव !दिन दिन हो दिव्य दृष्टि प्यारी
श्रुति ज्ञान को न भूलें रसना कभी हमारी
(यजुर्वेद अध्याय ५ मन्त्र १४ का पद्यानुवाद)

इन वाह्य चक्षुओं से वह दृष्टि में न आया
चाहा पता लगाना उसका पता न पाया
हो कर निराश जब मैं घर लौटा आ रहा था
सृष्टि का ज़र्रा ज़र्रा प्रभु गान गा रहा था
दर्शन प्रभु क़े कर क़े जब मन मरे न माना
भर कर खुशी में उसने गाया नया तराना
जीवन में ज्योति प्राणों में प्रेरणा तुम्ही हो
मन में मनन ,बदन में नव चेतना तुम्हीं हो.
(यजुर्वेद अध्याय ३३ मन्त्र ३१ पद्यानुवाद)

अद्भुत स्वरुप तेरा,तेरी अपूर्व करनी
हैं आप में अवस्थित द्यौ अन्तरिक्ष अवनी
तेरी कृपा से प्रभुवर !सच्चा प्रकाश पाया 
श्रद्धा की अंजलि ले तेरे समीप आया
(यजुर्वेद अध्याय ७ मन्त्र ४२ का पद्यानुवाद) 

आप और हम सब देखेंगे इस बार भी छठ-पूजा क़े नाम पर अधर्म (ढोंग व पाखण्ड )का बोल -बाला कोई भी सूर्य क़े निमित्त हवन -आहुति नहीं करेगा और सूर्य का सबसे बड़ा पुजारी बनेगा. सूर्य मन्त्र से दी  गई आहुति का धूम्र वायु द्वारा तत्काल सूर्य तारा तक पहुँच जाता है जब कि यह अर्ध्य, यह फल -दान आदि आदि इसी पृथ्वी पर रह कर नष्ट हो जाते हैं .दैनिक रूप में सूर्य की उपासना और हवन ५ हज़ार वर्ष पूर्व तक होते थे अब तो विशेष सूर्य पर्वों पर भी नहीं होते ;जबकि सूर्य षष्ठी तो सार्वजनिक रूप से हवन करने का पर्व होना चाहिए था. लेकिन हम लोग तो आज के दिन  भी हवन ही करते  हैं.हवन की समाप्ति पर शान्ति -पाठ से पूर्व होने वाली सूर्य स्तुति आप भी सुन सकते हैं :-  





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06-11-2016 

Saturday, October 25, 2014

'चित्रगुप्त ' और 'कायस्थ' क्या हैं ? ------ विजय राजबली माथुर


  प्रतिवर्ष विभिन्न कायस्थ समाजों की ओर से देश भर मे भाई-दोज के अवसर पर कायस्थों के उत्पत्तिकारक के रूप मे 'चित्रगुप्त जयंती'मनाई जाती है ।  'कायस्थ बंधु' बड़े गर्व से पुरोहितवादी/ब्राह्मणवादी कहानी को कह व सुना तथा लिख -दोहरा कर प्रसन्न होते रहे हैं। परंतु सच्चाई को न कोई समझना चाह रहा है न कोई बताना चाह रहा है।
 आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा मे दीपावली पर्व के प्रवचनों मे स्वामी स्वरूपानन्द जी ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था और उनसे पूर्व प्राचार्य उमेश चंद्र कुलश्रेष्ठ जी ने पूर्ण सहमति व्यक्त की थी। आज उनके ही शब्दों को आप सब को भेंट करता हूँ। ---

"प्रत्येक प्राणी के शरीर मे 'आत्मा' के साथ 'कारण शरीर' व 'सूक्ष्म शरीर' भी रहते हैं। यह भौतिक शरीर तो मृत्यु होने पर नष्ट हो जाता है किन्तु 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म शरीर' आत्मा के साथ-साथ तब तक चलते हैं जब तक कि,'आत्मा' को मोक्ष न मिल जाये। इस सूक्ष्म शरीर मे -'चित्त'(मन)पर 'गुप्त'रूप से समस्त कर्मों-सदकर्म,दुष्कर्म और अकर्म अंकित होते रहते हैं। इसी प्रणाली को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है। इन कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद पुनः दूसरा शरीर और लिंग इस 'चित्रगुप्त' मे अंकन के आधार पर ही मिलता है। अतः यह  पर्व 'मन'अर्थात 'चित्त' को शुद्ध व सतर्क रखने के उद्देश्य से मनाया जाता था। इस हेतु विशेष आहुतियाँ हवन मे दी जाती थीं।" 

आज कोई ऐसा नहीं करता है। बाजारवाद के जमाने मे भव्यता-प्रदर्शन दूसरों को हेय समझना आदि ही ध्येय रह गया है। यह विकृति और अप-संस्कृति है। काश लोग अपने अतीत को पहचान सकें और समस्त मानवता के कल्याण -मार्ग को पुनः अपना सकें। हमने तो लोक-दुनिया के प्रचलन से हट कर मात्र हवन की पद्धति को ही अपना लिया  है।


