Thursday, March 29, 2018

29 मार्च 1857: अदिति शर्मा / सुल्तानपुर में सफदरजंग की सुर्खरू बगावत ------ कृष्ण प्रताप सिंह





29 मार्च 1857: तस्वीरों में कैद भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम की कहानी
Aditi Sharma Updated On: Mar 29, 2018 10:47 AM IST



1857 वो साल था, जो आगे आने वाले 100 सालों के लिए हिन्दुस्तान की किस्मत तय तरने वाला था. यही वो साल था जो दुनिया के इतिहास को नया मोड़ देने वाला था और भारत में स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत करने वाला था. 1857 में जो विद्रोह हुआ उसकी शुरुआत आज यानी 29 मार्च को ही हुई थी. इसी दिन मंगल पांडे ने सार्जेंट-मेजर ह्यूसन और लेफ्टिनेंट बेंपदे बाग की हत्या कर दी थी जिसके बाद उन्हें फांसी दे दी गई.


भले ही मंगल पांडे का ये विद्रोह विफल रहा हो मगर इसके बाद क्रांति की जो ज्वाला भड़की उसने आने वाले समय में पूरे देश को जलाकर रख दिया. ये ज्वाला आगे जाकर इतना विकराल रूप लेगी शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा. मंगल पांडे के इसी विद्रोह के बाद क्रांतिकारियों ने अावाज उठाना शुरू कर दिया जो धीरे-धीरे समय के साथ बढ़ता गया. उस दौर मे भारत में कुछ फोटोग्राफर थे, जिन्होंने जगह-जगह हो रहे इस विद्रोह से जुड़ी तस्वीरें खींची थी. आइए आपको दिखाते हैं उस समय से जुड़ी कुछ दुर्लभ तस्वीरें और बतातें हैं उनके पीछे की कहानियां.

यही वो पेर्टन एंफील्ड पी-53 राइफल थी जिसका इस्तेमाल 1953 में शुरू हुआ. इसी बंदूक से मंगल पांडे ने 29 मार्च 1857 को अंग्रेजों पर हमला किया था. उस दौरान इस्तेमाल होने वाली इन बंदूकों में कारतूस भरा जाता था.  29 मार्च के विद्रोह की असल वजह भी यही कारतूस ही था. दरअसल जो एंफील्ड बंदूक सिपाहियों को इस्तेमाल करने के लिए दी गईं थी उन्हें भरने के लिए कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पड़ता था और उसमे भरे हुए बारूद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस को डालना पड़ता था.


कारतूस के बाहर चर्बी लगी होती थी जो कि उसे पानी की सीलन से बचाती थी. इसी को लेकर सिपाहियों के बीच अफवाह फैल गई थी कि कारतूस में लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनाई जाती है . इससे सैनिकों को लगने लगा कि अंग्रेज उनका धर्म भ्रष्ट करवाना चाहते है. इसी वजह से कलकत्ता की बैरकपुर छावनी में मंगल पांडे ने अग्रेंजों के खिलाफ बिगुल बजा दिया. हालांकी अंग्रेजों के खिलाफ इस क्रांति के समय से पहले शुरू होने के कारण इसको हार का सामना करना पड़ा. इसी विद्रोह में मंगल पांडे ने खुद को गोली मारकर आत्महत्या करने की कोशिश भी की थी मगर इसमे वो केवल घायल ही हुए थे. इसके बाद 7 अप्रेल 1857 को मंगल पांडे को फांसी दे दी गई.
 लखनऊ (उस समय में अवध के नाम से जाना जाता था)  की सीमा पर स्थित सिकंदर बाग को अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने बनाया था. इसका नाम उन्होंने अपनी बेगम सिकंदर महल बेगम के नाम पर दिया था. 1857 के विद्रोह से यह भी अछूता नहीं रहा था. विद्रोह के दौरान जब लखनऊ की घेराबंदी की गई तो सैकड़ों भारतीय सिपाहियों ने इसी बाग में शरण ली थी. मगर 16 नवंबर 1857 को अग्रेजों ने बाग पर चढ़ाई कर हमला बोल दिया और 2000 सैनिकों को मार दिया.


