Monday, June 25, 2012

जननी,माँ और माता थीं हमारी बउआ

25 जून-बउआ पुण्य तिथि पर एक ज्योतिषयात्मक विश्लेषण

बउआ का चित्र -विवाह पूर्व

बाबू जी (निधन 13 जून 1995) के साथ बउआ (निधन 25 जून 1995)-चित्र 1978 का है 




बउआ की जन्म पत्री के अनुसार उनका जन्म 20अप्रैल 1924 अर्थात वैशाख कृष्ण प्रतिपदा ,रविवार ,संवत 1981 विक्रमी को 'स्वाती' नक्षत्र के चतुर्थ चरण मे हुआ था।

लग्न-सिंह और राशि-तुला थी।
लग्न मे-सिंह का राहू।
तृतीय भाव मे -तुला के चंद्र और शनि।
चतुर्थ भाव मे-वृश्चिक का ब्रहस्पति।
षष्ठम  भाव मे -मकर का मंगल।
सप्तम भाव मे -कुम्भ का केतू।
नवे भाव मे-मेष का सूर्य व बुध।
दशम भाव मे-वृष का शुक्र।

08 नवंबर 1948 से 10 नवंबर 1951 तक वह 'शनि'महादशांतर्गत 'शनि' की ही अंतर्दशा मे थीं जो उनके लिए 'कष्टदायक' समय था और इसी बीच उनका विवाह सम्पन्न हुआ था।यही कारण  रहा कि 'युद्ध काल' की फौज की नौकरी का पूरा का पूरा वेतन बाबाजी के पास भेज देने और बाबाजी द्वारा उसे बड़े ताऊजी के बच्चों पर खर्च कर देने के बावजूद बड़ी ताईजी ने बउआ को भूखों तड़पा दिया। 
11 नवंबर 1951  से 19 जूलाई 1954तक का समय लाभ-व्यापार वृद्धि का था। इसी काल मे मेरा जन्म हुआ और अजय का भी।अजय के जन्म के बाद बाबूजी को फौज की यूनिट के उनके कमांडर रहे और अब CWE के पद पर लखनऊ MES मे कार्यरत अधिकारी महोदय ने बाबूजी को भी जाब दिला दिया।
29 अगस्त 1955 से 28 अक्तूबर 1958 तक सुखदायक समय था और इसी बीच डॉ शोभा का जन्म हुआ।
 20 जून 1962 से 25 अप्रैल 1965 तक शनि महादशांतर्गत 'राहू' की अंतर्दशा का था जो उनके लिए 'कष्टप्रद,यंत्रणा और बाधायुक्त' था। -
बउआ को 'बाँके बिहारी मंदिर',वृन्दावन पर बड़ी आस्था थी। उन्होने अपने पास के   (नाना जी,मामा जे से मिले)रुपए देकर बाबूजी से वृन्दावन चलने को कहा। वहाँ से लौटते ही बरेली जंक्शन से गोला बाज़ार आने के  रास्ते मे बाबू जी को उनके दफ्तर के एक साथी ने सिलीगुड़ी ट्रांसफर हो जाने की सूचना दी जो तब 'चीन युद्ध' के कारण नान फेमिली स्टेशन था। वस्तुतः बाबूजी की जन्म कुंडली मे 'ब्रहस्पति'तृतीय भाव मे 'कर्क' अर्थात अपनी उच्च राशि मे था और बउआ की जन्म कुंडली मे तृतीय भाव मे तुला का होकर 'शनि' उच्च का था एवं 'मंगल' षष्ठम भाव मे 'मकर' का होकर उच्च का था,नवें भाव मे 'मेष' का सूर्य उच्च का था,तथा दशम भाव मे 'वृष' का शुक्र स्व-ग्रही था। अर्थात बाबूजी और बउआ को तथा उनके धन से हम भाईयों - बहन को इन चीजों का दान नहीं करना चाहिए था-
1- सोना,पुखराज,शहद,चीनी,घी,हल्दी,चने की दाल,धार्मिक पुस्तकें,केसर,नमक,पीला चावल,पीतल और इससे बने बर्तन,पीले वस्त्र,पीले फूल,मोहर-पीतल की,भूमि,छाता आदि। कूवारी कन्याओं को भोजन न कराएं और वृद्ध-जन की सेवा न करें (जिनसे कोई रक्त संबंध न हो उनकी )।किसी भी मंदिर मे और मंदिर के पुजारी को दान नहीं देना चाहिए।
2-सोना,नीलम,उड़द,तिल,सभी प्रकार के तेल विशेष रूप से सरसों का तेल,भैंस,लोहा और स्टील तथा इनसे बने पदार्थ,चमड़ा और इनसे बने पदार्थ जैसे पर्स,चप्पल-जूते,बेल्ट,काली गाय,कुलथी, कंबल,अंडा,मांस,शराब आदि।
3- किसी भी प्रकार की मिठाई,मूंगा,गुड,तांबा और उससे बने पदार्थ,केसर,लाल चन्दन,लाल फूल,लाल वस्त्र,गेंहू,मसूर,भूमि,लाल बैल आदि।
4- सोना,माणिक्य,गेंहू,किसी भी प्रकार के अन्न से बने पदार्थ,गुड,केसर,तांबा और उससे बने पदार्थ,भूमि-भवन,लाल और गुलाबी वस्त्र,लाल और गुलाबी फूल,लाल कमल का फूल,बच्चे वाली गाय आदि।
5-
हीरा,सोना, सफ़ेद छींट दार चित्र और  वस्त्र,सफ़ेद वस्त्र,सफ़ेद फूल,सफ़ेद स्फटिक,चांदी,चावल,घी,चीनी,मिश्री,दही,सजावट-शृंगार की वस्तुएं,सफ़ेद घोडा,गोशाला को दान,आदि। तुलसी  की पूजा न करें,युवा स्त्री का सम्मान न करें ।

ये सब जांनकारीयेँ तथाकथित ब्राह्मण और पंडित तो देते नहीं हैं अतः बाबूजी  चाहे एक पैसा ही सही मंदिर मे चढ़ा भी देते थे,शनिवार को भड़री को तेल भी दिलवा देते थे, मंगल के दिन प्रशाद लगा कर मंदिर के बाहर चाहे किनका भर ही क्यों नहीं बच्चों को प्रशाद रूपी मिठाई भी दे देते थे। एक बार 'बद्रीनाथ' होकर आए थे तब से नियमतः वहाँ मंदिर के लिए रु 10/- या रु 15/-भेजते रहते थे। ये सब तमाम कारण परेशानियाँ बढ़ाने वाले थे जिंनका खुलासा अब अध्यन द्वारा मैं कर पाया हूँ और खुद सख्ती के साथ 'दान-विरोधी' रुख अख़्तियार किए हुये हूँ। आर्यसमाज की मुंबई से प्रकाशित पत्रिका'निष्काम परिवर्तन' मे भी मेरा दान विरोधी लेख छ्प चुका है।

1964 मे सिलीगुड़ी हम लोगों के जाने पर बउआ  को सारे शरीर मे एकजमा हो गया था और तभी से मुझे घर पर खाना बनाने मे बाबू जी की मदद करने की आदत पड़ गई थी जो बाद मे बउआ की मदद के रूप मे चलती रही।

26 अप्रैल 1965 से 07 नवंबर 1967 तक बउआ का शनि महादशांतर्गत 'ब्रहस्पति'की अंतर्दशा का समय उनके लिए 'शुभ फलदायक' था। 1967 मे मैंने स्कूल फाइनल का इम्तिहान उत्तीर्ण कर लिया जबकि हमारे खानदान के बड़े भाई लोग (फुफेरे भाई भी )पहली अटेम्प्ट मे हाई स्कूल न पास कर सके थे।

