https://www.facebook.com/kanwal.bharti/posts/10200885884346625?pnref=story
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सत्य,सत्य होता है और इसे अधिक समय तक दबाया नहीं जा सकता। एक न एक दिन लोगों को सत्य स्वीकार करना ही पड़ेगा तथा ढोंग एवं पाखण्ड का भांडा फूटेगा ही फूटेगा। राम और कृष्ण को पूजनीय बना कर उनके अनुकरणीय आचरण से बचने का जो स्वांग ढोंगियों तथा पाखंडियों ने रच रखा है उस पर प्रहार करने का मैं निरंतर लेखन-क्रम जारी रखे हुये हूँ हालांकि इस तथ्य से भी अवगत हूँ कि आज के इस अहंकारमय आपा-धापी के युग में 'सत्य ' को न कोई सुनना चाहता है न ही समझना, सब अपने-अपने पूर्वाग्रहों से ग्रस्त अपनी ही धुन में मस्त हैं। फिर भी कुछ पुराने लेखन के अंश पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ :
May 29, 2012 · Edited ·
आर्य न कोई जाति थी न है। आर्य=आर्ष=श्रेष्ठ। अर्थात श्रेष्ठ कार्यों को करने वाले सभी व्यक्ति आर्य हैं। 'कृंणवनतों विश्वार्यम' के अनुसार सम्पूर्ण विश्व को आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनाना है। लेन पूल,कर्नल टाड आदि-आदि विदेशी और आर सी मजूमदार सरीखे भारतीय इतिहासकारों ने साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ती हेतु आर्यों को एक जाति के रूप मे निरूपित करके बेकार का झगड़ा खड़ा किया है।
अब से लगभग 10 लाख वर्ष पूर्व जब मानव-सृष्टि इस पृथ्वी पर हुई तो विश्व मे तीन स्थानों-
1-मध्य यूरोप,
2- मध्य अफ्रीका ,
3-मध्य एशिया –मे एक साथ ‘युवा स्त्री और युवा पुरुषों’के जोड़े सृजित हुये। भौगोलिक स्थिति की भिन्नता से तीनों के रूप-रंग ,कद-काठी मे भिन्नता हुई। इन लोगों के माध्यम से जन-संख्या वृद्धि होती रही। जहां-जहां प्रकृति ने राह दी वहाँ-वहाँ सभ्यता और संस्कृति का विकास होता गया और जहां प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीं-वहीं रुक गया।
मध्य एशिया के ‘त्रिवृष्टि’जो अब तिब्बत कहलाता है उत्पन्न मानव तीव्र विकास कर सके जबकि दूसरी जगहों के मानव पिछड़ गए। आबादी बढ्ने पर त्रिवृष्टि के लोग दक्षिण के निर्जन प्रदेश आर्यावृत्त मे आकर बसने लगे।जब ‘जंबू द्वीप’उत्तर की ओर ‘आर्यावृत्त’ से जुड़ गया तो यह आबादी उधर भी फ़ेल गई। चूंकि आबादी का यह विस्तार निर्जन प्रदेशों की ओर था अतः किसी को उजाड़ने,परास्त करने का प्रश्न ही न था। साम्राज्यवादियों ने फूट परस्ती की नीतियों के तहत आर्य को जाति बता कर व्यर्थ का बखेड़ा खड़ा किया है। त्रिवृष्टि से आर्यावृत्त आए इन श्रेष्ठ लोगों अर्थात आर्यों ने सम्पूर्ण विश्व को ज्ञान-विज्ञान से परिचित कराने का बीड़ा उठाया। इस क्रम मे जिन विद्वानों ने पश्चिम से प्रस्थान किया उनका पहला पड़ाव जहाँ स्थापित हुआ उसे ‘आर्यनगर’ कहा गया जो बाद मे एर्यान और फिर ईरान कहलाया। ईरान के अंतिम शासक तक ने खुद को आर्य मेहर रज़ा पहलवी कहा। आगे बढ़ कर ये आर्य मध्य एशिया होकर यूरोप पहुंचे। यूरोपीयो ने खुद को मूल आर्य घोषित करके भारत पर आक्रमण की झूठी कहाने गढ़ दी जो आज भी यहाँ जातीय वैमनस्य का कारण है।
