Wednesday, November 25, 2015

इतिहास के झरोखों से नये पदचाप को दिशा देने की तमन्ना ------ विजय राजबली माथुर





यादों के झरोखों से ------


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https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/972778176117492

पाँच वर्ष पूर्व मैंने एक पोस्ट में लिखा था :

http://vidrohiswar.blogspot.in/2010/10/blog-post.html
:चार वर्ष पूर्व की एक पोस्ट का अंश : 



http://vijaimathur.blogspot.in/2011/11/blog-post.html
 प्रस्तुत यह कविता दीवान सिंह जी ने मुझे 'सप्तदिवा ' के लिए दी थी किन्तु फिर जब मैं ही अलग हो गया तो न छप सकी थी।इसे अब इस ब्लाग -पोस्ट में प्रकाशित कर रहे हैं। :




'मैं गरिमा हूँ ' 

एक समय था 
जब मैं मैले-कुचैले  सुकरात की मुकुट थी 
बहुजन हिताय व बहुजन सुखाय के निकट थी। 
कंटकाकीर्ण पथ गमनकारी मेरा श्रिंगार करते थे 
त्याग तपस्या की तपन के बावजूद मेरे लिए मचलते थे। 
क्योंकि मैं गरिमा हूँ। 
        ***
लेकिन अफसोस हो रहा है 
समय के साथ मेरा निवास भी बदल रहा है 
आजकल मैं अट्टालिकाओं में बहार करती हूँ। 
सेठ-साहूकारों के पैरों में निवास करती हूँ । 
आज मैं बड़ों की बड़ाई का अस्त्र हूँ। 
क्योंकि मैं गरिमा हूँ। 

--- ( दीवान सिंह बघेल, ग्राम-बास अचलू, टर्र्म्पुर, आगरा )  
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Comments
Narendra Parihar wah sir ji ......yaado ko sametna yane naye ki padchaap ko ansuna karna hi maane ya itihaas ke jharokho se nayi padchaap ko disha dene ki tamannaSee Translation
Vijai RajBali Mathur जैसा आप मानें।

बंधु नरेंद्र जी ने जानना चाहा था कि उपरोक्त 'यादों के झरोखों से' का तात्पर्य क्या लगाया जाये अतः पुरानी ब्लाग-पोस्ट्स के जरिये उसे स्पष्ट करने का प्रयास किया है। 

एक नैतिक प्रश्न सामने था कि ,


इस 'राईटर एंड जर्नलिस्ट ' फोरम से आदरणीय शेष नारायण सिंह जी ने सितंबर 2011 में सम्बद्ध तब किया था जब भड़ास में उन्होने सुब्रमनियम स्वामी वाला लेख प्रकाशित करवाया था। तब -

इन लोगों की व्याख्या से केवल और केवल ब्रहमनवाद तथा संघ के मंसूबे ही पूरे होंगे 

 http://krantiswar.blogspot.in/2015/11/blog-post_13.html

पोस्ट के जरिये उनके सुझाए लेखकों की व्याख्याओं पर संदेह करना क्या उचित था ?
ऊपर जो पुराने पोस्ट्स या अखबार की स्कैन कापी दी गई है वे यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि मैं 1982 से ही राजनीतिक/धार्मिक विषयों पर दृढ़ता व स्पष्टता के साथ विचार रखता आया हूँ और किसी भी प्रकार का समझौता करके मूल चरित्र को नहीं बदला है भले ही 1991 में उस अखबार से अलग ही हो गया था। अब जब बात 'हिन्दू धर्म' पर इन लेखकों की व्याख्या की थी तब फिर स्पष्ट विचार देना ही मुनासिब समझा भले ही सिंह साहब नाराज़ हो लें। लेकिन सही बात तो सबके सामने आनी  ही चाहिए।  

~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
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इस खतरे को भाँपना व सचेत रहना होगा ------ विजय राजबली माथुर

 Vijai RajBali Mathur added 2 new photos.
19-11-2015  at 9:30am · Lucknow · 
उत्पादक (किसान तथा मजदूर ) और उपभोक्ता (जनता )का एक साथ उत्पीड़न व शोषण करने वाला व्यापारी वर्ग बड़ी ही धूर्तता के साथ सारी विकृतियों का दोष 'राजनीति' और 'राजनीतिज्ञों' पर मढ़ कर अपनी जकड़बंदी को मजबूत करता रहता है। अपने गलत कार्यों में रिश्वत के जरिये अधिकारियों व राजनीतिज्ञों को पहले खरीदने की प्रवृति थी, फिर अपने चहेते लोगों को राजनीति में आगे करके राजनीति को खरीदने की अब तो व्यापारी/उद्योगपति खुद ही चुनाव लड़ कर विधानसभाओं व लोकसभा/राज्यसभा में छा गए हैं तब भी बदनाम राजनीतिज्ञों को ही करना है। यह इसलिए कि जनता वास्तविक लुटेरे को पहचान न सके और राजनीतिज्ञों को दोषी मान कर उनके विरुद्ध खड़ी हो जाये। इसी हेतु हज़ारे/केजरीवाल आंदोलन खड़ा करके व्यापारियों/साम्राज्यवादियो की फासिस्ट सरकार केंद्र में गठित करवा दी अब उसे मजबूत तानाशाही में बदलने हेतु व्यापारियों द्वारा राजनीतिज्ञों पर प्रहार की नई प्रक्रिया शुरू की गई है। प्रबुद्ध जनता को इस खतरे को भाँपना व सचेत रहना होगा अन्यथा लोकतन्त्र का खात्मा इन व्यापारियों का लक्ष्य है ही जिसे वे आसानी से हासिल कर लेंगे। 
ज्योतिष= ज्योति +इष (ज्योति=प्रकाश +इष =ज्ञान )। लेकिन व्यापारी वर्ग की बुद्धि देखिये कि राजनीति के साथ-साथ ज्योतिष पर भी प्रहार किया जाता है जिससे जनता वास्तविक ज्ञान से दूर रहे और व्यापारियों के हितैषी ब्राह्मणों के अनर्थकारी चंगुल में फंस कर खुद को लुटवाती रहे। मंदिर का ढ़ोंगी पुजारी या सड़क किनारे बैठा व्यापारी ज्योतिषी नहीं ठग होता है लेकिन उसका विरोध न करके ज्योतिष का ही मखौल उड़ाया जाता है तब स्पष्ट है कि, व्यापारियों के छल-कपट पर पर्दा डालना अभीष्ट है।





https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/970862519642391?pnref=story

