Sunday, December 4, 2022

प्रणय रॉय की शुरुआती टीम का पॉल‍िट‍िकल और ब्‍यूरोक्रैट‍िक कनेक्‍शन—---- CM Jain /Kailash Prakash Singh

Kailash Prakash Singh


प्रणय रॉय की शुरुआती टीम का पॉलिटिकल और ब्यूरोक्रैटिक कनेक्शन—
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प्रणय रॉय की शुरुआती टीम में सोनिया वर्मा (अब सोनिया सिंह), विक्रम चंद्रा, बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई, श्रीनिवासन जैन, विष्णु सोम और माया मीरचंदानी जैसे कई नामी पत्रकार रहे। इनमें से कई आज भी एनडीटीवी के प्रमुख चेहरे हैं। इनमें से ज्यादातर ‘एलीट क्लास’ से ही आते हैं।
शुरुआती टीम में शामिल विक्रम चंद्र सिविल एविएशन के पूर्व डायरेक्टर जनरल योगेश चंद्र के बेटे थे। योगेश चंद्र खुद कर्नाटक के राज्यपाल गोविंद नारायण के दामाद हैं। गोविंद नारायण पूर्व गृह और रक्षा सचिव भी रह चुके हैं।
एनडीटीवी के टॉप बिजनेस हेड में से एक केवीएल नारायण राव सेना के पूर्व जनरल केवी कृष्ण राव के बेटे थे। कृष्ण राव जम्मू और कश्मीर और अन्य राज्यों के राज्यपाल भी रह चुके थे।
राजदीप सरदेसाई अपने जमाने के दिग्गज क्रिकेटर दिलीप सरदेसाई के बेटे और दूरदर्शन के पूर्व महानिदेशक भास्कर घोष के दामाद हैं। बरखा दत्त की मां प्रभा दत्त वरिष्ठ पत्रकार थीं।
अर्नब गोस्वामी भी एनडीटीवी का हिस्सा थे। वह एक सेना अधिकारी और भाजपा नेता मनोरंजन गोस्वामी के बेटे हैं। मनोरंजन के भाई दिनेश गोस्वामी वीपी सिंह सरकार में केंद्रीय कानून मंत्री थे।
श्रीनिवासन जैन प्रसिद्ध अर्थशास्त्री देवकी जैन और जाने-माने एक्टिविस्ट एलसी जैन के बेटे हैं, जो योजना आयोग के सदस्य और दक्षिण अफ्रीका में भारत के उच्चायुक्त के रूप में भी काम कर चुके हैं।
निधि राजदान भी एनडीटीवी की शुरुआती कर्मचारियों में से एक हैं। वह प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के प्रधान संपादक रह चुके एमके राजदान की बेटी हैं। विष्णु सोम पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हिमाचल सोम के बेटे हैं।
एनडीटीवी में सीनियर मैनेजिंग एडिटर चेतन भट्टाचार्जी पूर्व कैबिनेट सचिव और पंजाब के राज्यपाल निर्मल मुखर्जी के पोते हैं। इन शुरुआती कर्मचारियों में शामिल सभी महिला पुरुष को “रॉयज़ बॉयज़” कहा जाता था।
० संयोग या सहयोग?
