Friday, July 31, 2015

साम्प्रदायिकता और संस्कृति : मुंशी प्रेमचंद ------ के. के. चतुर्वेदी



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(३१ जुलाई को कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की १३५वीं जयंती है, इस अवसर पर प्रस्तुत है १५ जनवरी १९३४ को लिखे हुए इस लेख के कुछ अंश. अब आप देखिये कि ये लेख आज के समय में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था. आज जबकि संघ परिवार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर घृणा और नफरत फैला रहा है एवम सऊदी अरेबिया सहित कई अन्य इस्लामिक देशों में वहाबी तथा तत्ववादी ताकतें इस्लाम के नाम पर बेगुनाहों का क़त्ल-ए-आम कर रहीं हैं, शांतप्रिय नागरिकों का दायित्व और भी बढ़ जाता है कि वे संगठित होकर इन फासीवादी ताकतों का मुक़ाबला करें.
-के. के. चतुर्वेदी)

साम्प्रदायिकता और संस्कृति
(मुंशी प्रेमचंद)
साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है. उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रौब जामाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है. हिदू अपनी संस्कृति को क़यामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को. दोनों ही अभी तक अपनी अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, ये भूल गए हैं कि अब न कहीं मुस्लिम संस्कृति है,न कहीं हिन्दू संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति. अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं.
हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है. आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है लेकिन ईसाई संस्कृति और मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज़ नहीं है. हिन्दू मूर्तिपूजक है तो क्या मुसलमान क़ब्र पूजक और स्थान पूजक नहीं है?,ताजिये को शरबत को शीरीनी कौन चढ़ाता है?, मस्ज़िद को ख़ुदा का घर कौन समझता है? अगर मुसलामानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है जो बड़े से बड़े पैगम्बरों के सामने सर झुकाना भी कुफ़्र समझता है तो हिन्दुओं में भी एक सम्प्रदाय ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धारा और धर्मग्रंथों को गपौड़े समझता है.
इसी लेख में प्रेमचन्द जी आखिर में लिखते हैं “ये ज़माना साम्प्रदायिक अभ्युदय का नहीं है ये आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थिक समस्याओं को हल कर सके,जिससे ये अंधविश्वास और ये धर्म के नाम पर किया गया पाखंड या नीति के नाम पर गरीबों को दुहने की कृपा मिटाई जा सके.”
जनता को आज संस्कृतियों की रक्षा करने का न तो अवकाश है और न ज़रूरत. ’संस्कृति’ अमीरों का, पेट भरों का, बेफ़िक्रों का व्यसन है, दरिद्रों के लिए प्राणरक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है. उस संस्कृति में था ही क्या, जिसकी वे रक्षा करें. जब जनता मूर्क्षित थी तब उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था. ज्यों ज्यों उसकी चेतना जाग्रत होती जाती है,वह देखने लगी है कि यह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी जो राजा बन कर, विद्वान् बन कर, जगत सेठ बन कर जनत को लूटती थी. उसे आज अपने जीवन की रक्षा की ज्यादा चिंता है जो संस्कृति की रक्षा से कहीं आवश्यक है. उस पुरानी संस्कृति में उसके लिए मोह का कोई कारण नहीं है और साम्प्रदायिकता उसकी आर्थिक समस्याओं की तरफ से आँखें बंद किये हुए ऐसे कार्यक्रम पर चल रही है जिससे उसकी पराधीनता चिरस्थायी बनी रहेगी.
१५ जनवरी १९३४.
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  ~विजय राजबली माथुर ©
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