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Friday, February 12, 2016

वसंत पंचमी और देवी सरस्वती ------ ध्रुव गुप्त /डॉ सुधाकर अदीब

  
Dhruv Gupt


वसंत पंचमी और देवी सरस्वती

प्राचीन आर्य सभ्यता और संस्कृति का केंद्र उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत हुआ करता था। आज की विलुप्त सरस्वती नदी तब इस क्षेत्र की मुख्य नदी हुआ करती थी। तत्कालीन आर्य-सभ्यता के सारे गढ़, नगर और व्यावसायिक केंद्र सरस्वती के किनारे बसे थे। तमाम ऋषियों और आचार्यों के आश्रम सरस्वती के तट पर स्थित थे। ये आश्रम अध्यात्म, धर्म, संगीत और विज्ञान की शिक्षा और अनुसंधान के केंद्र थे। वेदों, उपनिषदों और ज्यादातर स्मृति-ग्रंथों की रचना इन्हीं आश्रमों में हुई थी। सरस्वती को ज्ञान के लिए उर्वर अत्यंत पवित्र नदी माना जाता था। ऋग्वेद में इसी रूप में इस नदी के प्रति श्रद्धा-निवेदन किया गया है। कई हजार साल पहले सरस्वती में आई प्रलयंकर बाढ़ और विनाश-लीलाके बाद अधिकांश नगर और आश्रम जब नष्ट हुए तो आर्य सभ्यता क्रमशः गंगा और जमुना के किनारों पर स्थानांतरित हो गई। इस विराट पलायन के बाद भी जनमानस में सरस्वती की पवित्र स्मृतियां बची रहीं। इतिहास के गुप्त-काल के आसपास रचे गए पुराणों में उसे देवी का दर्जा दिया गया। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना की तो हर तरफ मौन छाया हुआ था। ब्रह्मा की तपस्या से वृक्षों के बीच से एक अद्भुत चतुर्भुजी स्त्री प्रकट हुई जिसके हाथों में वीणा, पुस्तक, माला और वर-मुद्रा थी। जैसे ही उस स्त्री ने वीणा का नाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी, जलधारा को कोलाहल और हवा को सरसराहट मिल गई। ब्रह्मा ने उसे वाणी की देवी सरस्वती कहा। वसंत पंचमी का दिन हम देवी सरस्वती के जन्मोत्सव के रूप में मनाते हैं। सरस्वती की पूजा वस्तुतः आर्य सभ्यता-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, गीत-संगीत और धर्म-अध्यात्म के कई क्षेत्रों में विलुप्त सरस्वती नदी की भूमिका के प्रति हमारी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति है।

मित्रों को वसंत पंचमी और सरस्वती पूजा की शुभकामनाएं !
साभार :

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यह वह आनंदमय समय होता है, जब खेतों में पीली-पीली सरसों खिल उठती है, गेहूं और जौ के पौधों में बालियां प्रकट होने लगती हैं, आम्र मंजरियां आम के पेड़ों पर विकसित होने लगती हैं, पुष्पों पर रंग-बिरंगी तितलियां मंडराने लगती हैं, भ्रमर गुंजार करने लगते हैं, ऐसे में आता है 'वसंत पंचमी' का पावन पर्व. इसे ऋषि पर्व भी कहते हैं.........................................................................
आधुनिक हिन्दी साहित्य जगत में महाप्राण निराला द्वारा रचित 'सरस्वती वंदना' सर्वाधिक लोकप्रिय है और अक्सर सारस्वत समारोहों के प्रारंभ में गाई जाती है-
"वर दे, वीणा वादिनि वर दे। 
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नवभारत में भर दे।
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर,
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
नवल कंठ, नव जलद-मंद्र रव,
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे।"




