Thursday, August 29, 2019

अब ताकत में हैं, तो इतिहास की किताबें बदल रहे है ------ मनीष सिंह / रश्मि त्रिपाठी

Rashmi Tripathi
August 26 at 8:49 AM  

1757 में प्लासी की लड़ाई के पचास साल बाद तक अंग्रेजो ने भारत की सामाजिक व्यवस्था को छुवा नही। पर जब यकीन होने लगा, की यहां उनको लम्बा टिकना है तब अपने सेवक तैयार करने की जरूरत महसूस हुई।

1813 में कम्पनी के बजट में एक लाख रुपए शिक्षा के लिए रखे गए। कम्पनी सरकार को स्किल डेवलपमेंट करना था ताकि सस्ते पीए, मुंशी, स्टोरकीपर, अर्दली, मुंसिफ और डिप्टी कलेक्टर मिल सकें।

कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में यूनिवर्सिटी खुली। कलकत्ता यूनिवर्सिटी की जो पहली बैच के ग्रेजुएट निकले, उनमे बंकिम चन्द्र चटर्जी थे। वही सुजलाम सुफलाम, मलयज शीतलाम वाले .. । अंग्रेजी पढ़े छात्र आनन्दमठ लिखने लगे, तो खेल कम्पनी सरकार के हाथ से फिसलने लगा।

दरअसल इंडियन्स ने अंग्रेजी पढ़ी,तो वैश्विक ज्ञान के दरवाजे खुले। नए नवेले पढ़े लिखो ने योरोपियन सोसायटी को देखा, उनके विचारको की किताबें पढ़ी। लिबर्टी, सिविल राइट, डेमोक्रेसी, होमरूल .. जाने क्या क्या।

कुछ तो लन्दन तक गए, बैरिस्टरी छान डाली और अंग्रेजो को कानून सिखाने लगे। कुछ सिविल सर्विस में आ गए, कुछ ने अखबार खोल लिया। दादा भाई नोरोजी ब्रिटिश संसद में पहुंच गए "अधिकार" मांगने लगे। सरकारों को जब जनता की समझ और ज्ञान से डर लगे तो लोगो को लड़वाना शुरू करती हैं। समुदायों को फेवर और डिसफेवर इसके औजार होते हैं।

1857 की क्रांति के लिए अंग्रेजो ने मुस्लिम शासकों को दोषी माना, और लगभग इग्नोर किया। हिन्दू राजे और बौद्धिको पर सरकार के फेवर रहे। जनता के असन्तोष के सेफ पैसेज के लिए एक सभा बनवा दी, जिसमे देश भर के सभी ज्ञानी ध्यानी आते, अपनी मांग रखते, सरकार दो चार बातें मान लेती।

सभा को इंग्लिश में "कांग्रेस" कहते है। सालाना बैठक को कांग्रेस का अधिवेशन कहा जाता। इस कॉंग्रेस में हिन्दू ज्यादा संख्या में थे। आबादी के हिसाब से स्वाभाविक था, पर जो अब तक राज में थे, उनमे कुंठा बढ़ी।

सैयद अहमद खान ने कौम को समझाया- अंग्रेज़ी पढ़ो, सरकार में घुसो। वरना जो अपर हैंड पांच सात सौ सालों से है, खत्म हो जाएगा। आज के लीडरान की तरह बात सिर्फ ज़ुबानी नही थी। एक कॉलेज खोला, शानदार ... जो अपने वक्त से काफी आगे का था। मुस्लिम जनता ने मदद की, मगर ज्यादा मदद नवाबो से आई। उच्चवर्गीय मुस्लिम और नवाब एक साथ आये।

नवाबो को इसका एक नया फायदा मिला। ताकतवर होती कांग्रेस में रियाया के लोग थे, कई मांगे ऐसी रखते थे जिनमे उनकी जेब कटती थी। सैय्यद साहब और उनके सम्भ्रांत साथी, नवाबो के हित-अहित से जुड़ी मांगों पर दबाव बनाते थे। 1906 आते आते उन्ही के बीच से मुस्लिम लीग बनी। ढाका नवाब चेयरमैन हुए, भोपाल नवाब सचिव। बंगाल विभाजन हुआ था। कांग्रेस बंग-भंग के विरोध में थी, लीग ने समर्थन किया। मुस्लिम अब अंग्रेजो के प्यारे हो चले थे।

रह गए हिन्दू राजे रजवाडे। कांग्रेस का फेवर पाते नही थे, अंग्रेज सुनते नही थे। अपना कोई जनसंघठन न था। कुछ करने की उनकी बारी थी। तो देश भर में कई छोटे छोटे संगठन थे, जो हिन्दू पुनर्जागरण और सामाजिक सुधार कर रहे थे। बहुतेरी हिन्दू सभाएं-संस्थाये थी। जोड़ने वाला कोई चाहिए था। मिला- पण्डित मदन मोहन मालवीय।

पंडितजी ने अलीगढ़ से बड़ा, बेहतर, हिन्दू विश्वविद्यालय का बीड़ा उठाया था। जनता के बीच जा रहे थे। राजाओ ने खुलकर दान दिया, सभाएं करवायीं। मालवीय साहब पूरे देश मे घूमे, हिन्दू संगठनों को एक छतरी तले लेकर आये। काशी हिन्दू विश्विद्यालय बना , और अखिल भारतीय हिन्दू महासभा भी बन गयी। यह 1915 का वर्ष था। अब तीन संगठन अस्तित्व में आ चुके थे।

पहला, कामन पीपुल के लिए बात करने वाली कांग्रेस, जो सिविल लिबर्टी, इक्वलिटी, सेकुलरिज्म की बात करती थी। इसको ताकत जनता से मिलती थी, धन मध्यवर्ग के साथ नए जमाने के उद्योगपति व्यापारी पूंजीपतियों से मिलता था। इसके नेता भारत के भविष्य को ब्रिटेन के बर-अक्स देखते थे।

दूसरी ताकत, मुस्लिम समाज, उसके धार्मिक सांस्कृतिक विशेषाधिकार की पैरोकार मुस्लिम लीग, जिसकी ताकत मुस्लिम कौम थी, और फंडिग नवाबो, निज़ामों की थी। ये भारत का सपना उस मुगलकाल के बर-अक्स देखते थे, जिसमे सारी ताकत उनके हाथ मे थी।

तीसरी ताकत, हिन्दू समाज, उसके धार्मिक सांस्कृतिक विशेषाधिकार की पैरोकार और हिन्दू रजवाड़ों के हितों को ध्यान रखने करने वाली महासभा थी। जिसके लिए भारत का भविष्य मौर्य काल से लेकर शिवाजी की हिन्दू पादशाही के बीच झूलता था।

आगे चलकर अंग्रेज चुनावी सुधार करते हैं, सत्ता में भागीदारी खुलनी शुरू हो जाती है। मार्ले मिंटो सुधार और 1935 के इंडिया गवर्नेस एक्ट के आने के साथ, तीनो प्रेशर ग्रुप चुनावी दलों के रूप में तब्दील हो जाते हैं।

समय के साथ नए नेता इन संगठनो की लीडरशीप लेते हैं। ये गांधी, जिन्ना और सावरकर की धाराएं हो जाती हैं। दो धाराएं देश की घड़ी को, अपने अपने तरीके से पीछे ले जाना चाहती थी, एक आगे की ओर...।। पीछे ले जाने वाली धाराएं मिलकर विधानसभाओं में मिलकर सरकारें बनाती हैं, और सड़कों पर अपने समर्थकों से दंगे भी करवाती हैं। सत्ता की गंध से संघर्ष में खून का रंग मिल जाता है।

1947 में इस रंग ने भारत का इतिहास ,भूगोल , नागरिकशास्त्र, सब बदल दिया। एक धारा पाकिस्तान चली गयी, मगर अवशेष बाकी है। दूसरी सत्ता में बैठे बैठे सड़ गयी, उसके भी अवशेष ही बाकी हैं। तीसरी पर गांधी के लहू के छींटे थे। बैन लगा, तो चोला बदल लिया, नाम बदल लिया। अब ताकत में हैं, तो इतिहास की किताबें बदल रहे है। अजी हां, स्किल डेवलमेंट पर भी फोकस है।

उधर कलकत्ता, अलीगढ़ और बनारस की यूनिवर्सिटीज आज भी खड़ी हैं। लेकिन हिंदुस्तान का मुस्तकबिल बनाने वाले छात्र नदारद हैं।



Manish Singh

साभार : 
https://www.facebook.com/rashmi.tripathi.73113/posts/1362771200565084


~विजय राजबली माथुर ©

Wednesday, August 28, 2019

जम्मू-कश्मीर में आगे कैसे होगा विकास ------ अजेय कुमार



*जम्मू-कश्मीर ने अपनी उलझी राजनीतिक परिस्थितियों और सीमा पार से आतंकी घुसपैठ के बावजूद कई हिंदीभाषी राज्यों से बेहतर प्रदर्शन किया है
** अब तक यानी 5 अगस्त, 2019 तक, जब अनुच्छेद 370 लागू था, कश्मीर के विकास संबंधी आंकड़े क्या दर्शाते हैं। जम्मू-कश्मीर न केवल मानव विकास सूचकांकों में अन्य राज्यों के साथ कदम मिलाकर चलता रहा है, बल्कि साक्षरता, औसत आयु, पांच साल तक के बच्चों की मृत्यु दर, स्कूली शिक्षा, न्यूनतम मजदूरी आदि कई संकेतकों में वह उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और बहु-प्रचारित विकास मॉडल वाले राज्य गुजरात से बेहतर स्थिति में रहा है।
***यह तब है जब पिछले वर्षों में अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम जैसे विशेष दर्जा वाले राज्यों के मुकाबले जम्मू-कश्मीर को दी गई केंद्रीय सहायता एक-तिहाई से भी कम रही है। 
****इसलिए यह कहना कि अनुच्छेद 370 के कारण जम्मू-कश्मीर में विकास अवरुद्ध रहा है, गलत है। 
***** पूरे देश में जब कोई विकास नहीं हुआ तो भला जम्मू-कश्मीर में विकास कैसे संभव है, जब देश के कर्ता-धर्ता हर जगह एक से ही होंगे। 
जब पूरी अर्थव्यवस्था में ही सुस्ती है तो घाटी में निवेश कहां से आएगा और रोजगार कैसे बढ़ेंगे ------



http://epaper.navbharattimes.com/details/55923-77248-2.html










पिछले दिनों संसद में गृह मंत्री अमित शाह ने कश्मीर और अनुच्छेद 370 पर दिए अपने भाषण में कहा- ‘अनुच्छेद 370 के कारण कश्मीर घाटी के लोग गुरबत में रह रहे थे।’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि 370 खत्म होने से प्रदेश का विकास होगा और लोगों को रोजगार मिलेगा। आइए देखें, अब तक यानी 5 अगस्त, 2019 तक, जब अनुच्छेद 370 लागू था, कश्मीर के विकास संबंधी आंकड़े क्या दर्शाते हैं। जम्मू-कश्मीर न केवल मानव विकास सूचकांकों में अन्य राज्यों के साथ कदम मिलाकर चलता रहा है, बल्कि साक्षरता, औसत आयु, पांच साल तक के बच्चों की मृत्यु दर, स्कूली शिक्षा, न्यूनतम मजदूरी आदि कई संकेतकों में वह उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और बहु-प्रचारित विकास मॉडल वाले राज्य गुजरात से बेहतर स्थिति में रहा है।• विशेष दर्जे के लाभ : 

