सोशल मीडिया के बहाने जनता, विचारधारा और तकनोलॉजी के बारे में कुछ बातें
--कविता कृष्णपल्लवी
मार्क जुकरबर्ग ने फेसबुक ईजाद करके भूमण्डलीय मीडिया बाजार में एक इजारेदार पूँजीपति के रूप में अपनी जगह बना ली। लेकिन यह केवल मुनाफा कूटने का ही साधन नहीं है, बल्कि विश्व पूँजी के वैचारिक सांस्कृतिक वर्चस्व का भी एक प्रभावी औजार है। सोशल मीडिया को जनता का वैकल्पिक मीडिया समझना या सांस्कृतिक प्रति-वर्चस्व का औजार समझना एक भारी मुगालते में जीना है। हाँ, इस बुर्ज़ुआ संचार माध्यम के कुछ ऐसे अन्तरविरोधों का, कुछ ऐसी प्राविधिक विवशताओं का हम लाभ उठा सकते हैं, जो शासक वर्ग के पूर्ण नियंत्रण के एक हद तक बाहर हैं। यह लाभ भी तभी उठाया जा सकता है जब प्रगतिकामी, जनपक्षधर बौद्धिक जमातें वैचारिक रूप से काफी सजग हों और सोशल मीडिया को लेकर किसी प्रकार के विभ्रम की शिकार न हों। ध्यान रहे कि तब भी हम इसका एक हद तक ही इस्तेमाल कर सकते हैं, यह हमारा मीडिया कदापि नहीं हो सकता।
समाज की एक भारी मध्यवर्गीय आबादी इण्टरनेट-फेसबुक पर बैठी हुई सामाजिक जीवन के यथार्थ से बाहर एक आभासी यथार्थ में जीने का आदी हो जाती है। वह वस्तुत: भीषण सामाजिक अलगाव में जीती है, पर फेसबुक मित्रों का आभासी साहचर्य उसे इस अलगाव के पीड़ादायी अहसास से काफी हद तक निजात दिलाता है। बुर्ज़ुआ समाज की भेड़चाल में वैयक्तिक विशिष्टता की मान्यता का जो संकट होता है, पहचान-विहीनता या अजनबीपन की जो पीड़ा होती है, उससे फेसबुक-साहचर्य, एक दूसरे को या उनके कृतित्व को सराहना, एक दूसरे के प्रति सरोकार दिखाना काफी हद तक राहत दिलाता है। यानी यह भी एक तरह के अफीम की भूमिका ही निभाता है। यह दर्द निवारक का काम करता है और एक नशे का काम करता है, पर दर्द की वास्तविक जड़ तक नहीं पहुँचाता। इस तरह अलगाव के विरुद्ध संघर्ष की हमारी सहज सामाजिक चेतना को यह माध्यम पूँजीवादी व्यवस्था-विरोधी सजग चेतना में रूपांतरित हो जाने से रोकता है। साथ ही, फेसबुक, टि्वटर और सोशल मीडिया के ऐसे तमाम अंग-उपांग हमें आदतन अगम्भीर और काहिल और ठिठोलीबाज भी बनाते हैं।
खुशमिजाजी अच्छी चीज है, पर बेहद अंधकारमय और चुनौतीपूर्ण समय में भी अक्सर चुहलबाजी के मूड में रहने वाले अगम्भीर लोग न केवल अपनी वैचारिक क्षमता, बल्कि अपनी संवेदनशीलता भी खोते चले जाते हैं। आभासी दुनिया में दिखायी जाने वाली खुशमिजाजी वास्तविक सामाजिक जीवन में यदि दिखायी जाये तो यह अलगाव के विरुद्ध एक नागरिक का असरदार प्रतिकार होगा। इसी सन्दर्भ में नोम चोम्स्की का यह कथन विशेष रूप से महत्वपूर्ण और सारगर्भित है कि ''जबतक लोग... एक दूसरे से कटे रहेंगे और गम्भीर आलोचनात्मक विचार-विमर्श पर ध्यान नहीं देंगे, तबतक (शासक वर्ग द्वारा) विचारों को नियंत्रित किया जाना सम्भव बना रहेगा।''
