Thursday, November 14, 2019

जब दोनों पावर्स भारत को खुश करने की प्रतियोगिता कर रहे थे ------ मनीष सिंह





Manish Singh
दो ध्रुवीय विश्व हमारी पीढ़ी ने देखा है। हमारी सरकारों को कभी रूस और कभी अमरीका की कृपा के लिए जतन करते देखा है। पर एक वक्त था, जब इनके बीच गुटनिरपेक्ष देश तीसरा ध्रुव थे, भारत इनका अगुआ था, और नेहरू इसका चेहरा।

उस जमाने मे हम न परमाणु ताकत थे, न आर्थिक शक्ति, न विश्वयुद्ध के विजेताओं में शुमार थे। फिर भी नेहरू का स्टेट्स अगर वर्ल्ड लीडर्स के बराबर था, तो इसलिए 120 गुटनिरपेक्ष देश नेहरू की अगुआई में, हर मसले पर दुनिया की बड़ी ताकत को चुनौती देने का माद्दा रखते थे।

अन्तराष्ट्रीय राजनय में पहला विश्वस्तरीय फोरम "लीग ऑफ नेशन्स" था। लीग 1920 में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद बनी थी। थ्योरिटिकली इसमें सारे देश बराबर थे। पर असल मे चलती ब्रिटेन की थी, आधी दुनिया पर उसका राज था। अमरीका उसका साइडकिक था। दूसरे विश्वयुद्ध ने इक्वेशन बदल दिया। अमरीका, रूस ताक़तवर हुए। ब्रिटेन- फ्रांस जीतकर भी इतने कमजोर हो गए थे कि धड़ाधड़ कालोनियों को खाली कर वापस जाने लगे। एक और नया विजेता था- चीन। उसने एशिया की वर्ल्ड वार में जापान को हराया था। वो च्यांग काई शेक का चीन था।

ये 1945 का वर्ल्ड आर्डर था। ये पांच विजेता थे, ये पांच बड़े देश थे। इनकी अगुआई में यूनाइटेड नेशन्स बना। विजेताओं ने ताकत बांट ली। परमानेंट मेम्बर, वीटो, न्यूक्लियर ताकत अपने हाथ में रखा। आपस मे छुपा युद्ध लड़े भी, कैपिटलिस्ट- कम्युनिज्म के नाम पर। दुनिया पश्चिम और पूर्व के दो गुटों में बंट गयी।

चीन का किस्सा गजब हुआ। पश्चिमी प्रभाव वाले च्यांग काई शेक के चीन को 1949 में माओ की कम्युनिस्ट पार्टी ने जीत लिया। च्यांग को ताइवान भागना पड़ा। देश रातोरात कम्युनिस्ट हो गया। अमेरिका सहित पश्चिमी देश, चीन की सीट पर कम्युनिस्ट माओ को देखना नही चाहते थे। लेकिन स्टालिन का कम्युनिस्ट रूस, चीन के पक्ष में था। चीन की सीट होल्ड हो गयी।

कुछ गैरसरकारी पत्राचार में रिकार्ड है, की इस वक्त अमरीका ने नेहरू से पूछा था, की क्या वह भारत को चीन की सीट दिलाने की बात चलाये? नेहरू को पता था कि यह सम्भव नही है। इधर स्टालिन वीटो करके प्रस्ताव गिरा देगा, उधर माओ दुश्मनी छेड़ेगा। याने "खाया पिया कुछ नही, गिलास फोड़ा-बारह आना"। अभी भारत की हैसियत इनसे पंगा लेने की नही थी। फिर भी ये अमेरिका का यह पूछना, नेहरू की स्वीकार्यता का पैमाना समझिये।

देखा जाये तो भारत 1945 से ब्रिटिश कालोनी के रूप में भी यूएन का मेम्बर था। मगर सार्वभौम देश के रूप में अब नई चुनोतियाँ थीं। 1947 में आजाद हुआ ही था, की युद्ध मे फंस गया। कश्मीर फँसा था, जूनागढ़ हैदराबाद के एक्सेशन पर राजनीति गर्म थी। भारत पार्टीशन, दंगो में नहाकर सम्विधान निर्माण, प्रथम चुनाव की राह पर था।

