Friday, June 1, 2012

ब्लाग -लेखन के दो वर्ष बाद भी -"अकेला हूँ मैं"

सर्व-प्रथम आज 01 जून अंतर्राष्ट्रीय बाल दिवस पर दुनिया के सभी बच्चो को मंगलकामनाएं। 


अब अपनी बात-



02 जून 2010 को इस ब्लाग मे पहला लेख दिया था-"आठ और साठ घर मे नहीं" जो एक स्थानीय अखबार मे पूर्व मे प्रकाशित हो चुका था। आज  आयु साठ वर्ष पूर्ण करने के बाद जब इस ब्लाग लेखन के भी दो वर्ष पूर्ण हो रहे हैं तो मैं यह कह सकने की स्थिति मे हूँ कि अपनी तरह के लेखन मे मैं ब्लाग जगत मे बिलकुल अकेला हूँ। एक ब्लागर् साहब  ने बड़ी मेहनत से सभी ब्लागरों की श्रेणियाँ बनाई थीं और उनके चरित्र बताए थे शायद उनमे से भी किसी खांचे मे मैं फिट नहीं हूँ। मैंने प्रारम्भ मे ही सूचित किया था कि 'स्वांत: सुखाय,सर्वजन हिताय' मेरे लेखन का उद्देश्य है। टिप्पणियों को मुद्दा बना कर अनेक ब्लागर्स ने कहा कि जो लोग स्वांत: सुखाय लिखते हैं उन्हें टिप्पणी बाक्स बंद कर देना चाहिए। मैंने ऐसा किया भी था तब उन लोगों को दिक्कत हुई जो निष्पक्ष टिप्पणियाँ देना चाहते थे अतः उनकी सुविधा हेतु पुनः टिप्पणी बाक्स को खोलना  पड़ा। कुछ ब्लागर्स लिखते हैं यह लेंन -देंन(give&take)है मैं इस सिद्धान्त से पूर्णतया असहमत हूँ। अपने अनुभव और ज्ञात ज्ञान के आधार पर हमने जो विचार दिये उससे कोई भी किसी भी कारण से असहमत हो सकता है,यदि वह तर्क संगत बात प्रस्तुत करता है तो उसका स्वागत है किन्तु यहाँ तो ब्लागर्स अहंकार मे डूबे हुये हैं वे खुद को खुदा और दूसरों को बेवकूफ समझते है। मेरे कई लेखों पर ऐसी टिप्पणियाँ दी गई हैं-"यह मूर्खतापूर्ण कथा है","यह आप क्या बेपर की उड़ा रहे हैं" आदि-आदि। उस पर भी तुर्रा यह कि ब्लागर्स उम्दा लिखते हैं फेसबुक पर 'बकवास' होती है। 'जाकी रही भावना जैसी,प्रभु  मूरति देखि  तिन तैसी'। जिसकी फेसबुक लिस्ट मे जैसे लोग होंगे वैसा ही तो लिखेंगे। मैंने तो तमाम अन्ना/रामदेव भक्तों को अपनी लिस्ट से हटा दिया था जिन लोगों ने तर्क न आने पर कुतर्कपूर्ण बातें जैसे-'वाहियात','नानसेन्स','बंगाल की खाड़ी मे डुबो दिया जाएगा' शब्दों का प्रयोग किया था। यदि ऐसे ढपोर शंखों को न हटाता तो मेरी फेसबुक लिस्ट भी  हजारों की संख्या छूती किन्तु मैंने उसे दो सौ के ऊपर  पर समेटा हुआ है और आँख बंद करके किसी भी रिकुएस्ट को स्वीकार नहीं करता हूँ।पोंगा-पंथ आदि के समर्थक ज्ञात होते ही एक पल मे अपनी लिस्ट से ऐसे लोगों को हटा देता हूँ।मेरे ज्योतिषयात्मक विश्लेषण की खिल्ली उड़ाने वाले ब्लागर(जिसे ब्लैक मेलर कहना ज़्यादा उपयुक्त होगा क्योंकि वह कई ब्लागर्स से  उनकी रचनाएँ छपवाने   का प्रलोभन दे कर धन उगाही मे ही संलिप्त रहता है ) के प्रशंसक और सहयोगी ब्लागर्स के ब्लाग अनफालों करते हुये उन्हे फेसबुक लिस्ट से तत्काल हटा दिया था।