गरीबी रेखा के सरकारी आंकड़ों को देखें तो पूरे देश में 21 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, जबकि जम्मू-कश्मीर में केवल 10 प्रतिशत लोग ही गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करते हैं। 2001 में प्रदेश की साक्षरता दर 55.52 फीसदी थी जो 2011 में बढ़कर 68.74 हो गई। जहां तक महिलाओं द्वारा अपने बैंक खाते खुलवाने का प्रश्न है, अखिल भारतीय स्तर पर यह संख्या 2005-06 में 15.5 प्रतिशत थी, जो 2015-16 में बढ़कर 53 प्रतिशत हो गई, जबकि जम्मू-कश्मीर में यह 22 प्रतिशत से बढ़कर 60 प्रतिशत हो गई जो कि गुजरात के समान है और कई उत्तर भारतीय राज्यों से ज्यादा है। गर्भ निरोधकों का इस्तेमाल जम्मू-कश्मीर में 57 प्रतिशत जनता करती है, जबकि गुजरात में यह आंकड़ा मात्र 46.9 है। 5 वर्ष से कम आयु की औसत शिशु मृत्यु दर जम्मू-कश्मीर में 35 प्रति हजार है जबकि गुजरात में 36.5 प्रति हजार। इसी तरह बिजली, स्वच्छ पेयजल, साफ-सफाई और खाना बनाने में पर्यावरण-अनुकूल ईंधन के इस्तेमाल में भी जम्मू व कश्मीर छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे कई राज्यों से कहीं बेहतर है।

यह तब है जब पिछले वर्षों में अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम जैसे विशेष दर्जा वाले राज्यों के मुकाबले जम्मू-कश्मीर को दी गई केंद्रीय सहायता एक-तिहाई से भी कम रही है। इसलिए यह कहना कि अनुच्छेद 370 के कारण जम्मू-कश्मीर में विकास अवरुद्ध रहा है, गलत है। बल्कि जम्मू-कश्मीर ने अपने तमाम राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों और सीमा पार से आतंकी घुसपैठ के बावजूद कई हिंदीभाषी राज्यों से बेहतर प्रदर्शन करके दिखाया है। इसके पीछे, सबसे बड़ा कारण शेख अब्दुल्ला द्वारा राज्य में भूमि सुधारों को लागू करना है, जिससे साधारण जनता की आमदनी बढ़ी और उसके परिणाम स्वरूप सारे विकास संकेतकों में सुधार हुआ। भारत में वामपंथी शासन वाले राज्यों केरल, प. बंगाल, त्रिपुरा और कुछ हद तक कर्नाटक को छोड़कर अन्य किसी भी राज्य में भूमि सुधार लागू नहीं किए गए। इसके विपरीत शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में सबसे पहले जम्मू-कश्मीर में जमीदारों की जमीनें बिना उनको कोई मुआवजा दिए किसानों को बांटी गई। 

इससे पहले राज्य के कुल सिंचित क्षेत्र का अधिकांश भाग महाराजा और उनके चेले-चपाटों के हाथ में था। शेख अब्दुल्ला के प्रयासों के कारण ही जम्मू-कश्मीर में मात्र दो प्रतिशत से कम परिवार भूमिहीन हैं जबकि देश के अन्य भागों में कुल ग्रामीण परिवारों का एक तिहाई हिस्सा भूमिहीनों का है। यह संभव हो पाया अनुच्छेद 370 के कारण, जिसके चलते जम्मू-कश्मीर को भारतीय संविधान के दायरे से कुछ हद तक बाहर रहने का विशेषाधिकार हासिल था। शेष भारत में कानून था कि सरकार जमींदारों को मुआवजा दिए बिना उनकी जमीन का अधिग्रहण नहीं कर सकती थी। 26 मार्च, 1952 को जम्मू व कश्मीर संविधान सभा ने बिना किसी मुआवजे के सभी बड़ी-बड़ी जागीरें जब्त कर लीं। यह नीति कांग्रेस और केंद्र सरकार की नीति के भी उलट थी।

भूमि-सुधारों का असर राज्य के सामाजिक ताने-बाने और भूमि वितरण पर तो पड़ा ही, इससे वहां आय की असमानताओं पर भी थोड़ा अंकुश लगा। 2010-11 में जम्मू-कश्मीर में ग्रामीण गरीबी अनुपात 8.1 प्रतिशत था, जबकि पूरे देश के लिए यह 33.8 फीसदी था। जम्मू-कश्मीर राज्य में भारत के कुल सेब उत्पादन का 77 प्रतिशत पैदा होता है। आम लोगों की धारणा यह है कि जम्मू-कश्मीर में पर्यटन के अलावा कुछ नहीं है जबकि यहां कई प्रकार के खनिज काफी बड़ी मात्रा में पाए जाते हैं। जैसे चूना पत्थर, संगमरमर, जिप्सम, ग्रेनाइट, बॉक्साइट, डोलोमाइट, कोयला, सीसा इत्यादि। देश के उद्योगपतियों की नजरें इन पर हैं। उन्हें कश्मीर सोने की खान लग रहा है। कश्मीर की जमीन की उन्हें बड़ी फिक्र है, कश्मीरियों की नहीं। 

आज जब कश्मीर के विकास के बड़े-बड़े सब्जबाग दिखाए जा रहे हैं, तब प्रश्न उठता है कि कश्मीर को छोड़कर भारत के अन्य भागों में पूंजी-निवेश, रोजगार और तथाकथित विकास का हाल कैसा है/ सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में बेरोजगारी की दर पिछले 45 वर्षों में सबसे ऊपर है। ऑटोमोबाइल सेक्टर का कहना है कि मंदी के कारण उसे 3 लाख 50 हजार श्रमिकों की छंटनी करनी होगी। मोबाइल हैंडसेट बनाने वाली कंपनियां भी यही करने जा रही हैं। मंदी का आलम यह है कि 5 रुपये के बिस्कुट के पैकेट बेचने वाली पार्ले ने 10,000 मजदूरों को निकालने की धमकी दी है। शिवसेना ने हाल ही में केंद्र सरकार पर आरोप लगाया है कि पिछले वर्षों की आर्थिक-औद्योगिक नीतियों के कारण लगभग 2 करोड़ नौकरियां खत्म हो चुकी हैं।

 • बढ़ती हुई मंदी : 


जब हर जगह तमाम छोटे-बड़े कारखाने बंद हो रहे हों तो यह उम्मीद करना कि कश्मीर में नए कारखाने खुलने वाले हैं, एक दिवास्वप्न ही हो सकता है। पिछले 5 वर्षों में पूरे भारत में एक भी नया सरकारी विश्वविद्यालय नहीं खुला, एकाध नमूनों को छोड़कर एक भी नई रेलगाड़ी नहीं चली, एक भी नए हवाई अड्डे की स्थापना नहीं हुई। पूरे देश में जब कोई विकास नहीं हुआ तो भला जम्मू-कश्मीर में विकास कैसे संभव है, जब देश के कर्ता-धर्ता हर जगह एक से ही होंगे। 

http://epaper.navbharattimes.com/details/55923-77248-2.html













~विजय राजबली माथुर ©

Monday, August 26, 2019

उर्दू वाला चश्मा की प्रस्तोता नूपुर शर्मा जी को शुभकामनायें

  








Nupur Sharma
25-08-2019  at 10:00 AM 


UPDATE: Break from URDU WALA CHASHMA (@The Wire) - after TWO years of a TRANSFORMATIVE & ENRICHING experience - I’ll be taking a TEMPORARY BREAK.

AGENDA:

1) At this point in life I feel the need to CONSOLIDATE my work and life EXPERIENCE (which has been...well...“INTERESTING” 😊) into something CONCRETE. So I will work on a BOOK.

2) I want to learn how to read and write URDU - filhaal pooree RAVAANI se nahi padh paati.

3) Also on the agenda is IMMERSING myself in URDU & PANJABI poetry and literature. I feel that if I don’t REPLENISH myself on this count my work will stagnate.

Thanks ever so much for all the KHULOOS & IZZAT that you so graciously bestowed upon me - truly MOVED and INSPIRED by your GENEROSITY of SPIRIT.

I am THANKFUL for the CONSTRUCTIVE CRITICISM. It helped me GROW 🙏

I am EVEN MORE THANKFUL for the KIRDAARKUSHI and NASTY jibes 🙃

Online and Offline I have been called a “MULLI”, “PAKISTANI Agent”, "Brainwashed victim of ‘LOVE JIHAD’”, “MENOPAUSAL" (by men who seem 60 plus) & “SLUT” with all the glorious variations of the word that are used by self appointed SAMAAJ KE THEKEDAARS - men (AND women too). These are people who award KIRDAAR KE TAMGHAY in the KHAANDAANI KHAATOON/BAZAARU AURAT, IZZATDAAR/BESHARAM, WHORE/MADDONA binary - anything but SIMPLY HUMAN.

As for the conduct of the MARD HAZRAAT themselves - well, "MEN will be MEN” 🙂 - the same parameters don't apply of course. And PATRIARCHAL women SUPPORT the men in this.

I do not SHARE this to evoke SYMPATHY, PITY or ANGER - only to CALL OUT the MISOGYNY, COMMUNALISM and ISLAMOPHOBIA in DESI society.

These WEAPONS must be DIFFUSED by DE-CONSTRUCTION. The process also helps one HEAL and eventually TRANSCEND to a state of FORGIVENESS. One then hopes that someday these Trolls will rid themselves of the INSECURITY that makes them ACT OUT, makes them want to CRUSH YOUR SPIRIT.

As a friend explained to me - TROLLS are TORMENTED souls at one level.

I know I am NOT UNIQUE in this. For instance, MUSLIM ladies (and gentlemen) on SOCIAL MEDIA face much more VITRIOL.

Yes, the TOXICITY was DEEPLY HURTFUL initially but it also TOUGHENED me, made me a better JUDGE OF HUMAN NATURE going forward.

It DID NOT SUCCEED IN KILLING MY SELF BELIEF or MAKING ME CYNICAL ABOUT MY FELLOW HUMANS 🤗

In any case, “...HATRED is too heavy a BURDEN to bear.” Martin Luther King Jr.

On BALANCE, the LOVE and RESPECT that I received FAR outweighed the HATRED (essentially borne out of FEAR). #GodsChildrenALL

In the course of 2 years I did over 50 EPISODES of Urdu Wala Chashma and met countless PEOPLE - it was ALL EDUCATIVE and EXHILARATING.

