भारत को धर्म-प्राण देश कहा जाता है और सर्वाधिक अधर्म यहीं पर देखा जाता है। वस्तुतः व्यापारियों/उद्योगपतियों ने सामंतकालीन सत्ताधारी और शोषकों ने जिस प्रकार पुरोहितों/ब्राह्मणों को खरीद कर धर्म की अधार्मिक व्याख्या करवाई थी उसे ही मजबूत करने का उपक्रम कर रखा है जिस कारण समय-समय पर गरीब और निरीह जनता अकाल मौत का शिकार होती रहती है। 1954 के बाद इस बार फिर माघ की मौनी अमावस्या पर प्रयाग/अलाहाबाद मे भगदड़ से बेगुनाहों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। चंड मार्तण्डपंचांग के पृष्ठ-50 पर 28 जनवरी 2013 से 25 फरवरी 2013 के काल खंड हेतु स्पष्ट किया गया है-
'नायक नेता आपदा आतंक द्वंद विस्तार। चौर्य कर्म रचना विपुल,हरण-कारण प्रस्तार। । रक्षा विषयक न्यूनता,लोक विश्व अभिसार।।
गति वक्र शनि देव की संज्ञा तुला विधान।चिंतन मुद्रा अर्थ की,गणना विश्व प्रधान। । '
04 जनवरी 2013 को शुक्र के धनु राशि मे प्रवेश से उसका वृष राशि के गुरु से 180 डिग्री का संबंध बना जिसके फल स्वरूप सीमा पर विवाद-गोली चालन,सैनिकों की हत्या आदि घटनाएँ घटित हुईं। 28 जनवरी को शुक्र ग्रह मकर राशि मे सूर्य के साथ आया था जो आज 12 फरवरी तक साथ रहेगा तब उसके परिणाम स्वरूप शीत लहरें चली,हिम प्रपात,नभ-गर्जना ओला-वृष्टि के योग घटित हुये। जन-धन की क्षति हुई और 'कुम्भ मेला'का हादसा भी इन ग्रह-योगों का ही परिणाम है क्योंकि तदनुरूप बचाव व राहत के उपाए नहीं किए गए थे। 12 फरवरी से 03 मार्च 2013 तक सूर्य और मंगल कुम्भ राशि मे एक साथ होंगे जिसके परिणाम स्वरूप पूरी दुनिया मे भू-क्रंदन और आपदा के योग रहेंगे।
'धर्म' के सम्बन्ध मे निरन्तर लोग लिखते और अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं परंतु मतैक्य नहीं है। ज़्यादातर लोग धर्म का मतलब किसी मंदिर,मस्जिद/मजार ,चर्च या गुरुद्वारा अथवा ऐसे ही दूसरे स्थानों पर जाकर उपासना करने से लेते हैं। इसी लिए इसके एंटी थीसिस वाले लोग 'धर्म' को अफीम और शोषण का उपक्रम घोषित करके विरोध करते हैं । दोनों दृष्टिकोण अज्ञान पर आधारित हैं। 'धर्म' है क्या? इसे समझने और बताने की ज़रूरत कोई नहीं समझता।
धर्म=शरीर को धारण करने के लिए जो आवश्यक है वह 'धर्म' है। यह व्यक्ति सापेक्ष है और सभी को हर समय एक ही तरीके से नहीं चलाया जा सकता। उदाहरणार्थ 'दही' जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है किसी सर्दी-जुकाम वाले व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता। ऐसे ही स्वास्थ्यवर्धक मूली भी ऐसे रोगी को नहीं दी जा सकती। क्योंकि यदि सर्दी-जुकाम वाले व्यक्ति को मूली और दही खिलाएँगे तो उसे निमोनिया हो जाएगा अतः उसके लिए सर्दी-जुकाम रहने तक दही और मूली का सेवन 'अधर्म' है। परंतु यही एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए 'धर्म' है।
मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध बनाने के लिए जो प्रक्रियाएं हैं वे सभी 'धर्म' हैं। लेकिन जिन प्रक्रियाओं से मानव जीवन को आघात पहुंचता है वे सभी 'अधर्म' हैं। देश,काल,परिस्थिति का विभेद किए बगैर सभी मानवों का कल्याण करने की भावना 'धर्म' है।
