Saturday, April 30, 2011

सीता की कूटनीति का कमाल ------ विजय राजबली माथुर

रामभक्त भटक गए हैं 

स्वाधीनता पूर्व जब महात्मा गांधी ने रामराज्य का स्वप्न देखा था तो देश में साम्राज्यवाद विरोधी लहर चल रही थी और विदेशी साम्राज्यवादियों से टक्कर लेने के संघर्ष में बापू को राम एक 'आदर्श क्रांतिकारी' के रूप में दिखाई दिए थे.इसीलिये उन्होंने स्वाधीन भारत में राम के शासन जैसी जनवादी व्यवस्था की कल्पना की थी.लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि,स्वाधीनता के तुरन्त बाद साम्राज्यवादियों के पिट्ठू नाथूराम गोडसे द्वारा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को हमसे छीन लिया गया और इसी के साथ ही बापू के रामराज्य का स्वप्न मात्र स्वप्न ही रह गया.आज आजादी के ६३ वर्ष बाद भी साम्राज्यवादी शक्तियां अपने प्रतिनिधियों (आर.एस.एस.,वि.हि.प.-जिसे फोर्ड फौन्डेशन ने अपनी बैलेंस शीट में दिखाते हुए भारी चन्दा दिया है और उनके सहयोगी संगठन)के माध्यम से राम के नाम पर अपना शोषण-कारी खेल खेल रही हैं.जाने या अनजाने भारत की धर्म-प्राण जनता 'राम के साम्राज्यवाद विरोधी क्रांतिकारिता 'को भुला कर राम के नाम का साम्राज्यवादियों के हितचिंतकों द्वारा दुरूपयोग होना बर्दाश्त कर रही है.यह हमारे देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि,भारत को एकता के सूत्र में आबद्ध करने वाले राम का नाम भारत को तोड़ने की साजिश में घसीटा जा रहा है.

आज के बदले हुए विश्व में साम्राज्यवादी शक्तियां भारत को प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रभाव में नहीं ला सकतीं  ,इसीलिये ये ताकतें हमारे देश की विभाजनकारी एवं विखंडनकारी शक्तियों को जिन्होंने रामजन्म भूमि का थोथा शिगूफा छोड़ रखा है,को मोहरा बना कर भारत की एकता व अखंडता पर कुठारा घात कर रही हैं.अतः हमारा राष्ट्र-हित में कर्तव्य है कि हम आप को राम की सहयोगी और अर्धांग्नी सीता जी द्वारा राष्ट्र-हित में किये गए त्याग,बलिदान और तप से परिचित कराएं और यह अपेक्षा करते हैं कि आज फिर उसी जोशो-खरोश से साम्राज्यवादी शक्तियों को शिकस्त दें जैसे सीता जी ने रावण को परास्त करने में राम के कंधे से कंधा मिलाकर किया था.

सीता -संक्षिप्त परिचय 

जैसा कि 'रावण वध एक पूर्व निर्धारित योजना' में पहले ही उल्लेख हो चुका है-राम के आविर्भाव के समय भारत-भू छोटे -छोटे राज्यों में विभक्त होकर परस्पर संघर्ष शील शासकों का अखाड़ा बनी हुयी थी.दूसरी और  रावण के नेतृत्व में साम्राज्यवादी शक्तियां भारत को दबोचने के प्रयास में संलग्न थीं.अवकाश प्राप्त शासक मुनि विश्वमित्र जी जो महान वैज्ञानिक भी थे और जो अपनी प्रयोग शाला में 'त्रिशंकू' नामक कृत्रिम उपग्रह (सेटेलाईट)को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित  कर चुके थे जो कि आज भी अपनी कक्षा (ऑर्बिट) में ज्यों का त्यों परिक्रमा कर रहा है जिससे  हम 'त्रिशंकू तारा' के नाम से परिचित हैं. विश्वमित्र जी केवल ब्रह्माण्ड (खगोल) विशेषज्ञ ही नहीं थे वह जीव-विज्ञानी भी थे.उनकी प्रयोगशाला में गोरैया चिड़िया -चिरौंटा  तथा नारियल वृक्ष का कृत्रिम रूप से सृजन करके इस धरती पर सफल   परीक्षण किया जा चुका था .ऐसे ब्रह्मर्षि विश्वमित्र ने विद्वान का वीर्य और विदुषी का रज (ऋषियों का रक्त)लेकर परखनली (टेस्ट ट्यूब) के माध्यम से एक कन्या को अपनी प्रयोगशाला में उत्पन्न किया जोकि,'सीता'नाम से जनक की दत्तक पुत्री बनवा दी गयीं.

वीरांगना-विदुषी सीता 

जनक जो एक सफल वैज्ञानिक भी थे सीता को भी उतना ही वैज्ञानिक और वीर बनाना चाहते थे और इस उद्देश्य में पूर्ण सफल भी रहे.सीता ने यथोचित रूप से सम्पूर्ण शिक्षा ग्रहण की तथा उसे आत्मसात भी किया.उनके वयस्क होने पर मैग्नेटिक मिसाईल (शिव-धनुष) की मैग्नेटिक चाभी एक अंगूठी में मड़वा कर उन्हें दे दी गयी जिसे उन्होंने ऋषियों की योजनानुसार पुष्पवाटिका में विश्वमित्र के शिष्य के रूप में पधारे दशरथ-पुत्र राम को सप्रेम -भेंट कर दिया और जिसके प्रयोग से राम ने उस मैग्नेटिक मिसाईल उर्फ़ शिव-धनुष को उठा कर नष्ट (डिफ्यूज ) कर दिया ,जिससे कि इस भारत की धरती पर उसके युद्धक प्रयोग से होने वाले विनाश से बचा जा सका.इस प्रकार हुआ सीता और राम का विवाह उत्तरी भारत के दो दुश्मनों को सगी रिश्तेदारी में बदल कर जनता के लिए  वरदान के रूप में आया क्योंकि अब संघर्ष प्रेम में बदल दिया गया था.

दूरदर्शी कूटनीतिज्ञ सीता 

सीता एक योग्य पुत्री,पत्नी,भाभी आदि होने के साथ-साथ जबरदस्त कूट्नीतिग्य भी थीं.इसलिए जब राष्ट्र -हित में राम-वनवास हुआ तो वह भी राम के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चल दीं.वस्तुतः साम्राज्यवाद को अस्त्र-शस्त्र की ताकत से नहीं कूट-नीति के कमाल से परास्त किया जा सकता था और यही कार्य सीता ने किया.सीता वन में रह कर आमजनों के बीच घुल मिल कर तथ्यों का पता लगातीं थीं और राम  के  साथ  मिल  कर  आगे  की नीति निर्धारित करने में पूर्ण सहयोग देतीं थीं.रावण के बाणिज्य-दूतों (खर-दूषण ) द्वारा खुफिया जानकारियाँ हासिल करने के प्रयासों के कारण सीता जी ने उनका संहार करवाया.रावण की बहन-सम प्रिय जासूस स्वर्ण-नखा (जिसे विकृत रूप में सूपनखा कहा जाता है ) को अपमानित करवाने में सीता जी की ही उक्ति काम कर रही थी .इसी घटना को सूपनखा की नाक  काटना एक मुहावरे के रूप में कहा जाता है.स्वर्ण-नखा का अपमान करने का उद्देश्य रावण को सामने लाना और बदले की कारवाई के लिए उकसाना था जिसमें सीता जी सफल रहीं.रावण अपने गुप्तचर मुखिया मारीची पर बहुत नाज करता था और मान-सम्मान भी देता था  इसी लिए उसे रावण का मामा कहा जाता है.मारीची और रावण दोनों वेश बदल कर यह पता लगाने आये कि,राम कौन हैं ,उनका उद्देश्य क्या है?वह वनवास में हैं तो रावण  के गुप्तचरों का संहार क्यों कर रहे हैं ?वह वन में क्या कर रहे हैं?.

राम और सीता ने रावण के सामने आने पर एक गंभीर व्यूह -रचना की और उसमें रावण को फंसना ही पडा.वेश बदले रावण के ख़ुफ़िया -मुखिया मारीची को काफी दूर दौड़ा कर और रावण की पहुँच से बाहर हो जाने पर मार डाला और लक्ष्मण को भी वहीं सीता जी द्वारा भेज दिया गया.निराश और हताश रावण ने राम को अपने सामने लाने हेतु छल से सीता को अपने साथ लंका ले जाने का उपक्रम किया लेकिन वह अनभिग्य था कि,यही तो राम खुद चाहते थे कि वह सीता को लंका ले जाए तो सीता वहां से अपने वायरलेस (जो उनकी अंगूठी में फिट था) से लंका की गोपनीय जानकारियाँ जुटा -जुटा कर राम को भेजती रहें.

सीता जी ने रावण को गुमराह करने एवं राम को गमन-मार्ग का संकेत देने हेतु प्रतीक रूप में कुछ गहने विमान से गिरा दिए थे.बाली के अवकाश प्राप्त एयर मार्शल जटायु ने रावण के विमान पर इसलिए प्रहार करना चाहा होगा कि वह किस महिला को बगैर किसी सूचना के अपने साथ ले जा रहा है.चूंकि वह रावण के मित्र बाली की वायु सेना से सम्बंधित था अतः रावण ने केवल उसके विमान को क्षति पहुंचाई और उसे घायलावस्था में छोड़ कर चला गया.जटायु से सम्पूर्ण वृत्तांत सुन कर राम ने सुग्रीव से मित्रता कर ली और उद्भट विद्वान एवं उपेक्षित वायु-सेना अधिकारी हनुमान  को पूर्ण मान -सम्मान दिया.दोनों ने राम को सहायता एवं समर्थन का ठोस आश्वासन दिया जिसे समय के साथ -साथ पूर्ण भी किया.राम ने भी रावण के सन्धि- मित्र बाली का संहार कर सुग्रीव को सत्तासीन करा दिया. हनुमान अब प्रधान वायु सेनापति (चीफ एयर मार्शल) बना दिए गए जो कि कूटनीति के भी विशेषज्ञ थे.

