Saturday, September 23, 2017

दुर्गा एवं महिषासुर वध का आशय - ---- विजय राजबली माथुर

 (नवरात्र आत्मा अथवा प्राण का उत्सव है जिसके द्वारा ही महिषासुर (अर्थात जड़ता ),शुम्भ -निशुम्भ (गर्व और शर्म )और मधु -कैटभ (अत्यधिक राग -द्वेष )को नष्ट किया जा सकता है .जड़ता ,गहरी नकारात्मकता और मनोग्रंथियां (रक्त्बीजासुर ),बेमतलब का वितर्क (चंड -मुंड )और धुंधली दृष्टि (धूम्र लोचन )को केवल प्राण और जीवन शक्ति ऊर्जा के स्तर को ऊपर उठा कर ही दूर किया जा सकता है -----.हमें इन कथाओं क़े मर्म को समझना चाहिए न कि,कथाओं क़े कथानक में में उलझ कर भटकना चाहिए.------जिन खोजों को आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिक अपनी नयी खोजें बताते हैं उनका ज्ञान बहुत पहले हमारे ऋषियों-वैज्ञानिकों को था.इन सब का प्राकृतिक उपचार नियमित नवरात्र पालन में अन्तर्निहित था.परन्तु हमारे पाखंडी पौराणिकों ने अर्थ का अनर्थ करके जनता को दिग्भ्रमित कर दिया और उसका शोषण करके भारी अहित किया है.अफ़सोस और दुःख की बात यह है कि आज सच्चाई को मानने हेतु प्रबुद्ध बुद्धीजीवी तक तैयार नहीं है. )


वीर शिरोमणि झाँसी वाली रानी लक्ष्मी बाई (जिन्होंने १८५७ की क्रांति में साम्राज्यवादी ब्रिटिश सत्ता को ज़बरदस्त चुनौती दी थी )हों या उनसे भी पूर्व वीर क्षत्र साल की माँ रानी सारंधा हों (जिन्होंने विदेशी शत्रु के सम्मुख घुटने टेकने की बजाय अपने मरणासन पति राजा चम्पत राय को कटार भोंक कर स्वंय भी प्राणाहुति दे दी थी )या रानी पद्मावती और उनकी सहयोगी साथिने हों ऐसे अनगिनत विभूतिया हमारे देश में हुई हैं जो व्यवस्था से टकरा कर अमर हो गईं और एक मिसाल छोड़ गईं आने वाली पीढियो के लिए ,परन्तु खेद है कि आज हमारी मातृ  शक्ति इन कुर्बानियों  को भुला चुकी है . यों तो ऋतु परिवर्तन पर स्वास्थ्य रक्षा हेतु नवरात्र पर्व का सृजन हुआ है और उपवास स्त्री -पुरुष सभी के लिए बताया गया है परन्तु करवा चौथ जैसे भेद -भाव मूलक उपवास स्त्री को दंड से अधिक कुछ नहीं हैं ,उसका कोई औचित्य नहीं है . 

नवरात्रों का उपवास हमारे स्थूल ,कारण और सूक्ष्म शरीर की शुद्धि  करता है.लोग भ्रम वश इसे व्रत कहते हैं जबकि व्रत का मतलब संकल्प से होता है.जैसे कोई सिगरेट,शराब आदि बुरी आदतें  छोड़ने का संकल्प ले तो यह व्रत होगा .

एक विद्वान  कहते हैं -उपवास के द्वारा शरीर विषाक्त पदार्थों से मुक्त हो जाता है ,मौन द्वारा वचनों में शुद्धता आती है और बातूनी मन शांत होता है और ध्यान के द्वारा अपने अस्तित्व की गहराईयों में डूब कर हमें आत्म निरीक्षण का अवसर मिलता है .यह आंतरिक यात्रा हमारे बुरे कर्मों को समाप्त करती है. 

नवरात्र आत्मा अथवा प्राण का उत्सव है जिसके द्वारा ही महिषासुर (अर्थात जड़ता ),शुम्भ -निशुम्भ (गर्व और शर्म )और मधु -कैटभ (अत्यधिक राग -द्वेष )को नष्ट किया जा सकता है .जड़ता ,गहरी नकारात्मकता और मनोग्रंथियां (रक्त्बीजासुर ),बेमतलब का वितर्क (चंड -मुंड )और धुंधली दृष्टि (धूम्र लोचन )को केवल प्राण और जीवन शक्ति ऊर्जा के स्तर को ऊपर उठा कर ही दूर किया जा सकता है .

