Saturday, October 1, 2011

गांधी-शास्त्री जयंती


मोहनदास करमचंद गांधी जब महात्मा गांधी बने तो जन-जन के प्रिय नायक भी थे। आज भी यही कहा जाता है कि भारत को स्वतन्त्रता महात्मा गांधी के ही मुख्य प्रयासों से मिली है। लेकिन डा सम्पूर्णानन्द जो यू पी के मुख्यमंत्री और राजस्थान के राज्यपाल भी रहे और संविधान सभा के सदस्य भी रहे बहौत ही निराशा के साथ साप्ताहिक हिंदुस्तान मे 1967 मे लिखे अपने एक लेख मे कहते हैं-"हमारे देश मे भी गांधी नाम का एक पागल पैदा हुआ था,संविधान के पन्नों पर उसके नाम का एक भी छींटा देखने को नहीं मिलेगा। "

 सम्पूर्णानन्द जी ने अपने अनुभवों के आधार पर कोई गलत निष्कर्ष नहीं निकाला है। आजादी के तुरंत बाद गांधी जी की उपेक्षा शुरू हो गई थी अंत तक उन्हें नेहरू-पटेल के झगड़ों मे मध्यस्थता करनी पड़ती थी। परंपरागत रूप से  प्रतिवर्ष गांधी जयंती को एक राष्ट्रीय पर्व के रूप मे मनाया जाता है। गांधी जी के नाम पर गोष्ठियाँ करके खाना-पूर्ती कर ली जाती है। कुछ समय पूर्व तक खादी  के वस्त्रों पर गांधी आश्रम से छूट मिलती थी। यह कह कर इतिश्री कर ली जाती है कि गांधी जी के विचार आज भी प्रासगिक हैं जबकि कहने वाले भी उन पर अमल नहीं करना चाहते।


गांधी जी के नाम का उपयोग एक फैशन के रूप मे किया जाता है। 1977 मे आपात काल के बाद छत्तीस गढ़ मे पवन दीवान को छत्तीस गढ़ का गांधी कह कर प्रचारित किया गया था और अभी-अभी कारपोरेट घरानों के रक्षा कवच अन्ना हज़ारे को दूसरा गांधी कहा गया है। वाराणासी के एक चिंतक महोदय ने एन डी ए शासन मे हुये रु 75000/-करोड़ के यू टी आई घोटाले के समय रहे यू टी आई चेयरमैन डा सुब्रहमनियम स्वामी की तुलना गांधी जी से की है।

गांधी और गांधीवाद का बेहूदा मज़ाक उड़ाया जा रहा है। 1980 मे 'गांधीवादी समाजवाद' का शिगूफ़ा उन लोगों ने छोड़ा था जिन्हें गांधी जी की हत्या के लिए उत्तरदाई माना जाता रहा था। यदि 1970 के लगभग लार्ड रिचर्ड  एटन बरो ने'गांधी' नामक फिल्म न बनाई होती तो आज की पीढ़ी शायद गांधी जी के नाम से भी अपरिचित रह जाती।

गांधी जी का आग्रह सर्वाधिक 'सत्य' और 'अहिंसा' पर था और इन्हीं दोनों को उन्होने अपने संघर्ष का हथियार बनाया था। 'अहिंसा'-मनसा -वाचा-कर्मणा होनी चाहिए तभी वह अहिंसा है। लेकिन आज गांधीवादी कहे गए अन्ना जी के इंटरनेटी भक्त 'तुम्हें गोली से मार देंगे','वाहियात', 'बकवास ' आदि अनेकों अपशब्दों का प्रयोग खुल्लम-खुल्ला कर रहे हैं। यही है आज का गांधीवाद। 

लाल बहादुर शास्त्री 

एक अत्यंत गरीब परिवार मे जन्मे और अभावों मे जिये लाल बहादुर शास्त्री सच्चे गांधीवादी थे । गांधी जयंती पर ही उनकी जयंती भी है। छल -छद्म से दूर रह कर स्वाधीनता संघर्ष मे भाग लेने के बाद शास्त्री जी ने ईमानदारी से राजनीति की है। यू पी के गृह मंत्री रहे हो या केंद्र के रेल मंत्री सभी जगह निष्पक्षता व ईमानदारी के लिए शास्त्री जी का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इसीलिए अपनी गंभीर बीमारी के समय नेहरू जी ने शास्त्री जी को निर्विभागीय मंत्री बना कर एक प्रकार से कार्यवाहक प्रधानमंत्री ही बना दिया था। नेहरू जी की इच्छा के अनुरूप ही शास्त्री जी को उनके बाद प्रधान मंत्री बनाया गया। दृढ़ निश्चय के धनी शास्त्री जी ने अमेरिकी  PL-480 की बैसाखी को ठुकरा दिया और जनता से सप्ताह मे एक दिन उपवास रखने की अपील की जिसका जनता ने सहर्ष पालन भी किया। अमेरिकी कठपुतली पाकिस्तान को 1965 के युद्ध मे करारी शिकस्त शास्त्री जी की सूझ-बूझ और कठोर निर्णय से ही दी जा सकी।

