Wednesday, December 25, 2013

भारत के राजनीतिक दल (भाग-3 - भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी )---विजय राजबली माथुर

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  भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी :

इस दल की स्थापना तो 1924 ई में विदेश में हुई थी। किन्तु 25 दिसंबर 1925 ई को कानपुर में एक सम्मेलन बुलाया गया था जिसके स्वागताध्यक्ष  गणेश शंकर विद्यार्थी जी थे। 26 दिसंबर 1925 ई  को एक प्रस्ताव पास करके  'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' की स्थापना की विधिवत घोषणा की गई थी। 1931 ई में इसके संविधान का प्रारूप तैयार किया गया था किन्तु उसे 1943 ई में पार्टी कांग्रेस के खुले अधिवेन्शन में स्वीकार किया जा सका क्योंकि तब तक ब्रिटिश सरकार ने इसे 'अवैध'घोषित कर रखा था और इसके कार्यकर्ता 'कांग्रेस' में रह कर अपनी गतिविधियेँ चलाते थे। 

वस्तुतः क्रांतिकारी कांग्रेसी ही इस दल के संस्थापक थे। 1857 ई की क्रांति के विफल होने व निर्ममता पूर्वक कुचल दिये जाने के बाद स्वाधीनता संघर्ष चलाने हेतु स्वामी दयानन्द सरस्वती (जो उस क्रांति में सक्रिय भाग ले चुके थे)ने 07 अप्रैल 1875 ई (चैत्र शुक्ल  प्रतिपदा-नव संवत्सर)को 'आर्यसमाज' की स्थापना की थी। इसकी शाखाएँ शुरू-शुरू में ब्रिटिश छावनी वाले शहरों में ही खोली गईं थीं। ब्रिटिश सरकार उनको क्रांतिकारी सन्यासी (REVOLUTIONARY SAINT) मानती थी। उनके आंदोलन को विफल करने हेतु वाईस राय लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से एक रिटायर्ड ICS एलेन आकटावियन (A.O.)हयूम ने 1885 ई में वोमेश चंद (W.C.) बैनर्जी की अध्यक्षता में 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' की स्थापना करवाई जिसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद की रक्षा करना था। दादा भाई नैरोजी तब कहा करते थे -''हम नस-नस में राज-भक्त हैं''। 

स्वामी दयानन्द के निर्देश पर आर्यसमाजी कांग्रेस में शामिल हो गए और उसे स्वाधीनता संघर्ष की ओर मोड दिया। 'कांग्रेस का इतिहास' में डॉ पट्टाभि सीता रमइय्या ने लिखा है कि गांधी जी के सत्याग्रह में जेल जाने वाले कांग्रेसियों में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे। अतः ब्रिटिश सरकार ने 1906 में 'मुस्लिम लीग'फिर 1916 में 'हिंदूमहासभा' का गठन भारत में सांप्रदायिक विभाजन कराने हेतु करवाया। किन्तु आर्यसमाजियों व गांधी जी के प्रभाव से सफलता नहीं मिल सकी। तदुपरान्त कांग्रेसी डॉ हेद्गेवार तथा क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने अपनी ओर मिला कर RSS की स्थापना करवाई जो मुस्लिम लीग के समानान्तर सांप्रदायिक वैमनस्य भड़काने में सफल रहा। 

इन परिस्थितियों में कांग्रेस  में रह कर क्रांतिकारी आंदोलन चलाने वालों को एक क्रांतिकारी पार्टी की स्थापना की आवश्यकता महसूस हुई जिसका प्रतिफल 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी'के रूप में सामने आया। ब्रिटिश दासता के काल में इस दल के कुछ कार्यकर्ता पार्टी के निर्देश पर  कांग्रेस में रह कर स्वाधीनता संघर्ष में सक्रिय भाग लेते थे तो कुछ क्रांतिकारी गतिविधियों में भी संलग्न रहे। उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद से देश को मुक्त कराना था। किन्तु 1951-52 के आम निर्वाचनों से पूर्व इस दल ने संसदीय लोकतन्त्र की व्यवस्था को अपना लिया था। इन चुनावों में 04.4 प्रतिशत मत पा कर इसने लोकसभा में 23 स्थान प्राप्त किए और मुख्य विपक्षी दल बना। दूसरे आम चुनावों में 1957 में केरल में बहुमत प्राप्त करके इसने सरकार बनाई और विश्व की पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार बनाने का गौरव प्राप्त किया। 1957 व 1962 में लोकसभा में साम्यवादी दल के 27 सदस्य थे। 

दल का संगठन :

*लोकतंत्रात्मक केन्द्रीकरण (Democratic Centralism)-ऊपर से नीचे तक इस सिद्धान्त के अनुसार सभी समितियों के चुनाव होते हैं और निर्णय बहुमत से होता है,किन्तु सभी नीचे के स्तरों की समितियां अपने ऊपर की समितियों के निर्देशों व आदेशों का पालन करने को बाध्य हैं। 
*इसका संगठन एक पिरामिड के समान है। सबसे नीचे के धरातल पर दल के छोटे-छोटे केंद्र (Cells)हैं,जो किसी भी क्षेत्र, कारखाने आदि में कार्यकर्ताओं से मिल कर बनते हैं। 
*सबसे ऊपर अखिल भारतीय दलीय कांग्रेस है,जिसके सदस्यों को प्रदेश समितियां चुनती हैं। 
*प्रदेश समितियों के नीचे क्षेत्रीय अथवा ज़िला समितियां होती हैं। ज़िला समितियों के नीचे मध्यवर्ती समितियां भी आवश्यकतानुसार गठित की जाती हैं। 
*दल का प्रमुख 'महासचिव'कहलाता है उसके सहयोग के लिए अन्य सचिव तथा एक कार्यकारिणी समिति भी होती है। 

आलोचना :

डॉ  परमात्मा शरण (पूर्व अध्यक्ष,राजनीतिशास्त्र विभाग एवं प्राचार्य,मेरठ कालेज,मेरठ) ने अपनी पुस्तक में जवाहर लाल नेहरू के एक भाषण के हवाले से इस दल की निम्न वत आलोचना की है---

*साधारण व्यक्तियों के लिए इसके सिद्धांतों को समझना कठिन है तथा दल ने अपनी नीति का निर्धारण देश की परिस्थितियों के अनुकूल नहीं किया है।  

**इसके सिद्धांतों व कार्यकर्ताओं के विचारों में 'धर्म' का कोई महत्व नहीं है,किन्तु अभी तक अधिकांश भारतवासी धर्म को महत्व देते हैं। 
***इसके तरीके भारतीयों को अधिक पसंद नहीं हैं क्योंकि यह हिंसात्मक व विनाशकारी कार्यों में विश्वास रखता है। 
****चीन की आपत्तीजनक कार्यवाहियों के कारण साम्यवादी दल की लोकप्रियता को बड़ा धक्का लगा है। 
*****1964 में वामपंथी,साम्यवादी दल से अलग हो गए हैं, उनका रुख भारत-चीन विवाद के संबंध में राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध कहा जा सकता है। लेकिन जनता इस दल और उस दल में विभेद नहीं कर पाती है। 

 दल का कार्यक्रम :

प्रथम आम चुनावों के अवसर पर दल के घोषणा-पत्र में कहा गया था :
कांग्रेस नेताओं ने हमारी स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं की है,उसने हमारे स्वातंत्र्य संघर्ष को धोखा दिया है और उसने विदेशियों व प्रतिगामी सन्निहित हितों (Vested intrests) को पूर्ववत जनता को लूटने खसोटने का अवसर दिया है। कांग्रेसी स्वयं लूट-खसोट में सम्मिलित हो गए हैं। कांग्रेस सरकार ने राष्ट्र को धोखा दिया है। यह तो जमींदारों,एकाधिकार प्राप्त व्यक्तियों की सरकार है और भ्रष्टाचार व घूसख़ोरी कांग्रेस शासन के मुख्य चिह्न हो गए हैं। सरकार ने लाठियों और गोलियों व दमनकारी क़ानूनों का प्रयोग किया है। सरकार की नीति शांति की नहीं वरन 'आंग्ल -अमरीकी साम्राज्यवादियों' का समर्थन करने वाली रही है। 

*नेहरू सरकार हटा कर देश में लोकतंत्रात्मक शासन स्थापित किया जाएगा। किसानों और मजदूरों के प्रतिनिधियों का शासन स्थापित किया जाएगा। 
*दल ब्रिटिश साम्राज्य से संबंध-विच्छेद करेगा,किसानों को ऋण भार से मुक्त करेगा,सभी भूमि और कृषि साधनों को किसानों को बिना प्रतिकर दिलाएगा। 
*यह राष्ट्रीयकृत पूंजी द्वारा देश के उद्योगों का विकास करेगा,जिसमें वह निजी पूँजीपतियों को उचित लाभ और मजदूरों को जीवन वेतन का आश्वासन देकर उनका सहयोग प्राप्त करेगा। 
*दल देश में एक राष्ट्रीय सेना की रचना करेगा और पुलिस के स्थान पर जनता का नैतिक दल संगठित करेगा। 
*प्रान्तों के पुनर्गठन व रियासतों के निर्मूलन द्वारा राष्ट्रीय राज्यों का निर्माण,
*अल्प-संख्यकों के हितों और अधिकारों का संरक्षण,
*सभी सामाजिक और आर्थिक अयोग्यताओं का अंत,नि:शुल्क और अनिवार्य प्रारम्भिक शिक्षा,  
*सभी देशों से व्यापारिक और आर्थिक सम्बन्धों की स्थापना,
*विश्व की सभी बड़ी शक्तियों में शांति के लिए समझौता कराना आदि  बातें इसके कार्यक्रम में सम्मिलित थी।   