सीता द्वारा भेजी लंका की गुप्त सूचनाओं के आधार पर राम ने हनुमान को पूर्ण विशवास में लेकर लंका के गुप्त मिशन पर भेजा.हनुमान जी ने लंका की सीमा में प्रवेश अपने विमान को इतना नीचे उड़ा कर किया जिससे वह समुद्र में लगे राडार 'सुरसा'कीपकड़ से बचे रहे ,इतना ही नहीं उन्होंने 'सुरसा'राडार को नष्ट भी कर दिया जिससे आने वाले समय में हमलावर विमानों की खबर तक रावण को न मिल सके.

लंका में प्रवेश करके हनुमान जी ने सबसे पहले सीता जी से भेंट की तथा गोपनीय सूचनाओं का आदान-प्रदान किया और सीता जी के परामर्श पर रावण के सबसे छोटे भाई विभीषण जो उससे असंतुष्ट था ही से संपर्क साधा और राम की तरफ से उसे पूर्ण सहायता तथा समर्थन का ठोस आश्वासन भी प्रदान कर दिया.अपने उद्देश्य में सफल होकर उन्होंने सीता जी को सम्पूर्ण वृत्तांत की सूचना दे दी.सीता जी से अनुमति लेकर हनुमान जी ने रावण के कोषागारों एवं शस्त्रागारों पर अग्नि-बमों (नेपाम बम) की वर्षा कर डाली.खजाना और हथियार नष्ट कर के गूढ़ कूटनीति के तहत और सीता जी के आशीर्वाद से उन्होंने अपने को रावण की सेना द्वारा गिरफ्तार करा लिया और दरबार में रावण के समक्ष पेश होने पर खुद को शांति-दूत बताया जिसका विभीषण ने भी समर्थन किया और उन्हें अंतरष्ट्रीय  कूटनीति के तहत छोड़ने का प्रस्ताव रखा.अंततः रावण को मानना ही पडा. परन्तु लौटते हुए हनुमान के विमान  की पूँछ पर संघातक प्रहार भी करवा दिया.हनुमान जी तो साथ लाये गए स्टैंड बाई छोटे विमान से वापिस लौट आये और बदली हुयी परिस्थितियों में सीता जी से उनकी अंगूठी में जडित वायरलेस भी वापिस लेते गए.

विभीषण ने शांति-दूत हनुमान के विमान पर प्रहार को मुद्दा बना कर रावण के विदेश मंत्री पद को त्याग दिया और खुल कर राम के साथ आ गया.सीता जी का लंका प्रवास सफल रहा -अब रावण की फ़ौज और खजाना दोनों खोखले  हो चुके थे,उसका भाई अपने समर्थकों के साथ उसके विरुद्ध राम के साथ आ चुका था.अब लंका पर राम का आक्रमण एक औपचारिकता मात्र रह गया था फिर भी शांति के अंतिम प्रयास के रूप में रावण के मित्र बाली के पुत्र अंगद को दूत बना कर भेजा गया. रावण ने समपर्ण की अपेक्षा वीर-गति प्राप्त करना उपयुक्त समझा और युद्ध में तय पराजय का वरण किया.

इस प्रकार महान कूटनीतिज्ञ सीता जी के कमाल की सूझ-बूझ ने राम को साम्राज्यवादी रावण के गढ़ में ही उसे परास्त करने का मार्ग प्रशस्त किया. आज फिर आवश्यकता है एक और सीता एवं एक और राम की जो साम्राज्यवाद के जाल को काट कर विश्व की कोटि-कोटि जनता को शोषण तथा उत्पीडन से मुक्त करा सकें.जब तक राम की वीर गाथा रहेगी सीता जी की कूटनीति को भुलाया नहीं जा सकेगा.
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Wednesday, April 27, 2011

राष्ट्रवादी कैकेयी



हमारे देश में एक कुधारणा फैला दी गयी है कि श्री राम को वनवास उनकी विमाता कैकेयी के कुचक्र के कारण हुआ था.तमाम विद्वानों ने माता कैकेयी को बहुत बुरा-भला लिखा है.आम लोगों में कैकेयी की छविअच्छी नहीं मानी जाती है.मैंने राम-विषयक अपने कई लेखों के माध्यम से कैकेयी के आर्ष चरित्र और राष्ट्र-सेवा की और इंगित किया है.आज यहाँ उन राजनीतिक  परिस्थितियों का उल्लेख करना चाहूँगा जिनके कारण राम को वनवास दिलाना अनिवार्य एवं अपरिहार्य हुआ.'विद्रोही स्व-स्वर में'उल्लेख कर चुका हूँ कि १९६७-६८ में शाहजहांपुर में अपने नानाजी के साथ मैं भी सन्त श्याम जी पाराशर को सुनने जाता था जो केवल राम मंदिरों में ही प्रवचन देते थे.उनकी पुस्तक'रामायण का ऐतिहासिक महत्त्व' ने मुझे बेहद प्रभावित किया है और उसी के आधार पर मैंने-'रावण-वध एक पूर्व निर्धारित योजना'तथा 'सीता का विद्रोह'नामक आलेख इसी ब्लॉग में दिए थे जो आगरा के सप्तदिवा साप्ताहिक तथा ब्रह्मपुत्र समाचार में क्रमशः काफी पहले छप भी चुके थे.यहाँ दिए जा रहे निष्कर्ष भी मुख्यतः उसी पुस्तक से ही प्रेरित हैं जिन्हें राष्ट्र-हित में सार्वजनिक करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ जिससे व्याप्त भ्रान्ति का उन्मूलन हो सके एवं महान राष्ट्रवादी माता कैकेयी के तप-त्याग तथा बलिदान  को सही परिप्रेक्ष्य में लिया जाए एवं नाहक उनका अपमान किया जाना बंद किया जाए. 

परमात्मा कभी भी नस और नाडी के बन्धन में नहीं बंधता है और न ही कभी अवतार लेता है चाहें कितने भी वीभत्स अत्याचारी का विनाश करना हो.विध्वंस बहुत सरल है और निर्माण कठिन.जब अत्याचारी का निर्माण करने परमात्मा पृथ्वी पर नहीं आता तो उसे नष्ट करने क्योकर आने लगा?एक छोटे से उदाहरण से समझें-एक घड़ी के निर्माण में ट्रेंड इंजीनियर और कुशल कारीगर लगते हैं जब की एक अबोध बच्चा भी उसे फेंक कर नष्ट कर देता है.फिर किसी अत्याचारी को नष्ट करने परमात्मा क्यों धरती पर आये ?जो ऐतिहासिक पुरुष या नारियां देश-समाज के हित में अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं उनका सम्मान करना और गुण गान करना हमारा कर्तव्य होता है.और उसी के अनुरूप जब हम राम को मानते हैं तो कैकेयी और सीता को मानने में ऐतराज क्या है?क्या उनका महिला या नारी होना ?

विदेशी आक्रान्ताओं एवं शासकों ने जान-बूझ कर हमारे अपने ही बिकाऊ विद्वानों द्वारा हमारा अपना इतिहास विकृत करा दिया तो क्या हम अपनी पैनी निगाहों से भूतकाल के अंतराल में प्रविष्ट होकर तथ्य के मोतियों को नहीं चुन सकते ?यदि नहीं तो क्यों ?आइये सबसे पहले नौ लाख वर्ष पूर्व राम के जन्म के समय की भू-राजनीतिक परिस्थितियों का अवलोकन करें.-

जिस समय राम का जन्म हुआ भारत भूमि छोटे -छोटे राज्य-तंत्रों में बंटी हुयी थी और ये राजा परस्पर प्रभुत्व के लिए आपस में लड़ते थे.उदाहरण के लिए कैकेय(वर्तमान अफगानिस्तान)प्रदेश के राजाऔर जनक के राज्य मिथिला (वर्तमान बिहार का एक अंचल)से अयोध्या के राजा दशरथ का टकराव था.इसी प्रकार कामरूप (आसाम),ऋक्ष प्रदेश (महाराष्ट्र),वानर प्रदेश(आंध्र)के शासक परस्पर कबीलाई आधार पर बँटेहुए थे.वानर राजा बाली ने तो विदेशी साम्राज्यवादी रावणसे 'सन्धि'कर रखी थी कि,वे परस्पर एक-दुसरे की रक्षा करेंगें.ऐसी स्थिति में आवश्यकता थी सम्पूर्ण भारत को एकता के सूत्र में पिरोकर साम्राज्यवादी ताकतों- जो रावण के नेतृत्व में दुनिया भर का शोषण कर रही थीं -का सफाया करने की.लंका का शासक रावण,पाताल लोक(वर्तमान यूं.एस.ए.)का शासक ऐरावण और साईबेरिया (जहाँ ६ माह की रात होती थी )का शासक कुम्भकरण सारी दुनिया को घेर कर उसका शोषण कर रहे थे,उनमें आपस में साम्राज्यवादी -भाईचारा था.