इस पर्व को एक जाति-वर्ग विशेष तक सीमित कर दिया गया है।

  पौराणिक-पोंगापंथी -ब्राह्मणवादी व्यवस्था मे जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
 'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित। 
'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म से अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति। 


आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव जब अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। क्योंकि ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे  अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी  अस्पताल मे आज भी जेनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही लिखा मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-


1- जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 

2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 
3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको  'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 
4-जो लोग विभिन्न  सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने तथा इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य माना जाता था। 

ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ  ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था। ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे।


 कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके  शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता  आधारित उपाधि-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया। खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है। 





यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुये भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।
  इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
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Thursday, October 23, 2014

देश को फिर गुलाम होने से बचाना है तो ढोंग-पाखंड को ठुकरा कर दयानंद के बताये मार्ग पर चलना ही होगा---विजय राजबली माथुर






भारतीय संस्कृति में विविधता व अनेकता तो है परन्तु साथ ही साथ वह कुछ  मौलिक सूत्रों द्वारा एकता में भी आबद्ध हैं.हमारे यहाँ धर्म की अवधारणा-धारण करने योग्य से है.हमारे देश में धर्म का प्रवर्तन किसी महापुरुष विशेष द्वारा नहीं हुआ है जिस प्रकार इस्लाम क़े प्रवर्तक हजरत मोहम्मद व ईसाईयत क़े प्रवर्तक ईसा मसीह थे.हमारे यहाँ राम अथवा कृष्ण धर्म क़े प्रवर्तक नहीं बल्कि धर्म की ही उपज थे.राम और कृष्ण क़े रूप में मोक्ष -प्राप्त आत्माओं का अवतरण धर्म की रक्षा हेतु ही,बुराइयों पर प्रहार करने क़े लिये हुआ था.उन्होंने कोई व्यक्तिगत धर्म नहीं प्रतिपादित किया था.आज जिन मतों को विभिन्न धर्म क़े नाम से पुकारा जा रहा है ;वास्तव में वे भिन्न-भिन्न उपासना-पद्धतियाँ हैं न कि,कोई धर्म अलग से हैं.लेकिन आप देखते हैं कि,लोग धर्म क़े नाम पर भी विद्वेष फैलाने में कामयाब हो जाते हैं.ऐसे लोग अपने महापुरुषों क़े आदर्शों को सहज ही भुला देते हैं.आचार्य श्री राम शर्मा गायत्री परिवार क़े संस्थापक थे और उन्होंने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा था -"उन्हें मत सराहो जिनने अनीति पूर्वक सफलता पायी और संपत्ति कमाई."लेकिन हम देखते हैं कि,आज उन्हीं क़े परिवार में उनके पुत्र व दामाद इसी संपत्ति क़े कारण आमने सामने टकरा रहे हैं.गायत्री परिवार में दो प्रबंध समितियां बन गई हैं.अनुयायी भी उन दोनों क़े मध्य बंट गये हैं.कहाँ गई भक्ति?"भक्ति"शब्द ढाई अक्षरों क़े मेल से बना है."भ "अर्थात भजन .कर्म दो प्रकार क़े होते हैं -सकाम और निष्काम,इनमे से निष्काम कर्म का (आधा क) और त्याग हेतु "ति" लेकर "भक्ति"होती है.आज भक्ति है कहाँ? 
महर्षि दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना धर्म में प्रविष्ट कुरीतियों को समाप्त करने हेतु ही एक आन्दोलन क़े रूप में की थी.नारी शिक्षा,विधवा-पुनर्विवाह ,जातीय विषमता की समाप्ति की दिशा में महर्षि दयानंद क़े योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता.आज उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज में क्या हो रहा है-गुटबाजी -प्रतिद्वंदिता .
काफी अरसा पूर्व आगरा में आर्य समाज क़े वार्षिक निर्वाचन में गोलियां खुल कर चलीं थीं.यह कौन सी अहिंसा है?जिस पर स्वामी जी ने सर्वाधिक बल दिया था. स्वभाविक है कि, यह सब नीति-नियमों की अवहेलना का ही परिणाम है,जबकि आर्य समाज में प्रत्येक कार्यक्रम क़े समापन पर शांति-पाठ का विधान है.यह शांति-पाठ यह प्रेरणा देता है कि, जिस प्रकार ब्रह्माण्ड में विभिन्न तारागण एक नियम क़े तहत अपनी अपनी कक्षा (Orbits ) में चलते हैं उसी प्रकार यह संसार भी जियो और जीने दो क़े सिद्धांत पर चले.परन्तु एरवा कटरा में गुरुकुल चलाने  वाले एक शास्त्री जी ने रेलवे क़े भ्रष्टतम व्यक्ति जो एक शाखा क़े आर्य समाज का प्रधान भी रह चुका था क़े भ्रष्टतम सहयोगी क़े धन क़े बल पर एक ईमानदार कार्यकर्ता पर प्रहार किया एवं सहयोग दिया पुजारी व पदाधिकारियों ने तो क्या कहा जाये कि, आज सत्यार्थ-प्रकाश क़े अनुयायी ही सत्य का गला घोंट कर ईमानदारी का दण्ड देने लगे हैं.यह सब धर्म नहीं है.परन्तु जन-समाज ऐसे लोगों को बड़ा धार्मिक मान कर उनका जय-जयकारा करता है. 
आज जो लोगों को उलटे उस्तरे से मूढ़ ले जाये उसे ही मान-सम्मान मिलता है.ऐसे ही लोग धर्म व राजनीति क़े अगुआ बन जाते हैं.ग्रेषम का अर्थशास्त्र में एक सिद्धांत है कि,ख़राब मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है.ठीक यही हाल समाज,धर्म व राजनीति क़े क्षेत्र में चल रहा है.