इस दौरान लड़ाई में मारे गए ब्रिटिश सैनिकों को तो गहरे गड्ढे में दफना दिया गया मगर भारतीय सिपाहियों के शवों को यू हीं बाहर फेंक दिया गया. जिसके बाद इस बाग का हाल कुछ यूं हुआ कि यहां केवल कंकाल और खोपड़ियां ही नजर आने लगीं. बाग की दिवारों पर आज भी इस लड़ाई के निशान देखे जा सकते हैं. 
ये तस्वीर 1857 में शुरू ही क्रांति के दौरान दिल्ली में डेरा डालते 34th सिख पायनियर जवानों की है. ये सिख रेजीमेंट था जो सेना की सबसे खास टुकड़ियों में से एक था. बंगाल के बाद मेरठ में शुरू हुआ विद्रोह दिल्ली तक जा पहुंचा था. 11 मई को विद्रोही सिपाही मेरठ के बाद  दिल्ली का रुख कर चुके थे. वहां भी विद्रोहियों की क्रांति शुरू हो गई. दिल्ली के पास बंगाल नेटिव ईंफैंट्री की तीन बटालियन थी जिनके कुछ दस्ते विद्रोहियों के साथ मिल गए. बाकी बचे दस्तों ने विद्रोहियों पर हमला करने से इनकार कर दिया था. इन घटनाओं का समाचार सुन कर शहर के बाहर तैनात सिपाहियों ने भी खुला विद्रोह कर दिया.


ब्रिटिश अधिकारी और सैनिक उत्तरी दिल्ली के पास फ़्लैग स्टाफ़ बुर्ज के पास इकट्ठा हुए. जब ये स्पष्ट हो गया कि कोई सहायता नहीं मिलेगी तो वे करनाल की ओर बढे़. अगले दिन बहादुर शाह ने कई सालों बाद अपना पहला आधिकारिक दरबार लगाया. बहुत से सिपाही इसमें शामिल हुए. बहादुर शाह इन घटनाओं से चिंता में थे पर अन्तत: उन्होने सिपाहियों को अपना समर्थन और नेतृत्व देने की घोषणा कर दी.
दिल्ली के इस गदर बहुत नुकसान हुआ. लोगों की जाने तो गई ही लेकिन उसके साथ-साथ जान-माल की बहुत हानि हुई. उसी दौरान बरबाद हो चुके एक बाजार की तस्वीर.
जब-जब 1857 के विद्रोह का नाम लिया जाता है तो उसमें लखनऊ रेसिडेंसी का नाम भी शामिल होता है. विद्रोह के इतिहास में ये रेसिडेंसी सबसे महत्वपूर्ण जगहों में से एक है. विद्रोह के दौरान जब लखनऊ में घेराबंदी हुई तब अंग्रेज इस रेसिडेंसी में 86 दिनों तक छिपे हुए थे. इसके बाद यहां भी विद्रोह का गदर मचा जहां भारी मात्रा में गोलीबारी हुई. इस लड़ाई में लखनऊ रेसिडेंसी का एक बड़ा हिस्सा बर्बाद हो गया था. यहां पर एक खंडहर चर्च है. इस चर्च में एक कब्रिस्तान हैं, जहां 2000 अंग्रेज सैनिकों सहित कई औरतों और बच्चों की कब्रें बनी हुई है.
तात्या टोपे का असली नाम रामचंद्र पाणडुंरग राव था. तात्या ने कुछ समय तक ईस्ट इंडिया कंपनी के बंगाल आर्मी की तोपखाना रेजीमेंट में भी काम किया था. मगर अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचार को देख उन्होंने नौकरी छोड़ दी और बाजीराव की नौकरी पर वापस आ गए. 1857 का विद्रोह देश भर से होता हुआ कानपुर पहुंचा जिसमें तात्या टोपे ने अहम भूमिका निभाई थी. वो तात्या टोपे ही थे जिन्होंने केवल कुछ सिपाहियों के साथ ही एक साल तक अंग्रेजों की नाक में दम कर के रखा.

इस विद्रोह में तात्या टोपे के पकड़े जाने की वजह नरवर के राजा मानसिंह की गद्दारी बनी. मानसिंह अंग्रेजों से मिल गया था जिसकी वजह तात्या टोपे परोन के जंगल में सोते में पकड़ लिए गए. 15 अप्रैल 1859 को तात्या का कोर्ट मार्शल किया गया जहां उनको फांसी की सजा सुनाई गई. तात्या टोपे इस विद्रोह में सबसे आखिर में पकड़े गए थे.