कैकेयी और भारत का एकीकरण 

भारतीय राजनीति के तत्कालीन विचारकों (ऋषि-मुनियों) ने बड़ी चतुराई के साथ कैकेय प्रदेश की राजकुमारी कैकेयी के साथ अयोध्या के राजा दशरथ का विवाह करवाकर दुश्मनी को समाप्त करवाया.रावण अपने प्रतिद्वंदी बड़े भाई कुबेर को पकड़ने हेतु जब दक्षिण मार्ग को बाली की वजह से छोड़ कर पश्चिमोत्तर भारत की और से घुसना चाहता था तो भीषण  लंबा देवासुर संग्राम भारत की धरती पर चला और उसमें रावण को अकेले शिकस्त देना केवल कैकेय प्रदेश के राजा के बूते की बात नहीं थी.अतः आपसी टकराव को भूल कर राष्ट्रीय हितों की रक्षा हेतु दशरथ,जनक आदि सभी राजा अपने-अपने दल-बल के साथ कैकेय प्रदेश में जमे हुए थे. वीरांगना और राजनीति तथा कूटनीति की विदुषी राजकुमारी कैकेयी को राजा दशरथ की सलाह  एवं सहायता हेतु ऋषि-योजनानुकूल लगाया गया था. महाराजा दशरथ वहां अकेले ही थे और उनकी गृहस्थ -रूपी गाडी के दुसरे पहिये की भूमिका भी कैकेयी ने पूरी की जिस कारण अंततः युद्ध की समाप्ति पर महाराज दशरथ ने राजकुमारी कैकेयी का वरण अपनी पत्नी के रूप में कर लिया और विजेता के रूप में लौटने पर अयोध्या में उनका मय कैकेयी के भव्य स्वागत हुआ. महारानी कौशल्या ने भी कैकेयी को अपनी बहन वत मान-सम्मान दिया.अब कैकेयी ,दशरथ की राजनीतिक सलाहकार भी थीं.

पुत्रेष्टि यज्ञ  के माध्यम से जब राम-भरत आदि हुए तो कौशल्या से अधिक राम को कैकेयी ही देखतीं थीं और राम पर उनका काफी गहरा प्रभाव भी था.कौशल्या भी भरत और राम को एक समान ही मानतीं थीं.कैकेयी ही एकमात्र राजपरिवार की वह सदस्य थीं जिन पर ऋषि-मुनियों को पूर्ण विशवास था और जिनको पूरे भरोसे में लेकर वे अपनी रण-नीति को लागू करते थे.इसका कारन कैकेयी का विदुषी होने के साथ-साथ धैर्यवान होना तथा राष्ट्र के प्रति प्रबल समर्पण भाव का होना था. यदि राजा दशरथ को ज्ञात  हो जाता तो वह अपनी सैन्य ताकत के बल पर साम्राज्यवादियों से टकराने खुद ही आगे आ जाते और तब भारत -भूमि भी युद्ध के चपेटे में आ जाती जो हमारे ऋषि-मुनि नहीं चाहते थे.अतः महाराज दशरथ से सम्पूर्ण रण-नीति को गोपनीय रखा गया परन्तु कैकेयी से नहीं और कैकेयी का राष्ट्र हित में अपने पति से भी इन रहस्यों को गोपनीय रखना स्तुत्य है घृणास्पद  नहीं.कैकेयी ने राष्ट्र हित में ही अपने पिता के विरोधी राजा दशरथ
को उस समय सहारा दिया था जब उनको वैसी आवश्यकता थी. यह कैकेयी का ही मानसिक सम्बल था जो राजा दशरथ युद्ध में विजेता के रूप में सफल हो सके. एक बार फिर कैकेयी पर ही वह भार था कि राष्ट्र को अपनी धरती पर युद्ध से बचाते हुए साम्राज्यवादियों का संहार करने में अपना योगदान दें.

राम वनवास -कैकेयी का राष्ट्र प्रेम

ऋषि -योजनानुकूल राम से सीता का विवाह हुआ जिससे दशरथ और जनक रिश्तों में बंध गए और सम्पूर्ण उत्तर-भारत एकता के सूत्र में आबद्ध हो गया. अब समस्या अपने दश के दक्षिण-भाग अर्थात जम्बू द्वीप को भी रावण के मित्र बाली के चंगुल से छुडाने और उसे भी एक साथ लाने की थी. पहले ही गुरु विश्वमित्र जी के प्रयासों और उनकी शिक्षा से राम को वन में रह कर गोपनीय ढंग से गुरिल्ला युद्ध द्वारा शत्रु को नष्ट करने की ट्रेनिंग दी जा चुकी  थी.अतः राम और लक्ष्मण ही के साथ-साथ सीता (जो विद्वानों-विदुषियों के वीर्य-रज अर्थात ऋषियों के रक्त से मुनि विश्वमित्र की प्रयोग शाला में टेस्ट ट्यूब बेबी के रूप में जन्मीं थीं और जिन्हें विशेष ट्रेनिंग दी गयी थी )को इस कार्य के उपयुक्त समझा गया.

गुरु वशिष्ठ,विश्वमित्र एवं मुनि भारद्वाज (जो रावण के भाई कुबेर के नाना थे) की योजना के अनुसार कैकेयी ने दशरथ द्वारा विवाह के समय दिए जाने वाले दो वरदानों (जिन्हें ऋषियों की सलाह पर तब कैकेयी ने स्थगित कर दिया था) के माध्यम से राम को वनवास और भरत के लिए राज्य माँगा था. कैकेयी के मन में कोई दुर्भावना या भेद-भाव नहीं था उनके लिए राष्ट्र-हित सर्वोपरि था. यदि उस समय भरत वहां होते तो माँ-बेटा में संग्राम हो जाता. इसलिए उन्हें चतुराई से ननिहाल भिजवाया गया था जो ऋषियों की ही  रण-नीति थी.

बाल्मीकी जी ने अपनी रामायण में काव्यात्मक रूप में सम्पूर्ण योजना का निरूपण किया है. गोस्वामी तुलसी दास जी ने भी रामचरित मानस में तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के मद्देनजर अवधी में पद्यात्मक वर्णन किया है. व्याख्याकारों ने अपनी संकीर्ण सोच तथा विदेशी साम्राज्यवादी शासकों द्वारा विकृत रूप में प्रस्तुतीकरण को ध्यान में रख कर माता कैकेयी के साथ बहुत बड़ा अन्याय उनका चरित्र-हनन करके किया है.

'रावण-वध एक पूर्व निर्धारित योजना में' सविस्तार उल्लेख कर चुका हूँ कि,किस प्रकार राम ने रावण के मित्र बाली  का गुपचुप संहार करके और १४ वर्षों के वनवास में सैन्य तैयारियां करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली थी. इसी परिप्रेक्ष्य में हम दृढतापूर्वक कहना चाहते हैं कि कैकेयी के माध्यम से राम को वनवास दिलाना हमारे राजनीतिक-विद्वानों का वह करिश्मा था जिसके द्वारा साम्राज्यवाद के शत्रु राम को साम्राज्यवाद की धरती पर सुगमता से पहुंचा कर धीरे-धीरे सारे देश में युद्ध की चुप-चाप तैयारी की जा सके और इसकी गोपनीयता भी बनी रह सके.अस्तु कैकेयी का राम को वनवास दिलाने का साहसी कार्य राष्ट्र-भक्ति में राम के संघर्ष से भी ज्यादा श्रेष्ठ है क्योंकि कैकेयी ने स्वंय भी विधवा बन कर और जनता की प्रकट नजरों में गिर कर अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को बलिदान करके राष्ट्र -हित में कठोर निर्णय लागू करवाया.अब समय आ गया है कि राम के क्रांतिकारी क़दमों की सराहना के साथ-साथ माता कैकेयी और महारानी सीता का भी नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाए.बहुत हो चुका अन्याय,अब कैकेयी की भर्तस्ना बिलकुल बन्द की जाए और राष्ट्र -हित में किये गए उनके अमर बलिदानों को स्तुत्य,अनुकरणीय और शिक्षास्पद बनाया जाए.

Monday, April 25, 2011

तन -मन -धन,गुरु जी के अर्पण

यह लेख २९ दिसंबर ,१९९० (शनिवार)को सप्तदिवा-साप्ताहिक ,आगरा में पूर्व-प्रकाशित  है.

गुडगाँव के सेक्टर सात वाले हिमगिरी बाबा उर्फ़ राजेन्द्र पाल चानन द्वारा माँ-बेटी के साथ बलात्कार और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुप्रसिद्ध विधिवेत्ता श्री राम जेठमलानी के अनुरोध पर उनके विरुद्ध मामला चलाये जाने का आदेश देने के बाद एक बार फिर साधू-महात्मा वेशधारी पिशाच जन-चर्चा में आ गए हैं.कहा जाता है कि,बलात्कार की शिकार नमिता चौधरी के शरीर पर नौ और कान्ता चौधरी के शरीर पर बारह निशान चोटों के पाए गए हैं.इससे सिद्ध होता है कि इन महिलाओं के साथ बलात्कार गुरु हिमगिरी द्वारा जबरन किया गया है इनकी स्वेच्छा से नहीं.गुरु महाराज के असरदार शिष्यों द्वारा उन्हें विदेश भाग जाने की सलाह दी गयी है.