लेकिन कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि प्रगतिशील कहे जाने वाले विद्वान भी आर एस एस के भंवर जाल में इस कदर फंस चुके हैं कि उससे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। ज्वलंत उदाहरण के रूप में  मेरे द्वारा व्यक्त निम्नोक्त टिप्पणियाँ प्रस्तुत हैं जिनको डिलीट कर दिया गया है । अतः मैंने पोस्ट लेखिका को अंफ्रेंड तो कर दिया परंतु जो प्रश्न मैंने प्रगतिशील तबके के समक्ष उठाया है उसका उत्तर बड़े से बड़े विद्वान के भी पास इसलिए  नहीं है क्योंकि वे 'हिन्दू' और 'हिन्दुत्व' के मकड़जाल से बाहर निकलना और जनता को निकालना ही नहीं चाहते हैं। केवल हवा में लट्ठ / तलवार चलाने से आप अपने शत्रु को नहीं परास्त कर सकते हैं।



 ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

Sunday, November 22, 2015

इन लोगों की व्याख्या से केवल और केवल ब्रहमनवाद तथा संघ के मंसूबे ही पूरे होंगे ------ विजय राजबली माथुर





  https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=901062683313476&id=100002292570804
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इन 30 में 8 अर्थात 26 ॰66 प्रतिशत लोग  घोषित रूप से जन्मगत ब्राह्मण हैं और बाकी भी ब्रहमनवाद द्वारा फैलाये 'विभ्रम' को ही 'धर्म' की संज्ञा देकर 'धर्म' की आलोचना करते हैं। इनमें से एक का भी प्रभाव जन-मानस पर नहीं पड़ सकता है। जहां तक 'हिन्दू' शब्द की बात है यह एक ब्रिटिश राजनीति के तहत प्रचारित-प्रसारित शब्द है कोई भी धर्म नहीं। जिनको सबसे अधिक जानकारी वाला घोषित किया गया है उन्होने तो स्वामी दयानन्द तक को 'महान हिन्दू' लिख डाला है। इन लोगों की व्याख्या से केवल और केवल ब्रहमनवाद तथा संघ के मंसूबे ही पूरे होंगे, सच्चाई पर पर्दा ही पड़ा रहेगा। पांचवे नंबर पर जिन जनाब का नाम है वह तो राम के सबसे बड़े निंदक हैं और इस प्रकार वह रावण (जो साम्राज्यवाद का पुरोधा था और जिसके  विस्तारवाद व शोषण का राम ने खात्मा किया था ) के पुजारी हुये। उनकी व्याख्या किसको लाभ पहुंचाने वाली होगी स्पष्ट है। तीन वर्ष पूर्व लिखे एक पोस्ट को ज्यों का त्यों दे रहा हूँ जिसमें इसी विषय को उठाया था। मशहूर हस्ती न होने के कारण मेरे दृष्टिकोण का उपहास उड़ाया तो जाता है लेकिन देखिये उपरोक्त महानुभावों की प्रचार-शैली ने केंद्र में फासिस्ट सरकार गठित करा दी है। उससे छुटकारा पाना है तो उसे अधार्मिक, ढ़ोंगी, पाखंडी, लुटेरा साबित करने के लिए'धर्म  के मर्म ' का सहारा लेना ही होगा अन्यथा फिर वही 'ढाक के तीन पात' ।  

1989-90 में उत्तर-प्रदेश के प्रत्येक ज़िले में सांप्रदायिकता विरोधी रैलियों का आयोजन हुआ था जिसका पूरा-पूरा लाभ सांप्रदायिक शक्तियों को ही मिला और 1991 में उनकी पूर्ण बहुमत की सरकार बन गई जिसने 1992 में अयोध्या में विवादास्पद ढांचा 06 दिसंबर (डॉ अंबेडकर परिनिर्वाण दिवस पर ) गिरा कर वर्तमान संविधान के खात्मे की ओर संकेत कर दिया था। 2011-12 के हज़ारे/रामदेव/केजरीवाल/मनमोहन सिंह प्रेरित आंदोलन ने 2014 में केंद्र में जिस फासिस्ट सरकार का गठन करवा दिया है उसी को अपनी गलत व्याख्याओं से उद्धृत विद्वान मजबूती प्रदान करने का ही कार्य करेंगे ( जैसी कि उनसे अपेक्षा की गई है ) यदि हिन्दू को धर्म की संज्ञा देंगे तो। 


Friday, November 30, 2012
सांप्रदायिकता और धर्म निपेक्षता ---विजय राज बली माथुर
http://krantiswar.blogspot.in/2012/11/sampradayikta-dharam-nirpexeta.html


