September 15 at 6:22pm ·
बेहद ताज्जुब होता है जब फेसबुक पर विद्वानों को धर्म,ईश्वर,आस्तिक,नास्तिक,साधू,संत,सत्संग,भगवान आदि-आदि की निरर्थक बहस में उलझते देखता हूँ। वस्तुतः समस्या की जड़ है-ढोंग-पाखंड-आडंबर को 'धर्म' की संज्ञा देना तथा हिन्दू,इसलाम ,ईसाईयत आदि-आदि मजहबों को अलग-अलग धर्म कहना जबकि धर्म अलग-अलग कैसे हो सकता है? वास्तविक 'धर्म' को न समझना और न मानना और ज़िद्द पर अड़ कर पाखंडियों के लिए खुला मैदान छोडना संकटों को न्यौता देना है।
धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।
भगवान =भ (भूमि-ज़मीन )+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I(अनल-अग्नि)+न (जल-पानी)
चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इसलिए ये ही खुदा हैं।
इनका कार्य G(जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय) है अतः यही GOD हैं।
साधू = जिसने अपने जीवन को साध लिया है वही साधू,रंगीन पोशाकधारी नहीं।
संत= जिसने जीवन को संतुलित बना लिया हो और समाज के संतुलन हेतु प्रयास रत हो।
सत्संग= अच्छे लोगों का साथ देना न कि, ढ़ोल-मजीरा,चिमटा बजाना।
ईश्वर = जो ऐश्वर्य सम्पन्न हो । क्या आज ऐसा कोई है?
आस्तिक = जिसका अपने ऊपर विश्वास हो।
नास्तिक = जिसका अपने ऊपर विश्वास न हो किसी दूसरे द्वारा निर्देशित हो।
आत्मा = वह शक्ति- ऊर्जा -energy जो प्राणी शरीर को संचालित करती है।
परमात्मा = वह अदृश्य शक्ति- अदृश्य ऊर्जा - unforeseen energy जो संसार की असंख्य आत्माओं को संचालित करती है।
विज्ञान = किसी भी विषय का नियमबद्ध और क्रमबद्ध अध्यन न कि सिर्फ बीकर द्वारा प्रयोगशाला में सिद्ध करने की कला मात्र।
इसी प्रकार हर विवाद का समाधान किया जाये तो समस्या ही न बचे तब इन विद्वानों की विद्वता का क्या मोल रह जाये इसलिए समाज में विवाद व विग्रह कायम रखे जाते हैं।
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/1169607073101267
September 19, 2012 ·
गणेश=ग+ण+ईश =ज्ञान +मोक्ष +नायक =परमात्मा का वह स्वरूप जो ज्ञान और मोक्ष का प्रदाता है। यह शोर -शराबा तो अज्ञान और पाप का द्योतक है जो आज कल सड़कों पर दिखाई देता है।गण +ईश=गणेश =जननायक=राष्ट्रपति। राष्ट्रपति एवं जननायकों को गणेश जैसा होना चाहिए इस रूप का संदेश वही है। अर्थात शासक सुने सबकी (हाथी जैसे कान और सूंघने की सूंड जैसी शक्ति)और सब बातों को पचा कर रखने वाला हो जो करना हो वह कहे नही (खाने के दाँत और दिखाने के और)तथा पंच मार्गियों,देशद्रोहियों,आतंकियों को कुचल कर रखे -चूहे की सवारी का यही आशय है। ढोंग करने की अपेक्षा ऐसे शासक ही चुने यही इस पर्व का महत्व है।
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/412248028837179
श्राद्ध और तर्पण :
जीवित माता-पिता-गुरु-सास-ससुर की इच्छा को श्रद्धा पूर्वक 'तृप्त' करना ही 'श्राद्ध- तर्पण ' है। उनकी आत्मा की तृप्ति के नाम पर ढ़ोंगी-पाखंडी को खिलाना केवल 'फ्लश 'के जरिये फिजूल की बरबादी है।
~विजय राजबली माथुर ©
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