काट अंध-उर के बंधन-स्तर
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
वस्तुतः सरस्वती का ध्यान जड़ता को समाप्त कर मानव मन में चेतना का संचार करता है. सरस्वती का यह ज्ञानदायिनी मां का स्वरुप भारत में ही नहीं, विश्व के अनेक देशों में विभिन्न नामों से प्रचिलित है और वे श्रद्धापूर्वक वहां भी पूजी जाती हैं. उदाहरण के लिए हमारी 'सरस्वती' बर्मा में 'थुयथदी', थाईलैंड में 'सुरसवदी', जापान में 'बेंजाइतेन' और चीन में 'बियानचाइत्यान' कहा जाता है.
साभार :
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प्रायः सभी विद्वान वसंत पंचमी को सरस्वती आराधना का पर्व मानते हैं अर्थात ज्ञान-विज्ञान, मनन -चिंतन का पर्व है यह। वेदों में मानव- मात्र के कल्याण की बात कही गई है। वेद  देश - काल से परे सम्पूर्ण विश्व को आर्य अर्थात आर्ष = श्रेष्ठ बनाने की बात  करते हैं बिना किसी भी भेदभाव के । किन्तु दुर्भाग्य से मनुष्य ने अपने मूल चरित्र 'मनन' को भुला दिया है उसके स्थान पर कुतर्क, आस्था, अंध- विश्वास का बोलबाला हो गया है। ढोंग-पाखंड-आडंबर को ही उपासना या पूजा माना जाने लगा है। असमानता और भेदभाव आज सर्वत्र दिखाई दे रहा है। इसी कारण संघर्ष और विग्रह बढ़ रहा है। आज मुट्ठी भर  साधन-सम्पन्न वर्ग अपनी पकड़ व जकड़ को मजबूत बनाने हेतु बहुमत को विभिन्न खांचों व साँचों में बाँट कर परस्पर लड़ा कर कमजोर बनाता व उनका शोषण करता जा रहा है। आज समष्टिवादी  वेदों का स्थान शोषण- आधारित पुराणों को दे दिया गया है। वेदों को गड़रियों का गीत व आर्य को एक आक्रांता जाति घोषित करके जनता को गुमराह किया जा रहा है। 

आइये ज्ञान-विज्ञान की अधिष्ठात्री 'सरस्वती' पूजा के अवसर पर जानें कि कैसे  वेदों के अंतिम सूक्त द्वारा ऋषियों ने मानव - कल्याण की जो अपेक्षा की थी  उसे पुनर्स्थापित करके विश्व में शांति - स्थापना हो सकती है :
' सं समि ................................................... वसून्या भर। । '

हे प्रभो तुम शक्तिशाली हो बनाते सृष्टि को । 
वेद सब गाते तुम्हें हैं कीजिये धन वृष्टि को । । 1 । । 

 'संगच्छध्वं ...............................................................उपासते। । '

प्रेम से मिलकर चलें बोलें सभी ज्ञानी बनें। 
पूर्वजों की भांति हम कर्तव्य के मानी बनें । । 2 । । 

 'समानी मंत्र : ................................................... हविषा जुहोमि । । '

हों विचार समान सबके चित्त मन सब एक हों। 
ज्ञान पाते हैं बराबर भोग्य पा सब नेक हों । । 3 । । 

 'समानी व .............................. सुसहासति  । ।  '

हों सभी के दिल तथा संकल्प अविरोधी सदा । 
मन भरे हों प्रेम से जिससे बढ़े सुख संपदा । । 4 । । 

' सर्वे भवन्तु सुखिन : सर्वे संतु निरामया :  । 
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद दु :ख भाग भवेत । ।  '

सबका भला करो भगवान सब पर दया करो भगवान । 
सब पर कृपा करो भगवान, सबका सब विधि हो कल्याण । । 
हे ईश सब सुखी हों कोई न हो दुखारी । 
सब हों निरोग भगवन धन -धान्य के भण्डारी । । 
सब भद्र भाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों । 
दुखिया न कोई होवे सृष्टि में प्राण धारी । । 5 । ।   