02 अप्रैल 1971 से 01 फरवरी 1974 तक उनकी 'बुध' मे शुक्र की अंतर्दशा उनके लिए अनुकूल थी। इस दौरान मैंने बी ए पास कर लिया और 'सारू स्मेल्टिंग',मेरठ मे नौकरी भी प्रारम्भ कर दी,अजय ने भी हाईस्कूल के बाद मेकेनिकल इंजीनियरिंग ज्वाइन कर लिया और शोभा भी इंटर पास कर सकीं।हालांकि मौसी का निधन इसी बीच हुआ।
 02 फरवरी 1974से 07 दिसंबर 1974 तक उनके लिए 'बुध'  मे सूर्य की अंतर्दशा 'पद-वृद्धि' की थी। अतः शोभा की एंगेजमेंट हो गई।
08 दिसंबर 1974 से 07 मई 1976 तक उनकी शनि मे 'चंद्र' की अंतर्दशा 'शुभ' व 'मांगलिक कार्यों वाली थी। जबकि 1973 से 1978 तक का समय बाबूजी का बुध मे 'राहू'  और 'ब्रहस्पति'की अंतर्दशा का 'कष्टदायक था। 
दिसंबर मे अजय का भयंकर एक्सीडेंट हुआ जिसमे वह बच गए, मेरी मेरठ की नौकरी जून  '75 मे  खत्म हुई किन्तु मुगल,आगरा मे सितंबर मे मिल गई। नवंबर '75 मे शोभा का विवाह सम्पन्न हुआ।
इन घटनाओं से यह भी सिद्ध होता है कि विवाह के समय 'गुण'मिलान होने पर समस्याओं का समाधान भी सुगम हो जाता है। बउआ -बाबू जी के 28 गुण मिलते थे। संकट आए तो लेकिन निबट भी गए।  हालांकि बाबूजी और बउआ दोनों की जन्म लग्ने 'स्थिर' थीं किन्तु बउआ  की कुंडली के दशम भाव मे स्व्ग्रही होकर 'शुक्र' स्थित था जिसके कारण बाबूजी को ट्रांसफर का सामना करना पड़ा।  जो ज्योतिषी 'गुण-मिलान' की मुखालफत करते हैं वे वस्तुतः लोगों के भले का हित नहीं देखते हैं।
05 मई 1977 से 22 नवंबर 1979 तक  'बुध' मे 'राहू' की अंतर्दशा उनके लिए 'कष्टकारक' थी। इसी बीच 21 सितंबर 1977 को मामाजी और 27 मार्च 1979 को नाना जी का निधन हो गया। इसी बीच जाड़ों मे खुले मे गरम पानी से अपनी बीमार रह चुकी पुत्री को नहलाने पर शोभा को उन्होने डांटा तो जाने तक वह अपनी माँ से मुंह फुलाए रहीं और चलते वक्त भी उनसे नमस्ते तक न करके गईं।
23 नवंबर 1979 से 28 फरवरी 1982 तक 'बुध' मे 'ब्रहस्पति' की अंतर्दशा उनके लिए-'कष्टदायक,अशुभ व बाधापूर्ण' थी। इसी दौरान शोभा के श्वसुर साहब की मेहरबानी से और के बी साहब द्वारा डॉ रामनाथ को 'कुक्कू' से खरीदवा कर मात्र 14 गुणों पर (झूठ बोलकर रामनाथ ने 28 गुण मिलते बताए थे जो बाद मे मैंने पकड़ा था)शालिनी से मेरा विवाह हुआ था।
29 फरवरी 1982 से 07 नवंबर 1984 तक 'बुध' मे 'शनि' की अंतर्दशा थी जिसका उत्तरार्द्ध अनुकूल था। इसी दौरान उनके पौत्र 'यशवन्त'का जन्म हुआ। काफी गंभीर बीमार रहने के बावजूद वह स्वस्थ हुईं।
08 अक्तूबर 1987 से 10 नवंबर 1990 तक 'केतू' महादशा मे क्रमशः सूर्य,ब्रहस्पति और शनि की अंतर्दशाएन रहीं जो क्रमशः 'घोर बाधापूर्ण कष्ट','परेशानीपूर्ण' एवं 'हानीदायक' थीं। हालांकि इसी बीच अजय की शादी भी के बी माथुर साहब की मेहरबानी से सम्पन्न हुई किन्तु बीमारी,कूल्हे की हड्डी टूटना और आपरेशन का सामना करना पड़ा।
08 नवंबर 1991 से 07 मार्च 1995 तक 'शुक्र' मे 'शुक्र' की ही अंतर्दशा उनके लिए बाधा और कष्ट की थी। जबकि यह समय बाबूजी का श्रेष्ठ था। इसी बीच 16 जून 1994 को उनकी बड़ी पुत्र वधू-शालिनी का लंबी बीमारी के बाद निधन हुआ। यह उनके लिए दिमागी झटका था।

08 मार्च 1995 के बाद 'शुक्र' मे 'सूर्य' की अंतर्दशा उनके लिए उन्नतिदायक होती और इस बीच उन्होने और बाबूजी ने मिल कर मुझ पर दबाव बनाया कि मैं पटना के सहाय साहब द्वारा अपनी पुत्री के लिए भेजा प्रस्ताव स्वीकार कर लूँ। उनको यशवन्त का समर्थन हासिल था ,लिहाजा मुझे उनकी बात माननी पड़ी। किन्तु निर्णय होने से पूर्व ही 13 जून 1995 को बाबूजी का देहांत हो गया और 25 जून 1995 को बउआ का भी निधन हो गया।  14 तारीख को जब हम लोग -यशवन्त समेत घाट पर गए हुये थे और घर पर मात्र डॉ शोभा,अजय की श्रीमती जी और उनकी पाँच वर्षीय पुत्री ही थे उनके दिमाग पर घातक अटेक हुआ और वह कुछ भी बोलने मे असमर्थ हो गईं। अजय और शोभा उन पर झल्लाते रहे किन्तु उन्होने कोई प्रतिक्रिया न दी।  जब इन लोगों ने मुझसे कहा कि तुम्ही पूछो तो मेरे प्रश्न के जवाब मे उनका उत्तर था-"क्या कहें,किस्से कहें?"यही उनके मुंह से निकला अंतिम वाक्य है फिर वह कुछ न बोल सकीं। हालांकि मुंह के अंदर जीभ चलती मालूम होती थी और लगता था कि कुछ कहना चाह रही हैं। डॉ अशोक गर्ग ने बताया था कि -'ब्रेन का रिसीविंग पार्ट डेमेज हो गया है'और यही स्थिति चलती रहेगी जब तक शेष जीवन है। हालांकि मेरे पास बहुत साहित्य था किन्तु 'संस्कृत' मे कमजोर होने के कारण वाचन मे भी पिछड़ता था और उस वक्त-मौके पर ध्यान भी न आया। अब 'जनहित' मे वह 'सुदर्शन कवच' दे रहा हूँ जिसके बारे मे डॉ नारायण दत्त श्रीमाली ने   1981 मे प्रकाशित एक पत्रिका मे लिखा है कि  उनके मित्र 'हरी राम जी'का पुत्र 17 वर्ष की उम्र मे आम तोड़ते हुये कमर के बल गिर गया था किन्तु वह अवचेतन हो गया था  और  पटना मेडिकल कालेज मे डाक्टरों ने 48 घंटों से पूर्व होश न आने की बात कही थी।किन्तु उन्होने मात्र 11 बार 'सुदर्शन कवच' का वाचन किया था कि बच्चे को होश आ गया जिस पर डॉ लोग हैरान थे और उनसे डाक्टरों ने  इसे हासिल कर लिया और कई गंभीर रोगियों को इसके सहारे ' अन -कानशसनेस' से मुक्ति दिलाई। हालांकि मैं तो अपनी माताजी को इससे लाभ न दिला सका परंतु दूसरे रोगों मे इसका सटीक प्रभाव देखते हुये इसे सार्वजनिक कर रहा हूँ,हालांकि हमारी बहन -डॉ शोभा लोगों का भला मुफ्त मे करने की मेरे आदत की कड़ी विरोधी हैं।

हमारी बउआ न केवल 'जननी'वरन माँ और माता भी थीं । उन्होने चरित्र निर्माण ,आत्म-निर्भरता,आत्म-विश्वास और परोपकार के भाव हम सब मे डाले। यह दूसरी बात है कि बहन भाई उन सिद्धांतों को सही नहीं मानते और उनसे हट गए लेकिन मैं आज भी उनके सिद्धांतों को ठीक मानते हुये उन्हीं पर चलने का प्रयास करता रहता हूँ। 






Saturday, June 16, 2012

ज्योतिष की खिल्ली उड़ाना आसान है?