दुनिया लूटो,मक्कर से.
रोटी खाओ,घी-शक्कर से.
   एवं
अब सच्चे साधक धक्के खाते हैं .
फरेबी आज मजे-मौज  उड़ाते हैं.
आज बड़े विद्वान,ज्ञानी और मान्यजन लोगों को जागरूक होने नहीं देना चाहते,स्वजाति बंधुओं की उदर-पूर्ती की खातिर नियमों की गलत व्याख्या प्रस्तुत कर देते हैं.राम द्वारा शिव -लिंग की पूजा किया जाना बता कर मिथ्या सिद्ध करना चाहते हैं कि, राम क़े युग में मूर्ती-पूजा थी और राम खुद मूर्ती-पूजक थे. वे यह नहीं बताना चाहते कि राम की शिव पूजा का तात्पर्य भारत -भू की पूजा था. वे यह भी नहीं बताना चाहते कि, शिव परमात्मा क़े उस स्वरूप को कहते हैं कि, जो ज्ञान -विज्ञान का दाता और शीघ्र प्रसन्न होने वाला है. ब्रह्माण्ड में चल रहे अगणित तारा-मंडलों को यदि मानव शरीर क़े रूप में कल्पित करें तो हमारी पृथ्वी का स्थान वहां आता है जहाँ मानव शरीर में लिंग होता है.यही कारण है कि, हम पृथ्वी -वासी शिव का स्मरण लिंग रूप में करते हैं और यही राम ने समझाया भी होगा न कि, स्वंय ही  लिंग बना कर पूजा की होगी. स्मरण करने को कंठस्थ करना कहते हैं न कि, उदरस्थ करना.परन्तु ऐसा ही समझाया जा रहा है और दूसरे विद्वजनों से अपार प्रशंसा भी प्राप्त की जा रही है. यही कारण है भारत क़े गारत होने का.
जैसे सरबाईना और सेरिडोन क़े विज्ञापनों में अमीन सायानी और हरीश भीमानी जोर लगते है अपने-अपने उत्पाद की बिक्री का वैसे ही उस समय जब इस्लाम क़े प्रचार में कहा गया कि हजरत सा: ने चाँद क़े दो टुकड़े  कर दिए तो जवाब आया कि, हमारे भी हनुमान ने मात्र ५ वर्ष की अवस्था में सूर्य को निगल लिया था अतः हमारा दृष्टिकोण श्रेष्ठ है. परन्तु दुःख और अफ़सोस की बात है कि, सच्चाई साफ़ करने क़े बजाये ढोंग को वैज्ञानिकता का जामा ओढाया जा रहा है.
यदि हम अपने देश  व समाज को पिछड़ेपन से निकाल कर ,अपने खोये हुए गौरव को पुनः पाना चाहते हैं,सोने की चिड़िया क़े नाम से पुकारे जाने वाले देश से गरीबी को मिटाना चाहते हैं,भूख और अशिक्षा को हटाना चाहते हैंतो हमें "ॐ नमः शिवाय च "क़े अर्थ को ठीक से समझना ,मानना और उस पर चलना होगा तभी हम अपने देश को "सत्यम,शिवम्,सुन्दरम"बना सकते हैं.आज की युवा पीढी ही इस कार्य को करने में सक्षम हो सकती है.अतः युवा -वर्ग का आह्वान है कि, वह सत्य-न्याय-नियम और नीति पर चलने का संकल्प ले और इसके विपरीत आचरण करने वालों को सामजिक उपेक्षा का सामना करने पर बाध्य कर दे तभी हम अपने भारत का भविष्य उज्जवल बना सकते हैं.काश ऐसा हो सकेगा?हम ऐसी आशा तो संजो ही सकते हैं.
" ओ ३ म *नमः शिवाय च" कहने पर उसका मतलब यह होता है.:-
*अ +उ +म अर्थात आत्मा +परमात्मा +प्रकृति 
च अर्थात तथा/ एवं / और 
शिवाय -हितकारी,दुःख हारी ,सुख-स्वरूप 
नमः नमस्ते या प्रणाम या वंदना या नमन
 हम देखते हैं ,आज आर्य समाज को भी आर.एस.एस.ने जकड लिया है और वहां से भी 'आर्य'की बजाये विदेशियों द्वारा दिए गए नाम का उच्चारण होने लगा है.1875 में महर्षि स्वामी दयानंद ने (१८५७ की क्रांति में भाग लेने और उसकी विफलता से सबक के बाद)'आर्यसमाज'की स्थापना देश की आजादी के लिए की थी.कलकत्ता में कर्नल नार्थ ब्रुक से भेंट कर शीघ्र स्वाधीनता की कामना करने पर उसने रानी विक्टोरिया को लिखे पत्र में कहा-"दयानंद एक बागी फ़कीर है (Revolutionary Saint )"इलाहबाद हाई कोर्ट में उन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाया गया.महर्षि ने अपने जीवन काल में जितने भी आर्य समाजों की स्थापना की वे छावनियों वाले शहर थे.दादा भाई नौरोजी ने कहा है-"सर्व प्रथम स्वराज्य शब्द महर्षि दयानंद के "सत्यार्थ प्रकाश"में पढ़ा". 'कांग्रेस का इतिहास ' में डॉ.पट्टाभी सीता राम्माय्या ने लिखा है स्वतंत्रता आन्दोलन के समय जेल जाने वालों में ८५ प्रतिशत व्यक्ति आर्य समाजी होते थे.
आर्य समाज को क्षीण करने हेतु रिटायर्ड आई.सी.एस. जनाब ए.ओ.ह्युम की मार्फ़त वोमेश चन्द्र बेनर्जी के नेतृत्त्व में इन्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना सेफ्टी वाल्व के रूप में हुयी थी लेकिन दयान्द के इशारे पर आर्य समाजी इसमें प्रवेश करके स्वाधीनता की मांग करने लगे.
१९०५ में बंगाल का असफल विभाजन करने के बाद १९०६ में ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन को मोहरा बना कर मुस्लिम लीग तथा १९२० में कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेताओं (मदन मोहन मालवीय,लाला लाजपत राय आदि) को आगे कर हिन्दू महासभा का गठन फूट डालो और राज करो की नीति के तहत (ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दुर्नीति ) हुआ एवं एच.एम्.एस.के मिलिटेंट संगठन के रूप में आर.एस.एस.अस्तित्व में आया जो आज आर्य समाज को विचलित कर रहा है.नतीजा फिर से ढोंग-पाखंड को बढ़ावा मिल रहा है.
अब यदि देश को फिर गुलाम होने से बचाना है तो ढोंग-पाखंड को ठुकरा कर दयानंद के बताये मार्ग पर चलना ही होगा.'आर्याभी विनय ' के एक मन्त्र की व्याख्या करते हुए महर्षि लिखते हैं-"हे परमात्मन हमारे देश में कोई विदेशी शासक न हो आर्यों का विश्व में चक्रवर्त्ति साम्राज्य हो" (ये सम्पूर्ण तथ्य श्री रामावतार शर्मा द्वारा "निष्काम परिवर्तन "पत्रिका के मार्च १९९९ में लिखित लेख से लिए गए हैं)