इस विद्रोह का परिणाम था ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का खत्म होना, जिसके बाद भारत में ब्रिटिश राज शुरू हुआ जो अगले 90 सालों तक चलता रहा.
https://hindi.firstpost.com/special/first-ever-war-in-freedom-struggle-history-of-india-29-march-1857-mutiny-importance-mangal-pandey-rare-photos-of-1857-mutiny-as-100197.html
  ~विजय राजबली माथुर ©

Monday, March 26, 2018

नवरात्र : फेस्टिवल आफ फिटनेस ------ किशोर चंद्र चौबे





प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से  विक्रमी संवत का प्रारम्भ होता आ रहा है और  'नवरात्र  पर्व  ' भी। अब से दस लाख वर्ष पूर्व जब इस धरती पर 'मानव  जीवन  ' की सृष्टि  हुई तब  अफ्रीका, यूरोप व त्रि वृष्टि  (वर्तमान तिब्बत ) में  'युवा पुरुष' व 'युवा - नारी ' के रूप  में  ही। जहां प्रकृति ने राह दी वहाँ मानव बढ़ गया और जहां प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीं वह रुक गया। त्रि -वृष्टि  का मानव अफ्रीका व यूरोप के मुक़ाबले अधिक विकास कर सका और हिमालय पर्वत पार कर दक्षिण में उस 'निर्जन' प्रदेश  में आबाद हुआ जिसे उसने 'आर्यावृत ' सम्बोधन दिया। आर्य शब्द  आर्ष  का अपभ्रंश था  जिसका अर्थ है 'श्रेष्ठ ' । यह न कोई जाति है न संप्रदाय  और न ही मजहब । आर्यावृत में  वेदों का सृजन  इसलिए हुआ था कि, मानव जीवन को उस प्रकार जिया जाये जिससे वह श्रेष्ठ बन सके। परंतु यूरोपीय व्यापारियों  ने मनगढ़ंत  कहानियों द्वारा आर्य को यूरोपीय  जाति के रूप में प्रचारित करके वेदों को गड़रियों के गीत घोषित कर दिया और यह भी कि, आर्य आक्रांता थे जिनहोने यहाँ के मूल निवासियों को उजाड़ कर कब्जा किया था। आज मूल निवासी आंदोलन उन मनगढ़ंत कहानियों के आधार पर 'वेद' की आलोचना करता है और तथाकथित  नास्तिक/ एथीस्ट भी जबकि पोंगापंथी  ब्राह्मण  ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म के रूप में प्रचारित करते हैं व  पुराणों के माध्यम से जनता को गुमराह करके  वेद व पुराण को एक ही बताते हैं। 
चारों  वेदों  में जीवन के अलग-अलग  आयामों  का उल्लेख है। 'अथर्व वेद ' अधिकांशतः  'स्वास्थ्य  ' संबंधी आख्यान करता है। 'मार्कन्डेय चिकित्सा  पद्धति ' अथर्व वेद पर आधारित है  जिसका वर्णन  किशोर चंद्र चौबे जी ने किया है। इस वर्णन के अनुसार  'नवरात्र  ' में  नौ  दिन नौ औषद्धियों  का सेवन कर के  जीवन को स्वस्थ रखना था। किन्तु  पोंगा पंथी  कन्या -पूजन, दान , भजन, ढोंग , शोर शराबा करके वातावरण भी प्रदूषित कर रहे हैं व मानव  जीवन को विकृत भी।  क्या  मनुष्य बुद्धि, ज्ञान व विवेक द्वारा  मनन  ( जिस कारण 'मानव' कहलाता है ) करके   ढोंग-पाखंड-आडंबर का परित्याग करते हुये इन  दोनों नवरात्र  पर्वों को स्वास्थ्य रक्षा  के पर्वों  के रूप में पुनः नहीं मना सकता ?
खेदजनक है कि जिन पर राह दिखाने का दायित्व बनता है वे किस प्रकार ढोग- पाखंड- आडंबर का ही पृष्ठ - पोषण  करके जनता को जागरूक नहीं होने देते हैं जैसे कि, : 
 ~विजय राजबली माथुर ©