 (सिकन्दरा,आगरा मे अक्तूबर 1993 मे लिए सामूहिक चित्र से 'शालिनी माथुर' )
18 वर्ष बाद प्रथम बार लिपिबद्ध श्रद्धांजली-

04 जनवरी 1959 को साँय 06 बजे मैनपुरी मे जन्मी शालिनी की मूल जन्म पत्री तो कभी दिखाई ही नहीं गई ,बताया गया कि खो गई है परंतु जो हस्त-लिखित प्रतिलिपि हमारे यहाँ भेजी गई थी उसका विवरण यह है-

रविवार,कृष्ण पक्ष दशमी,पूष मास,विक्रमी संवत 2015,'स्वाती नक्षत्र'।
लग्न-मकर और उसमे 'शुक्र'।
तृतीय भाव मे- 'मीन' का केतू।
चतुर्थ भाव मे -मेष का मंगल।
नवे भाव मे-कन्या का राहू।
दशम भाव मे -तुला का चंद्र।
एकादश भाव मे-वृश्चिक के बुध व गुरु।
द्वादश भाव मे -धनु के सूर्य व शनि।

ग्रहों का विश्लेषण देने से पूर्व यह भी बताना ज़रूरी है कि शालिनी के पिताजी और के बी माथुर साहब (डॉ शोभा के पति) के पिताजी 'रेलवे' के साथी थे और उनही के माध्यम और उनकी सिफ़ारिश पर विवाह हुआ था। जन्म कुंडली डॉ रामनाथ जी ने मिलाई थी ,14 गुण मिलने पर विवाह नहीं हो सकता था अतः उन्होने 28 गुण मिल रहे हैं बताया था। शालिनी के भाई 'कुक्कू' के बी माथुर साहब के पुराने मित्र थे । इससे निष्कर्ष निकाला कि डॉ रामनाथ को खरीद लिया गया था और उन्होने हमारे साथ विश्वासघात किया था। इस धोखे के बाद ही खुद 'ज्योतिष' का गहन अध्यन किया और तमाम जन्म-कुंडलियों का विश्लेषण व्यवहारिक ज्ञानार्जन हेतु किया। (  रेखा -राजनीति मे आने की सम्भावनालेख 19 अप्रैल 2012 को दिया था और 26 अप्रैल 2012 को वह 'राज्य सभा' मे नामित हो गईं। )

शालिनी के एंगेजमेंट के वक्त जब कुक्कू साहब की पत्नी मधू (जो के बी माथुर साहब की भतीजी भी हैं) ने गाना गाया तब के बी साहब ने स्टूल को तबला बना कर उनके साथ संगत की थी। इस एंगेजमेंट के बाद कुक्कू के मित्र वी बी एस टामटा ने टूंडला से इटावा जाकर शालिनी का हाथ देख कर उनके 35 वर्ष जीवित रहने की बात बताई थी और इसका खुलासा खुद शालिनी ने किया था। यह भी शालिनी ने ही बताया था कि कुक्कू उनको मछली के पकौड़े खूब खिलाते थे। कुक्कू अश्लील साहित्य पढ़ने के शौकीन थे और पुस्तकें बिस्तर के नीचे छिपा कर रखते थे। यह भी रहस्योद्घाटन खुद शालिनी ही ने किया था।

05 जनवरी 1981 से 10 दिसंबर 1981 तक शालिनी की 'गुरु' महादशा मे 'मंगल' की अंतर्दशा थी। यह काल भूमि लाभ दिलाने वाला था। इसी बीच 25 मार्च 1981 को एंगेजमेंट और 08 नवंबर 1981 को मेरे साथ विवाह हुआ । अर्थात विवाह होते ही वह स्वतः मकान स्वामिनी हो गई।

11 दिसंबर 1981 से 04 मई 1984 तक वह 'गुरु' महादशांतर्गत 'राहू' की अंतर्दशा मे थीं जो समय उनके लिए हानि,दुख,यातना का था। नतीजतन उनका प्रथम पुत्र 24 नवंबर 1982 को टूंडला मे प्रातः 04 बजे जन्म लेकर वहीं उसी दिन साँय 04 बजे दिवंगत भी हो गया।
इसी काल मे 1983 मे 'यशवन्त' का भी जन्म हुआ जो बचपन मे बहुत बीमार रहा है।

05 मई 1984से 07 मई 1987 तक का कार्यकाल  'शनि' की महादशांतर्गत 'शनि' की ही अंतर्दशा का उनके लिए लाभदायक था। परंतु   इसी काल मे 24/25 अप्रैल  1984 को मुझे होटल मुगल शेरेटन ,आगरा से सस्पेंड कर दिया गया क्योंकि मैंने इंटरनल आडिट करते हुये पौने 06 लाख का घपला पकड़ा था तो बजाए मुझे एवार्ड देने के घपलेबाजों को बचाने हेतु यही विकल्प था मल्टी नेशनल कारपोरेट घराने के पास। (यही कारण है कारपोरेट घरानों के मसीहा 'अन्ना'/'रामदेव' का मैं प्रबल विरोधी हूँ)।
लेकिन 01 अप्रैल 1985 से मुझे हींग-की -मंडी ,आगरा मे दुकानों मे लेखा-कार्य मिलना प्रारम्भ होने से कुछ राहत भी मिल गई।

26 फरवरी  1991 से 25 अप्रैल 1994 तक 'शनि' मे 'शुक्र' की अंतर्दशा का काल उनके लिए श्रेष्ठतम था। इस बीच मुझे कुछ नए पार्ट टाईम जाब भी मिलने से थोड़ी राहत बढ़ गई थी। इसी बीच 11 अप्रैल 1994 को लखनऊ के रवींद्रालय मे प्रदेश भाकपा के सपा मे विलय के  समय मैं भी आगरा ज़िला भाकपा के कोषाध्यक्ष पद को छोड़ कर सपा मे आ गया था। किन्तु नवंबर 1993 मे अपनी माँ के घर खाना खा कर शालिनी बुखार से जो घिरीं वह बिलकुल ठीक न हुआ।

26 अप्रैल 1994 से अक्तूबर तक 'शनि'महादशांतर्गत 'सूर्य'की अंतर्दशा उनके लिए सामान्य थी। किन्तु 16 जून 1994 को साँय 04 बजे से 05 बजे के बीच उनका प्राणान्त हो गया। 

इस समय के अनुसार शालिनी की जो मृत्यु कुंडली बनती है उसका विवरण यह है-

ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी,संवत-2051 विक्रमी,पूरवा फाल्गुनी नक्षत्र।
लग्न तुला और उसमे-गुरु व राहू।
पंचम भाव मे -कुम्भ का शनि।
सप्तम भाव मे-मेष के केतू व मंगल।
नवे भाव मे -मिथुन के सूर्य और बुध।
दशम भाव मे-कर्क का शुक्र।
एकादश भाव मे -सिंह का चंद्र।

अब इस मृत्यु कुंडली का ग्रह-गोचर फल इस प्रकार होता है -
गुरु भय और राहू हानि दे रहे हैं। शनि पुत्र को कष्ट दे रहा है। केतू कलह कारक है और 'मंगल' पति को कष्ट दे रहा है। बुध पीड़ा दे रहा है तो 'सूर्य' सुकृत का नाश कर रहा है और शुक्र भी दुख दे रहा है। जब सुकृत ही शेष नहीं बच रहा है तब जीवन का बचाव कैसे हो?