My VIEWS on some topics have EVOLVED over time but I stand behind the basic SPIRIT of each episode of UWC.

There is also hopefully a somewhat better GRIP on the LANGUAGE in the latter episodes. I welcome CANDID FEEDBACK.

You can access almost all the episodes of URDU WALA CHASHMA here: 
https://www.youtube.com/playlist…

There is also my page on Facebook. Search for NUPUR SHARMA OFFICIAL - a portal of my WORK and CONCERNS.

THE WIRE ka TAH E DIL se shukria - you gave me a PLATFORM and PURPOSE, I felt that I COUNTED as a CITIZEN even if in a MODEST way.

I am PROUD to be associated with a COURAGEOUS organisation such as this.

For some months I may be relatively DORMANT on FACEBOOK or even GO OFF it at times - please don’t take it amiss. #ZindagiGulzarHai 🌻

Apna khaas khayaal rakhiyega. See you later InshaAllah.

Warmly, 
 Nupur


https://www.facebook.com/nupur.sharma.39794/posts/10156574322126302


~विजय राजबली माथुर ©

******************************************************************


Saturday, August 10, 2019

आतंकवाद बढ्ने की संभावना ------ ए एस दुलत ( रा के पूर्व प्रमुख )




******





फारूख अब्दुल्ला साहब की बेटी और दामाद ( सचिन पायलट )  
सत्तारूढ़ सरकार द्वारा फारूख अब्दुल्ला साहब के परिवार पर भी कश्मीर के विकास की बाधा होने का आरोप लगाया गया है जबकि वहाँ की जनता में उनकी लोकप्रियता आज भी कायम है। सरकार के गलत कदम कश्मीर को अशांत कर सकते हैं जैसा कि, पूर्व रा प्रमुख ए एस दुलत साहब आशंका व्यक्त कर रहे हैं। 
  ~विजय राजबली माथुर ©

Friday, August 9, 2019

अलविदा कश्मीरियत ----- - सागरिका किस्सू (जानी मानी पत्रकार, कश्मीरी विशेषज्ञ, कश्मीरी पंडित)

 
कश्मीरी पंडित सागरिका क़िस्सू


कश्मीर डायरी/मशहूर पत्रकार और कश्मीरी पंडित सागरिका क़िस्सू का बयान वाया अरूण कौल...

5 अगस्त 2019 कश्मीरियत के खत्म होने का आख़िरी दिन

मैं सिडनी में रह रही हूँ और जहाँ हूँ वहाँ ख़ुश हूँ।

कश्मीरी पंडित होने के नाते मेरा भी इस मामले में कुछ कहना है। मेरी अपनी राय है और उसे कहने का मेरा पूरा हक़ है।

कश्मीरी पंडित बेशक बहुत शांत और दयालु माने जाते हों लेकिन उनकी मतलबपरस्ती और घमंडीपन भी कम नहीं है।

कश्मीर में पंडितों की तादाद भले ही अल्पसंख्यक हो लेकिन शिक्षा के मामले में बहुसंख्यक हैं। सरकारी नौकरियों में महत्वपूर्ण पदों पर उनका कब्जा है। कश्मीरी पंडितों के बच्चों का बस तीन ही सपना होता है- डॉक्टर, इंजीनियर और बैंक (ज़्यादातर प्रोबेशनरी अफ़सर)

कश्मीरी पंडितों ने मुसलमानों को हमेशा दूसरे दर्जे का नागरिक माना है। दफ़्तरों में उनकी संख्या ज़्यादा होने के बावजूद अल्पसंख्यक पंडित उन पर अपनी हुकूमत चलाते हैं। कश्मीरी पंडित शेष भारत के लोगों का जिस तरह मजाक उड़ाते हैं वह अजीबोग़रीब है। हर तरह के लोगों की हैसियत तय करने का उनका अपना पैमाना है। चाहे वो डोगरा हों, दक्षिण भारतीय हों या सिख हों कश्मीरी पंडित उनका मजाक किसी न किसी बहाने उड़ाते रहते हैं जो सुनने में नस्लवादी फ़िकरे होते हैं। चूँकि पूरा जम्मू कश्मीर राज्य भारत और पाकिस्तान समर्थकों में बँटा हुआ है तो कश्मीरी पंडित मौक़ा पाते ही कह देते हैं- तो पाकिस्तान चले जाओ।

मैं किसी भी तरह के सशस्त्र संघर्ष का समर्थन नहीं करती लेकिन सोचती हूँ कि जो गालियाँ और अत्याचार हम दूसरों पर करते हैं वो हमेशा वापस लौटकर मिलता है।

मुझे ऐसा क्यों महसूस हो रहा है कि जो कश्मीरी पंडित आज डाँस कर रहे हैं उन्हें जल्द ही अपनी ग़लती का पछतावा होगा।

इतने वर्षों से हमारी अपनी ज़मीन पर हमारी अलग पहचान बनी हुई थी। लेकिन अब जब पूरे देश से यहाँ लोग जब आकर बसेंगे तो आप सब लोग दिल्ली की किसी कॉलोनी के हिस्से की तरह नज़र आएँगे। आपकी कोई अलग पहचान नहीं होगी। अब तुम्हें मुसलमानों से भी ज़्यादा ऐसी चीज़ें बर्दाश्त करना पड़ेंगी जो पक्का तुम्हारे लिए नाक़ाबिले बर्दाश्त होंगी।

कश्मीरी पंडितों की एक पूरी पीढ़ी घाटी के बाहर पैदा हुई और बड़ी हुई है जिनका सपना अपने वतन (कश्मीर) लौटना था, लेकिन अब की पीढ़ी शायद ही वतन लौटना चाहे।

धारा 370 और 35 ए भले ही भारत को कश्मीर (ज़मीन से ज़मीन) के क़रीब लाया हो लेकिन यह कश्मीरियत को मिटाने की क़ीमत के नाम पर किया गया है।

कश्मीरियत का मतलब ऐसे कश्मीरियों के अस्तित्व से है, जो विभिन्न धर्मों और समुदायों से हैं और जो एक दूसरे से नफ़रत किए बिना साथ साथ रहते हों। जब राज्य में कश्मीरियों की अलग तादाद ही बाहर से आने वाले बाकी लोगों के मुक़ाबले महत्वहीन हो जाएगी तो कश्मीरियत भी उसी के साथ खत्म हो जाएगी। एक केंद्र शासित कश्मीर में भले ही इन्फ़्रास्ट्रक्चर का जाल खड़ा हो जाएगा लेकिन कश्मीर की आबोहवा (पर्यावरण) बर्बाद हो जाएगा।

यहाँ विभिन्न समुदायों के लोग तो होंगे लेकिन यहां का अपना मूल कल्चर खत्म हो जाएगा। सफलता की लंबी सूची बन जाएगी लेकिन जिस बूते कश्मीर कश्मीरियत खड़ी थी वह खत्म हो जाएगी।

अलविदा कश्मीरियत

-सागरिका किस्सू Sagrika Kissu (जानी मानी पत्रकार, कश्मीरी विशेषज्ञ, कश्मीरी पंडित)


वाया अरूण कौल
5 Aug 2019 will mark the end of "Kashmiriyat".

I am living in Sydney and I am very happy where I am.

Being a Kashmiri Pandit I have a say in the matter.

It will be a long rant from me but I guess I have an opinion and a right to express it. 
A lot of my community people will not like what I am about to write but so be it. With the death of Kashmiriyat dies my veil and I am going to say what I have witnessed growing up.

Kashmiri Pandits may be very docile people but their arrogance and selfishness is too much.

KPs always were a physical minority but educational majority. They were in studying and jobs and thus were holding almost all plum posts within the government jobs spectrum. There was a 3 point program for most KP kids.

1. Doctor
2. Engineer
3. Bank job (PO being favourite)

KPs always treated fellow Muslims as second grade citizens since being a physical majority they were governed by a minority in offices.

KPs also talked about rest of Indians with utter disdain.

They always had a term defining different sections of people.
Be it Dogras, South Indians, Sikhs KPs always made fun of them. Disgusting as it was it is utter racist as well. Since state was a divide of India and Pakistan supporters, KPs would at every possible chance utter "Gachh telyi Pakistan ( Then go to Pakistan)"

And when they went and came back with physical and mental ammunition, it was way beyond control. I don't endorse that but sometimes your abuse comes back to haunt you, it haunt us bad.

It brings me to the point why do I feel all KPs who are dancing today will soon regret.

All these years you had an existence as an entity in your own land since you were visible. Now with influx of people from all over the country you will be a part of a society like Delhi. You will have to tolerate more than Muslims now and you sure won't like it.

With a whole generation born and brought up outside valley the supposed dream of going back to homeland may not be a preposition our current generation would like. The abolition of article 370 and 35A may bring India to Kashmir (Land to Land) but at cost of Kashmiriyat.
Kashmiriyat meant existence of Kashmiris of different beliefs and faiths exist together without hate for each other. With Kashmiris outnumbered in valley kashmiriyat is dead. Kashmir as a UT may see rise in infrastructure but will degrade in environment.

Will add diversity but will lose its ethnicity. Will add to a lot of exciting stuff but will lose its edge. Will add to a list of successes but will lose the ground on which it was harnessed.

RIP Kashmiriyat!!!

Via: Arun Kaul

PS: I am Sagrika's cousin, as internet services have been cut off in Jammu and Kashmir, I am posting this on her behalf
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=355180808726184&id=346673192910279&__xts__%5B0%5D=68.ARDHjFOwHt8GVL-o4DfdjQ-7gx-l44Mg1-HODwd4PRYgCwlrJ62Z1ufrQDta3v0xaSJiLsAJs1Tcni5Ul9PUSqYaj26QsdoCi236SFervcfvK7I-p3dXItiVLDodXJQzdKuMm4N9WRpZsI9AwtL6qpvDkEUYCrbHEhenXNFWo3mwDzhHVCCnYDg9xATWUsgHyIxbplfx8RAKrVD6mXnreeqg5d2Sm-op44jb_IFUO5ZckrZ2jI3j80oPJLeKMpoLiiOryKSCIHZijillFii7zTWQ7e-xCgyjUSDDgDAtwIb4MrhYZ6jHx-iMFzhR7NRyqJtFpv_ZMAgkhHEuECI&__tn__=-R






 ~विजय राजबली माथुर ©

Tuesday, August 6, 2019

थोपी गई एकता भ्रम का एक आवरण रचती है ------ हेमंत कुमार झा


जो लोग "एक विधान, एक निशान" की बातें करते हुए उत्साह और उन्माद से भर कर इसे राष्ट्रीय एकता से जोड़ते हैं वे अर्द्धसत्य ही नहीं, भ्रामक सत्य का प्रचार कर रहे हैं। एकता थोपी हुई नहीं होती और अगर थोपी जाती है तो वह एकता नहीं होती।