1958 ई में अमृतसर में साम्यवादी दल की असाधारण कांग्रेस हुई थी उसमें प्रमुख रूप से ये प्रस्ताव पास हुये थे:
*विश्व में शांति चाहने वाली शक्तियों-राष्ट्रीय स्वाधीनता व समाजवाद की प्रगति हो रही है;
*देश में लोकतंत्रात्मक आंदोलन की प्रगति हुई है,जैसा कि केरल तथा अनेक औद्योगिक निर्वाचन क्षेत्रों में हुये चुनावों के परिणामों से स्पष्ट है,कई राज्यों में कांग्रेस कमजोर पड़ी है;
*योजना की पूर्ती में बड़े व्यवसाय संयुक्त राज्य अमरीका पर अधिक निर्भर होते जा रहे हैं,जिसे दल उचित नहीं मानता;
*दल साम्यवाद के आदर्शों के प्रचार और शिक्षा प्रसार को अधिक मानता है (Importance of sustained,systematic and all sided ideological struggle by the Communist Party,a struggle conducted on the basis of the principles of Marxism,Leninism and proletarian internationalism)
*इन उद्देश्यों की पूर्ती के लिए साम्यवादी दल के संगठन में सर्वसाधारण जनता अधिक से अधिक भाग ले इस हेतु दल को कार्य करना चाहिए (communist Party as a mass political force,a party which will unite and rally the popular masses by its initiatve in every sphere of national life);
*दल दो वर्ष पूर्व हुई कांग्रेस के कार्यक्रम को फिर से दोहराता है,किन्तु इन महत्वपूर्ण प्रश्नों पर तत्काल राष्ट्रीय अभियानों (National Champaigns) की आवश्यकता पर बल देता है---

(अ)अमरीकी पूंजी का भारत में लगाए जाने का विरोध,
(इ)बड़े बैंकों,खाद्यानों में थोक व्यापार का राष्ट्रीयकरण,राजकीय व्यापार का विस्तार,
(ई )भूमि और किसानों संबंधी नीति में महत्वपूर्ण सुधार,
(उ )लोकतंत्रात्मक अधिकारों व नागरिक स्वतंत्रताओं  की रक्षा और विस्तार ,
(ऊ )भ्रष्टाचार का विरोध,
(ए )जातिवाद,संप्रदायवाद और अस्पृश्यता का विरोध इत्यादि। 

इन उद्देश्यों की पूर्ती के लिए दल को किसान सभाएं कायम करनी चाहिए और संयुक्त मोर्चे (United Front) को सुदृढ़ करना चाहिए। 

1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना से ब्रिटिश सरकार हिल गई थी अतः उसकी चालों के परिणाम स्वरूप 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी' की स्थापना डॉ राम मनोहर लोहिया,आचार्य नरेंद्र देव आदि द्वारा की गई। इस दल का उद्देश्य भाकपा की गतिविधियों को बाधित करना तथा जनता को इससे दूर करना था। इस दल ने धर्म का विरोधी,तानाशाही आदि का समर्थक कह कर जनता को दिग्भ्रमित किया। जयप्रकाश नारायण ने तो एक खुले पत्र द्वारा  'हंगरी' के प्रश्न पर साम्यवादी नेताओं से जवाब भी मांगा था  जिसके उत्तर में तत्कालीन महामंत्री कामरेड अजय घोष ने कहा था कि वे स्वतन्त्रता को अधिक पसंद करते हैं किन्तु उन्होने विश्व समाजवाद के हित में सोवियत संघ की कार्यवाही को उचित बताया। 

  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

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Monday, December 23, 2013

सांप्रदायिक एकता के लिए स्वामी श्रद्धानन्द का बलिदान ---विजय राजबली माथुर







 पुलिस विभाग के उच्चाधिकारी लाला नानकचन्द जी के पुत्र मुंशीराम जी का जन्म फाल्गुन की कृष्ण पक्ष त्रियोदशी, संवत 1913 विक्रमी अर्थात सन 1854 ई को हुआ था। बचपन में अत्यधिक लाड़-प्यार-दुलार एवं अङ्ग्रेज़ी शिक्षा-संस्कृति से बिगड़ कर वह निरंकुश हो गए थे एवं मांस,शराब,जुआ,शतरंज,हुक्का व दुराचार आदि व्यसनों में लिप्त हो गए थे। परंतु 1879 ई में बरेली में स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रवचन सुन कर 'नास्तिक' से 'आस्तिक' बन गए । 

बरेली के कमिश्नर ने 1880 ई में उनको नायाब तहसीलदार के पद पर नियुक्त कर लिया था। एक दिन वह कमिश्नर से मिलने गए हुये थे और चपरासी ने उनको प्रतीक्षा में बैठा रखा था लेकिन उनके ही सामने बाद में आए  अंग्रेज़ सौदागर को तुरंत कमिश्नर से मिलने भेज दिया। मुंशीराम जी ने तत्काल नायब तहसीलदारी से त्याग-पत्र दे दिया। फिर वकालत करने के विचार से पढ़ने 1881 ई में लाहौर पहुंचे और ज़रूरी मुखत्यारी करके मुखत्यारी परीक्षा पास की। जालंधर में उन्होने वकालत शुरू की जो खूब चली। 2 कन्याएँ और 2 पुत्र रत्न उनको प्राप्त हुये। जब छोटा पुत्र मात्र दो साल का ही था तभी उनकी पत्नी का निधन हो गया। दोबारा उन्होने विवाह नहीं किया और समाजसेवा हेतु आर्य प्रतिनिधिसभा के प्रधान बन गए। अंततः मित्रों,हितैषियों के सभी दूरदर्शितापूर्ण परामर्शों को ठुकराते हुये वकालत को तिलांजली देकर आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार में लग गए। 

प्रारम्भ में उन्होने स्वामी दयानन्द की स्मृति में  लाहौर में स्थापित डी.ए.वी.कालेज की संचालन व्यवस्था में सहयोग दिया। मार्च 1902 ई में गंगा किनारे 'काँगड़ी'ग्राम में गुरुकुल प्रारम्भ किया। अपने पुत्रों को भी गुरुकुल में ही शिक्षा दी  तथा अपनी जालंधर की कोठी भी गुरुकुल को सौंप दी। उन्होने जाति-बंधन तोड़ कर अपनी पुत्री का विवाह किया। उनके पिताश्री भी उनके प्रयास से ही आर्यसमाजी बने थे। 

देश की आज़ादी के आंदोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी थी।  अनेक स्थानों पर देश की जनता का नेतृत्व किया। कांग्रेस के अमृतसर अधिवेन्शन में हिन्दी में अपना स्वागत भाषण देकर हिन्दी को राष्ट्र-भाषा बनाए जाने का संदेश दिया था। गुरु का नामक ---सिखों के सत्याग्रह में भी उन्होने नेतृत्व किया था। दिल्ली के चाँदनी चौक में "चलाओ गोली पहले मेरे पर उसके बाद दूसरे लोगों पर चलाना" की सिंह गर्जना करके उन्होने अंग्रेज़ सिपाहियों को भी काँपते कदमों से पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था।23 दिसंबर 1926 को  'जामा मस्जिद' से हिन्दू-मुस्लिम एकता का आह्वान करने एवं संस्कृत श्लोकों का पाठ करने वाले वह पहले आर्य सन्यासी थे। किन्तु इससे ब्रिटिश साम्राज्यवाद को आघात पहुंचता  और उस आघात से बचने के लिए एक पुलिस अधिकारी ने उनको निशाना बना कर गोली चला दी जिससे उनका प्राणान्त हो गया एवं सांप्रदायिक एकता के लिए यह असहनीय झटका साबित हुआ। 

('निष्काम परिवर्तन पत्रिका',दिसंबर 2001 ई वर्ष:12,अंक:12 में प्रकाशित 'यशबाला गुप्ता'जी एवं 'सोमदेव शास्त्री'जी के विचारों पर आधारित संकलन  एवं श्रद्धानंद जी के बलिदान पर विभिन्न विभूतियों की श्रद्धांजालियाँ):

महात्मा गांधी-स्वामी श्रद्धानंद जी एक सुधारक थे। कर्मवीर थे,वाक शूर नहीं। उनका जीवित-जागृत विश्वास था। इसके लिए उन्होने अनेक कष्ट उठाए थे। वे संकट आने पर कभी घबराये नहीं थे। वे एक वीर सैनिक थे। वीर सैनिक रोग-शय्या पर नहीं,किन्तु रनांगण में मरना पसंद करता है।-----


  

आर्यसमाज,बल्केश्वर-कमलानगर,आगरा में विभिन्न अवसरों पर सुने प्रवचनों से स्वामी श्रद्धानंद जी के व्यक्तित्व व कृतित्व की अनेकों बातें अब भी याद हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं---

जब  सेवक जगन्नाथ द्वारा दिये  काँच एवं विष मिश्रित दूध पीने से दीपावली के दिन स्वामी दयानन्द का प्राणोत्सर्ग हो गया तब आर्य जगत में 'नैराश्य' छा गया था और विभिन्न विद्वान किंकर्तव्य-विमूढ़ हो गए थे तब लग रहा था कि क्या आर्यसमाज भी समाप्त हो जाएगा? उस समय महात्मा मुंशी राम ने आगे बढ़ कर आर्यसमाज का नेतृत्व सम्हाल लिया और कुशलतापूर्वक संगठन को न केवल बल प्रदान किया बल्कि विस्तार भी दिया। शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान अतुलनीय है। उन्होने 'कन्या-शिक्षा' का भी प्रबंध किया। 'आर्य कन्या पाठशालाएं' स्थापित करके उन्होने स्त्री-स्वातंत्र्य का झण्डा बुलंद  किया। आर्यसमाज द्वारा देश भर में संचालित शिक्षा-संस्थाओं का आंकड़ा कुल सरकारी शिक्षा-संस्थाओं के बाद दूसरे नंबर पर आता है। 