इसलिए मेरा विचार है कि जो राजनीतिक-सांस्कृतिक रूप से जागरूक व्यवस्था-विरोधी नागरिक हैं, उन्हें सोशल मीडिया के आभासी संसार को अपनी समस्त व्यक्तिगत आत्मिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का मंच बनाने के बजाय केवल गम्भीर सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक विचार-विमर्श, पूँजी तंत्र द्वारा पार्श्व भूमि में धकेल दी गयी निर्मम-विद्रूप यथार्थ के उदघाटन , विश्व पूँजीवादी सांस्कृतिक-वैचारिक मशीनरी द्वारा इतिहास के विकृतिकरण के भण्डाफोड़ तथा जीवन के सभी क्षेत्रों की पूँजीवादी वैचारिकी की समालोचना के लिए ही इस माध्यम का इस्तेमाल करना चाहिए।
जनता के जनवादी अधिकारों के मसले पर एकजुटता के लिए पारस्परिक संवाद के लिए इस मंच का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया के सभी अंगों-उपांगों का विज्ञान, तर्कणा और सही इतिहास बोध देने तथा जनता की कला-साहित्य-संस्कृति के प्रचार के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। फेसबुक के धोबीघाट पर ''वामपंथी घरों के गंदे कपड़े धोने'' का दिखावा करने वाले वास्तव में प्रगतिकामी लोग हैं, या प्रतिशोधी आत्मदंभी लोग हैं, या छद्मवेषी घुसपैठिये हैं, इस प्रश्न पर भी सोचना होगा। वैचारिक-दार्शनिक प्रश्नों पर मतभेद कोई गुप्त बात नहीं है, इन पर तीखी से तीखी बहसें हो सकती हैं। पर सांगठनिक या व्यक्तिगत चर्चाएँ, अफवाहबाजी और तोहमतबाजी, गाली-गलौज -- यह सब फेसबुक-ब्लॉग के सार्वजनिक मंचों पर करने वाले लोगों की मंशा क्या है, मक़सद क्या है? राजनीतिक वाद-विवाद और व्यक्तिगत गाली-गलौज के बीच यदि हम अंतर नहीं कर पाते, तब तो वास्तव में हमारी मति मारी गयी है।
हम चाहे जितनी कुशलता से काम करें, सोशल मीडिया का जितना व्यापक इस्तेमाल पूँजी की ताकत से भाड़े के टट्टू खरीदकर हिंदुत्ववादी फासिस्ट कर सकते हैं, बुर्ज़ुआ पार्टियाँ कर सकती हैं, साम्राज्यवादी वित्त-पोषित एन.जी.ओ. सुधारवादी कर सकते हैं, उतना हम नहीं कर सकते। इस मंच पर हम उनसे पार नहीं पा सकते। प्रतिवर्चस्व का हमारा वैकल्पिक मंच अलग होगा। पर यदि दृष्टि, पहुँच और संकल्प की एकजुटता हो, तो इस मंच पर भी बुर्ज़ुआ प्रभाव की काफी प्रभावी काट की जा सकती है, इसका भी काफी इस्तेमाल किया जा सकता है।
प्रगतिशील-जनपक्षधर बुद्धिजीवी वेबसाइट, ब्लॉग, फेसबुक, टि्वटर, ऑरकुट आदि-आदि का इस्तेमाल करते हुए न केवल पूँजीवादी व्यवस्था का एक्सपोजर कर सकते हैं, न केवल ब्लैकआउट की गयी खबरों को सामने लाने और जनता के जनवादी अधिकार के मसलों को उठाने का काम कर सकते हैं, न केवल गम्भीर वैचारिक बहस और विचार-विमर्श कर सकते हैं, न केवल वैज्ञानिक जनपक्षधर दृष्टि से इतिहास और वर्तमान का विश्लेषण प्रस्तुत कर सकते हैं, बल्कि अपने सांस्कृतिक प्रतीकों, अपने महान पूर्वजों के उद्धरणों, प्रगतिशील कलात्मक-साहित्यिक-सांगीतिक कृतियों, चलचित्रों-वृत्तचित्रों आदि-आदि से इन मंचों को ज्यादा से ज्यादा पाटने की कोशिश कर सकते हैं, मित्रों का बड़ा से बड़ा दायरा बनाकर उनतक अपनी बातें पहुँचाने की कोशिश कर सकते हैं। यानी हमें इस आभासी दुनिया में ज्यादा से ज्यादा 'स्पेस' छेंकने की कोशिश करनी चाहिए।