ब्लागर्स पढ़ें या न पढ़ें फेसबुक लिंक के माध्यम से न केवल फ्रेंड-लिस्ट मे शामिल लोगों बल्कि विभिन्न ग्रुप्स के जरिये उन लोगों तक भी जो सीधे-सीधे फ्रेंड लिस्ट मे शामिल नहीं हैं संदेश पहुँच जाता है। अतः मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि फेसबुक तो ब्लाग-लेखन का उद्देश्य सिद्ध करने मे बहुत सहायक है। यदि फेसबुक पर कुछ लोग जो बिगड़े हुये अमीर हैं गलत हैं तो ब्लाग जगत मे तो 99 .9 प्रतिशत लोग हेंकड़ी,अहंकार,अहम मे डूब कर रचनाएँ कर रहे हैं। एक ब्लागर दूसरे ब्लागर को नीचा दिखाने के  प्रयासो मे ही लगा रहता है। मैं घोषित रूप से 'ढोंग-पाखंड' का विरोध करता हूँ तो अनेकों ब्लागर्स 'ढोंग-पाखंड' को बढ़ावा देने हेतु एक के बाद एक पोस्ट लिखते जा रहे हैं। मेरे ज्योतिषीय विश्लेषण के सटीक निकलने पर दूसरे ब्लाग मे टिप्पणी के माध्यम से उसकी खिल्ली उड़ाई गई।खिल्ली उड़ाने वाले इस ब्लागर के एक समर्थक का दृष्टिकोण है कि चूंकि आपने निशुल्क सहायता उस ब्लागर को दी थी इसलिए वह आपको मूर्ख समझता है। यह ब्लागर्स ब्रांड  आधुनिक सोच है कि निशुल्क सहायता का एहसान मानने की बजाए उसे मूर्खता समझ कर उसकी खिल्ली उड़ाई जाये।  मेरे पिछले कई लेखों को एक साथ निरर्थक घोषित करने हेतु कुछ ब्लागर्स तो स्वामी दयानंद सरस्वती तक पर प्रहार कर रहे हैं उनको अज्ञानी साबित करने पर आमादा हैं।

देश को आज़ाद हुये 65 वर्ष पूर्ण होने वाले हैं परंतु अभी तक लोगों के दिलो-दिमाग से गुलामी की बू नहीं निकली है। विदेशी शासकों ने हमारे देश की संस्कृति और साहित्य को यहीं के पद-लूलुप,धन-पिपासू विद्वानों की सहायता से विकृत करा दिया था अब उसका परिष्करण किया जाना चाहिए था किन्तु इसके विपरीत आज बड़ी तेज़ी से 'सांस्कृतिक-साहित्यिक आक्रमण' करके देश और इसकी एकता को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों के हित  मे किया जा रहा है। "समाजवाद और वेदिक मत" के माध्यम से मैंने सृष्टि से अब तक का संक्षिप्त वर्णन देकर स्पष्ट किया था समाज मे समानता के सिद्धान्त को ध्वस्त करने हेतु देश-द्रोही शक्तियाँ गलत व्याख्याये प्रस्तुत कर रही हैं तब से इस क्रम मे  और तीव्रता से वृद्धि हुई है।

