Friday, October 13, 2017

निष्पन्न अपराध है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ------ जगदीश्वर चतुर्वेदी


Jagadishwar Chaturvedi
22 mins

*****************************************************************************

"*( दिलचस्प बात यह है पुनरुत्थानवाद के नज़रिए का बड़े पैमाने पर आर्यसमाज के संस्थापक दयानन्द सरस्वती ने जमकर प्रचार किया। इस नज़रिए के अनेक पहलुओं का माधव सदाशिव गोलवलकर के नज़रिए से मेल बैठता है। यही वजह है कि आर्यसमाज का 1920-21 के बाद से लगातार साम्प्रदायिकता की ओर रुझान बढ़ा है। आज देश में अधिकांश स्थानों पर आर्यसमाज संगठन पर संघ का ही क़ब्ज़ा है। 
दयानन्द सरस्वती का मानना था कि भक्ति आंदोलन की कोई भूमिका नहीं है। वहीं पर एम.एस. गोलवलकर ने "वी ओर अवर नेशनहुड डिफाइंड" में लिखा है कि भगवान से बडा भर्त को मानने की मध्यकालीन परंपरा सही नहीं है इससे व्यक्तिवादिता का विकास हुआ और धार्मिक सामूहिकता का क्षय हुआ। )* "

जगदीश्वर चतुर्वेदी जी  जिनका उपरोक्त कथन उद्धृत किया है  मथुरा के हैं और वहीं स्वामी विरजनन्द जी से स्वामी दयानन्द जी ने शिक्षा ग्रहण की थी और उनके आदेशानुसार ही वेदों का प्रचार - प्रसार किया था। 1857 की क्रांति में सक्रिय भाग लेने वाले स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1875 में 'आर्यसमाज ' की स्थापना 'कृण्वंतोंविश्वमार्यम ' अर्थात सम्पूर्ण विश्व को 'आर्ष ' = श्रेष्ठ बनाने हेतु की थी। सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित 'सत्यार्थ प्रकाश ' के पृष्ठ : 314 - 315 पर  एकादशसमुल्लास : में भागवत पुराण में वर्णित अवैज्ञानिक, अतार्किक बातों के संबंध में स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचार दिये गए हैं, यथा ------ 
" वाहरे  वाह ! भागवत के बनाने वाले लालभुजक्कड़ ! क्या कहना ! तुझको ऐसी ऐसी मिथ्या बातें लिखने में तनिक भी लज्जा और शर्म न आई, निपट अंधा ही बन गया ! ........... शोक है इन लोगों की रची हुई इस महा असंभव लीला पर , जिसने संसार को अभी तक  भ्रमा रखा है। भला इन महा झूठ बातों को वे अंधे पोप और बाहर भीतर की फूटी आँखों वाले उनके चेले सुनते और मानते हैं। बड़े ही आश्चर्य की बात है कि, ये मनुष्य हैं या अन्य कोई ! ! !  इन भागवतादि  पुराणों  के बनाने वाले जन्मते ही ( वा ) क्यों नहीं गर्भ  ही में  नष्ट  हो गए ? वा जन्मते समय मर क्यों न गए  ? क्योंकि इन पापों से बचते तो आर्यावर्त्त देश दुखों से बच जाता । " 
स्पष्ट है कि, जैसे ढोंग और हिंदुवाद आर एस एस का है वैसा स्वामी दयानन्द का हो ही नहीं सकता क्योंकि वह तो देश-काल-लिंग-जाति-क्षेत्र के भेद भाव से परे समस्त विश्व को ही आर्य = आर्ष = श्रेष्ठ बनाना चाहते थे। 
स्वामी दयानन्द के उत्तराधिकारी स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के बाद आर्यसमाज पर संघ ने हावी होना शुरू किया था और आज भी जकड़े है परंतु लगातार आर्यसमाज के भीतर से ऐसे दोहरे चरित्र वाले ( संघी / हिन्दू समर्थक ) लोगों का विरोध आगरा व लखनऊ में होते मैंने स्वम्य देखा है। अतः जगदीश्वर जी का स्वामी दयानंद  जी पर आरोप पूर्वाग्रह पूर्ण प्रतीत होता है और अवास्तविक एवं निराधार है। 
------ ~विजय राजबली माथुर ©





1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-10-2017) को
"मिट्टी के ही दिये जलाना" (चर्चा अंक 2758)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'