Thursday, November 25, 2010

ज्वलंत सामाजिक समस्या-अशांति

समाज वह व्यवस्था है जिसमे रहने वाले लोग परस्पर संबंधों क़े आधार पर एक -दूसरे पर अन्योन्याश्रित  रहते हैं .समाज में शांति व व्यवस्था बनाए रखने क़े लिए ,उस समाज द्वारा कुछ नियम व मर्यादाएं निरूपित की जाती हैं जिनका पालन उसमे रहने वाले लोग स्वेच्छा से करते हैं और सुखी जीवन व्यतीत करते हैं .लेकिन आज यों तो अशांति एक विश्व -व्यापी समस्या बन चुकी है परन्तु भारतीय समाज क़े सन्दर्भ में यह विकराल रूप धारण किये हुए खडी है. क्या बच्चे ,क्या बूढ़े और क्या नौजवान सभी किसी न किसी समस्या से ग्रस्त अशांत जीवन जीने को बाध्य है.प्राचीन काल में विश्व गुरु और सोने की चिड़िया नामों से विभूषित हमारे भारतीय समाज को आज क्या हो गया है जो आज हमें सर्वत्र अशांति क़े ही दर्शन होते हैं .वैज्ञानिक प्रगति ,आर्थिक विकास ,शोध -अनुसंधान किसी भी क्षेत्र में हम विश्व क़े किसी भी अन्य समाज से कतई पीछे नहीं हैं .जहाँ हम कभी सुई का भी आयात करते थे ,आज न केवल वायुयान और राकेट बना रहे हैं बल्कि निर्यात क़े क्षेत्र में भी कदम बढ़ा चुके हैं .कभी हम अमेरिकी पी .एल .चार सौ अस्सी की बैसाखी क़े सहारे अपने समाज की क्षुधा शान्त कर रहे थे ,आज हम न केवल अन्न क़े निर्यातक हैं बल्कि प्राद्योगिकी तक का निर्यात कर रहे हैं.हर क्षेत्र में अपनी अग्रणी पताका फहराने क़े बावजूद हम जिस एक समस्या से ग्रसित हैं वह है चतुर्दिक अशांति और इसका निदान बड़े -बड़े समाजशास्त्री ,राजनेता ,धर्म गुरु ,समाज सुधारक आदि कोई भी नहीं कर पा रहे हैं .प्रातः काल आँख खुलने से रात्रि में सोते समय तक प्रायः हर मनुष्य किसी न किसी समस्या से ग्रस्त होकर अशांत हैं,बल्कि इसी अशांति क़े चलते कईयों की तो रात की नींद और दिन का चैन तक उड़ चुका है .छोटे -छोटे संस्कारों पर भी भव्य प्रीती -भोज तो आयोजित किये जा रहे हैं परन्तु लोगों में प्रीत -भाव का सर्वथा अभाव हैएक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ और अपने अहं की तुष्टि में ही गौर्न्वावित होना आज का सामाजिक चलन हो गया है. आज क्या ज्ञानी क्या पंडित सभी हाय -पैसा ,हाय -पैसा करते घूम रहे हैं .फिर चाहे यह पैसा वैध -विधि से हासिल हो या अनीति द्वारा सारे प्रवचन पर -उपदेश कुशल बहुतेरे सिद्ध हो रहे हैं.एक ओर भीषण बेरोजगारी है और परिवार क़े परिवार भूखे मरने को बाध्य हैं तो दूसरी ओर एक परिवार क़े पति -पत्नी और कहीं -कहीं उनके बच्चे भी ऊँची सोर्स से रोजगार संपन्न हैं.कहीं इलाज क़े लिए पैसा भी नहीं है और कहीं करोड़ों रूपये फूंक कर फाईव स्टार होटलों सरीखे अस्पतालों में इलाज चल रहा है.कोई दहेज़ न होने क़े कारण अपनी लडकी की शादी में विलम्ब से अशान्त है तो कोई लड़के की बेरोजगारी क़े कारण पुत्र -वधु लाने से वंचित हो रहा है.भूख से व्याकुल तड़पते परिवार अशान्त हैं तो गोदामों भरा अनाज सड़ाकर फेंका जा रहा है और व्यापारी इस घाटे क़े कारण अशान्त है.एक ओर कुपोषण क़े कारण करोड़ों बच्चों का भविष्य अधर में है और दूसरी ओर साधन -सम्पन्न और समृद्ध परिवारों में रक्तचाप ,ह्रदय ,मधुमेह ,गुर्दा आदि रोगों क़े कारण भोजन प्रतिबन्धित और नियन्त्रित हो रहा है.आखिर क्या है इस अशान्ति का कारण और इसे कैसे दूर किया जा सकता है ? उत्तर सरल है भारतीय समाज द्वारा अपनी पुराणी संस्कृति का विस्मरण किया जाना ही सर्वत्र अशान्ति का हेतु है और इसका निदान प्राच्य संस्कृति को अपनाने में ही है.
बहुत देख लिया आधुनिक सभ्यता और संस्कृति को जहाँ नग्न -नृत्य क़े अलावा और धरा ही क्या है ?अब तो अगर हम शान्ति चाहते हैं और दिल से सच्ची शान्ति की चाह है तो फिर देर किस बात की ? अपनी पुराणी संस्कृति को अपनाना ही होगा क्योंकि OLD is GOLD आज क़े बुजुर्ग आज की समस्याओं क़े लिए पूरी तरह उत्तरदायी हैं ,अतः नौजवानों को ही अब आगे आना होगा और अपनी पुराणी संस्कृति को गले लगाना होगा जो ----"सर्वे सन्तु निरामयः "वाली है ,"वसुधैव कुटुम्बकम "ही जिसका अभीष्ट है.सम्पूर्ण विश्व और उसके परम -पिता से प्यार करना ही अशान्ति का निदान करना है.

