Tuesday, May 26, 2015
'संसदीय लोकतन्त्र' को बचाने के मजबूत प्रयास न हुये तो --------- विजय राजबली माथुर
सोनिया जी के इस मार्च की तुलना इन्दिरा जी से :
जबकि BBC द्वारा सोनिया जी के इस मार्च की तुलना इन्दिरा जी की 1978 की घटना से करने का प्रयास किया गया है परंतु वस्तुतः यह ऐसा है नहीं। जब 2009 में मनमोहन जी दोबारा पी एम बनने के लिए अड़ गए तो उनको बनाया तो गया था लेकिन बीच में उनको राष्ट्रपति बनवा कर हटाने का प्रयत्न हुआ था जिसको प्रेस में ममता बनर्जी द्वारा लीक करने से वह प्रयास विफल हो गया था। तब हवाई जहाज़ में जापान से लौटते वक्त मनमोहन जी ने कह दिया था कि वह जहां हैं वहीं ठीक हैं बल्कि तीसरे कार्यकाल के लिए भी तैयार हैं। इस घटना से पूर्व ही 2011 में सोनिया जी के इलाज के वास्ते विदेश जाने पर मनमोहन जी ने RSS/हज़ारे/केजरीवाल/रामदेव के सहयोग से 'कारपोरेट भ्रष्टाचार संरक्षण' का आंदोलन खड़ा करवा दिया था जिसके परिणाम के रूप में मोदी सरकार सत्तारूढ़ है। पूर्व पी एम नरसिंघा राव जी ने अपने उपन्यास THE INSIDER के जरिये खुलासा कर दिया था कि 'हम स्वतन्त्रता के भ्रमजाल में जी रहे हैं'। मनमोहन जी उनके प्रिय शिष्य रहे हैं और वही उनको वित्तमंत्री के रूप में राजनीति में लाये थे। उस वक्त यू एस ए जाकर एल के आडवाणी साहब ने कहा था कि मनमोहन जी ने उनकी (भाजपा की ) नीतियाँ चुरा ली हैं। अब तो सीधे-सीधे भाजपा का ही शासन है। मनमोहन जी के जरिये भाजपा को सत्तारूढ़ कराने के बाद उनकी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है इसलिए उनके विरुद्ध अदालती कारवाई हो रही है जिसमें राजनीतिक रूप से कुछ किया जाना संभव नहीं होगा। 'जैसी करनी वैसी भरनी' का दृष्टांत है यह परिघटना। सोनिया जी के कदम अंततः उनकी पार्टी को ही क्षति पहुंचाएंगे जैसा कि यू एस ए प्रवास के दौरान जस्टिस काटजू साहब के अभियान से संकेत मिलते हैं। काटजू साहब को 'मूल निवासी' आंदोलन व वामपंथी रुझान के दलित वर्ग से संबन्धित नेताओं व विद्वानों का भी समर्थन है जो एक प्रकार से 'गोडसेवाद' को ही समर्थन करना हुआ। भाजपा/RSS विरोधी गफलत में भटके हुये चल रहे हैं और देश दक्षिण-पंथी अर्द्ध-सैनिक तानाशाही की ओर बढ़ रहा है यदि अभी भी 'संसदीय लोकतन्त्र' को बचाने के मजबूत प्रयास न हुये तो दिल्ली की सड़कों पर निकट भविष्य में ही 'रक्त-रंजित' संघर्ष की संभावनाएं हकीकत में बदलते देर न लगेगी।
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13 मार्च 2015 के इस नोट को 'हस्तक्षेप' द्वारा भी स्थान दिया गया है:
http://www.hastakshep.com/
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जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने गांधी के इस जादू को समझने की जगह घटनाओं की बड़ी थोथी और स्थूल व्याख्या कर उन पर वे आरोप लगा दिए जो किसी ने नहीं लगाए थे. किसी ने उन्हें कभी ब्रिटिश एजेंट नहीं माना और न ही हिंदू-मुस्लिम समुदायों में दरार डालने वाला. काटजू अगर यहां तक सोच पाए तो इसलिए कि शायद उनकी सोच का दायरा यहीं तक जाता है. धार्मिकता और सांप्रदायिकता में फ़र्क होता है, यह बात वे समझ ही नहीं पाए. जो बहुत पढ़े-लिखे और बिल्कुल आधुनिक लोग थे – मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत ख़ान जैसे – वे अपनी राजनीति में निहायत सांप्रदायिक रहे और जो टोपी-दाढ़ी वाले मौलाना बंधु थे, वे धर्मनिरपेक्ष और कांग्रेसी बने रहे.--------
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/847603305301647?pnref=story
~विजय राजबली माथुर ©
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