महाभारत काल के बाद जब वैदिक संस्कृति का पतन प्रारम्भ हुआ तो ब्राह्मणों ने 'पुराणों' की रचना करके 'कुमंत्रों' का प्रसार एवं वर्णाश्रम -व्यवस्था के स्थान पर  जाति-प्रथा की जकड़न करके स्त्रियों  व समाज में निम्न वर्ग के लोगों को गुलाम बना डाला था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी ब्रहमनवाद और पाखंड पर प्रहार किया था। 'कायस्थ' कुल में जन्में मुंशीराम जी अर्थात स्वामी श्रद्धानंद जी ने उसी परंपरा को आगे बढ़ाया और जाति-पांति का खंडन किया। जहां आर्यसमाज के विलुप्त होने का भय आन खड़ा हुआ था वहीं श्रद्धानंद जी ने उसे न केवल बचाए-बनाए रखा वरन और मजबूत बनाया तथा फैलाव किया। परंतु खेद की बात है कि स्वामी श्रद्धानंद जी के बाद आर्यसमाज पर RSS हावी होता चला गया और श्रीराम शर्मा के नेतृत्व में पोंगा-पंथी ब्रहमनवाद ने एक अलग संगठन बना कर आर्यसमाज को अपार क्षति पहुंचाई। स्वामी दयानन्द ने 'आर्यसमाज' की स्थापना 07 अप्रैल,1875 ई में ब्रिटिश साम्राज्य से भारत को आज़ादी दिलाने के हेतु की थी किन्तु RSS को ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने यहीं के नेताओं को खरीद कर ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा हेतु करवाई थी।

स्वामी श्रद्धानंद जी को सच्ची श्रद्धांजली तभी होगी जब आर एस एस के शिकंजे से निकाल कर स्वामी दयानन्द व उनके आदर्शों पर पुनः आर्यसमाज को संगठित किया जा सकेगा।
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Sunday, December 22, 2013

भारत के राजनीतिक दल (भाग-2 )---विजय राजबली माथुर

भारत के राजनीतिक दल (भाग-1)--पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करें:
http://krantiswar.blogspot.in/2013/09/1.html 

मुस्लिम लीग :

 साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार ने भारत का  सांप्रदायिक विभाजन करने के उद्देश्य से बंगाल को हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर पूर्वी और पश्चिमी भागों में  1905 में बाँट दिया था। 1906 में ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन वाईसराय की प्रेरणा से उनसे मुस्लिम मांगों को लेकर मिले जो मुस्लिम लीग के गठन का आधार बना। 1940 में इसने पाकिस्तान की मांग रखी और ब्रिटिश सरकार ने इसकी मांग को 1947 में पूरा कर दिया। 

अब दक्षिण भारत के मालाबार क्षेत्र में ही इसका प्रभाव शेष है और इसके प्रायः सभी नेता कांग्रेस में समा गए थे।

  हिन्दू महासभा :

इस दल की स्थापना मदन मोहन मालवीय,लाला लाजपत राय,विनायक दामोदर सावरकर,श्यामा प्रसाद मुखर्जी  द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद से दिग्भ्रमित होकर मुस्लिम  लीग के प्रतिक्रिया स्वरूप 1916 में की गई थी।मुसलमानों के लिए जो मांगें मुस्लिम लीग की थीं वैसी ही हिंदुओं के लिए इस दल की थीं। इसका दृष्टिकोण वही था जो आगे जा कर जनसंघ का बना। इसका 49वां अधिवेशन अप्रैल 1965 में पटना में हुआ था । पाकिस्तान से जनता की अदला-बदली तथा भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की मांगें इस अधिवेन्शन में की गई थीं। 18 जूलाई 1965 को इसने कच्छ एवार्ड के विरोध में विरोध दिवस का आयोजन किया था। यद्यपि आज भी यह दल है किन्तु भाजपा की छत्र-छाया में चल रहा है। 


 अखिल भारतीय जनसंघ :

नेहरू मंत्रीमंडल में उद्योग -बाणिज्य मंत्री रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में 21 अक्तूबर 1951 ई में इस दल की स्थापना इसलिए की गई क्योंकि RSS ने खुद को सांस्कृतिक संगठन घोषित कर दिया था और राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ती हेतु एक राजनीतिक दल की आवश्यकता थी। प्रथम आम चुनावों में सफलता के बाद इस दल का संगठन बढ़ गया। 

जनसंघ का ध्येय हिन्दू  धर्म राज्य की स्थापना था । 1965 के विजयवाड़ा अधिवेन्शन में 8000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। प्रतिक्रियावादी और सांप्रदायिक तत्वों को बढ़ावा देना इसकी कार्य प्रणाली की विशेषताएँ थीं। 1967 में उत्तर-प्रदेश की संविद सरकार में इसके प्रतिनिधि के रूप में पांडे जी,कल्याण सिंह आदि मंत्री बने थे। 1974 में नानाजी देशमुख के नेतृत्व में यह दल जे पी के पीछे लग गया और 1977 में जनता पार्टी में विलीन हो गया था। तब केंद्र सरकार में अटल बिहारी बाजपेयी,एल के आडवाणी,मुरली मनोहर जोशी आदि मंत्री बने थे।

भाजपा :

 1980 में इन  पूर्व जनसंघी लोगों ने जनता पार्टी से निकल कर भारतीय जनता पार्टी का गठन कर लिया था। 1991 में कई प्रदेशों में इसकी सरकारें बनी थीं आज भी कई प्रदेशों में यह सत्तारूढ़ है। 1998 से 2004 तक बाजपेयी के नेतृत्व में यह केंद्र में भी सत्तारूढ़ रहा। इस दौरान केंद्रीय सुरक्षा बलों,सेना तथा खुफिया संगठनों में भी RSS कार्यकर्ताओं की घुसपैठ कराने में यह दल सफल रहा है। 

रामराज्य परिषद :

प्रथम आम चुनावों के अवसर पर श्री करपात्री जी द्वारा इसकी स्थापना की गई थी और एक-दो राज्यों की विधानसभाओं में 4-5 स्थान इसने प्राप्त किए थे अन्य स्थानों पर इसने जनसंघ व हिंदूमहासभा उम्मीदवारों का समर्थन किया था। अब यह संगठन मृतप्राय है। 

दलित वर्ग सङ्घ:

हिन्दू धर्म के अछूत कहे जाने वाले भाइयों को संगठित करके डॉ भीमराव अंबेडकर ने इसकी स्थापना की थी। बाद में यह रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया बना और अब नगण्य है। 

शिरोमणि अकाली दल :

मुस्लिम लीग की तर्ज पर सिखों के लिए अकाली सत्याग्रह के माध्यम से इस दल का आविर्भाव हुआ था। प्रथम आम चुनावों में इसके उम्मीदवार कांग्रेस से बुरी तरह हार गए। बाद में जनसंघ से मिल कर इसने पंजाब में सरकार भी बनाई और आज भी भाजपा के साथ पंजाब में इसकी गठबंधन सरकार है। 

द्रविण मुनेत्र कडगम:

यह ब्राह्मण-विरोधी जातियों को मिला कर बनाया गया दल है जो मूलतः स्वतंत्र तमिल राज्य स्थापित करना चाहता था। 1967 में सी एन अन्नादुराई के नेतृत्व में इसने सरकार बनाई थी। उनके निधन के बाद एम करुणानिधि के विरुद्ध एम जी रामचंद्रन ने अन्ना द्रविण मुनेत्र कडगम की स्थापना की। आजकल जयललिता के नेतृत्व में इसी गुट की सरकार चल रही है। अदल-बदल कर दोनों गुटों की सरकारें बनती रहती हैं। 

बसपा : 

डी एस -4 के रूप में पहले कांशीराम ने दलित वर्ग संघ की तर्ज पर एक संगठन बनाया फिर उसे एक राजनीतिक दल के रूप में परिवर्तित कर दिया। 1992 के चुनावों में सपा के साथ यह दल सरकार में शामिल हुआ फिर भाजपा से मिल कर कई बार सरकारें बनाईं। 2007 में मायावती के नेतृत्व में इसकी प्रथम स्वतंत्र सरकार बनी। इस समय उत्तर प्रदेश में प्रमुख विपक्षी दल है। 

बांगला कांग्रेस,संमाँजवादी कांग्रेस,आदि कितने ही छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल बने और समाप्त हो गए। जनता दल-यू,राष्ट्रीय जनता दल,बीजू जनता दल,नेशनल कान्फरेंस,एकता दल,अपना दल,जस्टिस पार्टी आदि अनेकों छोटे-छोटे दल आज भी अस्तित्व में हैं और चुनावों में भाग लेते हैं।
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Tuesday, December 17, 2013

शाने तारीख :एक प्रशासक द्वारा एक ऐतिहासिक प्रशासक की कर्म - गाथा ---विजय राजबली माथुर



 17 दिसंबर 2013 (59 वें जन्मदिवस पर )

(डॉ सुधाकर अदीब साहब सपरिवार  -1993 में फैजाबाद में सिटी मेजिस्ट्रेट रहने के दौरान)

श्रद्धा के हैं   सुमन     भावना का   चन्दन।
हम सब बंधु करते हैं आपका अभिनंदन। ।

'शाने तारीख' डॉ सुधाकर अदीब साहब का नवीनतम उपन्यास है जिसे उन्होने शहनशाह  'शेर शाह सूरी'की गौरव गाथा के रूप में प्रस्तुत किया है। अपने अल्पज्ञान से जितना मैं समझ सका इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि अपने प्रशासनिक अनुभवों एवं जनता के दुख-दर्दों को देख सुन कर लेखक ने अपने मनोभावों को शेर शाह सूरी की इस मर्म स्पर्शी गौरव गाथा के माध्यम से प्रस्तुत किया है। जैसे-प्रस्तावना में(पृष्ठ -12)पर वह कहते हैं:"प्रजा की भलाई और विकास के कार्य ही राज्य की स्थिरता की वास्तविक कुंजी हैं"।
पृष्ठ 52 और 56 पर 'लौट आओ फ़रज़ंद' शीर्षक अध्याय  के अंतर्गत फरीद उर्फ शेरशाह के गुरु मौलाना वहीद के मुख से उसे शिक्षा देते हुये कहलाते हैं-"हो सके तो उन गरीब किसानों के बारे में कुछ करना। लगान वसूलते समय गाँव के सबसे गरीब इंसान का चेहरा जब तुम अपनी निगाहो के सामने रखोगे तभी तुम अपनी जागीर की बेहबूदी के साथ-साथ रिआया के साथ भी सच्चा इंसाफ कर सकोगे। "
इसी अध्याय में आगे पृष्ठ 62 पर ठोस विचार प्रस्तुत किया गया है-"किसान ही आर्थिक विकास की जड़ हैं । जब तक किसान के जीवन-स्तर में  सुधार नहीं होगा,खेती और पैदावार में सुधार न हो पाएगा। "

ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक ने अपने लंबे प्रशासनिक  अनुभवों में खेती और किसान की वर्तमान दुर्दशा को ध्यान में रखते हुये शेरशाह सूरी को नायक बना कर उसके समाधान का मार्ग प्रस्तुत किया है। खुद डॉ साहब ने पिछली 23 अक्तूबर को जब उन्होने अपने दो उपन्यासों-'मम  अरण्य' एवं 'शाने तारीख' की प्रतियाँ मुझे भेंट की थीं नितांत  व्यक्तिगत वार्ता में कहा था कि उन्होने अपने कार्य और जीवन में प्रत्येक व्यक्ति से चाहे वह कारीगर हो,मजदूर हो या कलाकार कुछ न कुछ सीखा और हासिल किया है। यह  कथन डॉ अदीब साहब की  विशाल हृदयता का परिचायक है।
 इसका उल्लेख पृष्ठ-44-45 पर इन शब्दों में भी मिलता है-"केवल किताबी ज्ञान ही सब कुछ नहीं है। आम लोगों की जुबान से सदियों से चले आ रहे खलां में गूँजते तराने भी बहुत कुछ सच्चाइयाँ बयान करते हैं। " और इसी व्यावहारिक ज्ञान द्वारा  इस ऐतिहासिक उपन्यास में डॉ अदीब जीवंतता लाने में कामयाब रहे हैं।

एक घर सिर्फ ईंट-गारे,सीमेंट और लोहे से बना हुआ मकान नहीं होता है । इस संबंध में उपन्यासकार ने पृष्ठ-30 पर 'एक घायल मन फरीद'अध्याय में स्पष्ट कहा है-"जिस घर में सिर्फ खाना-कपड़ा-रहना ही अपना हो मगर जहां प्यार -दुलार-मान-सम्मान -अपनापन और खून के रिश्तों की गर्माहट न हो वह घर अपना कहाँ?" इस कथन के माध्यम से वर्तमान काल में परिवारों में आई स्वार्थपरकता एवं दरारों को भी रेखांकित किया गया है साथ ही साथ उसका समाधान भी इसी में अंतर्निहित है। आज की आपाधापी तथा छल-छ्द्यं के युग में जब मानवीय संवेगों का कोई महत्व नहीं रह गया है तो उससे पार पाने  हेतु लेखक ने पृष्ठ-49 पर 'लौट आओ फरजंद' अध्याय में यह हकीकत बयानी की है-"यह दुनिया एक सराय है और ज़िंदा रहने की मुद्दत का दूसरा नाम है आजमाइश। इस आजमाइश के दौरान इंसान को अपनी राह खुद चुननी पड़ती है और कामयाबी की कोई -न -कोई मंजिल भी खुद ही तय करनी पड़ती है।"

पृष्ठ-122 पर 'चंद कदम बाबर के संग' अध्याय में लिखा है "सोने का चम्मच मुंह में लेकर पैदा होने वाले शहजादों को आमजन के दुखों और संघर्षों से मिलने वाले दर्दों का एहसास नहीं होता है । वह ऊपर से भले ही स्वम्य को जनसाधारण का कितना ही हितैषी क्यों न दर्शाएँ भीतर से वह सुविधाभोगी और स्वार्थी ही होते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति जमाने की ठोकरें खा कर और राहों की धूल फांक कर एक दिन किसी लायक बनता है उसके मन में आम इंसान के दुख दर्द और तकलीफ़ों का एहसास भीतर-ही-भीतर स्वतः बना रहता है। इसी लिए ऐसा व्यक्ति बहुत जल्द ही निश्चिंत नहीं हो जाता और अपने अतीत को कभी नहीं भूलता है। "
यद्यपि ये बातें लेखक ने शेरशाह सूरी के संदर्भ में कहीं  हैं किन्तु इनका इशारा वर्तमान राजनीतिक वातावरण की ओर भी अवश्य ही प्रतीत होता है। आज जो हम कुछ उच्च स्तरीय नेताओं द्वारा जनता के साथ  स्वांग करते देखते हैं शायद उसी को ऐतिहासिक संदर्भ से उभारा गया है।

पृष्ठ-296 पर 'बर्फ और अंगारे' अध्याय में लेखक कहते हैं "शेरशाह सूरी महज एक बादशाह नहीं 'शान-ए-तारीख'था। वह अपने समय का एक ऐसा व्यक्ति था जो किसी राज-वंश में नहीं जन्मा था। एकदम धूल से उठा एक ऐसा व्यक्ति था जो संघर्ष की आंधियों में तप कर मध्यकालीन भारत के राजनैतिक आकाश पर एक तूफान की तरह छा गया। एक ऐसा अभूतपूर्व तूफान जो सिर्फ पाँच बरस चला ,मगर जो अपना असर सदियों तक के लिए इस धरती पर छोड़ गया। "
यह कथन भी वर्तमान राजनीति की इस विडम्बना जिसमें यह माना जाता है कि आज कोई भी ईमानदार व्यक्ति राजनीति में सफल नहीं हो सकता को झकझोरने वाला है तथा कर्मठ एवं ईमानदार लोगों को राजनीति में आगे आने की प्रेरणा देने वाला है।
पृष्ठ-233 पर अध्याय'शाहे हिन्द शेरशाह' में लेखक ने इस तथ्य की ओर ध्यान खींचा है कि शेरशाह के सिंहासनारूढ़ होने के समय  गोचर में बली चंद्रमा की स्थिति में मध्यान्ह 'अभिजीत'मुहूर्त था। यहाँ ज्योतिष के विरोधी आशंका व्यक्त कर सकते हैं कि फिर तब शेरशाह को निरंतर संघर्षों एवं कष्टों का सामना क्यों करना पड़ा और युद्धों में अपने एक पुत्र व एक पौत्री से हाथ क्यों धोना पड़ा और खुद भी युद्ध में घायल होकर ही मृत्यु को क्यों प्राप्त होना पड़ा?इस विषय में मैं उन ज्योतिष विरोधियों से यह कहना चाहूँगा कि सिर्फ गोचर ही नहीं व्यक्ति के जन्मकालीन ग्रहों एवं महादशा-अंतर्दशा का भी जीवन में प्रभाव पड़ता है और जो कुछ शेरशाह सूरी के साथ घटित हुआ उस पर इनका व्यापक प्रभाव पड़ा होगा।
लेकिन पृष्ठ 96 पर 'और बना वह शेर'अध्याय के अंतर्गत लेखक ने गोपी चंद के मुख से जो यह कहलाया है-"काशी की मान्यता यह है कि यहाँ आकर प्राण छोडने से मनुष्य आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहते हैं। "

ऐतिहासिक संदर्भों में हो सकता है लेखक को यह वर्णन मिला हो या उनकी खुद की यह सोच हो किन्तु यह धारणा पोंगा-पंडितवाद द्वारा लूट एवं शोषण के संरक्षण हेतु फैलाई गई है। जन्म-जन्मांतर के संचित सदकर्मों  एवं अवशिष्ट दुष्कर्मों तथा अकर्मों के न रहने की दशा में 'आत्मा' को कुछ समय के लिए नस व नाड़ी के बंधन से मुक्ति मिल जाती है उसी को 'मोक्ष' की अवस्था कहते हैं परंतु यह स्थाई व्यवस्था नहीं है और कुछ अंतराल के बाद उस आत्मा को पुनः शरीर प्राप्त हो जाता है।

इसी अध्याय में पृष्ठ-98 पर लेखक ने शेरशाह से कहलवाया है-"हुकूमतें आखिर मुसाफिरों की आसाइशों की ओर तवज्जो क्यों नहीं देतीं?क्या सारा फर्ज आम आदमी का ही हुकूमत के वास्ते होता है ?हुकूमत का आम आदमी के लिए क्या कोई फर्ज नहीं?"

वहीं पृष्ठ-177 अध्याय :'दौलत और हुस्न'में वर्णन मिलता है-"वह अपनी क्षेत्रीय जनता का विश्वास और समर्थन अर्जित करने का हर संभव प्रयत्न कर रहा था। इसके लिए जन  कल्याणकारी कार्यों और यातायात के साधनों व सूचना तंत्र को विकसित करने पर वह बहुत ध्यान देता था। कोई कर्मचारी सैनिक या सरदार जनसाधारण से धर्म जाति या व्यवसाय के नाम पर कोई जुल्म,ज्यादती न करने पाये । कर वसूली के नाम पर  भी किसी के साथ रगा या अन्याय न हो। चोरी,लूट-पाट,डकैती का निवारण करना स्थानीय हाकिमों का सीधा उत्तरदायित्व था। वह हिन्दू-मुस्लिम जनता में विभेद करने के बिलकुल खिलाफ था। किसानों का वह सबसे बड़ा हितैषी था। अपनी इस प्रकार की सजग,न्यायपूर्ण और धर्म निरपेक्ष नीति के कारण उसने बहुत जल्द जनसाधारण में अपने प्रति सच्ची आस्था अर्जित कर ली थी। यह शेर खाँ की सबसे बड़ी शक्ति थी। "
इन संदर्भों के द्वारा लेखक ने शासित के प्रति शासक के कर्तव्यों का उल्लेख करके एक आदर्श शासन-व्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों को निरूपित किया है। इन नीतियों पर चल कर वर्तमान समस्याओं का समाधान भी सुचारू रूप से किया जा सकता है जिस ओर आजकल शासकों का ध्यान आमतौर पर नहीं है।