थोपी गई एकता भ्रम का एक आवरण रचती है जिसकी सतह के नीचे पनपता जाता है असंतोष, जो अंततः आक्रोश का रूप लेता है।

ऐसी ऊपरी एकता का छद्म आवरण निर्मित करने वाली प्रवृत्ति एक तरफ अंतर्विरोधों को छिपा कर सत्ता-संरचना के भीतर मौजूद वर्चस्वमूलक शक्तियों और उनके षड्यंत्रों पर पर्दा डालने का काम करती है।

इस आलोक में अगर हम कश्मीर के मामलों को देखें तो अधिक आश्वस्ति का अहसास नहीं होता। भविष्य को लेकर एक संशय, एक डर बन जाता है कि पता नहीं, आगे क्या हो।

वैसे, धारा 370 को निष्प्रभावी बना कर पूर्ण बहुमत वाली भाजपा सरकार ने अपने होने को सार्थक किया है। उनका तो यह एक प्रमुख एजेंडा था ही। चुनाव दर चुनाव वे अपने घोषणापत्रों में इसे दुहराते रहे हैं। देश भर में फैले भाजपा के करोड़ों कार्यकर्त्ताओं और धुर समर्थकों की आंखों में दशकों से यह सपना तैरता रहा है कि उनकी पूर्ण बहुमत की सरकार बने और राम मंदिर निर्माण, समान नागरिक संहिता के साथ ही कश्मीर से धारा 370 का खात्मा हो। आज मोदी-शाह की जोड़ी ने इनमें से एक को अंजाम तक पहुंचाया तो उनके साहस की दाद देनी चाहिये। उनके कार्यकर्त्ताओं के मन में उत्साह का संचार तो हुआ ही है, अपने लोकप्रिय नेता के प्रति उनकी आस्था भी निश्चित रूप से बढ़ी होगी।

लेकिन, देश के संवेदनशील मुद्दों के सम्यक निपटान और कार्यकर्त्ताओं की संतुष्टि में फर्क है। देश कार्यकर्ताओं और समर्थकों से अधिक महत्वपूर्ण है और कोई राजनेता इतिहास में इस आधार पर परखा जाता है कि उसके फैसलों ने देश की दूरगामी दशा-दिशा पर कैसा प्रभाव डाला।

बहुसंख्यक वर्चस्ववाद और इससे उपजे उन्माद की संतुष्टि के लिये उठाए गए कदमों को इतिहास किस नजरिये से देखता है यह उसके अनेक अध्यायों को पलट कर देखा जा सकता है।

कश्मीर का मुद्दा इस देश के लिये ऐसा नासूर बन गया था जो अब असह्य पीड़ा देने लगा था। न जाने कितनी शहादतें, न जाने कितने संसाधनों की बर्बादी। कोई राह नजर नहीं आ रही थी।

ऐसे में, अगर नरेंद्र मोदी ने गतिरोध को तोड़ा है तो उन्हें इस मुद्दे को हैंडल करने का अवसर मिलना चाहिये। यह अवसर उनके पास है भी क्योंकि 5 वर्षों की उनकी दूसरी पारी अभी शुरू ही हुई है।

यद्यपि, इस अंजाम तक पहुंचने के लिये जिस तरीके को उन्होंने अपनाया उसे अनेक संविधान विशेषज्ञ संविधान सम्मत नहीं बता रहे। केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल की सहमति कश्मीर के जन प्रतिनिधियों की सहमति नहीं है। राज्यपाल कश्मीरी जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते।

बीते दस-पंद्रह दिनों में कश्मीर में जो हालात बनाए गए और इस कारण देश में जो सनसनी फैली, उसने कश्मीर मुद्दे को लेकर सरकार के तौर-तरीकों को संदेह से भर दिया है। आप कह सकते हैं कि और कोई तरीका बचा ही नहीं था। लेकिन, आप यह भी कह सकते हैं कि यह मोदी-शाह मार्का समाधान है। हालांकि, इस मार्का समाधान के अपने खतरे हैं, अपने अंतर्विरोध हैं।

समझ में नहीं आता कि वे कश्मीर समस्या को सुलझाना चाह रहे हैं या देश की बहुसंख्यक आबादी को सनसनी में डाल कर, उन्माद से भर कर उनमें ऐसी नकारात्मकता का संचार करना चाहते हैं जो अल्पसंख्यक विरोध के नाम पर उनके पीछे एकजुट रहे और देश की खस्ताहाल होती अर्थव्यवस्था से ध्यान हटा कर भीड़ की शक्ल में बहुसंख्यकवाद की पाशविक ताकत के अहसास से भर कर उन्मादी नारे लगाती रहे।

गांधी ने उद्देश्य तक पहुंचने के लिये साधनों की पवित्रता पर जो जोर दिया था उसकी प्रासंगिकता इस मामले में अहम है।

क्या नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने इस फैसले के लिये जिन तरीकों को अपनाया वे राजनीतिक और नैतिक रूप से उचित हैं? आप किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में बसी एक-सवा करोड़ की आबादी को मनमर्जी से, सत्ता और शक्ति के सहारे अनंत समय तक हांक नहीं सकते। दमन हमेशा प्रतिकार को जन्म देता है, भले ही प्रतिकार के उभरने में वक्त लगे।

गौर कीजिये उन तत्वों पर, जो देश के, खास कर उत्तर भारत के विभिन्न शहरों में सड़कों पर, चौराहों पर अबीर-गुलाल ऐसे उड़ा रहे हैं, जैसे किसी जीत के जश्न में डूबे हों। कौन हैं वे लोग?

ये वही लोग हैं जिनकी नौकरियां छीनी जा रही हैं, जिनके रोजगार के अवसर संकुचित होते जा रहे हैं, श्रम कानूनों में बदलाव लाकर जिन्हें कारपोरेट का गुलाम बनाया जा रहा है, नेशनल मेडिकल कमीशन बिल के माध्यम से जिनके बच्चों की जिंदगियों को झोला छाप डॉक्टरों के भरोसे किया जा रहा है, जिनके बच्चों को शिक्षा के अवसरों से वंचित करने की सारी तैयारियां नई शिक्षा नीति में कर ली गई है।

जिनकी अपनी जिंदगियां खुद के लिये, उनके परिवार और समाज के लिये सवाल बन कर खड़ी हैं, समस्या बन कर खड़ी हैं वे कश्मीर समस्या के लिये सड़कों पर भीड़ की शक्ल में मजमा लगाए खड़े हैं, एक दूसरे पर गुलाल उड़ा रहे हैं, उकसाने वाले नारे लगा रहे हैं। उन्हें नहीं पता कि माहौल में उड़ता गुलाल उनकी दृष्टि को इस तरह से धुंधली कर रहा है कि वे न सत्य को पहचान पा रहे, न उन खंदकों को पहचान पा रहे जिनमे वे बाल-बच्चों समेत गिरते जा रहे हैं।


बहरहाल, समाधान की दिशा में बढ़ा सरकार का यह निर्णायक कदम अधिक आश्वस्त नहीं कर रहा। एक भय का संचार भी मन में हो रहा है। ताकत के दम पर अस्मितावादी विवादों का हल निकल जाए, यह कैसे संभव होगा? आप पाकिस्तान को रगड़ सकते हैं, आतंकियों को रौंद सकते हैं लेकिन अपने ही भाई-बंधुओं को न आप रगड़ सकते हैं, न रौंद सकते हैं। अगर कश्मीर देश का है तो कश्मीरी भी देश के हैं और देश उनका है। भावनाओं में दूरी बाकी रह गई तो ताकत का प्रयोग कर स्थापित की गई एकता अपने भीतर इतने अंतर्विरोधों को जन्म देगी कि कभी भी ऐसी ऊपरी एकता का शीराज़ा बिखर सकता है। यह बहुत भयानक मंजर हो सकता है।


https://www.facebook.com/hemant.kumarjha2/posts/2288525081255392
*********************************************************************************


 धारा 370 का ख़ात्मा क्यों कश्मीर और इतिहास के साथ धोखाधड़ी है
By दिलीप ख़ान • 05/08/2019 at 5:20PM

15-16 मई 1949 को सरदार वल्लभ भाई पटेल के घर पर कश्मीर के भविष्य को लेकर एक अहम बैठक हुई थी. बैठक में जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला भी मौजूद थे. बैठक का एजेंडा ‘राज्य में नए संविधान के गठन’ और ‘भारत में राज्य के विलय से जुड़े विषय’ था. पटेल की सहमति के साथ नेहरू ने उसके दो दिन बाद 18 मई को शेख अब्दुल्ला को चिट्ठी लिखी, “जम्मू-कश्मीर राज्य का अब भारत में सम्मिलन हो चुका है. भारत को विदेश मामलों, रक्षा और संचार पर वहां क़ानून बनाने का अधिकार होगा. वहां की संविधान सभा तय करेगी कि बाक़ी मुद्दों पर वो किस तरह का क़ानून बनाना चाहती है और भारत के किन क़ानूनों को मानना चाहती है.” 
यहां पर ये बताना ज़रूरी है कि संविधान की धारा 370 को ड्राफ़्ट करने वाले गोपालस्वामी अयंगर ने उस वक़्त शेख अब्दुल्ला और सरदार पटेल के बीच हुई ‘मामूली असहमतियों’ को हल करने का दावा करते हुए संविधान सभा के सामने इस धारा को पेश किया था. भारत की संविधान सभा में इस मुद्दे पर कश्मीर की तरफ़ से बातचीत करने के लिए शेख अब्दुल्ला के साथ-साथ मिर्ज़ा मुहम्मद अफ़ज़ल बेग़, मौलाना मोहम्मद सईद मसूदी और मोती राम बागड़ा ने हिस्सा लिया था और ड्राफ़्ट पर अब्दुल्ला और पटेल की स्वीकृति हासिल करने के बाद 16 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा में इस प्रस्ताव को पेश किया था. इसके ठीक अगले दिन 17 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा ने इसे मंजूरी दे दी. 
जवाहर लाल नेहरू के साथ शेख अब्दुल्ला


उस वक़्त इस धारा को अनुच्छेद 306A के नाम से जाना जाता था. पटेल की दो बातों पर असहमति थी. पटेल का मानना था कि जब जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा बन रहा है तो वहां पर मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्व भी लागू होने चाहिए. लेकिन, वार्ता के बाद उन्होंने 370 के प्रावधानों को मंजूरी दे दी थी. महाराजा हरि सिंह ने भारत में सम्मिलन (इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन) को जिन बातों पर मंजूरी दी थी, उनमें दो प्रावधान सबसे ज़्यादा अहम हैं. उसके उपबंध 5 में कहा गया है, “मेरी विलय संधि में किसी भी तरह का संशोधन नहीं हो सकता. भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के तहत इसमें कोई बदलाव तब तक नहीं हो सकता, जब तक ये मुझे मंजूर ना हो.” उपबंध 7 में कहा गया है, “भारत के भविष्य के संविधान को (हमारे यहां) लागू करने पर बाध्य नहीं किया जा सकता.”