कृष्ण कौशिक ने कारवां के लिए लिखे अपने विस्तृत लेख में रॉय की शुरुआती टीम का जिक्र किया है। साथ ही, उन्होंने एनडीटीवी के पूर्व कर्मचारी संदीप भूषण से बातचीत के हवाले से भी एक जानकारी लिखी है। संदीप एक दशक तक एनडीटीवी का हिस्सा रहे हैं। वह कृष्ण कौशिक की रिपोर्ट में बताते हैं कि सन् 2000 के आसपास उन्होंने चैनल के साथ काम करने के लिए आवेदन किया था। उनका इंटरव्यू बहुत अच्छा हुआ था। लेकिन उन्हें रिजेक्ट कर दिया गया। बाद में उन्होंने एक ब्यूरोक्रेट के रेफरेंस से उसी पद के लिए आवेदन किया और इस बार उन्हें नौकरी पर रख लिया गया।
० दूरदर्शन के लिए प्रोग्राम बनाने से हुई थी NDTV की शुरुआत
एक चौथाई सदी से भी अधिक पुराने इस चैनल की स्थापना साल 1988 में राधिका रॉय और प्रणय रॉय ने की थी। तब एनडीटीवी दूरदर्शन के लिए कार्यक्रम बनाया करता था। इसके लिए दूरदर्शन की तरफ से एनडीटीवी को दो लाख रुपये प्रति एपिसोड मिलता था। बाद में एनडीटीवी ने पैसे देकर अपने प्रोग्राम्स को दूरदर्शन पर चलवाने लगा और सीधे विज्ञापन से पैसे कमाने लगा।
स्टार के साथ 24×7 चैनल की शुरुआत
1998 में एनडीटीवी ने स्टार न्यूज के साथ मिलकर भारत का पहला 24 घंटे का समाचार चैनल शुरू किया। आजादी बाद लंबे समय तक टीवी न्यूज़ चैनल सरकार के अधीन का काम किया करते थे। बाद में निजी चैनल भी खुले और उदारीकरण के बाद उनमें विदेशी निवेश भी हुए। इससे एनडीटीवी भारत का सबसे सशक्त प्राइवेट न्यूज़ चैनल के रूप में उभरा।
० स्टार का पैसा, एनडीटीवी का कंटेंट
द कारवां की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि सन् 2002 में एनडीटीवी ने प्रति वर्ष 20 मिलियन डॉलर का इंतजाम किया था। इस 20 मिलियन डॉलर का एक बड़ा हिस्सा स्टार न्यूज से आता था। तब तक आज-तक और ज़ी जैसे चैनल मार्केट में आ चुके थे।
स्टार के पैसों ने एनडीटीवी को नए प्राइवेट चैनलों से मुकाबले के लिए तैयार किया। चैनल ने पैसों से बेहतर उपकरण खरीदने, आकर्षक ग्राफिक्स बनाने और सबसे महत्वपूर्ण सर्वश्रेष्ठ टैलेंट को अपने पास लाने का काम किया।
साल 1999 की बात है। उसी दौरान अरुण जेटली के रिप्लेसमेंट के तौर पर नरेंद्र मोदी पहली बार 1999 में एनडीटीवी के दफ्तर पहुंचे थे। वह बतौर पैनलिस्ट भाजपा का पक्ष रखने के लिए एनडीटीवी के शो ‘रविवार’ में शामिल हुए थे।
० कैसे हुई थी NDTV की शुरुआत?
साल 1988 की बात है। केंद्र में राजीव गांधी की सरकार थी। समाचार चैनल पर आधिकारिक रूप से सरकार का कंट्रोल हुआ करता था। कोई निजी न्यूज चैनल नहीं चला सकता था। न्यूज़ देखने का एकमात्र माध्यम दूरदर्शन था। कारवां पर प्रकाशित कृष्ण कौशिक के आर्टिकल के मुताबिक, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने दूरदर्शन के महानिदेशक भास्कर घोष को टीवी न्यूज को नए टैलेंट और विचार के साथ आकर्षक बनाने का काम सौंपा।