बसंत पंचमी, होली, नवरात्र, श्रावणी,दीपावली आदि पर्वों पर सामूहिक रूप से हवन - यज्ञ किए जाते थे । यज्ञ 'संगति ' पर आधारित होते हैं और पति - पत्नी संयुक्त रूप से करते हैं। परिवार या समाज में कहीं भेदभाव न था। किन्तु पौराणिक ब्राह्मणों ने वेदों को पृष्ठ भूमि में धकेल दिया और मन गढ़ंत कहानिया रच डालीं जिनके द्वारा समाज व परिवारों में फूट डाल कर  विग्रह उत्पन्न कर दिया जिससे आज तक मानवता पीड़ित होकर कराह रही है। यज्ञ की सम्पूर्ण होने के बाद की जाने वाली प्रार्थना में भी सम्पूर्ण मानवता ही नहीं समस्त जीवधारियों के कल्याण की कामना की जाती है , देखिये : 

पूजनीय प्रभों हमारे भाव उज्जवल कीजिये ।
छोड़ देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिये । 1 । । 

वेद की बोलें ऋचाएँ सत्य को धारण करें । 
हर्ष में हों मग्न सारे शोक सागर से तरें । । 2 । । 

अश्वमेधादिक रचाएं यज्ञ पर उपकार को । 
धर्म मर्यादा चला कर लाभ दें संसार को  । । 3 । । 

नित्य श्रद्धा भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें । 
रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें। । 4 । । 

भावना मिट जाये मन से पाप अत्याचार की। 
कामनाएँ पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नार की । । 5 । । 

लाभकारी हो हवन हर जीवधारी के लिए। 
वायु जल सर्वत्र हों शुभ गंध को धारण किए। । 6 । । 

स्वार्थभाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो। 
"इदं न मम " का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो। । 7 । । 

प्रेम रस में तृप्त होकर वंदना हम कर रहे ।  
नाथ करुणारूप करुणा आपकी सब पर रहे । । 8 । ।   

ऐसी समष्टिवादी - समाजवादी वैदिक व्यवस्था को ठुकराये जाने से शोषण वादी - पूंजीवादी व्यवस्था ही मजबूत हुई है और पूंजी की पूजा का आज सर्वत्र विस्तार हो गया है। हवन करने को अन्न व घी- मिष्ठान्न सबकी बरबादी का हेतु बताया जाने लगा है और लंच व डिनर पार्टियों में अथाह भोजन बर्बाद किया जाने लगा है। हवन में दी गई आहुतियों से पर्यावरण भी शुद्ध रहता था व  जन-कल्याण  भी होता रहता  था । अब ब्राह्मण वादी व्यवस्था में जड़ - पत्थर पूजे जाते हैं जिस प्रक्रिया में अक्सर हादसे होते रहते हैं जिनमें असंख्य निर्दोषों के जीवन की इह - लीला तक समाप्त हो जाती है। 'नास्तिक संप्रदाय ' और 'मूल निवासी संप्रदाय '  भी वैदिक व्यवस्था का विरोध करके शोषक ब्राह्मण वादी व्यवस्था को अप्रत्यक्ष सहयोग देते रहते हैं  और जनता लुटती व पिटती रहती है। क्या आज वसंत पंचमी के पावन अवसर पर मननशील प्रबुद्ध जन साम्राज्यवादी/संप्रदायवादी/ फासिस्ट शक्तियों के निर्मूलन हेतु  समष्टिवादी - समाजवादी वैदिक व्यवस्था का अवलंबन लेने का संकल्प ले सकेंगे? 
( विजय राजबली माथुर )

~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

Saturday, January 24, 2015

सरस्वती की पूजा क्यों ---ध्रुव गुप्त /ज्ञान-विज्ञान की आराधना का पर्व ---विजय राजबली माथुर



·
 देवी सरस्वती की पूजा क्यों करते हैं हम ?:

प्राचीन काल में आर्य सभ्यता और संस्कृति का केंद्र उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत था। आज की विलुप्त सरस्वती तब वर्तमान जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पाकिस्तान के पूर्वी भाग, राजस्थान और गुजरात की मुख्य नदी हुआ करती थी। तत्कालीन आर्य-सभ्यता के सारे गढ़, नगर और व्यावसायिक केंद्र सरस्वती के किनारे बसे थे। तमाम ऋषियों और आचार्यों के आश्रम सरस्वती के तट पर स्थित थे। ये आश्रम अध्यात्म, धर्म, संगीत और विज्ञान की शिक्षा और अनुसंधान के केंद्र थे। वेदों, उपनिषदों और ज्यादातर स्मृति-ग्रंथों की रचना इन्हीं आश्रमों में हुई थी। सरस्वती को ज्ञान के लिए उर्वर अत्यंत पवित्र नदी का दर्ज़ा प्राप्त था। ऋग्वेद में इसी रूप में इस नदी के प्रति श्रद्धा-निवेदन किया गया है। कई हजार साल पहले सरस्वती में आई प्रलयंकर बाढ़ के बाद अधिकांश नगर और आश्रम गंगा और जमुना के किनारों पर स्थानांतरित तो हो गए, लेकिन जनमानस में सरस्वती की पवित्र स्मृतियां बची रहीं। इतिहास के गुप्त-काल में रचे गए पुराणों में उसे देवी का दर्जा दिया गया। उसके बाद अन्य देवी देवताओं के साथ सरस्वती की पूजा और आराधना भी आरम्भ हो गई। सरस्वती की पूजा वस्तुतः आर्य सभ्यता-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, गीत-संगीत और धर्म-अध्यात्म के कई क्षेत्रों में विलुप्त सरस्वती नदी की भूमिका के प्रति हमारी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति है।

सभी मित्रों को सरस्वती पूजा की शुभकामनाएं !
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=799460450130555&set=a.379477305462207.89966.100001998223696&type=1&theater
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ध्रुव गुप्त जी के आर्ष विचार पढ़ कर एक बार फिर से इस पुराने लेख को सार्वजनिक कर रहा हूँ :

Tuesday, February 8, 2011

वीर -भोग्या वसुंधरा


http://krantiswar.blogspot.in/2011/02/blog-post_08.html
 आज वसंत पंचमी है-सरस्वती पूजा.सुनिये एक छोटी स्तुति-



सरस्वती परमात्मा क़े उस स्वरूप को कहते हैं जिसके द्वारा हम ज्ञान-विज्ञान  ,बुद्धि,विवेक  को अर्जित करते हैं.जिस प्रकार किसी संस्था या संगठन की स्थापना से पूर्व उसके लिये नियम-विधान बनाये जाते हैं.उसी प्रकार परमात्मा ने सृष्टि क़े सृजन से पूर्व मनुष्यों द्वारा पालन करने हेतु नियमों की संरचना वेदों क़े रूप में की.मनुष्य है ही मनुष्य इसलिए कि,उसमें मनन करने की क्षमता है,अन्य किसी भी प्राणी को परमात्मा ने यह योग्यता नहीं दी है.पूर्व-सृष्टि की मोक्ष -प्राप्त आत्माओं को परमात्मा ने अंगिरा आदि ऋषियों क़े रूप में वेद-ज्ञान प्रदान करने हेतु प्रथ्वी पर अवतरित किया.परमात्मा स्वंय अवतार नहीं लेता है न ही नस और नाडी क़े बंधन में बंधता है जैसा कि,पोंगा-पंथियों ने प्रचारित कर रखा है.,ढोंगियों-पाखंडियों ने वेद-विपरीत अपने निहित स्वार्थ में गलत पूजा पद्धतियाँ विकसित कर ली हैं.आज आम जनता उन्हीं दुश्चक्रों में फंस कर अपना अहित करती जाती और दुखी होती रहती है.आज ज्ञान-विज्ञान क़े देवता सरस्वती की पूजा क़े अवसर पर एक बार फिर सबको पाखण्ड से बचने हेतु प्रेरित करने का छोटा सा प्रयास इस लेख क़े माध्यम से कर रहा हूँ.