शेरशाह सूरी के व्यक्तित्व और शासन व्यवस्था की अच्छाइयों का वर्णन करने के साथ-साथ लेखक ने निष्पक्षतापूर्वक उसकी एक भारी भूल या गलती को भी इंगित किया है जिसका उल्लेख पृष्ठ-284 पर अध्याय'वे धधकते साल'में है-"शेरशाह के गौरवमय जीवन में एक यही ऐसा एकमात्र काला अध्याय है जब वह धर्मांध दरिंदों के प्रतिशोधपूर्ण क्रूर कृत्यों के समक्ष गूंगा,बहरा और तटस्थ बना रहा । ऐसा करके नाहक ही उस महान व्यक्ति ने अपने उज्ज्वल मस्तक पर एक कलंक का टीका लगवा लिया। "

यह वर्णन भी वर्तमान समय की ज्वलंत 'सांप्रदायिक समस्या' का निदान करने मे काफी सहायक सिद्ध हो सकता है। जिस प्रकार गोस्वामी तुलसी दास ने उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों के मद्दे नज़र अपने 'रामचरितमानस' द्वारा जनता से विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने और राम सरीखी शासन व्यवस्था लाने का आव्हान किया था;उसी प्रकार 'शाने तारीख' के माध्यम से डॉ सुधाकर अदीब साहब ने शेरशाह सूरी की आदर्श और जनोन्मुखी शासन व्यवस्था को आज के संदर्भ में व्यवहार में अपनाए जाने की राजनेताओं से अपेक्षा व जनता से तदनुरूप कदम उठाने का आह्वान किया है। जनता इससे कितना लाभ उठा सकती है या राजनीतिज्ञों का इससे कितना परिष्कार होता है यह इस बात पर निर्भर करेगा कि इस उपन्यास का जनता में किस प्रकार प्रचार होता है। वैसे यह उपन्यास एक फिल्म की भी पृष्ठ भूमि तैयार करता है।

धन्यवाद दें किन शब्दों में प्रकट करें आभार। 
लेखनी आपकी चलती रहे यूं ही सदाबहार। ।

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Saturday, December 7, 2013

विज्ञान के नाम पर अवैज्ञानिकता का प्रचार :यही है प्रगतिशीलता?---विजय राजबली माथुर



प्रिंस डी लेमार्क और डार्विन सरीखे जीव विज्ञानियों के 'विकास' एवं  'व्यवहार और अव्यवहार' सिद्धान्त के विपरीत यूजीन मैकार्थी द्वारा सूअर और चिम्पाजी को मानव का पूर्वज घोषित किया जाना 'विज्ञान' को हास्यास्पद ही बना रहा है। 'विज्ञान' सिर्फ वह ही नहीं है जिसे किसी प्रयोगशाला में बीकर और रसायनों के विश्लेषणात्मक अध्यन से समझा जा सकता है। मेरठ कालेज,मेरठ में 1970 में 'एवरी डे केमिस्ट्री' की कक्षा में प्रो.तारा चंद माथुर साहब  के प्रश्न के उत्तर में मैंने उनको विज्ञान की सर्वसम्मत परिभाषा सुना दी थी-"विज्ञान किसी भी विषय के नियमबद्ध एवं क्रमबद्ध अध्यन को कहा जाता है" और उन्होने इस जवाब को सही बताया था।

वैज्ञानिकों के मध्य ही यह विवाद चलता रहा है कि 'पहले मुर्गी या पहले अंडा?' इस संबंध में मैं आप सब का ध्यान इस बात की ओर खींचना चाहता हूँ कि, पृथ्वी की सतह ठंडी होने पर पहले वनस्पतियाँ और फिर जीवों की उत्पत्ति के क्रम में सम्पूर्ण विश्व में एक साथ युवा नर एवं मादा जीवों की उत्पति स्वम्य  परमात्मा ने प्रकृति से 'सृष्टि' रूप में की और बाद में प्रत्येक की वंश -वृद्धि होती रही। डार्विन द्वारा प्रतिपादित 'survival of the fittest'सिद्धान्त के अनुसार जो प्रजातियाँ न ठहर सकीं वे विलुप्त हो गईं;जैसे डायनासोर आदि। अर्थात  उदाहरणार्थ पहले परमात्मा द्वारा युवा मुर्गा व युवा मुर्गी की सृष्टि की गई फिर आगे अंडों द्वारा उनकी वंश-वृद्धि होती रही। इसी प्रकार हर पक्षी और फिर पशुओं में क्रम चलता रहा। डार्विन की रिसर्च पूरी तरह से 'सृष्टि' नियम को सही ठहराती है।   

मानव की उत्पति के विषय में सही जानकारी 'समाज विज्ञान' द्वारा ही मिलती है। समाज विज्ञान के अनुसार जिस प्रकार 'धुएँ'को देख कर यह अनुमान लगाया जाता है कि 'आग' लगी है और 'गर्भिणी'को देख कर अनुमान लगाया जाता है कि 'संभोग'हुआ है उसी प्रकार समाज विज्ञान की इन कड़ियों के सहारे 'आर्य' वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि अब से लगभग दस लाख वर्ष पूर्व मानव की उत्पति -'युवा पुरुष' और 'युवा स्त्री' के रूप में एक साथ विश्व के तीन विभिन्न क्षेत्रों -अफ्रीका,मध्य यूरोप और त्रिवृष्टि=तिब्बत में हुई थी और आज के मानव उनकी ही सन्तानें हैं।  प्रकृति के प्रारम्भिक रहस्य की सत्यता की  पुष्टि अब तक के वैज्ञानिक दृष्टिकोणों से ही होती है।

आज से नौ लाख वर्ष पूर्व 'विश्वमित्र 'जी ने अपनी प्रयोगशाला में 'गोरैया'-चिड़िया-चिरौंटा,नारियल वृक्ष और 'सीता' जी की उत्पति टेस्ट ट्यूब द्वारा की थी। 'त्रिशंकू'सेटेलाईट उनके द्वारा ही अन्तरिक्ष में प्रस्थापित किया गया था जो आज भी सुरक्षित परिभ्रमण कर रहा है।  

वस्तुतः आज का विज्ञान अभी तक उस स्तर तक पहुंचा ही नहीं है जहां तक कि अब से नौ लाख वर्ष पूर्व पहुँच चुका था। उस समय के महान वैज्ञानिक और उत्तरी ध्रुव-क्षेत्र(वर्तमान-साईबेरिया)के शासक 'कुंभकर्ण'ने तभी यह सिद्ध कर दिया था कि 'मंगल'ग्रह 'राख़' और 'चट्टानों'का ढेर है लेकिन आज के वैज्ञानिक मंगल ग्रह पर 'जल' होने की निर्मूल संभावनाएं व्यक्त कर रहे हैं और वहाँ मानव बस्तियाँ बसाने की निरर्थक कोशिशों में लगे हुये हैं। इस होड़ा-हाड़ी में अब हमारा देश भी 'मंगलयान' के माध्यम से शामिल हो चुका है। सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के उत्थान-पतन के साथ-साथ वह विज्ञान और उसकी खोजें नष्ट हो चुकी हैं मात्र उनके संदर्भ स्मृति(संस्मरण) और किस्से-कहानियों के रूप में संरक्षित रह गए हैं। आज की वैज्ञानिक खोजों के मुताबिक 'ब्रह्मांड' का केवल 4 (चार)प्रतिशत ही ज्ञात है बाकी 96 प्रतिशत अभी तक अज्ञात है-DARK MATTER-अतः केवल 4 प्रतिशत ज्ञान के आधार पर मानव जाति को सूअर और चिम्पाजी  का वर्ण -संकर बताना विज्ञान की खिल्ली उड़ाना ही है प्रगतिशीलता नहीं।विज्ञान का तर्क-संगत एवं व्यावहारिक पक्ष यही है कि युवा नर और युवा नारी के रूप में ही परमात्मा-ऊर्जा-ENERGY द्वारा मनुष्यों की भी उत्पति हुई है और आज का मानव उन आदि मानवों की ही संतान है न कि सूअर और चिम्पाजी का वर्ण-संकर अथवा 'मतस्य'से विकसित प्राणी।


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Monday, November 4, 2013

दीपावली क्या थी ?क्या हो गई?:आइये फिर से अतीत में लौट चलें ---विजय राजबली माथुर


http://krantiswar.blogspot.in/2011/10/blog-post_26.html

26 अक्तूबर 2011 को मैंने इस लिंक पर दिये गए लेख में यह भी बताया था:

"सुप्रसिद्ध आर्य सन्यासी (अब दिवंगत) स्वामी स्वरूपानन्द  जी के प्रवचन कमलानगर,आगरा मे सुनने का अवसर मिला है। उन्होने बड़ी बुलंदगी के साथ बताया था कि जिन लोगों की आत्मा हिंसक प्रकृति की होती है वे ही पटाखे छोड़ कर धमाका करते हैं। उनके प्रवचनों से कौन कितना प्रभावित होता था या बिलकुल नहीं होता था मेरे रिसर्च का विषय नहीं है। मै सिर्फ इतना ही बताना चाहता हूँ कि यशवन्त उस समय 13 या 14 वर्ष का रहा होगा और उसी दीपावली से उसने पटाखे छोडना बंद कर दिया है क्योंकि उसने अपने कानों से स्वामी जी के प्रवचन को सुना और ग्रहण किया। वैसे भी हम लोग केवल अपने पिताजी द्वारा प्रारम्भ परंपरा निबाहने के नाते प्रतीक रूप मे ही छोटे लहसुन आदि उसे ला देते थे। पिताजी ने अपने पौत्र को शुगन के नाम पर पटाखे देना इस लिए शुरू किया था कि औरों को देख कर उसके भीतर हींन भावना न पनपे। प्रचलित परंपरा के कारण ही हम लोगों को भी बचपन मे प्रतीकात्मक ही पटाखे देते थे। अब जब यशवन्त ने स्वतः ही इस कुप्रथा का परित्याग कर दिया तो हमने अपने को धन्य समझा।
स्वामी स्वरूपानन्द जी  आयुर्वेद मे MD  थे ,प्रेक्टिस करके खूब धन कमा सकते  थे लेकिन जन-कल्याण हेतु सन्यास ले लिया था और पोंगा-पंथ के दोहरे आचरण से घबराकर आर्यसमाजी बन गए थे। उन्होने 20 वर्ष तक पोंगा-पंथ के महंत की भूमिका मे खुद को अनुपयुक्त पा कर आर्यसमाज की शरण ली थी और जब हम उन्हें सुन रहे थे उस वक्त वह 30 वर्ष से आर्यसमाजी प्रचारक थे। स्वामी स्वरूपानन्द जी स्पष्ट कहते थे जिन लोगों की आत्मा 'तामसिक' और हिंसक प्रवृति की होती है उन्हें दूसरों को पीड़ा पहुंचाने मे आनंद आता है और ऐसा वे धमाका करके उजागर करते हैं। यही बात होली पर 'टेसू' के फूलों के स्थान पर सिंथेटिक रंगों,नाली की कीचड़,गोबर,बिजली के लट्ठों का पेंट,कोलतार आदि का प्रयोग करने वालों के लिए भी वह बताते थे। उनका स्पष्ट कहना था जब प्रवृतियाँ 'सात्विक' थीं और लोग शुद्ध विचारों के थे तब यह गंदगी और खुराफात (पटाखे /बदरंग)समाज मे दूर-दूर तक नहीं थे। गिरते चरित्र और विदेशियों के प्रभाव से पटाखे दीपावली पर और बदरंग होली पर स्तेमाल होने लगे।
दीपावली/होली क्या हैं?:
हमारा देश भारत एक कृषि-प्रधान देश है और प्रमुख दो फसलों के तैयार होने पर ये दो प्रमुख पर्व मनाए जाते हैं। खरीफ की फसल आने पर धान से बने पदार्थों का प्रयोग दीपावली -हवन मे करते थे और रबी की फसल आने पर गेंहूँ,जौ,चने की बालियों (जिन्हें संस्कृत मे 'होला'कहते हैं)को हवन की अग्नि मे अर्द्ध - पका कर खाने का प्राविधान  था।  होली पर अर्द्ध-पका 'होला' खाने से आगे आने वाले 'लू'के मौसम से स्वास्थ्य रक्षा होती थी एवं दीपावली पर 'खील और बताशे तथा खांड के खिलौने'खाने से आगे शीत  मे 'कफ'-सर्दी के रोगों से बचाव होता था। इन पर्वों को मनाने का उद्देश्य मानव-कल्याण था। नई फसलों से हवन मे आहुतियाँ भी इसी उद्देश्य से दी जाती थीं।
लेकिन आज वेद-सम्मत प्रविधानों को तिलांजली देकर पौराणिकों ने ढोंग-पाखंड को इस कदर बढ़ा दिया है जिस कारण मनुष्य-मनुष्य के खून का प्यासा बना हुआ है। आज यदि कोई चीज सबसे सस्ती है तो वह है -मनुष्य की जिंदगी। छोटी-छोटी बातों पर व्यक्ति को जान से मार देना इन पौराणिकों की शिक्षा का ही दुष्परिणाम है। गाली देना,अभद्रता करना ,नीचा दिखाना और खुद को खुदा समझना इन पोंगा-पंथियों की शिक्षा के मूल तत्व हैं। इसी कारण हमारे तीज-त्योहार विकृत हो गए हैं उनमे आडंबर-दिखावा-स्टंट भर  गया है जो बाजारवाद की सफलता के लिए आवश्यक है। पर्वों की वैज्ञानिकता को जान-बूझ कर उनसे हटा लिया गया है ।"

शशिशेखर जी ने उपरोक्त संपादकीय में परमावश्यक तथ्यों का उल्लेख करते हुये सामाजिक पर्वों में आज के संदर्भ में बदलाव किए जाने की आवश्यकता बतलाई है। जबकि वस्तुतः इन पर्वों को अपने मौलिक स्वरूप में वापिस लौटाने भर की ज़रूरत है। हमारे सभी पर्व 'देश-काल-जातिभेद' से परे समस्त पृथ्वीवासियों के हितार्थ थे उनको उसी रूप में मनाया जाये और व्यापार-जगत के लाभ में न चलाया जाये। बस जनता को यही समझाये जाने की आवश्यकता है जिसका व्यापारियों के एजेन्टों/पोंगापंथी ब्राह्मणों द्वारा प्रबल विरोध किया जाएगा जिस पर जन-समर्थन से विजय प्राप्त की जा सकती है। इस ब्लाग के माध्यम से इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास चल रहा है। 
अब जब शशिशेखर जी जैसे प्रबुद्ध संपादक गण भी लोक-प्रचलित पोंगा-पंथ का विरोध करने को आगे आ गए हैं तो हम उनका हार्दिक स्वागत करते हैं। 


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Sunday, September 15, 2013

भारत के राजनीतिक दल (भाग-1)---विजय राजबली माथुर

राजनीतिक दलों में चाहे जो दोष हों और चाहें अनेक विचारक उनसे घृणा करते हों,उनका लोकतन्त्र में होना अत्यावश्यक है। वे ही राजनीति को गतिशील बनाते हैं और वे ही निर्णयों पर पहुँचने की प्रक्रिया  के साधन हैं। सार्वजनिक मामलों के वे मुख्य प्रतिनिधि होते हैं। वे वास्तव में संसदात्मक शासन के भारी भवन के स्तम्भ हैं। एम दुवरगर ने अपनी पुस्तक 'पोलिटिकल पार्टीज़' में लिखा है-"संसदात्मक  ढंग के  लोकतन्त्र में तो उनकी आवश्यकता कहीं अधिक है। "

वस्तुतः राजनीतिक दल ही लोकतन्त्र का जीवन-रक्त होते हैं। उनके बिना लोकतन्त्र 'सर्वाधिकारवाद (Totalitarianism)'की ओर बढ़ता है।

विरोधी दल का महत्व:
फरवरी 1956 में नई दिल्ली में 'संसदात्मक लोकतन्त्र' पर एक सेमिनार आयोजित किया गया था जिसमें बोलते हुये भारत स्थित ब्रिटेन के हाई कमिश्नर मेलकाम मैकडोनाल्ड  ने कहा था-"इस प्रकार के लोकतन्त्र का निचोड़ इस बात में है कि कार्यपालिका की विधान मण्डल के भीतर और बाहर वर्ष के प्रतिदिन आलोचना की जा सके । ऐसा न होने पर सरकार लोकतंत्रात्मक न रहेगी ,वह शीघ्र ही मनचाही करने लगेगी और आगे चल कर अत्याचारी शासन का रूप ले लेगी। यह जो बात अपने हित में समझेगी वैसा ही दूसरों के हितों अथवा राष्ट्र हित का ध्यान न करते हुये करने लगेगी।' जनता का शासन जनता के लिए और जनता द्वारा 'महान सिद्धान्त का स्थान 'जनता का शासन 'कुछ थोड़े से व्यक्तियों द्वारा कुछ व्यक्तियों के लिए' का सिद्धान्त ले लेगा "

लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने अपने एक वक्तव्य में कभी इंगित किया था- "संसदीय पद्धति के भी अपने नियम हैं। उनमें सबसे अधिक आधारभूत नियम यह है कि यह पद्धति प्रभावशाली विरोध के बिना नहीं चल सकती। ....... अच्छे से अच्छे इरादे वाले व्यक्ति भी यदि उन पर सदैव ही विरोध का तेज प्रकाश न पड़ता रहे ,शक्ति पाने पर गलत मार्ग पर चले जाएँगे। यह भी प्रश्न नहीं है कि विरोधी दल सत्तारूढ़ दल से अच्छे हैं या बुरे। यह यथार्थ में बुरे हो सकते हैं। परंतु यही बात कि वह निरंतर 'सतर्कता' का प्रयोग करते हैं ,सत्तारूढ़ दल को ठीक मार्ग पर रखती है। "

आज़ादी से पहले कांग्रेस के झंडे के नीचे विदेशी शासन का अंत करने के लिए एक राष्ट्रीय आंदोलन चला था। लेकिन 1920 के बाद 'उदारवादी दल (Liberal  Party) ने एक संसादात्मक दल के रूप में कार्य किया और 1935 के भारत शासन अधिनियम के अंतर्गत प्रांतीय विधान मंडलों में कांग्रेस ने भी ऐसा ही किया था। शुरू में दो प्रकार के राजनीतिक दल थे:
1 )-वे जिंनका आधार राजनीतिक तथा आर्थिक कार्यक्रम हैं और,
2 )-वे जो सांप्रदायिक भावना व मनोवृत्ति से प्रेरित होकर राजनीति में घुस आए हैं।

सन 1953 में जवाहर लाल नेहरू ने कहा था (जिसका उल्लेख डी एन पामर ने अपनी पुस्तक 'इंडियन पोलिटिकल सिस्टम'के पृष्ठ-186 पर किया है)-"भारत में वर्तमान दलों को चार समूहों में रखा जा सकता है। कुछ दल ऐसे हैं जिनकी विचार धारा आर्थिक है (यथा-कांग्रेस,समाजवादी दल,साम्यवादी दल और उससे संबन्धित संगठन हैं)। कई सांप्रदायिक दल हैं जिनके नाम भिन्न-भिन्न हैं ,किन्तु वे सभी संकुचित सांप्रदायिक विचार धाराओं पर चल रहे हैं। और कई प्रांतीय अथवा प्रादेशिक दल हैं ,जिनके कार्यों का क्षेत्र उनके अपने प्रदेश हैं। "

1964 में अजित प्रसाद जैन की अध्यक्षता वाली कांग्रेस की एक संसदीय समिति ने सुझाव दिया था कि, सांप्रदायिक दलों के बनने पर रोक लगा देनी चाहिए।