ठीक इसी वर्ष अर्थशास्त्री डॉ. प्रणय रॉय और उनकी पत्रकार पत्नी राधिका रॉय ने एनडीटीवी की शुरुआत की थी। NDTV यानी ‘न्यू दिल्ली टेलीविजन’ (New Delhi Television)। घोष ने दूरदर्शन के एक नए साप्ताहिक कार्यक्रम ‘द वर्ल्ड दिस वीक’ (The World This Week) के लिए प्रणय रॉय और राधिका रॉय को काम पर रखा। इसके लिए उन्हें दो लाख रुपये प्रति एपिसोड भुगतान किया जाता था।
० क्यों हिट हुआ ‘द वर्ल्ड दिस वीक’?
‘द वर्ल्ड दिस वीक’ खूब पॉपुलर हुआ। साथ ही प्रसिद्ध हुए शो के एंकर प्रणय रॉय। स्लेटी रंग के सूट और चमकदार टाई पहन जब पहली बार प्रणय रॉय टीवी स्क्रीन की दिखे थे, तब किसी ने नहीं सोचा था कि वह इंडियन टीवी न्यूज चैनल्स का भविष्य साबित होंगे।
प्रणय रॉय का शैली को लोगों ने पसंद किया। इस कार्यक्रम के शुरू होने से पहले दर्शकों ने केवल दूरदर्शन के बुलेटिन देखे थे। उसमें कठिन सरकारी हिंदी या अंग्रेजी में एंकर समाचार पढ़ा करते थे। विजुअल का इस्तेमाल बहुत कम किया जाता था। कभी-कभी कुछ सेकंड के लिए तस्वीरों का इस्तेमाल हो जाया करता था।
लेकिन प्रणय रॉय का कार्यक्रम आम न्यूज बुलेटिन से बिलकुल अलहदा होता था। द वर्ल्ड दिस वीक के माध्यम से ही एनडीटीवी ने पहली बार भारतीय दर्शकों को अंतरराष्ट्रीय टीवी न्यूज़ चैनल की शैली से रूबरू कराया, जिसमें प्रत्येक न्यूज को एंकर आसान और बातचीत की भाषा में पेश करता था, विजुअल के साथ-साथ वॉयस-ओवर और अच्छी तस्वीरों का उपयोग कर एक प्री-पैकेज्ड स्टोरी चलाई जाती थी।
1988 में एनडीटीवी की शुरुआत दूरदर्शन के लिए शो बनाने से हुई थी, जिसके लिए उन्हें पैसे मिलते थे। लेकिन अगले ही वर्ष एनडीटीवी इतना बड़ा बना गया कि अपना शो दूरदर्शन पर पैसे देकर चलवाने लगा और सीधा विज्ञापन से पैसे कमाने लगा। यहीं से प्रणय रॉय और राधिका रॉय के मीडिया उद्यमी बनने की शुरुआत हुई थी।
० जब दर्ज हुआ पहला मामला
साल 1997 में एक संसदीय समिति ने दूरदर्शन के वित्तीय दस्तावेजों की जांच की। जांच में दूरदर्शन और एनडीटीवी के रिलेशन में कुछ ‘अनियमितताएं’ पायी गयीं। मुख्य रूप से दो कथित अनियमितताएं समाने आयी थीं। पहला यह कि दूरदर्शन अपनी टेक्नॉलॉजी का एक्सेस एनडीटीवी को दे रहा था। दूसरी अनियमितता विज्ञापन के दरों से जुड़ी थी।
1998 में केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) ने प्रणय और दूरदर्शन के अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की। FIR में 1993 से 1996 तक दूरदर्शन के महानिदेशक रहे रितिकांत बसु का नाम भी शामिल था। हालांकि, साल 2013 में सीबीआई द्वारा एक अदालत में क्लोजर रिपोर्ट दायर करने के बाद सभी आरोपों को खारिज कर दिया गया था।
(CM Jain)


