Thursday, March 31, 2011

क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा

(पुण्यतिथि पर विशेष)

८१ वर्ष पूर्व सन१९३० की ३१ मार्च को महर्षि दयानंद सरस्वती के परम शिष्य एवं क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा ने इस संसार से विदा ली थी.उनकी पुण्य तिथि पर आप की सेवा में श्री सीताराम 'वैदिक'द्वारा लिखित तथा निष्काम परिवर्तन पत्रिका के अक्टूबर २००३ अंक में प्रकाशित लेख प्रस्तुत है-

प्रण करते हैं संस्कृति की शाम नहीं होने देंगे.
वीर शहीदों की समाधि बदनाम नहीं होने देंगे.
जब तक रग में एक बूँद भी गर्म लहू की बाकी है.
भारत की आजादी को गुमनाम नहीं होने देंगे..

१८५७ ई.की ऐतिहासिक क्रांति वाले वर्ष में ०४ अक्टूबर को कच्छ राज्य के माण्डवी गाँव में जन्में श्याम जी आजीवन क्रांतिकारी बने रहे.वे न केवल आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से १८८३ ई.में बी.ए.की डिग्री प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय थे अपितु अंगरेजी राज्य को हटाने के लिए विदेशों में भारतीय नवयुवकों को प्रेरणा देने वाले ,क्रांतिकारियों का संगठन करने वाले पहले हिन्दुस्तानी थे.

पं.श्याम जी कृष्ण वर्मा को देशभक्ति का पहला पाठ पढ़ाने वाले आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती थे.१८७५ ई. में जब स्वामी दयानंद जी ने बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की तो श्याम जी कृष्ण वर्मा उसके पहले सदस्य बनने वालों में से थे.स्वामी जी के चरणों में बैठ कर इन्होने संस्कृत ग्रंथों का स्वाध्याय किया.वे महर्षि दयानंद द्वारा स्थापित परोपकारिणी सभा के भी सदस्य थे.बम्बई से छपने वाले महर्षि दयानंद के वेदभाष्य के आप प्रबंधक भी रहे.१८८५ ई. में संस्कृत की उच्चतम डिग्री के साथ बैरिस्टरी की परिक्षा पास करके भारत लौटे.

इंग्लैण्ड में स्वाधीनता आन्दोलन के प्रयासों को सबल बनाने की दृष्टि से श्याम जी ने अंगरेजी में जनवरी १९०५ ई. से 'इन्डियन सोशियोलोजिस्ट'नामक मासिक पत्र निकाला.१८ फरवरी १९०५ ई. को उन्होंने इंग्लैण्ड में ही 'इन्डियन होमरूल सोसायटी ' की स्थापना की और घोषणा की कि हमारा उद्देश्य' भारतीयों के लिए भारतीयों के द्वारा भारतीयों की सरकार 'स्थापित करना है.घोषणा को क्रियात्मक रूप देने के लिए लन्दन में 'इण्डिया हाउस'की स्थापना की ,जो कि इंग्लैण्ड में भारतीय राजनीतिक गतिविधियों तथा कार्यकलापों का सबसे बड़ा केंद्र रहा.

पं.श्याम जी भारत की स्वतंत्रता पाने का प्रमुख साधन सरकार से असहयोग करना समझते थे.आपकी मान्यता रही और कहा भी करते थे कि यदि भारतीय अंग्रेजों को सहयोग देना बंद कर दें तो अंगरेजी शासन एक ही रात में धराशायी हो सकता है.

शांतिपूर्ण उपायों के समर्थक होते हुए भी श्यामजी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हिंसापूर्ण उपायों का परित्याग करने के पक्ष में नहीं थे.उनका यह दावा था कि भारतीय जनता की लूट और हत्या करने के लिए सबसे अधिक संगठित गिरोह अंग्रेजों का ही है.जब तक अंग्रेज स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन करने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं तब तक हिंसक उपायों की आवश्यकता नहीं है,किन्तु जब सरकार प्रेस और भाषण की स्वतंत्रता पर पाबंदियां लगाती है,भीषण दमन के उपायों का प्रयोग करती है तो भारतीय देशभक्तों को अधिकार है कि वे स्वतंत्रता पाने के लिए सभी प्रकार के सभी आवश्यक साधनों का प्रयोग करें.उनका मानना था कि हमारी कार्यवाही का प्रमुख साधन रक्तरंजित नहीं है,किन्तु बहिष्कार का उपाय है.जिस दिन अंग्रेज भारत में अपने नौकर नहीं रख सकेंगे,पुलिस और सेना में जवानों की भर्ती करने में असमर्थ हो जायेंगे,उस दिन भारत में ब्रिटिश शासन अतीत की वास्तु हो जाएगा.

इन्होने अपनी मासिक पत्रिका इन्डियन सोशियोलोजिस्ट के प्रथम अंक में ही लिखा था कि अत्याचारी शासक का प्रतिरोध करना न केवल न्यायोचित है अपितु आवश्यक भी है और अंत में इस बात पर भी बल दिया कि अत्याचारी ,दमनकारी शासन का तख्ता पलटने के लिए पराधीन जाती को सशस्त्र संघर्ष का मार्ग अपनाना चाहिए.

ब्रिटिश सरकार की कड़ी आलोचना करने के कारण ब्रिटिश सरकार एन कें प्रकारें इनको गिरफ्तार कर क्रांतिकारी गतिविधियों पर अंकुश लगाना चाहती थी.इसी क्रम में इन्हीं के साथ रह रहे वीर सावरकर की लन्दन में गिरफ्तारी से इन्होने वहां रहना उचित नहीं समझा और वे पेरिस चले गए,वहां से स्विट्जरलैंडके जिनेवा शहर में चले आये और मृत्यु पर्यंत ३१ मार्च ,१९३० तक वहीं रहे.



(नोट-श्री सीता राम 'वैदिक ' के लेख को साभार प्रस्तुत करने का उद्देश्य आने वाली पीढ़ियों को अपने महान क्रांतिकारियों से परिचय करना है जिन्होंने अपना जीवन देश को आजाद करने के संघर्ष में उत्सर्ग कर दिया .यह आने वाली पीढ़ियों का दायित्व है कि आजादी को अक्षुण रखते हुए इनका स्मरण करती रहें).

Tuesday, March 29, 2011

सुदेशी और सुराज्य (२ )

गांधी जी ने देश की आजादी के दौरान 'स्वदेशी और स्वराज्य'पर जोर दिया था उनका प्रयास सफल भी रहा था.आज हम राजनीतिक रूप से स्वतंत्र तो हैं ,परन्तु आर्थिक रूप से पहले से कहीं ज्यादा गुलाम हैं.इसी ब्लॉग में मैंने आज 'सुदेशी और सुराज्य' आंदोलन चलाये जाने की आवश्यकता समझानी चाही थी.इसकी क्यों जरूरत है?आइये देखें प्रस्तुत लेख को,जो निष्काम परिवर्तन पत्रिका (अप्रैल २०००)में प्रकाशित हुआ था.-


कोई भी देश भक्त नागरिक बड़ी आसानी से मान लेगा कि इस लेख में वर्णित सभी बातें बिलकुल सही हैं.फिर यह हम सभी का दायित्व है कि अपने -अपने स्तर से  तो विदेशी कं. के बने मालों का प्रयोग बंद कर दें जैसा कि श्री मनोज कुमार जी ने अपनी टिप्पणी में सुझाव भी दिया था.सम्भव हो तो राजनीतिक मतभेदों को भुला कर   एक जोरदार अभियान 'सुदेशी और सुराज्य'के मुद्दे पर चलाया जाना चाहिए.देखिये आज के हिंदुस्तान में छपे विक्कीलीक्स के इस खुलासे को कैसे साम्राज्यवादी हमारे देश को दबाव में लेना चाहते हैं?साम्राज्यवाद पर हमले का विरोध कर संकीर्ण मनोवृति के लोग क्या चाहते हैं?

'हिंदुस्तान'-लखनऊ-29/03/2011

Sunday, March 27, 2011

अर्थ -अनर्थ और भाषा का तमाशा (२)

मेरे 'सीता का विद्रोह ' पर मूर्खतापूर्ण कथा कह कर उपहास उड़ाने वाले फासिस्ट ब्लॉगर भाषा को तोड़-मरोड़ कर जनता को गुमराह करते रहते हैं .इस प्रकार के भ्रमजाल से लोगों को बचाने हेतु ही मैंने इससे पूर्व इसी शीर्षक से वेदों में प्रयुक्त शब्दों का विद्वानों की नजर में क्या मतलब होता है बताने का प्रयास किया था.२३ मार्च २०११ को एक अन्य ब्लाग पर टिप्पणी के माध्यम से इन फासिस्ट ब्लागर ने उन दुसरे फासिस्ट ब्लागर (जिनके विरुद्ध २७ जनवरी को खुद अपने ब्लाग में आग उगल चुके थे)से साठ-गाँठ करके मुझे दयानन्द    विरोधी सिद्ध करने का प्रयास क्यों किया है? ,उसका अभीष्ट उस दुसरे ब्लॉगर द्वारा अपने ब्लॉग पर ०७ मार्च २०११ को 'दयानंद जी ने क्या खोजा क्या पाया?'शीर्षक से महर्षि स्वामी दयानन्द की जम कर खिल्ली उड़ाने के कृत्य से स्पष्ट हो जाता है.ये फासिस्ट कितनी निकृष्ट मनोवृत्ति के हैं पहले फासिस्ट की दूसरी टिप्पणी से स्पष्ट होता है जिसमें उसने 'सौम्य एवं सुलझे दिमाग वाले'डा. टी. एस. दराल सा :जो उसके हम पेशा भी है के विरुद्ध सिर्फ इसलिए टिप्पणी कर दी क्योंकि डा.दराल सा :ने आर्य समाज को उचित मान दिया था.

वेदों में संस्कृत के कैसे अर्थ किये जाने चाहिए और किन विद्वानों ने गलत तथा किन ने सही अर्थ बताये हैं -आर्य समाज सांताक्रुज,मुम्बई के मुख-पत्र 'निष्काम परिवर्तन'के सम्पादक डॉ.सोमदेव शास्त्री के सम्पादकीय लेख "वेदार्थ प्रक्रिया"में स्पष्ट किया गया है.नीचे स्कैन कापी देखें-


इसी अंक में पृष्ठ ११ एवं १२ पर "वेदार्थ प्रक्रिया एवं वेद भाष्यकार" लेख द्वारा आचार्य महेंद्र शास्त्री ने भी स्वीकार्य और अस्वीकार्य विद्वानों का वर्णन किया है.उसकी स्कैन कापी नीचे देखें-






इन दो आर्य विद्वानों के आलेखों से सभी जनों को यह समझने में बहुत आसानी होगी कि ये दो फासिस्ट ब्लागर और विदेश में बैठा इनका सहयोगी क्यों मेरे लेखों का विरोध  करते हैं ,ताकि लोगों के समक्ष यदि सच्चाई आ जायेगी तो इन लुटेरे-शोषकों की पूंछ खुद ब खुद कम हो जायेगीजो गलत लोगों के भाष्यों के आधार पर मुझे गलत घोषित कर रहे हैं..इस प्रकार समाज में विभ्रम,ढोंग एवं पाखण्ड फैलाकर ये साम्राज्यवादियों के हितचिन्तक आतंकवादी ब्लागर चील-कौओ की भांति झपट्टा मारकर अपनी चोचों द्वारा सत्य एवं समाज-हितैषी तथ्यों के चीथड़े उड़ा  देते हैं.अब यह दायित्व ब्लॉगर समाज का है कि वह तथ्य के मोतियों को चुन कर ग्रहण करे न कि चमकीले पत्थरों को.वैसे दिल्ली के परम आर्य जी अपनी 'वेद तोप' से ऐसे लोगों को माकूल जवाब दे रहे हैं.

Friday, March 25, 2011

प .बंगाल के बंधुओं से -एक बे पर की उड़ान .

प.बंगाल के आगामी विधान सभा चुनावों में फैसला तो वहां की जनता को ही करना है कि वह कैसी शासन व्यवस्था चाहती है.जूलाई १९६४ से सितम्बर १९६७ तक सिलीगुड़ी में रहने और वहीं से हाई स्कूल उत्तीर्ण करने के कारण मेरी व्यक्तिगत दिलचस्पी बंगाल की राजनीतिक गतिविधियों में बनी रहती है.जब पहली बार १९६७ में श्री अजोय मुखर्जी के नेतृत्व में १४ पार्टियों के मोर्चे की  गैर कांग्रेस सरकार बनी थी उसमें श्री ज्योति बसु उप-मुख्य मंत्री एवं गृह मंत्री थे.फासिस्ट तत्वों ने तब कलकत्ता के रवीन्द्र सरोवर स्टेडियम में अभद्र ताण्डव कर उन्हें बदनाम करने की कुचेष्टा की थी.सिलीगुड़ी से लगभग १० कि.मी.दूरी पर स्थित नक्सल बाडी में आदिवासियों को आगे करके कमला (सन्तरा)बागानों एवं खेतों पर कब्ज़ा कर लिया गया था.सिलीगुड़ी शहर में मारवाड़ियों दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया था.बाद में दुकानदारों को बीमा कं.से अपने नुक्सान से कहीं ज्यादा मुआवजा मिल गया था.लेकिन उन दुकानदारों ने फिर बंगाली युवकों को दोबारा नौकरी पर नहीं लिया.कुल नुक्सान गरीबों का हुआ था.राज्यपाल श्री धरमवीर,I .C .S .ने बाद में मुखर्जी सरकार को बर्खास्त कर दिया था.लेकिन १९७७ से लगातार सभी चुनावों में बाम-मोर्चा मजबूती से चुनाव जीत कर सफल शासन चलाता  रहा है.इस दफा पहली बार यह कहा जा रहा है कि सुश्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में बाम सत्ता को बेदखल कर दिया जाएगा.