मगर आगे आने वाले दस साल भारत अंतरराष्ट्रीय पहचान में वृद्धि के थे। 1954 में स्टालिन की मौत हुई। ख्रुश्चेव आये, तो नेहरू का 1955 का रूस दौरा माइलस्टोन रहा। इसके बाद भारत मे कारखाने, बांध, हाइड्रोइलेक्ट्रिक, न्यूक्लियर और स्पेस रिसर्च में रशियन तकनीक आयी। अमरीका भी भारत को रिझाने की कोशिश में था। कई व्यापारिक कंशेषन दिए, एड दी, खाद्यान्न दिया।

तो वो भी एक जमाना था जब दोनों पावर्स भारत को खुश करने की प्रतियोगिता कर रहे थे। सिक्युरिटी कॉउंसिल में बार बार भारत को द्विवार्षिक सदस्यता मिलती रही। कोरिया युध्द, इंडोचायना और स्वेज केनाल के विवाद प्राधिकरण में भारत चेयरमैन रहा। रंगभेद, ह्यूमन राइट और निरस्त्रीकरण पर भारत की आवाज बुलंद थी।

भारत के साथ और भी देश आजाद हुए थे। सबने साम्राज्यवाद को भुगता था। पीड़ा झेले हुए छोटे छोटे देश किसी का पिछलग्गू नही होना चाहते थे। नेहरू ने गुटनिरपेक्ष नीति अपनाई थी। 1955 में बांडुंग कांफ्रेंस में इसकी नीतियां बनी। 1961 में गुटनिरपेक्ष देश के फोरम बनाकर सामने आए। ऐसी नीति को पसंद करने वाले 120 देश गुटनिरपेक्ष आंदोलन से जुड़े। नेहरू नेता, प्रवक्ता, मार्गदर्शक थे। ये भारत का जलवा था।

1961 याद करने वक्त इसलिए भी है, की भारत ने योरोपीय देश, पुर्तगाल की कालोनी गोआ के सैनिक हस्तक्षेप से जीत लिया। पुर्तगाल यूएन में गया, मगर नेहरू ने कुछ देशो को पक्ष में लिया, कुछ को अनुपस्थित करवा दिया। मामला बराबरी पर आया तो रूस ने वीटो कर दिया। गोआ दमन और दीव पर भारत का तिरंगा लहराया। ये भारत और नेहरू का पीक टाइम था।

लेकिन इसके बाद अगले 40 साल का किस्सा निराशाजनक है। चीन से युद्ध, हार, नेहरू की मौत, पाकिस्तान से युध्द.. भारत का जलवा ढलता गया। रूस पर निर्भरता बढ़ती गयी। माओ मरे, तो 1970 में चीन को सीट वापस मिल गयी। इकोनमिकली भी वो ताकतवर होता गया।

हमें 1971 में बंगलादेश की जीत के जश्न के बाद, औऱ जश्न के मौके नही आये। चीन- अमरीका से रार बढ़ती गयी। अफगान युद्ध के कारण पाकिस्तान का महत्व बढ़ गया। रूस का घटता जलवा, इमरजेंसी, ढीली ग्रोथ, आतंकवाद, टूटी फूटी सरकारें। नरसिंहराव के वक्त एक बार द्विवार्षिक मेम्बरशिप मिलना ही उपलब्धि थी।

जेब मे पैसे हों, तो सब सलाम करते हैं। आर्थिक सुधारों के बाद भारत एशिया में सबसे तेज बढ़त लेने लगा। तब क्लिंटन के दूसरे कार्यकाल में हमे फिर तवज्जो मिलनी शुरू हुई। जार्ज बुश काल मे हम ऑफिशियल न्यूक्लियर पावर स्वीकार हुए तो ओबामा ने भारत की परमानेंट सदस्यता को समर्थन किया, यूएस कांग्रेस में प्रस्ताव पारित कराया। आठ विकसित देशों की बैठकों में बुलाया जाने लगा। ब्रिक्स बना, तो लगा भारत फिर उभर रहा है।

लेकिन जेब फिर खाली हो रही है। चीन हमें काफी पीछे छोड़ चुका है। रूस शनै शनै दूर हो रहा है। अमरीका की कृपा कभी आती है, अटक जाती है। लेकिन कूटनीति स्टेडियमो में झूम रही है। विदेश नीति, विदेशी नेता की निजी ताबेदारी में बदल गयी है।


हमने नेहरू को गरियाने का फैशन बना लिया है। मगर उंसके वक्त की ऊंचाई हम दोबारा कब पा सकेंगे, यह उत्तर भविष्य के गर्भ में है।
साभार : 
https://www.facebook.com/manish.janmitram/posts/2446917952059174

  ~विजय राजबली माथुर ©
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