  ~विजय राजबली माथुर ©

Tuesday, November 22, 2022

सत्ताधीशों का संचालक कौन ? ------ गिरिजेश वशिष्ठ

  ~विजय राजबली माथुर ©

बेरोजगारी,छटनी और खामोशी ------ गिरजेश वशिष्ठ

 


    ~विजय राजबली माथुर ©

नेहरू नहीं दोषी 1962 के ------ आनंद वर्द्धन सिंह की समीक्षा

 

    ~विजय राजबली माथुर ©
 

कातिल लुटेरों की कंपनी,बाबर ,औरंगजेब आदि आदि ------ डाक्टर अरशी खान

  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

Tuesday, October 18, 2022

जनाधार की राजनीति ------ नवेंदू कुमार

With_u_Navendu

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◆ देख लीजिये...जनाधार की राजनीति क्या होती है, इस वीडियो रिपोर्ट से आपको पता चल जायेगा। जनता का मेला था- और जैसे उमड़ पड़ा हो कोई जनसमुद्र!
● मुलायम कोई प्रधानमंत्री तो नहीं थे। न नेहरू थे। न गांधी थे। न शहीदे-आज़म भगत सिंह। ना ही भारत को "दूसरी आज़ादी" दिलाने वाले लोकनायक जयप्रकाश। तो फिर क्यों मुलायम के निधन पर दलीय दीवार टूटती दिखाई दी। क्यों लालू प्रसाद की पार्टी राजद के राष्ट्रीय अधिवेशन में सपा नेता "मुलायम अमर रहें" के नारे हज़ारों-हज़ार लोग लगा रहे। क्यों पीएम मोदी हों या लालू प्रसाद अपनी सभा में मुलायम की गौरवगाथा सुना कर अपना शोक जगजाहिर कर रहे थे? 
● मुलायम- लालू को समझियेगा तो समझ में आएगी लेफ्ट और आरएसएस के कैडर आधारित राजनीतिक दलों की संरचना और दर्शन से इतर भारत में "जनाधार की राजनीति" की ताकत और उसका दर्शन। समाजवाद की कसौटी पर इसे शुध्द समाजवादी राजनीति न भी मानें तो इतना मानना तो पड़ेगा कि सत्ता-समाज-राजनीति में "संख्या भारी तो उतनी हिस्सेदारी" और "सामाजिक न्याय के साथ विकास" की भूख ही इस जनाधार की राजनीति का मूल आधार है। 
● बहुसंख्यक जनता की यही भूख मुलायम और लालू जैसे नेता और लोहिया के बुनियादी राजनीति को जन्म देती है। ऐसी राजनीति जो कैडर आधारित राजनीति के मुक़ाबिल एक ताक़त दिखती है। इसे "पिछड़ा उभार" कह कर भले अलगा दें पर है ये जनता के वंचित पीड़ित ज़मात की राजनीति का विस्फोटक व्याकरण। यही वज़ह है कि राजनीतिक सक्रियता के मामले में शिथिल निस्तेज हो चुके मुलायम सिंह यादव के देहावसान पर शोक विलाप भी किसी विस्फोटक जन आंदोलन के नारे के बतौर सुनाई और दिखाई देता लगता है।
● "धार्मिक उन्माद" और "हिंदुत्वा राष्ट्रवादी ब्रांड" की सत्ता-राजनीति के इस दौर में किसी "सेकुलर छवि" वाले नेता की मृत्यु पर जनता का हाहाकार और जुटान, राजनीति की कई समझ और संकेत देता है। इस संकेत को समझे बिना सत्ता को भले हांक ले कोई पार्टी या संगठन, सर्व समाज और सर्वजन को नहीं हांक सकता कोई महाबली या राष्ट्रबली!!



  ~विजय राजबली माथुर ©

Monday, October 17, 2022

ग्रेट गेम वालों की गुलामी करने से इंकार ------ सिद्धांत सहगल


 
न्यू वर्ल्ड आर्डर को लेकर जागरूक करने वाले
जागरूक कम , डरा ज्यादा रहे हैं
ग्रेट गेम का महिमामण्डन तो कर रहे हैं
पर रूस, पुतिन, ग्रेटर यूरेशिया पर कुछ लिख बोल नहीं रहे
मिडिया तो नहीं बोलेगा क्योंकि मिडिया डीप स्टेट, वर्ल्ड इकनोमिक फोरम और ग्रेट गेम वालों के हाथो बिका हुआ है
क्योंकि उन्ही का महिमामण्डन करने का पैसा इनको मिलता हैं
पर सोशल मिडिया पर भी लोग एक ही लकीर पर चलते दिखाई देते हैं
इन्हे रूस और पुतिन भी डर्टी गेम का हिस्सा लग रहा है
जबकि ऐसा बिलकुल नहीं है
मैने पोस्ट डाली पुतिन को धन्यवाद देते हुए कि इसने शैतानों के हाथ से हमें बचा लिया , इसलिए धन्यवाद
तो एक मित्र ने पूछा कि ऐसा क्या कर दिया इसने ?
तो मैं बड़े शार्ट में बतला रहा हूँ
पुतिन यूक्रेन के बहाने इनके खिलाफ नहीं खड़ा हुआ होता
तो आज पहले से भी ''खतरनाक लॉक डाउन का शिकार हो रहे होते और आठवीं बूस्टर डोज आपको घरों में घुसकर ठोकी जाती''
बस इतने में समझ लो
जब पुतिन स्पुतनिक V वैक्सीन बना ली थी
बिल गेट्स की फिजर मोडर्ना को अपने देश में घुसने नहीं दिया और WHO ने जब स्पुतनिक-V को जब मान्यता नहीं दी तो उस वक्त मुझे एहसास हो गया था कि इन शैतानो के विरुद्ध कोई खड़ा हो रहा है -- वन वर्ल्ड वन गवर्नमेंट के खिलाफ रूस के रक्षामंत्री का ये बयान काफी महत्वपूर्ण था कि जिस पृथिवी पर रूस नहीं होगा उस पृथिवी की भी हमे जरूरत नहीं हैं - ये एक प्रकार की परमाणु युद्ध की ही धमकी थी और ग्रेट गेम वालों की गुलामी करने से इंकार का खुला एलान था।
बहुत कुछ घट रहा है ध्यान रखें।


