Saturday, May 17, 2014
ज्योतिष वाला 'क्रांतिस्वर' ,ये बेवकूफ कौन है?
केजरीवाल भक्त के वचन :
दीवार पर लिखा कुछ को दीख जाता है और कुछ देख कर अनदेखा कर जाते हैं लेकिन दीवार के उस पर क्या लिखा है ? या क्या लिखा जा रहा है? अक्सर सबको न दीख सकता है और न समझ आ सकता है। दीवार के उस पार क्या है ? क्या हो रहा है? क्या हो सकता है? जैसी बातें निसंकोच कह देने वाला इन पंक्तियों का लेखक ही वह बेवकूफ है।
विगत 01 मई को मजदूर दिवस की गोष्ठी के अवसर पर भाकपा कार्यालय में अनौपचारिक वार्ता के दौरान इन पंक्तियों के लेखक ने जिलामंत्री व दोनों सह-जिलामंत्रियों की उपस्थिती में पश्चिम बंगाल में सुश्री ममता बनर्जी की पार्टी को 30-35 सीटों की प्राप्ति का संकेत दिया था और उनको वस्तुतः 34 सीटें प्राप्त हो गई हैं। जबकि अन्य कामरेड्स का दृष्टिकोण था कि वांम -मोर्चा 24 सीटें जीतने जा रहा है जो वस्तुतः 02 सीटों पर सिमटा। संदर्भित आलेख में अब संभावित पी एम का भी विश्लेषण है जो अभी गलत प्रतीत होता है परंतु दीवार के उस पार लिखा जब इस पार आएगा तभी बेवकूफी का खुलासा हो सकेगा।
इस बेवकूफ ने प्रदेश सचिव व राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य डॉ गिरीश (चंद्र शर्मा) जी से अनौपचारिक वार्ता में लगभग दो वर्ष पूर्व ज़िक्र किया था कि यदि वाम-मोर्चा ममता जी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव लड़े तो काफी सफलता प्राप्त कर सकता है। जब एक महान केजरीवाल भक्त तक मुझको बेवकूफ घोषित करता है तो निश्चय ही विद्वान डॉ साहब ने भी उस कथ्य को मूर्खतापूर्ण ही माना होगा। लेकिन चुनाव परिणाम क्या कहते हैं?
इसी ब्लाग में 'एकला चलो रे' की तर्ज़ पर अनेकों लेखों के माध्यम से मैंने भारत में साम्यवाद के जन-प्रिय बनाए जाने के उपाए बताए हैं जिनकी खिल्ली प्रदेश का एक बड़ा पदाधिकारी खुले आम उड़ाता है। उक्त पदाधिकारी वस्तुतः राष्ट्रीयकृत बैंक का कर्मचारी है जो घोषित तो खुद को 'एथीस्ट' करता है परंतु तांत्रिक प्रक्रियाओं से वरिष्ठ नेताओं को 'सम्मोहित' किए रहता है। 20 वर्ष पूर्व भी एक सरकारी शिक्षक तांत्रिक प्रक्रियाओं से वशीभूत करके प्रदेश पदाधिकारी बन गया था और तब प्रदेश में पार्टी का विभाजन हो गया था। सरकारी और अर्द्ध-सरकारी कर्मचारियों को किसी प्रकार की सहानुभूति न तो आम जनता से होती है न ही छोटे कार्यकर्ताओं से अतः वे पार्टी को जनता से दूर बनाए रखने के उपक्रम करते रहते हैं। इन परिस्थितियों में वाम-पंथ का जो हश्र चुनावों में हुआ है वह अपरिहार्य था।
एक तरफ 'संसदीय साम्यवाद' को मानने वाले चुनाव से दूर रहेंगे दूसरी ओर 'संसदीय लोकतन्त्र' के आलोचक क्रांतिकारी सड़कों पर सक्रिय रह कर अपनी ऊर्जा व्यय करते रहेंगे जिनको नक्सलवादी,माओवादी,आतंकवादी कह कर सरकारें कुचलती रहेंगी। लेकिन सभी 'सर्वहारा क्रान्ति' का गुण-गाँन करते रहेंगे -यह सब केवल खुद को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं है। जब मार्क्स के हवाले से 'धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रह्मचर्य' का विरोध किया जाता है तथा पोंगापंडितवाद,ढोंग,पाखंड,आडंबर का विरोध करने का साहस नहीं दिखाया जाता है तभी तो धर्म के नाम पर अधर्म का बोलबाला रहता है जिसका ज्वलंत उदाहरण 2014 के ये संसदीय चुनाव हैं।
तब मार्क्स ने तो यह भी कहा था कि जब जिस देश में सम्पूर्ण औद्योगीकरण हो जाएगा और मजदूर का शोषण चरम पर होगा तब वहाँ 'सर्वहारा क्रान्ति' होगी और सर्वहारा की तानाशाही उत्पादन और वितरण के संसाधनो पर नियंत्रण करके 'प्रत्येक से उसकी क्षमता के अनुसार और प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार' अवसर व लाभ देगी। तो फिर एक कृषि-प्रधान देश रूस में 1917 में क्रांति क्यों की गई थी? वह तो सर्वहारा क्रांति थी भी नहीं वह तो कई दलों के मोर्चे की बोलेश्विक क्रान्ति थी। इसके नायक एक-दूसरे की काट-छांट में लगे रहे और धर्म न मानने के कारण जनता व कार्यकर्ताओं के शोषण से प्राप्त अवैद्ध धन का संग्रहण करते रहे वे असत्यगामी पार्टी नेता ही आज के रूस के पूंजीपति हैं। 1949 में कृषि-प्रधान देश चीन में भी साम्यवादी क्रांति कर दी गई जो आज 'स्टेट केपिटलिज्म' के रूप में चल रही है।
क्या खूब 'एथीस्ट' तर्क होते हैं कि मार्क्स की एक बात न मान कर अधीरता से क्रांति कर देते है जो बाद में असफल हो जाती है और दूसरी बात के गलत अर्थ लिए जाते हैं। मार्क्स ने कहीं भी धर्म के सद्गुणों का विरोध नहीं किया है। मार्क्स ने यूरोप में प्रचलित -'ओल्ड टेस्टामेंट' व 'प्रोटेस्टेंट' रूपी रिलीजन्स का विरोध किया था जो वाजिब था क्योंकि वे अधर्म थे न कि धर्म। इसी प्रकार हिन्दुत्व,इस्लाम आदि अधर्मी रिलीजन्स का विरोध किया जाना चाहिए न कि धर्म का। 'साम्यवाद' और 'मार्कसवाद' को जब तक वास्तविक धर्म पर नहीं चलाया जाएगा और मजहबों-रिलीजन्स के पोंगापंडितवाद,ढोंग,पाखंड,आडंबर का सार्वजनिक खंडन करके जनता को समझाया नहीं जाएगा तब तक फासीवादी /नाजीवादी शक्तियों को शिकस्त देना संभव ही नहीं है केवल शहादतें दे कर अपनी पीठ थपथपा लेने से क्रांति नहीं आएगी । जन-क्रांति के लिए जनता-जनार्दन के समक्ष जाना होगा केवल सरकारी कर्मचारियों को नेता बना कर उनके भरोसे क्रांति की जाएगी तो असफलता मिलना स्वभाविक है।
~विजय राजबली माथुर ©
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