इस अर्थ में देखें तो कश्मीर के लोगों से धारा 370 के मार्फ़त स्वायत्तता का भारत ने जो वादा किया था, उस वादे को बाद में काफ़ी तोड़ा-मरोड़ा गया और आख़िरकार नरेन्द्र मोदी सरकार ने उसे पूरी तरह ख़त्म कर दिया. संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक़ जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान की सिर्फ़ दो धाराएं लागू होती हैं. धारा 1 और धारा 370. इन दोनों धाराओं में धारा 370 ही वो धारा थी, जिसके ज़रिए बाद के दिनों में भारत ने वहां कई संवैधानिक प्रावधानों को लागू किया. इस धारा में ये प्रावधान था कि राष्ट्रपति के आदेश के ज़रिए वहां किसी केंद्रीय क़ानून को लागू किया जा सकता है. 370 लागू होने के बाद से अब तक 47 प्रेसिडेशियल ऑर्डर जारी किए गए और इस तरह वहां की ‘स्वायत्तता’ को लगातार कमज़ोर किया गया. रक्षा, विदेश और संचार के अलावा कई ऐसे क़ानून वहां लागू हुए जिनका ‘ऑरिजिनल संधि’ में ज़िक्र नहीं था. 2019 तक केंद्रीय सूची में शामिल 97 में से 94 विषय वहां भी लागू हैं, समवर्ती सूची में शामिल 47 में से 26 विषय वहां लागू हैं. संविधान की 395 में से 260 अनुच्छेद वहां लागू हैं. ये सबकुछ हुआ उसी 370 के ज़रिए, जिसे स्वायत्तता के नाम पर कश्मीरियों को थमाया गया था. 


4 दिसंबर 1963 को तत्कालीन गृह मंत्री गुलजारी लाल नंदा ने धारा 370 पर टिप्पणी करते हुए कहा था, “ये धारा ना तो दीवार है और ना ही पहाड़, असल में ये एक सुरंग है. इसी सुरंग के ज़रिए वहां बहुत से अच्छी चीज़ें पहुंची हैं और आगे बहुत बुरी चीज़ें भी पहुंचेंगी.” कश्मीर और धारा 370 पर किताब लिख चुके जाने-माने इतिहासकार एजी नूरानी ने इसलिए मोदी सरकार के ताज़ा फ़ैसले को ‘असंवैधानिक और धोखाधड़ी’ करार दिया है. दिलचस्प ये है कि धारा 370 (3) के तहत राष्ट्रपति को इसमें कोई भी बदलाव करने की शक्ति दी गई है. लेकिन, इसमें राज्य की संविधान सभा की मंजूरी लेना अनिवार्य बताया गया है. 



इस बीच 1952 में शेख अब्दुल्ला और नेहरू के बीच दिल्ली क़रार हुआ और कई व्यापक मुद्दों पर सहमति बनी. उससे ठीक पहले 5 नवंबर 1951 को जम्मू-कश्मीर में संविधान सभा का गठन हुआ और 17 नवंबर 1956 को संविधान लागू होने के बाद संविधान सभा को भंग कर दिया गया. उसके बाद से ‘भारत में सम्मिलन’ (इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन) में दर्ज प्रावधानों को लगातार तोड़ा-मरोड़ा गया. दिल्ली समझौते में नेहरू ने ये कहा था, “कश्मीरी शिष्टमंडल अपने उन अधिकारों को लेकर चिंतित था, जिनमें राज्य से जुड़े विषयों को संरक्षित रखने का प्रावधान था...इनमें अचल संपत्ति और नौकरियों में नियुक्ति के मामले शामिल हैं.”


यही वो मुद्दे हैं जिनके आधार पर 1954 में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने प्रेसिडेंशियल ऑर्डर के ज़रिए धारा 35ए लागू की थी. ये धारा 370 का ही हिस्सा है और इसमें स्थाई निवासी और नौकरियों से जुड़े प्रावधान दर्ज हैं. धारा 35ए के मुताबिक़ जम्मू-कश्मीर में 14 मई 1954 तक रहने वाले नागिरकों को वहां का ‘स्थाई निवासी’ माना गया और उन्हीं लोगों को वहां की सरकारी नौकरियों, स्कॉलरशिप हासिल करने और अचल संपत्ति रखने का अधिकार है. अगर इस व्यवस्था को भी इतिहास में तलाशें तो महाराजा हरि सिंह के ज़माने में इस तरह का प्रावधान पहली बार 1927 में किया गया था. यही वजह है कि ये नियम पाक अधिकृत कश्मीर में भी लागू है. 
दिल्ली समझौते के बाद नेहरू ने कहा था, “महाराजा हरि सिंह के ज़माने से ये नियम लागू है. हरि सिंह को इस बात का अंदेशा था कि कश्मीर की वादियों और मौसम से प्रभावित होकर बड़ी तादाद में अंग्रेज़ यहां आकर बसना चाह रहे थे. इसलिए उन्होंने बाहरियों द्वारा अचल संपत्ति ख़रीदने पर रोक लगाई...मुझे लगता है कि कश्मीर के लोगों की चिंता वाजिब है क्योंकि अगर ये व्यवस्था नही रही तो वहां ज़मीन ख़रीदकर व्यवसाय करने वाले लोगों का तांता लग जाएगा और कश्मीर घाटी लोगों से भर जाएगी.”


ऐतिहासिक दस्वातेज़ों में कश्मीरियों से किए गए ‘स्वायत्तता’ समेत तमाम वादों से धीरे-धीरे मुंह मोड़ा गया और वहां के लोगों की आवाज़ और संधियों के प्रावधानों को दरकिनार कर ‘कश्मीर हमारा है’ के नारों की ध्वनि के आधार पर केंद्र सरकार ने लगातार जम्मू-कश्मीर के संवैधानिक हक़ों के साथ खिलवाड़ किया. पिछले कुछ वर्षों से धारा 370 को हटाने की मुहिम ने भारत में तेज़ी पकड़ी और बीजेपी ने इसे अपने शीर्ष एजेंडे में शामिल कर लिया. जिस अंदाज़ में राष्ट्रपति के आदेश के ज़रिए अभी धारा 370 को हटाने का ऐलान हुआ है, उसे निश्चित तौर पर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है. 



बीजेपी की दलील रही है कि धारा 370 ‘अस्थाई’ प्रकृति का था. संविधान के हिसाब से देखें तो बीजेपी का दावा बिल्कुल ठीक है. संविधान के भाग 21 में जिन अनुच्छेदों का ज़िक्र किया गया है उनमें धारा 370 पहला अनुच्छेद है. भाग 21 में अस्थाई, ट्रांजिशनल और विशेष प्रावधानों वाली धाराओं का ज़िक्र किया गया है. इस भाग में धारा 370 के आगे लिखा गया है: जम्मू-कश्मीर राज्य को लेकर अस्थाई प्रावधान.



लेकिन, इस ‘अस्थाई’ व्यवस्था के वक़्त भारतीय संसद ने ये भी माना था कि जब तक जम्मू-कश्मीर में शांति बहाली नहीं होती, तब तक इस धारा के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं होगी. सरकार ने जिस तरह अभी धारा 370 को हटाया है उसे लागू करने के लिए बलप्रयोग करना पड़ा. राज्य के सभी प्रमुख नेताओं को नज़बंद किया गया, कई हिस्सों में धारा 144 लागू की गई, अर्धसैनिक बलों की अतिरिक्त टुकड़ियां तैनात की गई, आनन-फ़ानन में अमरनाथ यात्रा को रोक दिया गया. सुप्रीम कोर्ट में धारा 370 को हटाने के लिए कई बार याचिका दायर की गई. ऐसी ही एक याचिका पर सुनवाई के दौरान अप्रैल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भले ही धारा 370 के आगे ‘अस्थाई’ शब्द लिखा हो, लेकिन ये अस्थाई नहीं है. जस्टिस एके गोयल और आरएफ़ नरीमन की खंडपीठ ने साफ़ कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में भी ये कहा था कि इस धारा को अस्थाई नहीं माना जा सकता. 1969 में संपत प्रकाश मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने धारा 370 को अस्थाई मानने से इनकार कर दिया था. उस वक़्त पांच सदस्यीय खंडपीठ ने इसे स्थाई प्रकृति का प्रावधान करार दिया था.



कश्मीर के लोग ना सिर्फ़ व्यापक स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं, बल्कि विलय के वक़्त भारत सरकार से किए गए वादों को निभाने की मांग करते रहे हैं. जवाहर लाल नेहरू ने 7 अगस्त 1952 को कश्मीर मुद्दे पर बोलते हुए लोकसभा में कहा था, “हमने कश्मीर पर युद्ध लड़ा और बढ़िया से लड़ा. हम मैदान से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक में लड़े, लेकिन उन सबसे ज़्यादा हमने जम्मू-कश्मीर के लोगों के दिलों में इस लड़ाई को लड़ा (और जीता). इसलिए मेरा मानना है कि कश्मीर को लेकर ना तो संयुक्त राष्ट्र फ़ैसला कर सकता है, ना ही ये संसद और ना ही कोई और....फ़ैसला लेने का अधिकार सिर्फ़ कश्मीरियों का दिल और दिमाग़ को है.”




आज 370 को हटाते वक़्त उस वादे को पूरी तरह तोड़ दिया गया है. कश्मीर को लेकर किए गए अनगिनत वादों में ये सिर्फ़ एक वादा है. शेख अब्दुल्ला की नेहरू द्वारा गिरफ़्तारी से शुरू हुई कहानी का अंत उनके पोते उमर अब्दुल्ला को घर में नज़रबंद कर धारा 370 हटाने के फ़ैसले के साथ हुई है. 

https://hindi.asiavillenews.com/article/arguments-against-scrapping-article-370-repealing-it-is-deceitful-11045




 ~विजय राजबली माथुर ©

Sunday, August 4, 2019

धारा 370 की सच्चाई ------ Rajesh Rajesh / जगमोहन ने पंडितों को कश्मीर छोड़ने के लिए प्रेरित किया ------ मृदु राय


Rajesh Rajesh
24-02 -2019
एक से अधिक कारणों से, जम्मू-कश्मीर का संविधान, 17 नवंबर, 1956 को अपने संविधान सभा द्वारा पास किया गया था, पूर्णतया शून्य है और जो कानून लागू है। एक पूर्ण नलीयता, एक गैर एस्ट. संवैधानिक और राजनैतिक नैतिकता भी इसे बदबूदार बनाती है. यह 26 जनवरी, 1957 को लागू हुआ । 
इसके बाद से केंद्र सरकार के हितों की सेवा के लिए कई बार विकृत हो गया है।केंद्रने अनुच्छेद 370 का कई बार उल्लंघन किया। भारत का संविधान अपनी स्वायतता की गारंटी देता है, यद्यपि इस संबंध में वह अपनी योग्यता को साबित नही कर सका और पूरी तरह खोखला रहा। ऐसा कश्मिरियों का कहना है।

आईये देखें 370 धारा है क्या?