  ~विजय राजबली माथुर ©
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Tuesday, October 21, 2014

धन्वन्तरी जयंती :धन तेरस ---विजय राजबली माथुर

आज धनतेरस अर्थात धन्वन्तरी जयंती है आज से पाँच दिनों तक स्वस्थ्य रक्षा के पर्व प्रारम्भ हैं किन्तु बाज़ार जनता को अस्वस्थ बनाने का सामान जुटाये हुये हैं जिनसे बचना ही खुशियाँ मनाना होगा ---


 


 दीपावली पर्व धन तेरस से शुरू होकर भाई दूज तक पाँच दिन मनाया जाता है .इस पर्व को मनाने क़े बहुत से कारण एवं मत हैं .जैन मतावलम्बी महावीर जिन क़े परिनिर्वाण तथा आर्य समाजी महर्षि दयानंद सरस्वती क़े परिनिर्वाण दिवस क़े रूप में दीपावली की अमावस्या को दीप रोशन करते हैं .शेष अवधारणा यह है कि चौदह वर्षों क़े वनवास क़े बाद श्री राम अयोध्या इसी दिन लौटे थे ,इसलिए दीपोत्सव करते हैं .

हमारा भारत वर्ष कृषि -प्रधान था और अब भी है .हमारे यहाँ दो मुख्य फसलों रबी व खरीफ क़े काटने पर होली व दीपावली पर्व रखे गए .मौसम क़े अनुसार इन्हें मनाने की विधि में अंतर रखा गया परन्तु होली व दीवाली हेतु वैदिक आहुतियों में ३१ मन्त्र एक ही हैं .दोनों में नए पके अन्न शामिल किये जाते हैं .होली क़े हवन में गेहूं ,जौ,चना आदि की बालियों को आधा पका कर सेवन करने से आगे गर्मियों में लू से बचाव हो जाता है .दीपावली पर मुख्य रूप से धान और उससे बने पदार्थ खील आदि नये गन्ने क़े रस से बने गुड खांड ,शक्कर आदि क़े बने बताशे -खिलौने आदि हवन में शामिल करने का विधान था .इनके सेवन से आगे सर्दियों में कफ़ आदि से बचाव हो जाता है .


