Tuesday, March 5, 2013

धर्म और कर्म




ज़्यादातर लोग धर्म का मतलब किसी मंदिर,मस्जिद/मजार ,चर्च या गुरुद्वारा अथवा ऐसे ही दूसरे स्थानों  पर जाकर  उपासना करने से लेते हैं। इसी लिए इसके एंटी थीसिस वाले लोग 'धर्म' को अफीम और शोषण का उपक्रम घोषित करके विरोध करते हैं । दोनों दृष्टिकोण अज्ञान पर आधारित हैं। 'धर्म' है क्या? इसे समझने और बताने की ज़रूरत कोई नहीं समझता।


23 hours ago ·01 मार्च,2013 
'धर्म'=धारण करने वाला। जो शरीर व समाज को धारण  करने हेतु आवश्यक है वही धर्म है बाकी सब कुछ अधर्म है उसे धर्म की संज्ञा देना ही अज्ञान को बढ़ावा देना है। धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। कृपया ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म की संज्ञा न दें।
उपरोक्त बात अक्सर ब्लाग एवं फेसबुक के माध्यम से कहता रहा हूँ परंतु खेद इस बात का रहा है कि,विद्वजन भी ढोंग को ही धर्म मानते व उसके पक्ष मे कुतर्क पेश करते रहे हैं। नवगठित फेसबुक ग्रुप 'सोश्यिओलोजिस्ट-फार सोशल पैथोलॉजी'मे भी जब मैंने यही बात कही--- 'धर्म' और ढोंग दो विपरीत तत्व हैं। आजकल लोग (शोषक भी और प्रगतिशील भी)ढोंग को ही धर्म की संज्ञा देते हैं और समस्या यहीं से शुरू होती है। .........................  प्रगीतिशीलता/वैज्ञानिकता की आड़ मे जब धर्म को अफीम कह कर ठुकरा दिया जाये और ढोंग को धर्म माना जाये तो क्या हो सकता है?यदि हम जनता को बेधड़क समझाये कि धर्म ये सद्गुण हैं वे ढोंग नहीं जिंनका प्रवचन उतपीडकों के प्रतिनिधि देते फिरते हैं तब हमारी बात का सकारात्मक प्रभाव अवश्य ही होगा।'

इसके उत्तर मे ग्रुप एडमिन अनीता राठी जी ने कहा--'आप ठीक कहते है विजय जी लेकिन हमारे देश की आबादी को जो की या तो अन्धानुकारन करने लगती है, या फिर कोरी किताबी बातें , या तो पत्थर को दूध पिलाने लगती है या फिर सेधान्तिक हो जाती है।संतुलन नहीं है समझ में।'

इस पर मैंने उनको सूचित किया कि,-'  जी हाँ उसी के लिए मैं अपने ब्लाग-http://krantiswar.blogspot.in के माध्यम से व्यक्तिगत स्तर पर लगातार संघर्ष कर रहा हूँ।'



Anita Rathi -आपके इस नेक काम के लिए बधाई, इंसान होने का फ़र्ज़ अदा कर रहे है आप,
Vijai RajBali Mathur -आपकी सद्भावनाओं हेतु धन्यवाद।

पहली बार किसी विद्वान द्वारा मेरे तर्क  को सही मानने का कारण (अनीता राठी जी  M.A. English / Anthropology / Sociology हैं)उनकी अपनी योग्यता है।वैसे ऊपर कुछ साम्यवादी विद्वानों द्वारा भी  यह तर्क पसंद किया गया है। 

वास्तविकता यही है कि ,मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध बनाने के लिए जो प्रक्रियाएं हैं वे सभी 'धर्म' हैं। लेकिन जिन प्रक्रियाओं से मानव जीवन को आघात पहुंचता है वे सभी 'अधर्म' हैं। देश,काल,परिस्थिति का विभेद किए बगैर सभी मानवों का कल्याण करने की भावना 'धर्म' है।

ऋग्वेद के इस मंत्र को देखें-
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया :
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद दु : ख भाग भवेत। ।
इस मंत्र मे क्या कहा गया है उसे इसके भावार्थ से समझ सकते हैं- --

सबका भला करो भगवान ,सब पर दया करो भगवान।
सब पर कृपा करो भगवान,सब का सब विधि हो कल्याण। ।
हे ईश सब सुखी हों ,कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवान,धन धान्य के भण्डारी। ।
सब भद्र भाव देखें,सन्मार्ग के पथिक हों।
दुखिया न कोई होवे,सृष्टि मे प्राण धारी । ।
ऋग्वेद का यह संदेश न केवल संसार के सभी मानवों अपितु सभी जीव धारियों के कल्याण की बात करता है।

 भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)।
 क्या इन तत्वों की भूमिका को मानव जीवन मे नकारा जा सकता है?और ये ही पाँच तत्व सृष्टि,पालन और संहार करते हैं जिस कारण इन्ही को GOD कहते हैं  ...
GOD=G(generator)+O(operator)+D(destroyer)। खुदा=और चूंकि ये तत्व' खुद ' ही बने हैं इन्हे किसी प्राणी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं। 'भगवान=GOD=खुदा' - मानव ही नहीं जीव -मात्र के कल्याण के तत्व हैं न कि किसी जाति या वर्ग-विशेष के।  