‘तक्षक’ और ‘मय’ऋषियों के नेतृत्व मे पूर्व दिशा से विद्वान वर्तमान साईबेरिया के ब्लादिवोस्तक होते हुये उत्तरी अमेरिका महाद्वीप के अलास्का (जो केनाडा के उत्तर मे यू एस ए के कब्जे वाला क्षेत्र है)से दक्षिण की ओर बढ़े। ‘तक्षक’ ऋषि ने जहां पड़ाव डाला वह आज भी उनके नाम पर ही ‘टेक्सास’ कहलाता है जहां जान एफ केनेडी को गोली मारी गई थी। ‘मय’ ऋषि दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप के जिस स्थान पर रुके वह आज भी उनके नाम पर ‘मेक्सिको’ कहलाता है।
दक्षिण दिशा से जाने वाले ऋषियों का नेतृत्व ‘पुलत्स्य’ मुनि ने किया था जो वर्तमान आस्ट्रेलिया पहुंचे थे। उनके पुत्र ‘विश्रवा’मुनि महत्वाकांक्षी थे। वह वर्तमान श्रीलंका पहुंचे और शासक ‘सोमाली’ को आस्ट्रेलिया के पास के द्वीप भेज दिया जो आज भी उसी के नाम पर ‘सोमाली लैंड’कहलाता है। विश्रवा के बाद उनके तीन पुत्रों मे सत्ता संघर्ष हुआ और बीच के रावण ने बड़े कुबेर को भगा कर और छोटे विभीषण को मिला कर राज्य हसगात कर लिया। वह साम्राज्यवादी था। उसने साईबेरिया के शासक (जहां 06 माह का दिन और 06 माह की रात होती है अर्थात उत्तरी ध्रुव प्रदेश)’कुंभकर्ण’तथा पाताल-वर्तमान यू एस ए के शासक ‘एरावन’ को मिला कर भारत –भू के आर्यों को चारों ओर से घेर लिया और खुद अपने गुट को ‘रक्षस’=रक्षा करने वाले (उसका दावा था कि यह गुट आर्य सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करने वाला है)कहा जो बाद मे अपभ्रंश होकर ‘राक्षस’कहलाया।
राम-रावण संघर्ष आर्यों और आर्यों के मध्य राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद का संघर्ष था जिसे विदेशी इतिहासकारों और उनके भारतीय चाटुकारों ने आर्य-द्रविड़ संघर्ष बता कर भारत और श्रीलंका मे आज तक जातीय तनाव /संघर्ष फैला रखा है।
जब अब आपने यह विषय उठाया है तो विदेशियों के कुतर्क और विकृति को ठुकराने का यही सही वक्त हो सकता है। जनता के बीच इस विभ्रम को दूर किया जाना चाहिए कि ‘आर्य’ कोई जाति थी या है। विश्व का कोई भी व्यक्ति जो श्रेष्ठ कर्म करे आर्य था और अब भी होगा।
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/364918650236784
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तब उपरोक्त पर आए कमेन्ट और जवाब ये हैं :
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Comments
Giridhari Goswami : Bramhan ka matlab bhi gunwan hi hota hai, wishwash nahi to manusmriti me hi dekh len, fir bramhan aaj jaati ke rup me kyo jaani jati hai? usi prakar Arya bhi ek jaati hi hai, chahe uska arth kuchh bhi ho!
May 30, 2012 at 9:41pm
Vijai RajBali Mathur: गिरधारी गोस्वामी जी ज़िद्द या पूर्वाग्रह जो हों उनका निदान संभव नहीं। 'ब्राह्मण' का मतलब यदि गुणवान या जातिसूचक है तो निश्चय ही गलत मतलब निकाला गया है। 'ब्राह्मण' उसके लिए प्रयुक्त होता था जो 'ब्रह्माण्ड का ज्ञाता' होता था। आज कौन है?इसलिए आज ब्राह्मण भी कोई नहीं है। आर्य को जाति वे लोग अवश्य ही मानेंगे जो साम्राज्यवाद के जाल से बाहर नहीं निकाल पा रहे हैं। ये सब डिग्रियाँ =उपाधियाँ होती थीं वंशानुगत नहीं था । वंशानुगत/जाति का सिद्धान्त 'मानवता' का विरोधी है। लोग वैदिक को पौराणिक =पोंगापंथ से मिलाकर तौलते हैं वहीं से भ्रम फैलता है। खुद मनुस्मृति 'करमानुसार' उपाधि को मानती है। पौराणिक व्याख्यान शोषणपरक ,उत्पीडंकारी है उसे स्वीकार करना मानव-मानव मे भेद को स्वीकार करना है।
May 31, 2012 at 4:07pm · Like
Danda Lakhnavi :सराहनीय व्याख्या ......बधाई ....माथुर जी!