सांप्रदायिकता ---

सांप्रदायिकता का आधुनिक इतिहास 1857 की क्रांति की विफलता के बाद शुरू होता है। चूंकि 1857 की क्रांति मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के नेतृत्व मे लड़ी गई थी और इसे मराठों समेत समस्त भारतीयों की ओर से समर्थन मिला था सिवाय उन भारतीयों के जो अंग्रेजों के मित्र थे तथा जिनके बल पर यह क्रांति कुचली गई थी।ब्रिटेन ने सत्ता कंपनी से छीन कर जब अपने हाथ मे कर ली तो यहाँ की जनता को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने हेतु प्रारम्भ मे मुस्लिमों को ज़रा ज़्यादा  दबाया। 19 वी शताब्दी मे सैयद अहमद शाह और शाह वली उल्लाह के नेतृत्व मे वहाबी आंदोलन के दौरान इस्लाम मे तथा प्रार्थना समाज,आर्यसमाज,राम कृष्ण मिशन और थियोसाफ़िकल समाज के नेतृत्व मे हिन्दुत्व मे सुधार आंदोलन चले जो देश की आज़ादी के आंदोलन मे भी मील के पत्थर बने। असंतोष को नियमित करने के उद्देश्य से वाइसराय के समर्थन से अवकाश प्राप्त ICS एलेन आकटावियन हयूम ने कांग्रेस की स्थापना करवाई। जब कांग्रेस का आंदोलन आज़ादी की दिशा मे बढ्ने लगा तो 1905 मे बंगाल का विभाजन कर हिन्दू-मुस्लिम मे फांक डालने का कार्य किया गया। किन्तु बंग-भंग आंदोलन को जनता की ज़बरदस्त एकता के आगे 1911 मे इस विभाजन को रद्द करना पड़ा। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन  एवं सर आगा खाँ को आगे करके मुस्लिमों को हिंदुओं से अलग करने का उपक्रम किया जिसके फल स्वरूप 1906  मे मुस्लिम लीग की स्थापना हुई और 1920 मे हिन्दू महासभा की स्थापना मदन मोहन मालवीय को आगे करके करवाई गई जिसके सफल न हो पाने के कारण 1925 मे RSS की स्थापना करवाई गई जिसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करना था । मुस्लिम लीग भी साम्राज्यवाद का ही संरक्षण कर रही थी जैसा कि,एडवर्ड थाम्पसन ने 'एनलिस्ट इंडिया फार फ़्रीडम के पृष्ठ 50 पर लिखा है-"मुस्लिम संप्रदाय वादियों  और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों मे गोलमेज़ सम्मेलन के दौरान अपवित्र गठबंधन रहा। "

वस्तुतः मेरे विचार मे सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद सहोदरी ही हैं। इसी लिए भारत को आज़ादी देते वक्त भी ब्रिटश साम्राज्यवाद  ने पाकिस्तान और भारत  दो देश बना दिये। पाकिस्तान तो सीधा-सीधा वर्तमान साम्राज्यवाद के सरगना अमेरिका के इशारे पर चला जबकि अब भारत की सरकार  भी अमेरिकी हितों का संरक्षण कर रही है। भारत मे चल रही सभी आतंकी गतिविधियों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन अमेरिका का रहता है। हाल के दिनों मे जब बढ़ती मंहगाई ,डीजल,पेट्रोल,गैस के दामों मे बढ़ौतरी और वाल मार्ट को सुविधा देने के प्रस्ताव से जन-असंतोष व्यापक था अमेरिकी एजेंसियों के समर्थन से सांप्रदायिक शक्तियों ने दंगे भड़का दिये। इस प्रकार जनता को आपस मे लड़ा देने से मूल समस्याओं से ध्यान हट गया तथा सरकार को साम्राज्यवादी हितों का संरक्षण सुगमता से करने का अवसर प्राप्त  हो गया।

धर्म निरपेक्षता---

धर्म निरपेक्षता एक गड़बड़ शब्द है। इसे मजहब या उपासना पद्धतियों के संदर्भ मे प्रयोग किया जाता है । संविधान मे भी इसका उल्लेख इसी संदर्भ मे  है । इसका अभिप्राय यह था कि,राज्य किसी भी उपासना पद्धति या मजहब को संरक्षण नही देगा। जबकि व्यवहार मे केंद्र व राज्य सरकारें कुम्भ आदि मेलों के आयोजन मे भी योगदान देती हैं और हज -सबसीडी के रूप मे भी। वास्तविकता यह है कि ये कर्म धर्म नहीं हैं। धर्म का अर्थ है जो मानव शरीर और मानव सभ्यता को धारण करने के लिए आवश्यक हो। जैसे -सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। धर्म निपेक्षता की आड़ मे इन सद्गुणों का तो परित्याग कर दिया गया है और ढोंग-पाखण्ड-आडंबर को विभिन्न सरकारें खुद भी प्रश्रय देती हैं और उन संस्थाओं को भी बढ़ावा देती हैं जो ऐसे पाखंड फैलाने मे मददगार हों। इन पाखंडों से किसी भी  आम जनता का  भला  नहीं होता है किन्तु व्यापारी/उद्योगपति वर्ग को भारी आर्थिक लाभ होता है। अतः कारपोरेट घरानों के अखबार और चेनल्स पाखंडों का प्रचार व प्रसार खूब ज़ोर-शोर से करते हैं। 

एक ओर धर्म निरपेक्षता की दुहाई दी जाती है और दूसरी ओर पाखंडों को धर्म के नाम पर फैलाया जाता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि धर्म को उसके वास्तविक रूप मे समझ-समझा कर उस पर अमल किया जाए और ढोंग-पाखंड चाहे वह किसी भी मजहब का हो उसका प्रतिकार किया जाये। पहले प्रबुद्ध-जनों को समझना व खुद को सुधारना  होगा फिर जनता व सरकार को समझाना होगा तभी उदेश्य साकार हो सकता है। वरना तो धर्म निरपेक्षता के नाम पर सद्गुणों को ठुकराना और सभी मजहबों मे ढोंग-पाखंड को बढ़ाना जारी रहेगा और इसका पूरा-पूरा लाभ शोषक-उत्पीड़क वर्ग को मिलता रहेगा। जनता आपस मे सांप्रदायिकता के भंवर जाल मे फंस कर लुटती-पिसती रहेगी। 