26 अक्टूबर 1947 को हरि सिंह कश्मीर का भारत मे विलय पेपर पर दस्तखत किये और एक बिशेष धारा 370 के तहत कश्मीर भारत का अंग बना और शेख अब्दुल्ला नये रियासत के प्रधान मंत्री और कर्ण सिंह 22 साल की उम्र मे सदर-ए-रियाशत बने। 370 के तहत रक्षा, विदेश और सूचना केंद्र सरकार के पास रहेगा और राज्य सरकार के सलाह से कश्मीर मे लागू होगा बाकी राज्य सरकार के पास रहेगा। उसमे केंद्र हस्तक्षेप नही करेगा।
संविधान का अनुच्छेद 370 जम्मू और कश्मीर तथा शेष भारत के बीच संवैधानिक संबंधों का वर्तमान आधार है.।
आईये आजादी और 370 के बीच का सफर कैसा रहा, देखें। देश मे बहुत से प्रिंसली स्टेट थे और मोटे तौर पर तय ये हुआ था कि जो मुश्लिम बहुल राज्य हैं वो पाकिस्तान मे और हिंदू बहुल राज भारत मे मिल जायेंगे। लेकिन तीन राज्य ऐसे थे जहां कि जनसंख्या के राजा अल्पसंख्यकों के बीच के थे और जनता उसके उलट बहसंख्यकों की थी। उसमे हैदराबाद और जूनागढं मे हिंदू बहुल जनता का राजा अल्पसंख्यक मुसलमान था , और कश्मीर मे मुश्लिम बहुल राज्य का राजा हरि सिंह हिंदू थे। जब माउंटबेटन की अध्यक्षता मे मिटिंग हुई तो नेहरु ,पटेल ने अपना पक्ष रखा कि विलय का फैसला राजा नही जनता करेगी, और जिन्ना बोले कि नही राजा करेंगे। अंत मे तय हुआ कि जनता ही फैसला करेगी। इस आधार पर हैदराबाद और जूनागढ़ को भारत मे मिलना.था और कश्मीर को पाकिस्तान मे। पटेल ने जिन्ना से कहा कश्मीर ले लो ।लेकिन जिन्ना राजी नही हुये और अंत मे बलपूर्वक हैदराबाद और जूना गढ को भारत मे मिला लिया गया । इसपर बात नही करना है। बात कश्मीर की हो रही है। हरि सिंह बहुत ही काईयां राजा थे वे दोनों मे मिलना नही चाहते थे , वे स्वीटजरलैंड की तरह कश्मीर को स्वतंत्र रखना चाहते थे और भारत का सहयोग चाहते थे कि भारत इसमे उनकी सुरक्षा का जिम्मा ले।पटेल ने कह दिया तुमको जो करना हो करो हमे तुम्हारा कश्मीर नही चाहिये। लेकिन नेहरु का काश्मीर से आंतरिक लगाव था और भी कई कारण थे जिसमे एक पानी भी था। नेहरु दूरद्रष्टा थे कश्मीर की सीमा और जल की दृष्टि से महत्व को समझते थे।लेकिन दबाव देने के पक्ष मे भी नही थे। हरी सिंह टालमटोल कर रहे थे । पाकिस्तान और भारत के दो नाव पर पैर रखकर अपना अलग देश चाहते थे। पंडित नेहरु हरी सिंह से मिलने कश्मीर गये तो हरी सिंह उनसे नही मिले और राज्य मे घुसने पर भी प्रतिबंध लगा दिये ।नेहरु वापस आ गये। उधर आजादी की लड़ाई मे काश्मीर का एकमात्र नेता शेख अब्दुल्ला थे जो नेहरू के साथ थे ,उनको हरी सिंह ने कैद कर लिया था। इसी बीच आजादी के कुछ ही हफ्तों बाद कबाईलियों के भेष मे पाकिस्तान ने वजिरिस्तान की तरफ से कश्मीर पर कब्जा के लिये आक्रमण कर दिया।उस समय भारत और पाकिस्तान दोनों का लंदन से एक ही हाट लाईन था। पाकिस्तानी जनरल फ्रैक मैसर्वी थे जो पाक के योजना को जानते थे और भारत को नही बताये। लंदन से उनके टेलीफोन पर काल आयी तो एक ही हाट लाईन होने के कारण भारत मे माउंटबेटन का भी टेलीफोन की घंटी बजी तो माउंटबेटन ने उठा लिया तो देखा कि लंदन से पाकिस्तानी जनरल की बात हो रही है। और उससे उनको पता चला कि पाकिस्तानी फौज कबाईलियों के भेष मे कश्मीर पर कब्जा करने चल पड़ी है। उन्होने तुरंत पंडित नेहरु को फोन किया और पूछा कि क्या कर रहे हो, और खालीहो तो तुरंत आ जाओ। पं. नेहरू समझ गये कि जरुर कोई खास बात है नही तो माउंटबेटन ऐसे नही कहते, और पंडित जी पंहुँचे तो शाम हो गयी थी और माउंटबेटन ने अपने हाथों से जाम बनाकर पं. नेहरू का इंतजार कर रहे थे और नेहरु के पहुँचते ही वे जाम उठाकर नेहरु के हाथ मे देकर और अपना गिलास उठाकर चियर्स बोले। पंडित नेहरु आश्चर्य थे कि क्या बात है ? ऐसा कभी नही हुआ। तब गंभीर होकर माउंटबेटन ने कहा , hear me with cool mind and dont be aggressive. और पूरी बात बतायी कि काश्मीर पर कबाईलियों ने आक्रमण कर दिये हैं और हमे पता है इसमे पाकिस्तान का हाथ है। इतना सुनते ही पंडित नेहरू गुस्से से लाल हो गये और बोले अभी सेना भेजता हूँ। माउंटबेटन ने पूछा किस हैसियत से ? कश्मीर भारत का अंग नही है और गवर्नर जनरल की हैसियत से मै परमिशन नहीं दे सकता। ठंडे दिमागसे काम लो, पहले हरी सिंह से बात करो। और नेहरु ने माउंटबेटन की अध्यक्षता मे पटेल , फौजी जनरल लोखार्टे जो अंग्रेज थे , और इंडियन फौजी आफिसर ले. जनरल करियप्पा इत्यादि। तय हुआ कि जनरल लोखार्टै के नेतृत्व में फौज को भेजा जाय बार्डर पर सूचना के लिये और उसमे भारतीय आफिसर ले. ज. करियप्पा का नाम भी था। करियप्पा ने इनकार कर दिया। इनकार सुनते ही लोखार्टे गरम हो गया बोला मै जनरल हूँ , करियप्पा बोले.मै आजाद भारत का सिपाही हूँ आपको मै अपना कमांडर नही मानता। यह सुनते ही पं. नेहरु आपा खो बैठे। तब पटेल ने नेहरु को इशारे से शांत रहने को कहकर करियप्पा को बाहर लेकर चले गये और पूछा क्याबात है ।करियप्पा बोले यही तो सब करा रहा है। पटेल अंदर आये बोले गृह मंत्री की हैसियत से जनरल करियप्पा के नेतृत्व मे फौज के लोगों को भेज रहा हूँ। सूचना सही थी । तब तक सबेरे तक हरी सिंह का आदमी नेहरू के पास आ गया था। हरी सिंह को जब पता चला तो उनके पास कोई चारा नहीं। और आनन फानन मे सहायता मांगने के लिये आदमी चिट्ठी के साथ भेंज दिये। इधर रात भर मे हमारे 10 हजार जवान देश भर से जहाज से ( हमारे पास उस समय 10 जहाज थे ,तीन यात्री और 7 फौजी) अमृतसर छावनी पर डंट गये थे। इधर पंडित नेहरु ने कृष्नमेनन को रात को कश्मीर हरी सिंह के पास भेजा । उधर हरी सिंह निराश होकर अपने बेड रूम मे सोने चले गये और अपने ए डी सी से कहा अगर भारत से कोई आयेगा तो हमे जगाना नही तो हमे गोली मार देना ,हम कबाईलियों के हाथ गिरफ्तार होना पसंद नही करुँगा। रात 3 बजे सेना के जहाज से मेनन कश्मीर पहुँचे और सीधे हरी सिंह के भवन मे गये । ए डी सी ने जब हरी सिंह को जगाया तो वे बोलै भारत से कोई आया? ए डी सु ने हाँ मे गरदन हिलाया। तो बोले यहीं मेरे बेड रुम मे ले आओ और तुम जाओ।रात 4 बजे हरी सिंह जब विलय ड्राफ्ट के लिये पेपर खोजने.लगे तो पैपर ही नही.था। और वे इस बात को बेहद गुप्त रखना चाहते थे । तो मेनन ने पं. नेहरु की चिट्ठी जो ले गये थे हरि सिंह के.नाम ।उसी लिफाफे को फाड़कर पेपर बनाया। और एकलाईन का विलय प्रपत्र लिखा। कि मै हरी सिंह अपने राज्य जम्मू - कश्मीर का भारत मे विलय करता हूँ। नीचे हरी सिंह दस्तखत करके दे दिये। उह पत्र को पाकिस्तान फेक कहता है। 
मेनन सबेरे 6 बजे तीन मूर्ती भवन पहुँचे तब तक पं. नेहरु उनका इंतजार कर रहे थे। नेहरू ने मेनन के जाम का पैग अपने हाथो से बनाया और मेनन को गिलास पकड़ाया और पुछा what happens? मेनन ने अपने पाकेट मे हाथ डाला और उसी लिफाफे वाले पेपर को नेहरू के हाथ मे दिया और बोला," bastard has signed it. 
और तब माउंटबेटन ने भारतीय सेना को परमीशन दियाऔर 2 घंटे मे 10 हजार सैनिक कश्मीर श्रीनगर मे छा गये। कबाईली अपना जीत समझकर 31 कि .मी. धूर पर जश्न मना रहे थे । तब तक हमारे जवानो ने झेलम पर बना पुल जो आवागमन का एक ही रास्ता था ,को उड़ा दिया। और बाद की बाते सबको पता है। यह विलय टेंपोरेरी था इस शर्त के साथ कि जनमत संग्रह होगा। और पंडित नेहरु ने अपनी बात को राष्ट्र संघ के साथ साथ पाकिस्तान को भी लिखकर दिया था। लेकिन शर्त थी की शांति हो जायेगी तब। परिस्थितियाँ ऐसी रही न शांति हुई न जनमत संग्रह । उस समय पाकिस्तान शेख के रहते जनमत संग्रह को तैयार नही था ,क्यूँकि शेख उस समय नेहरू के साथ थे। और आज हमारी सरकारे सहमत नही हैं जनमत संग्रह के लिये ,क्यूँकि नेहरु जैसे नेता नही और कश्मीर मे कोई.शेख अब्दुल्ला नही जिस पर पूरा काश्मीर जान देता हो। भारत मे कोई नेता नही जिसपर काश्मीरी जनता विश्वास करे। 
370 धारा के तहत कश्मीर भारत का राज्य बना ।जिसकी शर्ते लिखी थी। बाद मे वही पं. नेहरू को अपने सबसे प्रिय दोस्त को ,जिसको अपने पद के बराबरी का पद प्र. मंत्री . दिया था ,को 1953 मे जेल मे बंद करना
पड़ा और उनकी जगह बक्शी गुलाम मोहम्मद को प्र.मंत्री. बनाया। बक्शी वास्तव मे गुलाम थे। 
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=838251309857153&id=100010168745696