आज शास्त्री जी का नाम यदा-कदा किन्हीं विशेष अवसरों पर ही लिया जाता है। गांधी जी का नामोच्चारण तो राजनीतिक फायदे के लिए हो जाता है परंतु शास्त्री जी का नाम लेकर कोई भी ईमानदारी के फेर मे फंसना नहीं चाहता। नेहरू जी के सलाहकार के रूप मे शास्त्री जी ने जिन नीतियों का प्रयोग किया उनसे यू पी मे कम्यूनिस्टों का प्रभाव क्षीण हो गया और कालांतर मे सांप्रदायिक शक्तियों का उभार होता गया। खुद गरीब होते हुये भी गरीबों के लिए संघर्ष करने वालों को ठेस पहुंचाना शास्त्री जी का ऐसा कृत्य रहा जिसके दुष्परिणाम आज गरीब वीभत्स रूप मे भुगत रहे हैं।

गांधी जी ट्रस्टीशिप के हामी थे और शास्त्री जी सच्चे गांधीवादी परंतु आज देश मे शिक्षा समेत हर चीज का बाजारीकरण हो गया है। बाजार ही राजनीति,धर्म और समाज को नियंत्रित कर रहा है। गांधी-शास्त्री जयंती मनाना एक रस्म-अदायगी ही है। भविष्य मे कुछ सुधार हो सके इसकी प्रेरणा प्राप्त करने हेतु गांधी-शास्त्री का व्यक्तित्व और कृतित्व अविस्मरणीय रहेगा।

गांधी जी ने आम आदमी को केन्द्रित किया था। एक आर्यसमाजी उपदेशक महोदय ने अपने प्रवचन मे बताया  था की जब गांधी जी चंपारण मे नीलहे गोरों के अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने गए थे तो एक गरीब आदिवासी परिवार ने उन्हें बुलाया था। गांधी जी उस परिवार के लोगों से मिलने गए तब उन्हें उनकी वास्तविक गरीबी का र्हसास हुआ,परिवार की महिला ने गांधी जी से कहा की वह अपनी बेटी को भी भेजेगी अतः वह अंदर गई और वही धोती पहन कर उसकी बेटी गांधी जी से मिलने आई। गांधी जी को समझ आ गया कि वहाँ माँ -बेटी के मध्य केवल एक ही धोती है। उसी क्षण उन्होने आधी धोती पहनने का फैसला किया और मृत्यु पर्यंत ऐसा ही करते रहे। ब्रिटिश सरकार उन्हें हाफ नेक्ड फकीर कहती रही परंतु उन्ही से वार्ता भी करनी पड़ी। उन्ही गांधी जी के देश मे आदिवासियों से क्या सलूक हुआ,एक नजर डालें हिंदुस्तान,लखनऊ,01 अक्तूबर 2011 के इस सम्पाद्कीय पर।हम प्रतिवर्ष गांधी जयंती तो मनाते हैं परंतु गांधी जी से प्रेरणा नहीं लेते जिसकी नितांत आवश्यकता है।

1-10-11 का समपादकीय-

5 comments:

Patali-The-Village said...

बहुत सही बात कही है आपने| धन्यवाद|

डॉ टी एस दराल said...

गाँधी जी के आदर्शों पर चलना आज की पीढ़ी के लिए बड़ा कठिन काम है । लेकिन इससे उनके प्रति श्रद्धा में कमी नहीं आनी चाहिए । ऐसे इन्सान जिनके बारे में विचारों में इतना मतभेद हो , विरला ही योगी होता है ।

शास्त्री जी की सादगी भी अनुसरणीय है ।
दोनों महापुरुषों को शत शत प्रणाम ।

मनोज कुमार said...

एक ही देश में एक ही तारीख को दो महान विभूतियों का जन्म हुआ, फिर भी देश का यह हाल क्यों?
हम उनके आदर्शों को एक-एक कर भुलाते जा रहे हैं।

Maheshwari kaneri said...

सार्थक पोस्ट..दोनों महापुरुषों को शत शत प्रणाम ।

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बहुत ही समसामयिक और सार्थक बात कही है आपने ... धन्यवाद !