http://dlvr.it/60WrY9
बाबा ने की विदेश महिला से छेड़छाड़, गिरफ्तार
www.liveaaryaavart.com
 समाज को संवेदनशील कैसे बनाया जाएगा जब ढोंगियों,पाखंडियों,आडंबरकारियों को 'बाबा','साधू','सन्यासी','धार्मिक प्रचारक','बापू'  आदि-आदि उपाधियाँ दी जाती रहेंगी। 
वस्तुतः पाँच हज़ार वर्ष पूर्व महाभारत काल के बाद 'धर्म' ='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य' का लोप हो गया और उसके स्थान पर 'ढोंग-पाखंड-आडंबर-शोषण-उत्पीड़न' को धर्म कहा जाने लगा। 'वेदों' का जो मूल मंत्र -'कृणवंतों  विश्वमार्यम  ...' था अर्थात समस्त विश्व को 'आर्य'=आर्ष=श्रेष्ठ बनाना था उसे ब्राह्मणों द्वारा शासकों की मिली-भगत से ठुकरा दिया गया। 'अहं','स्वार्थ','उत्पीड़न'को महत्व दिया जाने लगा। 'यज्ञ'=हवन में जीव हिंसा की जाने लगी। इन सब पाखंड और कुरीतियों के विरुद्ध गौतम बुद्ध ने लगभग ढाई हज़ार वर्ष पूर्व बुलंद आवाज़ उठाई और लोग उनसे प्रभावित होकर पुनः कल्याण -मार्ग पर चलने लगे तब शोषकों के समर्थक शासकों एवं ब्राह्मणों ने षड्यंत्र पूर्वक महात्मा बुद्ध को 'दशावतार' घोषित करके उनकी ही पूजा शुरू करा दी। 'बौद्ध मठ' और 'विहार' उजाड़ डाले गए बौद्ध साहित्य जला डाला गया। परिणामतः गुमराह हुई जनता पुनः 'वेद' और 'धर्म' से विलग ही रही और लुटेरों तथा ढोंगियों की 'पौ बारह' ही रही।
यह अधर्म को धर्म बताने -मानने का ही परिणाम था कि देश ग्यारह-बारह सौ वर्षों तक गुलाम रहा। गुलाम देश में शासकों की शह पर ब्राह्मणों ने  'कुरान' की तर्ज पर 'पुराण' को महत्व देकर जनता के दमन -उत्पीड़न व शोषण का मार्ग मजबूत किया था जो आज भी बदस्तूर जारी है। पुराणों के माध्यम से भारतीय महापुरुषों का चरित्र हनन बखूबी किया गया है। उदाहरणार्थ 'भागवत पुराण' में जिन राधा के साथ कृष्ण की रास-लीला का वर्णन है वह राधा 'ब्रह्म पुराण' के अनुसार भी  योगीराज श्री कृष्ण की मामी  ही थीं जो माँ-तुल्य हुईं परंतु पोंगापंथी ब्राह्मण राधा और कृष्ण को प्रेमी-प्रेमिका के रूप में प्रस्तुत करते हैं । आप एक तरफ भागवत पुराण को पूज्य मानेंगे और समाज में बलात्कार की समस्या पर चिंता भी व्यक्त करेंगे तो 'मूर्ख' किसको बना रहे हैं?चरित्र-भ्रष्ट,चरित्र हींन लोगों के प्रिय ग्रंथ भागवत के लेखक के संबंध में स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि वह गर्भ में ही क्यों नहीं मर गया था जो समाज को इतना भ्रष्ट व निकृष्ट ग्रंथ देकर गुमराह कर गया। क्या छोटा और क्या मोटा व्यापारी,उद्योगपति व कारपोरेट जगत खटमल और जोंक की भांति दूसरों का खून चूसने  वालों के भरोसे पर 'भागवत सप्ताह' आयोजित करके जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ने का उपक्रम करता रहता है जबकि प्रगतिशील,वैज्ञानिक विचार धारा के 'एथीस्टवादी' इस अधर्म को 'धर्म' की संज्ञा देकर अप्रत्यक्ष रूप से उस पोंगापंथ को ही मजबूत करते रहते हैं। 


'मूल निवासी' आंदोलन :

एक और आंदोलन है 'मूल निवासी' जो आर्य को 'ब्रिटिश साम्राज्यवादियों' द्वारा  कुप्रचारित षड्यंत्र के तहत  यूरोप की एक आक्रांता जाति ही मानता है । जबकि आर्य विश्व के किसी भी भाग का कोई भी व्यक्ति अपने आचरण व संस्कारों के आधार पर बन सकता है। आर्य शब्द का अर्थ ही है 'आर्ष'= 'श्रेष्ठ' । जो भी श्रेष्ठ है वह ही आर्य है। आज स्वामी दयानन्द सरस्वती का आर्यसमाज ब्रिटिश साम्राज्य के हित में गठित RSS द्वारा जकड़ लिया गया है इसलिए वहाँ भी आर्य को भुला कर 'हिन्दू-हिन्दू' का राग चलने लगा है। बौद्धों के विरुद्ध हिंसक कृत्य करने वालों को सर्व-प्रथम बौद्धों ने 'हिन्दू' संज्ञा दी थी फिर फारसी शासकों ने एक गंदी और भद्दी गाली के रूप में इस शब्द का प्रयोग यहाँ की गुलाम जनता के लिए किया था जिसे RSS 'गर्व' के रूप में मानता है। अफसोस की बात यह है कि प्रगतिशील,वैज्ञानिक लोग भी इस 'सत्य' को स्वीकार नहीं करते हैं और RSS के सिद्धांतों को ही मान्यता देते रहते हैं। 'एथीस्ट वादी' तो 'धर्म'='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,अस्तेय और ब्रह्मचर्य' का विरोध ही करते हैं तब समाज को संवेदनशील कौन बनाएगा?
यदि हम समाज की दुर्व्यवस्था से वास्तव में ही चिंतित हैं और उसे दूर करना चाहते हैं तो अधर्म को धर्म कहना बंद करके वास्तविक धर्म के मर्म को जनता को स्पष्ट समझाना होगा तभी सफल हो सकते हैं वर्ना तो जो चल रहा है और बिगड़ता ही जाएगा।  
सत्य क्या है?:
'धर्म'='सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,अस्तेय और ब्रह्मचर्य'। 
अध्यात्म=अध्ययन +आत्मा =अपनी 'आत्मा' का अध्ययन। 
भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)। 
खुदा=चूंकि ये पांचों तत्व खुद ही बने हैं किसी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं।  
गाड=G(जेनरेट)+O(आपरेट)+D(डेसट्राय) करना ही इन तत्वों का कार्य है इसलिए ये ही GOD भी हैं। 
व्यापारियों,उद्योगपतियों,कारपोरेट कारोबारियों के हितों में गठित रिलीजन्स व संप्रदाय जनता को लूटने व उसका शोषण करने हेतु जो ढोंग-पाखंड-आडंबर आदि परोसते हैं वह सब 'अधर्म' है 'धर्म' नहीं। अतः अधर्म का विरोध और धर्म का समर्थन जब तक साम्यवादी व वामपंथी नहीं करेंगे तब तक जन-समर्थन हासिल नहीं कर सकेंगे बल्कि शोषकों को ही मजबूत करते रहेंगे जैसा कि 2014 के चुनाव परिणामों से सिद्ध भी हो चुका है। 