**********************************************************************

Jaya Singh
10 hrs ( 03-08-2019 ) 
1990 के दशक में कश्मीर घाटी में आतंकवाद के चरम के समय बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन किया. पहला तथ्य संख्या को लेकर. कश्मीरी पंडित समूह और कुछ हिन्दू दक्षिणपंथी यह संख्या चार लाख से सात लाख थी. लेकिन यह संख्या वास्तविक संख्या से बहुत अधिक है. असल में कश्मीरी पंडितों की आख़िरी गिनती 1941 में हुई थी और उसी से 1990 का अनुमान लगाया जाता है. इसमें 1990 से पहले रोज़गार तथा अन्य कारणों से कश्मीर छोड़कर चले गए कश्मीरी पंडितों की संख्या घटाई नहीं जाती. अहमदाबाद में बसे कश्मीरी पंडित पी एल डी परिमू ने अपनी किताब “कश्मीर एंड शेर-ए-कश्मीर : अ रिवोल्यूशन डीरेल्ड” में 1947-50 के बीच कश्मीर छोड़ कर गए पंडितों की संख्या कुल पंडित आबादी का 20% बताया है.(पेज़-244) चित्रलेखा ज़ुत्शी ने अपनी किताब “लेंग्वेजेज़ ऑफ़ बिलॉन्गिंग : इस्लाम, रीजनल आइडेंटीटी, एंड मेकिंग ऑफ़ कश्मीर” में इस विस्थापन की वज़ह नेशनल कॉन्फ्रेंस द्वारा लागू किये गए भूमि सुधार को बताया है (पेज़-318) जिसमें जम्मू और कश्मीर में ज़मीन का मालिकाना उन ग़रीब मुसलमानों, दलितों तथा अन्य खेतिहरों को दिया गया था जो वास्तविक खेती करते थे, इसी दौरान बड़ी संख्या में मुस्लिम और राजपूत ज़मींदार भी कश्मीर से बाहर चले गए थे. ज्ञातव्य है कि डोगरा शासन के दौरान डोगरा राजपूतों, कश्मीरी पंडितों और कुलीन मुसलमानों के छोटे से तबके ने कश्मीर की लगभग 90 फ़ीसद ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लिया था. (विस्तार के लिए देखें “हिन्दू रूलर्स एंड मुस्लिम सब्जेक्ट्स”, मृदु राय) इसके बाद भी कश्मीरी पंडितों का नौकरियों आदि के लिए कश्मीर से विस्थापन जारी रहा (इसका एक उदाहरण अनुपम खेर हैं जिनके पिता 60 के दशक में नौकरी के सिलसिले में शिमला आ गए थे) सुमांत्रा बोस अपनी किताब “कश्मीर : रूट्स ऑफ़ कंफ्लिक्ट, पाथ टू पीस” में यह संख्या एक लाख बताई है,( पेज़ 120) राजनीति विज्ञानी अलेक्जेंडर इवांस विस्थापित पंडितों की संख्या डेढ़ लाख से एक लाख साठ हज़ार बताते हैं, पारिमू यह संख्या ढाई लाख बताते हैं. सी आई ए ने एक रिपोर्ट में यह संख्या तीन लाख बताई है. एक महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर अनंतनाग के तत्कालीन कमिश्नर आई ए एस अधिकारी वजाहत हबीबुल्लाह कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के श्रीनगर से 7 अप्रैल, 2010 की प्रेस रिलीज़ के हवाले से बताते हैं कि लगभग 3000 कश्मीरी पंडित परिवार स्थितियों के सामान्य होने के बाद 1998 के आसपास कश्मीर से पलायित हुए थे. (देखें, पेज़ 79,माई कश्मीर : द डाइंग ऑफ़ द लाईट, वजाहत हबीबुल्ला). बता दूँ कि कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति इन भयानक स्थितियों के बाद भी कश्मीर से पलायित होने से इंकार करने वाले पंडितों का संगठन है. अब भी कोई साढ़े तीन हज़ार कश्मीरी पंडित घाटी में रहते हैं, बीस हज़ार से अधिक सिख भी हैं और नब्बे के दशक के बाद उन पर अत्याचार की कोई घटना नहीं हुई, हाँ हर आम कश्मीरी की तरह उनकी अपनी आर्थिक समस्याएं हैं.हाल में ही तीस्ता सीतलवाड़ ने उनकी मदद के लिए अपील जारी की थी. (http://indianculturalforum.in/…/humanitarian-appeal-for-th…/) साथ ही एक बड़ी समस्या लड़कों की शादी को लेकर है क्योंकि पलायन कर गए कश्मीरी पंडित अपनी बेटियों को कश्मीर नहीं भेजना चाहते.

गुजरात हो कि कश्मीर, भय से एक आदमी का भी अपनी ज़मीन छोड़ना भयानक है, लेकिन संख्या को बढ़ा कर बताना बताने वालों की मंशा तो साफ़ करता ही है.

2. उल्लिखित पुस्तक में ही परिमू ने बताया है कि उसी समय लगभग पचास हज़ार मुसलमानों ने घाटी छोड़ी. कश्मीरी पंडितों को तो कैम्पों में जगह मिली, सरकारी मदद और मुआवज़ा भी. लेकिन मुसलमानों को ऐसा कुछ नहीं मिला (देखें, वही) सीमा क़ाज़ी अपनी किताब “बिटवीन डेमोक्रेसी एंड नेशन” में ह्यूमन राईट वाच की एक रपट के हवाले से बताती हैं कि 1989 के बाद से पाकिस्तान में 38000 शरणार्थी कश्मीर से पहुँचे थे. केप्ले महमूद ने अपनी मुजफ्फराबाद यात्रा में पाया कि सैकड़ों मुसलमानों को मार कर झेलम में बहा दिया गया था. इन तथ्यों को साथ लेकर वह भी उस दौर में सेना और सुरक्षा बलों के अत्याचार से 48000 मुसलमानों के विस्थापन की बात कहती हैं. इन रिफ्यूजियों ने सुरक्षा बलों द्वारा, पिटाई, बलात्कार और लूट तक के आरोप लगाए हैं. अफ़सोस कि 1947 के जम्मू नरसंहार (विस्तार के लिए इंटरनेट पर वेद भसीन के उपलब्ध साक्षात्कार या फिर सईद नक़वी की किताब “बीइंग द अदर” के पेज़ 173-193) की तरह इस विस्थापन पर कोई बात नहीं होती.

3. 1989-90 के दौर में कश्मीरी पंडितों की हत्याओं के लेकर भी सरकारी आँकड़े सवा सौ और कश्मीरी पंडितों के दावे सवा छः सौ के बीच भी काफ़ी मतभेद हैं. लेकिन क्या उस दौर में मारे गए लोगों को सिर्फ़ धर्म के आधार पर देखा जाना उचित है.

परिमू के अनुसार हत्यारों का उद्देश्य था कश्मीर की अर्थव्यवस्था, न्याय व्यवस्था और प्रशासन को पंगु बना देने के साथ अपने हर वैचारिक विरोधी को मार देना था. इस दौर में मरने वालों में नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता मोहम्मद युसुफ़ हलवाई, मीरवायज़ मौलवी फ़ारूक़, नब्बे वर्षीय पूर्व स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी मौलाना मौदूदी, गूजर समुदाय के सबसे प्रतिष्ठित नेता क़ाज़ी निसार अहमद, विधायक मीर मुस्तफ़ा,श्रीनगर दूरदर्शन के डायरेक्टर लासा कौल, एच एम टी के जनरल मैनेज़र एच एल खेरा, कश्मीर विश्वविद्यालय के उपकुलपति प्रोफ़ेसर मुशीर उल हक़ और उनके सचिव अब्दुल गनी, कश्मीर विधान सभा के सदस्य नाज़िर अहमद वानी शामिल थे (वही, पेज़ 240-41)ज़ाहिर है आतंकवादियों के शिकार सिर्फ़ कश्मीरी पंडित नहीं, मुस्लिम भी थे. हाँ, पंडितों के पास पलायित होने के लिए जगह थी, मुसलमानों के लिए वह भी नहीं. वे कश्मीर में ही रहे और आतंकवादियों तथा सुरक्षा बलों, दोनों के अत्याचारों के शिकार होते रहे.

जगमोहन के कश्मीर में शासन के समय वहाँ के लोगों के प्रति रवैये को जानने के लिए एक उदाहरण काफी होगा. 21 मई 1990 को जब मौलवी फ़ारूक़ की हत्या के बाद जब लोग सड़कों पर आ गए तो वह एक आतंकवादी संगठन के ख़िलाफ़ थे लेकिन जब उस जुलूस पर सेना ने गोलियाँ चलाईं और भारतीय प्रेस के अनुसार 47 (और बीबीसी के अनुसार 100 लोग) गोलीबारी में मारे गए तो यह गुस्सा भारत सरकार के ख़िलाफ़ हो गया. (देखें, कश्मीर : इंसरजेंसी एंड आफ़्टर, बलराज पुरी, पेज़-68) गौकादल में घटी यह घटना नब्बे के दशक में आतंकवाद के मूल में मानी जाती है. इन दो-तीन सालों में मारे गए कश्मीरी मुसलमानों की संख्या 50000 से एक लाख तक है. श्रीनगर सहित अनेक जगहों पर सामूहिक क़ब्रें मिली हैं. आज भी वहाँ हज़ारो माएं और व्याह्ताएं “आधी” हैं – उनके बेटों/पतियों के बारे में वे नहीं जानती कि वे ज़िंदा हैं भी या नहीं, बस वे लापता हैं. https://thewire.in/…/the-plight-of-kashmirs-half-widows-an…/(आप तमाम तथ्यों के अलावा शहनाज़ बशीर का उपन्यास “द हाफ़ मदर” पढ़ सकते हैं. )