ऋग्वेद के इस मंत्र को देखें-
सर्वे भवनतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया :
सर्वे भद्राणि पशयनतु मा कश्चिद दु : ख भाग भवेत। ।
इस मंत्र मे क्या कहा गया है उसे इसके भावार्थ से समझ सकते हैं-
सबका भला करो भगवान ,सब पर दया करो भगवान।
सब पर कृपा करो भगवान,सब का सब विधि हो कल्याण। ।
हे ईश सब सुखी हों ,कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवान,धन धान्य के भण्डारी। ।
सब भद्र भाव देखें,सन्मार्ग के पथिक हों।
दुखिया न कोई होवे,सृष्टि मे प्राण धारी । ।
ऋग्वेद का यह संदेश न केवल संसार के सभी मानवों अपितु सभी जीव धारियों के कल्याण की बात करता है। क्या यह 'धर्म' नहीं है? इसकी आलोचना करके किसी वर्ग विशेष के हितसाधन की बात नहीं सोची जा रही है। जिन पुरोहितों ने धर्म की गलत व्याख्या प्रस्तुत की है उनकी आलोचना और विरोध करने के बजाये धर्म की आलोचना करके शोषित-उत्पीड़ित मानवों की उपेक्षा करने वालों (शोषकों ,उत्पीड़को) को ही लाभ पहुंचाने का उपक्रम है।
भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)।
क्या इन तत्वों की भूमिका को मानव जीवन मे नकारा जा सकता है?और ये ही पाँच तत्व सृष्टि,पालन और संहार करते हैं जिस कारण इनही को GOD कहते हैं ...
GOD=G(generator)+O(operator)+D(destroyer)।
खुदा=और चूंकि ये तत्व' खुद ' ही बने हैं इन्हे किसी प्राणी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं। 'भगवान=GOD=खुदा' - मानव ही नहीं जीव -मात्र के कल्याण के तत्व हैं न कि किसी जाति या वर्ग-विशेष के।
पोंगा-पंथी,ढ़ोंगी और संकीर्णतावादी तत्व (विज्ञान और प्रगतिशीलता के नाम पर) 'धर्म' और 'भगवान' की आलोचना करके तथा पुरोहितवादी 'धर्म' और 'भगवान' की गलत व्याख्या करके मानव द्वारा मानव के शोषण को मजबूत कर रहे हैं।
इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
'नायक नेता आपदा आतंक द्वंद विस्तार। चौर्य कर्म रचना विपुल,हरण-कारण प्रस्तार। । रक्षा विषयक न्यूनता,लोक विश्व अभिसार।।
गति वक्र शनि देव की संज्ञा तुला विधान।चिंतन मुद्रा अर्थ की,गणना विश्व प्रधान। । '
04 जनवरी 2013 को शुक्र के धनु राशि मे प्रवेश से उसका वृष राशि के गुरु से 180 डिग्री का संबंध बना जिसके फल स्वरूप सीमा पर विवाद-गोली चालन,सैनिकों की हत्या आदि घटनाएँ घटित हुईं। 28 जनवरी को शुक्र ग्रह मकर राशि मे सूर्य के साथ आया था जो आज 12 फरवरी तक साथ रहेगा तब उसके परिणाम स्वरूप शीत लहरें चली,हिम प्रपात,नभ-गर्जना ओला-वृष्टि के योग घटित हुये। जन-धन की क्षति हुई और 'कुम्भ मेला'का हादसा भी इन ग्रह-योगों का ही परिणाम है क्योंकि तदनुरूप बचाव व राहत के उपाए नहीं किए गए थे। 12 फरवरी से 03 मार्च 2013 तक सूर्य और मंगल कुम्भ राशि मे एक साथ होंगे जिसके परिणाम स्वरूप पूरी दुनिया मे भू-क्रंदन और आपदा के योग रहेंगे।
'धर्म' के सम्बन्ध मे निरन्तर लोग लिखते और अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं परंतु मतैक्य नहीं है। ज़्यादातर लोग धर्म का मतलब किसी मंदिर,मस्जिद/मजार ,चर्च या गुरुद्वारा अथवा ऐसे ही दूसरे स्थानों पर जाकर उपासना करने से लेते हैं। इसी लिए इसके एंटी थीसिस वाले लोग 'धर्म' को अफीम और शोषण का उपक्रम घोषित करके विरोध करते हैं । दोनों दृष्टिकोण अज्ञान पर आधारित हैं। 'धर्म' है क्या? इसे समझने और बताने की ज़रूरत कोई नहीं समझता।
