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Tuesday, April 2, 2019

जमीन की उपज पर सभी का अधिकार है ------ अश्वनि शर्मा

 ****** याद रखना जरूरी है कि हमारे समाज की बुनियाद सामाजिक न्याय पर टिकी है। यदि समाज में शांति और सौहार्द्र की रूपरेखा बुनी गई है तो ऐसा करने वालों को हमें उनका हक देना होगा । ******


घुमंतू समाज को कब मिलेगी घोषणापत्रों में जगह
------ अश्वनि शर्मा

2011 की जनगणना के अनुसार देश में 840 घुमंतू समुदाय हैं। रैनके आयोग की रिपोर्ट कहती है कि इस समुदाय की जनसंख्या देश की कुल आबादी का 10 फीसदी है।  
चुनावी प्रचार के शोरगुल के बीच सभी दल अपने वोट बैंक को लुभाने के लिए तरह-तरह के दावे और वादे कर रहे हैं। लेकिन लोकतंत्र के इस सबसे बड़े त्योहार में हर बार की तरह इस बार भी घुमंतू समाज के लिए कुछ नहीं है। 2011 की जनगणना के अनुसार पूरे देश में 840 घुमंतू समुदाय हैं। इसके अंतर्गत नट, भाट, भोपा, गड़िया लुहार, कालबेलिया, कंजर, बावरिया, गवारिया, बहुरूपिया, जागा, जोगी, सांसी, मारवाड़ी इत्यादि आते हैं। रैनके आयोग की रिपोर्ट कहती है कि घुमंतू समुदाय की जनसंख्या देश की कुल आबादी का 10 फीसदी है। इसके बावजूद तमाम राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में इनकी उपस्थिति का कोई संकेत नहीं मिलता।

यह हमारे लोकतंत्र की एक विडंबना है। यहां पर संगठित और जागरूक की चलती है। चूंकि घुमंतू समाज अभी न जागरूक है और न ही संगठित इसलिए सरकारें और राजनीतिक पार्टियां उसकी कुछ फिक्र करना जरूरी नहीं समझतीं। हालांकि घुमंतू समाज को चलाने वाले ऊंचे दर्जे के लोग रहे हैं। इनसे हमारा जीवन संबल पाता था। ये हमें एक-दूसरे से जोड़ने का कठिन काम करते रहते थे। स्थानीय संस्कृति के विविध रंगों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक यही पहुंचाते। ये गधों ओर ऊंटों की सहायता से व्यापार और परिवहन का कार्य करते। 

इनकी हमारे साथ बेहतरीन जुगलबंदी हुआ करती थी जिसका आधार इस सोच पर टिका था कि जमीन की उपज पर सभी का अधिकार है। लेकिन जैसे-जैसे हमारा सामाजिक-आर्थिक ढांचा बदला, किसान की हालत बिगड़ी, कृषि का स्तर गिरा वैसे-वैसे यह जुगलबंदी कमजोर पड़ी और ये घुमंतू लोग अपनी ही जमीन पर बेगाने हो गए। फलस्वरूप हुआ यह कि घुमंतुओं के साथ जुड़ा हमारा जीवनचक्र टूट गया। 

रैनके आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 98 फीसदी घुमंतू बिना जमीन रहते हैं, 57 फीसदी के पास रहने के लिए झोपड़ी है, 72 फीसदी के पास अपनी पहचान के दस्तावेज नहीं हैं और 94 फीसदी घुमंतू बीपीएल श्रेणी से बाहर हैं। उन्हें न राशन मिलता है न ही पेंशन। आए दिन इनके कच्चे घरौंदों को भी ढहा दिया जाता है। यहां तक कि मरने पर इनको श्मशान भूमि भी नसीब नहीं होती।

भले किसी प्रमुख दल या प्रत्याशी ने इन समुदायों के लिए घोषणापत्र निकालने या अपने घोषणापत्र में इनके लिए कुछ जगह निकालने की जरूरत न समझी हो, इनके हालात को देखते हुए कुछ सुझाव जरूर रखे जा सकते हैं जो इन समुदायों के लोगों की दशा और दिशा में बदलाव लाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। 

एक ---  घुमंतू समाज के लिए आवास और पशुबाड़ों की व्यवस्था की जाए। इसके लिए केरल और आंध्रप्रदेश की तर्ज पर होम स्टेट एक्ट लाया जा सकता है।
 दो ---  घुमंतू समाज के साथ होने वाले अपराधों को एससी/एसटी एक्ट के अंतर्गत लाया जाए।
 तीन ---  घुमंतू समाज के बच्चों के लिए आवासयुक्त स्कूल बने जहां वे आधुनिक शिक्षा के साथ अपनी कला-संस्कृति से जुड़ी बारीकियां भी सीखें।
 चार ---  घुमंतू समाज की कला-संस्कृति को सहेजने के लिए एक केंद्र बनाया जाए।
 पांच ---  घुमंतू समाज की कला को बचाना है तो इनकी जीवन प्रक्रिया को बचाने की जुगत की जाए। इससे इनके परंपरागत ज्ञान की पूंजी भी बची रहेगी।


बात चुनावों की या घोषणापत्र की नहीं, पुरखों से सीखे समाज के सहज और उपयोगी ज्ञान की अवहेलना की है, उस परंपरा के अंत की है जिसकी बुनियाद पर हम टिके हैं। हालांकि हमें इस ज्ञान का कोई मोल नहीं चुकाना है, फिर भी हम उसकी जड़ में मट्ठा डाल रहे हैं। याद रखना जरूरी है कि हमारे समाज की बुनियाद सामाजिक न्याय पर टिकी है। यदि समाज में शांति और सौहार्द्र की रूपरेखा बुनी गई है तो ऐसा करने वालों को हमें उनका हक देना होगा। संस्कृति को ऊंट और सारंगी तक सीमित करके हम न तो संस्कृति को बचा पाएंगे और न सदियों से चले आ रहे अपने समाज के सत्व को सुरक्षित रख पाएंगे।

http://epaper.navbharattimes.com/details/25615-77096-2.html


 ~विजय राजबली माथुर ©
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02-04-2019