देवता वह है जो देता है और बदले में लेता नहीं है,जैसे-वृक्ष  ,नदी,वायु,बादल(मेघ),अग्नि,भूमि,अंतरिछ आदि.अतः जो लोग इनसे अलग देवता की कल्पना कर पूजते हैं ,निश्चय ही वेद-विपरीत आचरण करते हैं जो परमात्मा क़े निर्देशों का खुला उल्लंघन नहीं तो और क्या है?.फिर कष्ट भोगने पर परमात्मा को कोसते है और अपनी गलती को सुधारते नहीं.क्योंकि ढोंगी-पाखंडी सुधार होने नहीं देना चाहते.दोषी कौन?

आज कल एक रिवाज़ चल रहा है वैज्ञानिक धर्म को अवैज्ञानिक बताने का.आज क़े तथा-कथित वैज्ञानिक सुनियोजित तरीके से प्रचार करते हैं कि,धर्म-ज्योतिष आदि अवैज्ञानिक ,ढोंग एवं टोटका हैं.अज्ञान की इंतिहा इस से ज्यादा क्या होगी?जो वास्तव में अविज्ञान है,टोटका और टोना,ढोंग तथा पाखण्ड है उसे तो पूजा जाता है और ऐसा वे तथा-कथित साईंस्दा ही ज्यादा करते हैं.बनारस जो धर्म-नगरी समझा जाता है वहीं से सम्बंधित लोग ऐसा करने में अग्रणी हैं.यह कोई आज नयी बात नहीं है.बनारस क़े ही तथा कथित विद्वानों ने जो उस समय क़े शासकों क़े अनुगामी थे पहले तो गोस्वामी तुलसी दास जी क़े लिखित ग्रन्थ को जलाना  शुरू किया और जब उन्होंने बनारस शहर छोड़ कर अवधी में 'राम चरित मानस'की रचना करके जनता का आव्हान शासन व्यवस्था को उलट देने का किया तो कुचक्र चला कर मानस को पूज्य बना दिया गया और राम को अवतार ,भगवान् आदि घोषित कर दिया गया जिससे आम जनता उनके चरित्र  का आचरण न करने की सोचे तथा पंगु ही बनी रहे और शासकों की लूट बरकरार रहे.राम ने साम्राज्यवादी रावण का संहार करके भारतीय राष्ट्रवाद की रक्षा की थी. अब आप उन्हें भगवान् का अवतार मानें तब आप वैसा ही कैसे कर सकते हैं और नहीं कर भी रहे हैं.तब लुटते  रहिये फिर क्यों रोते हैं हमारा धन स्विस बैकों में क्यों पहुंचा ? हम गण-तन्त्र में भी औपनैवेशिक बस्ती  जैसे क्यों हैं ?बनारस क़े करमकांडी वर्ग  ने गंगा क़े घाटों पर बड़े -बड़े आरे लगा रखे थे और स्वर्ग जाने क़े इच्छुक लोगों से मोटी दान -दक्षिणा लेकर उन्हें ढलान क़े रास्ते भेज देते थे.बेवकूफ स्वर्ग लालची उन आरों से कट कर गंगा में बह जाता था उसके परिवार जन जश्न मना कर उन तोदुओं का पेट और भरते थे. यह था गुलाम भारत में बनारस का विज्ञान.वहां क़े तीस मारखा विज्ञानी ब्लॉगर  आज फिर दहाड़ रहे हैं उन क़े मंतव्य को समझने और अपनी रक्षा करने की महती आवश्यकता है.
मारा भारतीय वैदिक-विज्ञान हमें बताता है कि,हम जिस पृथ्वी क़े वासी हैं वह अपनी धुरी पर एक लाख ग्यारह हजार छै सौ कि.मी.प्रति घंटे की गति से घुमते हुए अपने से १३ लाख गुना बड़े और नौ करोड़ ३० लाख मील की दूरी पर स्थित सूर्य की परिक्रमा कर रही है.सब ग्रहों का परिवार एक सौर परिवार है और एक अरब सौर परिवारों क़े समूह को एक नीहारिका कहते हैं और ऐसी १५०० निहारिकायें वैज्ञानिक साधनों द्वारा देखी गई हैं.