Wednesday, June 30, 2010

रावण वध एक पूर्वनिर्धारित योजना ------ विजय राजबली माथुर

आज से दो अरब वर्ष पूर्व हमारी पृथ्वी और सूर्य एक थे.अस्त्रोनोमिक युग में सर्पिल,निहारिका,एवं नक्षत्रों का सूर्य से पृथक विकास हुआ.इस विकास से सूर्य के ऊपर उनका आकर्षण बल आने लगा .नक्षत्र और सूर्य अपने अपने कक्षों में रहते थे तथा ग्रह एवं नक्षत्र सूर्य की परिक्रमा किया करते थे.एक बार पुछल तारा अपने कक्ष से सरक गया और सूर्य के आकर्षण बल से उससे टकरा गया,परिणामतः सूर्य के और दो टुकड़े चंद्रमा और पृथ्वी उससे अलग हो गए और सूर्या की परिक्रमा करने लगे.यह सब हुआ कास्मिक युग में.ऐजोइक युग में वाह्य सतह छिछली अवस्था में,पृथ्वी का ठोस और गोला रूप विकसित होने लगा,किन्तु उसकी बहरी सतह अर्ध ठोस थी.अब भरी वायु –मंडल बना अतः पृथ्वी की आंच –ताप कम हुई और राख जम गयी.जिससे पृथ्वी के पप्ड़े का निर्माण हुआ.महासमुद्रों व महादीपों की तलहटी का निर्माण तथा पर्वतों का विकास हुआ,ज्वालामुखी के विस्फोट हुए और उससे ओक्सिजन निकल कर वायुमंडल में HYDROGEN से प्रतिकृत हुई जिससे करोड़ों वर्षों तक पर्वतीय चट्टानों पर वर्षा हुई तथा जल का उद्भव हुआ;जल समुद्रों व झीलों के गड्ढों में भर गया.उस समय दक्षिण भारत एक दीप था तथा अरब सागर –मालाबार तट तक विस्तृत समुद्र उत्तरी भारत को ढके हुए था;लंका एक पृथक द्वीप था.किन्तु जब नागराज हिमालय पर्वत की सृष्टि हुई तब इयोजोइक युग में वर्षा के वेग के कारन उससे अपर मिटटी पिघली बर्फ के साथ समुद्र ताल में एकत्र हुई और उसे पीछे हट जाना पड़ा तथा उत्तरी भारत का विकास हुआ.इसी युग में अब से लगभग तीस करोड़ वर्ष पूर्व एक कोशिए वनस्पतियों व बीस करोड़ वर्ष पूर्व एक कोशिए का उद्भव हुआ.एक कोशिकाएं ही भ्रूण विकास के साथ समय प्रत्येक जंतु विकास की सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं.सबसे प्राचीन चट्टानों में जीवाश्म नहीं पाए जाते,अस्तु उस समय लार्वा थे,जीवोत्पत्ति नहीं हुई थी.उसके बाद वाली चट्टानों में (लगभग बीस करोड़ वर्ष पूर्व)प्रत्जीवों (protojoa) के अवशेष मिलते हैं अथार्त सर्व प्रथम जंतु ये ही हैं.जंतु आकस्मिक ढंग से कूद कर(ईश्वरीय प्रेरणा के कारन)बड़े जंतु नहीं हो गए,बल्कि सरलतम रूपों का प्रादुर्भाव हुआ है जिन के मध्य हजारों माध्यमिक तिरोहित कड़ियाँ हैं.मछलियों से उभय जीवी (AMFIBIAN) उभय जीवी से सर्पाक (reptile) तथा सर्पकों से पक्षी (birds) और स्तनधारी (mamals) धीरे-धीरे विकास कर सके हैं.तब कहीं जा कर सैकोजोइक युग में मानव उत्पत्ति हुई।


अपने विकास के प्रारंभिक चरण में मानव समूहबद्ध अथवा झुंडों में ही रहता था.इस समय मनुष्य प्रायः नग्न ही रहता था,भूख लगने पर कच्चे फल फूल या पशुओं का कच्चा मांस खा कर ही जीवन निर्वाह करता था.कोई किसी की समपत्ति(asset) न थी,समूहों का नेत्रत्व मात्रसत्तात्मक (mother oriented) था.इस अवस्था को सतयुग पूर्व पाशान काल (stone age) तथा आदिम साम्यवाद का युग भी कहा जाता है.परिवार के सम्बन्ध में यह ‘अरस्तु’ के अनुसार ‘communism of wives’ का काल था (संभवतः इसीलिए मात्र सत्तामक समूह रहे हों).इस समय मानव को प्रकृति से कठोर संघर्ष करना पड़ता था.मानव के ह्रास –विकास की कहानी सतत संघर्षों को कहानी है.malthas के अनुसार उत्पन्न संतानों में आहार ,आवास,तथा प्रजनन के अवसरों के लिए –‘जीवन के लिए संघर्ष’ हुआ करता है जिसमे लेमार्क के अनुसार ‘व्यवहार तथा अव्यवहार’ के सिद्दंतानुसार ‘योग्यता ही जीवित रहती है’.अथार्त जहाँ प्रकृति ने उसे राह दी वहीँ वह आगे बढ़ गया और जहाँ प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीँ रुक गया.कालांतर में तेज बुद्धि मनुष्य ने पत्थर और काष्ठ के उपकरणों तथा शस्त्रों का अविष्कार किया तथा जीवन पद्धति को और सरल बना लिया.इसे ‘उत्तर पाशान काल’ की संज्ञा दी गयी.पत्थारोंके घर्षण से अग्नि का अविष्कार हुआ और मांस को भून कर खाया जाने लगा.धीरे धीरे मनुष्य ने देखा की फल खा कर फेके गए बीज किस प्रकार अंकुरित होकर विशाल वृक्ष का आकर ग्रहण कर लेते हैं.एतदर्थ उपयोगी पशुओं को अपना दास बनाकर मनुष्य कृषि करने लगा.यहाँ विशेष स्मरणीय तथ्य यह है की जहाँ कृषि उपयोगी सुविधाओं का आभाव रहा वहां का जीवन पूर्ववत ही था.इस दृष्टि से गंगा-यमुना का दोआबा विशेष लाभदायक रहा और यहाँ उच्च कोटि की सभ्यता का विकास हुआ जो आर्य सभ्यता कहलाती है और यह छेत्र आर्यावर्त.कालांतर में यह जाती सभ्य,सुसंगठित व सुशिक्षित होती गयी.व्यापर कला-कौशल और दर्शन में भी यह जाती सभ्य थी.इसकी सभ्यता और संस्कृति तथा नागरिक जीवन एक उच्च कोटि के आदर्श थे.भारतीय इतिहास में यह कल ‘त्रेता युग’ कें नाम से जाना जाता है और इस का समय ६५०० इ. पू. आँका गया है.आर्यजन काफी विद्वान थे.उन्होंने अपनी आर्य सभ्यता और संस्कृति का व्यापक प्रसार किया.इस प्रकार आर्य जाती और भारतीय सभ्यता संस्कृति गंगा-सरस्वती के तट से पशिम की और फैली.लगभग चार हजार वर्ष पश्चात् २५०० इ.पू.आर्यों ने सिन्धु नदी की घटी में एक सुद्द्रण एवं सुगठित सभ्यता का विकास किया.यही नहीं आर्य भूमि से स्वाहा और स्वधा के मन्त्र पूर्व की और भी फैले तथा आर्यों के संस्कृतिक प्रभाव से ही इसी समय नील और हवांग हो की घाटियों में भी समरूप सभ्यताओं का विकास हो सका.भारत से आर्यों किएक शाखा पूर्व में कोहिमा के मार्ग से चीन,जापान होते हुए अलास्का के रस्ते राकी पर्वत श्रेणियों में पहुच कर पाताल लोक(वर्तमान अमेरिका महाद्वीपों) में अपनी संस्कृति एवं साम्राज्य बनाने में समर्थ हुई.माय ऋषि के नेत्रतव में मायाक्षिको (मेक्सिको) तथा तक्षक ऋषि के नेत्रत्व में तक्शाज़ (टेक्सास) के आर्य उपनिवेश विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं कालांतर में कोलंबस द्वारा नयी दुनिया की खोज के बाद इन के वंशजों को red indians कहकर निर्ममता से नष्ट किया गया.