मैं पौराणिकों क़े कार्यक्रमों में शामिल नहीं होता हूँ.२६ सितम्बर से ०४ अक्टूबर २००३ में कमला नगर,आगरा में शाहपुर(ब्राह्मन) ,बाह निवासी और लोनावाला (पुणे) में योग शिक्षक आचार्य रामरतन शास्त्री जी ने अपने सरस,सरल,सुगम और बोधगम्य प्रवचनों क़े द्वारा प्रचलित ढोंग वादी शैली से हट कर वैज्ञानिक आधार पर शिव कथाओं का विश्लेषण किया था उनको ज़रूर सुना था  . 

उनकी शैली समन्वयात्मक है.पोंगापंथियों ने पुराणों की जो विकृत व्याख्या प्रस्तुत की थी उसका प्रबल विरोध प्रगतिशील धर्माचार्यों द्वारा किया गया है.आचार्य रामरतन जी द्वारा पौराणिक कथाओं की व्याख्या इन  दोनों का समन्वय है उनका कहना है जब मनुष्य का बौद्धिक स्तर समृद्ध नहीं रहा जो वैदिक मन्त्रों क़े सही अर्थों को समझ सकता हो विद्वानों ने इन कथाओं क़े माध्यम से वेद की बातों को प्रस्तुत किया है. 'देवी भागवत ' पर भी उनके विचार उत्कृष्ट रहे हैं उनके अनुसार हमें इन कथाओं क़े मर्म को समझना चाहिए न कि,कथाओं क़े कथानक में में उलझ कर भटकना चाहिए.  व्यास-पीठ पर बैठ कर  भी आचार्य प्रवर ने ब्राह्मणों क़े पोंगा-पंथ पर प्रहार किया और देश क़े चारित्रिक पतन क़े लिये उन्हें उत्तरदायी ठहराया.उन्होंने कहा पंडित विद्वान होता है पुजारी क़े रूप में वकील नहीं,उनका आशय था कि भक्त को स्वंय ही भगवान् से तादात्म्य स्थापित करना चाहिए और किसी मध्यस्थ या बिचौलियों क़े बगैर भगवान् से स्तुति,प्रार्थना,पूजा,हवन,यग्य करना चाहिये.

हमारे प्राचीन ऋषि -मुनी वैज्ञानिक आधार पर मनुष्य-मात्र को प्रकृति क़े साथ सामंजस्य करने की हिदायत देते थे.बदलते मौसम क़े आधार पर मनुष्य ताल-मेल बैठा सकें इस हेतु संयम-पूर्वक कुछ नियमों का पालन करना होता था.ऋतुओं क़े इस संधि-काल को नवरात्र क़े रूप में मनाने की बात की है। 

ऋतुओं क़े आधार पर ऋषियों ने चार नवरात्र बताये थे,जिन्हें पौराणिक काल में घटा कर दो कर दिया गया.दो ज्योतिषियों एवं पुजारियों ने जनता से तो छिपा लिये परन्तु स्वंय अपने हक में पालन करते रहे.वे  चारों नवरात्र इस प्रकार हैं-

१ .चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक,
२ .आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक,
३ .आश्विन(क्वार)शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक,
४ .माघ शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक .


इनमें से १ और ३ तो सार्वजनिक रखे गये जिनके बाद क्रमशः राम नवमी तथा विजया दशमी(दशहरा) पर्व मनाये जाते हैं.२ और ४ को गुप्त बना दिया गया. 

व्यक्ति का नहीं भक्ति का नाम नारद - 
आचार्य जी ने कहा कि नारद किसी व्यक्ति-विशेष का नहीं बल्कि यह देश -काल से परे भगवद-भक्ति का नाम है.भक्त कभी स्थान-विशेष से बंधता नहीं है.बल्कि वह तो जहाँ उसकी जरूरत होती है वहीं पहुँच जाता है.ऐसे ऐसे गुण चरित्र वाले किसी भी व्यक्ति को नारद कहा जाता है.

भक्ति-  
शब्द  ढाई अक्षरों क़े मेल से बना है जिसमे भ -का अर्थ  भजन से है ति -शब्द त्याग का परिचायक है और (आधा)क यह बतलाता है कि निष्काम कर्म ही भगवान् तक पहुँचने में सहायक है सकाम कर्म नहीं.इसका आशय यह हुआ कि निष्काम कर्म करते हुए त्याग पूर्वक भजन किया जाये वही भक्ति है.


ज्ञान और भक्ति क़े बिना वैराग्य नहीं- 
ज्ञान वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा सत्य और असत्य,नित्य और अनित्य,क्षर और अक्षर का बोध होता है.भक्ति में भजन प्रमुख है जिसका अर्थ है सेवा करना और यह भक्ति श्रवण कीर्तन आदि नौ प्रकार की होती है.भक्ति क़े द्वारा वैराग्य अर्थात पदार्थों क़े प्रति विरक्ति होती है.आचार्य जी ने बताया संसार में दृष्टा की भांति रहने से उससे मोह नहीं होता है और मोह का न होना ही सुख की स्थिति है.


