कन्हैया के भाषण को आधुनिक भारत के सपने का समर्थन
March 6, 2016, 3:22 PM IST सत्येंद्र रंजन in प्रतिपक्ष | सोसाइटी, राजनीति, देश-दुनिया
कन्हैया कुमार ने अपनी रिहाई के बाद जेएनयू में जो भाषण दिया, वह बहुचर्चित हो चुका है। उसके बाद अलग-अलग टीवी चैनलों को उन्होंने कई इंटरव्यू दिए। मीडिया की चर्चाओं में स्वाभाविक रूप से उनके वक्तव्यों के उन हिस्सों की ज्यादा चर्चा हुई, जिनमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक पर निशाना साधा। यह हमला इतना तीखा था कि उससे भारतीय जनता पार्टी विचलित हुई। इसकी मिसाल उसके नेताओं के बयान हैँ। संघ खेमे की की प्रतिक्रिया तो उसके अपेक्षा के अनुरूप ही हिंसक बयानबाजी रही।
लेकिन इनसे अलग कन्हैया कुमार ने कुछ ऐसा भी कहा, जिसका संदर्भ दूरगामी है। उन्होंने कहा कि इस वक्त संघर्ष की रेखाएं साफ खिंची हुई हैँ।kanhaiya इसमें एक तरफ आरएसएस और उसकी सोच से सहमत ताकतें हैं और दूसरी तरफ प्रगतिशील शक्तियां। कहा जा सकता है कि मौजूदा समय में भारत के मुख्य सामाजिक अंतर्विरोध के बारे में किसी और नेता ने ऐसी साफ समझ बेहिचक सार्वजनिक रूप से सामने नहीं रखी है। इसीलिए कन्हैया ने एक स्वर में सीताराम येचुरी से लेकर राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल और उन तमाम लोगों का आभार जताया जो जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय तथा राजद्रोह के मामले में उनके समर्थन में सामने आए। इस सिलसिले में कन्हैया कुमार ने यह महत्त्वपूर्ण बात बार-बार कही कि इस लड़ाई में कई दायरे टूटे हैँ। इस पर उन्होंने संतोष जताया। इसे भविष्य की उम्मीद बताया।
यह दायरा टूटने की ही झलक थी कि जेएनयू के मुद्दे पर दिल्ली में निकले बहुचर्चित जुलूस में एनएसयूआई, एसएफआई, एआईएसएफ, आइसा तथा दूसरे छात्र संगठन एक साथ शामिल हुए। किसी पार्टी या संगठन से ना जुड़े हजारों नौजवानों एवं बुद्धिजीवियों-कलाकारों की वहां उपस्थिति राष्ट्रवाद की भगवा समझ थोपने की एनडीए सरकार की कोशिशों से फैलती उद्विग्नता और आक्रोश का प्रमाण थी। इस सिलसिले में एक घटना खास उल्लेखनीय है।
30 जनवरी को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के दिन राहुल गांधी हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या के खिलाफ छात्रों के विरोध कार्यक्रम में शामिल हुए। शाम को उन्होंने वहां मौजूद नौजवानों को संबोधित किया। उपस्थित श्रोताओं में अंबेडकरवादी व्यक्तियों की बहुसंख्या थी। मगर वहां राहुल गांधी ने अपना भाषण गांधीजी को श्रद्धांजलि देते हुए शुरू किया। गुजरे दशकों में गांधी के प्रति अंबेडकरवादी समूहों का कड़ा आलोचनात्मक रुख जग-जाहिर रहा है। लेकिन वहां राहुल गांधी के भाषण के बीच कोई टोका-टाकी नहीं हुई। अबेंडकरवादी श्रोता समूह ने धीरज और सहिष्णुता के साथ गांधी की तारीफ में कहे गए शब्द सुने।
कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के बाद राहुल गांधी जेएनयू पहुंचे तो वहां श्रोता समूह में बहुसंख्या वाम रुझान वाले छात्रों-शिक्षकों की थी। राहुल गांधी सीताराम येचुरी और डी राजा जैसे नेताओं के साथ बैठे। फिर भाषण दिया। एक बार फिर सबका ध्यान मुद्दे पर रहा। आपसी राजनीतिक मतभेद वहां गौण हो गए।
kanhaiyaकन्हैया कुमार ने अपनी रिहाई के बाद जब मीडिया को दिए इंटरव्यू में मार्क्स, अंबेडकर, पेरियार, फुले, गांधी, नेहरू के नाम एक क्रम में लिए, तो जाहिर है उनके ध्यान में देश में होता वही ध्रुवीकरण रहा होगा, जो इस वक्त का तकाजा है। आधुनिक भारत का विचार इन तमाम और अन्य कई (मसलन, बिरसा मुंडा) विरासतों का साझा परिणाम है। भारत के इस विचार के जन्म और आगे बढ़ने का इतिहास 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम से शुरू होता है। इस विचार के सार-तत्व को एक वाक्य में कहना हो तो वो यह होगा कि भारतीय भूमि पर जन्मा हर व्यक्ति भारतीय है और उसका दर्जा समान है। सबके आर्थिक हित समान हैं, विचारों का खुलापन, एक-दूसरे की जीवन-शैली के प्रति सहिष्णुता, लोकतंत्र, सामाजिक-आर्थिक न्याय और प्रगति का एजेंडा भारतीय राष्ट्रवाद की इस विचारधारा के आधार हैँ।
धर्म आधारित राष्ट्रवाद के विचार से उपरोक्त भारतीय राष्ट्रवाद का संघर्ष स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों से जारी है। 2014 के आम चुनाव में उभरे जनादेश से हिंदू राष्ट्रवाद का विचार देश की केंद्रीय सत्ता पर काबिज हो गया। इससे न्याय एवं स्वतंत्रता की दिशा में हुई वह तमाम प्रगति खतरे में पड़ गई है, जो भारतीय जनता ने अपने लंबे संघर्ष से हासिल की। इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखें तो कन्हैया कुमार की बातों का महत्त्व स्वयंसिद्ध हो जाता है।
