Thursday, August 21, 2014

'एथीस्टवादी संप्रदाय ' उत्तरदायी है सांप्रदायिकता के प्रसार के लिए ---विजय राजबली माथुर

एथीस्टवादी संप्रदाय और विभिन्न पाखंडी संप्रदाय परस्पर अन्योनाश्रित हैं :

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तो यह है 'मार्क्स वाद ' का असली रूप 'एथीस्टवादियों ' की नज़र में जो 'बड़ी मछली ,छोटी मछली 'के खेल में लगे हुये हैं क्या ऐसे ही साम्यवाद या मार्क्स वाद लागू हो पाएगा?-----:


इस रिश्वतखोर इंजीनियर को कोतवाली से छुड़ाने वालों की टीम में वामपंथी ट्रेड यूनियन नेता भी शामिल हैं। आगरा  में एक ट्रेड यूनियन नेता के मुख से सुना था कि भ्रष्टाचार अब शिष्टाचार बन चुका है। एक प्रदेश स्तर के बैंक कर्मचारी नेता अपने पद के आधार पर विभिन्न बैंकों के मेनेजर्स से धन उगाही करते हैं तथा साथी कर्मियों को डरा कर चुप करा देते हैं। क्या इन गतिविधियों से साम्यवाद और वामपंथ मजबूत होगा व देश में अपनी जड़ें जमा सकेगा? एक सी पी एम नेता की पत्रकार पुत्री खुलेआम लिखती हैं कि ट्रेड यूनियन नेता खुद तो मौज-मस्ती करते हैं और उनकी पत्नियाँ कालेज या दफ्तर में रोजगार करके परिवारों का पोषण करती हैं तब क्या इसे महिलाओं के उत्पीड़न की श्रेणी में न रखा जाये? ऐसे मार्क्सवाद के स्वयंभू ठेकेदारों ने मार्क्स को जड़ मूर्ती में परिवर्तित कर दिया है और लकीर के फकीर बन कर बावले की भांति सिर्फ हो-हल्ला मचाते रहते हैं। यह कैसा साम्यवाद/मार्कसवाद है? जनता पर इसका कैसे प्रभाव पड़ेगा?'एथीस्ट' और 'वामपंथी' कहलाने वाले लोगों के श्रीमुख से निकले वचनों का अवलोकन करें:

इस पर मैंने यह प्रतिक्रिया दी थी :
लेकिन इन एथीस्टवादियों को महान उपन्यासकार अमृत लाल नागर जी के 'मानस का हंस' में वर्णित इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि तुलसी दास जी को मांग कर खाने व मस्जिद में शरण लेकर जान बचाने के लिए बनारस के पोंगा पंडितों ने मजबूर किया था। अफलातून अफ़लू साहब ने अपने ब्लाग में विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया है:




"जन्म गत ब्राह्मण चाहे खुद को कितना भी एथीस्ट घोषित करें होते हैं घोर जातिवादी वे नहीं चाहते कि सच्चाई कभी भी जनता के समक्ष स्पष्ट हो क्योंकि उस सूरत में व्यापार जगत के भले के लिए पोंगा पंथियों द्वारा की गई भ्रामक व्याख्याओं की पोल खुल जाएगी और परोपजीवी जाति की आजीविका संकट में पड़ जाएगी।
तुलसी दास जी द्वारा लिखित रामचरित मानस की क्रांतिकारिता,राजनीतिक सूझ-बूझ और कूटनीति के सफल प्रयोग पर पर्दा ढके रहने हेतु मानस में ऐसे लोगों के पूर्वजों ने प्रक्षेपक घुसा कर तुलसी दास जी को बदनाम करने का षड्यंत्र किया है तथा राम को अवतारी घोषित करके उनके कृत्यों को अलौकिक कह कर जनता को बहका रखा है। ढ़ोल,गंवार .... वाले प्रक्षेपक द्वारा बहुसंख्यक तथा कथित दलितों को तुलसी और मानस से दूर रखा जाता है क्योंकि यदि वे समझ गए कि 'काग भुशुंडी' से 'गरुण' को उपदेश दिलाने वाले तुलसी दास उनके शत्रु नहीं मित्र थे। पार्वती अर्थात एक महिला की जिज्ञासा पर शिव ने 'काग भुशुंडी-गरुण संवाद' सुनाया जो तुलसी द्वारा मानस के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसी वजह से काशी के ब्राह्मण तुलसी दास की जान के पीछे पड़ गए थे उनकी पांडु-लिपियाँ जला देते थे तभी उनको 'मस्जिद' में शरण लेकर जान बचानी पड़ी थी और अयोध्या आकर ग्रंथ की रचना करनी पड़ी थी । इसके द्वारा तत्कालीन मुगल-सत्ता को उखाड़ फेंकने का जनता से आह्वान किया गया था । साम्राज्यवादी रावण का संहार राम व सीता की सम्मिलित कूटनीति का परिणाम था। ऐसी सच्चाई जनता समझ जाये तो ब्राह्मणों व व्यापारियों का शोषण समाप्त करने को एकजुट जो हो जाएगी। अतः विभिन्न राजनीतिक दलों में घुस कर ब्राह्मणवादी जनता में फूट डालने के उपक्रम करते रहते हैं। क्या जनता को जागरूक करना पागलपन होता है?"