आज सर्वत्र पोंगा-पंथी,ढ़ोंगी और संकीर्णतावादी  तत्व (विज्ञान और प्रगतिशीलता के नाम पर) 'धर्म' और 'भगवान' की आलोचना करके तथा पुरोहितवादी 'धर्म' और 'भगवान' की गलत व्याख्या करके मानव द्वारा मानव के शोषण को मजबूत कर रहे हैं।

'मनुष्य' मात्र के लिए सृष्टि के प्रारम्भ मे 'धर्म,अर्थ,काम एवं मोक्ष' हेतु कार्य करने का निर्देश विद्वानों द्वारा दिया गया था। किन्तु आज 'धर्म' का तो कोई पालन करना ही नहीं चाहता और ढोंग -पाखंड-आडंबर को 'पूंजी' ने 'पूजा' अपने शोषण-उत्पीड़न को मजबूत करने हेतु बना दिया है तथा उत्पीड़ित गरीब-मजदूर/किसान इन पूँजीपतियों के दलालों द्वारा दिये गए खुराफाती वचनों को प्रवचन मान कर भटकता व अपना शोषण खुशी-खुशी कराता रहता है। 

'काम'=समस्त मानवीय कामनाए होता है किन्तु आज काम को वासना-सेक्स के अर्थ मे प्रयुक्त किया जा रहा है यह भी पूँजीपतियों/व्यापारियों की ही तिकड़म का नतीजा है जो निरंतर 'संस्कृति' का क्षरण कर रहा है। समाज मे व्याप्त सर्वत्र त्राही इसी निर्लज्ज  पूंजीवादी सड़ांध के कारण है। 

'मोक्ष' की बात तो अब कोई करता ही नहीं है। कभी विज्ञान के नाम पर तो कभी नास्तिकता के नाम पर जन्म-जन्मांतर को नकार दिया जाता है। या फिर अंधकार मे  अबोध जनता को भटका दिया जाता है और वह मोक्ष प्राप्ति की कामना के नाम पर कभी गया मे 'पिंड दान' के नाम पर लूटी जाती है तो कभी अतीत मे 'काशी करवट'मे अपनी ज़िंदगी कुर्बान करती रही है। यह सारा का सारा अधर्म किया गया है धर्म का नाम लेकर और इसे अंजाम दिया है व्यापारियों और पुरोहितों ने मिल कर। सत्ता ने भी इन लुटेरों का ही साथ पहले भी दिया था और आज भी दे रही है। 

'अर्थ' का स्थान 'धर्म' के बाद था किन्तु आज तो-"इस अर्थ पर 'अर्थ' के बिना जीवन का क्या अर्थ "सूत्र सर्वत्र चल रहा है । इसी कारण मार-काट,शोषण-उत्पीड़न,युद्ध-संहार चलता रहता है। हर किसी को धनवान बनने की होड लगी है कोई भी गुणवान बनना नहीं चाहता। सद्गुणों की बात करने पर उपहास उड़ाया जाता है और भेड़चाल का हिस्सा न बनने पर प्रताड़ित किया जाता है। अर्थतन्त्र केवल धनिकों/पूँजीपतियों के संरक्षण की बात करता है उसमे साधारण 'मानव' को कोई स्थान नहीं दिया गया है। 'मानवता'की स्थापना हेतु 'कर्मवाद' पर चलना होगा तभी विश्व का कल्याण हो सकता है।  

'कर्म' तीन प्रकार के होते हैं-1)सदकर्म,2)दुष्कर्म और 3) 'अकर्म'पहले दो कर्मों के बारे मे सभी जानते हैं लेकिन फिर भी अपने दुष्कर्म को सदकर्म सभी दुष्कर्मी बताते हैं। सबसे महत्वपूर्ण है 'अकर्म'अर्थात वह कर्म=फर्ज़=दायित्व जो किया जाना चाहिए था लेकिन किया नहीं गया। भले ही सीधे-सीधे इसमे किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया गया है किन्तु जो नुकसान किसी का बचाया जा सकता था वह बचाया नहीं गया है जो कि,'प्रकृति' की नज़र मे अपराध है और वह इसके लिए उस मनुष्य को दंडित अवश्य ही करती है। 'भगवान'='खुदा'=GOD तत्व सर्वत्र व्यापक हैं और उनको किसी दलाल/बिचौलिये की सहायता की आवश्यकता नहीं है। यह दंड के लिए किसी भी माध्यम का चयन स्वतः कर लेते हैं। अतः ठेकेदार/बिचौलिये/पूरिहितों के झांसे मे आए बगैर प्रत्येक 'मनुष्य' को 'सदकर्म' का पालन और दुष्कर्म व  'अकर्म'से बचना चाहिए तभी हम धरती पर 'सुख' व 'शांति' स्थापित कर सकते हैं अन्यथा यों ही भटकते हुये रोते-गाते अपना मनुष्य जीवन व्यर्थ गँवाते जाएँगे। 
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