दक्ष और बाणासुर - 
 शिव महापुराण में वर्णित दक्ष और बाणासुर क़े कारण श्री कृष्ण और शिव में संघर्ष की घटनाएं अहंकार करने वालों का हश्र बताने क़े लिये उल्लिखित हैं.सत्ता,धन और यश का अहंकार नहीं इनका संचय करना चाहिये और दूसरों क़े हित में इनका प्रयोग करना चाहिए.इसके विपरीत आचरण करने पर अहंकारी का पतन अवश्य ही होता है.


लिंग ब्रह्म में लीन होना है- 
 शिव की लिंग आराधना यह बताती है कि यह जो अखिल ब्रह्मांड है वह एक गोलाकार पिंड क़े समान है और सभी जीवों को उसी में फिर से मिल जाना है इस दृष्टिकोण से शिव क़े लिंग स्वरुप की कल्पना की गयी है.बारह लिंग विभिन्न शक्तियों क़े द्योतक हैं.देश  भर में फैले लिंग शक्ति पीठ राष्ट्र को एकीकृत रखने की अवधारणा क़े कारण विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित किये गये हैं.



शिवरात्रि-शिव विवाह- 
शिव ही परम सत्ता अर्थात परमात्मा हैं और पार्वती शिव हैं अर्थात परमात्मा की शक्ति शिव शक्ति द्वारा प्रकृति क़े संयोजन से सृष्टि करना ही शिव रात्री का पर्व है.लोक कल्याण और जन हित हेतु परमात्मा शिव ने पार्वती अर्थात प्रकृति से विवाह किया और इस प्रकार लोक मंगल किया.पार्वती को गिरिजा भी कहते हैं -पर्वत राज हिमालय की पुत्री होने क़े कारण उन्हें यह नाम मिला है.पार्वती ही उमा हैं अर्थात समृद्धि का प्रतीक.शिवरात्रि का पर्व भारत भर में सुख समृद्धि और सौभाग्य का प्रतीक है.

पश्चाताप का अर्थ -
  गलती हो जाने पर उसे स्वीकार करना चाहिए और उस दुःख क़े ताप में तप कर फिर उसे न दोहराने का संकल्प ही पश्चाताप है.दुखों से न घबराने का सन्देश शिव-पुराण में भरा पड़ा है इन कथाओं द्वारा बताया गया है कि पांडवों,अनिरुद्ध सती,पार्वती आदि ने बाधाओं से विचलित हुये बगैर सत्मार्ग पर डटे रह कर सफलता प्राप्त की है.आचार्य जी का दृढ मत है कि,'वीर -भोग्या वसुंधरा'क़े अनुसार शक्तिशाली की मान्यता है-कमजोर को कोई नहीं पूछता है.इसलिए विपत्ती आने पर भी निडरता पूर्वक परिस्थितियों से संघर्ष करना और उन पर विजय हासिल करना चाहिये.
 महिषासुर वध का आशय -
 यह है कि मनुष्य में व्याप्त अहंकार का शमन करना.यह सहज स्वभाविक प्रवृति है कि,मनुष्य जिनसे कुछ हित-साधन की अपेछा करता है उनसे मोह और ममत्व रखता है और उनके प्रति गलत झुकाव भी रख लेता है और इस प्रकार दुष्कृत्यों क़े भंवर में फंस कर अन्ततः अपना ही अहित कर डालता है.इसके विपरीत मनुष्य जिन्हें अपना प्रतिद्वन्दी समझता है उनसे ईर्ष्या करने लगता है और उन्हें ठेस पहुंचाने का प्रयास करता है और इस प्रकार बुरे कर्मों में फंस कर अपने आगामी जन्मों क़े प्रारब्ध को नष्ट करता जाता है.मनुष्य में राग और द्वेष क़े समान ही अहंकार भी एक ऐसा दोष है जो उसी का प्रबल शत्रु बन  जाता है.संसार में सर्वदा ही अहंकारी का विनाश हुआ है अतः उत्तम यही है कि मनुष्य स्वंय ही स्वेच्छा से अपने अहंकार को नष्ट कर डाले तभी देवी माँ की सच्ची पूजा कर सकता है. 
 हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप -
ये  कोई व्यक्ति-विशेष नहीं थे,बल्कि वे एक चरित्र का प्रतिनिधित्व करते हैं जो पहले भी थे और आज भी हैं और आज भी उनका संहार करने की आवश्यकता है.संस्कृत भाषा में हिरण्य का अर्थ होता है स्वर्ण और अक्ष का अर्थ है आँख अर्थात वह जो केवल अपनी आँखें स्वर्ण अर्थात धन पर गड़ाये रखता है हिरण्याक्ष कहलाता है.ऐसा व्यक्ति केवल और केवल धन क़े लिये जीता है और साथ क़े अन्य मनुष्यों का शोषण करता रहता है. 
आज क़े सन्दर्भ  में हम कह सकते हैं कि,उत्पादक और उपभोक्ता का शोषण करने वाला व्यापारी ही हिरण्याक्ष हैं.कश्यप का अर्थ संस्कृत में बिछौना अर्थात बिस्तर से है.जिसका बिस्तर सोने का हो इसका आशय यह हुआ कि जो धन क़े ढेर पर सो रहा है अर्थात आज क़े सन्दर्भ में काला व्यापर करने वाला व्यापारी और घूस खोर अधिकारी हिर्नाकश्यप हैं. 
वराह अवतार से तात्पर्य -
वर का अर्थ है अच्छा और अह का अर्थ है दिन अर्थात वराह अवतार का मतलब हुआ अच्छा दिन अर्थात समय अवश्य हीआता है. 
प्रहलाद का अर्थ -
यह  हुआ प्रजा का आह्लाद अर्थात जनता की खुशी .इस प्रसंग में बताया गया है कि जब जनता जागरूक हो जाती है तो अच्छा समय आता  है और हिरण्याक्ष व हिरण्यकश्यप   का अंत हो जाता है.रक्त-बीज की घटना यह बताती है कि,मनुष्य क़े भीतर जो कामेच्छायें हैं उनका अंत कभी नहीं होता,जैसे ही एक कामना पूरी हुई ,दूसरी कामना की इच्छा होती है और इसी प्रकार यह क्रम चलता रहता है.देवी द्वारा जीभ फैला कर रक्त सोख लेने का अभिप्राय है कि मनुष्य अपनी जिव्हा पर नियन्त्रण करके लोभ का संवरण करे तभी रक्त-बीज अर्थात अनन्त  कामेच्छओं का अंत हो सकता है.