ममता जी जुझारू नेता हैं  और जैसा उन्होंने कहा था कि ज्योति बाबू पद से निवृत होने के बाद उनको बुला कर उनसे उनके आंदोलनों के बारे में जानकारियाँ हासिल करते रहते थे.ममता जी को तीन प्रधानमंत्रियों(नरसिम्हा राव जी,अटल बिहारी बाजपाई जी एवं मनमोहन सिंह जी) के साथ काम करने का विशाल अनुभव है.यदि वह प. बंगाल की मुख्य मंत्री बनती हैं तो वहां की जनता को उनसे नयी उम्मीदें रहेंगी.ममता जी ने बाम मोर्चा सरकार के सिंगूर में 'नैनो' कार बनाने के कारखाना लगाने का तीव्र विरोध किया ,परिणामतः अब वह कारखाना भाजपा शासित गुजरात में चालू हो गया है.उनके रेल विभाग में ऐसे मेडिकल सर्जन बेधड़क नौकरी पर डटे हुए हैं जिन्होंने खुल्लम-खुल्ला सरकारी नियमों तथा संविधान में उद्घोषित सिद्धांतों की अवहेलना कर रखी है.

यदि कोई सरकारी कर्मचारी किसी अखबार आदि या अन्यत्र  में लिखना चाहता है तो उसे सरकार से अनुमति लेनी होती है और वह सरकार विरोधी कोई बात कह एवं लिख नहीं सकता है.सरकारी कर्मचारी द्वारा कही बात सरकारी घोषणा होती है.हमारा भारतीय संविधान -धर्म निरपेक्ष और समाजवादी सिद्धांतों को मानता है.अब रेल विभाग के इन वरिष्ठ सर्जन महोदय का प्रोफाईल देखिये ,और देखिये इनकी घोषणा को कि वह क्या धर्म निरपेक्षता की श्रेणी में आती है.




अब यदि यह साहेब बेधड़क 'मैं हूँ...मैं हूँ...मैं हूँ....'के अहंकार के साथ संविधान विरोधी विचार लिखते और दूसरों को मूर्ख कहते हैं तो समझना चाहिए कि इन्हें ऊपरी संरक्षण प्राप्त है तभी इनके उच्चाधिकारी भी इनके पेंच कसने में असमर्थ हैं.यह साहेब जनता को जागरूक किये जाने वाले हर कदम का तीखा एवं कटु विरोध करते हैं.कुछ नमूने ये देखें-




मैं जो प्रश्न अपने प.बंगाल के बंधुओं से उठाना चाहता हूँ वह यह है कि मताधिकार का प्रयोग करते समय यदि वे भावावेश में बह गए और उन्होंने यह विचार नहीं किया कि अगली सरकार की मुखिया यदि वर्तमान रेल मंत्री बनती हैं जिनकी सहानुभूति ऐसे फासिस्टों के साथ है तो बाद में कहीं उन्हें पछताना न पड़े.फासिस्ट तत्व बड़ी चालाकी से अपनी बात को मीठी चाशनी में पाग कर परोसते हैं. रेल मंत्री जी के कार्यों पर यहाँ के हाई कोर्ट की प्रतिक्रिया पर भी गौर करें किस प्रकार कानून का पालन न करके रेल विभाग को आर्थिक क्षति तथा आम जनता को कष्ट पहुँचाया गया.उसकी  कापी संलग्न है-

हिंदुस्तान-लखनऊ-२४/०३/२०११ 
बंगाल की धरती ने हमें ऐसे रत्न दिए हैं जिन्होंने देश की एकता को मजबूत किया है.राष्ट्र गान के प्रदाता कवीन्द्र रवीन्द्र ने कहा है-

हे मोर चित्त, पुण्य तीर्थे जागो रे धीरे ,
एई  भारतेर महामानवेर सागर तीरे .
कई नाहीं जाने ,कार  आह्वाने,कत मानुशेर् धारा ,
दुवरि स्त्रोते एलो कोथा हते,समुद्रे हलो हारा .
हेथाय आर्य ,हेथा अनार्य,हेथाय द्राविण चीन,
शक -हुण-दल पाठान मोगल एक देहे हलो लींन.
रणधारा वाहि,जय गान गाहि,उन्माद कलरवे ,
 भेदि मरु-पथ ,गिरि-पर्वत  यारा एसेछिलो सबे .
तारा मोर माझे सबाई बिराजे केहो नहे रहे दूर
आमार शोणिते रयेछे ध्वनित तारि विचित्र सूर .

जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं उसमें अनेक जातियों का अंशदान है.बाहर से आने वाली जातियों के आचार-विचार धर्म-विश्वास आदि भारतीय संस्कृति के उपादान बन गए .लेकिन रेल मंत्री जी के विभागीय उच्चाधिकारी उद्दंडता पूर्वक एक साम्प्र्दायिक संगठन का प्रचार करता है और उसके विरुद्ध कोई कारवाई नहीं की जाती है .इसका आशय क्या हो सकता है?जरा इस बात का भी बंगाली बन्धुगण मतदान से पूर्व  ध्यान कर लें तो अच्छा रहे.कहीं ऐसा न हो '-पाछे पछताय होत किया ,जब चिडियाँ चुग गयीं खेत.'

Tuesday, March 22, 2011

भगत सिंह का बम ------ विजय राजबली माथुर



जब स्वामी श्रद्धानंद  सं १८८४ ई.में जालंधर में मुंशी राम के रूप में वकालत कर रहे थे तो भगत सिंह जी के बाबा जी सरदार अर्जुन सिंह उनके मुंशी थे.भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह भी उनके साथ थे.इस प्रकार सिख होते हुए भी यह परिवार वैदिक-धर्मी बन गया और मुंशी राम जी (श्रद्धानंद जी) के साथ आर्य समाज के माध्यम से स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय  भाग लेने लगा .'सत्यार्थ प्रकाश' में महर्षि दयानंद जी के ये विचार कि,विदेशी शासन यदि माता-पिता से भी बढ़ कर ख्याल रखता हो तब भी बुरा है और उसे जल्दी से जल्दी उखाड़-फेंकना चाहिए पढ़ कर युवा भगत सिंह जी ने भारत को आजादी दिलाने का दृढ निश्चय किया .


 २३ मार्च १९३१ को सरदार भगत सिंह को असेम्बली में बम फेंकने के इल्जाम में फांसी दी गयी थी और फांसी के तख्ते की तरफ बढ़ते हुए वीर भगत सिंह मस्ती के साथ गा रहे थे-


सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.
देखना है जोर कितना बाजुये कातिल में है..


कैसी अपूर्व मस्ती थी,कैसी उग्रता थी उनके संकल्प में जिससे वह हँसते-हँसते मौत का स्वागत कर सके और उनके कंठों से यह स्वर फूट सके-


शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले .
वतन पर मरने वालों का ,यही बाकी निशाँ होगा..


२३ दिसंबर १९२९ को भी क्रांतिकारियों ने वायसराय की गाडी उड़ाने को बम फेंका था जो चूक गया था.तब गांधी जी ने एक कटुता पूर्ण लेख 'बम की पूजा' लिखा था.इसके जवाब में भगवती चरण वोहरा ने 'बम का दर्शन ' लेख लिखा.सत्यार्थ प्रकाश के अनुयायी भगत सिंह के लिए बम का सहारा लेना आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि उसके रचयिता स्वामी दयानंद अपनी युवावस्था -३२ वर्ष की आयु में १८५७ की क्रांति में सक्रिय भाग खुद ही ले चुके थे.दयानंद जी पर तथाकथित पौराणिक हिन्दुओं ने कई बार प्राण घातक हमले किये और उनके रसोइये जगन्नाथ के माध्यम से उनकी हत्या करा दी,उनके बाद आर्य समाज में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितैषी आर.एस.एस.की घुसपैठ बढ़ गयी थी.अतः भगत सिंह आदि युवाओं के लिए अग्र-गामी कदम उठाना अनिवार्य हो गया था.अतः 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन 'का गठन कर क्रांतिकारी गतिविधियाँ संचालित की गयीं.


२६ जनवरी १९३० को बांटे गए पर्चे में भगत सिंह ने 'करतार सिंह'के छद्म नाम से जो ख़ास सन्देश दिया था उसका सार यह है-"क्या यह अपराध नहीं है कि ब्रिटेन ने भारत में अनैतिक शासन किया ?हमें भिखारी बनाया तथा हमारा समस्त खून चूस लिया?एक जाती और मानवता के नाते हमारा घोर अपमान तथा शोषण किया गया है.क्या जनता अब भी चाहती है कि इस अपमान को भुला कर हम ब्रिटिश शासकों को क्षमा कर दें?हम बदला लेंगे,जनता द्वारा शासकों से लिया गया न्यायोचित बदला होगा.कायरों को पीठ दिखा कर समझौता और शांति की आशा से चिपके रहने दीजिये.हम किसी से भी दया की भिक्षा नहीं मांगते हैं और हम भी किसी को क्षमा नहीं करेंगे.हमारा युद्ध विजय या मृत्यु के निनाय तक चलता ही रहेगा.इन्कलाब जिंदाबाद!"


और सच में हँसते हुए ही उन्होंने मृत्यु का वरण किया.जिस बम के कारण उनका बलिदान हुआ उसका निर्माण आगरा के नूरी गेट में हुआ था जो अब उन्ही के नाम पर 'शहीद भगत सिंह द्वार'कहलाता है.वहां अब बूरा बाजार है.एक छोटी प्रतिमा 'नौजवान सभा',आगरा द्वारा वहां स्थापित की गयी थी जिसे अब आर.एस.एस. वाले अपनी जागीर समझने लगे हैं.यह बम किसी की हत्या करने के इरादे से नहीं बनाया गया था-०६ जून १९२९ को दिल्ली के सेशन जज मि.लियोनार्ड मिडिल्टन की अदालत में भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने कहा था-"हमारे विचार से उन्हें वैज्ञानिक ढंग से बनाया ही ऐसा गया था.पहली बात ,दोनों बम बेंचों तथा डेस्कों के बीच की खाली जगह में ही गिरे थे .दुसरे उनके फूटने की जगह से दो फिट पर बैठे हुए लोगों को भी ,जिनमें श्री पी.आर.राऊ ,श्री शंकर राव तथा सर जार्ज शुस्टर के नाम उल्लेखनीय हैं,या तो बिलकुल ही चोटें नहीं आयीं या मात्र मामूली आयीं.अगर उन बमों में जोरदार पोटेशियम क्लोरेट और पिक्रिक एसिड भरा होता ,जैसा सरकारी विशेग्य ने कहा है,तो इन बमों ने उस लकड़ी के घेरे को तोड़ कर कुछ गज की दूरी पर खड़े लोगों तक को उड़ा दिया होता .और यदि उनमें कोई और भी शक्तिशाली विस्फोटक भरा जाता तो निश्चय ही वे असेम्बली के अधिकाँश सदस्यों को उड़ा देने में समर्थ होते..................लेकिन इस तरह का हमारा कोई इरादा नहीं था और उन बमों ने उतना ही काम किया जितने के लिए उन्हें तैयार किया गया था.यदि उससे कोई अनहोनी घटना हुयी तो यही कि वे निशाने पर अर्थात निरापद स्थान पर गिरे ".


मजदूरों की जायज मांगों के लिए उनके आन्दोलन को कुचलने के उद्देश्य से जो 'औद्योगिक विवाद विधेयक 'ब्रिटिश सरकार  लाई थी उसी का विरोध प्रदर्शन ये बम थे.भगत सिंह और उनके साथी क्या चाहते थे वह भी कोर्ट में दिए उनके बयान से स्पष्ट होता है-"यह भयानक असमानता ....आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठ कर रंगरेलियाँ मना  रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित लोग एक भयानक खड्ड की कगार पर चल पड़े हैं.............साम्यवादी सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निर्माण करें .........क्रांति से हमारा मतलब अन्तोगत्वा एक ऐसी समाज -व्यवस्था की स्थापना से है जो इस प्रकार के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का आधिपत्य सर्वमान्य होगा और जिसके फलस्वरूप स्थापित होने वाला विश्व -संघ पीड़ित मानवता को पूंजीवाद के बंधनों से और साम्राज्यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा."


शहीद भगत सिंह कैसी व्यवस्था चाहते थे उसे लाहौर हाई कोर्ट के जस्टिस एस.फोर्ड ने फैसले में लिखा:"यह बयान कोई गलती न होगी कि ये लोग दिल की गहराई और पूरे आवेग के साथ वर्तमान समाज के ढाँचे को बदलने की इच्छा से प्रेरित थे.भगत सिंह एक ईमानदार और सच्चे क्रांतिकारी हैं .मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि वे इस स्वप्न को लेकर पूरी सच्चाई से खड़े हैं कि दुनिया  का सुधार वर्तमान सामजिक  ढाँचे को तोड़ कर ही हो सकता है.........."