आज भौतिक प्रगति और आध्यात्मिक अवनति  क़े युग में होली और दीवाली दोनों पर्व वैज्ञानिक पद्धति से हट कर मनाये जा रहे हैं .होली पर अबीर ,गुलाल और टेसू क़े फूलों का स्थान रासायनिक रंगों ने ले लिया है जिसने इस पर्व को विकृत कर दिया है .दीपावली पर पटाखे -धमाके किये जाने लगे हैं जो आज क़े मनुष्य की क्रूरता को उजागर करते हैं .मूल पर्व की अवधारणा सौम्य और सामूहिक थी .अब ये दोनों पर्व व्यक्ति की सनक ,अविद्या ,आडम्बर आदि क़े प्रतीक बन गए हैं .इन्हें मनाने क़े पीछे अब समाज और राष्ट्र की उन्नति या मानव -कल्याण उद्देश्य नहीं रह गया है.

दीपावली का प्रथम दिन अब धन -तेरस क़े रूप में मनाते हैं जिसमे  नया बर्तन खरीदना अनिवार्य बताया जाता है और भी बहुत सी खरीददारियां की जाती हैं .एक वर्ग -विशेष को तो लाभ हो जाता है शेष सम्पूर्ण जनता ठगी जाती है. आयुर्वेद जगत क़े आदि -आचार्य धन्वन्तरी का यह जनम -दिन है जिसे धन -तेरस में बदल कर विकृत कर दिया गया है  धनतेरस बाज़ारों में मना ली जायेगी क्योंकि उसका ताल्लुक मानव -स्वास्थ्य क़े कल्याण से नहीं चमक -दमक ,खरीदारी से है.



आचार्य -धन्वन्तरी आयुर्वेद क़े जनक थे .आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है .इस चिकित्सा -पद्धति में प्रकृति क़े पञ्च -तत्वों क़े आधार पर आरोग्य किया जाता है .
भूमि +जल =कफ़
वायु +आकाश = वात
अग्नि  = पित्त

पञ्च -तत्वों को आयुर्वेद में वात ,पित्त ,कफ़ तीन वर्गों में गिना जाता है .जब तक ये तत्व शरीर को धारण करते हैं धातु कहलाते हैं ,जब शरीर को दूषित करने लगते हैं तब दोष और जब शरीर को मलिन करने लगते हैं तब मल कहलाते हैं .कलाई -स्थित नाडी पर तर्जनी ,मध्यमा और अनामिका उँगलियों को रख कर अनुमान लगा लिया जाता है कि शरीर में किस तत्व की प्रधानता या न्यूनता चल रही है और उसी क़े अनुरूप रोगी का उपचार किया जाता है .(अ )तर्जनी से वात ,(ब )मध्यमा से पित्त तथा (स )अनामिका से कफ़ का ज्ञान किया जाता है .

ज्योतिष में हम सम्बंधित तत्व क़े अधिपति ग्रह क़े मन्त्रों का प्रयोग करके तथा उनके अनुसार हवन में आहुतियाँ दिलवा कर उपचार करते हैं .साधारण स्वास्थ्य -रक्षा हेतु सात मन्त्र उपलब्ध हैं और आज की गंभीर समस्या सीजेरियन से बचने क़े लिए छै विशिष्ट मन्त्र उपलब्ध हैं जिनके प्रयोग से सम्यक उपचार संभव है .एक प्रख्यात आयुर्वेदाचार्य (और ज्योतिषी  ) जी ने पंजाब -केसरी में जनता की सुविधा क़े लिए बारह बायोकेमिक दवाईओं को बारह राशियों क़े अनुसार प्रयोगार्थ एक सूची लगभग सत्ताईस वर्ष पूर्व दी थी उसे आपकी जानकारी क़े लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ .सूर्य की चाल पर आधारित इस राशि क्रम  में बायोकेमिक औषद्धि का प्रयोग करके स्वस्थ रहा जा सकता है और रोग होने पर उस रोग की दवाई क़े साथ इस अतिरिक्त दवाई का प्रयोग जरनल टॉनिक क़े रूप में किया जा सकता है :-
       
बायोकेमिक दवाईयां होम्योपैथिक स्टोर्स पर ही मिलती हैं और इनमे कोई साईड इफेक्ट  या रिएक्शन नहीं होता है ,इसलिए स्वस्थ व्यक्ति भी इनका सेवन कर सकते हैं .इन्हें 6 x  शक्ति में 4 T D S ले सकते हैं .
अंग्रेजी  कहावत है -A healthy  mind  in  a healthy body  लेकिन मेरा मानना है कि "Only  the healthy  mind will keep the body healthy ."मेरे विचार की पुष्टि यजुर्वेद क़े अध्याय ३४ क़े (मन्त्र १ से ६) इन छः  वैदिक मन्त्रों से भी होती है . इन मन्त्रों का पद्यात्माक भावानुवाद  श्री ''मराल'' जी ने किया है आप भी सुनिये और अमल कीजिए :-
  




आप क़े मानसिक -शारीरिक स्वास्थ्य की खुशहाली ही हमारी दीवाली है .आप को सपरिवार दीपावली की शुभकामनाएं .