~विजय राजबली माथुर ©
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Thursday, November 19, 2015

इन्दिरा गांधी का वर्तमान केंद्र सरकार के निर्माण में योगदान ------ विजय राजबली माथुर


इन्दिरा गांधी का वर्तमान केंद्र सरकार के निर्माण में योगदान
1966 में लाल बहादुर शास्त्री जी के असामयिक निधन के बाद सिंडीकेट (के कामराज नाडार, अतुल घोष, सदाशिव कान्होजी पाटिल, एस निज लिंगप्पा, मोरारजी देसाई ) की ओर से मोरारजी देसाई कांग्रेस संसदीय दल के नेता पद के प्रत्याशी थे जबकि कार्यवाहक प्रधानमंत्री नंदा जी व अन्य नेता गण की ओर से इंदिरा जी । अंततः इन्दिरा जी का चयन गूंगी गुड़िया समझ कर हुआ था और वह प्रधानमंत्री बन गईं थीं। 1967 के आम चुनावों में उत्तर भारत के राज्यों में कांग्रेस का पराभव हो गया व संविद सरकारों का गठन हुआ। पश्चिम बंगाल में अजोय मुखर्जी (बांग्ला कांग्रेस ),बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा (जन क्रांति दल ),उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह (जन कांग्रेस - चन्द्र् भानु गुप्त के विरुद्ध बगावत करके ) , मध्य प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह (द्वारिका प्रसाद मिश्र के विरुद्ध बगावत करके ) मुख्यमंत्री बने ये सभी कांग्रेस छोड़ कर हटे थे। केंद्र में फिर से मोरारजी देसाई ने इंदिरा जी को टक्कर दी थी लेकिन उन्होने उनसे समझौता करके उप-प्रधानमंत्री बना दिया था। 1969 में 111 सांसदों के जरिये सिंडीकेट ने कांग्रेस (ओ ) बना कर इन्दिरा जी को झकझोर दिया लेकिन उन्होने वामपंथ के सहारे से सरकार बचा ली। 1971 में बांगला देश निर्माण में सहायता करने से उनको जो लोकप्रियता हासिल हुई थी उसको भुनाने से 1972 में उनको स्पष्ट बहुमत मिल गया किन्तु 1975 में एमर्जेंसी के दौरान हुये अत्याचारों ने 1977 में उनको करारी शिकस्त दिलवाई। मोरारजी प्रधानमंत्री बन गए और उनके विदेशमंत्री ए बी बाजपेयी व सूचना प्रसारण मंत्री एल के आडवाणी। इन दोनों ने संघियों को प्रशासन में ठूंस डाला। इसके अतिरिक्त गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह के पीछे ए बी बाजपेयी,पी एम मोरारजी के पीछे सुब्रमनियम स्वामी तथा जपा अध्यक्ष चंद्रशेखर के पीछे नानाजी देशमुख छाया की तरह लगे रहे और प्रशासन को संघी छाप देते चले। संघ की दुरभि संधि के चलते मोरारजी व चरण सिंह में टकराव हुआ और इंदिराजी के समर्थन से चरण सिंह पी एम बन गए।
एमर्जेंसी के दौरान हुये मधुकर दत्तात्रेय 'देवरस'- इन्दिरा (गुप्त ) समझौते को आगे बढ़ाते हुये चरण सिंह सरकार गिरा दी गई और 1980 में संघ के पूर्ण समर्थन से इन्दिरा जी की सत्ता में वापसी हुई। अब संघ के पास (पहले की तरह केवल जनसंघ ही नहीं था ) भाजपा के अलावा जपा और इन्दिरा कांग्रेस भी थी। संघ के इशारे पर केंद्र में सरकारें बनाई व गिराई जाने लगीं। सांसदों पर उद्योपातियों का शिकंजा कसता चला गया। 1996 में 13 दिन, 1998 में 13 माह फिर 1999 में पाँच वर्ष ए बी बाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र सरकार का भरपूर संघीकरण हुआ। 2004 से 2014 तक कहने को तो मनमोहन सिंह कांग्रेसी पी एम रहे किन्तु संघ के एजेंडा पर चलते रहे। 1991 में जब वह वित्तमंत्री बन कर ‘उदारीकरण ‘ लाये थे तब यू एस ए जाकर आडवाणी साहब ने उसे उनकी नीतियों को चुराया जाना बताया था। स्पष्ट है कि वे नीतियाँ संघ व यू एस ए समर्थक थीं। जब सोनिया जी ने प्रणव मुखर्जी साहब को पी एम बना कर मनमोहन जी को राष्ट्रपति बनाना चाहा था तब तक वह हज़ारे /रामदेव/केजरीवाल आंदोलन खड़ा करवा चुके थे। 2014 के चुनावों में 100 से अधिक कांग्रेसी मनमोहन जी के आशीर्वाद से भाजपा सांसद बन कर वर्तमान केंद्र सरकार के निर्माण में सहायक बने हैं।
यदि इंदिरा जी ने 1975 में  'देवरस'से समझौता नहीं किया होता व 1980 में संघ के समर्थन से चुनाव न जीता होता तब 1984 में राजीव जी भी संघ का समर्थन प्राप्त कर बहुमत हासिल नहीं करते। विभिन्न दलों में भी संघ की खुफिया घुसपैठ न हुई होती।
इंदिराजी के जन्मदिन पर आज उनको याद करने,नमन करने और उनकी प्रशंसा के गीत गाने के साथ-साथ ज़रा उनकी जल्दबाजी और अदूरदर्शी चूकों पर भी गौर कर लिया जाये और उनसे बचने का मार्ग ढूँढना शुरू किया जाये तो देशहित में होगा व इंदिराजी को भी सच्ची श्रद्धांजली होगी।
 ~विजय राजबली माथुर ©
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Wednesday, November 18, 2015