Sunday, March 11, 2018

निर्णायक शंखनाद ------ महेश राठी

 

वर्ष 1978-79 में सहारनपुर के 'नया जमाना ' के संपादक स्व. कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर 'ने अपने एक तार्किक लेख मे 1951  - 52 मे सम्पन्न संघ के एक नेता स्व .लिंमये के साथ अपनी वार्ता के हवाले से लिखा था कि,कम्युनिस्टों  और संघियों के बीच सत्ता की निर्णायक लड़ाई  दिल्ली की सड़कों पर लड़ी जाएगी।

प्रस्तुत लेख से उसकी पुष्टि ही होती है।


 *भारत के बंटवारे और पाकिस्तान की मांग करने वाली मुस्लिम लीग के साथ मिलकर भाजपा के आदर्श नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी सत्ता का आनन्द लेते हैं। बंगाल में बनी मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के गठजोड़ वाली सरकार में श्यामा प्रसाद मुखर्जी वित्तमंत्री रहे। इस सरकार के मुख्यमंत्री फजुल हक थे जो बाद में भारत के बंटवारे और पाकिस्तान निर्माण की लड़ाई का एक हिस्सा थे, जो बाद में चलकर एक समय में पाकिस्तान के गृहमंत्री भी रहे। इसके अलावा भारत के बंटवारे को लेकर भी सबसे अधिक उत्साहित श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सावरकर ही थे। ध्यान रहे वह सावरकर ही थे जिन्होंने द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत दिया था। यहां तक 1944 में कलकता की एक रैली में सार्वजनिक तौर पर भारत के विभाजन का समर्थन कर दिया था। इसके अलावा उन्होंने 2 मई 1942 को लार्ड माउंटबेटन को एक गुप्त पत्र लिखते हुए यहां तक कह दिया था कि भारत का विभाजन अगर नही भी हो पाता है तो बंगाल का विभाजन तो होना ही चाहिए।
वास्तव में श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारतीय बहुलतावादी संस्कृति के विपरीत एक जातिवादी, सांप्रदायिक और पक्के ब्राहमणवादी नेता थे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण भारतीय संविधान निर्माण के समय हिंदू कोड़ बिल का विरोध किया था।
** यह निर्माण से विध्वंस की तरफ स्थानान्तरण का ऐसा भगवा अभियान है, जिसमें फासीवाद की दस्तक साफ सुनी और देखी जा सकती है। अंधराष्टवादी फासीवाद के इस हमले की शुरूआत त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति से हुई है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि लेनिन ऐसी विचारधारा का प्रतीक हैं जो कारपोरेट पूंजीवाद के झूठ और उसकी लूट को वास्तविक चुनौती देती है।
***यदि लेनिन की रूसी क्रान्ति नही होती तो शहीदे आजम भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव थापर की हिंदुस्तान रिवोल्यूशनरी आर्मी 1928 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान मेें हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन नही बन पाती। सभी जानते हैं कि शहीदे आजम भगत सिंह लेनिन के कितने दिवाने थे। यह लेनिन के समाजवाद की ही प्रेरणा थी कि भगत सिंह की नौजवान भाारत सभा और एचआरए ने अपना लक्ष्य भारत में मजदूरों और किसानों का स्वतंत्र गणराज्य स्थापित करने को बनाया था।

आलेख, विमर्श
श्यामा प्रसाद मुखर्जी और लेनिन, अंबेडकर, पेरियार के टकराव का निर्णायक शंखनाद