जो विदेशी भारत आकर यहीं बस गए उन्होने जनता पर अपनी पकड़ मज़बूत करने हेतु यहाँ विद्वानो को उपकृत करके 'कुरान' की त्तर्ज पर 'पुराण' लिखवाये जिनमे हमारे महापुरुषों का चरित्र हनन किया गया है। दुर्भाग्य की बात है कि आज उन  सब पुराण का अंध-प्रकोप फैला हुआ है जिसने जीवन के सभी आयामो मे भ्रष्टाचार कूट-कूट कर भर दिया है। बाद मे आए यूरोपीय शासकों ने तो और भी हद कर दी। भारत के इतिहास को उलट -पलट दिया गया ,विकृत कर दिया गया। लेंनपूल,कर्नल टाड आदि और इन्ही के स्वर मे स्वर मिलाते हुये आर सी माजूमदार सरीखे भारतीय इतिहासकारों ने देश को एक सांप्रदायिक इतिहास प्रदान किया। इन इतिहासकारों ने आर्यों को आक्रांता घोषित किया और उनका मूल उद्गम दक्षिण-पश्चिम एशिया मे मेसोपोटामिया को बताया। 'हिटलर' की पुस्तक के पृष्ठ 85 के हवाले से कुछ लोगों ने यूरोप को आर्यों का मूल उद्गम बताया। आज देश मे एक ज़बरदस्त बहस छिड़ी हुई है भारत के मूल निवासियों की सत्ता स्थापना की। इस हेतु आर्यों को विदेशी बता कर उनकी कटु आलोचना की जा रही है। महात्मा गौतम बुद्ध को मूल निवासी बताया जा रहा है जबकि उन्होने खुद प्रत्येक शब्द के पूर्व 'आर्य सत्य है' लगाया है जबकि आज इसे आर्यों का षड्यंत्र बताया जा रहा है। कहाँ हैं हमारे ब्लाग -जगत के विद्वान शूर-वीर?क्या वे आत्म-प्रशंसा या एक दूसरे की प्रशंसा मे ही रचना संसार चलाते रहेंगे?



समाज-शास्त्र (Sociology) की बी ए की पुस्तक मे पढ़ा था कि-'जिस प्रकार धुए को देख कर ज्ञात होता है कि आग लगी है और गर्भिणी को देख कर भान होता है कि संभोग हुआ है उसी प्रकार मानव के विकास क्रम मे कुछ कड़ियाँ अभ भी मिल जाती हैं जिनसे अतीत का भान होता है।'इस आधार पर विदेशी विद्वानों के निष्कर्ष और उनके अनुयाईओ का भ्रामक प्रचार अतार्किक और अवैज्ञानिक सिद्ध होता है। मैक्समूलर साहब जर्मनी से आए भारत मे तीस वर्ष रहे यहीं पर संस्कृत सीखी और यहाँ से मूल पांडुलिपियाँ लेकर जर्मन रवाना हो गए। जर्मन भाषा मे अनुवाद प्रकाशित कराये जिनके आधार पर वहाँ और पूरे यूरोप मे वैज्ञानिक क्रांति हुई। आज यूरोप को विज्ञान का सिरमौर माना जा रहा है क्योंकि हमारे पूर्वज देशवासी अपनी धरोहर को सम्हाल कर न रख सके तो वे अनाड़ी और मूर्ख करार दे दिये जा रहे हैं। 'परमाणु बम' का आविष्कार इन ग्रन्थों की सहायता से जर्मन मे हुआ उसकी पराजय के बाद अमेरिका और रूस ने इन वैज्ञानिकों को बाँट लिया जिसके फल् स्वरूप यू एस ए और रूस मे एटम बम बनाए गए, इसी प्रकार हेनीमेन साहब ने  होम्योपैथी, शुसलर साहब ने बायोकेमिक और कार्ल मार्क्स ने साम्यवाद आदि के जो  सिद्धान्त प्रतिपादित किए वे  भारत से ही जर्मन पहुंचे हैं जिसे हिटलर ने अपना बता दिया था।वस्तुतः 'साम्यवाद' के सिद्धान्त 'वेदों'से ही निकले हैं किन्तु दुखद है कि भारत के साम्यवादी इस वास्तविक सत्य को स्वीकार न करने के कारण जनता से अलग-थलग पड़े हैं। नतीजतन साम्राज्यवादियों के हितार्थ स्थापित RSS और उसके संगठन जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ने मे कामयाब हो जाते हैं। 