Sunday, March 20, 2011

समाजवाद और वैदिक मत

हिंदुत्व क्या है?-जब अरब आक्रांता भारत आये तो उन्होंने सिंधु के तटवर्ती लोगों को हिंदू कह दिया क्योंकि वे 'स ' को 'ह ' बोलते थे.जब ईरानी हमलावर आये तो उन्होंने 'हिंदू'शब्द को अपने फारसी भाषा के अर्थों में प्रयोग किया.हमारे देश की गुलाम प्रवृति  देखिये एक संगठन 'गर्व से हिंदू'होने का नारा लगाता है.कश्मीर को स्वतन्त्र घोषित करने वाले महाराजा हरी सिंह के सुपुत्र डा.कर्ण सिंह ने 'विश्व हिंदू परिषद 'का गठन कर लिया.इस संगठन को प्रसिद्द कार निर्माता कं.'फोर्ड'की संस्था -'फोर्ड फाउन्डेशन'ने अपनी बेलेंस-शीट में उल्लेख करते हुए भारी 'दान'दिया जिससे वैषम्य पनपाया गया.

आज से नौ लाख वर्ष पूर्व श्री राम के समकालीन महर्षि वाल्मीकी ने अपनी 'रामायण'में १२६ बार राम को आर्य-पुत्र कह कर संबोधित किया है -हिंदू कह कर नहीं.इसी प्रकार गोस्वामी तुलसी दास ने अपनी 'राम चरित मानस'में राम के लिए 'आर्य-पुत्र'कह कर संबोधित किया है-हिंदू कह कर नहीं.क्यों?क्योंकि 'हिंदू'शब्द विदेशी आक्रांताओं द्वारा दिया हुआ है -भारतीय संबोधन नहीं है.गुलाम भारत में 'कुरान'की तर्ज पर 'पुराण'लिखे गए और आज आजादी के ६३ वर्ष बाद भी गुलाम मानसिकता के लोग खुद को हिंदू कहते हैं.क्योंकि पाश्चात्य साम्राज्यवादी ऐसा ही चाहते हैं.

वैदिक मत क्या है?-सृष्टि के प्रारम्भ में पूर्व सृष्टि की मोक्ष प्राप्त आत्माओं के माध्यम से परमात्मा ने मनुष्यों के लिए जिन नियमों का पालन करने का प्राविधान किया वे वेदों में अन्तर्निहित हैं.उनका अभिप्राय' प्राकृतिक नियमानुसार आचार-विचार'से है.   वेद   राम और कृष्ण की देन नहीं हैं बल्कि राम और कृष्ण ही वेदों के अनुयायी थे.आज हमारे धर्माचार्य जो वस्तुतः पूंजीवाद के प्रष्ठ्पोशक ठेकेदार ही हैं और जिनका आचरण किसी भी दृष्टि से प्रकृति के नियमानुसार नहीं है,वे वैदिक मत की गलत व्याख्या उपस्थित करके आम जनता को उसके वास्तविक स्वरूप को जानने से रोक रहे हैं.क्योंकि उन्हें भय है की यदि आम आदमी वैदिक मत की सही व्याख्या को जान गया जो की आधुनिक समाजवाद का पर्याय ही है तो निश्चय ही देश में एक जबरदस्त क्रान्ति आ जायेगी जिसके तहत सम्पूर्ण ढांचा ही बदल जाएगा.

अगर हम इतिहास की गहराईयों में जाकर तथ्य रूपी मोतियों को चुनें तो हमें ज्ञात हो जाएगा -वास्तविक वैदिक मत वह नहीं है जैसा हिंदू-धर्म के नाम से समाज में कुरीतियों के रूप में व्याप्त है.वैज्ञानिकों ने अब सिद्ध कर दिया है -अंतरिक्ष में पुच्छल तारे का बारम्बार सूर्यादि ग्रहों से टकराना ही अन्यान्य नक्षत्रों के निर्माण का कारण है.जब हमारी प्रथ्वी और चन्द्रमा सूर्य से ठिठक कर अलग हुए तो ये अग्नि-पिंड ही थे.शनैः शनैः हमारी पृथ्वी  का ताप कम होता गया .आक्सीजन और हाईड्रोजन गैसें जो फ़ैल रहीं थीं जब उनका परस्पर विलियन हुआ तो वर्षा हुयी.इस वर्षा का जल गड्ढों आदि में भरता गया जो कालान्तर में अपने आकार के अनरूप सागर ,महासागर,तालाब,झील आदि कहलाये.

पर्वतीय चट्टानों पर जल का बर्फ के रूप में जमना  और ऋतू अनुरूप पिघल कर बहना तमाम नदियों की उत्पत्ति का कारण बना.काफी अरसे बाद जीवोत्पत्ति हुयी जो सर्वप्रथम जल में सम्भवत: मछली सदृश्य रहा होगा.जल से अलग होने पर स्थल में आने पर इनसे रेंगने वाले सर्पों की उत्पत्ति हुयी.जीव-वैज्ञानिक प्रिंस डी लेमार्क ने अपने व्यवहार और अव्यवहार सिद्धांत में बड़े सुन्दर ढंग से निरूपित किया है -जीव के जो अंग व्यवहार में कार्य नहीं करते अग्रिम पीढ़ियों में  उनका लोप और जिनको अत्यधिक कार्यशील होना पड़ता है उनका आगामी पीढ़ियों में विस्तार होता जाता है और इस प्रकार एक नयी नस्ल विकसित होती जाती है.उदाहरण के लिए बत्तख को लें जब इस जीव के पूर्वजों को निरंतर जल में रहना पडा और पानी पर पंजे पटखते रहने से रक्त संचार द्वारा त्वचा का विकास होता रहा और आज बत्तख के पंजों का जो रूप है वह विकसित हो सका.इसी प्रकार ऊँट को रेगिस्तान में विचरण के कारण पैरों के अगले भाग पर जोर देना पडा जिससे आज इस नस्ल के जीवों में पैर के अगले भाग पिछले की अपेक्षा अधिक भारी पाए जाते हैं.जिर्राफ को ऊंचे वृक्षों से पत्तियां खाने के कारण लंबे समय तक गर्दन ऊंची रखनी पडी और एक लंबी गर्दन की नस्ल वाले जीव की उत्पत्ति हो गयी.इस प्रकार उड़ने वाले सर्पों से पक्षी जीव का विकास हुआ जिसके पंख निकल आये.पक्षी से स्तनधारी जीवों की उत्पत्ति हुयी.गुरिल्ला,वानर,वनमानुष आदि नस्लों को पार करता हुआ आज का मानव अपनी नस्ल तक वर्तमान स्वरूप में पहुँच सका है.

आधुनिक वैज्ञानिकों का यह दृष्टिकोण पूर्ण यथार्थ सत्य को उद्घाटित नहीं करता है.इसमें पहले मुर्गी या पहले अंडा का विवाद चलता रहा है.अभी हाल ही में वैज्ञानिकों ने भी यह स्वीकार किया है -पहले मुर्गी ही आयी फिर उसके गर्भ में अंडा आया.हमारा वैदिक मत इस सम्बन्ध में शुरू से ही यह मानता आया है -सृष्टि के प्रारंभ में परमात्मा ने सभी जीवों की उत्पत्ति युवा रूप में नर और मादा की एक साथ की थी.बाद में उन जीवों ने अपनी संततियों को जन्म दिया जिनका विकास 'व्यवहार और अव्यवहार'सिद्धांत के अनुसार हुआ है.

आज से लगभग १० लाख वर्ष पूर्व त्रिवृष्टि(वर्तमान तिब्बत),मध्य यूरोप और अफ्रीका में एक साथ युवा पुरुष एवं युवा नारी की कई जोड़ों में सृष्टि की गयी थी. इस धरती पर अपने अवतरण के समय मानव भी अन्य जीवों की तरह नग्न ही रहता था. साग -फल-फूल खाकर ही गुजर बसर किया करता था.वह झुण्ड बना कर रहता था.भूख लगने पर उपलब्ध वास्तु खा लेता था.प्यास लगने पर उपलब्ध जल से क्षुधा शांत कर लेता था.यह युग इतिहास में 'आदिम साम्यवाद ' का युग नाम से जाना जाता है.इस युग में मनुष्य को आवश्यकतानुसार वस्तुएं मिल जाती थीं और वह उनसे संतुष्ट रहता था.इस युग में व्यवस्था मातृ -सत्तात्मक थी क्योंकि कामवासना की पूर्ती भी आवश्यकतानुसार ही हो जाती थी और संतान की पहचान उनकी माँ द्वारा ही होती थी.धीरे-धीरे बुद्धी के विकास के साथ-साथ मनुष्य ने जब देखा उसके द्वारा खा कर फेंके गए फलों के बीजों से नए वृक्ष उत्पन्न हो जाते हैं और उनमें पुनः फल लग आते हैं तो उसने एक स्थान पर जम कर रहने और जरूरत की चीजों को बो कर उगाने की व्यवस्था प्रारम्भ की और इस प्रकार मनुष्य यायावर जीवन से निकल कर 'कृषि-युग'में प्रविष्ट हुआ और यहीं से 'निजी मिलकियत'की भावना का उदय हुआ.कृषि में मनुष्य अपनी बुद्धी प्रयोग द्वारा पशुओ की सहायता लेने लगा.अब पशुओं के लिए चारे की भी व्यवस्था हुयी और समाज की स्थापना होने से नियम बनने  लगे,अब भूमि के साथ ही नारी पर भी निजी अधिकार के कारण परिवार बनने लगे.परिवार में मुखिया का और समाज में चुने हुए मुखिया का धीरे-धीरे नियंत्रण बढ़ता गया .प्रारम्भ में इतिहास के इस 'चारागाह युग'-पास्चर एज में जो लोकतांत्रिक व्यवस्था थी वह शिथिल होने लगी.कृषि में सहायता के लिए सहायक यंत्रों का आविष्कार हुआ जो पत्थर और लकड़ी से बनाए जाते थे.अभी तक मनुष्य कच्चा अन्न और मांस ही खाता था.परन्तु मृत जीवों की पडी-सड़ी हड्डियों में जमे फास्फोरस में जब टकराव और वायु की सहायता से चिंगारी उठते देखा तो प्रारंभिक भय के पश्चात मनुष्य ने इस अग्नि पर निजी अधिकार कर लिया और वह अग्नि को प्रज्वलित रख कर उससे प्रकाश लेने और भोजन को पकाने लगा.धीरे-धीरे अग्नि को घर्षण से उत्पन्न करने की कला आ जाने से अग्नि को सतत प्रज्वलित रखने की समस्या अक समाधान हो गया.अब अग्नि से भोजन पकाते समय यदा-कदा,तत्र-तत्र-सर्वत्र धरान्तरगत धातुएं पिघल-पिघल कर ऊपर आने लगीं तो मनुष्य ने उन पर भी अधिकार जमा कर इस नई अविष्कृत धातु से अपने यंत्र बनाने प्रारम्भ कर दिए.

अब पाषाण युग की समाप्ति और धातु युग का प्रादुर्भाव हो चूका था और इस प्रकार धीरे-धीरे निजी पूंजी का प्रभाव भी बढ़ता चल रहा था.पशुओं और नारी पर निजी अधिकार जमाने के बाद मनुष्य अपने ही कमजोर साथियों को दास बनाने लगा था .उनकी म्हणत से अपनी कृषि,उद्योग और व्यवसाय में इन पशुओं ,दासों और नारियों का शोषण करने लगा था.कुछ पूंजीवादी सरमायेदारों ने अपने तथा-कथित धार्मिक ठेकेदारों से यह कहलवा लिया-'ढोल,गंवार,शूद्र,पशु नारी;ये सब ताडन के अधिकारी'स्पष्टतः यह दास प्रथा को परिपुष्ट रखने वाली सामंती जकड को धार्मिक जामा पहनाने वाली उक्ति है.इन धूर्तों ने अपनी धृष्टता को छिपाने के लिए इस कुरुक्ति का सूत्रधार क्रांतिकारी तुलसी दास की 'रामचरित मानस'को बता रखा है जो सर्वथा गलत है.यह बाद में उनके नाम पर जोड़ा गया  पूंजीवादी षड्यंत्र है.वस्तुतः तुलसी दास सच्चे मानव-धर्मी और क्रांतिकारी समाज-सुधारक थे.उन्होंने तत्कालीन समाज में प्रचलित कुरीतियों और शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद की.उस समय जब वेद और शास्त्र पढने का अधिकार भी शूद्रों अर्थात मेहनतकश मजदूरों से छीन लिया गया था ताकि वे आजीवन गुलाम ही रहें और अपने शोषण के विरुद्ध वेद -शास्त्रों में दर्शाए मार्ग को वे पकड़ न लें अन्यथा निजी मिल्क्कियत का खात्मा ही हो जाता .आचार्य तुलसी दास ने अपने 'क्रांतिकारी समाजवादी'ग्रन्थ -रामचरित मानस में गरुण-काग्भुशुंडी सम्वाद द्वारा शूद्रों अर्थात मेहनतकश कामगारों को यह दिखाया है की ,किस प्रकार काग्भुशुंडी अर्थात जो कॉआ पक्षियों में हेय अर्थात शूद्र माना जाता है अपने ज्ञानार्जन गरुड़ जो पक्षी श्रेष्ठ ब्राह्मण वर्ग में माना जाता है से  प्रभावी  हो सका.यह एक सन्देश है जो उन्होंने रामचरित मानस द्वारा उस समय की सार्वजनिक भाषा-अवधी में उस समय की मेहनतकश कामगार जनता को दिया.इसी प्रकार तुलसी दास ने तथाकथित शूद्र वर्ग की नारी शबरी द्वारा अपने झूठे बेर श्री राम को खिलाने कॉ वर्णन देकर यह सन्देश दिया है की कोई नीच या ऊँच जन्म से नहीं होता है और यह कृत्रिम भेद मिटाना होगा,जैसे श्री राम ने मिटाया.रामचरित मानस में वर्णित राम-रावण युद्ध वस्तुतः 'पूंजीवादी साम्राज्यवाद' और 'राष्ट्रवादी समाजवाद'का विश्वव्यापी संघर्ष था.सभ्यता के विकास के साथ हमारे देश में जब संस्कृति का संगठन हुआ तो प्राचीन ऋषियों ने जो (आज के सरमायेदार तथाकथित धार्मिक ठेकेदार नहीं थे बल्कि) सच्चे समतावादी -मानव धर्मी थे.ऋषि-गण ने विश्व को समतावाद का सन्देश देने के लिए शिष्टमण्डल विदेशों में भी भेजे.उन्होंने इस समतावादी मानव धर्म को आर्ष जिसका अपभ्रंश आर्य है घोषित किया.