Written by innbharat on March 11, 2018
By महेश राठी
भगवा ब्रिगेड भारतीय समाज में विचारों के टकराव की नई इबारत लिख रही है। भारतीय समाज अभी तक मूर्तियों की स्थापना में विचारों के टकराव की आहट सुनता आया था परंतु अब वह मूर्तियों के विध्वंस में विचारों का टकराव देखने की तरफ बढ़ रहा है। यह निर्माण से विध्वंस की तरफ स्थानान्तरण का ऐसा भगवा अभियान है, जिसमें फासीवाद की दस्तक साफ सुनी और देखी जा सकती है। अंधराष्टवादी फासीवाद के इस हमले की शुरूआत त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति से हुई है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि लेनिन ऐसी विचारधारा का प्रतीक हैं जो कारपोरेट पूंजीवाद के झूठ और उसकी लूट को वास्तविक चुनौती देती है। वह जनपक्षीय आर्थिक ढ़ांचे और बहुलवादी संस्कृति और आर्थिक, सामाजिक राजनीतिक समानता की चेतना का नायक और वास्तविक सामाजिक रूपांतरण के वाहक विचार का प्रतीक है। मूर्तिभंजन के बाद अब भाजपा-संघ की भगवा ब्रिगेड लेनिन को विदेशी बताकर लेनिन की मूर्ति की मौजूदगी पर सवाल खड़ा करके जनमानस को बरगलाने की कोशिश कर रही है। दूसरी तरफ किसी रेडिकल वाम संगठन से जुड़े लोगों ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को खण्ड़ित करने का प्रयास किया है। बेशक किसी भी लोकतान्त्रिक समाज में विचारों के टकराव का यह रूप जनवादी सहिष्णुता के अनिवार्य जनवादी सिद्धांत के विरूद्ध है पंरतु लेनिन की मूर्ति पर हमले ने जहां भारतीय जनमानस को लेनिन को जानने का अवसर दिया है तो वहीं श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बारे में समझ साफ करने और स्वतंत्रता संग्राम में श्यामा प्रसाद मुखार्जी के बहाने संघ और भाजपा के कथित महापुरूषों के बारे में भी जानने का अवसर दे दिया है।

लेनिन को बेशक सतही समझदारी के साथ एक विदेशी व्यक्तित्व कहकर उनकी मूर्ति को गिराये जाने को न्यायोचित ठहराने की भगवा ब्रिगेड कोशिश करें और दावा करे कि भारत से और भारतीय समाज से लेनिन का कोई संबंध नही परंतु रूसी क्रान्ति और उसके नायक लेनिन एक ऐसा नाम है जिसने ना केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम बल्कि आजादी के बाद के भारत पर भी एक ऐसी अमिट छाप छोड़ी जिसे आज भी भुलाया नही जा सकता है। लेनिन और उनके द्वारा स्थापित दुनिया में पहले समाजवादी समाज की स्थापना का असर केवल भारतीय समाज ही नही भारतीय संविधान प्रस्तावना में भी पाते हैं। भारतीय संविधान में समाजवादी समाज के निर्माण की परिकल्पना की प्रेरणा का स्रोत लेनिन का समाजवादी सोवियत संघ ही था। समाजवाद की यह परिकल्पना केवल भारतीय संविधान में ही निहित नही है बल्कि 1980 में स्थापित भारतीय जनता पार्टी भी इस समाजवादी स्थापना से अछूती नही रहती है जब वह अपने घोषणा पत्र में गांधीवादी समाजवाद को अपना लक्ष्य बताती है। याद रहे वह लेनिन का समाजवाद ही था जिसने 1917 की रूसी क्रान्ति के बाद दुनिया के प्रत्येक प्रगतिशील, जनवादी आंदोलन को पुनर्परिभाषित करने का काम किया। वह लेनिन ही थे जिनकी बोल्शेविक क्रान्ति ने फासीवाद के प्रतीक हिटलर को समाजवाद की आड़ लेने के लिए मजबूर कर दिया।

यदि भारतीय संदर्भो में भी हम देखें तो आजादी की लड़ाई के प्रत्येक नायक, महानायक को लेनिन ने ना केवल प्रभावित किया बल्कि उन्हें नई दिशा दिखाने का भी काम किया। नेहरू का समाजवाद का सपना सभी जानते हैं कि रूसी समाजवाद से ही प्रेरित था। यदि लेनिन की रूसी क्रान्ति नही होती तो शहीदे आजम भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव थापर की हिंदुस्तान रिवोल्यूशनरी आर्मी 1928 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान मेें हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन नही बन पाती। सभी जानते हैं कि शहीदे आजम भगत सिंह लेनिन के कितने दिवाने थे। यह लेनिन के समाजवाद की ही प्रेरणा थी कि भगत सिंह की नौजवान भाारत सभा और एचआरए ने अपना लक्ष्य भारत में मजदूरों और किसानों का स्वतंत्र गणराज्य स्थापित करने को बनाया था। और लेनिन की प्रेरणा ने क्या भगत सिंह को सिखाया की उन्होंने आजादी और समाजवाद की पुरानी और स्थापित परिभाषा को ही बदलकर रख दिया और उसका प्रभाव बाद में सभी धाराओं की राजनीति पर साफ दिखाई पड़ता है।