  ~विजय राजबली माथुर ©

Thursday, October 13, 2022

कारोबारी जनता का मूड भांप लेते हैं.. ------ कुमुद सिंह




कुमुद सिंह

12-10-2022 

लोकतंत्र में नेता से पहले कारोबारी जनता का मूड भांप लेते हैं.. हाल ही में प्रकाशित एक पॉलिसीसेटर अमेरिकी पत्रिका में राहुल गांधी को लेकर रपट छपी है. रपट के अनुसार राहुल गांधी एक बड़ी राजनीतिक ताकत बन कर उभरनेवाले हैं, जो भारत की आगामी सरकार के गठन में महत्वपूर्ण रोल अदा करेंगे. रपट में विदेशी राजनयिकों और खास तौर पर अमेरिकी विदेश मंत्रालय को राहुल को पप्पू समझने की भूल न करने की सलाह दी है. रपट में यह भी कहा गया है कि भारतीय कारोबारी जगत अब राहुल और कांग्रेस को नजरअंदाज करने का जोखिम और नहीं उठाना चाहता है. वो गांधी परिवार से बेहतर संबंध बनाने के लिए अपने संपर्कों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है. मुकेश अंबानी के बेटे ने कुछ माह पहले मुंबई में प्रियंका गांधी से मुलाकात की थी. वैसे राहुल या सोनिया से उनकी सीधी मुलाकात की कोई सूचना नहीं है. इधर, राहुल से रिश्ते बेहतर करने के लिए गौतम अदानी भी लगातार प्रयास कर रहे हैं. क्योंकि राहुल और कांग्रेस को लेकर भारत में तेजी से माहौल बदला है और मोदी के बाद भाजपा में नेतृत्व को लेकर वो एकजुटता नहीं है, जो 2014 में दिखाई दे रही थी. ऐसे में बड़े कारोबारी अब संतुलन बनाने में जुट गये हैं. भूपेश और गलहोत के माध्यम से अदानी अपने रिश्ते कांग्रेस से बेहतर कर रहे हैं. इधर राहुल गांधी ने भी यात्रा के दौरान कारोबारी जगह को बेहतर रिश्ते के साफ संकेत दे दिया है. खास तौर पर अदानी को लेकर राहुल का बयान गौरतलब है. भारतीय मीडिया जो कहे, कम से कम विदेशी मीडिया तो यही कह रही है...

  ~विजय राजबली माथुर ©

Thursday, April 28, 2022

प्रशांत किशोर जैसे राजनीतिक प्रबंधक इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि जनता को उसका सच पता नहीं चले ------ हेमंत कुमार झा

