Monday, January 25, 2016

कायस्थों को सावधान रहना चाहिए ब्राह्मणवादी चालों से ------ विजय राजबली माथुर

 नेताजी सुभाष बोस की जयंती पर कायस्थ समाज की महिला शाखा द्वारा डॉ राजेन्द्र प्रसाद को संविधान निर्माता का श्रेय दिये जाने का मांग-पत्र  ए डी एम प्रशासन राजेश कुमार पाण्डेय को सौंप कर आर एस एस की ब्राह्मणवादी चाल में फँसने का प्रमाण दे दिया गया  है। 

वर्णाश्रम व्यवस्था से ऊपर स्थान वाले 'कायस्थ' को पहले तो ब्राह्मणों के आधीन घोषित किया गया फिर अब दलित कहे जाने वाले वर्ग से टकराव में ब्राह्मणों की 'ढाल' बनने को उत्प्रेरित किया गया है। 

वस्तुतः डॉ राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे जबकि 'संविधान' का प्रारूप तैयार करने वाली कमेटी के अध्यक्ष डॉ भीम राव अंबेडकर थे। खुद डॉ राजेन्द्र प्रसाद द्वारा डॉ अंबेडकर को संविधान निर्माता घोषित किया गया था । 

 किन्तु आज उन डॉ राजेन्द्र प्रसाद को डॉ अंबेडकर के खिलाफ खड़ा करने की धूर्तता पूर्ण साजिश की जा रही है। यह साजिश मूल संविधान को नष्ट करने के अभियान की कड़ी है , इस साजिश को समझना व ब्राह्मणवादी चालों को नाकाम करना कायस्थ समाज का ध्येय होना चाहिए । ब्राह्मणों ने बड़ी ही चालाकी से  कायस्थ महिलाओं को दलित विरोधी के रूप में खड़ा किया है , परंतु जो कायस्थ समाज मूलतः बुद्धिजीवी है अपनी बुद्धि को शोषक-उत्पीड़क ब्राह्मणों के हाथों गिरवी रख कर अपने ही हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाने को कैसे तैयार हो रहा है ; यह बेहद खेद व परेशानी की बात है। कायस्थ समाज की आँखें खोलने के लिए मौलिक जानकारी को यहाँ उपलब्ध कराया जा रहा है और यह अपेक्षा की जाती है कि कायस्थ समाज ब्राह्मणों की कुत्सित चालों का शिकार बनने के बजाए शोषित-उत्पीड़ित वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा हो तथा उनको प्रशिक्षित व जागरूक करने में अपना अमूल्य योगदान दे। डॉ अंबेडकर के अवमूल्यन तथा नेताजी की मृत्यु के ब्राह्मणवादी विवाद से कायस्थ समाज को दूर रहना चाहिए वही देश-हित में है।  

 पौराणिक-पोंगापंथी -ब्राह्मणवादी व्यवस्था मे जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
 'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित। 
'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म से अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति। 


आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव जब अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। क्योंकि ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे  अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी  अस्पताल मे आज भी जेनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही लिखा मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-


1- जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 

2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य  माना जाता था। 
3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको  'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 
4-जो लोग विभिन्न  सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने तथा इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य माना जाता था। 

ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ  ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था। ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे।


 कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके  शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता  आधारित उपाधि-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाति -व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया। खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है। 


शूद्रक लिखित संस्कृत नाटक 'मृच्छ्कटिक ' में  कायस्थों को निम्न जाति का वर्णन किया गया है और ब्राह्मणों का सहायक घोषित किया गया है। यह सब 'चित्रगुप्त' की संतान बताने की काल्पनिक  ब्राह्मणवादी कहानी ( जिसे कायस्थ शिरोधार्य कर रहे हैं )का दुष्परिणाम है । 

'मृच्छ्कटिक '  की नायिका -गणिका बसंत सेना 


यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुये भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।

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~विजय राजबली माथुर ©
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