भगत सिंह, बटुकेश्वर दत और विजय कुमार सिन्हा के संपर्क में रहे कम्युनिस्ट नेता शौकत उस्मानी ने लिखा था कि जब वे एचआर का नाम एचएसआरए होने के बाद 1928 में भगत सिंह से मिले थे तो उन्होंने कहा था कि उनका नया संगठन कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के साथ काम करने का इच्छुक है। भगत सिंह की जीवनी लिखने वाले डाॅ. दयाल भी इस तथ्य का हवाला देते हुए लिखते हैं कि भगत सिंह जेल में लेनिन की जीवनी और कम्युनिस्ट घोषणा पत्र का अध्ययन कर रहे थे। शहीदे आजम की जीवनी लिखने वाले एक और लेखक गोपाल ठाकुर भी उनके बारे में लिखते हैं कि जब भगत सिंह से पूछा गया उनकी आखिरी इच्छा क्या है तो उन्होंने कहा कि वे लेनिन की जीवनी पढ़ना चाहते हैं और चाहते हैं कि फांसी से पहले उसे पूरा पढ़ लें।

भगत सिंह के कामरेड और भाकपा के महासचिव रहे अजय घोष भी अपनी किताब भगत सिंह एण्ड हीज कामरेडस में लिखते हैं कि भगत सिंह और उनके साथियों ने जेल से 7 नवंबर 1930 को रूसी क्रान्ति की सालगिरह के अवसर पर मास्को एक बधाई का तार भेजा था। वहीं डाॅ. दयाल लिखते हैं कि जनवरी 1930 में भगत सिंह और उनके साथी लेनिन की याद में लेनिन की पुण्यतिथि पर वे लाल स्काॅर्फ बांधकर कोर्ट में आये थे। गोपाल ठाकुर अपनी किताब में लिखते हैं कि भगत सिंह ने फांसी से कुछ दिनों पहले सुखदेव को एक पत्र लिखा जिसमें वह लिखते हैं कि मैं और तुम रहे अथवा नही परंतु देश की जनता जरूर रहेगी। कम्युनिज्म और माक्र्सवाद की विचारधारा की निश्चित ही विजय होगी। यह केवल भगत सिंह और उनके साथियों का ही सवाल नही है बल्कि पूरे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर एक लेनिन की बोल्शेविक क्रान्ति का प्रभाव देख सकते हैं और ना केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम बल्कि तीसरी दुनिया के उन सभी देशों के  मुक्ति आंदोलनों को लेनिन और रूसी क्रान्ति पे प्रभावित किया। यह बोल्शेविक क्रान्ति और सोवियत संघ के प्रभाव के कारण ही था कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद तीसरी दुनिया के देशों में आजादी की एक बाढ़ सी आ गयी थी।


