न्याय मूर्ति मार्कन्डेय काटजू साहब के विचार स्कैन पर डबल क्लिक करके देखें । सिर्फ पत्रकारों पर ही नहीं ब्लागर्स पर भी इन्हें लागू माना जाना चाहिए।
हिंदुस्तान --03/01/2012 |
अभी -अभी एक ब्लागर साहब ने अपने ब्लाग मे ब्लागर्स को पत्रकारों के समान मान्यता-सुविधाएं देने की मांग उठाई है। इससे पूर्व 11 सितंबर 2011 को लखनऊ मे हिन्दी ब्लागिंग का इतिहास पुस्तक के विमोचन के अवसर पर भी वक्ताओं ने ब्लागिंग को पांचवा खंबा बता कर इसे मान्यता-सुविधाओं की मांग उठाई थी। अब जरा काटजू साहब के निष्कर्ष के संदर्म्भ मे ब्लागर्स भी यदि अपना 'आत्मावलोकन' करें तो मीडिया से भिन्न स्थिति यहाँ भी नहीं है। लगभग अधिकांश लेखन रौब-दाब,प्रदर्शन और अहंकार से भरा है।
किसी किसान नेता ने नहीं,मजदूर नेता ने नहीं बल्कि 'भारतीय प्रेस परिषद' के चेयरमेन न्यायमूर्ति काटजू ने कहा है-"यह कटु सत्य है कि लाखों किसानों की जमीने छिन चुकी हैं। वे अपनी आजीविका खो चुके हैं। अब वे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि शहरों मे नौकरी मिल जाएगी,जबकि ऐसा कतई नहीं है। ब्रिटेन मे औद्योगिक क्रांति के दौरान विस्थापित किसानों को नव-उत्पन्न उद्योगों मे नौकरियाँ मिल गई थीं। लेकिन भारत मे हाल के वर्षों मे उत्पादन कम हुआ है। कई फेक्टरियों मे ताले लग गए हैं। और अब उनके मालिक जमीन-जायदाद के धंधे मे कूद पड़े हैं। नतीजतन अधिकांश विस्थापित किसान विवश होकर घरेलू नौकर बन गए हैं या फिर फ़ेरीवाले का काम कर रहे हैं। यही नहीं बड़ी तादाद तो भिक्षावृत्ति को अपना पेशा बना चुकी है। ऐसे लोगों की भी संख्या कम नहीं है ,जिनहोने खुद को मजबूरन आपराधिक धंधे और वेश्यावृत्ति मे उतार लिया है। कर्ज न चुकाने के चलते किसान ख़ुदकुशी भी कर रहे हैं। पिछले 15 वर्षों मे ढाई लाख किसान ख़ुदकुशी कर चुके हैं। अब भी 86 करोड़ भारतीय रोजाना 25 रुपए से कम मे गुजर-बसर करते हैं। यही नहीं, देशके 47 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। यह फीसदी अपने आप मे भयावह और त्रासद है,क्योंकि उप सहारा व अफ्रीकी देशों मसलन सोमालिया और इथोपिया मे भी आंकड़े इस स्तर तक नहीं पहुंचे हैं। एक तथ्य यह भी है कि अपने यहाँ गत 20 वर्षों मे नाटकीय तौर पर अमीरों और गरीबों के बीच की खाई और चौड़ी हुई है। "
इतना ही नहीं न्यायमूर्ति की वेदना को आगे देखिये वह क्या कहते हैं-"जाहिर है,यह एक बदसूरत तस्वीर है। ऐसे मे मीडिया द्वारा ज्यादा से ज्यादा फिल्मी खबरों को प्रकाशित-प्रसारित करने की प्रवृत्ति को क्या जायज ठहराया जा सकता है?क्या मीडिया जान-बूझ कर देश की वास्तविक चुनौतियों से लोगों का ध्यान नहीं हटा रहा है?क्या भारतीय मीडिया की भूमिका फ्रांस की महारानी एंतोईने की तरह नाही है,जो लोगों को यह सलाह देती थी कि अगर उनके पास रोटी नहीं है ,तो वे केक खाएं?मीडिया मे ज्योतिष आधारित अंधविश्वासी बकबक तो खूब होती है,जबकि उसे तर्कसंगत व वैज्ञानिक विचारों को तरजीह देनी चाहिए। ऐसे मे मीडिया की भूमिका क्यों जन-विरोधी नहीं है?"
हमारे ब्लाग जगत मे भी धड़ल्ले से मनोरंजन हेतु ही लेखन हो रहा है। मुझ जैसा यदि कोई लिखता है तो वह उपेक्षित ही है। मैंने लगातार लिख कर आगाह किया है कि मनमोहन सिंह द्वारा 1991 से उदारवादी नीतियाँ जिन्हें अमेरिका जाकर आडवाणी साहब अपनी नीतियों को चुराया बता आए थे के कारण ही आज विषमता ,शोषण और भ्रष्टाचार बढ़ गया है। भ्रष्ट लोगों के संरक्षण हेतु इन्हीं पी एम साहब ,आर एस एस/भाजपा के सहयोग से अन्ना आंदोलन चला कर रोटी-रोजी ,मंहगाई,बेकारी -भूख आदि समस्याओं से ध्यान हटाया गया है। सरकारी रेलवे का सर्जन और दूसरे बड़े अधिकारी जो खुद सम्पन्न है अन्ना का लोगो लगा कर उसके गीत गाते हैं अर्थात गरीबों का उपहास उड़ाते और शोषण का पृष्ठपोशन करते हैं। बी एच ई एल का अवकाश प्राप्त इंजीनियर और रेलवे सर्जन खुले आम पोंगा-पंथ को बढ़ावा देते हैं।मै जब ज्योतिष,धर्म आदि की वैज्ञानिक व्याख्या देता हूँ तो ऐसे ब्लागर्स मुझ पर शब्द बाण चलाते हैं। अतः मै सामझता हूँ कि न्यायमूर्ति काटजू ने जो पीड़ा मीडिया के संबंध मे व्यक्त की है वह ब्लागर्स पर भी लागू होती है। मै संतोष कर सकता हूँ कि उपेक्षित रह कर मैंने खुद को ऐसी भीड़ से अलग रखा है ।
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