आज से दस लाख वर्ष पूर्व जब मानव का उद्भव हुआ तो सम्पूर्ण पृथ्वी पर तीन स्थानों -1-त्रिवृष्टि-आधुनिक तिब्बत,2-मध्य अफ्रीका महाद्वीप और 3- मध्य यूरोप मे 'युवा स्त्री' और 'युवा पुरुष' के रूप मे सृष्टि प्रारम्भ हुई थी। आज विश्व की सम्पूर्ण आबादी उन्हीं की वंशज है। भौगोलिक जलवायु के अनुसार अफ्रीका, यूरोप और एशिया के मानव भिन्न- रूप,रंग,आकार-प्रकार के हैं। प्राकृतिक सुविधा के अनुसार 'त्रिवृष्टि' अर्थात तिब्बत मे उत्पन्न मानव दूसरे स्थानो पर उत्पन्न मानव से ज्ञान-विज्ञान मे श्रेष्ठ था जिसे आर्ष पुकारा गया वही शब्द अब आर्य कहलाता है। किन्तु आर्यों को विदेशी आक्रांता बताते हुये इसकी उत्पत्ति 'अरि' (शत्रु)के रूप मे बता कर आर्यों पर हमला बोलने का आहवाहन किया जा रहा है। आर्यों के विस्तार का विकृत इतिहास इसका प्रमाण बताया जा रहा है।


आर्य न कोई जाति थी न है। आर्य=आर्ष=श्रेष्ठ। ज्ञान-विज्ञान इस श्रेष्ठता का आधार था न कि रूप,रंग या नस्ल। त्रिवृष्टि मे जन-संख्या वृद्धि होने पर आर्ष या आर्य लोग हिमालय पार कर उत्तर भारत के निर्जन प्रदेश पर आ गए और इसे आर्यावृत्त नाम दिया यहाँ पहले आबादी थी ही नहीं तो आक्रमण करने या मूल निवासियों को कुचलने का प्रश्न कहाँ से आ गया?साम्राज्यवादियो की विभाजनकारी थीसिस है यह सिद्धान्त। बाद मे जंबू द्वीप भी आर्यावृत्त से जुड़ गया तो बढ़ती आबादी वहाँ भी पहुंची वहाँ भी आक्रमण या किसी को कुचलने की बात नहीं थी। आर्य-द्रविड़ झगड़ा अंग्रेज़ इतिहासकारों की कपोल - कल्पना है जो आज भी  भारत और श्रीलंका मे तनाव उत्तपन्न किए हुये है।

यह अफसोसनाक ही है कि साम्यवादी विद्वान भी आर्यों को विदेशी आक्रांता ही मानते हैं जैसा कि साम्राज्यवादियों ने घोषित कर रखा है। मार्क्स के अनुयायी तपाक से कह देते हैं कि आर्यों को भारत का मूल मानने का सिद्धान्त आर एस एस का हैं। वे यह भूल जाते हैं कि आर एस एस आर्यों =श्रेष्ठ कार्यों की बात नहीं करता है वह तो साम्राज्यवादियो द्वारा रटाये'हिंदूवाद' की बात करता है अब भी अमेरिकी इशारे पर नरेंद्र मोदी को 2014 के चुनावों मे हिन्दू हीरो के तौर पर पेश करने की तैयारी चल रही है जो सांम्प्रदायिक मसीहा है । सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद सगी बहने हैं। 


भारत से कुछ आर्ष=आर्य विद्वानों के दल दूसरे स्थान के मानवों को भी आर्य=श्रेष्ठ बनाने हेतु गए उनका उद्देश्य ज्ञान-विज्ञान का प्रचार व प्रसार करना था न कि किसी को उजाड़ना। जो दल पश्चिम पर्वत माला को पार कर बाहर गया था उसका पहला पड़ाव जहां हुआ उसे 'आर्यनगर' कहा गया जो भाषाई बदलाव से 'ऐरयान' फिर 'ईरान' हो गया। यहाँ के अंतिम शासक खुद को आर्य मेहर रज़ा पहलवी कहते थे। लेकिन विदेशियों से प्रभावित विद्वान ईरानियों को असली आर्य घोषित कर रहे हैं। यह दल आगे मध्य एशिया होते हुये यूरोप भी पहुंचा जहां उसका पड़ाव जर्मन के आस-पास था।

पूर्व क्षेत्र की पर्वत माला को पर कर जो दो ऋषि-मय और तक्षक चले वे वर्तमान साईबेरिया के ब्लाडीवोस्ट्क को पार करते हुये वर्तमान उत्तरी अमेरिका महाद्वीप के 'अलास्का' से प्रविष्ट हुये और दक्षिन्न की ओर चले। जहां तक्षक ऋषि ने पड़ाव डाला वह आज भी उन्ही के नाम पर ' टेक्सास' कहलाता है जहां जान एफ केनेडी को गोली मारी गई थी। मय ऋषि ने दक्षिण अमेरिका के जिस स्थान पर पड़ाव डाला वह आज भी उनके नाम पर 'मेक्सिको' कहलाता है।

