17 जनवरी 1991 से प्रारम्भ हुआ खाड़ी युद्ध दिनों दिन गहराता ही जा रहा है और इसके दुष्परिणाम अभी से हमारे देश पर पड़ने लगे हैं। इस युद्ध की आड़ मे खाद्यानों की भी काला बाजारी हो रही है और डीजल की सप्लाई का तो बुरा हाल है। पेट्रोलियम मंत्री द्वारा दिल्ली-भ्रमण की दूरदर्शन रिपोर्ट मे भले ही पेट्रोलियम सप्लाई सही दर्शा दी गई । आगरा के ग्रामीण क्षेत्रों मे किसान सिंचाई के लिए डीजल न मिलने से अभी से कराह उठे हैं। इसी संबंध मे पुलिस उपाधीक्षक का सिर भी फट चुका है। युद्ध अभी शुरू हुआ है और यह लम्बा चलेगा अब तो हेंकड़बाज अमेरिका भी मानने लगा है।
विदेश नीति के विफलता-
पूर्व विदेश सचिव वेंकटेश्वरन ने तो भारत द्वारा ईराक का समर्थन करने का केवल एहसास दिलाने की बात कही है और उन्होने अमेरिका का पक्ष लेने की हिमायत की है। परन्तु वास्तविकता यह है कि,भारत अपनी विदेश नीति मे पूरी तरह कूटनीतिक तौर पर इसलिए विफल हुआ है कि,युद्ध शुरू होने से रोकने के लिए राष्ट्रसंघ अथवा निर्गुट आंदोलन मे भारत ने कोई पहल ही नहीं की।
पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी की जार्डन के शाह हुसैन और ईराकी राष्ट्रपति श्री सद्दाम हुसैन से फोन वार्ता के बाद उनके निवास पर विपक्षी बाम-मोर्चा आदि के दलों और विदेशमंत्री श्री विद्या चरण शुक्ल की उपस्थिती मे हुई बैठक मे भारत की विदेश नीति की समीक्षा की गई। बैठक के बाद इंका महासचिव श्री भगत ने सरकार की विदेश नीति की भर्तस्ना की। इसी के बाद विदेश मंत्रियों के दौरे शुरू हुये। अमेरिका ने भारत के शांति प्रस्ताव को ठुकरा दिया और सुरक्षा परिषद ने युद्ध विराम की अपील रद्द कर दी है।
अमेरिका की जीत मे भारत का अहित है-
खाड़ी युद्ध से पर्यावरण प्रदूषण और औद्योगिक संकट के साथ बेरोजगारी और बढ्ने तथा भुखमरी और बीमारियों के फैलने का खतरा तो है ही। सबसे बड़ा खतरा अमेरिका की जीत और ईराक की पराजय के बाद आयेगा। उस स्थिति मे पश्चिम एशिया के तेल पर अमेरिकी साम्राज्यवाद का शिकंजा कस जाएगा वहाँ साम्राज्यवादी सेनाएँ मजबूत किलेबंदी करके जम जाएंगी। भारत आदि निर्गुट देशों को तेल प्राप्त करने के लिए साम्राज्यवादियों की शर्तों के आगे झुकना पड़ेगा। हमारी अर्थनीति और उद्योग नीति पश्चिम के हितों के अनुरूप ढालनी होगी तभी हमे तेल प्राप्त हो सकेगा। अतः भारत का 'स्वाभिमान' दांव पर लग जाएगा यदि अमेरिकी गुट की जीत होती है।
एशिया का गौरव सद्दाम -
यह विडम्बना ही है कि न तो भारत और न ही सोवियत रूस ईराक का साथ दे रहे हैं जबकि दोनों देशों की आर्थिक और राजनीतिक ज़रूरत ईराक और सद्दाम को बचाने से ही पूरी हो सकती है। पश्चिम के साम्राज्यवादी -शोषणवादी हमले को ईराक अकेला ही झेल रहा है। यदि ईराक पराजित होता है तो न केवल पश्चिम एशिया औपनिवेशिक जाल मे फंस जाएगा वरन एशिया और अफ्रीका के देशों को पश्चिम का प्रभुत्व स्वीकार करना ही पड़ेगा।
अतः आज ज़रूरत नेताजी सुभाष चंद्र बॉस द्वारा प्रस्तुत नारे-"एशिया एशियाईओ के लिए" पर अमल करने की है । भारत को एशिया के अन्य महान देशों -चीन और रूस को एकताबद्ध करके अमेरिकी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए और ईराक को नैतिक समर्थन प्रदान करना चाहिए। भारत के स्वाभिमान ,आर्थिक और राजनीतिक हितों का तक़ाज़ा है कि,राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन और ईराक की जीत हो।
(उस समय का मेरा यह आंकलन ज्योतिषीय नहीं विशुद्ध रूप से 'राजनीतिक और कूटनीतिक आंकलन' था और अब तक के समय मे वैसा ही घटित होते देखा गया है। आज तो भारत के भावी प्रधानमंत्री हेतु भी अमेरिका नाम का सुझाव देने लगा है-कौन सा दल किसे अपना नेता चुने यह भी अमेरिका मे तय हो रहा है। भारत मे किस विषय पर आंदोलन चले यह भी अमेरिका तय कर रहा है-अन्ना आंदोलन इसका ताजा तरीन उदाहरण है। अतीत की गलतियों का खामियाजा आज मिल रहा है और आज जो गलतियाँ की जा रही हैं-अन्ना जैसों का समर्थन उसका खामियाजा आने वाली पीढ़ियों को निश्चित रूप से भुगतना ही होगा। )