कालांतर में इस तंत्र के नियामक और नियंत्रक तरह-तरह के तकनीकी छल नियोजन से भी जनपक्षधर प्रयासों को निष्प्रभावी बनाने या उनका गला घोंटने की कोशिश करेंगे। कुछ देशों का उदाहरण हमारे सामने है जहाँ आन्दोलनरत जनता ने सोशल मीडिया का जब ज्यादा प्रभावी इस्तेमाल किया तो शासक वर्ग ने वहाँ इस माध्यम को ही काफी हद तक पंगु बना दिया। गौरतलब है कि ये आन्दोलन स्वत:स्फूर्त उभार थे और शासक वर्ग तात्कालिक तौर पर परेशान होने के बावजूद यह भी समझ रहा था कि ये पूरी व्यवस्था को ध्वस्त करने वाली चुनौती नहीं है। जब ऐसी चुनौती उनके सामने होगी तो वे और प्रभावी ढंग से कदम उठायेंगे। लेकिन जब सारी जनता संगठित होकर उठ खड़ी होगी तो वह और भी रास्ते निकाल लेगी। जैसा कि ब्रेष्ट की एक प्रसिद्ध कविता का आशय है, मशीनें चाहे जितनी प्रभावी हों, चलाता उन्हें मनुष्य है। तकनोलॉजी चाहे जितनी प्रभावी और स्वचालित हो, वह मनुष्य के नियंत्रण में ही होती है। तकनोलॉजी का इस्तेमाल शासक वर्ग करता है, पर तकनोलॉजी व्यापक जाग्रत संगठित जनता को काबू नहीं कर सकती। और फिर जनता भी तो अपने संघर्ष में तकनोलॉजी का समांतर इस्तेमाल करती ही है!
बस यह ध्यान रहे कि जनता मुख्य ताकत है, तकनोलॉजी नहीं। और तकनोलॉजी भी हमेशा उसीतरह विचारधारा और राजनीति के मातहत होनी चाहिए, जैसे कि हथियार।
मार्क जुकरबर्ग ने फेसबुक ईजाद करके भूमण्डलीय मीडिया बाजार में एक इजारेदार पूँजीपति के रूप में अपनी जगह बना ली। लेकिन यह केवल मुनाफा कूटने का ही साधन नहीं है, बल्कि विश्व पूँजी के वैचारिक सांस्कृतिक वर्चस्व का भी एक प्रभावी औजार है। सोशल मीडिया को जनता का वैकल्पिक मीडिया समझना या सांस्कृतिक प्रति-वर्चस्व का औजार समझना एक भारी मुगालते में जीना है। हाँ, इस बुर्ज़ुआ संचार माध्यम के कुछ ऐसे अन्तरविरोधों का, कुछ ऐसी प्राविधिक विवशताओं का हम लाभ उठा सकते हैं, जो शासक वर्ग के पूर्ण नियंत्रण के एक हद तक बाहर हैं। यह लाभ भी तभी उठाया जा सकता है जब प्रगतिकामी, जनपक्षधर बौद्धिक जमातें वैचारिक रूप से काफी सजग हों और सोशल मीडिया को लेकर किसी प्रकार के विभ्रम की शिकार न हों। ध्यान रहे कि तब भी हम इसका एक हद तक ही इस्तेमाल कर सकते हैं, यह हमारा मीडिया कदापि नहीं हो सकता।