अब से इक्कीस (अब ४२ )वर्ष पूर्व प्रेम पाल रावत उर्फ़ बाल योगेश्वर उर्फ़ बाल योगी भी ऐसे ही आरोपों में फंसे थे,वह भी महिलाओं को आकर्षित कर रंग-रेलियाँ मनाया करते  थे.पकडे जाने पर उनके 'डिवाईन लाईट मिशन'ने भी पटना में समाचार-पत्र कार्यालयों पर तोड़-फोड़ की थी,जैसा कि हिमगिरी बाबा के अनुयायियों ने भी प्रेस -फोटोग्राफरों और पत्रकारों के साथ मार-पीट की है.

यदा-कदा समाचारों की सुर्खियाँ बनने वाले ये ढोगी-साधू -महात्मा भारत में अपनी मिथ्या माया का जाल बिछा कर महिलाओं को फांसते और उनसे रंग-रेलियाँ मनाने में इसलिए कामयाब हो जाते हैं कि भारतीय महिलायें अधिकांशतः धर्म-भीरु होती हैं.हमारे देश में महिलाओं का शोषण और दमन करने के लिए तथाकथित धर्म के ठेकेदारों ने( विशेष रूप से जिसे हिन्दू कहा जाता है) धर्म में ऐसी अवैज्ञानिक कुरीतियों का समावेश कर दिया है कि,महिलाओं के लिए उनसे उबरना आसान नहीं है और ये ही कुरीतियाँ उन्हें मंगल कल्याण की आस में ढोंगी साधुओं के पास खींच ले जाती हैं.बाल-योगी तो खुले आम-"तन-मन -धन सब गुरु जी के अर्पण" का जाप करवाता था और महिलायें खुशी-खुशी इस आरती का सस्वर गायन करतीं थीं.धन का चढ़ावा तो गुरु जी को चाहिए ही उन्हें महिलाओं का मन और तन भी चाहिए -इसे बखूबी अपने जाल में फंसी महिलाओं के मुख से ही कहला कर 'सहमती का आधार'प्रस्तुत किया गया था जिससे बलात्कार का आरोप न लगे.

आज जब मानव चंद्रमा, मंगल ग्रहों आदि पर चरण रख रहा है भारतीयों विशेष कर महिलाओं को धार्मिक कुरीतिओं और अंधविश्वासों से निकाल कर समृद्धि और विकास के नए आयाम प्रस्तुत करने की आवश्यकता थी;तब 'विश्वहिंदू परिषद् और भाजपा 'ने अंध और अति-धार्मिकता का उन्माद फैलाकर राम जन्म भूमि आन्दोलन चला रखा है.जब श्रीमती किरण बेदी उच्च पुलिस अधिकारी बन सकती हों,जब श्रीमती इंदिरा गांधी १६ वर्ष तक देश की प्रधानमंत्री रह चुकी हों तो महिलाओं की प्रगति और विकास से दुखी पोंगापंथी -वि .हि.प .और भा .ज .पा .मंदिर आन्दोलन की आड़ में महिलाओं को एक हजार (१०००)वर्ष पूर्व धकेल देना चाहते हैं.मंदिर-दंगों की आग में महिलायें ही सर्वाधिक पीड़ित होती  रही हैं.चाहे किसी महिला  का भाई,पुत्र या पति मारा गया हो ,चाहे किसी महिला से बलात्कार हुआ हो ,नुक्सान हर -हाल में महिलाओं का ही ज्यादा हुआ है.श्रीमती प्रमिला दण्डवते,श्रीमती सुभाषिनी अली  आदि विदुषी महिलायें नारी समाज को अंध-धार्मिकता से सचेत कर रही हैं फिर भी 'कान्ता और नमिता चौधरी' हिमगिरी बाबा के चंगुल में फंसी तो स्पष्ट है कि,अभी भी भारतीय नारी 'अबला' के स्तर से उठने में बहुत पीछे है.

आज आवश्यकता है कि,घर-घर में नारी यह व्रत ले कि,वह न तो स्वंय धार्मिक कुरीतियों में धंसेगी और न ही अपनी संतानों को धर्म के ठेकेदारों के जाल में फंसने देगी.तब न तो मंदिर-मस्जिद के झगडे खड़े करके असहाय नारी की अस्मिता लूटना सम्भव हो सकेगा न ही ढोंगी-पाखंडी गुरु-शिष्याओं का शारीरिक शोषण कर सकेंगें.आज फिर एक गौतम-बुद्ध की आवश्यकता है जो सदियों से दमित -पीड़ित नारी समाज को सम्मानित स्थान समाज में दिला सके.आज विश्वहिंदू परिषद् की नेत्रियों -विजया राजे सिंधिया,उमा भारती और रीताम्भ्रा जैसी नारियों ने भारतीय  महिला समाज को पतन के गर्त में धकेलने का जो बीड़ा उठा रखा है उससे बचने की आवश्यकता है तभी अंग्रेजों के मित्र सिंधिया को खदेड़ने वाली झांसी की रानी लक्ष्मी बाई पैदा हो सकेंगीं और तभी बुन्देला वीर छत्रसाल की माँ संध्या जैसी महिलायें फिर जन्म ले सकेंगीं जिसने अस्मिता की रक्षा के लिए अपने बीमार पति राजा चम्पत राय के सीने में कटार घोंप कर स्वंय भी आत्म-वीर-गति प्राप्त कर ली थी.तभी कान्ता -नमिता कांडों की पुनरावृति रोकी जा सकेगी.

Friday, April 22, 2011

नेताबाजी सफलता की कुंजी है

२७ अप्रैल-०३ मई १९८३ के सप्तदिवा,आगरा में पूर्व प्रकाशित लेख पुनः  प्रस्तुत है.  

एक समय था जब बाबू सुभाष चन्द्र बोस को नेताजी के नाम से जाना जाता था.वस्तुतः वह भारतीय जन के नेता ही थे.लेकिन आज यत्र-तत्र-सर्वत्र नेताओं की तमाम फ़ौज मिल जायेगी .ये भी नेता हैं अपने-अपने क्षेत्र के .दरअसल ये नेता इसलिए हैं कि सफल अभिनेता हैं और सच में आज आप सफल नेता तभी माने जायेंगें जब कि आप एक सफल अभिनेता भी हों.सुविख्यात दार्शनिक अरस्तु अथवा एरिस्टाटल यानी कि अफलातून का कहना है कि एक सफल नेता वह है जो प्रातः किसी शिक्षालय का उदघाटन करते समय सुविग्यशिक्षाविद माना जा सके ,दोपहर लौंड्री के उदघाटन के समय सफल रसायनग्य सिद्ध हो सके और सायंकाल किसी क्लब का उदघाटन करते समय एक अच्छा ऐय्याश भी हो सके.हमारे आज के नेता सही मायनों में अरस्तु द्वारा परिभाषित नेता की कसौटी पर खरे उतरते हैं.अरस्तु के गुरु प्लूटो यानी कि सुकरात ने कहा था कि मनुष्य जन्म से ही एक राजनीतिक प्राणी है.अतः यह सिद्ध हुआ कि समाज में जन्मते ही व्यक्ति की राजनीति शुरू हो जाती है.राजनीति -आंग्ल भाषा में प्रयुक्त ग्रीक शब्द पालिटिक्स का पर्यायवाची है.
पालिटिक्स शब्द =पाली+ट्रिक्स का संधियोग जिसके अर्थ क्रमशः मल्टी-ट्रिक्स अर्थात अनेकों चालाकियां हैं .अब बताइये हमारा कोई भी नेता जब बहुद्देशीय मनसूबों को लेकर जब कोई नया शगूफा छोड़ता है तो कोई गुनाह करता है,तो क्या ?जी नहीं नेता वही करता है जो नेताबाजी में होना चाहिए.बाबू सुभाष चन्द्र बोस कोई नेता थोड़े ही थे ,वह तो राष्ट्रीय स्वातन्त्र्य संग्राम के कर्मठ योद्धा थे.उन्हें नेताजी कह कर और नेताबाजी के लिए आदर्श मान कर हम आज के अपने नेताओं की तौहीन करना चाहते हैं!आप कहीं भी कुछ भी हों आप तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक आपको नेता का वरद-हस्त प्राप्त न हो.आप योग्य,ईमानदार और कर्मठ प्रशासक हैं ,तब क्या ?अजी जनाब आपने शान्ति पूर्वक अपना कार्य संचालन कर लिया तब आप मूर्ख माने जायेंगें .आप श्रेष्ठ प्रशासक तब हैं जब आप किसी या कई नेता लोगों की कृपा से उपद्रव और अशान्ति कराएं फिर उसका दृढतापूर्वक सामना करें और आपके पक्ष-विपक्ष में खूब हंगामा हो जाए.फिर आप नेताओं की एक आपात बैठक बुलायेंगें उसमें अपनी लच्छेदार भाषा में अमन -शान्ति पर एक वृहत वक्तत्ता जारी करेंगे और अपनी दबंगता का हवाला देंगे .सच मानिये आप शीघ्रातिशीघ्र उन्नत्ति के नवीनतम आयामों को चूमते चले जायेंगे.बीस-पच्चीस (अब ५३वर्श)वर्ष पूर्व बांग्ला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार श्री ताराशंकर बंदोपाध्याय ने अपने एक उपन्यास 'पात्र-पात्री'में बड़ी जायकेदार भाषा में इस विषय पर प्रकाश  डाला है.'पात्र-पात्री'में एक डी.जी.एल.(डायरेक्टर जेनरल लिटरेचर )का जिक्र है जो बहुत ईमानदार ,योग्य और कर्मठ हैं परन्तु इसी ईमानदारी के कारण उनकी शिक्षा मंत्री से नहीं बनती जो वस्तुतः विदुषी नहीं हैं.डी .जी.एल.सा :को 'गुड की भेली'पर लिखने को कहानी दीगयी क्योंकि संसद में इसकी चर्चा उठी थी.सा :के हौसले पस्त हो गये क्योंकि विभाग में नेताबाजी का बोल-बाला था और योग्यता का सर्वथा अभाव .अंततः एक ठेकेदार ने ठेके पर लिख कर उन्हें कहानी दी.
इसी उपन्यास के दुसरे भाग में नेताबाजी के एक और पहलू को भी उजागर किया गया है .अब एक वयोवृद्ध नेताजी का कमाल देखिये जिन्होंने मंत्री पद सम्हालते ही एक अप्सरा सामान युवा संसद -सदस्या को अपने आधीन उप-मंत्री पद दिलवाया और कुछ समय बाद विशेष सर्वेक्षण के लिय विदेश जाते समय उपमंत्री जी क भी साथ ले गये जिससे यात्रा सुखद रह सके.