पशिम की और हिन्दुकुश पर्वतमाला को पार कर आर्य जाती आर्य नगर (ऐर्यान-ईरान)में प्रविष्ट हुई.कालांतर में यहाँ के प्रवासी आर्य,अ-सुर (सूरा न पीने के कारन)कहलाये.दुर्गम मार्ग की कठिनाइयों के कारन इनका अपनी मात्रभूमि आर्यावर्त से संचार –संपर्क टूट सा गया,यही हाल धुर-पशिम-जर्मनी आदि में गए प्रवासी आर्यों का हुआ.एतदर्थ प्रभुसत्ता को लेकर निकत्वर्ती प्रवासी-अ-सुर आर्यों से गंगा-सिन्धु के मूल आर्यों का दीर्घकालीन भीषण देवासुर संग्राम हुआ.हिन्दुकुश से सिन्धु तक भारतीय आर्यों के नेत्रत्व एक कुशल सेनानी इंद्र कर रहा था.यह विधुत शास्त्र का प्रकांड विद्वान और hydrojan बम का अविष्कारक था.इसके पास बर्फीली गैसें थीं.इसने युद्ध में सिन्धु-छेत्र में असुरों को परस्त किया,नदियों के बांध तोड़ दिए,निरीह गाँव में आग लगा दी और समस्त प्रदेश को पुरंदर (लूट) लिया.यद्यपि इस युद्ध में अंतिम विजय मूल भारतीय आर्यों की ही हुई और सभी प्रवासी(अ-सुर) आर्य परंग्मुख हुए.परन्तु सिन्धु घटी के आर्यों को भी भीषण नुकसान हुआ।


आर्यों ने दक्षिण और सुदूर दक्षिण पूर्व की अनार्य जातियों में भी संस्कृतिक प्रसार किया.आस्ट्रेलिया (मूल द्रविड़ प्रदेश)में जाने वाले संस्कृतिक दल का नेत्रत्व पुलस्त्य मुनि कर रहे थे.उन्होंने आस्ट्रेलिया में एक राज्य की स्थापना की (आस्ट्रेलिया की मूल जाती द्रविड़ उखड कर पशिम की और अग्रसर हुई तथा भारत के दक्षिणी -समुद्र तटीय निर्जन भाग पर बस गयी.समुद्र तटीय जाती होने के कारन ये-निषाद जल मार्ग से व्यापर करने लगे,पशिम के सिन्धी आर्यों से इनके घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध हो गए.) तथा लंका आदि द्वीपों से अच्छे व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए उनकी मृत्यु के पश्चात् रजा बन्ने पर उन के पुत्र विश्र्व मुनि की गिद्ध दृष्टि लंका के वैभव की ओरे गयी.उसने लंका पर आक्रमण किया और रजा सोमाली को हराकर भगा दिया(सोमाली भागकर आस्ट्रेलिया के निकट एक द्वीप 'पोस्ट नेक्स्ट इन कोन्तिनुएद बे' उसी के नाम पर सोमालिया कहलाता है.)इस साम्राज्यवादी लंकेश्वर के तीन पुत्र थे-कुबेर,रावण,और विभीषण -ये तीनों परस्पर सौतेले भाई थे.पिता की म्रत्यु के पश्चात् तीनों में गद्दी के लिए संघर्ष हुआ.अंत में रावण को सफलता मिली.(आर्यावर्त से परे दक्षिण के ये आर्य स्वयं को रक्षस - राक्षस आर्यावर्त और आर्य संस्कृति की रक्षा करने वाले ,कहते थे;परन्तु रावण मूल आर्यों की भांति सूरा न पीकर मदिरा का सेवन करता था इसिलए वह भी अ-सुर अथार्त सूरा न पीने वाला कहलाया)विभीषण ने धैर्य पूर्वक रावण की प्रभुसत्ता को स्वीकार किया तथा उस का विदेश मंत्री बना और कुबेर अपने पुष्पक विमान द्वारा भागकर आर्यावर्त चला आया.प्रयाग के भरद्वाज मुनि उसके नाना थे.उनकी सहायता से वेह स्वर्गलोक (वर्तमान हिमांचल प्रदेश) में एक राज्य स्थापित करने में सफल हुआ.किन्तु रावण ने चैन की साँस न ली,वह कुबेर के पीछे हाथ धो कर पढ़ गया था.उसने दक्षिण भारत पर आक्रमण किया अनेक छोटे छोटे राजाओं को परस्त करता हुआ वह राम को भेंट किया राम सेता.और लक्ष्मण को गनगा पर राज्य कि सीमा तक चोदने मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य सुमंत विदेश मंत्री को भेजा गया अब राम के राष्ट्रीय कार्य कलापों का श्री गणेश हुआ सर्वप्रथम तो आर्यावर्त के प्रथम डिफेंस सन्तेरे प्रयाग.में भरद्वाज ऋषि के आश्रम पर राम ने उस राष्ट्रीय योजना का अध्ययन किया जिसके अनुसार उन्हें रावन.का वध करना था भरद्वाज,ऋषि,आदि १६ प्रमुख जनपद थे.कहा जाता है की एक बार रावण ईरान,कंधार आदि को जीतता हुआ पात्र राज्य वर्तमान गंधार प्रदेश(रावलपिंडी के निकट जो अब पाकिस्तान में है) तक पहुच गया.यही राज्य स्वर्गलोक (हिमाचल प्रदेश) अंतिम सीढ़ी (आर्य राज्य) था.किन्तु रावण इस सीढ़ी को बनवा (जीत) न सका.कैकेय राज्य को सभी शक्तिशाली राज्यों से सहायता मिल रही थी.उधर का के प्रवासी अ-सुर आर्यों से आर्यावर्त के आर्यों का वनवास चल ही रहा था राम रावण को उनका समर्थन प्राप्त कर सहज और स्वाभाविक था.अतः दे भू पर ही खूब जम कर देवासुर संग्राम हुआ.इस संघर्ष में कोशल नरेश दशरथ ने अमित योग दिया.उन्हीं का सीम शौर्य पराक्रम से किका राज्य की स्वतंत्रता मोहर रही और अंतिम को वापस लौटना पड़ा जिसका उसे म्रत्यु पर्यंत खेद राज्य वरदानों में आस्तःगित अवसर पर प्रथम तो भारत के लिए राज्य व द्वितीय राम के लिए;को १४ वर्ष कि अवधि के लिए दिलाने के लिए भड़काया जिसमे उन्हें सफलता मिल कैकयी इसप्रकार दशरथ कि मौन स्वीक्रति दिलाकर।