जन्म कुंडली मे 'बुध' ग्रह की स्थिति भाई-बहनों से लाभ न होने के संकेत दे रही है तो 'क्रोधी' भी बना रही है । 'केतू' की स्थिति अनावश्यक झगड़े मोल लेने की एवं पारिवारिक स्थिति सुखद न रहने की ओर संकेत कर रही है।  'ब्रहस्पति' की स्थिति पुत्रों से दुख दिलाने वाली है।



कैंसर -

हालांकि डॉ रामनाथ ने शालिनी को टी बी होने की बात कही थी  जो TB विशेज्ञ की जांच मे सिद्ध न हो सकी। 

बाद मे 1994 मे ही  डॉ रमेश चंद्र उप्रेती ने बताया था कि आँतें सूज कर लटक चुकी हैं एक साल इलाज से लाभ न हो तो आपरेशन करना पड़ेगा। उनकी मृत्यु के उपरांत जन्म-कुंडली की ओवरहालिंग से जो तथ्य ज्ञात हुये उनके अनुसार उनको आंतों का' कैंसर ' रहा होगा जिसे किसी भी मेडिकल डॉ ने डायगनोज नहीं किया। इसी लिए सही इलाज भी नही दिया। 

ज्योतिष के अनुसार शनि ग्रह का कुंडली के 'प्रथम'-लग्न भाव और 'अष्टम' भाव से संबंध हो तथा साथ ही साथ 'मंगल' ग्रह से 'शनि' का संबंध हो तो निश्चय ही 'कैंसर' होता है। 
शालिनी की जन्म कुंडली मे प्रथम भाव मे 'मकर' लग्न है जो 'शनि' की है। यह 'शनि' अष्टम  (सिंह राशि  )भाव के स्वामी 'सूर्य' के साथ द्वादश भाव मे स्थित है। द्वादश भाव (धनु राशि) का स्वामी ब्रहस्पति  एकादश भाव मे 'मंगल' की वृश्चिक राशि मे स्थित है। 

अनुमानतः 16-17 वर्ष की उम्र से शालिनी की आंतों मे विकृति प्रारम्भ हुई होगी जो मछली के पकौड़े जैसे पदार्थों के सेवन से बढ़ती गई होगी। चाय का सेवन अत्यधिक मात्रा  मे वह करती थीं जिससे आँतें निरंतर शिथिल होती गई होंगी। डॉ उप्रेती ने तले-भुने,चिकने पदार्थ और चाय से कडा परहेज बताया था फिर भी उनकी माता ने डॉ साहब के पास से लौटते ही मैदा की मठरी और एक ग्लास चाय उनको दी। इस व्यवहार ने ही रोग को असाध्य बनाया होगा।

मेडिकल विशेज्ञों की लापरवाही और खुद को उस वक्त ज्योतिष का गंभीर ज्ञान न होने के कारण ग्रहों की शांति या 'स्तुति' प्रयोग न हो सका। इसी कारण अब 'जन हित मे' स्तुतियों को सार्वजनिक करना प्रारम्भ किया है जिससे जागरूक लोग लाभ उठा कर अपना बचाव कर सकें। लेकिन अफसोस कि 'पूना' स्थित 'चंद्र प्रभा',ठगनी प्रभा' और 'उर्वशी उर्फ बब्बी' की तिकड़ी ब्लाग जगत मे भी मेरे विरुद्ध दुष्प्रचार करके लोगों को इनके लाभ उठाने से वंचित कर रही है। 

शालिनी अपने पुत्र यशवन्त की 'माँ' और 'माता' तो न बन सकीं किन्तु 'जननी' तो थी हीं। जिस प्रकार हम अपने बाबूजी और बउआ की मृत्यु की कैलेंडर तारीख को 'हवन' मे सात विशेष आहुतियाँ देते हैं उसी प्रकार शालिनी हेतु भी उन विशेष आहुतियों से उनकी 'आत्मा' की शांति की प्रार्थना करते हैं। किसी 'ढ़ोंगी' का पेट धासने  की बजाए वैज्ञानिक विधि से हवन करना हमे उचित प्रतीत होता है। 





Wednesday, June 13, 2012

बाबूजी एक स्मरण -13 जून पुण्य तिथि पर

स्व.ताज राज बली माथुर (चित्र महायुद्ध से लौटने के बाद )
1939-45 द्वितीय विश्व युद्ध मे प्राप्त बाबूजी का मेडल जिसके निचले किनारे पर उनका नाम -T.B.Mathur  एङ्ग्रेव किया हुआ है। 

द्वितीय विश्व युद्ध का ही एक और मेडल 



बाबूजी (निधन-13 जून 1995 )और बउआ(निधन-25 जून 1995) चित्र 1978 मे रिटायरमेंट से पूर्व  लिया गया



जब बाबूजी लखनऊ मे रह कर अपनी पढ़ाई कर रहे थे और इंटर मीडिएट का फर्स्ट ईयर ही पास कर पाये थे कि 1939 मे द्वितीय विश्व महायुद्ध छिड़ गया । अपने कुछ सहपाठियों के साथ बाबूजी ने भी सेना मे भर्ती होने का आवेदन कर दिया और चुन लिए गए। खेल-कूद मे उनके पास काफी सर्टिफिकेट थे जिनके आधार पर सिलेक्शन आसानी से हो गया था। दरियाबाद जाकर बाबूजी ने बाबाजी को यह सूचना दी तो उन्होने कहा कि फिर यहाँ क्यों आए हो?बाबूजी ने इसे उनकी सहमति माना और न भी मानते तब भी नियुक्ति के बाद जाने से इंकार करना संभव न था। उनको यूनिट मे स्टोर का चार्ज मिला। इम्फाल ,चटगांव आदि मे उनकी यूनिट रही। जब अंडमान की तरफ उनकी यूनिट जा रही थी तो साथ का राशन खत्म हो जाने पर एक बार उन्होने भी दूसरों की तरह उबले अंडे खाने को खरीद लिए परंतु खा न सके और भूखे रह कर ही वक्त गुजारा। बीच मे ही खबर मिली कि अंडमान पर नेताजी सुभाष चंद्र बॉस की 'आज़ाद हिन्द फौज'का कब्जा हो गया है और उनकी यूनिट को वापिस कलकत्ता लौटने का आदेश मिला। वह बताते थे कि यदि खबर देर से पहुँचती तो उनकी यूनिट अंडमान पहुँच कर INA मे शामिल हो जाती। एक ऐतिहासिक अवसर से बाबूजी और उनके साथी वंचित रह गए। ऊपर चित्र मे दिखाये मेडल और बैज वगैरह अपने खेल के सर्टिफिकेट समेत उन्होने खेलने को यशवन्त को दे दिये थे। यशवन्त ने ही उनको बताया कि मेडल पर बाबाजी आपका नाम खुदा हुआ है। इससे पूर्व उन्होने कभी खुद इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था।

सात साल सेना की नौकरी करके सात साल बाबूजी दरियाबाद मे रहे उनका इरादा खेती देखने का था। किन्तु अपने बड़े भाई के व्यवहार से खिन्न होकर अपनी यूनिट के आफ़ीसर कमांडिंग रहे अधिकारी जो बाद मे लखनऊ मे CWE की पोस्ट पर थे की मदद से पुनः MES मे नौकरी कर ली। सात साल लखनऊ,डेढ़ साल बरेली,पाँच साल सिलीगुड़ी,सात साल मेरठ और चार साल आगरा मे पोस्ट रह कर नौकरी की। 1978 मे रिटायर होकर 1995  मे मृत्यु तक मेरे पास आगरा मे ही रहे। बीच-बीच मे कुछ समय के लिए अजय के पास फरीदाबाद भी गए।