दक्षिण दिशा से जाने वाले ऋषियों का नेतृत्व 'पुलत्स्य मुनि'ने किया था जिनहोने वर्तमान आस्ट्रेलिया महाद्वीप मे पड़ाव डाला था। शेष स्थानों पर गए ऋषि-मुनि ज्ञान-विज्ञान के प्रसार तक ही सीमित रहे किन्तु पुलत्स्य मुनि के पुत्र 'विश्रवा'ने वहाँ से लंका  मे आ कर  सत्ता अपने हाथ मे ले ली और तत्कालीन शासक 'सोमाली' को आस्ट्रेलिया के पास के प्रदेश मे भेज दिया जो आज भी उसी के नाम पर 'सोमाली लैंड' कहलाता है। 'विश्रवा'के मध्यम पुत्र 'रावण' ने बड़े भाई 'कुबेर' को भगा कर छोटे भाई विभीषण को मिला कर वहाँ  सत्तारूढ़ हो गया।

भारत से बाहर बसे आर्य खुद को 'रक्षस'=रक्षा करने वाले कहते थे। अर्थात उनका दावा था कि वे आर्य सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करने वाले हैं। 'रक्षस' अपभ्रंश हो कर 'राक्षस' कहलाया। अंग्रेज़ इतिहासकारों ने राम-रावण युद्ध जो भारतीय और प्रवासी-साम्राज्यवादी आर्यों के मध्य था को भी आर्य-द्रविड़ संघर्ष के रूप मे प्रचारित किया है। स्वामी दयानन्द को अंग्रेज़ शासक रिवोल्यूशनरी संत कहते थे क्योंकि वह 1857 के प्रथम-संग्राम मे भी भाग ले चुके थे। अतः आज भी साम्राज्यवादियों का पहला प्रहार दयानंद पर ही है। दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं को ध्वस्त करने हेतु प्रथम भारतीय पोस्ट मास्टर जेनरल के अवकाश ग्रहण करने पर साम्राज्यवादियों के हितार्थ स्थापित राधास्वामी मत की कमान सम्हालने को कहा गया । उनके आध्यात्मिक रूपान्तरण का लाभ लेकर 'सत्यार्थ प्रकाश' का खंडन करने हेतु 'यथार्थ प्रकाश' की रचना हुई जिसमे स्वामी दयानन्द के सिद्धांतो को गलत और झूठा सिद्ध करने का घिनौना प्रयास किया गया है(यह अलग बात है कि उनकी छ्ठ्वी पीढ़ी के अधिष्ठाता स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी बने ) । आज तो अनेकों ढपोर शंख बापू और स्वामी कहलाकर आध्यात्मिकता के नाम पर आडंबर और भ्रष्टाचार खुले आम फैला रहे हैं जो कि 'नव उदारवाद' का उपहार है। कितने प्रतिशत ब्लागर्स इस सब कुराफ़त का विरोध कर रहे हैं?कोई करे या न करे हमे तो अन्याय और असत्य के विरुद्ध संघर्ष करना ही है। इसीलिए 'मैं अकेला हूँ'। 

3 comments:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

आपके विचारों की नियमित पाठक हूँ.....यह सद्प्रयास जारी रहे , शुभकामनायें

vijai Rajbali Mathur said...

डॉ मोनिका जी नमस्ते,

आपकी शुभकामनाओं हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद। आप मेरे विचारों को पढ़ती हैं उसके लिए भी आभार। अधिकांश लोगों के लिए तो मेरे विचार फिजूल हैं। लेकिन मैं आने वाले कल की पीढ़ियों के हित मे अपना लेखन कर रहा हूँ न की आज की पीढ़ी के लोगों की वाह-वाह वाली टिप्पणियों की प्राप्ति के लिए। आप निश्चिंत रहें मेरे प्रयास यथावत जारी रहेंगे।

yashoda Agrawal said...

पहली बार अवगत हुई इस किस्म के लेखन से....
शान्त मन चाहिये पठन के लिये
साधुवाद