एक आकाश गंगा में २०० अरब तारे हैं और अरबों आकाश गंगाएं विद्यमान हैं.एक आकाश गंगा का प्रकाश प्रथ्वी पर आने में १० अरब वर्ष लग जाते हैं.प्रकाश की गति ३ लाख कि.मी.प्रति सेकिंड है.अर्थात जब से यह पृथ्वी बनी है तब से कुछ नक्षत्रों का प्रकाश प्रथ्वी पर अभी नहीं पहुंचा है.इतने विशाल ब्रहमांड क़े रचियता की व्यवस्था में ग्रह-उपग्रह ,नक्षत्र आदि अपने स्थान (आर्बिट)पर सक्रिय हैं एक दूसरे से दूरी बनाये रख कर गतिशील हैं और आपस में नहीं टकरा रहे हैं.सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ३६० डिग्री में फैला है.सूर्य जिस पर निरन्तर हीलियम और हाईड्रोजन क़े विस्फोट हो रहे हैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का परिभ्रमण ३० -३० डिग्री  क़े हिसाब से कर रहा है ,इस प्रकार १२ राशियाँ हैं और २७ नक्षत्र हैं २८ वें अभिजित को गणना लायक न होने क़े कारण नहीं गिनते हैं.प्रत्येक नक्षत्र में चार चरण होते हैं .सूर्य छै माह उत्तरायण तथा छै माह द्क्शिनायन रहता है.सूर्य की ६० कलाएं हैं.
३६०*६० =२१६०० /उत्तरायण/दक्षिणायन २१६००/२ =१०८००  और बाद क़े शून्य की गणना नहीं होने क़े कारण १०८ मान बना इसी को माला में मनके क़े रूप में रखा और विधान बना दिया कि १०८ बार जाप करने से वह एक माला या माने ब्रह्माण्ड का एक चक्र पूर्ण हुआ. यह है हमारा वैदिक विज्ञान,जिसे पाश्चात्य क़े पिट्ठू गररियों  क़े गीत बताते हैं.मैक्स मूलर सा :जर्मनी क़े विद्वान भारत आ कर ३० वर्ष रह कर संस्कृत सीखते हैं और यहाँ से संस्कृत की मूल पांडू लिपियें ले कर चले जाते हैं और जर्मनी में उसके आधार पर रिसर्च होती है तथा वह पश्चिम का विज्ञान कहलाती है. जर्मन वैज्ञानिकों को रूस तथा अमेरिका ले जा कर (हिटलर की पराजय क़े बाद)अणु(एटम )बम्ब का अविष्कार होता है और  वह पश्चिम की खोज बन जाती है ,है न हम भारतीयों का कमाल?हमारे बनारसी साईंस ब्लागर्स हमारे ज्योतिष विज्ञान को अवैज्ञानिक बताने का दुह्साहस कर डालते हैं क्योंकि वे आज भी दासत्व -भाव में जी रहे हैं.
अथर्व वेद १० /३ /३१ में कहा है 'अष्टचक्रा नवद्वारा देव पूरयोध्या ' अर्थात यह शरीर देवताओं की ऐसी नगरी है कि उसमें दो आँखें,दो कान,दो नासिका द्वार एक मुंह तथा दो द्वार मल-मूत्र विसर्ज्नार्थ हैं.ये कुल नौ द्वार अर्थात दरवाजे हैं जिस अयोध्या नगर में रहता हुआ जीवात्मा अर्थात पुरुष कर्म करता और उनके फल भोगता है.द्वारों क़े सन्दर्भ में ही इस शरीर को द्वारिकापुरी भी कहा जाता है.आप आज क्या कर रहे है ? जिस अयोध्या को राम जन्म भूमी बना कर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा गढ़ी कहानी क़े आधार पर बेवजह लड़ रहे हैं उसे तो सम्राट हर्ष वर्धन ने साकेत नाम से बसाया था.राम क़े चरित्र को अपने में ढालेंगे नहीं ,राम की तरह साम्राज्यवाद का विनाश करेंगे नहीं बल्की साम्राज्यवादियों की चाल में फंस कर राम क़े नाम पर अपने ही देश में खून खराबा करेंगें.राम ने तो साम्राज्यवादी रावण का संहार उसके यहाँ जाकर किया था. आज क़े साम्राज्यवादी अमेरिका की चाकरी हमारे देश क़े वैज्ञानिक करने को सदैव आतुर रहते हैं.यह क्या है?