खेलों के प्रति लगाव के ही कारण बाबूजी का सुप्रसिद्ध  साहित्यकार स्व.अमृत लाल नागर जी और नवभारत टाइम्स के संपादक रहे ठाकुर स्व .राम पाल सिंह  जी से संपर्क था। अमृत लाल जी बाबूजी से सीनियर थे और वह ओल्ड ब्वायज एसोसिएशन की ओर से खेलने आते थे जबकि राम पाल सिंह जी बाबू जी से जूनियर थे और स्कूल की टीम मे साथ-साथ खेलते थे।  उत्तर प्रदेश भाकपा के सचिव रहे कामरेड भीखा लाल जी तो बाबूजी के क्लास मे ही पढ़ते भी थे और एक ही हास्टल रूम मे रहते भी थे। किन्तु फौज मे जाने के बाद इन सबसे बाबूजी का संपर्क टूट गया था। कामरेड भीखा लाल जी ने मुझे आगरा से एक प्रदर्शन मे लखनऊ भाग लेने के अवसर पर आने पर बताया था जिसकी बाद मे बाबूजी ने भी पुष्टि की कि उन्होने PCS मे जाने और तहसीलदार बनने के बाद भी कई बार बाबूजी को बुलाया था और बाद मे MLA बनने पर भी किन्तु वह उनसे नहीं मिले। बाबूजी ने मुझे बताया कि वह पहले बड़े अफसर थे फिर बड़े नेता और हम उनकी टक्कर मे कुछ नहीं थे इसलिए मिलने नहीं गए। शायद यही कारण होगा कि उन्होने लखनऊ मे ही रहते हुये भी अमृत लाल नागर जी से भी संपर्क फिर नहीं बनाया होगा। कामरेड भीखा लाल जी ने मुझे आदेश दिया था कि अगली बार जब लखनऊ आना तो अपने बाबूजी को भी साथ लाना किन्तु उसके कुछ समय बाद  उनका निधन हो गया था हालांकि बाबूजी ने उनसे मिलने की बात स्वीकार कर ली थी।

लखनऊ मे बाबूजी हास्टल के अलावा अपनी भुआ के घर निवाजगंज मे भी काफी रहे थे। उनके फुफेरे भाई स्व.रामेश्वर दयाल माथुर के पुत्र ने बताया है कि हमारे बाबूजी और ताऊजी भाई होने के साथ-साथ मित्र भी थे तथा उनके निवाज गंज के और साथी थे-स्व.हरनाम सक्सेना जो दरोगा बने,स्व.देवकी प्रसाद सक्सेना,स्व.देवी शरण सक्सेना,स्व.देवी शंकर सक्सेना.इनमें से दरोगा जी को १९६४ में रायपुर में बाबाजी से मिलने आने पर व्यक्तिगत रूप से देखा था बाकी की जानकारी पहली बार पिछले वर्ष ही  प्राप्त हुई। बाबूजी की भुआ उनका ख्याल रखती थीं। लेकिन बाबूजी की बहन कैलाश किशोरी ने न केवल अपने एक भाई को मुकदमे मे छल से हराया वरन  कुछ भतीजों के प्रति भी उनका व्यवहार विद्वेषात्मक रहा। उनकी नकल कर रही हैं उनकी भतीजी डॉ शोभा जो बाबूजी की ही इकलौती बेटी हैं। डॉ शोभा अपनी भुआ को फालों करते हुये अजय की पुत्री और मेरे पुत्र से विद्वेषात्मक व्यवहार रख रही हैं,उनकी छोटी बेटी पूना के अपने संपर्कों से कुछ ब्लागर्स को भी गुमराह कर रही है। लेकिन तब बाबूजी की फुफेरी भाभी जी ने बचपन मे मेरी भी देख-रेख की और अस्पताल ज़रूरत पड़ने पर लेकर गईं। तब रिश्ते चलते थे अब पैसा । अमीर-गरीब मे रिश्ता नहीं निभता।

13 जून 1995 को दो दिन के मामूली बुखार के बाद बाबूजी का भी निधन हो गया था। आज उनको यह संसार छोड़े हुये 17 वर्ष हो रहे हैं। मैं केवल 'वेदिक' हवन द्वारा विशेष सात आहुतियाँ देकर उनकी आत्मा की शांति हेतु प्रार्थना करता हूँ। मैं किसी प्रकार का ढोंग (कनागत) आदि नही करता हूँ। जब तक वह जीवित रहे जिस प्रकार संतुष्ट हो सकते थे अपनी ओर से संतुष्ट रखने का प्रयास किया। उनके नाम पर अब कोई दिखावा या आडंबर करना मैं उचित नहीं समझता हूँ।

आज ही 'विद्रोही स्व-स्वर मे'उनके जीवन का ज्योतिषयात्मक विश्लेषण भी दिया है जो लोग ग्रहों की चालों का व्यक्तिगत जीवन पर प्रभाव जानने को उत्सुक हों ,वे इसी ब्लाग के सहारे से वहाँ पहुँच सकते हैं। 

Monday, June 4, 2012

कबीर को क्यों याद करें?




            ( यह वीडियो अपर्णा मनोज जी की फेसबुक वाल से 02 मार्च 2012 को लिया गया है। )

संतकबीर 




गत वर्ष मैंने कबीर दास जी पर यह विचार दिये थे-

http://krantiswar.blogspot.in/2011/06/blog-post_15.html

आज 615वी कबीर जयंती पर भी उनको दोहराना उपयुक्त रहेगा ।



"चौदह सौ पचपन साल गये,चंद्रवार एक ठाट ठये.
जेठ सुदी बरसायत को ,पूरनमासी प्रगट भये .."   

'कबीर चरित्र बोध' ग्रन्थ के अनुसार कबीर-पंथियों ने सन्त कबीर का जन्म सम्वत १४५५ की जेठ शुक्ल पूर्णिमा को माना है.

कबीर की रचनाओं में काव्य के तीन रूप मिलते हैं-साखी,रमैनी और सबद .साखी दोहों में,रमैनी चौपाइयों में और सबद पदों में हैं.साखी और रमैनी मुक्तक तथा सबद गीत-काव्य के अंतर्गत आते हैं .इनकी वाणी इनके ह्रदय से स्वभाविक रूप में प्रवाहित है और उसमें इनकी अनुभूति की तीव्रता पाई जाती है.


वैसे सभी रोते रहते हैं भ्रष्टाचार को और कोसते रहते हैं राजनेताओं को ;लेकिन वास्तविकता समझने की जरूरत और फुर्सत किसी को भी नहीं है.भ्रष्टाचार-आर्थिक,सामजिक,राजनीतिक,आध्यात्मिक और धार्मिक सभी क्षेत्रों में है और सब का मूल कारण है -ढोंग-पाखंड पूर्ण धर्म का बोल-बाला.



कबीर के अनुसार धर्म  

कबीर का धर्म-'मानव धर्म' था.मंदिर,तीर्थाटन,माला,नमाज,पूजा-पाठ आदि बाह्याडम्बरों ,आचार-व्यवहार तथा कर्मकांडों की इन्होने कठोर शब्दों में निंदा की और 'सत्य,प्रेम,सात्विकता,पवित्रता,सत्संग (अच्छी सोहबत न कि ढोल-मंजीरा का शोर)इन्द्रिय -निग्रह,सदाचार',आदि पर विशेष बल दिया.पुस्तकों से ज्ञान प्राप्ति की अपेक्षा अनुभव पर आधारित ज्ञान को ये श्रेष्ठ मानते थे.ईश्वर की सर्व व्यापकता और राम-रहीम की एकता के महत्त्व को बता कर इन्होने समाज में व्याप्त भेद-भाव को मिटाने प्रयास किया.यह मनुष्य मात्र को एक समान मानते थे.वस्तुतः कबीर के धार्मिक विचार बहुत ही उदार थे.इन्होने विभिन्न मतों की कुरीतियों संकीर्णताओं  का डट कर विरोध किया और उनके श्रेयस्कर तत्वों को ही ग्रहण किया.