प्रशांत किशोर जैसे लोग इस तथ्य के प्रतीक हैं कि भारतीय राजनीति किस तरह जनता और उसकी वास्तविक समस्याओं से पलायन कर एक छद्म माहौल की रचना के सहारे वोटों की फसल काटने की अभ्यस्त होती जा रही है।
यह अकेले कोई भारत की ही बात नहीं है। चुनाव अब एक राजनीतिक प्रक्रिया से अधिक प्रबंधन का खेल बन गया है और यह खेल अमेरिका से लेकर यूरोप के देशों तक में खूब खेला जाने लगा है।
ऐसा प्रबंधन, जिसमें मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिये भ्रम की कुहेलिका रची जाती है, छद्म नायकों का निर्माण किया जाता है और उनमें जीवन-जगत के उद्धारक की छवि देखने के लिये जनता को प्रेरित किया जाता है।
दुनिया में कितनी सारी कंपनियां हैं जो राजनीतिक दलों को चुनाव लड़वाने का ठेका लेती हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव हो या ब्राजील, तुर्की से लेकर सुदूर फिलीपींस के राष्ट्रपति का चुनाव हो, इन कंपनियों ने नेताओं का ठेका लेकर जनता को भ्रमित करने में अपनी जिस कुशलता का परिचय दिया है उसने राजनीति को प्रवृत्तिगत स्तरों पर बदल कर रख दिया है।
जैसे, बाजार में कोई नया प्रोडक्ट लांच होता है तो उसकी स्वीकार्यता बढाने के लिये पेशेवर प्रबंधकों की टीम तरह-तरह के स्लोगन लाती है। ये स्लोगन धीरे-धीरे लोगों के अचेतन में प्रवेश करने लगते हैं और उन्हें लगने लगता है कि यह नहीं लिया तो जीवन क्या जिया।
भारत में नरेंद्र मोदी राजनीति की इस जनविरोधी प्रवृत्ति की पहली उल्लेखनीय पैदावार हैं जिनकी छवि के निर्माण के लिये न जाने कितने अरब रुपये खर्च किये गए और स्थापित किया गया कि मोदी अगर नहीं लाए गए तो देश अब गर्त्त में गया ही समझो।
प्रशांत किशोर इस मोदी लाओ अभियान के प्रमुख रणनीतिकारों में थे। तब उन्होंने मोदी की उस छवि के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था जो राष्ट्रवाद, विकासवाद और हिंदूवाद के घालमेल के सहारे गढ़ी गई थी।
सूचना क्रांति के विस्तार ने प्रशांत किशोर जैसों की राह आसान की क्योंकि जनता से सीधे संवाद के नए और प्रभावी माध्यमों ने प्रोपेगेंडा रचना आसान बना दिया था।
अच्छे दिन, दो करोड़ नौकरियाँ सालाना, चाय पर चर्चा, महंगाई पर लगाम, मोदी की थ्रीडी इमेज के साथ चुनावी सभाएं आदि का छद्म रचने में प्रशांत किशोर की बड़ी भूमिका मानी जाती है।
वही किशोर अगले ही साल "बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है" का स्लोगन लेकर बिहार विधानसभा चुनाव में मोदी की पार्टी के विरोध में चुनावी व्यूह रचना करते नजर आए।
दरअसल, ठेकेदारों या प्रबंधन कार्मिकों की अपनी कोई विचारधारा नहीं होती। हो भी नहीं सकती और न ही इसकी जरूरत है। वे जिसका काम कर रहे होते हैं उसके उद्देश्यों के लिए सक्रिय होते हैं।
कभी प्रशांत किशोर मोदी की चुनावी रणनीति बनाने के क्रम में राष्ट्रवाद का संगीत बजा रहे थे, बाद के दिनों में ममता बनर्जी के लिये काम करने के दौरान बांग्ला उपराष्ट्रवाद की धुनें बजाते बंगाली भावनाओं को भड़काने के तमाम जतन कर रहे थे। कोई आश्चर्य नहीं कि तमिलनाडु में स्टालिन के लिये काम करने के दौरान वे उन्हें हिंदी के विरोध, सवर्ण मानस से परिचालित भाजपा के हिंदूवाद के विरोध के फायदे समझाएं। जब जैसी रुत, तब तैसी धुन।
बार-बार चर्चा की लहरें उठती हैं और फिर चर्चाओं के समंदर में गुम हो जाती हैं कि प्रशांत किशोर देश की सबसे पुरानी पार्टी की जर्जर संरचना को नया जीवन, नया जोश देने का ठेका ले रहे हैं। मुश्किल यह खड़ी हो जा रही है कि अब वे ठेकेदारी से आगे बढ़ कर अपनी ऐसी राजनीतिक भूमिका भी तलाशने लगे हैं जो किसी भी दल के खुर्राट राजनीतिज्ञ उन्हें आसानी से नहीं देंगे।