ऐसा नहीं है कि यह सब उपन्यास की बातें हों दरअसल व्यवहार में जैसी नेताबाजी चलती है उसी की अनुभूति हमें तत्कालीन साहित्य में मिल जाती है.कहते ही हैं कि-' साहित्य समाज का दर्पण होता है'.खैर अब तो असली अभिनेता ही सही नेता हो सकेंगे,दक्षिणांचल यही संकेत दे रहा है.फिर वही बात आती है कि कौन ज्यादा करतब दिखा सकता है.आइये आज हम संकल्प करें कि ईश्वर हम सभी को इस कलाबाजी में निपुण करें जिससे हमारी नेताबाजी भी चमक सके.नेता बनो !नेताबाजी सफलता की कुंजी है.

Wednesday, April 20, 2011

समाज का ऐतिहासिक विकासक्रम


सप्तदिवा साप्ताहिक,आगरा के ०४ -१० फरवरी ,१९८९ अंक में पूर्व प्रकाशित

परस्पर संबंधों का ताना-बाना ही समाज है और मनुष्य जन्म से ही एक सामाजिक प्राणी है.लगभग दस लाख वर्ष पूर्व इस पृथ्वी पर जब मनुष्य का उद्भव हुआ तो प्रारम्भ में वह समूह बना कर जहां प्राकृतिक सुविधाएं मिलती थीं -निवास करता था और एक स्थान पर सुविधाएं समाप्त होते ही अन्य स्थान पर विचरण करता था.मनुष्य समाज में उस समय विवाह संस्था नहीं थी और समाज स्त्री सत्तात्मक था.स्त्री से ही संतान की पहचान होती थी.मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ती प्रकृति से होने के कारण समाज में किसी प्रकार की कोई समस्या न थी.यह शोषण विहीन उन्मुक्त समाज था,जिसे इतिहास में आदिम साम्यवाद अर्थात सतयुग के नाम से जाना जाता है.इस युग में कोई किसी का शोषण न करता था,न चोरी होती थी न किसी को किसी का भय था.परिवार में परिवार की मुखिया स्त्री के ही आदेशों का पालन होता था और समाज में मुखिया स्त्री ही का शासन चलता था.परन्तु जैसा की हम जानते हैं मानव -विकास की कहानी प्रकृति के साथ उसके सतत संघर्षों की कहानी है.जहां प्रकृति ने मनुष्य को राह दी वहीं वह आगे बढ़ गया और जहां प्रकृति की विषमताओं ने उसे रोका वहीं रुक गया.इस प्रकार विभिन्न प्रकार की समाज व्यवस्थायें विकसित होती गईं.अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती हेतु स्थान विचरण करते हुए कभी -कभी एक समूह समाज का दुसरे समूह समाज से स्थानाधिपत्य को लेकर संघर्ष चलने लगा.इस संघर्ष में स्वभाविक रूप से समूह के पुरुष ही अधिक सक्रियता से भाग ले पाते थे और शक्ति के आधार पर विजय प्राप्त करने के कारण अब समाज का स्वरूप बदलने लगा.पुरुष की प्रभुता स्थापित होती चली परिवार और समाज पुरुष प्रधान होते चले गए.विवाह संस्था का भी अब आविर्भाव होने लगा और स्त्री का स्थान गौड़ हो गया.संघर्ष में विजेता समूह ,विजित समूह को अपना दास बनाने लगा और उनका शोषण करने लगा.अतः अब दास युग का प्रारम्भ हो गया.स्वल्प होते प्राकृतिक साधनों और अपने द्वारा खा कर फेंके गए फलों के बीजों को जमते ,उगते और पुनः फलते देख कर मनुष्य ने शनैः -शनैः यायावर जीवन त्याग कर कृषि-युग में प्रवेश किया.ये दास कृषि के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुए .परन्तु दासों की अपनी दशा सोचनीय होती थी,उन्हें जंजीरों से बाँध कर रखा जाता था और उनमें मालिक के शोषण के विरुद्ध आक्रोश होता था.युद्ध के दौरान हमलावर समाज द्वारा अपनी बेड़ियाँ काटे जाने पर ये दास अपने शोषक मालिक के विरुद्ध आक्रान्ता समाज का साथ देते थे.अतः दासों के विद्रोह के भय ने शोषकों को नया रास्ता सुझाया और दासों को कुछ भूखंड देकर उन्हें जंजीर के स्थान पर जमीन से बांधा जाने लगा.दासों ने इस व्यवस्था का स्वागत किया और यह सामंत युग का प्रारम्भ हुआ.इस अवस्था में उत्पादन में तीव्र वृद्धि हुयी और अब अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादों को जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने की व्यवस्था की जाने लगी.प्रारंभ में यह प्रक्रिया वस्तु-विनिमय (बार्टर) के आधार पर चलती थी.मुद्रा के आविष्कार के बाद इसका स्थान व्यापार ने ले लिया और इस प्रकार उत्पादक और उपभोक्ता के मध्य एक नया वर्ग आ गया.कालान्तर में यह नया वर्ग अधिक शक्तिशाली हो गया क्योंकि अब समाज में धन का वर्चस्व था.अतः उत्पादक और उपभोक्ता दोनों का शोषण इस व्यापारी वर्ग ने करना प्रारम्भ किया .धन-बल पर कुटीर उद्योग चलाने वाले कुशल और स्वावलम्बी कारीगरों को इस व्यापारी वर्ग ने खरीदना प्रारम्भ किया और बड़े उद्योग लगने लगे.अब कारीगर ,कारीगर नहीं रहा मजदूर हो गया जिसे अपने लिए नहीं मालिक के लिए उत्पादन करना था.यह पूंजीवाद का युग कहलाता है जो कि वर्तमान में शोषण का सर्वाधिक सशक्त रूप लिए विद्यमान है.पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध एक लम्बे संघर्षों के बाद मजदूरों ने कुछ रियायते हासिल करना भी प्रारम्भ किया और इस सम्पूर्ण व्यवस्था -परिवर्तन हेतु भी संघर्ष चलाये जिनका परिणाम है कि विश्व की एक तिहाई आबादी अब शोषण विहीन मजदूर वर्ग के समाजवादी युग में रह रही है.

हालांकि आदिम साम्यवाद से दास प्रथा और दास प्रथा से सामंत युग तथा सामंत युग से पूंजीवाद का आविर्भाव पहली अवस्था से दूसरी में धीरे-धीरे होता रहा परन्तु अब पूंजीवाद से समाजवाद में परिवर्तन एक ही अवस्था के भीतर सम्भव नहीं है क्योंकि पूर्व की प्रत्येक अवस्था शोषण पर आधारित रही है-केवल उसका रूपांतरण हुआ है.समाजवाद शोषण-विहीन संता पर आधारित समाज अवस्था है जो शोषण के सम्पूर्ण खात्मे पर ही सम्भव है.अतः सम्पूर्ण विश्व में आज समाजवाद कायम करने के लिए जन - संघर्ष चल रहे हैं.पूंजीवादी सरकारें दमन और तिकड़म से इन जन-संघर्षों को सर्वत्र कुचल रही हैं.कहीं-कहीं पूंजीवादी सरकारें स्वंय समाजवाद का आलाप करते हुए जन-चेतना को दिग्भ्रमित कर रही हैं.हमारा भारत भी इसका अपवाद नहीं है.लेखक,चित्रक,विचारक सदा से ही मनुष्य को सुखी देखने और एक विश्व की परिकल्पना करते रहे हैं.प्रति वर्ष बसंत-पंचमी को जिनका जन्म-दिन मनाया जाता है उन महान क्रांतिकारी और राष्ट्र-भक्त कवि पं.सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'ने यह याचना की थी-

"वर दे वीणावादिनी यह वर दे
प्रिय स्वतंत्र रव,अमृत मन्त्र
नव भारत भर में भर दे,
काट उर के बंधन स्तर
बहा जननी ज्योतिर्मय निर्झर ..........."