लोक भाषा को महत्त्व 

कबीर ने सहज भावाभिव्यक्ति के लिए साहित्य की अलंकृत भाषा को छोड़ कर 'लोक-भाषा' को अपनाया-भोजपुरी,अवधी,राजस्थानी,पंजाबी,अरबी ,फारसी के शब्दों को उन्होंने खुल कर प्रयोग किया है.यह अपने सूक्ष्म मनोभावों और गहन विचारों को भी बड़ी सरलता से इस भाषा के द्वारा व्यक्त कर लेते थे.कबीर की साखियों की भाषा अत्यंत सरल और प्रसाद गुण संपन्न है.कहीं-कहीं सूक्तियों का चमत्कार भी दृष्टिगोचर होता है.हठयोग और रहस्यवाद की विचित्र अनुभूतियों का वर्णन करते समय कबीर की भाषा में लाक्षणिकता आ गयी है.'बीजक''कबीर-ग्रंथावली'और कबीर -वचनावली'में इनकी रचनाएं संगृहीत हैं.
(उपरोक्त विवरण का आधार हाई-स्कूल और इंटर में चलने वाली उत्तर-प्रदेश सरकार की पुस्तकों से लिया गया है)



कबीर के कुछ  उपदेश 

ऊंचे कुल क्या जनमियाँ,जे करणी उंच न होई .
सोवन कलस सुरी भार्या,साधू निंदा सोई..

हिन्दू मूये राम कही ,मुसलमान खुदाई.
कहे कबीर सो जीवता ,दुई मैं कदे न जाई..

सुखिया सब संसार है ,खावै अरु सोवै.
दुखिया दास कबीर है ,जागे अरु रोवै..

दुनिया ऐसी बावरी कि,पत्थर पूजन जाए.
घर की चकिया कोई न पूजे जेही का पीसा खाए..

कंकर-पत्थर जोरी कर लई मस्जिद बनाये.
ता पर चढ़ी मुल्ला बांग दे,क्या बहरा खुदाय

..इस प्रकार हम देखते हैं कि,सन्त कबीर की वाणी आज भी ज्यों की त्यों जनोपयोगी है.तमाम तरह की समस्याएं ,झंझट-झगडे  ,भेद-भाव ,ऊँच-नीच का टकराव ,मानव द्वारा मानव का शोषण आदि अनेकों समस्याओं का हल कबीर द्वारा बताये गए धर्म-मार्ग में है.कबीर दास जी ने कहा है-

दुःख में सुमिरन सब करें,सुख में करे न कोय.
जो सुख में सुमिरन करे,तो दुःख काहे होय..


अति का भला न बरसना,अति की भली न धुप.
अति का भला न बोलना,अति की भली न चूक..

मानव जीवन को सुन्दर,सुखद और समृद्ध बनाने के लिए कबीर द्वारा दिखाया गया मानव-धर्म अपनाना ही एकमात्र विकल्प है-भूख और गरीबी दूर करने का,भ्रष्टाचार और कदाचार समाप्त करने का तथा सर्व-जन की मंगल कामना का.

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जैसा कि शोषक वर्ग दूसरे जन-हितैषी सुधारकों के साथ छल करता आया है उसने कबीर दास जी के साथ भी किया है । उनके मंदिर बना दिये गए हैं उनकी मूर्तियाँ स्थापित कर दी गई हैं। खुद कबीर दास जी जीविकोपार्जन हेतु श्रम करते थे-कपड़ा बुनते थे,सूत कातते थे।उन्होने हर तरह के ढोंग का विरोध किया-

कंकर-पत्थर जोड़   कर लई मस्जिद        बनाए। 
ता पर चढ़ी मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय । । 


दुनिया ऐसी  बावरी कि          पत्थर पूजन जाये। 
घर की चकिया कोई न पूजे जेही का पीसा खाये। ।  

कबीर दास जी के बाद स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी जनता को जागरूक करने का बीड़ा उठाया था। किन्तु आज इन दोनों महात्माओं को भी जातिगत खांचे मे डाल कर उनकी आलोचना का फैशन चला हुआ है। ढोंग-पाखंड और आडंबर का जबर्दस्त बोल-बाला है। स्वामी,बापू,भगवान न जाने क्या-क्या बन कर लुटेरे जनता को ठग रहे हैं और जनता खुशी से लुट रही है। सीधी-सच्ची बात किसी को समझ नहीं आ रही है जो जितना ज्यादा खुद को काबिल बता रहा है वही उतना ही कूपमंडूकता पर चल रहा है। तथा-कथित प्रगतिशील और आधुनिक विज्ञानी होने का दावा करने वाले ही ढोंग-पाखंड-आडंबर को बढ़ावा देने मे आगे-आगे हैं।

आज भी मानवता को यदि बचाना है तो 'संत कबीर 'को याद करना ही पड़ेगा ,उनकी सीख पर ध्यान देना ही पड़ेगा। 










Friday, June 1, 2012

ब्लाग -लेखन के दो वर्ष बाद भी -"अकेला हूँ मैं"

सर्व-प्रथम आज 01 जून अंतर्राष्ट्रीय बाल दिवस पर दुनिया के सभी बच्चो को मंगलकामनाएं। 


अब अपनी बात-



02 जून 2010 को इस ब्लाग मे पहला लेख दिया था-"आठ और साठ घर मे नहीं" जो एक स्थानीय अखबार मे पूर्व मे प्रकाशित हो चुका था। आज  आयु साठ वर्ष पूर्ण करने के बाद जब इस ब्लाग लेखन के भी दो वर्ष पूर्ण हो रहे हैं तो मैं यह कह सकने की स्थिति मे हूँ कि अपनी तरह के लेखन मे मैं ब्लाग जगत मे बिलकुल अकेला हूँ। एक ब्लागर् साहब  ने बड़ी मेहनत से सभी ब्लागरों की श्रेणियाँ बनाई थीं और उनके चरित्र बताए थे शायद उनमे से भी किसी खांचे मे मैं फिट नहीं हूँ। मैंने प्रारम्भ मे ही सूचित किया था कि 'स्वांत: सुखाय,सर्वजन हिताय' मेरे लेखन का उद्देश्य है। टिप्पणियों को मुद्दा बना कर अनेक ब्लागर्स ने कहा कि जो लोग स्वांत: सुखाय लिखते हैं उन्हें टिप्पणी बाक्स बंद कर देना चाहिए। मैंने ऐसा किया भी था तब उन लोगों को दिक्कत हुई जो निष्पक्ष टिप्पणियाँ देना चाहते थे अतः उनकी सुविधा हेतु पुनः टिप्पणी बाक्स को खोलना  पड़ा। कुछ ब्लागर्स लिखते हैं यह लेंन -देंन(give&take)है मैं इस सिद्धान्त से पूर्णतया असहमत हूँ। अपने अनुभव और ज्ञात ज्ञान के आधार पर हमने जो विचार दिये उससे कोई भी किसी भी कारण से असहमत हो सकता है,यदि वह तर्क संगत बात प्रस्तुत करता है तो उसका स्वागत है किन्तु यहाँ तो ब्लागर्स अहंकार मे डूबे हुये हैं वे खुद को खुदा और दूसरों को बेवकूफ समझते है। मेरे कई लेखों पर ऐसी टिप्पणियाँ दी गई हैं-"यह मूर्खतापूर्ण कथा है","यह आप क्या बेपर की उड़ा रहे हैं" आदि-आदि। उस पर भी तुर्रा यह कि ब्लागर्स उम्दा लिखते हैं फेसबुक पर 'बकवास' होती है। 'जाकी रही भावना जैसी,प्रभु  मूरति देखि  तिन तैसी'। जिसकी फेसबुक लिस्ट मे जैसे लोग होंगे वैसा ही तो लिखेंगे। मैंने तो तमाम अन्ना/रामदेव भक्तों को अपनी लिस्ट से हटा दिया था जिन लोगों ने तर्क न आने पर कुतर्कपूर्ण बातें जैसे-'वाहियात','नानसेन्स','बंगाल की खाड़ी मे डुबो दिया जाएगा' शब्दों का प्रयोग किया था। यदि ऐसे ढपोर शंखों को न हटाता तो मेरी फेसबुक लिस्ट भी  हजारों की संख्या छूती किन्तु मैंने उसे दो सौ के ऊपर  पर समेटा हुआ है और आँख बंद करके किसी भी रिकुएस्ट को स्वीकार नहीं करता हूँ।पोंगा-पंथ आदि के समर्थक ज्ञात होते ही एक पल मे अपनी लिस्ट से ऐसे लोगों को हटा देता हूँ।मेरे ज्योतिषयात्मक विश्लेषण की खिल्ली उड़ाने वाले ब्लागर(जिसे ब्लैक मेलर कहना ज़्यादा उपयुक्त होगा क्योंकि वह कई ब्लागर्स से  उनकी रचनाएँ छपवाने   का प्रलोभन दे कर धन उगाही मे ही संलिप्त रहता है ) के प्रशंसक और सहयोगी ब्लागर्स के ब्लाग अनफालों करते हुये उन्हे फेसबुक लिस्ट से तत्काल हटा दिया था।