आर्य का अभिप्राय सर्वश्रेष्ठ से है.जिस प्रकार प्रकृति का नियम है कि जल सदैव निम्न स्तर पर ही बहेगा -नदियाँ पर्वतों से निकल कर सागर में विलुप्त होती हैं;और धुआं सदैव ऊपर ही जाएगा-धुआं हल्की गैसों का समूह ही तो है और हमारा आचरण सदैव हल्का एवं ऊंचा उठने वाला ही होना चाहिए.हमारे ऋषियों ने बताया कि क्या है और क्यों है -यही उनका आर्य-धर्म अर्थात वैदिक मत है.विज्ञान बताता है कि पदार्थ है और वह क्या है लेकिन हमारे ऋषियों ने साथ-साथ यह भी बताया कि वह क्यों है?आज का विज्ञान अभी तक क्यों का उत्तर नहीं खोज पाया है वह शक्ति को मानता है.विज्ञान कहता है कि Energy is Ghost .हमारे ऋषियों ने अणु और परमाणु को मानव से आत्मा और परमात्मा के रूप में निरूपित किया है.इस प्रकार प्रकृति-नियमानुसार आचरण ही मूल वैदिक धर्म है जो अन्तः चेतना के आधार पर ही क्रियाशील होता है.यही अन्तरात्मा की आवाज ही परमात्मा का निर्देश है.मनुष्य निजी स्वार्थवश और अहम् में केन्द्रित होकर जब इसका उल्लंघन करता हैतो वह शोषण और उत्पीडन की राह पर बढ़ जाता है.अपने 'आतंक और पूंजी बल 'से फिर भी वह अपना ही जयकारा करवा लेता है जो कि वैदिक मत का पूर्ण उल्लघन है.हमारे ऋषी शिष्ट मण्डल इसी सन्देश को लेकर सम्पूर्ण विश्व में फैले थे.उद्देश्य था-'वसुधैव-कुटुम्बकम' जो कि अपने को हिन्दू कहने वालों का नहीं है.(तथाकथित 'हिन्दू'घृणा-विद्वेष ,उंच-नीच,छुआ-छूत,ढोंग-पाखण्ड के अलमबरदार होते हैं).अतः आर्य शब्द किसी भी रूप में हिन्दू का पर्यायवाची नहीं है.

पूर्व दिशा से 'मय'और 'तक्षक 'नामक आर्य ऋषियों के नेतृत्व में गया शिष्ट मण्डल वर्तमान आसाम ,अरुणाचल को पार करके कोरिया,साईबेरिया के मार्ग से 'अलास्का ' होता हुआ वर्तमान यूं.एस.ए.में प्रविष्ट हुआ था .'तक्षक'ऋषि की स्मृति में आज का टेक्सास और 'मय'ऋषि की स्थिति वाला स्थान वर्तमान मेक्सिको  उन्हीं के नाम पर है.

पश्चिम से जाने वाले ऋषि वर्तमान अफगानिस्तान को पार करके 'आर्य नगर'अर्थात 'ऐर्यान'अर्थात आज के ईरान में गए थे.ईरान के अपदस्थ शाह खुद को 'आर्य मेहर रजा पहलवी'इसी   परम्परा के कारण लिखते थे.

दक्षिण दिशा से 'पुलत्स्य'मुनि वर्तमान आस्ट्रेलिया पहुंचे.परन्तु उनके पुत्र विश्रवामुनि ने वहां राज्य कायम कर लिया और व्यापार आदि के पूंजीवादी घेरे में पड़ गए.उन्होंने वर्तमान श्री लंका के तत्कालीन शासक सोमाली को हरा कर भगा दिया और लंका पर आधिपत्य कर लिया.रजा सोमाली भाग कर वहां जा बसा जो उसी के नाम पर अब सोमाली लैंड कहलाता है.इन्हीं विश्रवा मुनि के तीन पत्नियों से तीन पुत्र थे-कुबेर,रावण और विभीषण .उनकी मृत्यु के उपरान्त तीनों में सत्ता और मिलकियत पर कब्जे हेतु संघर्ष हुआ.कुबेर हारने के बाद  भाग कर अपने नाना प्रयाग के भारद्वाज मुनि के पास पहुंचा जिन्होंने उसे स्वर्ग-लोक अर्थात वर्तमान हिमाचल-प्रदेश में एक राज्य बसा दिया.विभीषण ने रावण की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली.

रावण घोर साम्राज्यवादी था.पाताल लोक अर्थात वर्तमान यूं.एस.ए.आदि को कब्जे में लेकर ईरान आदि पर उसने अधिकार कर लिया वह स्वंय को 'रक्षस 'अर्थात आर्य सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करने वाला कहने लगा क्योंकी वह भारत के चारों और अपना साम्राज्य फैला चूका था और भारत तथा भारतीय संस्कृति का स्वंय को रखवाला समझता था.(विशेष ज्ञातव्य यह है कि जैसा एक सरकारी डा.जो खुद को 'हिन्दी,हिन्दू,हिंदुस्तान का रखवाला घोषित किये हुए है रावण को भी हिन्दू कहता है.रावण ने खुद को आर्य सभ्यता का रक्षस माना है -हिन्दू शब्द तब तक प्रचलन में था ही नहीं जो विदेशियों द्वारा फैलाया गया उसी को ओढ़ कर एक तबका खुद को खुदा समझ रहा है).इस समय तक भारत के भीतर भी निजी पूंजी काफी फल-फूल चुकी थी और बड़े राजा छोटे राज्यों पर अधिकार करते जा रहे थे.परन्तु भारत के बाहर के आर्यों के विरुद्ध वे एकजुट थे,इसी लिए सप्त-सैन्धव प्रदेश अर्थात आज के पंजाब,सिंध आदि सीमान्त प्रदेशों में सत्ता-संघर्ष होते रहते थे जो देवासुर-संग्राम कहलाते हैं.

मानव-धर्मी समतावादी चिन्तक ऋषियों ने योजनाबद्ध तरीके से श्री राम को राजसिक विलासिता से दूर रख कर मुनि विश्वामित्र के मार्ग-दर्शन में समतावाद का पाठ पढ़ा क्र इसके प्रासार के लिए जुझारू बनाया .समयांतर से वन-वास के माध्यम से श्री राम ने इस देश की मेहनतकश जनता के बीच रह कर उसके दुःख-दर्दों को समझा और उसके हितों की रक्षा के लिए शास्त्र उठाया.उन्होंने रावण के साम्राज्यवादी आधिपत्य को विश्व की कोटि-कोटि गरीब जनता की सहायता से ऋक्ष-प्रदेश वर्तमान महाराष्ट्र और वा-नर प्रदेश वर्तमान कर्नाटक के क्रांतिकारी वीरों के सेनापतित्व में ध्वंस किया.


क्रांतिकारी तुलसी दास जी के काल में मुग़ल शासक पुत्रों के विद्रोह का शिकार थे.अकबर के विरुद्ध सलीम तथा बाद में जहांगीर के विरुद्ध खुर्रम के विद्रोह हो  रहे थे ऐसी परिस्थितियों में राम और भरत का आदर्श उपस्थित कर गो.तुलसीदास ने एक नूतन दृष्टांत प्रस्तुत किया था.तुलसी दास जी का उद्देश्य मुग़ल शासन के विरुद्ध जनता को जाग्रत करना था.श्री राम आज भी कोटि-कोटि भारतीयों के ह्रदय सम्राट हैं क्योंकि उन्होंने अन्तर राष्ट्रीय साम्राज्यवाद  के विरुद्ध भारतीय समता मूलक (समाजवादी)राष्ट्रवाद का कुशल नेतृत्व किया था.मानव द्वारा मानव के शोषण से रहित समता-मूलक समाज की स्थापना करने की भावना ही वास्तविक 'सनातन-वैदिक दृष्टिकोण है और यही सच्चा 'समाजवाद'है.

आज फिर सिर-फिरे लोग सच्चाई पर कुठाराघात कर  रहे हैं,शोषण ,उत्पीडन,भ्रष्टाचार का बोल-बाला है. अतः पुनः अपने पुराने वैदिक समाजवाद को अपनाने की महती आवश्यकता है.साम्राज्यवादियों के हिमायती झूठे धर्म के नाम पर इसका विरोध करते हैं,उनसे सावधान रहने की बहुत जरूरत है.

Friday, March 18, 2011

होली मुबारक ------ विजय राजबली माथुर


प्रति वर्ष हर्षोल्लास के साथ होली पर्व हम  सभी मनाते हैं.इस होली पर हम सब आप सब को बहुत-बहुत मुबारकवाद देते हैं.तमाम तरह की बातें तमाम दन्त-कथाएं होली के सम्बन्ध में प्रचलित हैं.लेकिन वास्तव में हम होली क्यों मनाते हैं.HOLY =पवित्र .जी हाँ होली पवित्र पर्व ही है.जैसा कि हमारे कृषी-प्रधान देश में सभी पर्वों को फसलों के साथ जोड़ा गया है उसी प्रकार होली भी रबी की फसल पकने पर मनाई जाती है.गेहूं चना जौ आदि की बालियों को अग्नि में आधा पका कर खाने का प्राविधान है.दरअसल ये अर्ध-पकी बालियाँ ही 'होला' कहलाती है संस्कृत का 'होला' शब्द ही होली का उद्गम है.इनके सेवन का आयुर्वेदिक लाभ यह है कि आगे ग्रीष्म काल में 'लू' प्रकोप से शरीर की रक्षा हो जाती है.वस्तुतः होली पर्व पर चौराहों पर अग्नि जलाना पर्व का विकृत रूप है जबकि असल में यह सामूहिक हवन(यज्ञ) होता था.विशेष ३६ आहुतियाँ जो नयी फसल पकने पर राष्ट्र और समाज के हित के लिए की जाती थीं और उनका प्रभाव यह रहता था कि न केवल अन्न धन-धान्य सर्व-सुलभ सुरक्षित रहता था बल्कि लोगों का स्वास्थ्य भी संरक्षित होता था.लेकिन आज हम कर क्या रहे है.कूड़ा-करकट टायर-ट्यूब आदि हानिकारक पदार्थों की होली जला रहे हैं.परिणाम भी वैसा ही पा रहे हैं.अग्निकांड अति वर्षा बाढ़-सूखा चोरी -लूट विदेशों को अन्न का अवैद्ध परिगमन आदि कृत गलत पर्व मनाने का ही दुष्फल हैं.संक्रामक रोग और विविध प्रकोप इसी का दुष्परिणाम हैं.

इस पर्व के सम्बन्ध में हमारे पोंगा-पंथी बन्धुओं ने 'प्रह्लाद' को उसके पिता द्वारा उसकी भुआ के माध्यम से जलाने की जो कहानी लोक-प्रिय बना रखी है उसके वैज्ञानिक मर्म को समझने तथा मानने की आवश्यकता है न कि बहकावे में भटकते रहने की.लेकिन बेहद अफ़सोस और दुःख इस बात का है कि पढ़े-लिखे विद्व-जन भी उसी पाखंड को पूजते एवं सिरोधार्य करते हैं,सत्य कथन/लेखन को 'मूर्खतापूर्ण कथा' कह कर उपहास उड़ाते हैं और लोगों को जागरूक नहीं होने देना चाहते हैं.इसी विडम्बना ने हमारे देश को लगभग हजार वर्षों तक गुलाम बनाये रखा और आज आजादी के ६३ वर्ष बाद भी देशवासी उन्हीं पोंगा-पंथी पाखंडों को उसी प्रकार  चिपकाये हुए हैं जिस प्रकार बन्दरिया अपने मरे बच्चे की खाल को चिपकाये  फिरती रहती है.