12 फरवरी 1957 को 'इंडियन एक्स्प्रेस'में प्रकाशित एक समाचार में कहा गया था कि कुछ उच्च कांग्रेसी नेताओं ने विरोधी दलों पर यह आरोप लगाया कि वे विदेशों से आर्थिक सहायता पा रहे हैं। दूसरी ओर विरोधी दलों के नेताओं का यह आरोप था कि कांग्रेस को पूंजीवादी खूब धन दे रहे हैं।

कांग्रेस :
वस्तुतः 1857 की क्रांति की विफलता के बाद उसमे सक्रिय भाग ले चुके स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1875 में 'आर्यसमाज' की स्थापना जनता को संगठित कर स्वतन्त्रता प्राप्ति के उद्देश्य से की थी और उसकी प्रारम्भिक  शाखाएँ ब्रिटिश छावनी वाले  शहरों में ही खोली थीं।ब्रिटिश सरकार ने उनको Revolutionary Saint की संज्ञा दी थी और उनके प्रभाव को क्षीण करने हेतु रिटायर्ड ICS एलेन  आक्टावियन (AO) हयूम का प्रयोग लार्ड डफरिन ने इंडियन नेशनल कान्फरेंस के नेता सुरेन्द्र नाथ बनर्जी को मिला कर एक सेफ़्टी वाल्व संस्था 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' की स्थापना WC(वोमेश चंद्र) बनर्जी की अध्यक्षता में करवाई थी।इसके शुरुआती नेता कहते थे-'हम नस-नस में राजभक्त हैं।'ये लोग मामूली सुविधाओं की ही मांग सरकार से करते थे। 

स्वामी दयानन्द सरस्वती के निर्देश पर आर्यसमाजी लोग इस कांग्रेस में प्रवेश कर गए जिनके प्रभाव से 1906 में कांग्रेस के कुछ नेता 'स्वराज्य' की मांग उठाने लगे। आगे जाकर गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन में आर्यसमाजियों ने बढ़ -चढ़ कर भाग लिया। ' कांग्रेस का इतिहास' के लेखक  डॉ पट्टाभि सीतारमइय्या ने लिखा है कि आज़ादी के आंदोलन में जेल जाने वाले सत्याग्रहियों में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे। 

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कांग्रेस 

1948 में 'सहकारी कामनवेल्थ' (Co-operative Commonwealth)का ध्येय अपनाया जिसे 1955 के अवदी अधिवेशन द्वारा 'समाजवादी ढंग के समाज'(Socialist Pattern of society) के लक्ष्य में परिवर्तित किया गया एवं जनवरी 1964 में 'लोकतान्त्रिक समाजवाद '(Democratic Socialism) का ध्येय अपनाया गया। 

नेहरू जी के बाद पूंजीवादी तबका निंरकुश होने लगा और कांग्रेस को ठेठ दक्षिण-पंथ की ओर धकेलने लगा अतः 1969 में राष्ट्रपति चुनाव की आड़ में 'कांग्रेस संगठन'(Congres-O) एवं 'सत्ता कांग्रेस' (Congres-R) के रूप में इसमें विभाजन हो गया। सत्ता कांग्रेस बाद में 'कांग्रेस- आई' अर्थात इन्दिरा कांग्रेस के रूप में जानी गई और संगठन कांग्रेस (जो कि मूल कांग्रेस थी ) का विलय 1977 में जनता पार्टी में हो गया । इस प्रकार स्वाधीनता आंदोलन वाली कांग्रेस का अब 'अस्तित्व' ही नहीं है और सोनिया जी की अध्यक्षता वाली कांग्रेस वस्तुतः 'कांग्रेस -आई' है। 

साम्यवादी दल : 

मूलतः 1924 में इस दल की नींव विदेश में रखी गई तथा दिसंबर 1925 में कानपुर में विधिवत स्थापना हुई। कांग्रेस में शामिल क्रांतिकारी आर्यसमाजी अब इस दल में प्रविष्ट हो गए एवं स्वाधीनता आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की जाने लगी। 
(इसका विस्तृत वर्णन अगले  किसी अंक में )

समाजवादी दल :
1)-1930 में डॉ राम मनोहर लोहिया की प्रेरणा पर 'कांग्रेस समाजवादी दल'(Congres Sociolist party) की स्थापना का विचार मूल रूप से 'साम्यवादी दल' के प्रभाव को क्षीण करने हेतु आया जिसे 1934 में 'नासिक जेल' में अमल में लाया गया। डॉ लोहिया ने 'लोकतान्त्रिक समाजवाद' एवं 'सर्वाधिकारवादी साम्यवाद' के अंतर पर विशेष ज़ोर दिया। 
2)-आज़ादी के बाद आचार्य जे बी कृपलानी ने कांग्रेस से हट कर 'कृषक मजदूर प्रजा पार्टी' बना ली एवं 1952 के प्रथम आम चुनाव 'समाजवादी दल' के साथ मिल कर लड़े एवं लोकसभा के लिए कुल पड़े मतों का 10 .4 प्रतिशत प्राप्त करके 12 सांसदों को निर्वाचित करा लिया। सितंबर 1952 में दोनों दलों का विलय हो गया और इसे 'प्रजा सोशलिस्ट पार्टी '(प्रसोपा) के नाम से जाना गया। 

3)-जनवरी 1956 में हैदराबाद में डॉ लोहिया ने प्रसोपा से अलग 'समाजवादी पार्टी' की स्थापना कर ली थी। 

21 अक्तूबर 1959 को टाईम्स आफ इंडिया में बी जी वर्घीज ने लिखा था कि,'कांग्रेस और प्रसोपा को मिल कर संगठित हो जाना चाहिए जिससे 'प्रतिक्रियावादी' एवं 'साम्यवादी' तत्वों का संगठन अवश्य ही कमजोर होगा। '

4)-दिसंबर 1962 में उत्तर-प्रदेश विधानमंडल के 'समाजवादी दल' व 'प्रजा समाजवादी दल' ने मिल कर 'संयुक्त समाजवादी दल' बनाया उसके बाद राजस्थान में भी इसे दोहराया गया। 1964 में अशोक मेहता को जवाहर लाल नेहरू द्वारा 'प्रसोपा' से तोड़ लेने के बाद श्रीधर महादेव जोशी  और डॉ लोहिया ने मिल कर 'संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी' (संसोपा) का गठन किया। किन्तु कुछ ही समय बाद आचार्य कृपलानी फिर से 'प्रसोपा' के झंडे तले चले गए और इस प्रकार 'संसोपा''प्रसोपा'दो समाजवादी दल चलते रहे। 

1977 में ये सभी दल 'जनता पार्टी' में विलय कर समाप्त हो गए थे। 

समाजवादी जनता पार्टी : 

जनता पार्टी से अलग होकर पूर्व पी एम चंद्रशेखर ने 'सजपा'  का गठन कर लिया था जिसके उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव द्वारा अपने चचेरे भाई राम गोपाल सिंह यादव को राज्यसभा के लिए उनसे पूछे बगैर टिकट देने से वह रुष्ट हो गए थे। 
समाजवादी पार्टी : 
मुलायम सिंह ने अलग 'समाजवादी पार्टी' (सपा) का गठन कर लिया और कई बार उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई अब भी उनके पुत्र अखिलेश सपा की ओर से मुख्यमंत्री हैं। 
चंद्रशेखर जी के पुत्र नीरज शेखर ने अब 'सजपा' का विलय 'सपा' में कर लिया है। 
यह समाजवादी पार्टी सिर्फ एक उद्देश्य 'साम्यवादी दल' को क्षति पहुंचाने के मामले में 1930 वाली CSP के नक्शे-कदम चल रही है बाकी के डॉ लोहिया के उद्देश्य नाम लेने मात्र के लिए प्रयुक्त होते हैं।

स्वतंत्र पार्टी : 

अगस्त 1959 में स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ,के एम मुंशी,प्रोफेसर एन जी रंगा,मीनू मसानी और पीलू मोदी आदि द्वारा इस दल की स्थापना बड़े जमींदारों,पूँजीपतियों के हितार्थ की गई थी। 1977 में इस दल का  विलय जनता पार्टी में होने पर यह समाप्त हो गया है।


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Saturday, September 14, 2013

Revolt of the people ......... can only usher in a blooming future---Gurudas Dasgupta




It is sad day for the nation Mr. Narendra Modi has been nominated as the candidate of BJP for the post of Prime Minister. A man who had played on communal passions that led to unprecedented killings, loot and destruction of Gujarat, a man who always speaks on fundamentalism, who is close to the corporate world and has no eye for the distress of the masses has been set up. I have great faith in the wisdom of the Indian electorate who surely will not hand over the rein of the country to a man having such blemished black track record. While saying so it is also imperative to note that the UPA government and the Prime Minister and the would-be Prime Minister as has been talked about are totally non performing, corrupt and anti-people. India is in a crossfire. the country must find out a different social and political combination which will not only be secular but must be free from corruption and performance based to bring relief to the distressed humanities of the country suffering from inflation, unemployment, poverty and destitution. The shadow of corporate giants over Indian political life must be ended. However long may be the destination, it is only working for such a perspective that the country can get rid of such a non-performing governance and highly tainted fundamentalist political forces. it is the revolt of the people against these two principal political forces that can only usher in a blooming future.

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Wednesday, August 21, 2013

आज जब देश कम्युनिस्टो की ओर आशा भरी नजर से देख रहा है ,ये पीठ करके खड़े हो रहे हैं--रईस अहमद सिद्दीकी

  -कम्युनिस्ट आंदोलन -विफल क्यों?---मनीषा पांडे
Manisha Pandey's status.