 ब मैंने 'आयुर्वेदिक दयानंद मेडिकल कालेज,'मोहन नगर ,अर्थला,गाजियाबाद  से आयुर्वेद रत्न किया था तो प्रमाण-पत्र के साथ यह सन्देश भी प्राप्त हुआ था-"चिकित्सा समाज सेवा है-व्यवसाय नहीं".मैंने इस सन्देश को आज भी पूर्ण रूप से सिरोधार्य किया हुआ है और लोगों से इसी हेतु मूर्ख का ख़िताब प्राप्त किया हुआ है.वैसे हमारे नानाजी और बाबाजी भी लोगों को निशुल्क दवायें दिया करते थे.नानाजी ने तो अपने दफ्तर से अवैतनिक छुट्टी लेकर  बनारस जा कर होम्योपैथी की बाकायदा डिग्री हासिल की थी.हमारे बाबूजी भी जानने वालों को निशुल्क दवायें दे दिया करते थे.मैंने मेडिकल प्रेक्टिस न करके केवल परिचितों को परामर्श देने तक अपने को सीमित रखा है.इसी डिग्री को लेकर तमाम लोग एलोपैथी की प्रेक्टिस करके मालामाल हैं.एलोपैथी हमारे कोर्स में थी ,परन्तु इस पर मुझे भी विशवास नहीं है.अतः होम्योपैथी और आयुर्वेदिक तथा बायोकेमिक दवाओं का ही सुझाव देता हूँ.


एलोपैथी चिकित्सक अपने को वरिष्ठ मानते है और इसका बेहद अहंकार पाले रहते हैं.यदि सरकारी सेवा पा गये तो खुद को खुदा ही समझते हैं.जनता भी डा. को दूसरा भगवान् ही कहती है.आचार्य विश्वदेव जी कहा करते थे -'परहेज और परिश्रम' सिर्फ दो ही वैद्द्य है जो इन्हें मानेगा वह कभी रोगी नहीं होगा.उनके प्रवचनों से कुछ चुनी हुयी बातें यहाँ प्रस्तुत हैं-

उषापान-उषापान करके पेट के रोगों को दूर कर निरोग रहा जा जा सकता है.इसके लिए ताम्बे के पात्र में एक लीटर पानी को उबालें और ९९० मि.ली.रह जाने पर चार कपड़ों की तह बना कर छान कर ताम्बे के पात्र में रख लें इसी अनुपात में पानी उबालें.प्रातः काल में सूर्योदय से पहले एक ग्लास से प्रारम्भ कर चार ग्लास तक पियें.यही उषा पान है.

बवासीर-बवासीर रोग सूखा  हो या खूनी दस से सौ तक फिर सौ से दस तक पकी निम्बोली का छिलका उतार कर प्रातः काल निगलवा कर कल्प करायें,रोग सदा के लिए समाप्त होगा.

सांप का विष-सांप द्वारा काटने पर उस स्थान को कास कर बाँध दें,एक घंटे के भीतर नीला थोथा तवे पर भून कर चने के बराबर मात्रा में मुनक्का का बीज निकल कर उसमें रख कर निगलवा दें तो विष समाप्त हो जायेगा.
बिच्छू दंश-बिच्छू के काटने पर (पहले से यह दवा तैयार कर रखें) तुरंत लगायें ,तुरंत आराम होगा.दवा तैयार करने के लिये बिच्छुओं को चिमटी से जीवित पकड़ कर रेकटिफ़ाईड स्प्रिट में डाल दें.गलने पर फ़िल्टर से छान कर शीशी में रख लें.बिच्छू के काटने पर फुरहरी से काटे स्थान पर लगायें.

डायबिटीज-मधुमेह की बीमारी में नीम,जामुन,बेलपत्र की ग्यारह-ग्यारह कोपलें दिन में तीन बार सेवन करें अथवा कृष्ण गोपाल फार्मेसी ,अजमेर द्वारा निर्मित औषधियां  -(१)शिलाज्लादिव्री की दो-दो गोली प्रातः-सायं दूध के साथ तथा (२) दोपहर में गुद्च्छादिबूरीके अर्क के साथ सेवन करें.

थायराड-इस रोग में दही,खट्टे ,ठन्डे,फ्रिज के पदार्थों से परहेज करें.यकृतअदि लौह पानी के साथ तथा मंडूर भस्म शहद के सेवन करें.लाभ होगा.