बस यहीं से रावण के वध के निमित्त योजना तैयार की जाने लगी.कुबेर के नाना भरद्वाज ऋषि ने आर्यावर्त के समस्त ऋषियों की एक आपातकालीन बैठक प्रयाग में बुलाई.दशरथ के प्रधान मंत्र वशिष्ठ मुनि भी विशेष आमंत्रण से इस सभा में भाग लेने गए थे.ऋषियों ने एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया जिसके अनुसार जो दशरथ का प्रथम पुत्र उत्पन्न हो उसका नामकरण ‘राम’हो तथा उसे राष्ट्र रक्षा के लिए १४ वर्ष का वनवास करके रावण के साम्राज्यवादी इरादों को नेस्तनाबूत करना था.इस योजना को आदि कवी वाल्मीकि ने जो इस सभा राम के विवाह,के दो वर्ष पश्चात् प्रधानमंत्री वशिष्ठ ने दरबार.संसद में रजा को उनकी वृद्धावस्था का आभास कराया और राम को उत्तराधिकार सौपकर अवकाश प्राप्त करने कि ओरे संकेत दिया रजा ने संसद के इस प्रस्ताव ग्रहण स्वागत.किया सहर्ष ही दो दिवस कि अल्पावधि में पद त्याग करने कि घोषणा कि एक ओरे तो राम के.राज्याभिषेक शपथ ग्रहण समारोह कि जोर शोरे.से तैय्यारियाँ आरंभ हो गयीं तो दूसरी (ओरे-प्रधान-मंत्र)ने राम को सत्ता से प्रथक रखने कि साजिश शुरू कि मंत्र को माध्यम बना कर।