क्योंकि उससे पूर्व यह पोस्ट आई थी जिसे एथीस्टों के दबाव में थोड़ी देर बाद ही डिलीट कर दिया गया था। :

"प्रगतिशील और वामपंथी सोच के पत्रकार

प्रगतिशील और वामपंथी सोच के पत्रकार विजय राज बली माथुर का रामचरित मानस पर नजरिया -----------Vijai RajBali Mathur रामचरितमानस तुलसीदास की दिमागी उपज नहीं है और न ही यह एक-दो दिन मे लिखकर तैयार किया गया है । इस ग्रंथ की रचना आरम्भ करने के पूर्व गोस्वामी जी ने देश,जाति और धर्म का भली-भांति अध्ययन कर सर्वसाधारण की मनोवृति को समझने की चेष्टा की और मानसरोवर से रामेश्वरम तक इस देश का पर्यटन किया ।
तुलसीदास ने अपने विचारों का लक्ष्य केंद्र राम मे स्थापित किया । रामचरित के माध्यम से उन्होने भाई-भाई और राजा-प्रजा का आदर्श स्थापित किया । उनके समय मे देश की राजनीतिक स्थिति सोचनीय थी । राजवंशों मे सत्ता-स्थापन के लिए संघर्ष हो रहे थे । पद-लोलुपता के वशीभूत होकर सलीम ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया तो उसे भी शाहज़ादा खुर्रम के विद्रोह का सामना करना पड़ा और जिसका प्रायश्चित उसने भी कैदी की भांति मृत्यु का आलिंगन करके किया । राजयोत्तराधिकारी 'दारा शिकोह'को शाहज़ादा 'मूहीजुद्दीन 'उर्फ 'आलमगीर'के रंगे हाथों परास्त होना पड़ा । इन घटनाओं से देश और समाज मे मुरदनी छा गई ।

ऐसे समय मे 'रामचरितमानस' मे राम को वनों मे भेजकर और भरत को राज्यविरक्त (कार्यवाहक राज्याध्यक्ष)सन्यासी बना कर तुलसीदास ने देश मे नव-चेतना का संचार किया,उनका उद्देश्य सर्वसाधारण
मे राजनीतिक -चेतना का प्रसार करना था । 'राम'और 'भरत 'के आर्ष चरित्रों से उन्होने जनता को 'बलात्कार की नींव पर स्थापित राज्यसत्ता'से दूर रहने का स्पष्ट संकेत किया । भरत यदि चाहते तो राम-वनवास के अवसर का लाभ उठा कर स्वंय को सम्राट घोषित कर सकते थे राम भी 'मेजॉरिटी हेज अथॉरिटी'एवं 'कक्की-शक्की मुर्दाबाद'के नारों से अयोध्या नगरी को कम्पायमानकर सकते थे । पर उन्होने ऐसा क्यों नहीं किया?उन्हें तो अपने राष्ट्र,अपने समाज और अपने धर्म की मर्यादा का ध्यान था अपने यश का नहीं,इसीलिए तो आज भी हम उनका गुणगान करते हैं । ऐसा अनुपमेय दृष्टांत स्थापित करने मे तुलसीदास की दूरदर्शिता व योग्यता की उपेक्षा नहीं की जा सकती । क्या तुलसीदास ने राम-वनवास की कथा अपनी चमत्कारिता व बहुज्ञता के प्रदर्शन के लिए नहीं लिखी?उत्तर नकारात्मक है । इस घटना के पीछे ऐतिहासिक दृष्टिकोण छिपा हुआ है । (राष्ट्र-शत्रु 'रावण-वध की पूर्व-निर्धारित योजना' को सफलीभूत करना)।
इतिहासकार सत्य का अन्वेषक होता है । उसकी पैनी निगाहें भूतकाल के अंतराल मे प्रविष्ट होकर तथ्य के मोतियों को सामने रखती हैं । वह ईमानदारी के साथ मानव के ह्रास-विकास की कहानी कहता है । संघर्षों का इतिवृत्त वर्णन करता है । फिर तुलसीदास के प्रति ऐसे विचार जो कुत्सित एवं घृणित हैं (जैसे कुछ लोग गोस्वामी तुलसीदास को समाज का पथ-भ्रष्टक सिद्ध करने पर तुले हैं ) लाना संसार को धोखा देना है ।"
  • Rakesh Kumar and 2 others like this.
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  • धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।



