Monday, June 22, 2020

जातिवाद बिहार की समस्‍या नहीं...समस्‍या तो सहाय जैसे नेता हैं ------ कुमुद सिंह


Kumud Singh
जातिवाद बिहार की समस्‍या नहीं...समस्‍या तो सहाय जैसे नेता हैं
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बिहार को जातिवाद से मुक्‍त करने की जरुरत नहीं है, क्‍योंकि जातिवाद विकास में कहीं बाधक होता तो कर्नाटक और तमिलनाडू समेत अन्‍य जातिवादी राज्‍य विकसित नहीं होते। दरअसल बिहार की मूल समस्‍या केबी सहाय जैसे नेता हैं, जो कभी महामाया, तो कभी जगन्‍नाथ तो कभी लालू बनकर हमारा नेतृत्‍व करते रहे। ऐसे नेताओं की लंबी कतार बनती ही जा रही है। नरेंद्र मोदी के लिए जिस प्रकार बिहार के गिरिराज सिंह हैं, कुछ कुछ वैसा ही जवाहर लाल नेहरू के लिए केबी सहाय थे। उस जमाने में वैसे जवाहर लाल नेहरू की बात को बिहार कांग्रेस में काटने वाले दो लोग थे। एक राजेंद्र प्रसाद व दूसरे श्रीकृष्‍ण सिंह। दरभंगा महाराज किसी विपक्षी नेता से ज्‍यादा प्रभावी नेहरू के विरोधी तो थे ही। उस मुकाबले आज नरेंद्र मोदी की बात को बिहार भाजपा में काटनेवाला कोई नहीं है। श्रीबाबू 1937 में बिहार के प्रधानमंत्री बने और मरते दम तक बिहार का नेतृत्‍व किया। पहले राजतंत्र फिर गणतंत्र जैसे दो विपरीत व्‍यवस्‍थाओं में उन्‍होंने बिहार को आर्थिक और प्रशासनिक रूप से सबल बनाये रखा। दामोदर घाटी जैसे कुछ उदाहरण को छोड दें तो उन्‍होंने बिहार हित से कभी समझौता नहीं किया। जमींदारी हस्‍तानांतरण को सफलतापूर्वक करने के बाद सार्वजनिक क्षेत्र में कारखानों की स्‍थापना श्री बाबू के बिहार विजन का एक अभिन्‍न पन्‍ना माना जाता है। नेहरू के लिए बिहार का मतलब एक ऐसा राज्‍य था जहां से राजेंद्र प्रसाद और कामेश्‍वर सिंह जैसे विरोधी आते थे, लेकिन श्रीबाबू के माध्‍यम से नेहरू बिहार का मिजाज नहीं बदल पा रहे थे। श्रीबाबू की मौत के बाद नेहरू चाह कर भी केबी सहाय को मुख्‍यमंत्री नहीं बना पाये। राजेंद्र प्रसाद व कामेश्‍वर सिंह की लॉबी काम कर गयी और विनोदानंद झा मुख्‍यमंत्री बने। विनोदानंद झा देवघर बाबा मंदिर के मुख्‍य पंडे के पुत्र थे। कहा जाता है कि दलितों के मंदिर में प्रवेश को लेकर श्री झा का दरभंगा महाराज के साथ राजनीतिक संरक्षण का समझौता था। उसी का परिणाम रहा कि श्री झा बिहार के मुख्‍यमंत्री बने। बिहार को लेकर नेहरू जो प्रयोग करना चाहते थे उसके लिए विनोदानंद झा भी तैयार नहीं थे। संयोग से 1962 के अक्‍टूबर में कामेश्‍वर सिंह और फरवरी 63 में राजेंद्र प्रसाद का निधन हो गया। श्री बाबू पहले ही जा चुके थे। नेहरू अब नरेंद्र मोदी की तरह ही बिहार में ताकतवर हो गये। उन्‍होंने कामेश्‍वर सिंह की पुण्‍यतिथि के मौके पर ही विनोदानंद झा को मुख्‍यमंत्री पद से हटा कर केबी सहाय को मुख्‍यमंत्री बना दिया। केबी सहाय ने नेहरू का वो सपना पूरा करने का जिम्‍मा उठाया जो वो उस दिन से देख रहे थे जिसदिन राजा जी के बदले बिहार लाॅबी ने राजेंद्र प्रसाद को भारत का राष्‍ट्रपति बना कर उनकी सत्‍ता को पहली बार चुनौती दी थी। वैसे बिहार लॉबी की ताकत नेहरू ने 1939 में ही देख ली थी, जब मदनमोहन मालवीय की पैरवी के बावजूद वो बीएचयू के कुलपति पद पर