हमें आज भी भारतीय जन-मानस को उद्वेलित करके समाज में व्याप्त शोषण के अन्धकार को दूर करने का क्रांतिकारी आह्वान करने वाले जन-कवियों से निरंतर प्रेरणा लेने की आवश्यकता है;जिससे समाज के विकास की इस मंजिल में हम अब और न पिछड़ें और शीघ्र ही शोषण-विहीन समतामूलक समाज की स्थापना अपने प्रिय भारत-वर्ष में कर सकें.

Monday, April 18, 2011

तानाशाही ही तो है!

 ११ -१७ मई १९८३ के सप्तदिवा,आगरा में पूर्व प्रकाशित

लगभग पन्द्रह वर्ष (अब ४४ वर्ष)पूर्व एक साप्ताहिक पत्रिका (हिन्दुस्तान)में एक कार्टून छापा था जिसकी पृष्ठ भूमि में एक महाशय कुछ प्रत्याशियों से साक्षात्कार कर रहे हैं.एक प्रत्याशी से पूंछा गया कि,लोकतंत्र से आप क्या समझते हैं?प्रत्याशी ने तपाक से जवाब दिया-'जिसमें तंत्र की पूंछ पकड़ कर संविधान की जय बोलते हुए लोक की वैतरणी पार की जाती हो उसे लोकतन्त्र कहते हैं.'पाठक गण समझदार हैं और मुझे विशवास है कि इस प्रत्याशी का आशय स्पष्ट समझ गए होंगे कि लोकतन्त्र में शासन और प्राशासन में जमे हुए लोग संविधान की आड़ लेकर किस तरह लोक अर्थात जनता को बहका ले जाते हैं.और दरअसल ऐसा होता भी है जिसका व्यवहारिक अनुभव आप सभी को होगा.कुछ विद्वानों ने तो लोकतन्त्र को मूर्खों का शासन भी कहा है और कुछ दार्शनिक इसे भीड़ तन्त्र(मेजारिटी जायींट) भी कहते हैं.हाँ जब भी चुनाव होते हैं अलग-अलग जत्थे बड़ी से बड़ी भीड़ बटोरने की बहुतेरी कोशिश करते हैं और जो इसमें कामयाब हो जाता है वही निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है.प्रायः बुद्धिजीवी और सभी तबका भीड़-भड़क्का से दूर ही रहना चाहता है और दूर ही रहता है.अतः वह न चुनाव लड़ता है और न ही चुने जा सकने की स्थिति में ही होता है.खैर हमको लोकतन्त्र से यहाँ क्या लेना-देना हमें देखना है जिसे तानाशाही कहते हैं वह क्या है?तानाशाही को राजनीतिक चिन्तक अधिनायकवाद कहते हाँ.स्पष्ट है कि इस वाद में तन्त्र का सूत्राधार एक अधिनायक होता है और वह लोक पर शासन करता है,लोक से पूंछता नहीं है और न ही लोक के प्रति वह जवाबदेही समझता है.वह स्वंय को ईश्वर का प्रतिनिधि समझता है और जो कुछ करता है बस ईश्वरीय प्रेरणा से ही करता है.हमने देखा है जहां भी दुनिया में कहीं कोई अधिनायक  उत्पन्न हो गया दुनिया का वह हिस्सा बाकी से बाजी मार ले गया है.एक समय था जब दुनिया भर में ब्रिटिश साम्राज्य फैला हुआ था और ब्रिटेन की टूटी बोलती थी.लंकाशायर और मैनचेस्टर की मिलों से सस्ता,अच्छा और टिकाऊ माल बनाने वाली जर्मनी और जापान की मिलों को अपने लिए बाजार ढूंढना मुश्किल था.ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्य भी नहीं डूबता था.लेकिन एडोल्फ हर हिटलर जब हिंडनवर्ग को हरा कर जर्मनी का चांसलर बना तो उसने एक साथ पूंजीवाद और साम्यवाद का विरोध करने के लिए निगमवाद को बढ़ावा दिया और उसके एकछत्र अधिनायकत्व में जर्मनी ने जो प्रगति की उसके सामने लोकतांत्रिक प्रगति वाले पिछड़ गए.यही हाल तोजो के अधिनायकत्व में जापान का और बोनोटो मुसोलनी की छत्रछाया में इटली का हुआ.हम दूर क्यों जाएँ हमारे पडौसी राष्ट्र पाकिस्तान में लगभग पिछले पच्चीस वर्षों से अधिनायकत्व चल रहा है वहां जिस तेजी से विकास हुआ है उसके आगे हमारा विकास फीका है.ऐसा क्यों होता है हमें पता नहीं ,हमने तो सीखा है-'होंहूँ कोऊ नृप हमहूँ का हानि'एक बार समाचार छपा था कि,स्व.के.कामराज ने एक निवृतमान अमेरिकी राजदूत से पूंछा कि आपने अपने भारत प्रवास के दौरान क्या विशेष कुछ अनुभव किया. तो उन कूटनीतिक महाशय का कहना था कि,भारत में रह कर मैंने जाना कि,यहाँ का भाग्य-विधाता दरअसल में ईश्वर ही है.यहाँ आये दिन दंगे-फसाद,लूट-मार,आगजनी,प्रदर्शन वगैरह होते रहते हैं फिर भी भारत तरक्की करता जा रहा है ;जरूर इसका राज दैवी -कृपा ही है.  पता नहीं उस राजदूत के ऐसा कहने के पीछे क्या मनोभावना थी,परन्तु आप तो जानते ही हैं कि किस प्रकार हमारे लोग मतदान से कतराते हैं और कितने प्रतिशत मतदान होता है और फिर कुल मतदान का कितना प्रतिशत प्राप्त कर प्रत्याशी निर्वाचित हो जाते हैं.इस प्रकार प्राप्त बहुमत वस्तुतः बहुमत नहीं कहा जा सकता .यह वाकई भीड़ों में बड़ी भीड़ का शासन होता है फिर उसमें  से भी कुछ ही लोग कार्यपालिका में आते हैं और कार्यपालिका का सूत्रधार एक ही उसका जो प्रधान होता है.यानी कि घूम-फिर कर यह भी एक किस्म की तानाशाही व्यवस्था ही है भले ही इसकी प्रक्रिया लोकतांत्रिक हो.अस्तु तानाशाही सार्वभौम सत्य है और सर्वत्र व्याप्त है.इस सर्वव्यापी तानाशाही को हम नमन करते हैं!

Friday, April 15, 2011

भ्रष्टाचार समृद्धि का आधार है?


१४ जूलाई १९९० को आगरा के सप्तदिवा साप्ताहिक में पूर्व प्राकाशित

गौतम बुद्ध ने कहा था -दुःख है,दुःख का कारण है,दुःख दूर हो सकता है,दुःख दूर करने का उपाय है.आज हम निसंकोच कह सकते हैं कि,भ्रष्टाचार है,भ्रष्टाचार का कारण है,भ्रष्टाचार दूर हो सकता है और भ्रष्टाचार  दूर करने का  भी उपाय है.तो आईये पहले जान लें कि,भ्रष्टाचार है क्या बला ?

भ्रष्टाचार=भ्रष्ट +आचार अर्थात गलत आचरण चाहे वह आर्थिक,राजनीतिक क्षेत्र में हो या सामाजिक -पारिवारिक क्षेत्र में और चाहे वह धन से सम्बंधित हो या मन से वह हर हालत में भ्रष्टाचार है. 
आज भ्रष्टाचार सार्वभौम सत्य के रूप में अपनी बुलंदगी पर है,बगैर धन दिए  आप आज किसी से कोई छोटा सा भी काम नहीं करा सकते हैं.पहले भ्रष्टाचार नीचे रहता था तो ऊपर बैठे लोगों का डर भी था पर अब तो भ्रष्टाचार सिर पर चढ़ा है.यथा राजा तथा प्रजा.हालांकि पूर्ववर्ती सरकार का मुखिया विदेशी सौदों में संलिप्तता के चलते सम्पूर्ण पार्टी सहित सत्ताच्युत हो गया है,परन्तु भ्रष्टाचार अब समाप्त हो गया है ऐसा कहने का साहस वर्तमान सरकार का मुखिया भी अभी तक नहीं जुटा पाया है.

बल्कि वर्तमान सरकार के कुछ मंत्री भी विवाद के घेरे में आ गए .वास्तव में ईमानदारी आज सबसे बड़ा अपराध है और वह दण्डित हुए बगैर नहीं रह सकती .तो साहब भ्रष्टाचार तो है सर्वव्यापी.उसका कारण क्या है,आइये यह भी जान लिया जाए.

समयान्तर के साथ आज हमारा समाज तक कलयुग अर्थात कल (मेकेनिकल) युग (एरा)में चल रहा है.आज हर कार्य तीव्र गति से और अल्प श्रम द्वारा ही किया जा सकता है.जब थोड़े श्रम से अत्यधिक उत्पादन होगा और उत्पादित माल के निष्पादन अर्थात बिक्री की समस्या उत्पन्न होगी तो उत्पादक तरह-तरह के प्रलोभन जैसे कमीशन और डिस्काउन्ट-रिबेट और रिश्वत आदि का प्रयोग करता है जिससे उसे अधिक बिक्री होने से अधिक मुनाफ़ा हो सके .बस यह प्रयोग ही भ्रष्टाचार है.आज हर कार्य धन से सम्पन्न होता है और धनार्जन चाहे जिस स्त्रोत से हो इसकी बाबत ध्यान दिये बगैर ही आपको सम्मान आपके द्वारा अर्जित धन के अनुपात में ही प्राप्त होगा.