श्वेत दाग-श्वेत्रादी रस एक-एक गोली सुबह -शाम बापुच्यादी चूर्ण पानी से सेवन करें.
(मेरी राय में इसके अतिरिक्त बायोकेमिक की साईलीशिया 6 X का 4 T D S  सेवन शीघ्र लाभ दिलाने में सहायक होगा)

आज रोग और प्रदूषण वृद्धि  क्यों?-आचार्य विश्वदेव जी का मत था कि नदियों में सिक्के डालने की प्रथा आज फिजूल और हानिप्रद है क्योंकि अब सिक्के एल्युमिनियम तथा स्टील के बनते हैं और ये धातुएं स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद हैं.जब नदियों में सिक्के डालने की प्रथा का चलन हुआ था तो उसका उद्देश्य नदियों के जल को प्रदूषण-मुक्त करना था.उस समय सिक्के -स्वर्ण,चांदी और ताम्बे के बनते थे और ये धातुएं जल का शुद्धीकरण करती हैं.अब जब सिक्के इनके नहीं बनते हैं तो लकीर का फ़कीर बन कर विषाक्त धातुओं के सिक्के नदी में डाल कर प्रदूषण वृद्धी नहीं करनी चाहिए.

 नदी जल के प्रदूषित होने का एक बड़ा कारण आचार्य विश्वदेव जी मछली -शिकार को भी मानते थे.उनका दृष्टिकोण था कि कछुआ और मछली जल में पाए जाने वाले बैक्टीरिया और काई को खा जाते थे जिससे जल शुद्ध रहता था.परन्तु आज मानव इन प्राणियों  का शिकार कर लेता है जिस कारण नदियों का जल प्रदूषित रहने लगा है.


क्षय रोग की त्रासदी-आचार्य विश्वदेव जी का दृष्टिकोण था कि मुर्गा-मुर्गियों का इंसानी भोजन के लिये शिकार करने का ही परिणाम आज टी.बी.त्रासदी के रूप में सामने है.पहले मुर्गा-मुर्गी घूरे,कूड़े-करकट से चुन-चुन कर कीड़ों का सफाया करते रहते थे.टी.बी. के थूक,कफ़ आदि को मुर्गा-मुर्गी साफ़ कर डालता था तो इन रोगों का संक्रमण नहीं हो पाता  था.किन्तु आज इस प्राणी का स्वतंत्र घूमना संभव नहीं है -फैशनेबुल लोगों द्वारा इसका तुरंत शिकार कर लिया जाता है.इसी लिये आज टी. बी. के रोगी बढ़ते जा रहे हैं.

क्या सरकारी और क्या निजी चिकित्सक आज सभी चिकित्सा को एक व्यवसाय के रूप में चला  रहे हैं.आचार्य विश्वदेव जी समाज सेवा के रूप में अपने प्रवचनों में रोगों और उनके निदान पर प्रकाश डाल कर जन-सामान्य के कल्याण की कामना किया करते थे और काफी लोग उनके बताये नुस्खों से लाभ उठा कर धन की बचत करते हुए स्वास्थ्य लाभ करते थे जो आज उनके न रहने से अब असंभव सा हो गया है.


विश्व देव  के एक प्रशंसक के नाते मैं "टंकारा समाचार",७ अगस्त १९९८ में छपे मेथी के औषधीय गुणों को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ.अभी ताजी मेथी पत्तियां बाजार में उपलब्ध हैं आप उनका सेवन कर लाभ उठा सकते हैं.मेथी में प्रोटीन ,वसा,कार्बोहाईड्रेट ,कैल्शियम,फास्फोरस तथा लोहा प्रचुर मात्रा  में पाया जाता है.यह भूख जाग्रत करने वाली है.इसके लगातार सेवन से पित्त,वात,कफ और बुखार की शिकायत भी दूर होती है.
पित्त दोष में-मेथी की उबली हुयी पत्तियों को मक्खन में तल  कर खाने से लाभ होता है.

गठिया में-गुड,आटा और मेथी से बने लड्डुओं से सर्दी में लाभ होता है.


प्रसव के बाद-मेथी बीजों को भून कर बनाये लड्डुओं के सेवन से स्वास्थ्य-सुधार तथा स्तन में दूध की  मात्रा बढ़ती  है.


कब्ज में-रात को सोते समय एक छोटा चम्मच मेथी के दाने निगल कर पानी पीने से लाभ होता है.यह
एसीडिटी ,अपच,कब्ज,गैस,दस्त,पेट-दर्द,पाचन-तंत्र की गड़बड़ी में लाभदायक है.

आँतों की सफाई के लिये-दो चम्मच मेथी के दानों को एक कप पानी में उबाल कर छानने के बाद चाय बना कर पीने से लाभ होता है.

पेट के छाले-दूर करने हेतु नियमित रूप से मेथी का काढ़ा पीना चाहिए.

बालों का गिरना-रोकने तथा बालों की लम्बाई बढ़ने के लिये दानों के चूर्ण का पेस्ट लगायें.

मधुमेह में-मेथी पाउडर का सेवन दूध के साथ करना चाहिए.
मुंह के छाले-दूर करने हेतु पत्ते के अर्क से कुल्ला करना चाहिए.

मुंह की दुर्गन्ध -दूर करने हेतु दानों को पानी में उबाल कर कुल्ला करना चाहिए.

आँखों के नीचे का कालापन -दूर करने के लिये दानों को पीस कर पेस्ट की तरह लगायें.