प्रशांत किशोर, उनकी आई-पैक कंपनी या इस तरह की दुनिया की अन्य किसी भी कंपनी की बढ़ती राजनीतिक भूमिका राजनीति में विचारों की भूमिका के सिमटते जाने का प्रतीक है।
जहां छद्म धारणाओं के निर्माण के सहारे मतदाताओं की राजनीतिक चेतना पर कब्जे की कोशिशें होंगी वहां जनता के जीवन से जुड़े वास्तविक मुद्दे नेपथ्य में जाएंगे ही।
टीवी और इंटरनेट ने दुनिया में बहुत तरह के सकारात्मक बदलाव लाए हैं। कह सकते हैं कि एक नई दुनिया ही रच दी गई है, लेकिन राजनीति पर इसके नकारात्मक प्रभाव ही अधिक नजर आए। अब प्रोपेगेंडा करना बहुत आसान हो गया और उसे जन मानस में इंजेक्ट करना और भी आसान।
जिस तरह कम्प्यूटर के माध्यम से किसी बौने को बृहदाकार दिखाना आसान हो गया उसी तरह किसी कल्पनाशून्य राजनीतिज्ञ को स्वप्नदर्शी बताना भी उतना ही आसान हो गया।
चुनाव प्रबंधन करने वाली कम्पनियों की सफलताओं ने राजनीति को जनता से विमुख किया है और नेताओं के मन में यह बैठा दिया है कि वे चाहे जितना भी जनविरोधी कार्य करें, उन्हें जनोन्मुख साबित करने के लिये कोई कंपनी चौबीस घन्टे, सातों दिन काम करती रहेगी।
डोनाल्ड ट्रम्प का राष्ट्रपति बनना, ब्राजील के बोल्सेनारो का शिखर तक पहुंचना, तुर्की में एर्दोआन का राष्ट्रनायक की छवि ओढ़ना, फिलीपींस में रोड्रिगो दुतेरते का जरूरत से अधिक बहादुर नजर आना...ये तमाम उदाहरण इन छवि निर्माण कंपनियों की बढ़ती राजनीतिक भूमिका को साबित करते हैं। ट्रम्प अगले चुनाव में हारते-हारते भी कांटे की टक्कर दे गए और आज तक कह रहे हैं कि दरअसल जीते वही हैं।
अपने मोदी जी की ऐसी महिमा तो अपरम्पार है। वे एक से एक जनविरोधी कदम उठाते हैं और प्रचार माध्यम सिद्ध करने में लग जाते हैं कि जनता की भलाई इसी में है, कि यही है मास्टर स्ट्रोक, जो अगले कुछ ही वर्षों में भारत को न जाने कितने ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बना देगा
तभी तो, दुनिया के सबसे अधिक कुपोषितों से भरे देश में 80 करोड़ निर्धन लोगों के मुफ्त अनाज पर निर्भर रहने के बावजूद देशवासियों को रोज सपने दिखाए जाते हैं कि भारत अब अगली महाशक्ति बनने ही वाला है।
उससे भी दिलचस्प यह कि शिक्षा को कारपोरेट के हवाले करने के प्रावधानों से भरी नई शिक्षा नीति के पाखंडी पैरोकार यह बताते नहीं थक रहे कि भारत अब 'फिर से' विश्वगुरु के आसन पर विराजमान होने ही वाला है।
प्रशांत किशोर जैसे राजनीतिक प्रबंधक इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि जनता को उसका सच पता नहीं चले बल्कि जनता उसी को सच माने जो उनकी कंपनी के क्लाइंट नेता समझाना चाहें।
अमेरिका, यूरोप, तुर्की आदि तो धनी और साधन संपन्न हैं भारत के मुकाबले। वहां की जनता अगर राजनीतिक शोशेबाजी में ठगी की शिकार होती भी है तो उसके पास बहुत कुछ बचा रह जाता है। लेकिन भारत में ऐसे प्रबंधकों ने जिस तरह की राजनीतिक संस्कृति विकसित की है उसमें जनता ठगी की शिकार हो कर बहुत कुछ खो देती है। देश ने बड़े पैमाने पर सार्वजनिक संपत्तियों को निजी हाथों में जाते देखा, गलत नीतियों के दुष्प्रभाव से करोड़ों लोगों को बेरोजगार होते देखा, गरीबों की जद से शिक्षा को और दूर, और दूर जाते देखा, मध्यवर्गियों को निम्न मध्यवर्गीय जमात में गिरते देखा, निम्नमध्यवर्गियों को गरीबों की कतार में शामिल हो मुफ्त राशन की लाइन में लगते देखा...न जाने क्या-क्या देख लिया, लेकिन, अधिसंख्य नजरें इन सच्चाइयों को नजरअंदाज कर उन छद्म स्वप्नों के संसार मे भटक रही हैं जहां अगले 15 वर्षों में अखंड भारत का स्वप्न साकार होना है, उसी के समानांतर हिन्दू राष्ट्र की रचना होनी है और...यह सब होते होते उस महान स्वप्न तक पहुंचना है, जिसे 'राम राज्य' कहते हैं, जहां होगा 'सबका साथ, सबका विकास'।

  ~विजय राजबली माथुर ©