सौभाग्यवश दशरथ के चार पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः राम,भारत,लक्ष्मण,शत्रुहन ऋषियों की योजना के अनुरूप ही वशिष्ठ ने रखे.राम और लक्ष्मण को कुछ बड़े होने पर युद्ध,दर्शन,और राष्ट्रवादी धार्मिकता की की दीक्षा देन एके लिए विश्वामित्र अपने आश्रम ले गए.उन्होंने राम को उन के निमित्त तैयार ऋषियों की राष्ट्रिय योजना का परिज्ञान कराया तथा युद्ध एवं दर्शन की शिक्षा दी.आर्यावर्त की यौर्वात्य और पाश्चात्य दो महान शक्तियों में चली आरही कुल्गत शत्रुता का अंत करने के उद्देश्य से विश्वमित्र राम और लक्ष्मण को अपने साथ जनक की पुत्री sita के स्वयंवर में मिथिला ले गए.उन्होंने राम को ऋषि योज्नानुकूल जनक का धनुष तोड़ेने की प्रतिज्ञ का परिज्ञान कराकर उसे तोड़ेने की तकनिकी कला समझा दी.इस प्रकार राम-सीता के विवाह द्वारासमास्त आर्यावर्त एकता के सूत्र में आबद्ध हो गया।
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राम के विवाह के दो वर्ष पश्चात् प्रधानमंत्री वशिष्ठ ने दरबार (संसद) में राजा को उनकी वृद्धावस्था का आभास कराया और राम को उत्तराधिकार सौपकर अवकाश प्राप्त करने कि ओर संकेत दिया.राजा ने संसद के इस प्रस्ताव का स्वागत किया;सहर्ष ही दो दिवस की अल्पावधि में पद त्याग करने कि घोषणा कि.एक ओर तो राम के राज्याभिषेक (शपथ ग्रहण समारोह) कि जोर शोर से तैय्यारियाँ आरंभ हो गयीं तो दूसरी ओर प्रधान मंत्री ने राम को सत्ता से प्रथक रखने कि साजिश शुरू की.मन्थरा को माध्यम बना कर कैकयी को आस्थगित वरदानों में इस अवसर पर प्रथम तो भरत के लिए राज्य व द्वितीय राम के लिए वनवास १४ वर्ष कि अवधि के लिए,दिलाने के लिए भड़काया,जिसमे उन्हें सफलता मिल गयी.इसप्रकार दशरथ की मौन स्वीक्रति दिलाकर राज्य की अंतिम मोहर दे कर राम-वनवास का घोषणा पात्र राम को भेंट किया.राम,सेता और लक्ष्मण को गनगा पर (राज्य कि सीमा तक) छोड़ने मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य सुमंत (विदेश मंत्री) को भेजा गया. अब राम के राष्ट्रीय कार्य-कलापों का श्री गणेश हुआ.सर्वप्रथम तो आर्यावर्त के प्रथम डिफेंस सेण्टर प्रयाग में भरद्वाज ऋषि के आश्रम पर राम ने उस राष्ट्रीय योजना का अध्ययन किया जिसके अनुसार उन्हें रावन का वध करना था.भरद्वाज ऋषि ने राम को कूटनिति की प्रबल शिक्षा दी.क्रमशः अग्रिम डिफेंस सेंटरों (विभिन्न ऋषियों के आश्रमों) का निरिक्षण करते हुए राम ने पंचवटी में अपना दूसरा शिविर डाला जो आर्यावर्त से बाहर व-नर प्रदेश में था जिस पर रावण के मित्र बाली का प्रभाव था.चित्रकूट में राम को अंतिम सलूट दे कर पुनीत कार्य के लिए विदा दे दी गयी थी.अतः अब राम ने अस्त्र (शस्त्र भी) धारण कर लिया था .पंचवटी में रहकर उन का कार्य प्रतिपक्षी को युद्ध के लिए विवश करना था.यहाँ रहकर उन्होंने लंका के विभिन्न गुप्तचरों तथा एजेंटों का वध किया.इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर राष्ट्रद्रोही जयंत का गर्व चूर किया खर-दूषण नमक रावन के दो बंधुओं का सर्वनाश किया.सतत अपमान के समाचारों कोप प्राप्त करते-करते रावण का खून खोलने लगा उसने अपने मामा को (जो भांजे के प्रति भक्ति न रखकर स्वर्थान्ध्तावश विदेशियों के प्रति लोभ्पूर्ण आस्था रखता था) राम के पास जाने का आदेश दिया और स्वयं वायुयान द्वारा गुप्तरूप से पहुँच गया.राम को मारीच की लोभ-लोलुपता तथा षड्यंत्र की सूचना लंका स्थित उनके गुप्तचर ने बे-तार के तार से दे दी थी अतः उन्होंने मारीच को दंड देने का निश्चय किया.वह उन्हें युद्ध में काफी दूर ले गया तथा छल से लक्ष्मण को भी संग्राम में भाग लेने को विवश किया.अब रावन ने भिक्छुक के रूप में जा कर सीता को लक्ष्मण द्वारा की गयी इलेक्ट्रिक वायरिंग (लक्ष्मण रेखा) से बहार आकर दान देने के लिए विवश किया और उनका अपहरण कर विमान द्वारा लंका ले गया ।
जब राम लक्ष्मण के साथ मारीच का वध कर के लौटे तो सीता को न पाकर और संवाददाता से पूर्ण समाचार पाकर राम ने अपने को भावी लक्ष्य की पूर्ती में सफल समझा.अब उन्हें उप्निवेशाकंक्षी रावन के साम्राज्यवादी समझबूझ के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का मार्ग तो मिल गया था,किन्तु जब तक बाली- रावण friendly aliance था लंका पर आक्रमण करना एक बड़ी मूर्खता थी,यद्ध्यापी अयोध्या में शत्रुहन के नेत्रत्व में समस्त आर्यावर्त की सेना उन की सहायता के लिए तैयार कड़ी थी.अतः बाली का पतन करना अवश्यम्भावी था.उसका अनुज सुग्रीव राज्याधिकार हस्तगत करने को लालायित था.इसलिए उसने सत्ता प्राप्त करने के पश्चात् रावन वध में सहायता करने का वचन दिया.राम ने सुग्रीव का पक्ष ले कर बाली को द्वन्द युद्ध में मार डाला क्योंकि यदि राम (अवध से सेना बुलाकर उसके राज्य पर)प्रत्यक्ष आक्रमण करते तो बाली का बल दो-गुना हो जाता.(बाली रावण friendly allaince के अनुसार केवल बाली ही नहीं,बल्कि रावण की सेना से भी भारत भू पर ही युद्ध करना पड़ता) जो किसीभी हालत में भारत के हित में न था.यह आर्यावर्त की सुरक्षा के लिए संघातक सिद्ध होता.राम को तो साम्राज्यवादियों के घर में ही उन को नष्ट करना था.उनका उद्देश्य लंका को आर्यावर्त में मिलाना नहीं था.अपितु भारतीय राष्ट्रीयता को एकता के सूत्र में आबद्ध करने के पश्चात् राम का अभीष्ट लंका में ही लंका वालों का ऐसा मंत्रिमंडल बनाना था जो आर्यावर्त के साथ  सहयोग कर सके.विभीषण तो रावन का प्रतिद्वंदी था ही,अतः राम ने उसे अपनी ओर तोड़ेने के लिए Airmarshal(पवन-सूत) हनुमान को अपना दूत बनाकर गुप्त रूप से लंका भेजा.उन्हें यह निर्देश था की यदि समझौता हो जाता है तो वह रावण के सामने अपने को अवश्य प्रकट कर देना .किन्तु हनुमान की Diplomacy यह है की उन्होंने रावण दरबार में बंदी के रूप में उपस्थित होने पर स्वयं को राम का शांती दूत बताया.इसी आधार पर विभीषण ने (जो सत्ता पिपासु हो कर भाई के प्रति विश्वासघात कर रहा था) अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक नियमों की आड़ में हनुमान को मुक्त करा दिया.परन्तु रावण के निर्देशानुसार लंका की वायु सेना ने लौट ते हुए हनुमान के यान की पूँछ पर प्रहार किया.कुशलता पूर्वक अत्मरक्षित हो कर हनुमान ने लंका में अग्नि बमों (नेयाम बमों) की वर्षा कर सेना का विध्वंस किया जिससे लंका का वैभव नष्ट हो गया तथा सैन्य शक्ति जर्जर हो गयी.रावन ने संसद ( दरबार) में विभीषण पर राजद्रोह का अभियोग लगाकर मंत्रिमंडल से निष्कासित कर दिया।
लंका को जर्जर और खोखला बनाकर राम ने जब आक्रमण किया तो इसकी घोषणा सुनते ही मौके पर विभीषण अपने समर्थकों सहित राम की शरण में चला आया.राम ने उसी समय उसे रावण का उत्तराधिकारी घोषित किया और राज्याभिषेक भी कर दिया.इस प्रकार पारस्परिक द्वेष और फूट - मतता  के कारन वैभवशाली एवं सम्रद्ध लंका साम्राज्य का पतन और रावण का अंत हुआ.लंका में विभीषण की सरकार स्थापित हुई जिसने आर्यावर्त की अधीनता तथा राम को कर देना विवशता पूर्वक स्वीकार किया.लंका को आर्यावर्त के अधीन करदाता राज्य बनाकर राम ने किसी साम्राज्य की स्थापना नहीं की बल्कि उन्होंने राष्ट्रवाद की स्थापना कर आर्यावर्त में अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता की सुद्द्रण नींव डाली.
सीता लंका से मुक्त हो कर स्वदेश लौटीं.इस पारकर रावण वध का एकमात्र कारन सीता हरण नहीं कहा जा सकता,बल्कि ‘रावन वध’भारतीय ऋषियों द्वारा नियोजित एवं पूर्व निर्धारित योजना थी;उसका सञ्चालन राष्ट्र के योग्य,कर्मठ एवं राजनीती निपुण कर्णधारों के हाथ में था जिसकी बागडोर कौशल-नरेश राम ने संभाली.राम के असीम त्याग,राष्ट्र-भक्ति और उच्चादर्शों के कारन ही आज हम उनका गुण गान करते हैं-मानो ईश्वर इस देश की रक्षा के लिए स्वयं ही अवतरित हुए थे।
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Thursday, June 17, 2010

