स्व.ताज राज बली माथुर (चित्र महायुद्ध से लौटने के बाद ) |
1939-45 द्वितीय विश्व युद्ध मे प्राप्त बाबूजी का मेडल जिसके निचले किनारे पर उनका नाम -T.B.Mathur एङ्ग्रेव किया हुआ है। |
द्वितीय विश्व युद्ध का ही एक और मेडल |
बाबूजी (निधन-13 जून 1995 )और बउआ(निधन-25 जून 1995) चित्र 1978 मे रिटायरमेंट से पूर्व लिया गया |
जब बाबूजी लखनऊ मे रह कर अपनी पढ़ाई कर रहे थे और इंटर मीडिएट का फर्स्ट ईयर ही पास कर पाये थे कि 1939 मे द्वितीय विश्व महायुद्ध छिड़ गया । अपने कुछ सहपाठियों के साथ बाबूजी ने भी सेना मे भर्ती होने का आवेदन कर दिया और चुन लिए गए। खेल-कूद मे उनके पास काफी सर्टिफिकेट थे जिनके आधार पर सिलेक्शन आसानी से हो गया था। दरियाबाद जाकर बाबूजी ने बाबाजी को यह सूचना दी तो उन्होने कहा कि फिर यहाँ क्यों आए हो?बाबूजी ने इसे उनकी सहमति माना और न भी मानते तब भी नियुक्ति के बाद जाने से इंकार करना संभव न था। उनको यूनिट मे स्टोर का चार्ज मिला। इम्फाल ,चटगांव आदि मे उनकी यूनिट रही। जब अंडमान की तरफ उनकी यूनिट जा रही थी तो साथ का राशन खत्म हो जाने पर एक बार उन्होने भी दूसरों की तरह उबले अंडे खाने को खरीद लिए परंतु खा न सके और भूखे रह कर ही वक्त गुजारा। बीच मे ही खबर मिली कि अंडमान पर नेताजी सुभाष चंद्र बॉस की 'आज़ाद हिन्द फौज'का कब्जा हो गया है और उनकी यूनिट को वापिस कलकत्ता लौटने का आदेश मिला। वह बताते थे कि यदि खबर देर से पहुँचती तो उनकी यूनिट अंडमान पहुँच कर INA मे शामिल हो जाती। एक ऐतिहासिक अवसर से बाबूजी और उनके साथी वंचित रह गए। ऊपर चित्र मे दिखाये मेडल और बैज वगैरह अपने खेल के सर्टिफिकेट समेत उन्होने खेलने को यशवन्त को दे दिये थे। यशवन्त ने ही उनको बताया कि मेडल पर बाबाजी आपका नाम खुदा हुआ है। इससे पूर्व उन्होने कभी खुद इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था।
सात साल सेना की नौकरी करके सात साल बाबूजी दरियाबाद मे रहे उनका इरादा खेती देखने का था। किन्तु अपने बड़े भाई के व्यवहार से खिन्न होकर अपनी यूनिट के आफ़ीसर कमांडिंग रहे अधिकारी जो बाद मे लखनऊ मे CWE की पोस्ट पर थे की मदद से पुनः MES मे नौकरी कर ली। सात साल लखनऊ,डेढ़ साल बरेली,पाँच साल सिलीगुड़ी,सात साल मेरठ और चार साल आगरा मे पोस्ट रह कर नौकरी की। 1978 मे रिटायर होकर 1995 मे मृत्यु तक मेरे पास आगरा मे ही रहे। बीच-बीच मे कुछ समय के लिए अजय के पास फरीदाबाद भी गए।
खेलों के प्रति लगाव के ही कारण बाबूजी का सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्व.अमृत लाल नागर जी और नवभारत टाइम्स के संपादक रहे ठाकुर स्व .राम पाल सिंह जी से संपर्क था। अमृत लाल जी बाबूजी से सीनियर थे और वह ओल्ड ब्वायज एसोसिएशन की ओर से खेलने आते थे जबकि राम पाल सिंह जी बाबू जी से जूनियर थे और स्कूल की टीम मे साथ-साथ खेलते थे। उत्तर प्रदेश भाकपा के सचिव रहे कामरेड भीखा लाल जी तो बाबूजी के क्लास मे ही पढ़ते भी थे और एक ही हास्टल रूम मे रहते भी थे। किन्तु फौज मे जाने के बाद इन सबसे बाबूजी का संपर्क टूट गया था। कामरेड भीखा लाल जी ने मुझे आगरा से एक प्रदर्शन मे लखनऊ भाग लेने के अवसर पर आने पर बताया था जिसकी बाद मे बाबूजी ने भी पुष्टि की कि उन्होने PCS मे जाने और तहसीलदार बनने के बाद भी कई बार बाबूजी को बुलाया था और बाद मे MLA बनने पर भी किन्तु वह उनसे नहीं मिले। बाबूजी ने मुझे बताया कि वह पहले बड़े अफसर थे फिर बड़े नेता और हम उनकी टक्कर मे कुछ नहीं थे इसलिए मिलने नहीं गए। शायद यही कारण होगा कि उन्होने लखनऊ मे ही रहते हुये भी अमृत लाल नागर जी से भी संपर्क फिर नहीं बनाया होगा। कामरेड भीखा लाल जी ने मुझे आदेश दिया था कि अगली बार जब लखनऊ आना तो अपने बाबूजी को भी साथ लाना किन्तु उसके कुछ समय बाद उनका निधन हो गया था हालांकि बाबूजी ने उनसे मिलने की बात स्वीकार कर ली थी।