May 31, 2012 at 4:13pm · Unlike · 1
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विजयादशमी पर्व लोग इस धारणा के साथ आज मना रहे हैं कि इस दिन राम ने रावण का संहार किया था। परंतु वास्तविकता यह है कि इस दिन राम ने सुग्रीव के नेतृत्व वाली सेना का किष्किंधा की राजधानी 'पंपापुर' से लंका की ओर प्रस्थान कराया था। कालांतर में इस दिवस को विजय दिवस के रूप में मनाया जाने लगा और मेला तमाशा होने लगा।
रावण दस दिशाओं यथा- पूर्व,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण,ईशान,आग्नेय,वावव्य,नेरीत्य,आकाश (अन्तरिक्ष ) और पाताल (भू-गर्भ )का ज्ञाता और प्रकांड विद्वान था इसी लिए राम ने लक्ष्मण को उससे शिक्षा ग्रहण करने हेतु उसकी मृत्यु शैय्या के पास भेजा था।
राम का रावण से संघर्ष उसके 'विसतारवाद' व 'साम्राज्यवाद' के विरुद्ध था। सीता को तो एक कूटनीति के तहत लंका में गुप्तचरी करने हेतु भिजवाया गया था । लेकिन पोंगा-पंडितवाद ने सब कुछ गुड-गोबर कर दिया है। व्यापारियों के टी वी सीरियल ने ढोंग का सुदृढीकरण ही किया है। 'रामायण का ऐतिहासिक महत्व' पुस्तक,पुरातात्विक खोजों की प्रकाशित खबरों तथा वैज्ञानिक/सामाजिक विश्लेषणों के आधार पर 1982 में यह लेख आगरा के एक साप्ताहिक पत्र में प्रकाशित हुआ था
"जन्म गत ब्राह्मण चाहे खुद को कितना भी एथीस्ट घोषित करें होते हैं घोर जातिवादी वे नहीं चाहते कि सच्चाई कभी भी जनता के समक्ष स्पष्ट हो क्योंकि उस सूरत में व्यापार जगत के भले के लिए पोंगा पंथियों द्वारा की गई भ्रामक व्याख्याओं की पोल खुल जाएगी और परोपजीवी जाति की आजीविका संकट में पड़ जाएगी।
तुलसी दास जी द्वारा लिखित रामचरित मानस की क्रांतिकारिता,राजनीतिक सूझ-बूझ और कूटनीति के सफल प्रयोग पर पर्दा ढके रहने हेतु मानस में ऐसे लोगों के पूर्वजों ने प्रक्षेपक घुसा कर तुलसी दास जी को बदनाम करने का षड्यंत्र किया है तथा राम को अवतारी घोषित करके उनके कृत्यों को अलौकिक कह कर जनता को बहका रखा है। ढ़ोल,गंवार .... वाले प्रक्षेपक द्वारा बहुसंख्यक तथा कथित दलितों को तुलसी और मानस से दूर रखा जाता है क्योंकि यदि वे समझ गए कि 'काग भुशुंडी' से 'गरुण' को उपदेश दिलाने वाले तुलसी दास उनके शत्रु नहीं मित्र थे। पार्वती अर्थात एक महिला की जिज्ञासा पर शिव ने 'काग भुशुंडी-गरुण संवाद' सुनाया जो तुलसी द्वारा मानस के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसी वजह से काशी के ब्राह्मण तुलसी दास की जान के पीछे पड़ गए थे उनकी पांडु-लिपियाँ जला देते थे तभी उनको 'मस्जिद' में शरण लेकर जान बचानी पड़ी थी और अयोध्या आकर ग्रंथ की रचना करनी पड़ी थी । इसके द्वारा तत्कालीन मुगल-सत्ता को उखाड़ फेंकने का जनता से आह्वान किया गया था । साम्राज्यवादी रावण का संहार राम व सीता की सम्मिलित कूटनीति का परिणाम था। ऐसी सच्चाई जनता समझ जाये तो ब्राह्मणों व व्यापारियों का शोषण समाप्त करने को एकजुट जो हो जाएगी। अतः विभिन्न राजनीतिक दलों में घुस कर ब्राह्मणवादी जनता में फूट डालने के उपक्रम करते रहते हैं। क्या जनता को जागरूक करना पागलपन होता है?"