स्वामी दयानन्द सरस्वती को हिन्दू बताना एक घोर साजिश ------ विजय राजबली माथुर


http://jagadishwarchaturvedi.blogspot.in/2015/11/blog-post_16.html









http://jagadishwarchaturvedi.blogspot.in/2015/11/blog-post_16.html

उद्धृत कथन है मथुरा के मूल निवासी और जे एन यू छात्र  यूनियन के अध्यक्ष रहे एक प्रोफेसर साहब का। यह कथन सत्य से कोसों दूर और अप्रत्यक्ष रूप से आर एस एस को सहायता पहुंचाने वाला है । 

मूल नक्षत्र में जन्में मूल शंकर तिवारी को नौ वर्ष की अवस्था में जब यह भान हुआ कि, जिस शिव लिंग को ईश्वर बताया जा रहा था उस पर चढ़े फल-फूल, मिष्ठान्न को बड़े आराम से चूहा जैसा छोटा जीव उस पर चढ़ कर खा सकता है तो वह भ्रम है-ईश्वर नहीं और वह गृह त्याग कर 'गुरु' की खोज में निकल पड़े थे। 'गुरु' अर्थात 'गु' अंधकार से 'रू' प्रकाश की ओर ले जाने वाला। भटकते हुये वह जब वृन्दावन (मथुरा ) के स्वामी विरजानन्द जी के यहाँ पहुंचे तो उनकी खोज सम्पन्न हुई। नया जमाना ब्लाग के लेखक ने एक अन्य लेख द्वारा स्वामी विरजानन्द जी को हिन्दू-मुस्लिम एकता का पक्षधर घोषित किया है। 

वस्तुतः स्वामी विरजानन्द जी ने स्वामी दयानन्द सरस्वती जी को जो शिक्षा दी वह सम्पूर्ण मानवता को श्रेष्ठ =आर्ष=आर्य बनाने की थी और उसी पर दयानन्द जी चले भी। यह आर्य न कोई जाति है न धर्म न ही नस्ल न ही किसी मजहब की शाखा या प्रशाखा। न ही किसी क्षेत्र विशेष से संबन्धित। विश्व का कोई भी वह मनुष्य जो श्रेष्ठ कर्म करे वह आर्य है। अश्रेष्ठ या निकृष्ट कर्म करने वाला अनार्य । 

स्वामी दयानन्द जी का जन्म मूल शंकर तिवारी के रूप में हुआ था अर्थात प्रचलित ब्राह्मण जाति में लेकिन उन्होने घर-परिवार और दुनिया में जो देखा व अपने गुरु विरजानन्द जी से जो समझा-सीखा उससे वह जिस निष्कर्ष पर पहुंचे थे उनके ही शब्दों में प्रस्तुत है। ('सत्यार्थप्रकाश' : सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा , नई दिल्ली- 2 से प्रकाशित के पृष्ठ- 262 व 263 पर ) :

"जब ब्राह्मण लोग विद्द्याहीन हुए तब क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के अविद्वान होने में तो कथा ही क्या कहनी? जो परंपरा से वेदादि शास्त्रों का अर्थसहित पढ़ने का प्रचार था वह भी छूट गया। केवल जीविकार्थ पाठमात्र ब्राह्मण लोग पढ़ते रहे, सो पाठ्मात्र भी क्षत्रिय आदि को न पढ़ाया। क्योंकि जब अविद्वान हुये गुरु बन गए तब छल, कपट, अधर्म भी उनमें बढ़ता चला । ब्राह्मणों ने विचारा कि अपनी जीविका का प्रबंध बांधना चाहिए। सम्मति करके यही निश्चय कर क्षत्रिय आदि को उपदेश करने लगे कि हम हीं तुम्हारे पूज्यदेव हैं। बिना हमारी सेवा किए तुमको स्वर्ग या मुक्ति न मिलेगी। किन्तु जो तुम हमारी सेवा न करोगे तो घोर नरक में पड़ोगे। जो-जो पूर्ण विद्या वाले धार्मिकों का नाम ब्राह्मण और पूजनीय वेद और ऋषि-मुनियों के शास्त्र में लिखा था, उसको अपने मूर्ख, विषयी, कपटी, लमपट,अधर्मियों पर घटा बैठे। भला वे आप्त विद्वानों के लक्षण इन मूरखों में कब घट सकते हैं? परंतु जब क्षत्रियादी यजमान संस्कृत विद्या से अत्यंत रहित हुये तब उनके सामने जो-जो गप्प मारी, सो-सो बिचारों सब मान ली। जब मान ली तब इन नाम मात्र ब्राह्मणों की बन पड़ी। सबको अपने वचन जाल में बांध कर वशीभूत कर लिया और कहने लगे कि :--- 
ब्रह्मवाक्यं जनार्दन:  :। । 

अर्थात जो कुछ ब्राह्मणों के मुख से वचन निकलता है, वह जानों साक्षात भगवान के मुख से निकला। जब क्षत्रियादी वर्ण 'आँख के अंधे और गांठ के पूरे' अर्थात भीतर विद्या की आँख फूटी हुई और जिनके पास धन पुष्कल है, ऐसे-ऐसे चेले मिले, फिर इन व्यर्थ ब्राह्मण नामवालों को विषयानंद का उपवन मिल गया। यह भी उन लोगों ने प्रसिद्ध किया कि जो कुछ पृथिवी में उत्तम पदार्थ हैं, वे सब ब्राह्मणों के लिए हैं। अर्थात जो गुण,कर्म,स्वभाव से ब्राहमणादि वर्णव्यवस्था थी, उसको नष्ट कर जन्म पर रखी और मृतक पर्यंत का भी दान यजमानों से लेने लगे। जैसी अपनी इच्छा हुई वैसा करते चले "   