दंतेवाडा त्रासदी - समाधान क्या है? --- विजय राजबली माथुर

समय करे नर क्या करे,समय बड़ा बलवान.
असर गृह सब पर करे ,परिंदा पशु इनसान


मंगल वार ६ अप्रैल के भोर में छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा में ०३:३० प्रात पर केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल पर नक्सलियों का जो हमला हुआ उसमें ७६ सुरक्षाबल कर्मी और ८ नक्सलियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.यह त्रासदी समय कि देन है.हमले के समय वहां मकर लग्न उदित थी और सेना का प्रतीक मंगल-गृह सप्तम भाव में नीच राशिस्थ था.द्वितीय भाव में गुरु कुम्भ राशिस्थ व नवं भाव में शनि कन्या राशिस्थ था.वक्री शनि और गुरु के मध्य तथा गुरु और नीचस्थ मंगल के मध्य षडाष्टक योग था.द्वादश भाव में चन्द्र-रहू का ग्रहण योग था.समय के यह संकेत रक्त-पात,विस्फोट और विध्वंस को इंगित कर रहे थे जो यथार्थ में हो कर रहा.विज्ञानं का यह नियम है कि,हर क्रिया की  प्रति क्रिया होती है.यदि आकाश मंडल में ग्रहों की इस क्रिया पर शासन अथवा जनता के स्तर से प्रतिक्रिया ग्रहों के अरिष्ट शमन की हुई होती तो इतनी जिन्दगियों को आहुति न देनी पड़ती।
जबहम जानते हैंकि तेज धुप या बारिश होने वाली है तो बचाव में छाते का प्रयोग करते हैं.शीत प्रकोप में ऊनी वस्त्रों का प्रयोग करते हैं तब जानबूझकर भी अरिष्ट ग्रहों का शमन क्यों नहीं करते? नहीं करते हैं तभी तो दिनों दिन हमें अनेकों त्रासदियों का सामना करना पड़ता है.जाँच-पड़ताल,लीपा – पोती ,खेद –व्यक्ति ,आरोप प्रत्यारोप के बाद फिर वाही बेढंगी चल ही चलती रहेगी.सरकारी दमन और नक्सलियों का प्रतिशोध और फिर उसका दमन यह सब क्रिया-प्रतिक्रिया सदा चलती ही रहेगी.तब प्रश्न यह है कि समाधान क्या है?महात्मा बुद्द के नियम –दुःख है! दुःख दूर हो सकता है!! दुःख दूर करने के उपाय हैं!!! दंतेवाडा आदि नक्सली आन्दोलनों का समाधान हो सकता है सर्वप्रथम दोनों और की हिंसा को विराम देना होगा फिर वास्तविक धर्म अथार्त सत्य,अहिंसा,अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रहाम्चार्य का वस्तुतः पालन करना होगा.
सत्य-सत्य यह है कि गरीब मजदूर-किसान का शोषण व्यापारी,उद्योगपति,साम्राज्यवादी सब मिलकर कर रहे हैं.यह शोषण अविलम्ब समाप्त किया जाये.
अहिंसा-अहिंसा मनसा,वाचा,कर्मना होनी चाहिए.शक्तिशाली व सम्रद्द वर्ग तत्काल प्रभाव से गरीब किसान-मजदूर का शोषण और उत्पीडन बंद करें.
अस्तेय-अस्तेय अथार्त चोरी न करना,गरीबों के हकों पर डाका डालना व उन के निमित्त सहयोग –निधियों को चुराया जाना ताकल प्रभाव से बंद किया जाये.कर-अप्बंचना समाप्त की जाये.
अपरिग्रह-जमाखोरों,सटोरियों,जुअरियों,हवाला व्यापारियों,पर तत्काल प्रभाव से लगाम कासी जाये और बाज़ार में मूल्यों को उचित स्तर पर आने दिया जाये.कहीं नोटों को बोरों में भर कर रखने कि भी जगह नहीं है तो अधिकांश गरीब जनता भूख से त्राहि त्राहि कर रही है इस विषमता को तत्काल दूर किया जाये.
ब्रह्मचर्य -धन का असमान और अन्यायी वितरण ब्रहाम्चार्य व्यवस्था को खोखला कर रहा हैऔर इंदिरा नगर लखनऊ के कल्याण अपार्टमेन्ट जैसे अनैतिक व्यवहारों को प्रचलित कर रहा है.अतः आर्थिक विषमता को अविलम्ब दूर किया जाये.
चूँकि हम देखते हैं कि व्यवहार में धर्मं का कहीं भी पालन नहीं किया जा रहा है इसीलिए तो आन्दोलनों का बोल बाला हो रहा है. दंतेवाडा त्रासदी खेदजनक है किन्तु इसकी प्रेरणा स्त्रोत वह सामाजिक दुर्व्यवस्था है जिसके तहत गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर होता जा रहा है.कहाँ हैं धर्मं का पालन कराने वाले?पाखंड और ढोंग तो धर्मं नहीं है,बल्कि यह ढोंग और पाखण्ड का ही दुष्परिनाम है कि शोषण और उत्पीडन की घटनाएँ बदती जा रही हैं.जब क्रिया होगी तो प्रतिक्रिया होगी ही.

शुद्द रहे व्यवहार नहीं,अच्छे आचार नहीं.
इसीलिए तो आज ,सुखी कोई परिवार नहीं.


समय का तकाजा है कि हम देश,समाज ,परिवार और विश्व को खुशहाल बनाने हेतु संयम पूर्वक धर्म का पालन करें.झूठ ,ढोंग-पाखंड की प्रवृत्ति को त्यागें और सब के भले में अपने भले को खोजें.

यदि करम खोटें हैं तो प्रभु के गुण गाने से क्या होगा?
किया न परहेज़ तो दवा खाने से क्या होगा?

आईये मिलकर संकल्प करें कि कोई किसी का शोषण न करे,किसी का उत्पीडन न हो,सब खुशहाल हों.फिर कोई दंतेवाडा सरीखी त्रासदी भी नहीं दोहराएगी.