ब्लागर्स पढ़ें या न पढ़ें फेसबुक लिंक के माध्यम से न केवल फ्रेंड-लिस्ट मे शामिल लोगों बल्कि विभिन्न ग्रुप्स के जरिये उन लोगों तक भी जो सीधे-सीधे फ्रेंड लिस्ट मे शामिल नहीं हैं संदेश पहुँच जाता है। अतः मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि फेसबुक तो ब्लाग-लेखन का उद्देश्य सिद्ध करने मे बहुत सहायक है। यदि फेसबुक पर कुछ लोग जो बिगड़े हुये अमीर हैं गलत हैं तो ब्लाग जगत मे तो 99 .9 प्रतिशत लोग हेंकड़ी,अहंकार,अहम मे डूब कर रचनाएँ कर रहे हैं। एक ब्लागर दूसरे ब्लागर को नीचा दिखाने के  प्रयासो मे ही लगा रहता है। मैं घोषित रूप से 'ढोंग-पाखंड' का विरोध करता हूँ तो अनेकों ब्लागर्स 'ढोंग-पाखंड' को बढ़ावा देने हेतु एक के बाद एक पोस्ट लिखते जा रहे हैं। मेरे ज्योतिषीय विश्लेषण के सटीक निकलने पर दूसरे ब्लाग मे टिप्पणी के माध्यम से उसकी खिल्ली उड़ाई गई।खिल्ली उड़ाने वाले इस ब्लागर के एक समर्थक का दृष्टिकोण है कि चूंकि आपने निशुल्क सहायता उस ब्लागर को दी थी इसलिए वह आपको मूर्ख समझता है। यह ब्लागर्स ब्रांड  आधुनिक सोच है कि निशुल्क सहायता का एहसान मानने की बजाए उसे मूर्खता समझ कर उसकी खिल्ली उड़ाई जाये।  मेरे पिछले कई लेखों को एक साथ निरर्थक घोषित करने हेतु कुछ ब्लागर्स तो स्वामी दयानंद सरस्वती तक पर प्रहार कर रहे हैं उनको अज्ञानी साबित करने पर आमादा हैं।

देश को आज़ाद हुये 65 वर्ष पूर्ण होने वाले हैं परंतु अभी तक लोगों के दिलो-दिमाग से गुलामी की बू नहीं निकली है। विदेशी शासकों ने हमारे देश की संस्कृति और साहित्य को यहीं के पद-लूलुप,धन-पिपासू विद्वानों की सहायता से विकृत करा दिया था अब उसका परिष्करण किया जाना चाहिए था किन्तु इसके विपरीत आज बड़ी तेज़ी से 'सांस्कृतिक-साहित्यिक आक्रमण' करके देश और इसकी एकता को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों के हित  मे किया जा रहा है। "समाजवाद और वेदिक मत" के माध्यम से मैंने सृष्टि से अब तक का संक्षिप्त वर्णन देकर स्पष्ट किया था समाज मे समानता के सिद्धान्त को ध्वस्त करने हेतु देश-द्रोही शक्तियाँ गलत व्याख्याये प्रस्तुत कर रही हैं तब से इस क्रम मे  और तीव्रता से वृद्धि हुई है।

जो विदेशी भारत आकर यहीं बस गए उन्होने जनता पर अपनी पकड़ मज़बूत करने हेतु यहाँ विद्वानो को उपकृत करके 'कुरान' की त्तर्ज पर 'पुराण' लिखवाये जिनमे हमारे महापुरुषों का चरित्र हनन किया गया है। दुर्भाग्य की बात है कि आज उन  सब पुराण का अंध-प्रकोप फैला हुआ है जिसने जीवन के सभी आयामो मे भ्रष्टाचार कूट-कूट कर भर दिया है। बाद मे आए यूरोपीय शासकों ने तो और भी हद कर दी। भारत के इतिहास को उलट -पलट दिया गया ,विकृत कर दिया गया। लेंनपूल,कर्नल टाड आदि और इन्ही के स्वर मे स्वर मिलाते हुये आर सी माजूमदार सरीखे भारतीय इतिहासकारों ने देश को एक सांप्रदायिक इतिहास प्रदान किया। इन इतिहासकारों ने आर्यों को आक्रांता घोषित किया और उनका मूल उद्गम दक्षिण-पश्चिम एशिया मे मेसोपोटामिया को बताया। 'हिटलर' की पुस्तक के पृष्ठ 85 के हवाले से कुछ लोगों ने यूरोप को आर्यों का मूल उद्गम बताया। आज देश मे एक ज़बरदस्त बहस छिड़ी हुई है भारत के मूल निवासियों की सत्ता स्थापना की। इस हेतु आर्यों को विदेशी बता कर उनकी कटु आलोचना की जा रही है। महात्मा गौतम बुद्ध को मूल निवासी बताया जा रहा है जबकि उन्होने खुद प्रत्येक शब्द के पूर्व 'आर्य सत्य है' लगाया है जबकि आज इसे आर्यों का षड्यंत्र बताया जा रहा है। कहाँ हैं हमारे ब्लाग -जगत के विद्वान शूर-वीर?क्या वे आत्म-प्रशंसा या एक दूसरे की प्रशंसा मे ही रचना संसार चलाते रहेंगे?



समाज-शास्त्र (Sociology) की बी ए की पुस्तक मे पढ़ा था कि-'जिस प्रकार धुए को देख कर ज्ञात होता है कि आग लगी है और गर्भिणी को देख कर भान होता है कि संभोग हुआ है उसी प्रकार मानव के विकास क्रम मे कुछ कड़ियाँ अभ भी मिल जाती हैं जिनसे अतीत का भान होता है।'इस आधार पर विदेशी विद्वानों के निष्कर्ष और उनके अनुयाईओ का भ्रामक प्रचार अतार्किक और अवैज्ञानिक सिद्ध होता है। मैक्समूलर साहब जर्मनी से आए भारत मे तीस वर्ष रहे यहीं पर संस्कृत सीखी और यहाँ से मूल पांडुलिपियाँ लेकर जर्मन रवाना हो गए। जर्मन भाषा मे अनुवाद प्रकाशित कराये जिनके आधार पर वहाँ और पूरे यूरोप मे वैज्ञानिक क्रांति हुई। आज यूरोप को विज्ञान का सिरमौर माना जा रहा है क्योंकि हमारे पूर्वज देशवासी अपनी धरोहर को सम्हाल कर न रख सके तो वे अनाड़ी और मूर्ख करार दे दिये जा रहे हैं। 'परमाणु बम' का आविष्कार इन ग्रन्थों की सहायता से जर्मन मे हुआ उसकी पराजय के बाद अमेरिका और रूस ने इन वैज्ञानिकों को बाँट लिया जिसके फल् स्वरूप यू एस ए और रूस मे एटम बम बनाए गए, इसी प्रकार हेनीमेन साहब ने  होम्योपैथी, शुसलर साहब ने बायोकेमिक और कार्ल मार्क्स ने साम्यवाद आदि के जो  सिद्धान्त प्रतिपादित किए वे  भारत से ही जर्मन पहुंचे हैं जिसे हिटलर ने अपना बता दिया था।वस्तुतः 'साम्यवाद' के सिद्धान्त 'वेदों'से ही निकले हैं किन्तु दुखद है कि भारत के साम्यवादी इस वास्तविक सत्य को स्वीकार न करने के कारण जनता से अलग-थलग पड़े हैं। नतीजतन साम्राज्यवादियों के हितार्थ स्थापित RSS और उसके संगठन जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ने मे कामयाब हो जाते हैं। 