जैसा कि'श्री मद देवी भागवत -वैज्ञानिक व्याख्या' में पहले ही स्पष्ट किया गया है-हिरण्याक्ष और हिरणाकश्यप कोई व्यक्ति-विशेष नहीं थे.बल्कि वे एक चरित्र का प्रतिनिधित्व करते हैं जो पहले भी थे और आज भी हैं और आज भी उनका संहार करने की आवश्यकता है .संस्कृत-भाषा में हिरण्य का अर्थ होता है स्वर्ण और अक्ष का अर्थ है आँख अर्थात वे लोग जो अपनी आँखे स्वर्ण अर्थात धन पर गडाये रखते हैं हिरण्याक्ष कहलाते हैं.ऐसे व्यक्ति केवल और केवल धन के लिए जीते हैं और साथ के अन्य मनुष्यों का शोषण  करते हैं.आज के सन्दर्भ में हम कह सकते हैं कि उत्पादक और उपभोक्ता दोनों का शोषण करने वाले व्यापारी और उद्योगपति गण ही हिरण्याक्ष  हैं.ये लोग कृत्रिम रूप से वस्तुओं का आभाव उत्पन्न करते है और कीमतों में उछाल लाते है वायदा कारोबार द्वारा.पिसती है भोली और गरीब जनता.



एक और   तो ये हिरण्याक्ष लोग किसान को उसकी उपज की पूरी कीमत नहीं देते और उसे भूखों मरने पर मजबूर करते हैं और दूसरी और कीमतों में बेतहाशा वृद्धी करके जनता को चूस लेते हैं.जनता यदि विरोध में आवाज उठाये तो उसका दमन करते हैं और पुलिस -प्रशासन के सहयोग से उसे कुचल डालते हैं.यह प्रवृति सर्व-व्यापक है -चाहे दुनिया का कोई देश हो सब जगह यह लूट और शोषण अनवरत हो रहा है.
'कश्यप'का अर्थ संस्कृत में बिछौना अर्थात बिस्तर से है .जिसका बिस्तर सोने का हो वह हिरण्यकश्यप है .इसका आशय यह हुआ जो धन के ढेर पर सो रहे हैं अर्थात आज के सन्दर्भ में काला व्यापार करने वाला व्यापारी और घूसखोर अधिकारी (शासक-ब्यूरोक्रेट तथा भ्रष्ट नेता दोनों ही) सब हिरण्यकश्यप हैं.सिर्फ ट्यूनीशिया,मिस्त्र और लीबिया के ही नहीं हमारे देश और प्रदेशों के मंत्री-सेक्रेटरी आदि सभी तो हिरण्य कश्यप हैं.प्रजा का दमन करना उस पर जुल्म ढाना यही सब तो ये कर रहे हैं.जो लोग उनका विरोध करते हैं प्रतिकार करते है सभी तो उनके प्रहार झेलते हैं.

अभी 'प्रहलाद' नहीं हुआ है अर्थात प्रजा का आह्लाद नहीं हुआ है.आह्लाद -खुशी -प्रसन्नता जनता को नसीब नहीं है.करों के भार से ,अपहरण -बलात्कार से,चोरी-डकैती ,लूट-मार से,जनता त्राही-त्राही कर रही है.आज फिर आवश्यकता है -'वराह अवतार' की .वराह=वर+अह =वर यानि अच्छा और अह यानी दिन .इस प्रकार वराह अवतार का मतलब है अच्छा दिन -समय आना.जब जनता जागरूक हो जाती है तो अच्छा समय (दिन) आता है और तभी 'प्रहलाद' का जन्म होता है अर्थात प्रजा का आह्लाद होता है =प्रजा की खुशी होती है.ऐसा होने पर ही हिरण्याक्ष तथा हिरण्य कश्यप का अंत हो जाता है अर्थात शोषण और उत्पीडन समाप्त हो जाता है.


अब एक कौतूहल यह रह जाता है कि 'नृसिंह अवतार' क्या है ? खम्बा क्या है?किसी चित्रकार ने समझाने के लिए आधा शेर और आधा मनुष्य वाला चित्र बनाया होगा.अगर आज हमारे यहाँ ऐसा ही होता आ रहा है तो इसका कारण साफ़ है लोगों द्वारा हकीकत को न समझना.बहरहाल हमें चित्रकार के मस्तिष्क को समझना और उसी के अनुरूप व्याख्या करना चाहिए.'खम्बा' का तात्पर्य हुआ उस जड़ प्रशासनिक व्यवस्था से जो जन-भावनाओं को नहीं समझती है और क्रूरतापूर्वक उसे कुचलती रहती है.जब शोषण और उत्पीडन की पराकाष्ठा हो जाती है ,जनता और अधिक दमन नहीं सह पाती है तब क्रांति होती है जिसके बीज सुषुप्तावस्था में जन-मानस में पहले से ही मौजूद रहते हैं.इस अवसर पर देश की युवा शक्ति सिंह -शावक की भाँती ही भ्रष्ट ,उत्पीड़क,शोषक शासन-व्यवस्था को उखाड़ फेंकती है जैसे अभी मिस्त्र और ट्यूनीशिया में आपने देखा-सुना.लीबिया में जन-संघर्ष चल ही रहा है.१७८९ ई. में फ़्रांस में लुई १४ वें को नेपोलियन के नेतृत्व में जनता ने ऐसे ही  उखाड़  फेंका था.अभी कुछ वर्ष पहले वहीं जेनरल डी गाल की तानाशाही को मात्र ८० छात्रों द्वारा पेरिस विश्वविद्यालय से शुरू आन्दोलन ने उखाड़ फेंका था.इसी प्रकार १९१७ ई. में लेनिन के नेतृत्व में 'जार ' की जुल्मी हुकूमत को उखाड़ फेंका गया था. १८५७ ई. में हमारे देश के वीरों ने भी बहादुर शाह ज़फ़र,रानी लक्ष्मी बाई ,तांत्या टोपे,अवध की बेगम आदि-आदि के नेतृत्व में क्रांति की थी लेकिन उसे ग्वालियर के  सिंधिया,पजाब के सिखों ,नेपाल के राणा आदि की मदद से साम्राज्यवादियों ने कुचल दिया था.कारण बहुत स्पष्ट है हमारे देश में पोंगा-पंथ का बोल-बाला था और देश में फूट थी.इसी लिए 'प्रहलाद' नहीं हो सका.


आज के वैज्ञानिक प्रगति के युग में यदि हम ढकोसले,पाखण्ड आदि के फेर से मुक्त हो सकें सच्चाई  को समझ सकें तो कोई कारण नहीं कि आज फिर जनता वैसे ही आह्लादित न हो सके.लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि हमारे देश में आज स्वंयभू भगवान् जो अवतरित हो चुके है (ब्रह्माकुमारी,आनंद मार्ग,डिवाईन लाईट मिशन,आशाराम बापू,मुरारी बापू ,गायत्री परिवार, साईं बाबा ,राधा स्वामी  आदि -आदि असंख्य) वे जनता को दिग्भ्रमित किये हुए हैं एवं वे कभी नहीं चाहते कि जनता जागे और आगे आकर भ्रष्ट व्यवस्था को उखाड़ फेंके.


विकृति ही विकृति-होली के पर्व पर आज जो रंग खेले जा रहे हैं वे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं जबकि रंग खेलने का उद्देश्य स्वास्थ्य रक्षा था.टेसू (पलाश) के फूल रंग के रूप में इस्तेमाल करते थे जो  रोगों से त्वचा की रक्षा करते थे और आने वाले प्रचंड ताप के प्रकोप को झेलने लायक बनाते थे.पोंगा-पंथ और  पाखण्ड वाद ने यह भी समाप्त कर दिया एवं खुशी व उल्लास के पर्व को गाली-गलौच का खेल बना दिया. जो लोग व्यर्थ दावा करते हैं  -होली पर सब चलता है वे अपनी हिंसक और असभ्य मनोवृतियों को रीति-रस्म का आवरण पहना देते हैं. आज चल रहा फूहण पन भारतीय सभ्यता के सर्वथा विपरीत है उसे त्यागने की तत्काल आवश्यकता है.काश देशवासी अपने पुराने गौरव को पुनः  प्राप्त करना चाहें !


आप सभी को एक बार फिर से  सपरिवार होली मुबारक.

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13 मार्च 2017 के हिंदुस्तान, लखनऊ अंक के पृष्ठ - 12 पर प्रकाशित इस लेख से उपरोक्त निष्कर्ष की पुष्टि होती है : 
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फेसबुक पर प्राप्त टिप्पणी :
06 मार्च 2015-

14 मार्च 2017 

Thursday, March 17, 2011

जापानी बंधुओं से-

प्रिय जापानी बंधुओं,

विगत ११ मार्च को आपने भूकंप और उसके बाद आये सुनामी के झटके को झेला है अब आपके तीन परमाणु संयंत्रों में विस्फोट के बाद रेडिएशन का खतरा बढ़ गया है.आपने ०६ और ०९ अगस्त १९४५ में भी परमाणु हमलों को झेला है.उनके दुष्परिणामों से आपके अलावा और अधिक कौन जान सकता है.आपके यहाँ ,हमारे यहाँ और सभी जगह आज जो वैज्ञानिक विकास है वह पश्चिम की खोजों पर आधारित है जो पूर्णतयः न तो मानव हित में है और न ही सम्पूर्ण है.हमारे प्राचीन विज्ञान का विकास वेदों पर आधारित था जो जन-कल्याणकारी था साथ-साथ पूर्ण सुरक्षित था.हमारे यहाँ भी प्रथ्वी तक का समूल विनाश करने वाली मिसाईल(शिव-धनुष) ईजाद हो चुकी थी उसे हमारे ऋषी-मुनियों ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम द्वारा बड़ी सुगमता से नष्ट करा दिया था.अमेरिका ने आपके देश की दुर्घटना के बाद भी अपनी परमाणु नीति ज्यों की त्यों जारी रखने की घोषणा की है.ऐसे में आपके और हमारे देश के लिए भी उसे जारी रखना अनिवार्य है.लेकिन हम खतरों से बचाव तो कर ही सकते हैं.हमारे देश के बंधू कहते हैं आज इन विचारों को कोई समझेगा नहीं और समझ भी लिया तो मानेगा नहीं ठीक है हमारे देशवासियों को फारेन रिटर्न बातें और चीजें भाती हैं ,कुछ समय पहले पेरू से एक दंपत्ति आकर हवन द्वारा खेती करना सिखा रहे थे; अतः आप लोग भी  अपनी कुशाग्र बुद्धी से शीघ्र समझ भी लेंगे और अपने निजी हित में मान भी लेंगेफिर आकर हमारे देशवासियों को सिखाईयेगा..पहले भी आपने हमारे बौध मत को अंगीकार कर लिया था जैसे वह आपका अपना था.यहाँ मैं सिर्फ कुछ चुने हुए मन्त्र और श्री भवानी दयाल सन्यासी द्वारा प्रस्तुत भावानुवाद दे रहा हूँ ,आप गूगल या अन्य किसी माध्यम से अपनी जापानी-भाषा में अनुवाद कर सकते है.इनका सस्वर वाचन करने पर ध्वनी -तरंगों से आपकी प्रार्थना अंतरिक्ष तक पहुंचेगी और यदि आप इन मन्त्रों के पूर्व ॐ तथा अंत में स्वः लगा कर सामग्री से आहुतियाँ दे सके तो निश्चय ही आपके वायु-मंडल में छाया हुआ परमाणु-विकिरण शीघ्र समाप्त होगा.गाय के गोबर में Anti  Atomic Power होती है उससे यदि अपने घर की छतों तथा बाहरी दीवारों को लीपेंगे तो आपके भवन विकिरण से बच जायेंगे.पहले हमारे देश में ऐसा होता था लेकिन अब पाश्चात्य साम्राज्यवादी प्रभाव में आकर इसे छोड़ दिया गया है.गोबर की कमी होने पर आप कहीं से भी आयत करें हमारे व्यापारियों से न मंगाएं वे तो अपने देशवासियों को ही धनिये में मिलाकर   खिलाते हैं तो आपको भी गोबर में घोड़े की लीद मिला कर निर्यात कर देंगे.खैर स्वस्ति-वाचन के इन मन्त्रों पर गौर करें:-


अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवम्रित्वज्म
होतारं रत्नधातमम .(ऋ.म.१ /सू.१/म.१ )
(विश्व-विधाता के चरणों पर जीवन पुष्प चढाऊँ.
जिसने यह ब्रह्माण्ड संवारा उसकी गाथा गाऊँ..)

स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वंण: 
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः  स्वस्तिद्यावाप्रथिवी सुचेतुना.
(विद्युत् ,पवन,मेघ,नभ,धरणी मोदमयी भयहारी.
विद्वानों की वाणी होवे ,सुखद सर्व हितकारी..)

स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहे सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः .
ब्रह्स्पतीं सर्वगणं स्वस्ये स्वस्तय आदित्या सोभवन्तु नः.

 (अंतरिक्ष में शशी शुभ्र ,शीतल ज्योत्स्ना फैलाता.
स्वस्ति समन्वित स्नेह सदा सृष्टि सौन्दर्य बढाता ..)