समाज की एक भारी मध्यवर्गीय आबादी इण्टरनेट-फेसबुक पर बैठी हुई सामाजिक जीवन के यथार्थ से बाहर एक आभासी यथार्थ में जीने का आदी हो जाती है। वह वस्तुत: भीषण सामाजिक अलगाव में जीती है, पर फेसबुक मित्रों का आभासी साहचर्य उसे इस अलगाव के पीड़ादायी अहसास से काफी हद तक निजात दिलाता है। बुर्ज़ुआ समाज की भेड़चाल में वैयक्तिक विशिष्टता की मान्यता का जो संकट होता है, पहचान-विहीनता या अजनबीपन की जो पीड़ा होती है, उससे फेसबुक-साहचर्य, एक दूसरे को या उनके कृतित्व को सराहना, एक दूसरे के प्रति सरोकार दिखाना काफी हद तक राहत दिलाता है। यानी यह भी एक तरह के अफीम की भूमिका ही निभाता है। यह दर्द निवारक का काम करता है और एक नशे का काम करता है, पर दर्द की वास्तविक जड़ तक नहीं पहुँचाता। इस तरह अलगाव के विरुद्ध संघर्ष की हमारी सहज सामाजिक चेतना को यह माध्यम पूँजीवादी व्यवस्था-विरोधी सजग चेतना में रूपांतरित हो जाने से रोकता है। साथ ही, फेसबुक, टि्वटर और सोशल मीडिया के ऐसे तमाम अंग-उपांग हमें आदतन अगम्भीर और काहिल और ठिठोलीबाज भी बनाते हैं।
खुशमिजाजी अच्छी चीज है, पर बेहद अंधकारमय और चुनौतीपूर्ण समय में भी अक्सर चुहलबाजी के मूड में रहने वाले अगम्भीर लोग न केवल अपनी वैचारिक क्षमता, बल्कि अपनी संवेदनशीलता भी खोते चले जाते हैं। आभासी दुनिया में दिखायी जाने वाली खुशमिजाजी वास्तविक सामाजिक जीवन में यदि दिखायी जाये तो यह अलगाव के विरुद्ध एक नागरिक का असरदार प्रतिकार होगा। इसी सन्दर्भ में नोम चोम्स्की का यह कथन विशेष रूप से महत्वपूर्ण और सारगर्भित है कि ''जबतक लोग... एक दूसरे से कटे रहेंगे और गम्भीर आलोचनात्मक विचार-विमर्श पर ध्यान नहीं देंगे, तबतक (शासक वर्ग द्वारा) विचारों को नियंत्रित किया जाना सम्भव बना रहेगा।''
इसलिए मेरा विचार है कि जो राजनीतिक-सांस्कृतिक रूप से जागरूक व्यवस्था-विरोधी नागरिक हैं, उन्हें सोशल मीडिया के आभासी संसार को अपनी समस्त व्यक्तिगत आत्मिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का मंच बनाने के बजाय केवल गम्भीर सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक विचार-विमर्श, पूँजी तंत्र द्वारा पार्श्व भूमि में धकेल दी गयी निर्मम-विद्रूप यथार्थ के उदघाटन , विश्व पूँजीवादी सांस्कृतिक-वैचारिक मशीनरी द्वारा इतिहास के विकृतिकरण के भण्डाफोड़ तथा जीवन के सभी क्षेत्रों की पूँजीवादी वैचारिकी की समालोचना के लिए ही इस माध्यम का इस्तेमाल करना चाहिए।
जनता के जनवादी अधिकारों के मसले पर एकजुटता के लिए पारस्परिक संवाद के लिए इस मंच का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया के सभी अंगों-उपांगों का विज्ञान, तर्कणा और सही इतिहास बोध देने तथा जनता की कला-साहित्य-संस्कृति के प्रचार के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। फेसबुक के धोबीघाट पर ''वामपंथी घरों के गंदे कपड़े धोने'' का दिखावा करने वाले वास्तव में प्रगतिकामी लोग हैं, या प्रतिशोधी आत्मदंभी लोग हैं, या छद्मवेषी घुसपैठिये हैं, इस प्रश्न पर भी सोचना होगा। वैचारिक-दार्शनिक प्रश्नों पर मतभेद कोई गुप्त बात नहीं है, इन पर तीखी से तीखी बहसें हो सकती हैं। पर सांगठनिक या व्यक्तिगत चर्चाएँ, अफवाहबाजी और तोहमतबाजी, गाली-गलौज -- यह सब फेसबुक-ब्लॉग के सार्वजनिक मंचों पर करने वाले लोगों की मंशा क्या है, मक़सद क्या है? राजनीतिक वाद-विवाद और व्यक्तिगत गाली-गलौज के बीच यदि हम अंतर नहीं कर पाते, तब तो वास्तव में हमारी मति मारी गयी है।