लखनऊ मे बाबूजी हास्टल के अलावा अपनी भुआ के घर निवाजगंज मे भी काफी रहे थे। उनके फुफेरे भाई स्व.रामेश्वर दयाल माथुर के पुत्र ने बताया है कि हमारे बाबूजी और ताऊजी भाई होने के साथ-साथ मित्र भी थे तथा उनके निवाज गंज के और साथी थे-स्व.हरनाम सक्सेना जो दरोगा बने,स्व.देवकी प्रसाद सक्सेना,स्व.देवी शरण सक्सेना,स्व.देवी शंकर सक्सेना.इनमें से दरोगा जी को १९६४ में रायपुर में बाबाजी से मिलने आने पर व्यक्तिगत रूप से देखा था बाकी की जानकारी पहली बार पिछले वर्ष ही प्राप्त हुई। बाबूजी की भुआ उनका ख्याल रखती थीं। लेकिन बाबूजी की बहन कैलाश किशोरी ने न केवल अपने एक भाई को मुकदमे मे छल से हराया वरन कुछ भतीजों के प्रति भी उनका व्यवहार विद्वेषात्मक रहा। उनकी नकल कर रही हैं उनकी भतीजी डॉ शोभा जो बाबूजी की ही इकलौती बेटी हैं। डॉ शोभा अपनी भुआ को फालों करते हुये अजय की पुत्री और मेरे पुत्र से विद्वेषात्मक व्यवहार रख रही हैं,उनकी छोटी बेटी पूना के अपने संपर्कों से कुछ ब्लागर्स को भी गुमराह कर रही है। लेकिन तब बाबूजी की फुफेरी भाभी जी ने बचपन मे मेरी भी देख-रेख की और अस्पताल ज़रूरत पड़ने पर लेकर गईं। तब रिश्ते चलते थे अब पैसा । अमीर-गरीब मे रिश्ता नहीं निभता।
13 जून 1995 को दो दिन के मामूली बुखार के बाद बाबूजी का भी निधन हो गया था। आज उनको यह संसार छोड़े हुये 17 वर्ष हो रहे हैं। मैं केवल 'वेदिक' हवन द्वारा विशेष सात आहुतियाँ देकर उनकी आत्मा की शांति हेतु प्रार्थना करता हूँ। मैं किसी प्रकार का ढोंग (कनागत) आदि नही करता हूँ। जब तक वह जीवित रहे जिस प्रकार संतुष्ट हो सकते थे अपनी ओर से संतुष्ट रखने का प्रयास किया। उनके नाम पर अब कोई दिखावा या आडंबर करना मैं उचित नहीं समझता हूँ।
आज ही 'विद्रोही स्व-स्वर मे'उनके जीवन का ज्योतिषयात्मक विश्लेषण भी दिया है जो लोग ग्रहों की चालों का व्यक्तिगत जीवन पर प्रभाव जानने को उत्सुक हों ,वे इसी ब्लाग के सहारे से वहाँ पहुँच सकते हैं।
8 comments:
अनुकरणीय एवं सशक्त जीवन जीने की प्रेरणा देता व्यक्तित्व , बाबूजी को नमन
बाबूजी को नमन. आपके पिताश्री एक सिद्धान्ती व्यक्ति थे .अपने सिद्धांतों पर अडिग रहना सबके बस की बात नहीं होती.
हमारे ताऊ जी भी उसी दौरान फ़ौज में भर्ती हुए थे , स्कूल छोड़कर . इस बात पर दादाजी को बड़ा गर्व था .
शुभकामनायें .
जी हाँ डॉ मोनिका जी अभी तक तो मैं भी बाबूजी की भांति ही अभावों के बावजूद उनका अनुकरण करते हुये विपरीत परिस्थितियों मे भी टिका हुआ हूँ।
जी डॉ साहब सिद्धांतों पर अडिग रहना जोखिम और संकटों को दावात देना होता है परंतु अभी तक तो मैं भी अपने बाबूजी की ही भांति सिद्धांतों से डिगा नहीं हूँ और आगे भी आप सब की सद्भावनाओं से टिका रह सकूँगा।
बाबूजी
प्रणाम
आपका हाँथ सदा सर पर रहे
यशोदा
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...आभार
पिता दिवस की शुभकामनाएं
nice
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