 विश्वेदेवा  नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निःस्वस्तये..
देवा अवन्त्वृभवःस्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्र्वहृसः ..
(जनता की कल्याण कामना से यह यज्ञ रचाया.
विश्वदेव के चरणों में अपना सर्वस्व चढ़ाया ..)


स्वस्ति मित्रावरुणा स्वस्ति पथ्ये रेवति.
स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि ..
(मारुत हो मन भावन ,विद्युत् विनयशील बन जावे.
भौतिक वास्तु मानवी जीवन में उल्लास बढ़ावे..)


स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव.
पुनर्ददताध्न्ता जानता सं गमेमहि..(ऋ.मं५ /सू.५१ /मन्त्र ११ से १५)
(नभ -मंडल में सूर्य चन्द्र पावन प्रकाश फैलाते .                                                                                            ज्ञानवान सत्संग जनित कल्याण मार्ग पर जाते..)

ये देवानां यज्ञिया यज्ञियाना मनोर्थजत्राअमृता ऋतज्ञा:
ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयंपात स्वस्तिभि : सदा न : .(ऋ.म.७ /सूक्त ३५ /मन्त्र १५ )
(यज्ञव्रती विद्वान सर्वदा कर्म-तत्व बतलावें.
अन्तस्तल में ज्योति जगाकर श्रेय मार्ग दिखलावें..)

येभ्यो माता मधु मत्पिन्वते पय:पीयूषं द्यौ रदितिरद्र बर्हा:.
उक्थशुश्मानवृष मरान्त्स्वप्नसस्तां  आदित्यांअनुम.दास्वस्तये(ऋ.मं.१० /सू.६३ /मं ३)
(ऋतू अनुकूल मह बरसे दुखप्रद दुष्काल न आवे.
 सुजला सुफला मातृ भूमि हो,मधुमय क्षीर पिलावे..)

स्वस्ति न :पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्यप्सू वृजने स्ववर्ति .
स्वस्ति न :पुत्र कृथेशु योनिषु स्वस्ति राये मरुतोदधातन ..
(सेना,सूत,जल,धेनु,मार्ग को सुख संपन्न बनाओ .
वातावरण विशुद्ध बना कर वैर विरोध मिटाओ..)

स्वस्ति रिद्धि प्रपथे श्रेष्ठा रेक्णस्वस्तयभि या वाममेती.
सा नो अमा सो अरणेनिपातु स्वावेशा भवतु देवगोपा ..(ऋ.मं.१० /सू ६३ /मं १४ ,१५)
मातृभूमि की सेवा,सागर पर अधिकार जमावें .
धी-श्री से संपन्न जगत को सच्चा स्वर्ग बनावें..)

शं न :सूर्य उरुचक्षा उदेतु शं नश्चतस्त्र: प्रदिशो भवन्तु .
शं न :पर्वता ध्रुवयो भवन्तु शं न :सिन्धवः शमु सन्त्वापः..(ऋ.मं ७ /सू ३५ /मं ८)
(पानी,पवन ,पहाड़ दिशाएँ,रवि रक्षक बन जावें.
वसुधा शांत सुरम्य,समूचे जीव-जन्तु सुख पावें..)

फिलहाल इस संकट की घड़ी में आप इतना ही करें ;वैसे यज्ञ नियमानुसार विधि से संपन्न किये जाते हैं.ये पूर्ण वैज्ञानिक विधि है.आप जो पदार्थ अग्निहोत्र में डालेंगे उन्हें अग्नि परमाणुओं में विभक्त कर देगी और वायु उन एटम्स को अंतरिक्ष में भेज देगी.इसका आधार मेटेरियल साईंस है.

हम यथा शीघ्र इस संकट निवारण की कामना करते हैं.

Tuesday, March 15, 2011

तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु

श्री रघुनाथ वैदिक भूषण एटा से आकर वेद-प्राचार कार्यक्रम में जो भजन प्रस्तुत कर रहे थे और जैसा लाउड स्पीकर से सुनायी दे रहा था उसमें कुछ वाक्य इस प्रकार थे :-

बन्दे तू मन के गंदे.-धन दौलत जोड़ कर
नौकर चाकर पास तेरे बड़ा है कारोबार 
भरा पूरा बड़ा है  तेरा परिवार
करेगा क्या खाली हाथ जाना है सब छोड़ कर.
बन्दे तू मन के गंदे जिसने तुम्हें जन्म दिया
उसका न तूने कभी  नाम लिया
जाने   किस बात में तू इतना फूल गया
जिससे इतना पाया उस परमेश्वर को तू भूल गया
बन्दे तू मन के गंदे दिन तो कटे धन की धुन में
रात कैसे कटे तू तू जागे टैक्स बचाने  की धुन में
पाप में तेरा दिल है  तो ईश्वर का मिलना मुश्किल में
बन्दे तू मन के गंदे  है  तेरी तो जगह जहन्नुम में.

आखिर क्यों कहा भजनोपदेशक जी ने ऐसा ? तो आइये जाने जिन्दगी में मन का रहस्य -

आत्मा ,मन एवं शरीर का समन्वय ही मनुष्य है.शरीर सृजन का आरम्भ अंतःकरण से होता है जिसमें चेतना(आत्मा) प्रकट होती है.बुद्धी एवं अहंकार के विकास के कारण वासना का उदय होता है जिसके संकल्प से शरीर रचना का कार्य आरम्भ होता है.वासना एवं संकल्प का नाम ही 'मन' है जो भौतिक (जड़) पदार्थों से सामग्री लेकर कारण  शरीर का निर्माण करता है.पहले इसके विकास से 'सूक्ष्म शरीर ' बनता है जो बाद में 'स्थूल शरीर' का रूप लेता है.अर्थात 'कारण' ,'सूक्ष्म 'व 'स्थूल'शरीर केवल मन की वासना के कारण बनते हैं.'क्रिया' एवं 'भोग' स्थूल शरीर से होते हैं जिनका कारण मन ही है.इन्हीं क्रियाओं से संस्कार निर्मित होकर मन में ही संग्रहीत होते हैं जो भावी जीवन का कारण बनते हैं.'मन'का यही चक्र अनंत जीवन तक चलता रहता है.जीवन की समस्त क्रियाओं का कारण मन और माध्यम शरीर है.शरीर 'मन' की इच्छानुसार ही समस्त कर्म करता रहता है.शरीर,मन एवं आत्मा अभिन्न हैं.'दृश्य आत्मा ' ही शरीर है और 'अदृश्य शरीर' ही आत्मा है .मन के ही कारण तीन रूप प्रतीत होते हैं.

भौतिक शरीर-पंचभूतों से निर्मित है और जड़ होने के कारण क्रिया या व्यवस्था नहीं कर सकता है.(पंचभूत =भूमि,गगन,वायु,अग्नि,नीर).

मन-शरीर और आत्मा को जोड़ने वाली कड़ी है जो जड़ पदार्थ और चेतन आत्मा के संयोग से निर्मित है.
आत्मा-ज्ञान एवं क्रिया की शक्ति का एकमात्र कारण है परन्तु स्वंय कोई क्रिया नहीं करता.

मन को पहचानें :-

जड़ पदार्थों से निर्मित होने के कारण भोगों कामनाओं,वासनाओं,इच्छाओं के माध्यम से लोभ,मोह,घृणा,राग,द्वेष ०को उत्पन्न करता है किन्तु सत्संग,स्वाध्याय ,ईश्वर प्रेरणा,गुरु कृपा से आत्मिक स्वरूप जाग्रत हो सकता है.मन की संरचना में 'सत्व,रज एवं तम' की प्राकृतिक शक्तियां विद्यमान हैं. सत्व और तंम तो स्थिर रहते हैं जबकि रज में गति होती है.जब रज की गति सत्व की और हो जाए तो सत्व तत्व की प्रधानता  हो जाती है और शुभ कर्म संपादित होते है तथा जब रज की गति तंम की और हो जाए तो तामसिक गुणों की वृद्धी हो जाती है और बुरे कार्य संपन्न होते हैं.  मन की अभिव्यक्ति चार प्रकार की वाणी से होती है-(१) बेखरी -बोलकर शब्दों द्वारा अभिव्यक्ति देना,(२)मध्यमा -शारीरिक हाव-भावों को अभिव्यक्त करना,(३)पश्यन्ति-प्रेम,करुना,दया,अहिंसा आदि ह्रदय में उत्पन्न सूक्ष्म तरंगों द्वारा जिन्हें दूसरा ह्रदय ग्रहण कर लेता है और (४)परा-यह आत्मा की वाणी है और इसे शून्यावस्था में सुना जा सकता है.

खाना-पीना,उठना-बैठना,चलना-फिरना,कार्य करना,सेवा-व्यवसाय,रूचि कार्य,सामजिक,राजनीतिक,बुरे व अनैतिक कार्य,कला-संस्कृत,साहित्य,विज्ञान का विकास और मोक्ष प्राप्ति की साधना मनुष्य शरीर द्वारा तो करता है परन्तु उनकी उत्पत्ति मन द्वारा ही होती है.मन की स्वीकृति के बिना न सत्संग होता है न स्त्री संग,संतानोत्पत्ति का कारण भी मन है.हत्या-बलात्कार,सेवा-सुश्रूषा मन की ही उपज हैं.सभी विचार सर्व-प्रथम मन में उपजते हैं तभी कोई शारीरिक कर्म होते हैं.समस्त कर्मों का कारण मन है अर्थात मन ही मनुष्य है ,मनन करने के कारण ही यह प्राणी मनुष्य है और यही जिन्दगी का रहस्य है.

न को शुद्ध करने ,बलिष्ठ बनाने,सद्कर्मों में लगाने हेतु वेदों में यह छः मन्त्र बताये गए है जिनका श्री मराल जी द्वारा किया गया  भावानुवाद आप भी सुन सकते हैं-




Sunday, March 13, 2011

जो होना है सो होना फिर क्यों रोना है?

मारे देश में यह एक आम प्रवृत्ति हो गयी है कि जब किसी बात की चेतावनी दी जाए या पहले से आगाह किया जाये तो लोगों का लगभग एक सा जवाब होता है कि जो होना है सो होकर रहेगा हम क्यों अपने चैन में खलल डालें.हमें आज तो मौज उड़ा लेने दो,कल किसने देखा है?बचाव और राहत की अग्रिम तैय्यारी करने का तो सवाल ही नहीं उठता.अभी स्वयं वैज्ञानिकों के एक वर्ग ने १९ मार्च २०११ शनिवार ,पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा के पृथ्वी की कक्षा से निकटतम दूरी पर परिभ्रमण करने को अनिष्ट सूचक बता दिया तो वैज्ञानिकों का दूसरा वर्ग और कुछ ज्योतिषी भी उसका खंडन करने को उचक कर आगे आ गए.जब जापान की सुनामी जैसी कोई आपदा घटित हो जाती है तब घडियाली आंसू बहाने को सभी खड़े हो जाते हैं.आइये एक नज़र अंतरिक्ष में ग्रह नक्षत्रों की स्थिति पर डालें-
  1. फाल्गुन कृष्ण षष्ठी बुधवार २३ फरवरी को स्वाति नक्षत्र था  जो भविष्य में दुर्भिक्ष का सूचक है अर्थात फसलों की हानि का संकेत देरहा है.अतः गोदामों तथा परिवहन में अग्नि,वर्षा आदि से अन्न की सुरक्षा के बंदोबस्त किये जाने चाहिए.
  2. १९ मार्च शनिवार के दिन गुरु और शनि ग्रह १८० डिग्री पर होंगे एवं रात्री के समय चन्द्रमा भी शनि के साथ कन्या राशि में होगा जबकि गुरु जल राशि  मीन में होगा.इस स्थिति का परिणाम जल या जल क्षेत्रों में उथल पुथल जो सुनामी ,भूकंप या मानव जनित विस्फोट कुछ भी हो सकता है.दैनिक उपभोग की वस्तुओं में कमी तथा गृहणियों पर प्रहार भी संभावित है.जनता में असंतोष भडकेगा और अनावश्यक खर्च बढ़ेंगे न्याय और अर्थव्यस्था में भी संकट हो सकता है.
  3. सूर्य भी मीन राशि में रह कर शनि से १८० डिग्री पर ही होगा जिसके प्रभाव से पुलिस ,सेना और मजदूर वर्ग में टकराव के संकेत भी हैं.सरकारी कर्मचारियों में असंतोष से शासन कार्यों में बाधा आ सकती है.
  4. मंगल कुम्भ राशि में होने से शनि के साथ षडाष्टक योग रहेगा.परिणामतः सांसदों ,विधायकों पर आपदा आ सकती है.यातायात मार्ग दुर्घटनाएं ,यान और खान दुर्घटनाओं से भी जन धन की क्षति संभावित है.
  5. केतु मिथुन राशि में तथा राहू धनु राशि में रहेगा जिसका स्वामी गुरु है .परिणामतः महापुरुषों पर भार या मारक प्रभाव पड़ सकता है.जनता के मध्य संक्रामक रोग फैलने का भी योग है.
ये सारी घटनाएं पूर्णिमा से पूर्व और बाद में कभी भी घटित हो सकती हैं केवल मात्र उसी दिन ही नहीं.अतः सतत सावधानी रखने की आवश्यकता होगी.