परम पिता से प्यार नहीं ,शुद्ध रहे व्यवहार नहीं.
इसीलिये तो आज देख लो ,सुखी कोई परिवार नहीं..
फल और फूल अन्न इत्यादि ,समय समय पर देता है.
लेकिन है अफ़सोस यही बदले में कुछ नहीं लेता है..
करता है इनकार नहीं ,भेद भाव तकरार नहीं.
ऐसे दानी का ओ बन्दे ,करो जरा विचार नहीं..
परम पिता से प्यार नहीं ,शुद्ध रहे व्यवहार नहीं.
इसी लिए तो आज देख लो ,सुखी कोई परिवार नहीं..

कविवर नरदेव जी की सीख को अपनाएँ हम और परम -पिता से प्यार रखते हुए हवन की वैज्ञानिक पद्धति को पुनः अपनाएँ हम तो कोई कारण नहीं कि ,अशान्ति दूर होकर सर्वत्र शान्ति स्थापित न हो.


 (इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

7 comments:

कडुवासच said...

... behatreen post !!!

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

माथुर साहब, सर्वप्रथम एक लम्बे विराम के बाद आपसे मुखातिब हो रहा हूँ , जिसके लिए क्षमा ! अस्वस्थता मुख्य कारण था , अभी भी पूरी तरह स्वस्थ नहीं हूँ ! आपने बहुत सुन्दर और ज्वलंत मुद्दा उठाया है अपने इस आलेख में ! कभी कभी मुझे भी लगता है की हमारे मार्गदर्शक सीनियरों (बयोवृधों ) ने हमें निराश ही किया है, लेकिन कभी कभी युवापीढी पर भी क्षोभ होता है! क्योंकि जिसे देखो वह अधिक पाने की चाहत में किसी भी हद तक जा रहा है ! ताजा उदहारण गृह मंत्रालय का वह आई एस ऑफिसर रवि इन्दर सिंह है , क्या कमी थी उसके पास मगर ज्यादा खाने -पाने की ललक कहाँ ले गई !

मनोज कुमार said...

प्रेरक पोस्ट।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सच में जीवन हर क्षेत्र में और हर इंसान के मन में अशांति है.... आपने सही कहा यह एक ज्वलंत सामाजिक समस्या भी है.... प्रेरणादायी विचार

BrijmohanShrivastava said...

सामाजिक मर्यादाओं का पालन आवश्यक है तभी आदमी सुखी जीवन व्यतीत कर सकता है। नितान्त सत्य है कि आज हरकोई अशान्त है । बेशक तरक्की हो रही है लेकिन अशान्ति भी वढ गई है। आपने बिल्कुल सत्य लिखा है कि अहं की तुष्टि और दूसरों को नीचा दिखाने की भावना इसका मुख्य कारण है A Make new friends but remember old ,New are silver but old are gold।

महेन्‍द्र वर्मा said...

बिल्कुल सही कहा आपने, माथुर जी।
सर्वत्र अशांति का कारण प्राचीन संस्कृति का विस्मरण ही है।
इसका निराकरण निश्चित रूप से हमारी प्राचीन संस्कृति को पुनर्जीवित करने से ही हो सकेगा।
सार्थक और सामयिक आलेख के लिए बधाई।

vijai Rajbali Mathur said...

ई मेल से प्राप्त टिप्पणी-

From: गिरिजा कुलश्रेष्ठ
To: vijai.jyotish@gmail.com


सम्माननीय माथुर जी आप ब्लाग पर आये व प्रशान्त को आशीष दिया धन्यवाद । आपके ब्लाग पर टिप्पणी न हो सकी इसलिये मेल पर लिख रही हूँ । अपनी संस्कृति व संस्कारों के लिये आपके विचार मुझे बिल्कुल अपने ही लगे ।वास्तव में अपनी मौलिकता, नैतिक मूल्य ,जीवन-दर्शन और आत्मगौरव को पीछे छोड कर भौतिक उन्नति के पीछे भागना ही अशान्ति का मूल कारण है ।