ऐसी स्थिति धन-संग्रह को जन्म देती है और धन प्राप्ति के लिए नाना विधियां विकसित होती चली जाती हैं.शीघ्रातिशीघ्र धनवान बनने की लालसा में ही दहेज़ प्रणाली विकसित की गई-क्या यह सामाजिक भ्रष्टाचार नहीं है?फिर दहेज़ के लिए वधु का दाह भीषण भ्रष्टाचार क्यों नहीं है ?आप एक वकील या एक व्यापारी या कोई भी निजी धंधा करने वाले हैं.आपको अपने व्यवसाय की दूकान चलाने के लिए ग्राहकों की आवश्यकता है.आपने अपनी मेकेनिकल (कलयुगी) बुद्धि से अनी जाती या धर्म अथवा सम्प्रदाय के उत्थान का बीड़ा उठा लिया और उस सम्बंधित वर्ग के अपने ग्राहकों के बल-बूते अपने क्षेत्र में सफल हो गए.इस प्रकार की परस्पर प्रतिद्वन्दिता ने ही सम्प्रदायवाद,जातिवाद और धार्मिक वितण्डावाद को जन्म दिया.अतः ये सब हथकण्डे सीधे-सीधे भ्रष्टाचार की ही परिधि में आते हैं.हमने देखा कि,समाज में धनवान बनने की होड़ ही आर्थिक,राजनीतिक,साम्प्रदायिक,जातीय,भाषाई भ्रष्टाचार और भड़कते विग्रह की जड़ है.

जब तक मंदिर में चढ़ावा और मजार पर चादर चढाने की प्रवृतियां रहेंगीं तब तक हर लें-दें में काम के बदले धन देने की प्रवृति को गलत सिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि जब विधाता ही बगैर किसी चढ़ावे के कुछ करने को तैयार नहीं तब मनुष्य तो मन का कलुष है ही.

जब भ्रष्टाचार दूर किया जा सकता है तो उसका उपाय भी मौजूद है -धन पर आधारित समाज अर्थात पूंजीवाद का विनाश.पूंजीवाद को समाप्त कर जब श्रम के महत्त्व पर आधारित समाज -व्यवस्था क स्थापित कर दिया जाएगा तो भ्राश्ताचार स्वतः ही समाप्त हो जाएगा.परन्तु समाजवाद पर आधारित व्यवस्था को कौन स्थापित करेगा,कैसे करेगा जब आज सभी राजनीतिक दल तो संवैधानिक बाध्यता के कारण समाजवाद की स्थापना को ही अपना अभीष्ट लक्ष्य घोषित करते हैं.आज क्या राजीव कांग्रेस(इंका) क्या भाजपा(गांधीवादी समाजवाद) और जनता दल सभी तो समाजवाद के अलमबरदार हैं.(आज तो एक समाजवादी पार्टी भी अस्तित्व में है).फिर क्यों नहीं आया समाजवादी समाज हमारे भारत में -आज आजादी के तैंतालीस वर्षों बाद भी (अब तो ६३ वर्ष पूर्ण हो चुके हैं).निश्चय ही प्रयास नहीं किया गया ,नहीं किया जा रहा और न ही किया जाएगा.आज कौन ऐसा अभागा है जो प्राप्त सुविधा को स्वेच्छा से छोड़ देगा?इसलिए जनता को गुमराह करने के लिए समाजवाद का नाम लेकर दरअसल पूंजीवाद को ही सबल किया गया है तभी तो पनडुब्बी,टॉप,सुंदरवन आदि के भ्रष्टाचार चल सके हैं और ऐसे ही आगे भी कामयाब हो रहे हैं.(आज तक दूर-संचार,स्पेक्ट्रम ,अनाज ,दवा,बाढ़ घोटाले आदि और जुड़ चुके हैं).

यदि हम मनसा-वाचा-कर्मणा भ्रष्टाचार दूर करना चाहते हैं .तो हमें मन,वचन और कर्म से उन समाजवादियों का साथ देना होगा जो श्रम करने वाले के हक के अलम्बरदार हैं और जिन्होंने इस धरती के आधे भाग पर और आबादी के एक तिहाई भाग पर वास्तविक समाजवादी समाज की स्थापना की है.सिर्फ सिर मुण्डों को बदलने से कुछ नहीं होने वाला.सत्ता परिवर्तन मात्र व्यवस्था -परिवर्तन नहीं कर सकता .इसके लिए परिवर्तनकारी सोच और संलग्नता का होना परमावश्यक है.अन्यथा भ्रष्टाचार की जय बोलते हुए हमें शोषण व उत्पीडन में अपनी जिन्दगी गुजार देना ही परम्परा व विरासत में मिला है.भ्राश्ताचार पर प्रहार करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है!


११ मई २०१ ० को लखनऊ के एक स्थानीय अखबार  में छपे लेख की स्कैन कापी संलग्न है (इमेज को बड़ा करने और स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए कृपया इमेज पर डबल क्लिक करें ) और श्री प्रदीप तिवारी के ई मेल की भी कृपया अवलोकन करें.:-





Tuesday, April 12, 2011

क्रन्तिकारी राम---विजय राजबली माथुर

[राम नवमी के अवसर पर पुनर्प्रकाशन]




हात्मा गांधी ने भारत में राम राज्य का स्वप्न देखा था.राम कोटि-कोटि जनता के आराध्य हैं.प्रतिवर्ष दशहरा और दीपावली पर्व राम कथा से जोड़ कर ही मनाये जाते हैं.परन्तु क्या भारत में राम राज्य आ सका या आ सकेगा राम के चरित्र को सही अर्थों में समझे बगैर?जिस समय राम का जन्म हुआ भारत भूमि छोटे छोटे राज तंत्रों में बंटी हुई थी और ये राजा परस्पर प्रभुत्व के लिए आपस में लड़ते थे.उदहारण के लिए कैकेय (वर्तमान अफगानिस्तान) प्रदेश के राजा और जनक (वर्तमान बिहार के शासक) के राज्य मिथिला से अयोध्या के राजा दशरथ का टकराव था.इसी प्रकार कामरूप (आसाम),ऋक्ष प्रदेश (महाराष्ट्र),वानर प्रदेश (आंध्र)के शासक परस्पर कबीलाई आधार पर बंटे हुए थे.वानरों के शासक बाली ने तो विशेष तौर पर रावण जो दूसरे देश का शासक था,से संधि कर रखी  थी कि वे परस्पर एक दूसरे की रक्षा करेंगे.ऎसी स्थिति में आवश्यकता थी सम्पूर्ण भारत को एकता के सूत्र में पिरोकर साम्राज्यवादी ताकतों जो रावण के नेतृत्व में दुनिया भर  का शोषण कर रही थीं का सफाया करने की.लंका का शासक रावण,पाताल लोक (वर्तमान U S A ) का शासक ऐरावन और साईबेरिया (जहाँ छः माह की रात होती थी)का शासक कुम्भकरण सारी दुनिया को घेर कर उसका शोषण कर रहे थे उनमे आपस में भाई चारा था. 

भारतीय राजनीति के तत्कालीन विचारकों ने बड़ी चतुराई के साथ कैकेय प्रदेश की राजकुमारी कैकयी के साथ अयोध्या के राजा दशरथ का विवाह करवाकर दुश्मनी को समाप्त करवाया.समय बीतने के साथ साथ अयोध्या और मिथिला के राज्यों में भी विवाह सम्बन्ध करवाकर सम्पूर्ण उत्तरी भारत की आपसी फूट को दूर कर लिया गया.चूँकि जनक और दशरथ के राज्यों की सीमा नज़दीक होने के कारण दोनों की दुश्मनी भी उतनी ही ज्यादा थी अतः इस बार निराली चतुराई का प्रयोग किया गया.अवकाश प्राप्त राजा विश्वामित्र जो ब्रह्मांड (खगोल) शास्त्र के ज्ञाता और जीव वैज्ञानिक थे और जिनकी  प्रयोगशाला में गौरय्या चिड़िया तथा नारियल वृक्ष का कृत्रिम रूप से उत्पादन करके इस धरती  पर सफल परीक्षण किया जा चुका था,जो त्रिशंकु नामक कृत्रिम उपग्रह (सेटेलाइट) को अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित कर चुके थे जो कि आज भी आकाश में ज्यों का त्यों परिक्रमा कर रहा है,ने विद्वानों का वीर्य एवं रज (ऋषियों का रक्त)ले कर परखनली के माध्यम से एक कन्या को अपनी प्रयोगशाला में उत्पन्न किया जोकि,सीता नाम से जनक की दत्तक पुत्री बनवा दी गयी. वयस्क होने पर इन्हीं सीता को मैग्नेटिक मिसाइल (शिव धनुष) की मैग्नेटिक चाभी एक अंगूठी में मढवा कर दे दी गयी जिसे उन्होंने पुष्पवाटिका में विश्वामित्र के शिष्य के रूप में आये दशरथ पुत्र राम को सप्रेम भेंट कर दिया और जिसके प्रयोग से राम ने उस मैग्नेटिक मिसाइल उर्फ़ शिव धनुष को उठाकर नष्ट कर दिया जिससे  कि इस भारत की धरती पर उसके प्रयोग से होने वाले विनाश से बचा जा सका.इस प्रकार सीता और राम का विवाह उत्तरी भारत के दो दुश्मनों को सगे दोस्तों में बदल कर जनता के लिए वरदान के रूप में आया क्योंकि अब संघर्ष प्रेम में बदल दिया गया था.