http://krantiswar.blogspot.in/2014/08/blog-post_21.html
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आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा मे दीपावली पर्व के प्रवचनों मे स्वामी स्वरूपानन्द जी ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था और उनसे पूर्व प्राचार्य उमेश चंद्र कुलश्रेष्ठ जी ने पूर्ण सहमति व्यक्त की थी। आज उनके ही शब्दों को आप सब को भेंट करता हूँ। ---
प्रत्येक प्राणी के शरीर मे 'आत्मा' के साथ 'कारण शरीर' व 'सूक्ष्म शरीर' भी रहते हैं। यह भौतिक शरीर तो मृत्यु होने पर नष्ट हो जाता है किन्तु 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म शरीर' आत्मा के साथ-साथ तब तक चलते हैं जब तक कि,'आत्मा' को मोक्ष न मिल जाये। इस सूक्ष्म शरीर मे -'चित्त'(मन)पर 'गुप्त'रूप से समस्त कर्मों-सदकर्म,दुष्कर्म और अकर्म अंकित होते रहते हैं। इसी प्रणाली को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है। इन कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद पुनः दूसरा शरीर और लिंग इस 'चित्रगुप्त' मे अंकन के आधार पर ही मिलता है। अतः यह पर्व 'मन'अर्थात 'चित्त' को शुद्ध व सतर्क रखने के उद्देश्य से मनाया जाता था। इस हेतु विशेष आहुतियाँ हवन मे दी जाती थीं।
आज कोई ऐसा नहीं करता है। बाजारवाद के जमाने मे भव्यता-प्रदर्शन दूसरों को हेय समझना आदि ही ध्येय रह गया है। यह विकृति और अप-संस्कृति है। काश लोग अपने अतीत को पहचान सकें और समस्त मानवता के कल्याण -मार्ग को पुनः अपना सकें।.........................................................
पौराणिक-पोंगापंथी -ब्राह्मणवादी व्यवस्था मे जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित।
'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म से अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति।
आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव जब अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। क्योंकि ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी अस्पताल मे आज भी जेनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही लिखा मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-
1- जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको 'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
4-जो लोग विभिन्न सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने तथा इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य माना जाता था।
ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था। ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे।
कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता आधारित उपाधि-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया। खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है।
यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुये भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।
http://krantiswar.blogspot.in/2012/11/blog-post_16.html
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दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि विद्वान व योग्य लेखक भी संकीर्ण ब्राहमनवाद को ही सही मानते हुये प्रतिक्रिया दे रहे हैं जैसा कि उपरोक्त फोटो स्कैन से सिद्ध होता है कि 'महर्षि वाल्मीकि' के संदर्भ में 'आर्यसमाज' व आर एस एस को इन विद्वानों ने एक समान तौल दिया है।
