संविधान निर्माण के लिए गठित प्रारूप कमेटी ने 27 अक्टूबर 1947 को अपना काम शुरू किया। लेकिन सच्चाई यह थी कि ब्रिटिश सरकार के विश्वासपात्र, ”इण्डियन सिविल सर्विसेज़” के कुछ घुटे-घुटाये नौकरशाह संविधान का एक प्रारूप पहले ही तैयार कर चुके थे। इनमें पहला नाम था सर बी.एन. राव का, जो संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार थे। दूसरा नाम था संविधान के मुख्य प्रारूपकार एस.एन. मुखर्जी का। इन दो महानुभावों ने 1935 के क़ानून के आधार पर संविधान का मसौदा तैयार किया था और संविधान सभा के कर्मचारियों ने उनकी मदद की थी। इस सच्चाई को अम्बेडकर ने भी प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष की हैसियत से 25 नवम्बर 1947 को दिये गये अपने लम्बे भाषण में भी स्वीकार किया था। संविधान सभा की प्रारूप कमेटी का काम था पहले से ही तैयार प्रारूप की जाँच करना और आवश्यकता होने पर संशोधन हेतु सुझाव देना। इस तथ्य को संविधान सभा के एक सदस्य सत्यनारायण सिन्हा ने भी स्वीकार किया है। कमेटी के सभी सदस्य प्राय: बैठकों में उपस्थित भी नहीं रहते थे, लेकिन कोरम पूरा रहता था और बैठकें जारी रहती थीं। प्रारूप कमेटी की ये बैठकें 27 अक्टूबर 1947 से 13 फरवरी 1948 तक जारी रहीं। कमेटी ने अन्तिम प्रारूप 21 फरवरी को सभापति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सौंप दिया। 8 माह बाद, 4 नवम्बर 1948 को संविधान सभा में प्रारूप पर चर्चा प्रारम्भ हुई जो एक वर्ष तक जारी रही। सदस्यों ने किसी-किसी पहलू पर विशिष्ट टिप्पणियाँ कीं और कुछ संशोधनों के सुझाव भी दिये, जिनमें से कुछ को संविधान में शामिल कर लिया गया। 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा ने संविधान के अन्तिम प्रारूप को पारित कर दिया। 24 जनवरी 1950 को केन्द्रिय असेम्बली/संविधान सभा के अन्तिम सत्र की शुरुआत हुई जिसमें सचिव एच.वी.आर. अयंगर ने घोषणा की कि राजेन्द्र प्रसाद सर्वसम्मति से भारत के पहले राष्ट्रपति चुने गये हैं। फिर सभी 284 सदस्यों ने संविधान की सुलेखित (कैलिग्राफिक) प्रति पर हस्ताक्षर किये। पहले हस्ताक्षरकर्ता प्रधनमन्त्री नेहरू थे और अन्तिम हस्ताक्षर संविधान सभा के अध्यक्ष की हैसियत से राजेन्द्र प्रसाद ने किये। 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हो गया। केन्द्रीय असेम्बली/संविधान सभा उस दिन भंग हो गयी, उसने स्वयं को भारत की आरजी (प्रोविज़नल) संसद में तब्दील कर लिया जो 1952 में पहले आम चुनाव के बाद नयी संसद के अस्तित्व में आने तक कार्यरत रही।
भारतीय नागरिकों को प्रदत्त मूलभूत अधिकार न सिर्फ़ नाकाफ़ी हैं बल्कि जो चन्द राजनीतिक अधिकार संविधान द्वारा दिये भी गये हैं उनको भी तमाम शर्तों और पाबन्दियों भरे प्रावधानों से परिसीमित किया गया है। उनको पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है मानो संविधान निर्माताओं ने अपनी सारी विद्वता और क़ानूनी ज्ञान जनता के मूलभूत अधिकारों की हिफ़ाज़त करने के बजाय एक मज़बूत राज्यसत्ता की स्थापना करने में झोंक दिया हो। इन शर्तों और पाबन्दियों की बदौलत आलम यह है कि भारतीय राज्य को जनता के मूलभूत अधिकारों का हनन करने के लिए संविधान का उल्लंघन करने की ज़रूरत ही नहीं है। इसके अतिरिक्त संविधान में एक विशेष हिस्सा (भाग 18) आपातकाल सम्बन्धी प्रावधानों का है जो राज्य को आपातकाल घोषित करने का अधिकार देता है। आपातकाल की घोषणा होने के बाद नागरिकों के औपचारिक अधिकार भी निरस्त हो जाते हैं और राज्य सत्ता को लोकतंत्र का लबादा ओढ़ने की भी ज़रूरत नहीं रहती। ग़ौरतलब है कि आज़ादी के बाद से अब तक कुल चार बार आपातकाल घोषित किया जा चुका है (तीन बार बाध्य कारणों से और एक बार आन्तरिक कारण से)। 1975 में इन्दिरा गाँधी सरकार द्वारा घोषित आन्तरिक आपातकाल नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के धड़ल्ले से हनन के लिए कुख्यात है जब 19 महीनों तक संविधानसम्मत तरीके से वस्तुतः तानाशाही क़ायम थी जिसका ज़िक्र आने पर इस संविधान के प्रबल से प्रबल समर्थक भी शर्म से बगलें झाँकने लगते हैं।
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Satya Narayan |
~विजय राजबली माथुर ©
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