विदेश नीति के विफलता-
पूर्व विदेश सचिव वेंकटेश्वरन ने तो भारत द्वारा ईराक का समर्थन करने का केवल एहसास दिलाने की बात कही है और उन्होने अमेरिका का पक्ष लेने की हिमायत की है। परन्तु वास्तविकता यह है कि,भारत अपनी विदेश नीति मे पूरी तरह कूटनीतिक तौर पर इसलिए विफल हुआ है कि,युद्ध शुरू होने से रोकने के लिए राष्ट्रसंघ अथवा निर्गुट आंदोलन मे भारत ने कोई पहल ही नहीं की।
पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी की जार्डन के शाह हुसैन और ईराकी राष्ट्रपति श्री सद्दाम हुसैन से फोन वार्ता के बाद उनके निवास पर विपक्षी बाम-मोर्चा आदि के दलों और विदेशमंत्री श्री विद्या चरण शुक्ल की उपस्थिती मे हुई बैठक मे भारत की विदेश नीति की समीक्षा की गई। बैठक के बाद इंका महासचिव श्री भगत ने सरकार की विदेश नीति की भर्तस्ना की। इसी के बाद विदेश मंत्रियों के दौरे शुरू हुये। अमेरिका ने भारत के शांति प्रस्ताव को ठुकरा दिया और सुरक्षा परिषद ने युद्ध विराम की अपील रद्द कर दी है।
अमेरिका की जीत मे भारत का अहित है-
खाड़ी युद्ध से पर्यावरण प्रदूषण और औद्योगिक संकट के साथ बेरोजगारी और बढ्ने तथा भुखमरी और बीमारियों के फैलने का खतरा तो है ही। सबसे बड़ा खतरा अमेरिका की जीत और ईराक की पराजय के बाद आयेगा। उस स्थिति मे पश्चिम एशिया के तेल पर अमेरिकी साम्राज्यवाद का शिकंजा कस जाएगा वहाँ साम्राज्यवादी सेनाएँ मजबूत किलेबंदी करके जम जाएंगी। भारत आदि निर्गुट देशों को तेल प्राप्त करने के लिए साम्राज्यवादियों की शर्तों के आगे झुकना पड़ेगा। हमारी अर्थनीति और उद्योग नीति पश्चिम के हितों के अनुरूप ढालनी होगी तभी हमे तेल प्राप्त हो सकेगा। अतः भारत का 'स्वाभिमान' दांव पर लग जाएगा यदि अमेरिकी गुट की जीत होती है।
एशिया का गौरव सद्दाम -
यह विडम्बना ही है कि न तो भारत और न ही सोवियत रूस ईराक का साथ दे रहे हैं जबकि दोनों देशों की आर्थिक और राजनीतिक ज़रूरत ईराक और सद्दाम को बचाने से ही पूरी हो सकती है। पश्चिम के साम्राज्यवादी -शोषणवादी हमले को ईराक अकेला ही झेल रहा है। यदि ईराक पराजित होता है तो न केवल पश्चिम एशिया औपनिवेशिक जाल मे फंस जाएगा वरन एशिया और अफ्रीका के देशों को पश्चिम का प्रभुत्व स्वीकार करना ही पड़ेगा।
अतः आज ज़रूरत नेताजी सुभाष चंद्र बॉस द्वारा प्रस्तुत नारे-"एशिया एशियाईओ के लिए" पर अमल करने की है । भारत को एशिया के अन्य महान देशों -चीन और रूस को एकताबद्ध करके अमेरिकी साम्राज्यवादियों के विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए और ईराक को नैतिक समर्थन प्रदान करना चाहिए। भारत के स्वाभिमान ,आर्थिक और राजनीतिक हितों का तक़ाज़ा है कि,राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन और ईराक की जीत हो।
(उस समय का मेरा यह आंकलन ज्योतिषीय नहीं विशुद्ध रूप से 'राजनीतिक और कूटनीतिक आंकलन' था और अब तक के समय मे वैसा ही घटित होते देखा गया है। आज तो भारत के भावी प्रधानमंत्री हेतु भी अमेरिका नाम का सुझाव देने लगा है-कौन सा दल किसे अपना नेता चुने यह भी अमेरिका मे तय हो रहा है। भारत मे किस विषय पर आंदोलन चले यह भी अमेरिका तय कर रहा है-अन्ना आंदोलन इसका ताजा तरीन उदाहरण है। अतीत की गलतियों का खामियाजा आज मिल रहा है और आज जो गलतियाँ की जा रही हैं-अन्ना जैसों का समर्थन उसका खामियाजा आने वाली पीढ़ियों को निश्चित रूप से भुगतना ही होगा। )