मेरे विचार में तात्कालिक उपायों के रूप में चन्द्र ग्रह की शांति करना चाहिए.अब इतने कम समय में उपचार हो सकेगा अथवा नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता.फिर भी प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है.प्रकोप में कुछ तो कमी हो ही सकती है.'ॐ सोम सोमाय नमः' मन्त्र से ११००० जाप न्यूनतम होना चाहिए.अर्थात प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने लिए प्रति दिन २००० बार जाप करें.जाप पूर्ण होने पर ११०० आहुतियाँ 'ॐ सोम सोमाय स्वाहा 'मन्त्र से सामग्री में चावल और बूरा मिला कर दें.व्यक्तिगत बचाव हेतु पूर्णिमा के दिन उपवास रखा जा सकता है.अर्थात पूर्णिमा की रात्री में भोजन न करें और सूर्यास्त के बाद पानी कतई न पीयें.शरीर विज्ञानं कहता है -मानव शरीर का ८० प्रतिशत भाग जल ही है.पूर्णिमा के दिन समुद्र तक में ज्वार आ जाता है तो मानव शरीर में भी रक्त में मिले जल में ज्वार होने के कारण सर दर्द -मृगी -बुखार-पागलपन-अपराध प्रवृति आदि बढ़ जाते हैं .इसलिए रात्री में जल का निषेद्ध है परन्तु हमारे पोंगा-पंथी उल्टा करवाते हैं.वे लोगों को दिन भर भूंका-प्यासा रख कर रात्री में चन्द्र को जल का अर्क चढ़वाकर सम्पूर्ण भोजन -पानी खाने को कहते है.यह सर्वथा वैज्ञानिक रूप से बिलकुल गलत है.बल्कि दिन में एक ही समय भोजन करना चाहिए वह भी मीठा या फीका ही.नमक का पूर्ण निषेद्ध रखना चाहिए.हवन सामूहिक रूप से भी किया जा सकता है.

हवन द्वारा उसमें डाली गयी आहुतियों को अग्नि परमाणुओं में विभक्त कर देती है और वायु उन परमाणुओं को बोले गए मन्त्रों की शक्ति से सम्बंधित ग्रह-नक्षत्रों तक पहुंचा देती है.साथ ही साथ मन्त्र उच्चारण में वायेब्रेशन की प्रक्रिया भी उस ग्रह -नक्षत्र  को प्रभावित करती है.इसलिए यही वैज्ञानिक और श्रेष्ठ पद्धति है न कि अन्य ढोंग के उपाए.

पोंगा-पंथी महानुभाव इस वैज्ञानिक समाधान की खिल्ली जरूर उड़ायेंगे.वे तो दान पुन्य का राग अलाप कर भोली जनता को उलटे उस्तरे से मूढ्ना जानते हैं;जनता को राहत पहुंचाना उनका उद्देश्य कभी नहीं होता है.सर्वजन हित को लक्ष्य कर मैंने उपरोक्त सुझाव देकर बेवकूफी का काम कर दिया है.मानना या न मानना लोगों की अपनी -अपनी मर्जी है.

आत्म विशवास और मनोबल को ऊंचा रख कर हर समस्या का समाधान सहजता से किया जा सकता है.मैं तो यही मानता हूँ.

आओ मिल कर विचार करें  हम आप अपना सुधार करें.
धरा पर वृक्ष लगायें  आप हम  अपना बचाव करें.
आओ मिल कर विचार करें  हम भी ऐसे काम करें .
सूरज की तरह चमकें   मानवता का उपकार करें..

Saturday, March 12, 2011

सुनामी और ग्रह योग

गुरूवार की रात जापान में भूकम्प के पश्चात भीषण सुनामी-प्रकोप हुआ जिसमे काफी जान-माल की क्षति हुई है.कुछ वैज्ञानिकों ने आगामी १९ मार्च को पूर्णिमा के दिन चंद्रमा के प्रथ्वी के अत्यधिक निकट से गुजरने पर ऐसी आशंकाओं को व्यक्त किया था.लेकिन रूडकी विश्वविद्ययालय के भूकम्प इंजीनियरिंग के वरिष्ठ प्रो.अश्वनी कुमार इसे रद्द करते हैं.ऐसा ही तब हुआ था जब भारत को सुनामी का शिकार होना पड़ा था.ईसा से ३५० वर्ष पूर्व प्लूटो की लिखित भविष्य-वाणी के आधार पर श्री आरजे होरे ने १९७१ ई.में प्राकाशित पुस्तक 'गाईड इंग्लिश फार इण्डिया 'के सेकिंड एडीशन बुक  I I के लेसन १६ पर स्पष्ट लिखा था की १८८२ ई.में सूर्य व प्रथ्वी के बीच शुक्र के आनेसे भयंकर बाढ़ और तूफ़ान के प्रकोप से एक पूरा साम्राज्य समुद्र के अन्दर समा गया था.पुनः २००४ ई.में प्रथ्वी व सूर्य के बीच शुक्र के आने से ऐसी ही तबाही होगी.यह पुस्तक C .B .S .E .के कोर्स में कक्षा ७ में पढाई जा रही थी.परन्तु इस पर कोई सचेत न था.सुनामी ने एटलान्टिस थ्योरी के अनुसार २६ दिसंबर २००४ को भारत में भी अपना कहर ढा ही दिया था.

सी प्रकार संवत २०६७ वि.अर्थात ई.सन २०१० -२०११ के निर्णय सागर पंचांग प्र.५५ पर स्पष्ट लिखा हुआ है :-


'कन्या राशि स्थिते सौरे संग्रामः स्याद्वरानने.जयस्त्र नरेंद्राणां मलेच्छहानिदिर्ने ..'जिसका अर्थ हुआ-कन्या राशि में शनि के रहने से मुस्लिम देश राष्ट्रों में दिनमान सामान्य -अनुकूल वातावरण की कमी ;जन-धन क्षति विषयक प्रारूप रहेगा.त्यूनिश्या और मिस्त्र के बाद अब लीबिया में वही सब तो घटित हो रहा है जिसकी घोषणा पूर्व में की जा चुकी है.किसने बचाव किया नहीं तो फिर भुगतना ही होगा.


सी प्र.पर यह भी लिखा हुआ है-'यदा सुरगुरूमीर्ने दुर्भिक्षं तत्र रौरवम.सागराः सर्व नद्द्योsपि विनश्यन्ति चतुष्पदः..' अर्थात ऋतू जनित विषमता विशेषकर बनते समुद्र तटीय देश-नगर संभाग में प्रपीड़ा -जन धन हानि क्षति का कुचक्र तथा चक्रवात अंधड़ -वायुवेग प्रकोप का वातावरण बने.और यही हुआ १० मार्च की अर्द्ध-रात्री २ बजे के बाद आये जापान के सुनामी में.

न २००४ की दिसंबर २६ को पक्षी अभ्यारण के लिए प्रसिद्द पिछ्वारम गाँव की रक्षा मैग्रोव के वृक्षों ने ही की थी. लेकिन बाकी जगहों पर पर्यटन तथा आर्थिक लाभ की वजह से इनकी कटाई हो चुकने के कारण भारी तबाही हुयी थी.बच्चों को कक्षा में पढवाते रहे और मैग्रोव वृक्षों की अंधाधुंध कटाई भी करते रहे अर्थात इस तबाही का उत्तरदायित्व सरकार एवं समाज का है.प्रकृति तो अपने हिसाब से ही चलेगी उससे तालमेल नहीं करेंगे तो बेगुनाहों को चन्द अमीरों के लाभ के लिए मारते ही रहेंगे.  २७ दिसंबर २००४ को ही समुद्र तल से १७३७ मी.ऊंचाई पर स्थित U .A .E .की अल्जीस पर्वत श्रेणी पर भारी बर्फ़बारी हुयी और मुम्बई में १२ .६ मि.मी.बारिश के बाद तापमान शून्य से १२ डिग्री सेल्सियस नीचे चला गया जहाँ गर्मियों का तापमान ५० डिग्री रहता था.


सिर्फ ग्रह-नक्षत्र ही हमें प्रभावित नहीं करते हैं बल्कि हमारे कृत्यों का ग्रह-नक्षत्रों पर भी प्रभाव पड़ता है.आप समुद्र में एक कंकड़ फेंकें तो उससे बन्ने वाली तरंगें आप को भले ही न दिखें परन्तु उस कंकड़ को फेंकने के प्रभाव से तरंगें बनेंगी अवश्य ही .वही कंकड़ जब बाल्टी भरे पानी में फेंकेंगें तो आप तरंगें देख सकेंगें हम प्रथ्वी वासी प्रथ्वी पर जो कुछ कर रहे हैं उसका प्रभाव अखिल ब्रह्माण्ड पर क्षण-प्रतिक्षण पड़ रहा है.दुष्प्रभाव भी समय-समय पर प्रतीत होता जा रहा है.पर्यावरण सुंतलन बिगड़ चूका है.ओजोन की परत भी प्रभावित  हो गयी है.२६ दिसंबर २००४ को दक्षिण भारत समेत कई देशों को सुनामी का प्रकोप झेलना पड़ा हो या अब जापान को १० मार्च २०११ की अर्द्ध-रात्रि में है सब कुछ मानवीय गलतियों का परिणाम ही.

मेरिका में ओजोन की परत में छिद्र हो गया था तो उन्होंने अपने यहाँ अग्निहोत्र विश्वविद्यालय की स्थापना कर ली और वहां अखण्ड अग्निहोत्र अनवरत चल रहा है;परिणामतः उनके क्षितिज पर ओजोन की परत भर गई और वह छिद्र सरक कर दक्षिण-पूर्व एशिया चला आया है जो इतनी जल्दी-जल्दी इस क्षेत्र को सुनामी के चपेटे में डाल रहा है.वैज्ञानिक चाहे अमेरिका के हों या यूरोप के या हमारे देश के कभी भी सच्चाई न समझेंगे न मानेंगे और न बचाव करेंगें.यह तो जनता को स्वंय  को पहले खुद को सुधारना होगा और ढोंग व पाखण्ड को तिलांजली देकर अपनी अर्वाचीन हवन-पद्धति को अपनाना होगा.हमारे ज्ञान का लाभ अमेरिका उठा रहा है परन्तु हमारे अपने पोंगा -पंथी हमारी अपनी जनता को गुमराह किये हुए हैं.

लाउड स्पीकरसे आवाजें घर पर सुनायी दे रहीं थीं एक वेद-प्रचारक महोदय गा रहे थे-


दौलत के दीवानों उस दिन को पहचानों ;
जिस दिन दुनिया से खाली हाथ चलोगे..
चले दरबार चलोगे....
ऊंचे-ऊंचे महल अटारे एक दिन छूट जायेंगे सारे ;
सोने-चांदी तुम्हारे बक्सों में धरे रह जायेंगे...
जिस दिन दुनिया से खाली हाथ चलोगे...
चले दरबार चलोगे.......
दो गज कपडा तन की लाज बचायेगा ;
बाकी सब यहाँ पड़ा रह जाएगा......
चार के कन्धों पर चलोगे..
.चले दरबार चलोगे......
पत्थर की पूजा न छोडी-प्यार से नाता तोड़ दिया...
मंदिर जाना न छोड़ा -माता-पिता से नाता तोड़ दिया...
बेटे ने बूढ़ी माता से नाता तोड़ दिया ;
किसी ने बूढ़े पिता का सिर फोड़ दिया....
पत्थर की पूजा न छोडी ;मंदिर जाना न छोड़ा....
दया धर्म कर्म के रिश्ते छूट रहे;
माता-पिता से नाता छोड़ दिया....
उल्टी सीधी वाणी बोलकर दिल तोड़ दिया;
बूढ़ी माता से नाता तोड़ दिया.....
पत्थर की पूजा न छोडी मंदिर जाना न छोड़ा 
बूढ़ी माँ का दिल तोड़ दिया.....
वे क्या जाने जिसने प्रभु गुण गाया नहीं ;
वेद-शास्त्रों से जिसका नाता नहीं..
जिसने घर हवन कराया नहीं...
गुरुडम में फंस कर जिसने सत्य से मुंह मोड़ लिया ;
पाखण्ड को ओढ़ लिया ...
इसी कारण भारत देश गुलाम हुआ ...
भाई-भाई का आपस में घोर संग्राम हुआ ;
मंदिर ..मस्जिद तोड़े संग्राम हुआ.....
बुत परस्ती में लगा हुआ देश बुरी तरह गुलाम हुआ ;
देश मेरा बदनाम हुआ.....

कानों में आवाजें आ रहीं थीं कागज पर उतारा और आपको लिख दिया ;लेकिन सब बेकार है .हमारे ब्लाग जगत में जहाँ सभी बुद्धीजीवी है पाखंड छोड़ने को तैयार नहीं तो आम जनता तो अबोध  है उससे क्या उम्मीद की जाये.


देखते रहिये ग्रह-नक्षत्रों का खेल और झेलते रहिये आपदाएं आज वहां कल यहाँ.