Monday, June 14, 2010

गाँधी जी की हत्या –साम्राज्यवादी साजिश


१५ अगस्त,१९४७ को प्राप्त राजनितिक आज़ादी और ३० जन.१९४८ को गाँधी जी की हत्या को सांप्रदायिक देन बताया जाता है. परन्तु भारत से बर्मा को १९३५ में अलग किये जाने के बाद नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के वक्तव्य की मीमांसा की जाये तो स्पष्ट हो जायेगा की भारत-विभाजन और गाँधी जी की हत्या दोनों ही साम्राज्यवादी साजिश के परिणामस्वरूप घटित घटनाएँ हैं.नेता जी सुभाष ने स्पष्ट कहा था कि जिस प्रकार आयेरलैंड से अलस्टर को अलग किया गया था उसी प्रकार बर्मा को भारत से अलग किया गया है और यह आने वाले समय में देश का खंडन किये जाने का संकेत है.खेद की बात है कि क्योंकि स्वयं गाँधी जी ही नेता जी के विरोधी थे;इसलिए नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की बात को गंभीरता से नहीं लिया गया. नेता जी बोस की बात को समझने के लिए इतिहास को पलट कर देखने की आवश्यकता है. १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मराठों ने मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर के नेतृत्व  में अंग्रेजों के छक्के छुडाये थे. रानी विक्टोरिया के अधीन शासन सँभालने के बाद पहले पहल ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपनी नीव मज़बूत करने हेतु भारत में मुस्लिमों का दमन किया और वे आर्थिक-शैक्षिक क्षेत्र में पीछे हो गए.लेकिन आज़ादी के आन्दोलनों में मुस्लिम बढ़ चढ़ कर भाग लेते रहे.१९०५ में धार्मिक आधार  पर बंगाल का विभाजन कर मुस्लिमों को अलग करने की चाल चली गयी.बंग-भंग को रद्द करने हेतु जार्ज पंचम को भारत आना पड़ा. शातिर दिमाग साम्राज्यवादियों ने १९२० में ढाका के नवाब को मोहरा बना कर मुस्लिम लीग की स्थापना करायी.साम्राज्यवादी शासकों की प्रेरणा से ही १९२५ में हिन्दू महासभा तथा आर एस.एस. का गठन किया गया और खुलकर धार्मिक वैमनस्य का खेल खेला गया .भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन भी इसी साजिश का शिकार हुआ और १९४० में पहली बार पाकिस्तान के निर्माण की बात सामने आई.दूसरे विश्व युद्ध के दौरान नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने आई.अन.ए .के माध्यम से ब्रिटिश सरकार से सेन्य संघर्ष किया जिस के परिणाम स्वरुप वायु सेना व नौ सेना में भी विदेशी सरकार के प्रति छुट-पुट बगावत हुई.अतः घबरा कर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारत का विखंडन कर पाकिस्तान व भारत दो स्वतंत्र देशों का निर्माण कर दिया.पाकिस्तान में तो साम्राज्यवादी अपने पसंद की सरकारें गठित करने में कामयाब हो जाते हैं,परन्तु भारत में साम्राज्यवादी पूरे कामयाब नहीं हो पाते  हैं.गाँधी जी की हत्या पाकिस्तान को अनुदान दिए जाने की गाँधी जी की सिफारिश के विरोध में की गयी-ऐसा हत्यारे ने अपने मुक़दमे के दौरान कहा.आशय साफ था देश में पुनः सांप्रदायिक तनाव पैदा कर विकास को अवरुद्ध किया जाना. तमाम साम्राज्यवादी सांप्रदायिक साजिशों के भारत आज प्रगति पथ पर अग्रसर तो है,परन्तु इसका लाभ सामान रूप से सभी देश वासियों को प्राप्त नहीं है.सामाजिक रूप से इंडिया और भारत में अंतर्द्वंद चल रहा है और यह साम्राज्यवादियों की साजिश का ही हिस्सा है.आज आवश्यकता है भारत-विभाजन और गाँधी जी की हत्या को साम्राज्यवादियों की साजिश का परिणाम स्वीकार कर लेने की तथा देश के आर्थिक विकास में उत्पन्न असमानता को दूर करने की ,वर्ना साम्राज्यवादी शक्तियां भारत को अन्दर से खोखला करने हेतु विद्द्वेश के बीज बोती रहेंगी और नफरत के शोले भड़कते रहेंगे और इस प्रकार का विकास बेमानी ही रहेगा.जिसका लाभ देश की अधिकांश जनता को नहीं,कुछ मुट्ठी भर लोगों को ही मिलता रहेगा.जनतंत्र में देश के विकास का लाभ जनता को दिलाना है तो साम्राज्यवादी साजिशों को विफल करना ही होगा .इसके लिए आज की पीढ़ी और नौजवानों को जागरूक करना ही होगा.साथ ही साथ साम्यवाद का चोला ओढ़े छुपे जातिवादी सांप्रदायिक तत्वों से भी सतर्क रहना होगा। 


(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

Friday, June 4, 2010

ढोंग पाखण्ड जिंदाबाद !तो नहीं ख़तम होगा आतंकवाद!!

