Wednesday, January 23, 2013

स्वतंत्रता दिलाने में नेताजी का योगदान-(जन्म दिवस पर एक स्मरण)-पुनर्प्रकाशन---विजय राजबली माथुर

 यह लेख इसी ब्लाग मे 23 जनवरी 2011 को प्रकाशित हो चुका है। 


 'नेताजी' का मतलब सुभाष चन्द्र बोस से होता था.(आज तो लल्लू-पंजू ,टुटपूंजियों क़े गली-कूंचे क़े दलाल भी खुद को नेताजी कहला रहे हैं) स्वतन्त्रता -आन्दोलन में भाग ले रहे महान नेताओं को छोड़ कर केवल सुभाष -बाबू को ही यह खिताब दिया गया था और वह इसके सच्चे अधिकारी भी थे.जनता सुभाष बाबू की तकरीरें सुनने क़े लिये बेकरार रहती थी.उनका एक-एक शब्द गूढ़ अर्थ लिये होता था.जब उन्होंने कहा "तुम मुझे खून दो ,मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा" तब साधारण जनता की तो बात ही नहीं ब्रिटिश फ़ौज में अपने परिवार का पालन करने हेतु शामिल हुए वीर सैनिकों ने भी उनके आह्वान  पर सरकारी फ़ौज छोड़ कर नेताजी का साथ दिया था. जिस समय सुभाष चन्द्र बोस ने लन्दन जाकर I .C .S .की परीक्षा पास की ,वह युवा थे और चाहते तो नौकरी में बने रह कर नाम और दाम कमा सकते थे.किन्तु उन्होंने देश-बन्धु चितरंजन दास क़े कहने पर आई.सी.एस.से इस्तीफा  दे दिया तथा स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़े.  जब चितरंजन दास कलकत्ता नगर निगम क़े मेयर बने तो उन्होंने सुभाष बाबू को उसका E .O .(कार्यपालक अधिकारी )नियुक्त किया था और उन्होंने पूरे कौशल से कलकत्ता नगर निगम की व्यवस्था सम्हाली थी.
वैचारिक दृष्टि से सुभाष बाबू वामपंथी थे.उन पर रूस की साम्यवादी क्रांति का व्यापक प्रभाव था. वह आज़ादी क़े बाद भारत में समता मूलक समाज की स्थापना क़े पक्षधर थे.१९३६ में लखनऊ में जब आल इण्डिया स्टुडेंट्स फेडरशन की स्थापना हुई तो जवाहर लाल नेहरु क़े साथ ही सुभाष बाबू भी इसमें शामिल हुये थे.१९२५ में गठित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उस समय कांग्रेस क़े भीतर रह कर अपना कार्य करती थी.नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ,जवाहर लाल नेहरु तथा जय प्रकाश नारायण मिल कर कांग्रेस को सामाजिक  सुधार तथा धर्म-निरपेक्षता की ओर ले जाना चाहते थे.१९३८ में कांग्रेस क़े अध्यक्षीय चुनाव में वामपंथियों ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को खड़ा किया था और गांधी जी ने उनके विरुद्ध पट्टाभि सीतारमय्या को चुनाव लड़ाया था. नेताजी की जीत को गांधी जी ने अपनी हार बताया था और उनकी कार्यकारिणी का बहिष्कार करने को कहा था.तेज बुखार से तप रहे नेताजी का साथ उस समय जवाहर लाल नेहरु ने भी नहीं दिया.अंत में भारी बहुमत से जीते हुये (बोस को १५७५ मत मिले थे एवं सीतारमय्या को केवल १३२५ )नेताजी ने पद एवं कांग्रेस से त्याग पत्र दे दिया और अग्रगामी दल
(फॉरवर्ड ब्लाक) का गठन कर लिया.ब्रिटिश सरकार ने नेताजी को नज़रबंद कर दिया.क्रांतिवीर विनायक दामोदर सावरकर क़े कहने पर नेताजी ने गुप-चुप देश छोड़ दिया और काबुल होते हुये जर्मनी पहुंचे जहाँ एडोल्फ हिटलर ने उन्हें पूर्ण समर्थन दिया. विश्वयुद्ध क़े दौरान दिस.१९४२ में जब नाजियों ने सोवियत यूनियन पर चर्चिल क़े कुचक्र में फंस कर आक्रमण कर दिया तो "हिटलर-स्टालिन "समझौता टूट गया.भारतीय कम्युनिस्टों ने इस समय एक गलत कदम उठाया नेताजी का विरोध करके ;हालांकि अब उन्होंने स्वीकार कर लिया है कि यह भारी गलती थी और आज उन्होंने नेताजी क़े योगदान को महत्त्व देना शुरू कर दिया है.हिटलर की पराजय क़े बाद नेताजी एक सुरक्षित पनडुब्बी से जापान पहुंचे एवं उनके सहयोग से रास बिहारी बोस द्वारा स्थापित आज़ाद हिंद फ़ौज (I .N .A .) का नेतृत्व सम्हाल लिया.कैप्टन लक्ष्मी सहगल को रानी लक्ष्मी बाई रेजीमेंट का कमांडर बनाया गया था. कैप्टन ढिल्लों एवं कैप्टन शाहनवाज़ नेताजी क़े अन्य विश्वस्त सहयोगी थे.