श्री किशोर चन्द्र चौबे ने मार्कंडेय चिकित्सा -पद्धति क़े आधार पर -
 नव-रात्र की नौ देवियों क़े असली औषधीय रूप का विषद विवेचन किया है जिनका  यहाँ संक्षिप्त उल्लेख करना उचित समझता हूँ.:-
१.हरड-इसे प्रथम शैल पुत्री क़े रूप में जाना जाता है.
२.ब्राह्म्मी-दिव्तीय ब्रह्मचारिणी ..........................
३.चंद्रसूर-तृतीय चंद्रघंटा ...................................
४.पेठा-चतुर्थ कूष्मांडा ....................................
५.अलसी -पंचम स्कन्द माता .............................
६.मोइया -षष्ठम कात्यायनी ..................................
७.नागदौन -सप्तम कालरात्रि ...............................
८.तुलसी-अष्टम महागौरी ...................................
९.शतावरी-नवम सिद्धिदात्री ......................................


स्पष्ट है कि बदलते मौसम में इन चुनी हुई मानवोपयोगी औषधियों  का सेवन करके और निराहार रह कर मानव-स्वाथ्य की रक्षा करने का प्राविधान हमारे ऋषियों ने किया था.लेकिन आज पौराणिक कर क्या रहें हैं करा क्या रहें हैं -केवल ढोंग व पाखण्ड जिससे ढोंगियों की रोजी तो चल जाती है लेकिन मानव-कल्याण कदापि सम्भव न होने क़े कारण जनता ठगी जाती है.गरीब जनता का तो उलटे उस्तरे से मुंडन है यह ढोंग-पाखण्ड.इसी का नतीजा हैं ऐसे निष्कर्ष ::



रक्त-बीज --- 
मार्कंडेय चिकित्सा-पद्धति में कैंसर को रक्त-बीज कहते हैं.चंड रक्त कैंसर है और मुंड शरीर में बनने वाली गांठों का कैंसर है.


कालक--- 
यह माईक रोग है जिसे आधुनिक चिकित्सा में AIDS कहते हैं.

चौबे जी क़े उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि,जिन खोजों को आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिक अपनी नयी खोजें बताते हैं उनका ज्ञान बहुत पहले हमारे ऋषियों-वैज्ञानिकों को था.इन सब का प्राकृतिक उपचार नियमित नवरात्र पालन में अन्तर्निहित था.परन्तु हमारे पाखंडी पौराणिकों ने अर्थ का अनर्थ करके जनता को दिग्भ्रमित कर दिया और उसका शोषण करके भारी अहित किया है.अफ़सोस और दुःख की बात यह है कि आज सच्चाई को मानने हेतु प्रबुद्ध बुद्धीजीवी तक तैयार नहीं है.

~विजय राजबली माथुर ©

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