६ अप्रैल से दंतेवाड़ा से प्रारंभ हुआ नक्सली आतंकवाद लगातार बढ़ता जा रहा है.नक्सली और सैन्य बल कर्मी दोनों भारत माँ की संतानें हैं और एक दुसरे के खून की प्यासी हो रही हैं.नक्सलियों को वायुसेना के प्रहार से नष्ट करने की मांग ज़ोर पकड़ रही है परन्तु नक्सलवाद के उभार के जो कारण हैं उन्हें दूर करने की मांग दबाई जा रही है.अभी २ मई से २३ जुलाई तक गुरु मीन राशी में रहकर शनि से सम-सप्तक योग बना रहा है-यह जन साधारण के हित में नहीं है;चाहे लैला नमक समुद्री तूफ़ान हो या छत्तीस गढ़ का नक्सली आन्दोलन,पिसना गरीब जनता को ही पद रहा है.सरकारी दमन से नक्सलवाद को कुछ समय के लिए दबाया तो जा सकता है परन्तु सदा के लिए समाप्त नहीं किया जा सकता.यह छोटी सी बात सरकार चलने वाले या सरकार की आलोचना करने वाले नेतागण नहीं समझ रहे हैं या जानबूझ कर नहीं समझना चाह रहे हैं यह शोध का विषय नहीं है.स्पष्ट है की लोकतान्त्रिक सरकार जनता की,जनता द्वारा और जनता के लिए सैद्दांतिक अवधारणा मात्र है.वस्तुतः सरकार बनाने और चलाने में धनाढ्य और साफ साफ कहा जाये तो पूंजीपति वर्ग का हाथ रहता है जो जन साधारण के हित की बात सोच ही नहीं सकता। स्वाभाविक रूप से पूजीपति वर्ग से प्रभावित सरकारें चाहे वे जिस भी दल की हों पूंजीपति वर्ग का ही हित साधन सोच व संपन्न कर सकती हैं.तंत्र पर जन नहीं प्रभावी है बल्कि जन पर तंत्र हावी है.ऐसे में यदि जन साधारण अपने हक़ और हुकूक की बात करता है तो उसे अनसुना करदिया जाता है तभी नक्सलवाद जन को प्रभावित कर ले जाता है.नक्सलवाद कोई सिरफिरे देशद्रोही नौजवानों का खेल नहीं है जैसा की किसी मुख्यमंत्री ने आरोप लगाया है।
नक्सलवाद १९६७ में बंगाल के सिलिगुरी के निकट नक्सलबारी से शुरू हुआ था.१९६९ में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से अलग होकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिन वादी) का गठन करने वाले नेताओं और उनके विभाजित अनुयाइयों द्वारा संचालित सशस्त्र आन्दोलन ही नक्सलवाद है.१९६४ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन से भाकपा (M) का गठन हुआ था जबकि भाकपा का गठन १९२५ में कानपूर में हुआ था जिसको गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे उद्भट विद्वान का समर्थन प्राप्त था.१९१७ में रूस में लेनिन के नेत्रत्त्व में कम्युनिस्ट सरकार की स्थापना से प्रभावित हो कर भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के उद्भट और कर्मठ नेताओं ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की थी.१९२५ में ही स्थापित आर.एस.एस.(जो साम्राज्यवादियों से समर्थन प्राप्त था) का राजनैतिक संगठन तो ६ वर्ष तक केंद्र सरकार का नेत्रत्त्व करने में कामयाब रहा परन्तु कम्युनिस्ट आन्दोलन बिखरते बिखरते जनता से दूर हो गया.तमाम विद्वानों,बुद्दिजीवियों,लेखकों,कवियों,रंगकर्मियों समर्थन प्राप्त होने के बावजूद भी कम्युनिस्ट आम जनता को प्रभावित करने में असमर्थ रहे इसीलिए जनता और सत्ता से दूर रहे.पश्चिम बंगाल और केरल में वाम मोर्चा की सरकारें प्रचलित तंत्र और ढर्रे पर ही चलीं.चूंकि वे कोई क्रांतिकारी कदम उठा ही नहीं सकती थीं न उठा ही सकीं.आज सोवियत संघ ही बिखर गया,कम्युनिज्म उखड गया कम्युनिस्ट हताशा निराशा में चले गए. जब सभी कम्युनिस्ट एकजुट भी थे तभी उनके विरुद्ध १९३० में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हो चुकी थी जिसके पुरोधा डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने अपनी पुस्तक इतिहास चक्र में लिखा है की,भारत के लिए कोई भी यूरोपीय वाद न तो पूँजी वाद और न ही साम्यवाद उपयुक्त है.परन्तु डॉक्टर लोहिया समाजवाद का समर्थन करते थे.समाजवाद वह आर्थिक प्रणाली है जिसमे उत्पादन व वितरण के साधनों पर समाज का नियंत्रण हो.यदि व्यव्हार में ऐसा भी होता या गाँधी जी का ट्रस्टीशिप सिद्दांत ही अमल में लाया जाता तो आज नक्सल वाद की कोई समस्या ही नहीं होती.कम्युनिज्म पूर्णतः भारतीय दर्शन है न तो खुद कम्युनिस्टों ने कभी दावा किया न ही विद्वानों ने कभी सोचा की महर्षि कार्ल मार्क्स ने जिस सिद्दांत का प्रतिपादन किया वो मौलिक रूप से भारतीय दर्शन ही है.साम्यवाद का मूल मन्त्र है प्रत्येक से उसकी योग्यतानुसार और प्रत्येक को उसकी आवश्यकतानुसार.सर्वे सन्तु निरामयः और सर्वे सन्तु सुखिनः की कामना की सुन्दर व्याख्या आधुनिक युग में पहलेपहल महर्षि कार्ल मार्क्स ने ही की थी दास कैपिटल एवं कम्युनिस्ट मनिफैस्तो द्वारा मार्क्स ने मानव द्वारा मानव के शोषण का पुर जोर विरोध किया था.कार्लमार्क्स मूलतः जर्मन थे जहाँ के मैक्समूलर साहब ने भारत में ३० वर्ष रहकर संस्कृत का गहन अध्ययन किया था और हमारी प्राचीन पांडुलिपियों को लेकर जर्मन चले गए थे.वेदोक्त सिद्दांतों का मक्स्मूलर साहब ने जर्मन भाषा में अनुवाद किया था और उन्ही का पूर्ण अध्ययन करने के बाद महर्षि कार्लमार्क्स ने साम्यवाद के सिद्दांतों का निरूपण किया था इसलिए मार्क्स के सिद्दांत पूर्णतः भारतीय दर्शन पर आधारित हैं.रूस में साम्यवाद की विफलता का कारण भारतीय दर्शन का अनुपालन न होने की वजह है.भारतीय कम्युनिस्टों की विफलता का कारण भी भारतीय दर्शन से दूरी बनाये रखना ही है और यही वजह है की भारत की जनता अपने ही दर्शन से कटे होने के कारण त्राहि त्राहि कर रही है.साम्राज्यवादियों द्वारा प्र्ष्ठपोषित तथाकथित भारतीयता वादियों के दर्शन में साधारण जन का हित साधन नहीं है वे तो पूंजीपतियों के हित चिन्तक हैं.
आर्ष चरित्रों की पूंजीवादी व्याख्या -हमारे प्राचीन आर्ष चरित्र चाहे वे मर्यादा पुर्शोत्तोम श्री राम हों या योगिराज श्री कृष्ण ,उत्तरवर्ती महावीर जिन हों या तथागत बुद्ध ,मध्य युगीन गुरुनानक,कबीर,तुलसीदास,आधुनिक दयानंद सरस्वती,विवेकानंद,रजा राम मोहन राय,लाला लाजपत राय,विपिनचन्द्र पाल ,बाल गंगाधर तिलक आदि महापुरुषों को पूंजीवादियों ने इस रूप में पेश किया है की वे सबल वर्ग का समर्थन करते हैं जबकि हकीकत यह है की इनमे से प्रत्येक तथा बाद के डॉ.अम्बेडकर,महात्मा गाँधी आदि सभी ने निर्बल व असहाय वर्ग के उत्थान के लिए प्रयास किया है.तुलसीदास ने रामचरितमानस को सर्वजन हिताय लिखा है जिसमे कागभुशुंडी से गरुण को उपदेश दिलाते हुए उन्होंने समाज में हेय वर्ग के उत्थान का सन्देश दिया है परन्तु आज के ढोंगी और पाखंडियों ने क्रन्तिकारी कृति का पून्जिवादिकरण कर लिया है और उसका अखंड पाठ करने के नाम पर जनता को भ्रमित कर रखा है.रामचरितमानस का अखंड पाठ करने पुस्तक की पूजा करने और आरती उतारने से किसी का भला होने वाला नहीं है.तुलसीदास जी के मर्म को समझने की आवश्यकता है उन्होंने अपने महाकाव्य के माध्यम से उत्पीडित जनता को साम्राज्यवादी शोषण के विरुद्द जाग्रत कर संघर्ष करने का आह्वाहन किया है जिस प्रकार राम ने साम्राज्यवादी रावन का संहार कर के किया था.परन्तु आज हमारे देश में हो क्या रहा है-रामचरित मानस का पाठ ,भोग,आरती,और शोषकों उत्पीदकों का महिमा मंडन इसी प्रकार अन्याय का विरोध करने वाले योगिराज श्री कृष्ण के उच्च एवं आर्ष चरित्र को रासलीला के माध्यम से एक रसिक के रूप में पेश करदिया गया है.श्री कृष्ण के ताप और त्याग को भुला कर उनकी जन्माष्टमी को भोग कीर्तन,आरती तक सीमित कर दिया गया है.परिणाम हमारे और आप के सब के सामने हैं-अशांति,अव्यवस्था,अराजकता और आतंकवाद।
यदि हमें विश्व को सुन्दर,सुखद व सम्रद्द बनाना है ,मानव द्वारा मानव के शोषण को समाप्त करना ही होगा.जब तक दरिद्र नारायण की सच्ची सेवा नहीं होगी,प्रत्येक निर्धन के घर में दीपक की रौशनी नहीं होगी केवल मुट्ठी भर धनवानों की चलती रहेगी तो हमारा भारत ही नहीं पूरी दुनिया कराहती रहेगी.आज यहाँ,कल वहां,आतंकवाद का साया छाया रहेगा ढोंग व पाखंड को छाती से चिपका कर खुशहाली के सपने देखना आकाश -कुसुम तोड़ने जैसा ही है ये याद रखें.

