Tuesday, December 18, 2018

क्या हम कभी राफेल का सच जान पाएंगे ? ------ राजीव रंजन तिवारी

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क्या इस फैसले से हम कभी यह जान पाएंगे कि हिंदुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) को राफेल डील से बाहर क्यों किया गया ?  


राफेल सौदे पर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा। दरअसल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी इससे जुड़े कुछ प्रश्न अनुत्तरित रह गए हैं। देशहित में इनका जवाब मिलना जरूरी है। लेकिन अभी तो सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या मोदी सरकार ने राफेल विमानों की कीमत को लेकर सुप्रीम कोर्ट में शपथ-पत्र देकर झूठ बोला/ यह भी कि संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से इस मामले की जांच कराने से बच क्यों रही है सरकार/ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ये प्रश्न उठाए हैं। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों राफेल मामले में अपना फैसला सुनाते हुए उन सारी याचिकाओं को खारिज कर दिया, जिनमें इस सौदे की जांच कराने की मांग की गई थी। उसने विमानों की कीमत को लेकर जो फैसला सुनाया है, उसका आधार यह दिया कि विमानों की कीमत महालेखा नियंत्रक (सीएजी) के पास है और सीएजी ने इसकी रिपोर्ट संसद की लोकलेखा समिति यानी पीएसी को सौंप दी है।
राहुल गांधी ने सवाल उठाया कि सीएजी ने तो राफेल की कीमतों के लेकर कोई रिपोर्ट पीएसी को दी ही नहीं है, फिर मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ऐसा क्यों कहा/ राफेल डील को लेकर यशवंत सिन्हा, प्रशांत भूषण और अरुण शौरी द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में कहा गया था कि उनकी शिकायत पर सीबीआई ने एफआईआर दर्ज नहीं की है। उनका मानना था कि इस सौदे में भ्रष्टाचार हुआ है लिहाजा कोर्ट एफआईआर दर्ज करने और जांच का आदेश दे। अदालत ने इस पर निर्णय देते हुए इस बात को ध्यान में रखा कि क्या वह टेंडर और कॉन्ट्रैक्ट से संबंधित प्रशासनिक फैसलों की न्यायिक समीक्षा कर सकती है/ तीन फैसलों का उदाहरण देते हुए फैसले में लिखा गया है कि यह सड़क या पुल बनाने के टेंडर का नहीं, रक्षा से संबंधित खरीद की प्रक्रिया का मामला है इसलिए न्यायिक समीक्षा का दायरा सीमित हो जाता है। जाहिर है, अदालत रक्षा मामले के टेंडर और सड़क व पुल के टेंडर की प्रक्रिया में फर्क कर रही है। इससे दो तरह की नजीरें बन सकती हैं। आने वाले दिनों में रक्षा सौदों में कोई इसी आधार पर अदालत की समीक्षा से बच निकल सकता है, दूसरी तरफ कोई इस फैसले का हवाला देकर बेबुनियाद आरोपों से बच भी सकता है। 
अदालत ने बार-बार साफ किया है कि इस मामले में उसकी सीमा है। मगर क्या इस फैसले से हम यह जान पाएंगे कि हिंदुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) को राफेल डील से बाहर क्यों किया गया ? ?  सरकारी कागज़ात के अनुसार 126 विमानों की खरीद का अनुरोध प्रस्ताव मार्च 2015 में वापस लिया गया। 10 अप्रैल 2015 को भारत और फ्रांस के साझा घोषणा-पत्र में 36 राफेल विमान खरीदने का ऐलान होता है। इसे डीएसी, रक्षा खरीद कमेटी ने मंजूरी दी थी। जून 2015 में 126 विमान खरीदने का अनुरोध प्रस्ताव वापस ले लिया जाता है। क्या उस साझा घोषणा-पत्र में लिखा है कि 126 विमानों वाला प्रस्ताव वापस लिया जाएगा/ मार्च 2015 में 126 विमानों की खरीद का अनुरोध प्रस्ताव वापस लेने की बात अदालत के फैसले में है। अब याद कीजिए, डील होती है 10 अप्रैल 2015 को। इसके दो दिन पहले यानी 8 अप्रैल को विदेश सचिव जयशंकर कहते हैं कि एचएएल डील में शामिल है। 10 अप्रैल के 14 दिन पहले यानी मार्च 2015 में ही राफेल के सीईओ एचएएल के डील में होने की बात पर खुशी जाहिर करते हैं। क्या उन्हें पता नहीं था/ क्या उनकी जानकारी के बगैर कुछ बदल रहा था/ इसका कोई जवाब कोर्ट के फैसले से नहीं मिलता।
फैसले के तुरंत बाद प्रशांत भूषण ने कहा कि कोर्ट का फैसला एकदम गलत है। उन्होंने कहा कि एयरफोर्स से पूछे बिना ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फ्रांस जाकर समझौता कर लिया और इसके बाद तय कीमत से ज्यादा पैसा दे दिया। भूषण ने यह भी कहा कि सरकार ने राफेल मामले में कोर्ट में सीलबंद लिफाफे में रिपोर्ट दी है, जिसके बारे में हमें कोई जानकारी नहीं है। कोर्ट ने ऑफसेट पार्टनर चुनने के मामले में भी कुछ गलत नहीं माना है। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि दसौ एविएशन को अपना ऑफसेट पार्टनर चुनना था, जबकि रक्षा सौदे में लिखा है कि बिना सरकार की सहमति के कोई फैसला नहीं लिया जा सकता। इस मामले में पिछली सुनवाई के दौरान प्रशांत भूषण ने फ्रांस की कंपनी दसौ पर साजिश करने का आरोप भी लगाया, जिसने ऑफसेट अधिकार अनिल अंबानी की नई कंपनी को दिए हैं। उन्होंने इसे भ्रष्टाचार के समान बताते हुए इसको खुद में एक अपराध कहा और दावा किया कि रिलायंस डिफेंस के पास ऑफसेट करार क्रियान्वित करने की दक्षता नहीं है।
 • ताक पर नियम 
मालूम हो कि सितंबर 2017 में भारत ने करीब 58,000 करोड़ रुपये की लागत से 36 राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद के लिए फ्रांस के साथ अंतर-सरकारी समझौते पर दस्तखत किए थे। इससे करीब डेढ़ साल पहले 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पेरिस यात्रा के दौरान इस प्रस्ताव की घोषणा की थी। आरोप लगे हैं कि साल 2015 में प्रधानमंत्री द्वारा इस सौदे में किए गए बदलावों के लिए अनेक सरकारी नियमों को ताक पर रखा गया। यह विवाद इस साल सितंबर में तब और गहरा गया, जब फ्रांस के मीडिया में पूर्व फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद का बयान आया कि राफेल करार में भारतीय कंपनी का चयन नई दिल्ली के इशारे पर किया गया था। असल सवाल यही है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर कोई टिप्पणी नहीं की है। कांग्रेस अपने सवालों के साथ मैदान में डटी है जबकि सरकार कोर्ट के फैसले को अपनी जीत बता रही है। देखना है, यह प्रकरण कौन सा रूप लेता है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी कई जरूरी सवाल शिद्दत के साथ अपना जवाब ढूंढ रहे हैं
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~विजय राजबली माथुर ©

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