आज से दस लाख वर्ष पूर्व जब मानव का उद्भव हुआ तो सम्पूर्ण पृथ्वी पर तीन स्थानों -1-त्रिवृष्टि-आधुनिक तिब्बत,2-मध्य अफ्रीका महाद्वीप और 3- मध्य यूरोप मे 'युवा स्त्री' और 'युवा पुरुष' के रूप मे सृष्टि प्रारम्भ हुई थी। आज विश्व की सम्पूर्ण आबादी उन्हीं की वंशज है। भौगोलिक जलवायु के अनुसार अफ्रीका, यूरोप और एशिया के मानव भिन्न- रूप,रंग,आकार-प्रकार के हैं। प्राकृतिक सुविधा के अनुसार 'त्रिवृष्टि' अर्थात तिब्बत मे उत्पन्न मानव दूसरे स्थानो पर उत्पन्न मानव से ज्ञान-विज्ञान मे श्रेष्ठ था जिसे आर्ष पुकारा गया वही शब्द अब आर्य कहलाता है। किन्तु आर्यों को विदेशी आक्रांता बताते हुये इसकी उत्पत्ति 'अरि' (शत्रु)के रूप मे बता कर आर्यों पर हमला बोलने का आहवाहन किया जा रहा है। आर्यों के विस्तार का विकृत इतिहास इसका प्रमाण बताया जा रहा है।


आर्य न कोई जाति थी न है। आर्य=आर्ष=श्रेष्ठ। ज्ञान-विज्ञान इस श्रेष्ठता का आधार था न कि रूप,रंग या नस्ल। त्रिवृष्टि मे जन-संख्या वृद्धि होने पर आर्ष या आर्य लोग हिमालय पार कर उत्तर भारत के निर्जन प्रदेश पर आ गए और इसे आर्यावृत्त नाम दिया यहाँ पहले आबादी थी ही नहीं तो आक्रमण करने या मूल निवासियों को कुचलने का प्रश्न कहाँ से आ गया?साम्राज्यवादियो की विभाजनकारी थीसिस है यह सिद्धान्त। बाद मे जंबू द्वीप भी आर्यावृत्त से जुड़ गया तो बढ़ती आबादी वहाँ भी पहुंची वहाँ भी आक्रमण या किसी को कुचलने की बात नहीं थी। आर्य-द्रविड़ झगड़ा अंग्रेज़ इतिहासकारों की कपोल - कल्पना है जो आज भी  भारत और श्रीलंका मे तनाव उत्तपन्न किए हुये है।

यह अफसोसनाक ही है कि साम्यवादी विद्वान भी आर्यों को विदेशी आक्रांता ही मानते हैं जैसा कि साम्राज्यवादियों ने घोषित कर रखा है। मार्क्स के अनुयायी तपाक से कह देते हैं कि आर्यों को भारत का मूल मानने का सिद्धान्त आर एस एस का हैं। वे यह भूल जाते हैं कि आर एस एस आर्यों =श्रेष्ठ कार्यों की बात नहीं करता है वह तो साम्राज्यवादियो द्वारा रटाये'हिंदूवाद' की बात करता है अब भी अमेरिकी इशारे पर नरेंद्र मोदी को 2014 के चुनावों मे हिन्दू हीरो के तौर पर पेश करने की तैयारी चल रही है जो सांम्प्रदायिक मसीहा है । सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद सगी बहने हैं। 


भारत से कुछ आर्ष=आर्य विद्वानों के दल दूसरे स्थान के मानवों को भी आर्य=श्रेष्ठ बनाने हेतु गए उनका उद्देश्य ज्ञान-विज्ञान का प्रचार व प्रसार करना था न कि किसी को उजाड़ना। जो दल पश्चिम पर्वत माला को पार कर बाहर गया था उसका पहला पड़ाव जहां हुआ उसे 'आर्यनगर' कहा गया जो भाषाई बदलाव से 'ऐरयान' फिर 'ईरान' हो गया। यहाँ के अंतिम शासक खुद को आर्य मेहर रज़ा पहलवी कहते थे। लेकिन विदेशियों से प्रभावित विद्वान ईरानियों को असली आर्य घोषित कर रहे हैं। यह दल आगे मध्य एशिया होते हुये यूरोप भी पहुंचा जहां उसका पड़ाव जर्मन के आस-पास था।

पूर्व क्षेत्र की पर्वत माला को पर कर जो दो ऋषि-मय और तक्षक चले वे वर्तमान साईबेरिया के ब्लाडीवोस्ट्क को पार करते हुये वर्तमान उत्तरी अमेरिका महाद्वीप के 'अलास्का' से प्रविष्ट हुये और दक्षिन्न की ओर चले। जहां तक्षक ऋषि ने पड़ाव डाला वह आज भी उन्ही के नाम पर ' टेक्सास' कहलाता है जहां जान एफ केनेडी को गोली मारी गई थी। मय ऋषि ने दक्षिण अमेरिका के जिस स्थान पर पड़ाव डाला वह आज भी उनके नाम पर 'मेक्सिको' कहलाता है।

दक्षिण दिशा से जाने वाले ऋषियों का नेतृत्व 'पुलत्स्य मुनि'ने किया था जिनहोने वर्तमान आस्ट्रेलिया महाद्वीप मे पड़ाव डाला था। शेष स्थानों पर गए ऋषि-मुनि ज्ञान-विज्ञान के प्रसार तक ही सीमित रहे किन्तु पुलत्स्य मुनि के पुत्र 'विश्रवा'ने वहाँ से लंका  मे आ कर  सत्ता अपने हाथ मे ले ली और तत्कालीन शासक 'सोमाली' को आस्ट्रेलिया के पास के प्रदेश मे भेज दिया जो आज भी उसी के नाम पर 'सोमाली लैंड' कहलाता है। 'विश्रवा'के मध्यम पुत्र 'रावण' ने बड़े भाई 'कुबेर' को भगा कर छोटे भाई विभीषण को मिला कर वहाँ  सत्तारूढ़ हो गया।

भारत से बाहर बसे आर्य खुद को 'रक्षस'=रक्षा करने वाले कहते थे। अर्थात उनका दावा था कि वे आर्य सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करने वाले हैं। 'रक्षस' अपभ्रंश हो कर 'राक्षस' कहलाया। अंग्रेज़ इतिहासकारों ने राम-रावण युद्ध जो भारतीय और प्रवासी-साम्राज्यवादी आर्यों के मध्य था को भी आर्य-द्रविड़ संघर्ष के रूप मे प्रचारित किया है। स्वामी दयानन्द को अंग्रेज़ शासक रिवोल्यूशनरी संत कहते थे क्योंकि वह 1857 के प्रथम-संग्राम मे भी भाग ले चुके थे। अतः आज भी साम्राज्यवादियों का पहला प्रहार दयानंद पर ही है। दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं को ध्वस्त करने हेतु प्रथम भारतीय पोस्ट मास्टर जेनरल के अवकाश ग्रहण करने पर साम्राज्यवादियों के हितार्थ स्थापित राधास्वामी मत की कमान सम्हालने को कहा गया । उनके आध्यात्मिक रूपान्तरण का लाभ लेकर 'सत्यार्थ प्रकाश' का खंडन करने हेतु 'यथार्थ प्रकाश' की रचना हुई जिसमे स्वामी दयानन्द के सिद्धांतो को गलत और झूठा सिद्ध करने का घिनौना प्रयास किया गया है(यह अलग बात है कि उनकी छ्ठ्वी पीढ़ी के अधिष्ठाता स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी बने ) । आज तो अनेकों ढपोर शंख बापू और स्वामी कहलाकर आध्यात्मिकता के नाम पर आडंबर और भ्रष्टाचार खुले आम फैला रहे हैं जो कि 'नव उदारवाद' का उपहार है। कितने प्रतिशत ब्लागर्स इस सब कुराफ़त का विरोध कर रहे हैं?कोई करे या न करे हमे तो अन्याय और असत्य के विरुद्ध संघर्ष करना ही है। इसीलिए 'मैं अकेला हूँ'।