4. कश्मीर से पंडितों के पलायनों में जगमोहन की भूमिका को लेकर कई बातें होती हैं. पुरी के अनुसार जगमोहन को तब भाजपा और तत्कालीन गृह मंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद के कहने पर कश्मीर का गवर्नर बनाया गया था. उन्होंने फ़ारूक़ अब्दुल्ला की सरकार को बर्ख़ास्त कर सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिए थे. अल जज़ीरा को दिए एक साक्षात्कार में मृदु राय ने इस संभावना से इंकार किया है कि योजनाबद्ध तरीक़े से इतनी बड़ी संख्या में पलायन संभव है. लेकिन वह कहती हैं कि जगमोहन ने पंडितों को कश्मीर छोड़ने के लिए प्रेरित किया.
(http://www.aljazeera.com/…/kashmirtheforgottenconflict/2011…) वजाहत हबीबुल्लाह पूर्वोद्धरित किताब में बताते हैं कि उन्होंने जगमोहन से दूरदर्शन पर कश्मीरी पंडितों से एक अपील करने को कहा था कि वे यहाँ सुरक्षित महसूस करें और सरकार उनकी पूरी सुरक्षा उपलब्ध कराएगी. लेकिन जगमोहन ने मना कर दिया, इसकी जगह अपने प्रसारण में उन्होंने कहा कि “पंडितों की सुरक्षा के लिए रिफ्यूजी कैम्प बनाये जा रहे हैं, जो पंडित डरा हुआ महसूस करें वे इन कैम्पस में जा सकते हैं, जो कर्मचारी जायेंगे उन्हें तनख्वाहें मिलती रहेंगी.” ज़ाहिर है इन घोषणाओं ने पंडितों को पलायन के लिए प्रेरित किया. (पेज़ 86, मृदु राय ने भी इस तथ्य का ज़िक्र किया है). कश्मीर के वरिष्ठ राजनीतिज्ञ और पत्रकार बलराज पुरी ने अपनी किताब “कश्मीर : इंसरजेंसी एंड आफ़्टर” में जगमोहन की दमनात्मक कार्यवाहियों और रवैयों को ही कश्मीरी पंडितों के विस्थापन का मुख्य ज़िम्मेदार बताया है.(पेज़ 68-73). ऐसे ही निष्कर्ष वर्तमान विदेश राज्य मंत्री और वरिष्ठ पत्रकार एम जे अकबर ने अपनी किताब “बिहाइंड द वेल” में भी दिए हैं. (पेज़ 218-20) कमिटी फॉर इनिशिएटिव ऑन कश्मीर की जुलाई 1990 की रिपोर्ट “कश्मीर इम्प्रिजंड” में नातीपुरा, श्रीनगर में रह रहे एक कश्मीरी पंडित ने कहा है कि “इस इलाक़े के कुछ लोगों ने दबाव में कश्मीर छोड़ा. एक कश्मीरी पंडित नेता एच एन जट्टू लोगों से कह रहे थे कि अप्रैल तक सभी पंडितों को घाटी छोड़ देना है. मैंने कश्मीर नहीं छोड़ा, डरे तो यहाँ सभी हैं लेकिन हमारी महिलाओं के साथ कोई ऐसी घटना नहीं हुई.”18 सितम्बर, 1990 को स्थानीय उर्दू अखबार अफ़साना में छपे एक पत्र में के एल कौल ने लिखा – “पंडितों से कहा गया था कि सरकार कश्मीर में एक लाख मुसलमानों को मारना चाहती है जिससे आतंकवाद का ख़ात्मा हो सके. पंडितों को कहा गया कि उन्हें मुफ़्त राशन,घर, नौकरियाँ आदि सुविधायें दी जायेंगी. उन्हें यह कहा गया कि नरसंहार ख़त्म हो जाने के बाद उन्हें वापस लाया जाएगा.” मुआवज़े पर बात करना अमानवीय है, लेकिन हालाँकि ये वादे पूरे नहीं किये गए पर कश्मीरी विस्थापित पंडितों को मिलने वाला प्रति माह मुआवज़ा भारत में अब तक किसी विस्थापन के लिए दिए गए मुआवज़े से अधिक है. समय समय पर इसे बढ़ाया भी गया, आख़िरी बार उमर अब्दुल्ला के शासन काल में. आप गृह मंत्रालय की वेबसाईट पर इसे देख सकते हैं. बलराज पुरी ने अपनी किताब में दोनों समुदायों की एक संयुक्त समिति का ज़िक्र किया है जो पंडितों का पलायन रोकने के लिए बनाई गई थी. इसके सदस्य थे – पूर्व हाईकोर्ट जज मुफ़्ती बहाउद्दीन फ़ारूकी (अध्यक्ष), एच एन जट्टू (उपाध्यक्ष) और वरिष्ठ वक़ील ग़ुलाम नबी हग्रू (महासचिव). ज्ञातव्य है कि 1986 में ऐसे ही एक प्रयास से पंडितों को रोका गया था. लेकिन पुरी बताते हैं कि हालाँकि इस समिति की कोशिशों से कई मुस्लिम संगठनों, आतंकी संगठनों और मुस्लिम नेताओं से घाटी न छोड़ने की अपील की, लेकिन जट्टू ख़ुद घाटी छोड़कर जम्मू चले गए. बाद में उन्होंने बताया कि समिति के निर्माण और इस अपील के बाद जगमोहन ने उनके पास जम्मू का एयर टिकट लेकर भेजा जो अपनी जीप से उन्हें एयरपोर्ट छोड़ कर आया, उसने जम्मू में एक रिहाइश की व्यवस्था की सूचना दी और तुरंत कश्मीर छोड़ देने को कहा! ज़ाहिर है जगमोहन ऐसी कोशिशों को बढ़ावा देने की जगह दबा रहे थे. (पेज़ 70-71)

कश्मीरी पंडितों का पलायन भारतीय लोकतंत्र के मुंह पर काला धब्बा है, लेकिन यह सवाल अपनी जगह है कि क़ाबिल अफ़सर माने जाने वाले जगमोहन लगभग 400000 सैनिकों के बावज़ूद इसे रोक क्यों न सके? अपनी किताब “कश्मीर : अ ट्रेजेडी ऑफ़ एरर्स” में तवलीन सिंह पूछती हैं – कई मुसलमान यह आरोप लगाते हैं कि जगमोहन ने कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़ने के लिए प्रेरित किया. यह सच हो या नहीं लेकिन यह तो सच ही है कि जगमोहन के कश्मीर में आने के कुछ दिनों के भीतर वे समूह में घाटी छोड़ गए और इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि जाने के लिए संसाधन भी उपलब्ध कराये गए.”

ये बस कुछ तथ्य हैं, लेकिन इनके आधार पर आप चीज़ों का दूसरा चेहरा दिखा सकते हैं. 
एक सवाल और है – क्या कश्मीरी पंडित कभी घाटी में लौट सकेंगे?

अभी मै दो सवाल छोड़कर जा रहा हूँ –

क्या कश्मीरी पंडित घाटी लौटना चाहते हैं?
क्या दिल्ली और श्रीनगर चाहते हैं कि कश्मीरी पंडित घाटी में लौटें?

(लेखक इन दिनों “कश्मीरनामा : भविष्य की क़ैद में इतिहास” नामक किताब लिख रहे हैं)
सागर परिहार
सायान वसीम

बादल पंडित
साभार : 

https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=720554308384053&id=100012884707896


~विजय राजबली माथुर ©

Friday, August 2, 2019

एनडीटीवी इंडिया के मैनेजिंग एडिटर रवीश कुमार को 2019 का 'रैमॉन मैगसेसे' पुरस्कार ------ NDTV


These are the five recipients of Asia’s premier prize and highest honor, the 2019 Ramon Magsaysay Awardees.



नई दिल्ली: पत्रकारिता जगत में अपनी अलग पहचान बना चुके एनडीटीवी इंडिया के मैनेजिंग एडिटर  रवीश कुमार  को एक बार फिर सम्मानित किया गया है. इस बार उन्हें वर्ष 2019 के 'रैमॉन मैगसेसे' पुरस्कार से सम्मानित किया गया. एनडीटीवी के रवीश कुमार को ये सम्मान हिंदी टीवी पत्रकारिता में उनके योगदान के लिए मिला है. 'रैमॉन मैगसेसे' को एशिया का नोबेल पुरस्कार भी कहा जाता है. बता दें कि रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार एशिया के व्यक्तियों और संस्थाओं को उनके अपने क्षेत्र में विशेष रूप से उल्लेखनीय कार्य करने के लिए प्रदान किया जाता है. यह पुरस्कार फिलीपीन्स के भूतपूर्व राष्ट्रपति रैमॉन मैगसेसे की याद में दिया जाता है.
पुरस्कार संस्था ने ट्वीट कर बताया कि रवीश कुमार को यह सम्मान "बेआवाजों की आवाज बनने के लिए दिया गया है." रैमॉन मैगसेसे अवार्ड फाउंडेशन ने इस संबंध में कहा, "रवीश कुमार का कार्यक्रम 'प्राइम टाइम' 'आम लोगों की वास्तविक, अनकही समस्याओं को उठाता है." साथ ही प्रशस्ति पत्र में कहा गया, 'अगर आप लोगों की अवाज बन गए हैं, तो आप पत्रकार हैं.' रवीश कुमार ऐसे छठे पत्रकार हैं जिनको यह पुरस्कार मिला है. इससे पहले अमिताभ चौधरी (1961), बीजी वर्गीज (1975), अरुण शौरी (1982), आरके लक्ष्मण (1984), पी. साईंनाथ (2007) को यह पुरस्कार मिल चुका है.
एनडीटीवी के लिए ये एक गौरव का दिन है. रवीश कुमार ने बहुत लंबा सफर तय किया है. बहुत नीचे से उन्होंने शुरुआत की और यहां तक पहुंचे हैं. वर्ष 1996 से रवीश कुमार एनडीटीवी से जुड़े रहे हैं. शुरुआती दिनों में एनडीटीवी में आई चिट्ठियां छांटा करते थे. इसके बाद वो रिपोर्टिंग की ओर मुड़े और उनकी सजग आंख देश और समाज की विडंबनाओं को अचूक ढंग से पहचानती रही. उनका कार्यक्रम 'रवीश की रिपोर्ट' बेहद चर्चित हुआ और हिंदुस्तान के आम लोगों का कार्यक्रम बन गया.
बाद में एंकरिंग करते हुए उन्होंने टीवी पत्रकारिता की जैसे एक नई परिभाषा रची. इस देश में जिसे भी लगता है कि उसकी आवाज कोई नहीं सुनता है, उसे रवीश कुमार से उम्मीद होती है. टीवी पत्रकारिता के इस शोर-शराबे भरे दौर में उन्होंने सरोकार वाली पत्रकारिता का परचम लहराए रखा है. सत्ता के खिलाफ बेखौफ पत्रकारिता करते रहे. आज उनकी पत्रकारिता को एक और बड़ी मान्यता मिली है.


रवीश कुमार के अलावा वर्ष 2019 रैमॉन मैगसेसे अवार्ड के चार अन्य विजेताओं में म्यांमार से को स्वे विन, थाईलैंड से अंगखाना नीलापजीत, फिलीपींस से रेमुंडो पुजांते कैयाब और दक्षिण कोरिया से किम जोंग हैं.








साभार ::
https://khabar.ndtv.com/news/india/ndtvs-ravish-kumar-gets-ramon-magsaysay-award-2019-2079107
 ~विजय राजबली माथुर ©