दूसरी तरफ हम यदि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में लेनिन की मूर्ति ध्वस्त करने वाली और उसके बाद पेरियार की मूर्ति पर धावा बोलने वाली भाजपा के आदर्शो और विशेषकर उनके जनक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जीवन और उनके कृत्यों का विश्लेषण करें तो वह ना केवल अंग्रेजों की तरफ झुकाव वाला बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की राह में गतिरोध करने वाला दिखाई देता है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत कांग्रेस से की थी। वह कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर पहली बार बंगाल प्रांतीय परिषद के सदस्य चुने गये थे। उसके बाद वह आगे चलकर 1939 में सावरकर के प्रभाव में आकर हिंदू महासभा के साथ जुड गये। हालांकि उनके और उनके जैसे कई अन्य बंगाली भद्रपुरूषों की कांग्रेस से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़ने की भी एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। 1939 से 1946 तक श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे। वैसे वह गांधी की हत्या के बाद भी दिसंबर 1948 तक हिंदू महासभा के साथ जुड़े रहे थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भाजपा और संघ के नेता महान राष्ट्रवादी नेता के तौर पर पेश करते हैं। परंतु यदि भारतीय स्वतंत्रता संगाम में उनकी भूमिका को देखें तो वह बेहद विवादास्पद और अंग्रेज परस्ती की दिखाई पड़ती है। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का उन्होंने जमकर विरोध किया यहां तक बंगाल के गवर्नर जाॅहन हरबर्ट को 26 जुलाई 1942 को एक पत्र लिखा और उसमें गांधी और कांग्रेस के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करते हुए उसे विफल बनाने के लिए भरपूर सहयोग देने का वादा भी किया था। उन्होंने अपने पत्र में साफ लिखा था कि आपके मंत्री हाने के नाते हम भारत छोड़ों आंदोलन को विफल करने के लिए पूरा सक्रिय सहयोग करेंगे। केवल इतना ही नही जब गांधी और कांग्रेस करो या मरो के नारे के तहत अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन चला रहे थे उस समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी सावरकर के साथ मिलकर अंग्रेजों का सहयोग कर रहे थे। कांग्रेस और गांधी ने अंग्रेजों द्वारा भारत को दूसरे विश्व युद्ध में शामिल करने की घोषणा का विरोध किया तो वहीं सावरकर पूरे भारत में घूमकर अंग्रेजी फौज में भारतीयों को भर्ती होने के लिए प्रेरित कर रहे थे। जाहिर है बंगाल के वित्तमंत्री और भाजपा और संघ के आदर्श नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी इसमें शामिल थे। अंग्रेजों द्वारा भारत को दूसरे विश्व युद्ध में शामिल करने की घोषणा पर 1939 में गांधी के आहवान पर कांग्रेस के विधायकों ओर मन्त्रियों ने अंतरिम सरकार के अपने पदों से इस्तीफा दे दिया तो जिन्ना ने इस पर खुशी जाहिर करते हुए इसे मुक्ति का दिन बताया और इस मुक्ति के दिन में मुखर्जी ने मंत्री पद की अपेक्षा कांग्रेस छोड़कर जिन्ना की खुशी में शामिल होकर मुस्लिम लीग सरकार में साझेदारी करना बेहतर माना था।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी और उनकी हिंदू महासभा और बाद में उनके द्वारा स्थापित जनसंघ जोकि बाद में चलकर भाजपा के गठन का आधार बनी हमेशा कांग्रेस और गांधी एवं नेहरू पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाते रहे। परंतु सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि भारत के बंटवारे और पाकिस्तान की मांग करने वाली मुस्लिम लीग के साथ मिलकर भाजपा के आदर्श नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी सत्ता का आनन्द लेते हैं। बंगाल में बनी मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के गठजोड़ वाली सरकार में श्यामा प्रसाद मुखर्जी वित्तमंत्री रहे। इस सरकार के मुख्यमंत्री फजुल हक थे जो बाद में भारत के बंटवारे और पाकिस्तान निर्माण की लड़ाई का एक हिस्सा थे, जो बाद में चलकर एक समय में पाकिस्तान के गृहमंत्री भी रहे। इसके अलावा भारत के बंटवारे को लेकर भी सबसे अधिक उत्साहित श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सावरकर ही थे। ध्यान रहे वह सावरकर ही थे जिन्होंने द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत दिया था। यहां तक 1944 में कलकता की एक रैली में सार्वजनिक तौर पर भारत के विभाजन का समर्थन कर दिया था। इसके अलावा उन्होंने 2 मई 1942 को लार्ड माउंटबेटन को एक गुप्त पत्र लिखते हुए यहां तक कह दिया था कि भारत का विभाजन अगर नही भी हो पाता है तो बंगाल का विभाजन तो होना ही चाहिए।