आर्यसमाज की स्थापना 1857 की स्वातन्त्र्य क्रांति के विफल होने पर 1875 में स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा की गई थी जिसका उद्देश्य 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' के उन्मूलन के साथ-साथ देश की आज़ादी के लिए संघर्ष चलाना था। शुरू-शुरू में आर्यसमाज का प्रसार छावनियों में ही किया गया था। ब्रिटिश सरकार दयानन्द को REVOLUTIONARY SAINT कहती थी और उनके आंदोलन को कुचलने के लिए 1885 में रिटायर्ड़ ICS एलेन आक्टावियन ह्यूम (A O HUME) को प्रेरित करके वाईसराय लार्ड डफरिन ने कांग्रेस की स्थापना करवाई थी जिसके प्रथम अध्यक्ष थे वोमेश चंद (W C ) बनर्जी । आर्यसमाजियों ने इस कांग्रेस में प्रविष्ट होकर इसे स्वतन्त्रता आंदोलन चलाने के लिए बाध्य कर दिया था जैसा कि, डॉ पट्टाभि सीता रम्मेया ने 'कांग्रेस का इतिहास' पुस्तक में लिखा भी है कि गांधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन में जेल जाने वाले कांग्रेसियों में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे। 1916 में मुस्लिम लीग को ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन के जरिये तथा 1920 में हिंदूमहासभा को लाला लाजपत राय व मदन मोहन मालवीय के जरिये तथा इसके सैन्य संगठन के रूप में 1925 में आर एस एस की स्थापना डॉ हेडगेवार के जरिये ब्रिटिश शासन को बचाए रखने के लिए अंग्रेज़ सरकार ने करवाई थी। इन संगठनों ने गांधी जी के स्वातन्त्र्य आंदोलन को विफल करने हेतु देश को साप्रदायिकता की भट्टी में झोंक दिया जिसके परिणाम स्वरूप 1947 में साम्राज्यवादी देश विभाजन हुआ जिसे धार्मिक/सांप्रदायिक विभाजन की संज्ञा दी जाती है ( जबकि यह शुद्ध साम्राज्यवादी विभाजन है )।
कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि ये महान विद्वान आर्यसमाज व आर एस एस के मूल चरित्र को समझे बगैर ही दोनों को एक समान बता रहे हैं। आर एस एस ने जैसे विभिन्न राजनीतिक दलों में घुसपैठ बनाई है उसी प्रकार सामाजिक संगठनों में भी और आज आर्यसमाजी संगठनों में भी आर एस एस के लोग हावी दीख रहे हैं किन्तु शुद्ध आर्यसमाजी आर एस एस विरोधी ही होता है।
आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा के जब सूरज प्रकाश कुमार साहब प्रधान थे तब उन्होने क्षेत्रीय वाल्मीकि बस्ती में प्रत्येक पूर्णमासी को प्रवचन कराने की व्यवस्था की थी जिससे इस समाज को ब्राह्मणवादी जकड़न से बाहर निकाला जाये। ऐसी ही एक बैठक में आचार्य विश्वदेव जी द्वारा 'भंगी' शब्द प्रयुक्त किए जाने पर इस समाज के एक बुजुर्ग साहब ने कड़ी आपत्ति की थी और उनसे इस शब्द की उत्पत्ति का स्त्रोत बताने को कहा था। व्याकरणाचार्य होते हुये भी विश्वदेव जी 'भंगी' शब्द की उत्तपत्ति का स्त्रोत नहीं बता पाये थे और हार मानते हुये उन्होने उन वृद्ध सज्जन से ही बताने का निवेदन किया था।
उन साहब ने जो बताया उसे विश्वदेव जी ने भी स्वीकार कर लिया था :
भंगी= जो भंग करे अर्थात जो किसी नियम, मर्यादा,चीज़ या परंपरा को भंग करे वह 'भंगी' होता है।
1 )- पारिवारिक मर्यादा,
2 )- सामाजिक मर्यादा,
3 )- राजनीतिक मर्यादा ,
4 )- राष्ट्रीय मर्यादा।
इन चार में किसी एक भी मर्यादा को भंग करने वाला 'भंगी' कहलाता था। न यह कोई समुदाय था न ही जाति। परंतु उपर्युक्त संदर्भ में दोनों विद्वानों ने वास्तविक तथ्यों की उपेक्षा सिर्फ इसलिए ही की है क्योंकि वे ब्राह्मणवादी/साम्राज्यवादी मानसिकता से उबर नहीं पा रहे हैं। जब विद्वान ही जागरूक नहीं होना चाहते तब जनता से क्या अपेक्षा की जा सकती है?
~विजय राजबली माथुर ©
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आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29 - 10 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2144 में दिया जाएगा
धन्यवाद
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