कान बहना-रोकने हेतु दानों को दूध में पीस कर छानने के बाद हल्का गर्म करके कान में डालें.

रक्त की कमी में-दाने एवं पत्तों का सेवन लाभकारी है.

गर्भ-निरोधक-मेथी के चूर्ण तथा काढ़े से स्नायु रोग,बहु-मूत्र ,पथरी,टांसिल्स,रक्त-चाप तथा मानसिक तनाव और सबसे बढ़ कर गर्भ-निरोधक के रूप में लाभ होता है.

आज के व्यवसायी करण के युग में निशुल्क सलाह देने को हिकारत की नजर से देखा जाता है.आप भी पढ़ कर नजर-अंदाज कर सकते हैं.



  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
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29-10-2016 





Saturday, October 11, 2014

सत्य को स्वीकार न करना ही सहमति-असहमति के विवाद का हेतु है---विजय राजबली माथुर

सत्य क्या है ?:


धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।

भगवान =भ (भूमि-ज़मीन  )+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I(अनल-अग्नि)+न (जल-पानी) ।

चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इसलिए ये ही खुदा हैं।

इनका कार्य G(जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय) है अतः यही GOD हैं।

https://www.facebook.com/virendra.yadav.50159836/posts/807623739288327

मूल समस्या सत्य को नकार कर असत्य में उलझे रहने के कारण उत्पन्न हुई है। वास्तविक 'धर्म,खुदा या भगवान या गाड' अलग-अलग नहीं हैं परंतु अपनी-अपनी दुकान चलाने के लिए विभिन्न व्यापारियों ने अपने-अपने शो रूम जो खोले हुये हैं उनको ढ़ोंगी-पाखंडी-आडंबरधारी शोषक और लुटेरे 'धर्म' कह कर जनता को उल्टे उस्तरे से मूंढते हैं। परंतु दुर्भाग्य तो यह है कि तथाकथित प्रगतिशील-वामपंथी भी उन खुराफ़ातों को ही धर्म की संज्ञा देते हैं साथ ही वास्तविक धर्म का विरोध करते हैं इसलिए जनता कुचक्र में फँसने को विवश है। 

सुरेश चंद्र मिश्र जी ने अथर्व-वेद पर आधारित चिकित्सा-विज्ञान के निष्कर्षों को सार्वजनिक किया था जिनको 13 अप्रैल 2008 को 'हिंदुस्तान',आगरा ने प्रकाशित किया था उसकी स्कैन प्रस्तुत है इसे डबल क्लिक करके पढ़ा जा सकता है। स्पष्ट है कि ऋतु-परिवर्तन के संकर्मण काल ( नौ रात्रिकाल  ) में इन नौ औषधियों के सेवन-प्रयोग से मानव-मात्र नीरोग रह सकता है।



अब इस सत्य को कोई स्वीकार नहीं कर रहा है। ढ़ोंगी-पाखंडी-आडंबरधारी शोषक और लुटेरे लोगों ने दोनों ऋतु-परिवर्तन काल का मखौल बना कर रख दिया है जिसे लोग बाग 'अंधविश्वासी' होकर सिरोधार्य किए हुये हैं। रात्रि जागरण के नाम पर ध्वनि-प्रदूषण फैलाना,जनता को गुमराह करके अपनी जेबें भरना तथा जनता का सतत शोषण करना निर्बाध रूप से जारी है। थोथी उदारता के नाम पर एक गलत बात के प्रतिरोध के नाम पर दूसरी गलत बात का समर्थन करके प्रगतिशील विद्वान  गरिमामय वामपंथी राजनीति का फ्लेवर देकर प्रकारांतर से 'अंधविश्वास' का ही समर्थन कर रहे हैं। वामपंथ की एकता तो अलग बात है अपनी ही पार्टी में अपने ही कार्यकर्ताओं का शोषण करके उनको दिग्भ्रमित करके जो लोग कुरसियाँ पक्की करते हैं दूसरों को थोथे  आश्वासन देकर सस्ती लोकप्रियता तो हासिल कर सकते हैं परंतु न तो अपनी पार्टी का भला कर सकते हैं न ही जनता का। 

यदि चिकित्सा विज्ञान के निष्कर्षों को स्वीकार कर लिया जाता है तो न तो 'दुर्गा' द्वारा 'महिषासुर-वध ' की झूठी कहानी गढ़नी होगी और न ही उसके विरोध में साम्राज्यवाद प्रेरित 'महिषासुर' महिमामंडन की। बेवजह के तनाव व संघर्ष की नौबत आने का तो प्रश्न ही नहीं है। किन्तु 'एथीस्टवाद ' के नाम पर वास्तविक धर्म को नकार कर ढोंग-पाखंड-आडंबर-अंधविश्वास बढ़ाना जब लक्ष्य हो तो 'उदारता' का स्वांग ही किया जा सकता है। जनता को जागरूक नहीं क्योंकि परोपजीवी प्रजाति का रोजगार जो समाप्त हो जाएगा और उनको भी 'श्रम ' करना पड़ जाएगा।


  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

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12-10-2016 

11-10-2016