हम चाहे जितनी कुशलता से काम करें, सोशल मीडिया का जितना व्यापक इस्तेमाल पूँजी की ताकत से भाड़े के टट्टू खरीदकर हिंदुत्ववादी फासिस्ट कर सकते हैं, बुर्ज़ुआ पार्टियाँ कर सकती हैं, साम्राज्यवादी वित्त-पोषित एन.जी.ओ. सुधारवादी कर सकते हैं, उतना हम नहीं कर सकते। इस मंच पर हम उनसे पार नहीं पा सकते। प्रतिवर्चस्व का हमारा वैकल्पिक मंच अलग होगा। पर यदि दृष्टि, पहुँच और संकल्प की एकजुटता हो, तो इस मंच पर भी बुर्ज़ुआ प्रभाव की काफी प्रभावी काट की जा सकती है, इसका भी काफी इस्तेमाल किया जा सकता है।
प्रगतिशील-जनपक्षधर बुद्धिजीवी वेबसाइट, ब्लॉग, फेसबुक, टि्वटर, ऑरकुट आदि-आदि का इस्तेमाल करते हुए न केवल पूँजीवादी व्यवस्था का एक्सपोजर कर सकते हैं, न केवल ब्लैकआउट की गयी खबरों को सामने लाने और जनता के जनवादी अधिकार के मसलों को उठाने का काम कर सकते हैं, न केवल गम्भीर वैचारिक बहस और विचार-विमर्श कर सकते हैं, न केवल वैज्ञानिक जनपक्षधर दृष्टि से इतिहास और वर्तमान का विश्लेषण प्रस्तुत कर सकते हैं, बल्कि अपने सांस्कृतिक प्रतीकों, अपने महान पूर्वजों के उद्धरणों, प्रगतिशील कलात्मक-साहित्यिक-सांगीतिक कृतियों, चलचित्रों-वृत्तचित्रों आदि-आदि से इन मंचों को ज्यादा से ज्यादा पाटने की कोशिश कर सकते हैं, मित्रों का बड़ा से बड़ा दायरा बनाकर उनतक अपनी बातें पहुँचाने की कोशिश कर सकते हैं। यानी हमें इस आभासी दुनिया में ज्यादा से ज्यादा 'स्पेस' छेंकने की कोशिश करनी चाहिए।
कालांतर में इस तंत्र के नियामक और नियंत्रक तरह-तरह के तकनीकी छल नियोजन से भी जनपक्षधर प्रयासों को निष्प्रभावी बनाने या उनका गला घोंटने की कोशिश करेंगे। कुछ देशों का उदाहरण हमारे सामने है जहाँ आन्दोलनरत जनता ने सोशल मीडिया का जब ज्यादा प्रभावी इस्तेमाल किया तो शासक वर्ग ने वहाँ इस माध्यम को ही काफी हद तक पंगु बना दिया। गौरतलब है कि ये आन्दोलन स्वत:स्फूर्त उभार थे और शासक वर्ग तात्कालिक तौर पर परेशान होने के बावजूद यह भी समझ रहा था कि ये पूरी व्यवस्था को ध्वस्त करने वाली चुनौती नहीं है। जब ऐसी चुनौती उनके सामने होगी तो वे और प्रभावी ढंग से कदम उठायेंगे। लेकिन जब सारी जनता संगठित होकर उठ खड़ी होगी तो वह और भी रास्ते निकाल लेगी। जैसा कि ब्रेष्ट की एक प्रसिद्ध कविता का आशय है, मशीनें चाहे जितनी प्रभावी हों, चलाता उन्हें मनुष्य है। तकनोलॉजी चाहे जितनी प्रभावी और स्वचालित हो, वह मनुष्य के नियंत्रण में ही होती है। तकनोलॉजी का इस्तेमाल शासक वर्ग करता है, पर तकनोलॉजी व्यापक जाग्रत संगठित जनता को काबू नहीं कर सकती। और फिर जनता भी तो अपने संघर्ष में तकनोलॉजी का समांतर इस्तेमाल करती ही है!