वास्तव में श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारतीय बहुलतावादी संस्कृति के विपरीत एक जातिवादी, सांप्रदायिक और पक्के ब्राहमणवादी नेता थे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण भारतीय संविधान निर्माण के समय हिंदू कोड़ बिल का विरोध किया था। हालंकि वे जब तक नेहरू सरकार में मंत्री रहे उन्होंने इसके बारे में कुछ नही कहा था परंतु 1951 में मन्त्रिमण्डल छोडने के बाद उन्होंने हिंदू कोड़ बिल को हिंदू समाज को छिन्न भिन्न करने वाला बताकर इसका विरोध किया। उनका कहना था कि यह हिंदू समाज की बुनियाद और उसकी विवाह संस्था को खत्म कर देगा। साथ ही यह हमारे धर्म के स्वाभाविक स्रोत को नष्ट कर देगा। इसके अलावा 1943-44 के बंगाल अकाल के राहत कार्यो में भी उनकी हिंदू महासभा पर राहत कार्यो में भेदभाव के आरोप लगे थे। बंगाल सरकार के गुप्तचर विभाग के अलावा उस समय के दि हिंदू के रिपोर्टर टी आर नारायणन और प्रसिद्ध चित्रकार चितोप्रसाद ने भी इस प्रकार की रिपोर्ट की थी। ना केवल राहत कार्यो में भेदभाव बल्कि बंगाल सरकार द्वारा उस समय चालाई जा रही कैंटीन पर भी मुखर्जी और उनकी हिंदू महासभा को आपति थी क्योंकि उसमें खाना पकाने और उसके वितरण का काम अल्पसंख्यकों औरदलितों के पास था। इस प्रकार के ब्राहमणवादी, सांप्रदायिक और जातिवादी नेता को आज भारतीय समाज के आदर्श के रूप पेश किया जा रहा है। इसी कारण से सब उन मूर्तियों पर हमले किये जा रहे हैं जो इस ब्राहमणवादी, सांप्रदायिक और जातिवादी नेता की विचारधारा के स्वाभाविक विरोधी हैं अथवा वैचारिक विरोध का प्रतीक हैं। वह चाहे अंबेडकर हो पेरियार, फूले अथवा गांधी और लेनिन आने वाले समय में सभी के बुत निशाने पर होंगे क्योंकि वे ब्राहमणवादी फासीवाद के विरोध के प्रतीक हैं और हिंदुत्ववादी भगवा ब्रिगेड को वैचारिक चुनोती पेश करते हैं। अभी तक यह लड़ाई मूर्तियों के निर्माण की थी परंतु अब लड़ाई मूर्तियों के ध्वंस की है। यह विध्वंस की निर्णायक लड़ाई की शुरूआत है उसका शंखनाद है।

वर्ष 1978-79 में सहारनपुर के 'नया जमाना ' के संपादक स्व. कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर 'ने अपने एक तार्किक लेख मे 1951  - 52 मे सम्पन्न संघ के एक नेता स्व .लिंमये के साथ अपनी वार्ता के हवाले से लिखा था कि,कम्युनिस्टों  और संघियों के बीच सत्ता की निर्णायक लड़ाई  दिल्ली की सड़कों पर लड़ी जाएगी।
प्रस्तुत लेख से उसकी पुष्टि ही होती है। 

 ~विजय राजबली माथुर ©

Friday, March 9, 2018

क्रांतिकारी बृजेश सिंह और उनकी प्रेम कहानी ------ कृष्ण प्रताप सिंह





विद्वान लेखक ने कालाकांकर , प्रतापगढ़ के राजकुमार बृजेश सिंह के निजी जीवन पर प्रकाश डाला हैं अतः इस लेख में उनकी सार्वजनिक दान देने की बात को शामिल नहीं किया होगा। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर - प्रदेश का कार्यालय जिस भवन - 22 कैसर बाग, लखनऊ  में स्थित है वह पार्टी को बृजेश सिंह जी ने अपनी संपत्ति से ही दान दिया था । इस भवन के अतिरिक्त जो और संपत्ति उनके द्वारा पार्टी को दान दी गई थी उसे बेच कर पार्टी ने अपने खर्चों के लिए फंड स्थापित कर लिया था। 
देश और समाज के लिए न केवल अपना जीवन ही बृजेश सिंह जी द्वारा होम किया गया बल्कि अपनी संपत्ति भी पार्टी को दान करके खुद राजघराने में जन्म लेकर भी मेहनतकश किसान - मजदूर के प्रति उनके लगाव व प्रेम को भी दर्शाता है। 
~विजय राजबली माथुर ©