राधाकृष्‍णन की नियुक्ति नहीं रोक पाये। बिहार लौबी नेहरू को लगातार परेशान करता रहा। बीएचयू से तो मालवीय के बेटों ने राधाकृष्‍णन को भगा दिया, लेकिन नेहरू के विरोध के बावजूद बिहार लॉबी राधाकृष्‍णन को पहला उपराष्‍ट्रपति बनाने मे कामयाब रही। नेहरू इस फैसले से इतने कुंठित हुए कि उपराष्‍ट्रपति निवास के लिए चयनित हैदराबाद हाउस को अपने लिए आवंटित करा लिया। भारत के राष्‍ट्रपति व प्रधानमंत्री की तरह उपराष्‍ट्रपति के लिए कोई एतिहासिक इमारत आरक्षित नहीं हुई। बिहार लॉबी के कारण नेहरू अपने कैबिनेट के अलावा कुछ तय नहीं कर पा रहे थे। राधाकृष्‍णन के राष्‍ट्रपति बन जाने के बाद नेहरू उपराष्‍ट्रपति के लिए पश्चिम भारत के एक बडे नेता का चयन कर चुके थे, लेकिन बिहार लॉबी ने वहां भी उन्‍हें हार का मुंह दिखाया और बिहार के तत्‍कालीन राज्‍यपाल जाकिर हुसैन को उपराष्‍ट्रपति बना कर पद पर बैठा दिया। ये तीन लगातार संवैधानिक पदों पर हुई नियुक्ति बिहार लौबी के दबदबे को दिखाता है, जो 1963 के बाद हमेशा के लिए लुप्‍त हो गया। केबी सहाय बिहार में नेहरू की कमजारी थे। जिस प्रकार नरेंद्र मोदी के मुश्‍किल घडी में गिरिराज सिंह ने उनके पक्ष में हल्‍ला बोला था, उसी प्रकार नेहरू जब जमींदारी हस्‍तानांतरण पर हाइकोर्ट में कमजोर पड गये थे और श्रीबाबू भी सुशाील मोदी की तरह चुप हो थे गये तो केबी सहाय ही गिरिराज सिंह की तरह हल्‍ला बोला था। केबी सहाय को इसी का इनाम मिला। नेहरू को वक्‍त बहुत कम मिला, लेकिन केबी सहाय को उन्‍होंने श्रीबाबू के विजन के विपरीत काम करने की नीति समझा दी। ये वो नीति थी जो बिहार को धीरे-धीरे मूर्ख, गरीब के साथ साथ बीमारू भी बना डाला, जो नेहरू का अंतिम सपना था। केबी सहाय ने सबसे पहले शिक्षा को तहस नहस किया। फिर समाजवाद का ऐसा पौधा रोपा जिसका बट वृक्ष हम सबके सामने है। नेहरू की मौत के बाद केबी सहाय को भी पद से हटा दिया गया, लेकिन तब तक उन्‍होंने श्रीबाबू के विजन को हमेशा के लिए जमींदोज दिया..सहाय के बाद बिहार कभी उस रास्‍ते नहीं लौटा..केबी सहाय के रास्‍ते चला या फिर नये रास्‍ते तलाशता हुआ..राहों पर भटकता रहा..इस भटकते बिहार को किसी ने भीखमंगा समझा तो किसी ने जाति पूछकर हमसफर बना लिया। सवाल है क्‍या बिहार को मानसिक रूप से गैर बिहारी बनाने के पीछे कौन था। बिहार में समाजवाद के नाम पर स्‍तरहीन सोच को प्रतिष्‍ठा के समतुल्‍य किसने बनाया। रासबिहारी लाल मंडल ने जिस सामाजिक समानता की शुरुआत यादवों को जनउ पहनाकर शरु की थी, उसे ब्राहमणों को जनउ तुडबाकर समानता की परिभाषा किसने बना दिया। शिक्षा से लेकर आधारभूत ढांचा तक को तहस नहस कर देने की नीति तो 1963 में ही बन गयी थी। बिहार जैसे टाइटैनिक में छेद तो 1963 में ही कर दिया गया था..आप उसके डूबने की तारीख पर बहस कर रहे हैं...पानी कहां कब पहुंचा बता रहे हैं...लालू को तो टाइटैनिक का वो हिस्‍सा मिला जो फिल्‍म खत्‍म होने की आखिरी रील से पहले का था। फिल्‍म तो पहली रील से देखने की जरुरत है।
साभार : 

कुमुद सिंह 

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 ~विजय राजबली माथुर ©

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