Thursday, March 10, 2011

अर्थ -अनर्थ और भाषा का तमाशा

पिछले दिनों ब्लॉग जगत के अखाड़े में संस्कृत-भाषा की व्याख्या के सन्दर्भ में कुछ मेडिकल डा. और कुछ भाषा के डा. के मध्य अनर्गल द्वन्द चला है.वैदिक संस्कृत की व्याख्या करने में बहुत सावधानी रखने की जरूरत होती है और मन्त्रों की मनमानी व्याख्या ने ही आज हमारे देश को ये दुर्दिन दिखा रखे हैं.'वेदऔर विज्ञान 'लेख में पदमश्री डा.कपिल देव दिव्वेदी ने वैदिक साहित्य के सही टीकाकारों में इन विद्वानों का उल्लेख किया है-महर्षि दयानंद,आचार्य सायण,आचार्य वेंकट माधव ,श्रीपाद दामोदर सावलेकर,आचार्य नरेंद्र देव शास्त्री,वेद तीर्थ डा.हरिदत्त शास्त्री,डा.मंगल देव शास्त्री,डा.वासुदेव शरण अग्रवाल ,डा.सूर्य कान्त,जय देव विद्यालंकार,विश्व बंधू शास्त्री,क्षेमकरण त्रिवेदी ,पं .गिरधारी लाल शर्मा चतुर्वेदी,डा.स्वामी सत्य प्रकाश सरस्वती,डा.रघुवीर.

इस श्रेणी में कहीं भी आचार्य श्री राम शर्मा का नाम नहीं है और हो भी नहीं सकता था क्योंकि यही वह शख्स थे जिन्होंने महर्षि दयानंद की सारी शिक्षा और मेहनत को अपने निहित स्वार्थों तथा साम्राज्यवादियीं की संतुष्टि के लिए ध्वस्त कर डाला है.अफ़सोस की बात है कि उन्हीं के नाम के सहारे से वह भाषाई युद्ध लड़ा गया.वस्तुतः साम्प्रदायिक और साम्राज्यवादी शक्तियों की यह चाल रहती है आम जनता को भ्रमित कर के व्यर्थ उलझा दो और अर्थ का अनर्थ करते रहो.इसी प्रक्रिया के तहत'सीता का विद्रोह'को मूर्खता पूर्ण कथा कहा गया था जिससे सच्चाई छिपी ही रहे .सत्य बहुत कटु होता है और हर कोई सत्य न सुन सकता है न बर्दाश्त कर सकता है.परन्तु सत्य -सत्य होता है वह उसे मानने या न मानने से अपरिवर्तित ही रहता है.


'भंगी'शब्द किसके लिए?-


आचार्य विश्व देव जी आर्य जगत के महान विद्वानों में से एक थे और संस्कृत भाषा के बड़े व्याकरणा चार्य भी थे.उन्होंने एक बार बताया था कि कमला नगर (आगरा)की एक वाल्मीकि बस्ती में पूर्णमासी के हवन उपरान्त प्रवचन में एक वृद्ध महाशय ने उन से प्रश्न उठा दिया कि वाल्मीकी समुदाय को भंगी क्यों कहा जाता था ?भले ही सरकार ने इसे अब प्रतिबंधित कर दिया है परन्तु इस शब्द के मतलब क्या है?उन सज्जन ने यह भी बताया कि 'मेहतर'शब्द फारसी का है जो इंग्लिश के BEST के सन्दर्भ में है .आचार्य विश्व देव जी 'भंगी'शब्द की व्याख्या व्याकरण के आधार पर करने में जब विफल हो गए तो उन्हीं सज्जन से निवेदन किया कि आप ही जानते हों तो समस्या समाधान करें और उन्होंने जो व्याख्या 'भंगी'शब्द की बताई उससे विश्व देव जी ने भी अपनी सहमती जता दी.उन्होंने बताया-


भंगी =भंग+ई =भंग करने वाला अर्थात वे लोग जो चार प्रकार की मर्यादाओं में से एक भी भंग करें 'भंगी' कहे जाते थे न की सफाई करने वाले.वे चार मर्यादाएं यह हैं:-


१.व्यक्तिगत मर्यादा.
२.पारिवारिक मर्यादा.
३.सामजिक मर्यादाऔर
४.राष्ट्रीय /राजनीतिक मर्यादा.


शामली(मुजफ्फर नगर)के प्रवचन का एक और दृष्टांत आचार्य विश्व देव जी ने बताया कि वहां प्रवचन के बीच में उन्होंने श्रोता जनता से पूंछ लिया कि आप लोग समझ पा रहे हैं या नहीं?एक वृद्ध सज्जन ने जवाब दे दिया-"समझे सें तू भौंके जा".एक बार तो विश्वदेव  जी इस जवाब से सकपका गये लेकिन प्रवचन जारी रखा.उन्होंने बताया कि प्रवचन समाप्त होने के थोड़े से अंतराल पर वही सज्जन एक लीटर दूध लेकर विश्वदेव जी को पिलाने पहुंचे यह कहते हुए "तू बहुत थक गया है ले यह दूध पी जा" विश्वदेव जी के यह कहने पर एक गिलास तो पी सकता हूँ सब नहीं तो वह बोले "तू पिएगा नहीं तो मैं तेरे ऊपर ड़ाल दूंगा" अवसरानुकूल भी भाषा को समझना पड़ता है.परन्तु यहाँ ब्लाग जगत में तो सभी सभ्य एवं विद्वान हैं फिर क्यों गलत भाषा बोल कर अहंकार प्रदर्शन करते हैं?


गणेश स्तुति में एक शब्द 'सर्वोपद्रव नाशनम' आता है अब इसे अगर ज्यों का त्यों पढेंगे तो मतलब निकलेगा -समस्त धन का नाश कर दो.क्या प्रार्थी यही कामना करता है?कदापि नहीं.इस शब्द को पढने के लिए संधि-विच्छेद तथा समास का सहारा लेना होगा.अर्थात -सर्व +उपद्रव +नाशनम =समस्त उपद्रवों का नाश करें जो प्रार्थी वस्तुतः कह रहा है.


इसी प्रकार शिव स्तुति के शब्द 'चन्द्र शेखर माश्रय' को यों पढना होगा-चन्द्र शेखरम +आश्रय =चन्द्र शेखर(शिव)के आश्रय में हूँ.


दुर्गा सप्तशती में कुंजिका-स्त्रोत के अंतर्गत एक शब्द 'चाभयदा' लिखा मिलेगा जिसे अगर यों ही पढेंगे तो मतलब होगा -और भय दो.क्या भय प्राप्ति की कोई कामना करेगा? नहीं.अतः इस शब्द को भी सन्धि-विच्छेद एवं समास के सहारे से ही समझा जा सकता है.अर्थात च +अभय दा =और अभय दो -यही प्रार्थना का अभीष्ट है.


हमारे सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में ऐसी ही बीज गणीतात्मक (Algebraical) संस्कृत है जिसे आचार्य श्री राम शर्मा -आशा  राम बापू -बाबा राम देव - सरीखे ढोंग -पाखंड को बढ़ावा देने वाले महात्माओं की व्याख्याओं से नहीं समझा जा सकता.


पं.नारायण दत्त श्रीमाली ने भी  ऐसे ही कुछ बीज मन्त्रों की सम्यक व्याख्या प्रस्तुत की है.आपकी सहूलियत के लिए यहाँ कुछ नमूने के तौर पर दे रहे हैं.:-


.क्रीं=क +र +ईकार +अनुस्वार =काली, =ब्रह्म,ईकार =महामाया,अनुस्वार=दुःख हरण .
अर्थात' क्रीं ' का आशय हुआ -ब्रह्म शक्ति संपन्न महामाया काली मेरे दुखों का हरण करें.


२.श्रीं =श +र +ई +अनुस्वार =महालक्ष्मी , =धन-ऐश्वर्य , =तुष्टि,अनुस्वार =दुःख हरण 
अर्थात 'श्रीं' का आशय हुआ -धन ऐश्वर्य-संपत्ति,तुष्टि-पुष्टि की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी मेरे दुखों  का नाश करें.


.ह्रौं =ह्र+औ+अनुस्वार ह्र =शिव, =सदा शिव ,अनुस्वार =दुःख हरण 
शिव तथा सदा शिव कृपा करके मेरे दुखों का हरण करें.


.दूं =द +ऊ +अनुस्वार  =दुर्गा,=रक्षा,अनुस्वार=करना 
अर्थात आशय हुआ-माँ दुर्गे मेरी रक्षा करो.आदि -आदि इन छोटे-छोटे शब्दों के उच्चारण मात्र से कितनी बड़ी-बड़ी प्रार्थनाएं हमारे ऋषि-मुनियों ने निर्धारित की थीं जिनका लाभ अतीत में सभी देशवासी उठाते थे.कालांतर में संकुचित स्वार्थों के चलते वैदिक साहित्य को नष्ट किया गया और कुत्सित पौराणिक आख्यान थोप दिए गये जिनका आज प्रचलन धडाके से हो रहा है.ये लडाका विद्वान लोग इन्हीं पौराणिक व्याख्याओं के बंधुआ हैं.जिन आचार्य श्री राम शर्मा और उनके गायत्री परिवार के गुण गये जाते हैं उन्होंने जान-बूझ कर वेदों की गलत व्याख्या प्रस्तुत करके ढोंग एवं पाखण्ड को पुनर्जीवित किया है.इन लोगों ने वेदों की मूर्तियाँ बना डाली हैं और उनकी बिक्री के लिये विज्ञापन दिये थे-


(श्री अशोक कौशिक द्वारा उपलब्ध सूचना के अनुसार)

१.-मई,१९९८ के 'पांचजन्य'(आर.एस.एस.का मुख्य पत्र)  में और 
२.-५ जून १९९८ के 'योर फैमिली फ्रेंड' में जो १४२ -जम्रूदपुर (लेडी श्री राम कालेज के सामने)नयी दिल्ली-११०००४८ से छपी .फ़ो.-६२१९३८५


ये उदाहरण मात्र इस लिये दिये हैं जिसे समझ कर आपको पता चल जाये कि सही विचारों का विरोध करने वाले (संविधान की भावना के विपरीत घोषणा करके बेधड़क सरकारी नौकरी करने वाले डा.आदि) के असली मंतव्य क्या हैं? ये वे लोग हैं जो सदियों से कुचली जनता को जाग्रत नहीं होने देना चाहते ताकि साम्राज्यवादी  निष्कंटक अपना शोषण जारी रख सकें ,इसी क्रम में साम्प्रदायिकता को जिलाए रखा जाता है.इसी ब्लाग में पहले भी कई बार स्पष्ट किया है -आर.एस.एस.की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्य ने अपने शासन को मजबूत करने तथा जनता में फूट डालने हेतु कराई थी जिसकी पुष्टि वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह जी ने अपने ब्लाग 'जंतर-मंतर'  में भी की है.उन्होंने साफ़ -साफ़ लिखा है-


१९२० के गांधी जी के आन्दोलन से स्थापित हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ने हेतु आर.एस.एस. की स्थापना कराई गयी थी.इटली के विचारक 'माजनी' की पुस्तक "न्यू इटली "के बहुत सारे तर्क सावरकर की किताब "हिंदुत्व" में मौजूद हैं.१९२० में सावरकर को माफी देते वक्त ब्रिटिश शासकों ने उनसे यह अन्डरटेकिंग लिखवा ली थी कि माफी के बाद वह ब्रिटिश इम्पायर के हित में ही काम करेंगे.डॉ.हेडगेवार ने सावरकर से प्रेरित होकर ही आर.एस.एस.की स्थापना १९२५ में  कीथी.माधव राव सदा शिव गोलवालकर की नागपुर के 'भारत पब्लिकेशन्स'से प्रकाशित किताब "वी आर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड"के १९३९ संस्करण के प्र.३७ पर लिखा है -हिटलर एक महान व्यक्ति है और उसके काम से हिन्दुस्तान को बहुत कुच्छ सीखना चाहिए.


यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि हिटलर ने यहूदियों का सफाया कर दिया था और गोलवालकर जी का इशारा हिंदुस्तान में मुस्लिमों की और था.गुलामी के दौरान साम्प्रदायिक दंगे मुस्लिम लीग और आर.एस.एस. के साम्राज्यवादी मंसूबों को पूरा करने वाले कृत्य थे जिनका परिणाम भारत-विभाजन के रूप में सामने है.


आजादी के इतने लम्बे अरसे बाद भी ये साम्प्रदायिक शक्तियां देश को कमजोर करने का कुचक्र करती रहती हैं-ब्लाग जगत में भी ये तोड़-फोड़ करते रहते हैं."मैं हूँ......मैं हूँ......मैं हूँ......" जैसे अहंकारी उद्घोष करते हुए ये तत्व गलत बातों को ऊपर रखते हुये सत्य पर प्रहार करते हैं.ये आज भी गुलाम मानसिकता में ही जी रहे हैं.


फिर भी अगर हमारे ब्लाग जगत के प्रबुद्ध विचारक जन-जाग्रति को अपने लेखन का आधार बना लें तो कोई कारण नहीं कि देश से ढोंग-पाखण्ड को उखाड़ कर अपनी अर्वाचीन संस्कृति को पुनर्स्थापित करने में देर नहीं लगेगी.कलकत्ता के गजानंद आर्य जी सही फरमाते हैं.:-


सागर की डगमग किश्ती को,साहिल की आस बंधाता है.
पक्के इरादों से तूफाँ में,बाधाओं का गढ़ ढह जाता है..