नेताजी ने बर्मा पर कब्ज़ा कर लिया था.आसाम में चटगांव क़े पास तक उनकी फौजें पहुँच गईं थीं."तुम मुझे खून दो,मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा"नारा इसी समय नेताजी ने दिया था. नेताजी की अपील पर देश की महिलाओं ने सहर्ष अपने गहने आई.एन.ए.को दान दे दिये थे,जिससे नेताजी हथियार खरीद सकें.नेताजी की फौजें ब्रिटिश फ़ौज में अपने देशवासियों पर बम क़े गोले नहीं तोपों से पर्चे फेंक्तीं थीं जिनमें देशभक्ति की बातें लिखी होती थीं और उनका आह्वान  करती थीं कि वे भी नेताजी की फ़ौज में शामिल हो जाएँ.इस का व्यापक असर पड़ा और तमाम भारतीय फौजियों ने ब्रिटिश हुकूमत से बगावत करके आई .एन .ए.की तरफ से लडाई लड़ी.एयर फ़ोर्स तथा नेवी में भी बगावत हुई.ब्रिटिश साम्राज्यवाद  हिल गया और उसे सन १८५७ की भयावह स्मृति हो आई.अन्दर ही अन्दर विदेशी हुकूमत ने भारत छोड़ने का निश्चय कर लिया किन्तु दुर्भाग्य से जापान की पराजय हो गई और नेताजी को जापान छोड़ना पड़ा.जैसा कहा जाता है प्लेन क्रैश में उनकी मृत्यु हो गई जिसे अभी भी संदेहास्पद माना जाता है. (यहाँ उस विवाद पर चर्चा नहीं करना चाहता ).

मूल बात यह है कि,१९४७ में प्राप्त हमारी आज़ादी केवल गांधी जी क़े अहिंसक आन्दोलन से ही नहीं वरन नेताजी की "आज़ाद हिंद फ़ौज " की कुर्बानियों,एयर फ़ोर्स तथा नेवी में उसके प्रभाव से बगावत क़े कारण मिल सकी है और अफ़सोस यह है कि इसका सही मूल्यांकन नहीं किया गया है.आज़ादी क़े बाद जापान सरकार ने नेताजी द्वारा एकत्रित स्वर्णाभूषण भारत लौटा दिये थे;ए.आई.सी.सी.सदस्य रहे सुमंगल प्रकाश ने धर्मयुग में लिखे अपने एक लेख में रहस्योदघाटन किया था कि वे जेवरात कलकत्ता बंदरगाह पर उतरने तक की खबर सबको है ,वहां से आनंद भवन कब और कैसे पहुंचे कोई नहीं जानता.आज आज़ादी की लडाई में दी गई नेताजी की कुर्बानी एवं योगदान को विस्मृत कर दिया गया है.क्या आज क़े नौजवान नेताजी का पुनर्मूल्यांकन करवा सकेंगे?उस समय नेताजी तथा अन्य बलिदानी क्रांतिकारी सभी नौजवान ही थे.यदि हाँ तभी प्रतिवर्ष २३ जनवरी को उनका जन्म-दिन मनाने की सार्थकता है,अन्यथा थोथी रस्म अदायगी का क्या फायदा ?


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2 comments:

vijai Rajbali Mathur said...

फेसबुक पर प्राप्त टिप्पणी---
Danda Lakhnavi यदि नेता जी के विचारों पर देश चले तो .... अनेक बुराइयां समाज से स्वत: समाप्त हो जाएं...

vijai Rajbali Mathur said...

नेताजी के विचारों को जानना समझना ही उनका जन्मदिवस मानाने की सार्थकता होगी ..... विनम्र नमन