बस यह ध्यान रहे कि जनता मुख्य ताकत है, तकनोलॉजी नहीं। और तकनोलॉजी भी हमेशा उसीतरह विचारधारा और राजनीति के मातहत होनी चाहिए, जैसे कि हथियार।
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1 comment:
लेख की सटीकता एवं सार्थकता का प्रमाण सामने आ ही गया है---
ComradeVijai Mathur shared ComradeVijai Mathur's photo.
6 minutes ago
कल यह पोस्ट-"केजरीवाल के भ्रष्टाचार-विरोधी ''मुहिम'' पर गदगद कम्युनिस्ट मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र का ककहरा भी नहीं जानते----कविता कृष्णपल्लवी" अपने 'साम्यवाद(COMMUNISM)' पर दी थी Jitendra Naruka नामक CPIM के एक साहब जो केजरीवाल के अंध-भक्त हैं को इतनी नागवार गुज़री की उन्होने षड्यंत्र पूर्वक उसे ब्लाक करवा दिया है। इससे पूर्व भी केजरीवाल समर्थक कम्युनिस्ट प्रदीप तिवारी,आनंद प्रकाश तिवारी और प्रेम शंकर पांडे ने इस ब्लाग को ब्लाक करवाया था। इस प्रक्रिया से कविता कृष्णपल्लवी जी का यह दृष्टिकोण कि यह सोशल मीडिया सिर्फ पूंजीवादी हितों का ही संरक्षक है और जनवादी बातों का प्रसार इसके द्वारा नहीं किया जा सकता। किन्तु खेदजनक बात यह है कि खुद को कम्युनिस्ट कहने वाले लोग केजरी/मोदी/मनमोहनी भक्ति के कारण जनहित के मुद्दों को प्रसारित होने से रोकते हैं। — with Jitendra Raghuvanshi and 4 others.
Photo: कल यह पोस्ट-"केजरीवाल के भ्रष्टाचार-विरोधी ''मुहिम'' पर गदगद कम्युनिस्ट मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र का ककहरा भी नहीं जानते----कविता कृष्णपल्लवी" अपने 'साम्यवाद(COMMUNISM)' पर दी थी Jitendra Naruka नामक CPIM के एक साहब जो केजरीवाल के अंध-भक्त हैं को इतनी नागवार गुज़री की उन्होने षड्यंत्र पूर्वक उसे ब्लाक करवा दिया है। इससे पूर्व भी केजरीवाल समर्थक कम्युनिस्ट प्रदीप तिवारी,आनंद प्रकाश तिवारी और प्रेम शंकर पांडे ने इस ब्लाग को ब्लाक करवाया था। इस प्रक्रिया से कविता कृष्णपल्लवी जी का यह दृष्टिकोण कि यह सोशल मीडिया सिर्फ पूंजीवादी हितों का ही संरक्षक है और जनवादी बातों का प्रसार इसके द्वारा नहीं किया जा सकता। किन्तु खेदजनक बात यह है कि खुद को कम्युनिस्ट कहने वाले लोग केजरी/मोदी/मनमोहनी भक्ति के कारण जनहित के मुद्दों को प्रसारित होने से रोकते हैं।
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