'ब्रह्म्सूत्रेण पवित्रीक्रित्कायाम 'यह लिखा है कादम्बरी में सातवीं शताब्दी में आचार्य बाणभट्ट ने.अर्थात  महाश्वेता ने जनेऊ पहन रखा है, तब तक लड़कियों का भी उपनयन होता था.(अब तो सबका उपहास अवैज्ञानिक कह कर उड़ाया जाता है).श्रावणी पूर्णिमा अर्थात रक्षा बंधन पर उपनयन क़े बाद नया विद्यारम्भ होता था.उपनयन अर्थात जनेऊ क़े तीन धागे तीन महत्वपूर्ण बातों क़े द्योतक हैं-
१ .-माता,पिता,तथा गुरु का ऋण उतारने  की प्रेरणा.
२ .-अविद्या,अन्याय ,आभाव दूर करने की जीवन में प्रेरणा.
३ .-हार्ट,हार्निया,हाईड्रोसिल (ह्रदय,आंत्र और अंडकोष -गर्भाशय )संबंधी नसों का नियंत्रण ;इसी हेतु कान पर शौच एवं मूत्र विसर्जन क़े वक्त धागों को लपेटने का विधान था.आज क़े तथा कथित पश्चिम समर्थक विज्ञानी इसे ढोंग, टोटका कहते हैं क्या वाकई ठीक कहते हैं?
विश्वास-सत्य द्वारा परखा  गया तथ्य
अविश्वास-सत्य को स्वीकार न  करना
 अंध-विश्वास--विश्वास अथवा अविश्वास पर बिना सोचे कायम रहना
विज्ञान-किसी भी विषय क़े नियमबद्ध एवं क्रमबद्ध अध्ययन को विज्ञान कहते हैं.
इस प्रकार जो लोग साईंस्दा होने क़े भ्रम में भारतीय वैज्ञानिक तथ्यों को झुठला रहे हैं वे खुद ही घोर अन्धविश्वासी हैं.वे तो प्रयोग शाळा में बीकर आदि में केवल भौतिक पदार्थों क़े सत्यापन को ही विज्ञान मानते हैं.यह संसार स्वंय ही एक प्रयोगशाला है और यहाँ निरन्तर परीक्षाएं चल रहीं हैं.परमात्मा एक निरीक्षक (इन्विजीलेटर)क़े रूप में देखते हुए भी नहीं टोकता,परन्तु एक परीक्षक (एक्जामिनर)क़े रूप में जीवन का मूल्यांकन करके परिणाम देता है.इस तथ्य को विज्ञानी होने का दम्भ भरने वाले नहीं मानते.यही समस्या है.
आज वसंत-पंचमी को ही महा कवी पं.सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'का जन्मदिन भी है उन्होंने माँ सरस्वती से हम सब भारतीयों क़े लिये जो वरदान मँगा है ,वही इस लेख का अभीष्ट है-

वर दे वीणावादिनी
वर दे वीणावादिनी वर दे!
प्रिय स्वतंत्र-रव, अमृत-मंत्र नवभारत में भर दे ।
काट अंध उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष- भेद-तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दें !
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मंद्र रव
नव नभ के नव विहग-वृंद को नव पर, नव स्वर दे ।

(--निराला)

  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।