धर्म=शरीर को धारण करने के लिए जो आवश्यक है वह 'धर्म' है। यह व्यक्ति सापेक्ष है और सभी को हर समय एक ही तरीके से नहीं चलाया जा सकता। उदाहरणार्थ 'दही' जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है किसी सर्दी-जुकाम वाले व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता। ऐसे ही स्वास्थ्यवर्धक मूली भी ऐसे रोगी को नहीं दी जा सकती। क्योंकि यदि सर्दी-जुकाम वाले व्यक्ति को मूली और दही खिलाएँगे तो उसे निमोनिया हो जाएगा अतः उसके लिए सर्दी-जुकाम रहने तक दही और मूली का सेवन 'अधर्म' है। परंतु यही एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए 'धर्म' है।
मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध बनाने के लिए जो प्रक्रियाएं हैं वे सभी 'धर्म' हैं। लेकिन जिन प्रक्रियाओं से मानव जीवन को आघात पहुंचता है वे सभी 'अधर्म' हैं। देश,काल,परिस्थिति का विभेद किए बगैर सभी मानवों का कल्याण करने की भावना 'धर्म' है।
ऋग्वेद के इस मंत्र को देखें-
सर्वे भवनतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया :
सर्वे भद्राणि पशयनतु मा कश्चिद दु : ख भाग भवेत। ।
इस मंत्र मे क्या कहा गया है उसे इसके भावार्थ से समझ सकते हैं-
सबका भला करो भगवान ,सब पर दया करो भगवान।
सब पर कृपा करो भगवान,सब का सब विधि हो कल्याण। ।
हे ईश सब सुखी हों ,कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवान,धन धान्य के भण्डारी। ।
सब भद्र भाव देखें,सन्मार्ग के पथिक हों।
दुखिया न कोई होवे,सृष्टि मे प्राण धारी । ।
ऋग्वेद का यह संदेश न केवल संसार के सभी मानवों अपितु सभी जीव धारियों के कल्याण की बात करता है। क्या यह 'धर्म' नहीं है? इसकी आलोचना करके किसी वर्ग विशेष के हितसाधन की बात नहीं सोची जा रही है। जिन पुरोहितों ने धर्म की गलत व्याख्या प्रस्तुत की है उनकी आलोचना और विरोध करने के बजाये धर्म की आलोचना करके शोषित-उत्पीड़ित मानवों की उपेक्षा करने वालों (शोषकों ,उत्पीड़को) को ही लाभ पहुंचाने का उपक्रम है।
भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)।
क्या इन तत्वों की भूमिका को मानव जीवन मे नकारा जा सकता है?और ये ही पाँच तत्व सृष्टि,पालन और संहार करते हैं जिस कारण इनही को GOD कहते हैं ...
GOD=G(generator)+O(operator)+D(destroyer)।
खुदा=और चूंकि ये तत्व' खुद ' ही बने हैं इन्हे किसी प्राणी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं। 'भगवान=GOD=खुदा' - मानव ही नहीं जीव -मात्र के कल्याण के तत्व हैं न कि किसी जाति या वर्ग-विशेष के।
पोंगा-पंथी,ढ़ोंगी और संकीर्णतावादी तत्व (विज्ञान और प्रगतिशीलता के नाम पर) 'धर्म' और 'भगवान' की आलोचना करके तथा पुरोहितवादी 'धर्म' और 'भगवान' की गलत व्याख्या करके मानव द्वारा मानव के शोषण को मजबूत कर रहे हैं।
इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
1 comment:
प्रभावी और मार्गदर्शक लेख.
Post a Comment