    अध्यात्म =अध्यन+ आत्मा = अपनी आत्मा का अध्यन। 

    देवता= जो देता है और लेता नहीं है ,जैसे-नदी,वृक्ष,पर्वत,आकाश,अन्तरिक्ष,अग्नि,जल,वायु आदि न कि जड़ मूर्तियाँ/चित्र आदि। 

    भगवान = भ (भूमि-पृथ्वी)+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I (अनल-अग्नि )+न (नीर-जल )। 

    खुदा = चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इनको किसी भी प्राणी ने नहीं बनाया है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं। 

    GOD = G (जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय )। उत्पत्ति,पालन व संहार करने के कारण ही इनको GOD भी कहते हैं। 
    देखिये कैसे?:
    वायु +अन्तरिक्ष =  वात 

    अग्नि  =पित्त

     भूमि + जल = कफ 

    इन तीनों का समन्वय ही शरीर को धारण करता है 

    वात +पित्त + कफ =भगवान=खुदा=GOD 

    शरीर को धारण करने व समाज को धारण करने हेतु
    धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य परमावश्यक है। 

    क्या महर्षि कार्ल मार्क्स अथवा शहीद भगत सिंह जी ने कहीं कहा है कि साम्यवाद के अनुयाइयों को झूठ बोलना चाहिये,हिंसा ही करनी चाहिए,चोरी करना चाहिए,अपनी ज़रूरत से ज़्यादा चीज़ें जमा करना चाहिए और अनियंत्रित सेक्स करना चाहिए। यदि इन विद्वानों से ऐसा नहीं कहा है तो इनका नाम बदनाम करने के लिए 'एथीस्ट वादी' ही जिम्मेदार हैं। और इसी कारण रूस से भी साम्यवाद उखड़ा है। 

    एथीस्ट वादी भी ढोंगियों-पाखंडियों-आडमबरकारियों की ही तरह 'अधर्म' को धर्म कहते हैं व सत्य को स्वीकारना नहीं चाहते हैं क्योंकि वे भी उल्टे उस्तरे से जनता को मूढ़ रहे हैं। इसी कारण खुद को उग्र क्रांतिकारी कहने वाले एथीस्टों ने चुनाव बहिष्कार करके अथवा 'संसदीय साम्यवाद' के समर्थक दलों का विरोध करके केंद्र में सांप्रदायिकता के रुझान वाली सरकार गठित करवा दी है जिसका खामियाजा पूरे देश की जनता को भुगतना होगा। 

    ढ़ोंगी-पाखंडी-आडंबरधारी और एथीस्ट दोनों का ही हित तानाशाही में है दोनों की ही आस्था लोकतन्त्र में नहीं है और दोनों ही परस्पर अन्योनाश्रित हैं । एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही संभव नहीं है। दोनों ही 'सत्य ' उद्घाटित नहीं होने देना चाहते हैं क्योंकि अज्ञान ही उनका संबल है जागरूक जनता को वे दोनों ही उल्टे उस्तरे से मूढ़ नहीं सकेंगे। 


     
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