स्वामी दयानन्द जी ने महाभारत काल के बाद से वैदिक व्यवस्था का पतन माना है जो ऐतिहासिक रूप से भी सत्य है। राम और कृष्ण के समय में उनके लिए 'आर्यपुत्र' शब्द प्रयुक्त होता था। बाद में बौद्धों के विहार व मठ उजाड़ने वालों को ( हिंसा देने वालों को  बौद्धों द्वारा )हिन्दू  कहा गया। जब ईरानी यहाँ आए तो अपनी फारसी भाषा की एक गंदी और भद्दी गाली के रूप में यहाँ के निवासियों को 'हिन्दू' कह कर पुकारा तब से ही यह शब्द प्रचालन में आया है जिसको ब्रिटिश शासकों ने एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में पोषित किया था। 

स्वामी दयानन्द जी ने भी सन 1857 ई ॰ की क्रान्ति में सक्रिय भाग लिया था और क्रांति के विफल होने पर 1875 में उन्होने 'आर्यसमाज' की स्थापना पूर्ण स्वराज्य प्राप्ति के हेतु की थी और उसकी प्रारम्भिक शाखाएँ ब्रिटिश छवानी वाले शहरों में स्थापित की थीं। 

एम एम अहलूवालिया साहब ने अपनी पुस्तक :FREEDOM STRUGGLE IN INDIA के पृष्ठ 222 पर लिखा है-

"The Government was never quite happy about the Arya Samaj. They disliked it for its propaganda of self-confidence,self-help and self-reliance.The authorities,sometimes endowed it with fictitious power by persecuting to members whose Puritanism became political under intolerable conditions." 


अर्थात-"आर्यसमाज से सरकार को कभी भी खुशी नहीं हुई। शासकों ने आर्यसमाज को इसलिए नहीं चाहा कि यह आत्मविश्वास,स्व-सहाय और आत्म-निर्भरता का प्रचार करता था। कभी-कभी तो अधिकारियों ने इसकी शक्ति को इतना अधिक महत्व दिया कि उसके सदस्यों को दंडित किया और असहनीय दशाओं में उनके सुधारवादी आंदोलन ने राजनीतिक रूप ले लिया। "
 ब्रिटिश शासकों ने महर्षि दयानन्द को 'क्रांतिकारी सन्यासी' (REVOLUTIONARY SAINT) की संज्ञा दी थी। आर्यसमाज के 'स्व-राज्य'आंदोलन से भयभीत होकर वाईस राय लार्ड डफरिन ने अपने चहेते अवकाश प्राप्त ICS एलेन आकटावियन (A. O.)हयूम के सहयोग से वोमेश चंद्र (W.C.)बेनर्जी जो परिवर्तित क्रिश्चियन थे की अध्यक्षता में 1885 ई .में  इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्य के 'सेफ़्टी वाल्व'के रूप मे करवाई थी। किन्तु महर्षि दयानन्द की प्रेरणा पर आर्यसमाजियों ने कांग्रेस में प्रवेश कर उसे स्वाधीनता आंदोलन चलाने पर विवश कर दिया। 'कांग्रेस का इतिहास' नामक पुस्तक में लेखक -डॉ पट्टाभि सीता रमईय्या ने स्वीकार किया है कि देश की आज़ादी के आंदोलन में जेल जाने वाले 'सत्याग्रहियों'में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे।  


यही वजह है कि आज भी 'साम्राज्यवाद' के हितैषी लोग समय-समय पर महर्षि स्वामी दयानन्द पर हमले करते रहते हैं। दयानंद जी को 'महान हिन्दू' घोषित करना ब्राह्मणवादी षड्यंत्र के सिवा और कुछ नहीं है । आर्यसमाज प्रभावित गांधी जी के असहयोग आंदोलन को छिन्न -भिन्न करने हेतु प्रयासों में  (मुस्लिम लीग : स्थापित 1906 , हिंदूमहासभा : स्थापित 1920 ) विफल रहने के उपरांत 1925 में आर एस एस की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा हेतु करवाई गई थी जो तब 'दंगों की भट्टी' में देश को झोंक कर 1947 में साम्राज्यवादी विभाजन कराने में सफल रहा था और आज यू एस ए के साम्राज्यवादी हितों की रक्षा में अग्रणी और पुनः देश के कई विभाजन कराने की ओर अग्रसर है।  ऐसे संगठन की हौसला अफजाई का ही काम करेगा दयानन्द जी को हिन्दू घोषित करने का घृणित अभियान । आज आर्यसमाज पर भी वह आर एस एस जो उसके विरोध में गठित हुआ था हावी है इसलिए उस ओर से प्रतिरोध की आवाज़ उठने की संभावना क्षीण है जिससे दयानन्द के निंदकों व विरोधियों के हौसले बुलंद हैं जो उनको हिन्दू का खिताब दे डाला। 

1925 में आर्यसमाज प्रभावित क्रांतिकारी कांग्रेसियों ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन आज़ादी के आंदोलन को तीव्र करने के लिए किया था। इस साम्यवादी आंदोलन में उत्तर-प्रदेश से गेंदालाल दीक्षित, बिहार से स्वामी सहजानन्द और राहुल सांस्कृत्यायन व पंजाब से सरदार भगत सिंह जैसे प्रबुद्ध आर्यसमाजियों ने अपना प्रबल योगदान दिया है। लेकिन एथीज़्म के नाम पर उनकी ओर से भी दयानन्द जी के प्रति हो रहे अन्याय के प्रति प्रतिरोध की संभावना क्षीण ही है। फिर भी अपना फर्ज़ पूरा करना मेरा ध्येय था ही। 

~विजय राजबली माथुर ©
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Saturday, November 7, 2015

प्रश्न चिन्ह लग रहा है मानव जाति के भविष्य पर ही --- विजय राजबली माथुर



पाखंड-ढोंग-आडंबर को धर्म मानने के नतीजे हैं ये सब:



 भागवाताचार्य द्वारा कृत धर्म -कृत्य सदृश्य ही एक परिघटना 8-9 वर्ष पूर्व कमलानगर, आगरा में भी घटित हो चुकी है । वहाँ चैत्र नवरात्र का पाठ करने वाला पुरोहित यजमान महिला की सास का कत्ल करने के बावजूद   उससे बलात्कार करने में असफल रहने पर उसे भी घायल करके व गहने लूट कर भाग गया था। 
क्या भागवाताचार्य द्वारा भागवत पाठ या उस पुरोहित द्वारा नवरात्र - पाठ कोई धार्मिक कृत्य हैं? कदापि नहीं किन्तु धनाढ्य शोषक व्यापारियों व ब्राह्मण पोंगापंथियों  ने ऐसे दुष्कृत्यों को धार्मिकता का जामा पहना रखा है और साधारण जनता उनमें फंस कर उल्टे उस्तरे से मूढ़ी जाती रहती है। 

मध्य-प्रदेश के एक नगर में मार्बल की दुकान में चौकीदार के पद पर कार्य रत एक दिवेदी जी को उनके मालिक ने चोरी होने के बाद चोरों से मिलीभगत के आरोप में हटा दिया तब वह आगरा के एक मंदिर के पुरोहित के रूप में स्थापित हो गए और देखते ही देखते भागवाताचार्य के रूप में विख्यात हो गए। आठवीं कक्षा में लगातार तीसरी बार फेल होने वाले उनके पुत्र के मथुरा की एक तहसील में पोस्टेड तहसीलदार साहब आगरा स्थित अपने आवास पर सुंदरकाण्ड पाठ करने के उपरांत सहर्ष चरण-स्पर्श करने लगे। हवा ही हवा में वह पंडित जी कब ज्योतिषी भी बन गए यह उनका कमाल का खेल था लेकिन इसी में फंस कर वह हमारे पास मदद हेतु आए। उनके पड़ौस में किसी के यहाँ एक कन्या का जन्म हुआ उनसे रु 200/- उन्होने जन्मपत्री बनाने के लिए ले लिए जिसमें से रु 100/- देकर नेहरूनगर स्थित एक मंदिर के पुरोहित से कहा उन पुरोहित ने रु 70/- अपने पास रख कर रु 30/- में पूर्व SBI कर्मी के ज्योतिष-केंद्र से कंपूटरीकृत जन्मपत्री बना कर दे दी। जब वह जन्मपत्री उस नवजात कन्या के घर पहुंची तो उन लोगों ने विस्तृत भविष्यफल जानना चाहा। दिवेदी जी हमारे पास भविष्यफल निशुल्क ज्ञात करने हेतु आए थे जिससे अपनी इज्ज़त बचा सकें। उनके दुष्कृत्यों-झूठ -पाखंड में मैं साझीदार क्यों बनता ?

यदि समय रहते 'ढोंग-पाखंड-आडंबर'  अर्थात 'अधर्म' के विरुद्ध सकारात्मक संघर्ष छेड़ कर जनता को नहीं समझाया गया कि वह सब धर्म नहीं है और वास्तविक धर्म के मर्म को न समझा कर  खालिस 'धर्म निरपेक्षता' की माला जपी जाती रही तो अंततः मानव जाति को ही ये ढ़ोंगी नष्ट करने में सफल हो जाएँगे। 


  ~विजय राजबली माथुर ©
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Thursday, November 5, 2015

इरोम शर्मीला चानू के समर्थन में धरना ------ विजय राजबली माथुर


फोटो सौजन्य से - रितेश चंद्र जी (प्रथम पंक्ति में लाल शर्ट-काली पैंट पहने )
लखनऊ, 05 नवंबर 2015 
आज साँय 03 : 30 बजे से जी पी ओ पार्क, हजरतगंज स्थित गांधी प्रतिमा पर विभिन्न नागरिक संगठनों के सम्मिलित तत्वावधान में 'लौह महिला इरोम शर्मिला चानू ' के अनवरत अनशन के 16 वें वर्ष में प्रविष्ट होने पर एक शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन हेतु धरना दिया गया। ओ पी सिन्हा साहब ने इस अनशन के कारणों पर प्रकाश डालते हुये कहा कि, सेना अपने असीम अधिकारों के तहत नागरिकों विशेषकर महिलाओं का उत्पीड़न करती व बलात्कार तक कर डालती है अतः AFSPA को हटाने की मांग को लेकर इरोम शर्मीला ने 15 वर्ष पूर्व गांधीवादी तरीके से अनशन शुरू किया था लेकिन विभिन्न सरकारों ने उनको ही आत्म-हत्या के प्रयास का आरोपी बना कर गिरफ्तार कर रखा है। लखनऊ के प्रबुद्ध नागरिक इस उत्पीड़क कानून को हटाने की मांग में इरोम शर्मिला का समर्थन करते हैं और उनके साथ एकजुटता का प्रदर्शन तथा सरकारी दमन का विरोध करते हैं। नागवंशी जी ने अपनी ओजस्वी कविता के माध्यम से इरोम शर्मिला के प्रति जनता के समर्थन की आवाज़ बुलंद की। 

राम किशोर जी ने सरकारों के साथ-साथ देश की साधारण जनता विशेषकर विभिन्न महिला संगठनों के इरोम शर्मिला के  प्रति उपेक्षापूर्ण रवैये के प्रति क्षोभ व्यक्त किया। उन्होने इरोम शर्मिला के प्रति जनता में जागरूकता उत्पन्न करने व जनांदोलन के माध्यम से सरकार को AFSPA को वापस लेने के लिए बाध्य करने की आवश्यकता पर बल दिया। 

इस शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन में मुख्य रूप से भाग लेने वालों में लता राय, राम किशोर, ओ पी सिन्हा,  के के शुक्ल, रमेश दीक्षित, कौशल किशोर, नागवंशी, रितेश चंद्र, विजय राजबली माथुर आदि थे। 







 ~विजय राजबली माथुर ©
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