कैकेयी के माध्यम से राम को चौदह  वर्ष का वनवास दिलाना राजनीतिक विद्वानों का वह करिश्मा था जिससे साम्राज्यवाद के शत्रु   को साम्राज्यवादी धरती पर सुगमता से पहुंचा कर धीरे धीरे सारे देश में युद्ध की चुपचाप तय्यारी की जा सके और इसकी गोपनीयता भी बनी रह सके.इस दृष्टि से कैकेयी का साहसी कार्य राष्ट्रभक्ति में राम के संघर्ष से भी श्रेष्ठ है क्योंकि कैकेयी ने स्वयं विधवा बन कर जनता की प्रकट नज़रों में गिरकर अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की बलि चढ़ा कर राष्ट्रहित में कठोर निर्णय लिया.निश्चय ही जब राम के क्रांतिकारी क़दमों की वास्तविक गाथा लिखी जायेगी कैकेयी का नाम साम्राज्यवाद के संहारक और राष्ट्रवाद की सजग प्रहरी के रूप में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा.

साम्राज्यवादी -विस्तारवादी रावण के परम मित्र  बाली को उसके विद्रोही भाई  सुग्रीव की मदद से समाप्त  कर के राम ने अप्रत्यक्ष रूप से साम्राज्यवादियों की शक्ति को कमजोर कर दिया.इसी प्रकार रावण के विद्रोही भाई विभीषण से भी मित्रता स्थापित कर के और एयर मार्शल (वायुनर उर्फ़ वानर) हनुमान के माध्यम से साम्राज्यवादी रावण की सेना  खजाना अग्निबमों से नष्ट करा दिया.अंत में जब राम के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों और रावण की साम्राज्यवाद समर्थक शक्तियों में खुला युद्ध हुआ तो साम्राज्यवादियों की करारी हार हुई क्योंकि,कूटनीतिक चतुराई से साम्राज्यवादियों को पहले ही खोखला किया जा चुका था.जहाँ तक नैतिक दृष्टिकोण का सवाल है सूपर्णखा का अंग भंग कराना,बाली की विधवा का अपने देवर सुग्रीव से और रावण की विधवा का विभीषण से विवाह करानातर्कसंगत नहीं दीखता.परन्तु चूँकि ऐसा करना साम्राज्यवाद का सफाया कराने के लिए वांछित था अतः राम के इन कृत्यों पर उंगली नहीं उठायी जा सकती है.

अयोध्या लौटकर राम द्वारा  भारी प्रशासनिक फेरबदल करते हुए पुराने प्रधानमंत्री वशिष्ठ ,विदेश मंत्री सुमंत आदि जो काफी कुशल और योग्य थे और जिनका जनता में काफी सम्मान था अपने अपने पदों से हटा दिया गया.इनके स्थान पर भरत को प्रधान मंत्री,शत्रुहन को विदेश मंत्री,लक्ष्मण को रक्षा मंत्री और हनुमान को प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया.ये सभी योग्य होते हुए भी राम के प्रति व्यक्तिगत रूप से वफादार थे इसलिए राम शासन में निरंतर निरंकुश होते चले गए.अब एक बार फिर अपदस्थ वशिष्ठ आदि गणमान्य नेताओं ने वाल्मीकि के नेतृत्व में योजनाबद्ध तरीके से सीता को निष्कासित करा दिया जो कि उस समय   गर्भिणी थीं और जिन्होंने बाद में वाल्मीकि के आश्रम में आश्रय ले कर लव और कुश नामक दो जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया.राम के ही दोनों बालक राजसी वैभव से दूर उन्मुक्त वातावरण में पले,बढे और प्रशिक्षित हुए.वाल्मीकि ने लव एवं कुश को लोकतांत्रिक शासन की दीक्षा प्रदान की और उनकी भावनाओं को जनवादी धारा  में मोड़ दिया.राम के असंतुष्ट विदेश मंत्री शत्रुहन लव और कुश से सहानुभूति रखते थे और वह यदा कदा वाल्मीकि के आश्रम में उन से बिना किसी परिचय को बताये मिलते रहते थे.वाल्मीकि,वशिष्ठ आदि के परामर्श पर शत्रुहन ने पद त्याग करने की इच्छा को दबा दिया और राम को अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति से अनभिज्ञ रखा.इसी लिए राम ने जब अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया तो उन्हें लव-कुश के नेतृत्व में भारी जन आक्रोश का सामना करना पडा और युद्ध में भीषण पराजय के बाद जब राम,भरत,लक्ष्मण और शत्रुहन बंदी बनाये जा कर सीता के सम्मुख पेश किये गए तो सीता को जहाँ साम्राज्यवादी -विस्तारवादी राम की पराजय की तथा लव-कुश द्वारा नीत लोकतांत्रिक शक्तियों की जीत पर खुशी हुई वहीं मानसिक विषाद भी कि,जब राम को स्वयं विस्तारवादी के रूप में देखा.वाल्मीकि,वशिष्ठ आदि के हस्तक्षेप से लव-कुश ने राम आदि को मुक्त कर दिया.यद्यपि शासन के पदों पर राम आदि बने रहे तथापि देश का का आंतरिक प्रशासन लव और कुश के नेतृत्व में पुनः लोकतांत्रिक पद्धति पर चल निकला और इस प्रकार राम की छाप जन-नायक के रूप में बनी रही और आज भी उन्हें इसी रूप में जाना जाता है.

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ब्लाग पर प्राप्त टिप्पणियाँ ::

13 comments:

Manpreet Kaur said...
बहुत ही अच्छा पोस्ट है !मेरे ब्लॉग पर आये ! हवे अ गुड डे !
Music Bol
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Shayari Dil Se
डॉ टी एस दराल said...
संक्षिप्त में पूरी रामायण एक अलग अंदाज़ और नज़रिए से पढ़कर अत्यंत हर्ष की अनुभूति हुई ।
न जाने क्यों , मुझे पारंपरिक बातों में एक बनावटीपन सा लगता है । आपकी बातें यथार्थ के करीब लगती हैं । अंतिम पैरा पढ़कर ज्ञान चक्षु और खुल गए ।
आभार इस शानदार लेख के लिए ।

रामनवमी की हार्दिक शुभकामनायें माथुर जी ।
चैतन्य शर्मा said...
रामनवमी की बधाई....शुभकामनायें ...
Patali-The-Village said...
आभार इस शानदार लेख के लिए ।
रामनवमी की शुभकामनायें|
डॉ॰ मोनिका शर्मा said...
बहुत सुंदर ....आभार स्वीकारे राम के चरित्र का इतना सुंदर यथार्थरूप में चित्रण के लिए..... आखिरी पंक्तियाँ मन में उतर गयी.... शुभकामनायें इस पावन पर्व की
चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...
माथुर साहब!
हरी अनंत हरी कथा अनंता... किन्तु आपके आलेख एक नया आयाम प्रस्तुत करते हैं.
Rajesh Kumar 'Nachiketa' said...
एक अद्भुत व्याख्या है यहाँ पर आपके द्वारा....मैंने तो धर्म के हिसाब से कुछ लिखा है....
आपको और समस्त विश्व को श्री रामनवमी की शुभकामना....
प्रणाम.
Vijai Mathur said...
राजेश नचिकेता जी आपने सुन्दर काव्याभिव्यक्ति की है जो प्रचलित लोक-मान्यताओं के अनुसार बिलकुल ठीक है.परन्तु इसी गफलत ने सारे संसार का विशेष रूप से हमारे भारत देश का बड़ा गर्क कर दिया है.मैं वही सही स्थिति समझाने का प्रयास करता हूँ और आप महान विद्वान एवं धनाढ्य लोग तत्काल उसका मखौल उड़ा देते हैं.मैं विवाद नहीं चाहता अतः आपके ब्लाग पर कमेन्ट नहीं किया क्योंकि आपने यहाँ लिखा इसलिए यहीं उत्तर दे दिया.धर्म की स्थिति मैंने समझाई है आपने तो पोंगा -पंथियों की धारणा ही दोहरा दी है जो धर्म नहीं है सिर्फ जनता को गुमराह करने की तिकड़में हैं.आपने वेदों के साथ पुराण की तुलना की है.वेद आदि सृष्टि की रचना हैं जबकि पुराण विदेशी शासकों ने अपने चापलूसों से जनता को भ्रमित करने हेतु लिखवाये थे.भविष्य में इस प्रकार की विवादस्पद टिप्पणियों को प्रकाशित ही नहीं किया जाएगा.तर्क सांगत बातों का जवाब मांगना ठीक है परन्तु मैं कुतर्कों के फेर में नहीं पड़ना चाहता.
Kunwar Kusumesh said...
बहुत सुन्दर/ सामयिक आलेख. रामनवमी की हार्दिक बधाई.
दीपक बाबा said...
आज के परिपेक्ष में आपने रामायण की आधुनिकता ब्यान की ....... सुंदर लेख के लिए बधाई स्वीकार करें......
वीना said...
यह सच है कि लोग कैकई को खलनायिका की तरह देखते हैं पर यह भी सच है कि सारे कलंक अपने माथे पर लेने की क्षमता व हिम्मत केवल उन्हीं में थी

बहुत अच्छा आलेख....
Kailash Sharma said...
राम के जीवन पर एक नयी सोच...बहुत सुन्दर
Rajesh kumar Rai said...
वैज्ञानिक दृष्टिकोण के माध्यम से रोचक प्रस्तुतिकरण।
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