Wednesday, June 2, 2010

आठ और साठ घर में नहीं ------ विजय राजबली माथुर


हमारे प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य की औसत आयु सौ वर्ष मानते हुए जीवन को चार आश्रमों में विभाजित किया था बाल्यावस्था ,प्रौढ़ावस्था ,वानप्रस्थ और सन्यास.प्रत्येक अवस्था पच्चीस वर्ष की थी और सभी लोग उनका ठीक से परिपालन करके सतुष्ट रहते थे.वानप्रस्थ में बुजुर्ग घर-परिवार का मोह छोड़ कर शहर से दूर वनों में समाज हित के कार्य,शिक्षा दान,आदि करते थे केवल अपने परिवार तक ही सीमित नहीं रहते थे.७५ वर्ष कीआयु प्राप्त करने पर सन्यास ले लेते थे और केवल वनों में रहते थे,अब उनका सरोकार अखिल मानवता से ही होता था उनकी सोच और समझ का दायरा परिवार व समाज से ऊपर रहता था.परन्तु आज है क्या?६२ और उससे अधिक आयु तक सरकारी सेवाओं में डटे रह कर बुजुर्ग युवा पीढ़ी का शोषण और उत्पीडन कर रहे हैं.घर-परिवार समाज और राष्ट्र में पदों व कुर्सियों से चिपके हुए हैं और अपनी ही संतानों के समग्र विकास को बाधित किये हुए हैं.बोया पेड़ बबुल का तो आम कहाँ?जो जैसा बोता  है वैसा ही काटता है परन्तु दोष अपनी ही संतानों को देता है.जैसे संस्कार संतान को दिए गए हैं जैसा व्यव्हार अपने बुजुर्गों के साथ  किया है जब वही कुछ अपने साथ  घटित होता है तो पीड़ा क्यों?
हमारे ऋषि-मुनि तत्व ज्ञानी थे,उन्होंने आज से दस लाख वर्ष पूर्व ही यह निर्धारित कर दिया था की आठ वर्ष का बालक होते ही उसे गुरुकुल में भेज दो और ६० वर्ष से अधिक होते ही हर हालत में परिवार छोड़ दो.जब आठ और साठ का साथ होगा तब संकट आना लाजिमी है.आज न गुरुकुल हैं न ही बुजुर्गों के मध्य त्याग व तप की भावना,आज के बुजुर्ग अपनी ही संतानों के प्रतिद्वंदी बने हुए हैं और अपने एकाधिकार को स्वेच्छा से छोड़ ने को तत्पर नहीं हैं-इसीलिए सामाजिक विसंगतियों का बोलबाला हो गया है।
गलत अवधारणाएं उत्तरदायी -आज हमारे समाज में प्राचीन मान्यताओं की गलत अवधारणा व्याख्यायित की जा रही हैं जिनसे संकट उत्तरोत्तर बढता जा रहा है.उदहारण स्वरुप वर्ष में एक पखवाड़ा मनाये जाने वाले श्राद्ध पर्व को लें.श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है जिसका अर्थ है बड़ों के प्रति आस्था व सम्मान की भावना रखना.तर्पण शब्द की उत्पत्ति तृप्ति से हुई है.इस प्रकार श्राद्ध और तर्पण से अभिप्राय था-जीवित माता-पिता,सास-श्वसुर ,और गुरु की इस प्रकार सम्मान सहित सेवा करना जिससे वे तृप्त अथार्त संतुष्ट हो जाएँ.परन्तु आज ढोंगियों-पाखंडियों ने प्राचीन पद्दति को उलट वर्ष में मात्र एक पखवाडा मृत पूर्वजों के नाम पर पेशेवर कर्मकांडियों की पेट पूजा का विधान बना दिया है.इस प्रकार अन्न केवल फ्लश तक ही रूपांतरित हो कर पहुँचता है न की पितृ आत्माओं तक.वर्ष-वर्शांतर तक चलने वाला श्राद्ध और तर्पण का कार्यक्रम वर्ष में मात्र एक पखवाड़ा तक वह भी केवल मृतात्माओं के लिए सीमित कर देने वाली पाखंडी व्यवस्था ही बुजुर्गों की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी है.किसी विद्वान् ने ठीक ही कहा है-
जियत पिता से दंगम दंगा,मरे पिता पहुंचाए गंगा ,
जियत पिता की न पूछी बात,मरे पिता को खीर और भात ,
जियत पिता को घूंसे लात,मरे पिता को श्राद्ध करात ,
जियत पिता को डंडा लाठिया,मरे पिता को तोसक तकिया,
जियत पिता को कछु न मान,मरत पिता को पिंडा दान।
एक ओर तो आप अपनी प्राचीन संस्कृति की गलत व्याख्या कर उन को मानें और दूसरी ओर दुखी हो कर रोयें तो याद रखें---
वीप एंड यू वीप एलोन
मृतात्माओं की तृप्ति के लिए वेदों में विशेष सात मन्त्रों से हवन आहुतियाँ देने का प्राविधान है.इस प्रकार पूर्वज आत्मा चाहे मोक्ष में हो अथवा की पुनर्जनम में उसे धूम्र के रूप में हवन में डाले गए पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है उस के स्थान पर किसी दुसरे व्यक्ति को खिलाया गया पदार्थ पूर्वज आत्माओं तक नहीं केवल फ्लश तक पहुँचता है.क्या इस पाखंडी -ढोंगी दुर्व्यवस्था का परित्याग कर हम अपनी प्राचीन परम्परा को बहाल कर पाएंगे? यदि हाँ तो निश्चय ही समाज में बुजुर्गों का मान सम्मान वास्तविकता में बढ़ जायेगा.शाल ओढ़ाना ,पगड़ी बांधना या मोमेंटो भेंट करना महज एक दिखावा है-सम्मान नहीं.आईये अपनी 'आठ और साठ' घर में नहीं परम्परा को बहल करें तथा बुजुर्गों को सुखी रख सकें।
------विजय माथुर