एक पुरानी एफबी पोस्‍ट, जो अचानक रेलेवेंट हो उठी है -

21 साल की उम्र में जब मैंने पहली बार इलाहाबाद छोड़ा, तो शहर के क्रांतिकारियों ने मुझे एक तमगे से नवाजा था - कॅरियरिस्ट । मनीषा अपना कॅरियर बनाने जा रही है। बेशक, मैं अपनी जिंदगी, अपना कॅरियर बनाने ही जा रही थी। और क्यों न बनाऊं कॅरियर। मैं आपकी पार्टी मीटिंगों और कार्यक्रमों में जाती थी, इसका मतलब ये नहीं कि अपना पूरा जीवन समर्पित करने के मूड में थी। और आखिर वो कौन लोग थे और क्यों उन्हेंी मेरे कॅरियर बनाने से तकलीफ हो रही थी। व्हाेय।
जो लोग इस सुगंधित मुगालते में हैं कि पार्टी के भीतर सब सुंदर और आदर्श दुनिया होती है तो या तो वो अज्ञानी हैं या महामूर्ख।
जैसे समाज में गरीबों की और औरतों की कोई औकात नहीं होती, वो सबसे ज्या दा लात खाए हुए होते हैं, वही क्ला स और जेंडर गैप पार्टी के भीतर भी है। जैसे मेरे घर में खाना बनाने वाली औरत और मुझमें फर्क साफ नजर आता है, उसी तरह मेरे पापा की पार्टी के ऊंचे लीडरानों के बच्चोंन और मुझमें फर्क साफ नजर आता था।
बड़े होने के बाद मैंने कम से कम सौ बड़े पार्टी नेताओं से सुना कि एक बड़े मकसद के लिए अपना जीवन समर्पित कर दो। क्रांति का काम करना है तो नौकरी करने की क्याच जरूरत। मूंगफली का ठेला लगाकर भी जिया जा सकता है। पार्टी होलटाइमर बन जाओ।
पता है, इन बातों का सबसे रोचक पहलू क्याच था।
ये कहने वाले वो लोग थे जो खुद अच्छे पदों पर बैठे हुए थे। जिनके बच्चेग प्रेस की हुई यूनीफॉर्म पहनकर शहर के महंगे अंग्रेजी स्कू लों में पढ़ने जाते थे। जो बड़े होकर फोटोग्राफी का कोर्स करने पेरिस गए। जो अमेरिका से ऊंची डिग्रियां लेकर लौटे। जिन्हों ने कैंब्रिज और हार्वर्ड में पढ़ाई की। जिनके बच्चोंि के लिए पार्टी का काम सिर्फ एक फैशन की तरह था। कभी-कभी आ जाया करते थे।
पार्टी की कमान भी कौन संभालता था। जिसके गांव में 200 बीघा जमीन है, जिसे रोटी जुगाड़ने का टेंशन नहीं, जिसका परिवार से मजे से चल रहा है, वो पार्टी में डिसिजन मेकर बना हुआ है। और गरीब होलटाइमरों के बच्चों को ज्ञान दे रहा है कि होलटाइमर बन जाओ।
मेरे होलटाइमर न बनने की दो वजहें थीं। एक तो मैं गरीब थी, दूसरे लड़की थी। पार्टी के अंदर भी मुझे दोनों तरफ से जूते पड़ते। एंड आय एम सॉरी, मैं जूते खाने के लिए नहीं पैदा हुई।
यकीन मानिए, होलटाइमरी और समर्पण का सारा ज्ञान पार्टी वाले मामूली घरों के लाचार बच्चों को ही देते हैं। जिनकी उम्र निकल गई इसी आदर्श के चक्कलर में।
जब से दिल्ली आई हूं, पापा कई बार पूछ चुके हैं, "तुम प्रकाश करात से मिली।"
मैं कहती हूं, "नहीं। आय एम नॉट इंटरेस्‍टेड। आय एम नॉट इंटरेस्टेपड इन पार्टीवालाजएट
ऑल।"

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03-08-2013 

कुछ लोग जवानी के जोश में ईमानदारी, प्रगतिशीलता,धर्मनिरपेक्षता और कम्युनिज्म की बातें करते हैं .उम्र ढलने पर दकियानूसी बातें करने लगते है और घोर प्रतिक्रियावादी हो जाते हैं .मैं समझता हूँ वे कभी क्रान्तिकारी थे ही नहीं.ऐसे लोगो की हमारे देश में कमी नहीं है ,हाँ एक बात और अपनी जवानी के दिनों में इन्होंने धर्म और मज़हब की इतनी बुराई की ,,कि लोगो को लगा कि कम्युनिज्म का मतलब धर्म को डंडा मारो है और लोग कम्युनिज्म से दूर हो गये.कल भी ऐसे लोगो की कमी नहीं थी और आज भी भरमार है.
चीन में महज एक करोड़ डालर की रिश्वत लेने वाले रेल मंत्री को मौत की सजा सुनाई है|आप कहते है कि चीन ने तरक्की की है,क्या खाक तरक्की की है,तरक्की तो हमारे देश ने की है जहाँ एक अदना सा अस्पताल का कर्मचारी या फिर किसी कार्यालय का चपरासी हजारों करोड़ की चपत लगाने की क्षमता रखता है,मंत्री के तो कहने की क्या.मंत्री तो हमारे देश के है जो हजारों हजार करोड़ डकार जाते है और सांस भी नहीं लेते .शान से रहते है कोई उँगली उठाने की भी हिम्मत नहीं कर सकता.लानत है ऐसे विकास पर कि रेल मंत्री महज एक करोड़ की रिश्वत ले और मौत की सजा पाये.


  • Rajesh Tyagi लाल झंडे की आड़ में चीन ने एक ऐसे सैनिक पूंजीवाद की रचना कर ली है, जो भारत या अमेरिका के पूंजीपतियों के बस की बात नहीं है. यह लौह-राज्य मजदूरों किसानो के उस भयंकर दमन पर आधारित है जिसकी परिणति हम तिएनान्मेन चौक पर देख चुके हैं. मंत्री को सजा किसी जनपक्षीय उद्देश्य से नहीं, बल्कि पूंजीवाद के नियमों का उल्लंघन करने के लिए, चीनी लौह-पूंजीवाद की सुरक्षा के लिए दी गई है...
कांग्रेस तो देश की आजादी के लिये लड़ने वालों का एक समूह था ,जिसमें तमाम विचारधाराऑ के लोग शामिल थे.आजादी के बाद देश की सबसे बड़ी और अनुशासित राजनैतिक पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी थी ,फिर चूक कहाँ हुई कि कम्युनिस्ट आन्दोलन कमज़ोर हुआ.
 

Kalpesh Dobariya ये ज़रूरी मुद्दा उठाया है आपने , Rais जी , ये लोग धर्म को लेकर कुछ ज़्यादा ही हाइपर रहते है , और मूल शत्रु पूंजीवाद पर इनका ध्यान कभिकभार ही जाता है , फ़ेसबुक पे भी ये देख सकते है हम , भारत जैसे धर्मभीरू देश मे इन्ही लोगो की बदौलत मार्क्सवाद बदनाम है , बेशक ये क्रिया क्रांतिविरोधी है....आप Vijai RajBali Mathur का ब्लॉग क्रानतीस्वर देखिए , इस विषय पर उन्होने बहूत अच्छे लेख लिखे है
 
  • Rupesh Kumar Singh CPI ne 1947 ke bad se hi ek awsarwadi politics ka parichay diya aur congress se aar par ki larai kabhi nahi kiya ....telangana movement ko fail karne me CPI netaon ki bhi ek bari bhumika rahi....

  • Rais Ahmad Siddiqui सही फरमाया रूपेश सिंह जी आपने,काश उस वक्त कांग्रेस से आर पार की लड़ाई लड़ी होती तो आज देश की तस्वीर एकदम अलग होती|
  • Rupesh Kumar Singh Rais Ahmad Siddiqui ji, aaj bhi mukhydhara ki communist partiyon ne in sabse sabak nahi sikha hai, aaj bhi congress ke pichhe chalne ko utaru rahte hain.....inhi karano se ab logon ko communist party se vishwash uthta ja raha hai .....

  • Rais Ahmad Siddiqui रूपेश सिंह जी इन पार्टियों के अन्दर जो बुर्जुआ लोग घुसे बैठे है,वे आन्दोलन की धार कुंद कर रहे है .पार्टी कैडर आज भी ईमानदार है और किसी भी तरह के समझौते के खिलाफ है,आखिर कब तक साम्प्रदायिक पार्टियों के डर से कांग्रेस का साथ देंगे ये ,और कांग्रेस क्या कम साम्प्रदायिकता फैलाती है|
  • Rupesh Kumar Singh Rais Ahmad Siddiqui ji, in CPI-CPI(M) se ab india ke communist aandolan ko ummid bhi nahi rakhna chahiye, hame ek naya vikalp dena hoga....jan sangharsh- jan vikalp !

  • Rais Ahmad Siddiqui बिल्कुल सही फरमाया आपने,अगर कम्युनिस्ट आन्दोलन को इनके भरोसे छोड़ा गया तो और एक शताब्दी बीत जायेगी.आज जब देश कम्युनिस्टो की ओर आशा भरी नजर से देख रहा है ,ये पीठ करके खड़े हो रहे हैं|
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उपरोक्त फेसबुक स्टेटस यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि आज भी कम्युनिस्ट पार्टियां और वामपंथ जनता की नब्ज को पहचान कर चलने को तैयार नहीं हैं ,केवल कोरे 'नास्तिकवाद' के सहारे जनता को अपने पक्ष  में खड़ा नहीं किया जा सकता और जन-समर्थन के बगैर संसद में बहुमत कैसे हासिल किया जा सकता है। रूस में रक्तरंजित क्रान्ति के बाद स्थापित साम्यवादी शासन इसीलिए उखड़ गया कि वह 'धर्म' के विरुद्ध था। यह समझने की नितांत ज़रूरत है कि पोंगापंथ-ढोंग-पाखंड-आडंबर धर्म नहीं हैं। धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा -वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य है। इसे ठुकरा कर आप 'साम्यवाद' नहीं स्थापित कर सकते। रूस में इसका पालन न होने के कारण ही साम्यवाद उखड़ा है। तो भारत में बेवजह की ज़िद्द क्यों?---विजय राजबली माथुर
 






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