यह संकट का समय है, लेकिन उम्मीद की किरण यह है कि भारतीय जन के एक बड़े हिस्से ने समय रहते इसकी पहचान कर ली है। सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के बरक्स न्याय और प्रगति की विचारधाराओं से प्रेरित राष्ट्रवाद की शक्तियां जाग्रत हो रही हैँ। कन्हैया कुमार से जुड़े घटनाक्रम ने इस विश्वास को मजबूती दी है। कन्हैया के भाषणों को मिली लोकप्रियता मिसाल है कि आधुनिक भारत के सपने को नया जन-समर्थन मिल रहा है।
रोहित वेमुला और कन्हैया कुमार के मामलों से सामाजिक विषमता एवं विभाजनों पर परदा डालकर अन्याय और गैर-बराबरी की व्यवस्था को कायम रखने के प्रयोजन बेनकाब हुए हैँ। जेएनयू में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के तीन नेताओं का अपने संगठन से इस्तीफा इसकी ही मिसाल था। वे तीनों मनुस्मृति जलाना चाहते थे, लेकिन उनके संगठन ने उसकी इजाजत नही दी। यह घटना बताती है कि हिंदुत्व के नाम पर जातीय (प्रकारांतर में आर्थिक) शोषण को मजबूत रखने की कोशिशों का सफल होना आज कठिन है। बाबा साहेब अंबेडकर के सपनों और उद्देश्य को नाकाम करने के लिए उनकी जय बोलने का पाखंड ज्यादा देर तक नहीं चल सकता।
फिर भी यह एक लंबी राजनीतिक लड़ाई है। बेशक इसका तात्कालिक परिणाम आने वाले सभी चुनाव नतीजों से तय होगा। मगर इसके साथ उस आधार पर प्रहार करना भी जरूरी है जिस वजह से पुराने आधिपत्य को कायम रखने पर आमादा ताकतें आधुनिक समय में भी अपनी चुनाव प्रणाली के अंदर राजनीतिक बहुमत बना लेने में सफल हो जाती हैँ। यह आधार वर्ग-विभाजन, जातिवाद और अज्ञानता के कारण कायम है। इस बुनियाद तो तोड़ना तभी संभव है जब वर्तमान बहस को विकल्पों पर विचार की तरफ ले जाया जाए। कन्हैया कुमार ने इसमें योगदान किया है। रोहित वेमुला और जेएनयू प्रकरणों से इस दिशा में आगे बढ़ने की संभावना बनी है।
साभार :
http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/satyendraranjan/support-to-kanhaiyas-speech-indicates-to-modern-india/
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~विजय राजबली माथुर ©
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March 6, 2016, 3:22 PM IST सत्येंद्र रंजन in प्रतिपक्ष | सोसाइटी, राजनीति, देश-दुनिया
कन्हैया कुमार ने अपनी रिहाई के बाद जेएनयू में जो भाषण दिया, वह बहुचर्चित हो चुका है। उसके बाद अलग-अलग टीवी चैनलों को उन्होंने कई इंटरव्यू दिए। मीडिया की चर्चाओं में स्वाभाविक रूप से उनके वक्तव्यों के उन हिस्सों की ज्यादा चर्चा हुई, जिनमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक पर निशाना साधा। यह हमला इतना तीखा था कि उससे भारतीय जनता पार्टी विचलित हुई। इसकी मिसाल उसके नेताओं के बयान हैँ। संघ खेमे की की प्रतिक्रिया तो उसके अपेक्षा के अनुरूप ही हिंसक बयानबाजी रही।
लेकिन इनसे अलग कन्हैया कुमार ने कुछ ऐसा भी कहा, जिसका संदर्भ दूरगामी है। उन्होंने कहा कि इस वक्त संघर्ष की रेखाएं साफ खिंची हुई हैँ।kanhaiya इसमें एक तरफ आरएसएस और उसकी सोच से सहमत ताकतें हैं और दूसरी तरफ प्रगतिशील शक्तियां। कहा जा सकता है कि मौजूदा समय में भारत के मुख्य सामाजिक अंतर्विरोध के बारे में किसी और नेता ने ऐसी साफ समझ बेहिचक सार्वजनिक रूप से सामने नहीं रखी है। इसीलिए कन्हैया ने एक स्वर में सीताराम येचुरी से लेकर राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल और उन तमाम लोगों का आभार जताया जो जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय तथा राजद्रोह के मामले में उनके समर्थन में सामने आए। इस सिलसिले में कन्हैया कुमार ने यह महत्त्वपूर्ण बात बार-बार कही कि इस लड़ाई में कई दायरे टूटे हैँ। इस पर उन्होंने संतोष जताया। इसे भविष्य की उम्मीद बताया।
यह दायरा टूटने की ही झलक थी कि जेएनयू के मुद्दे पर दिल्ली में निकले बहुचर्चित जुलूस में एनएसयूआई, एसएफआई, एआईएसएफ, आइसा तथा दूसरे छात्र संगठन एक साथ शामिल हुए। किसी पार्टी या संगठन से ना जुड़े हजारों नौजवानों एवं बुद्धिजीवियों-कलाकारों की वहां उपस्थिति राष्ट्रवाद की भगवा समझ थोपने की एनडीए सरकार की कोशिशों से फैलती उद्विग्नता और आक्रोश का प्रमाण थी। इस सिलसिले में एक घटना खास उल्लेखनीय है।
30 जनवरी को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के दिन राहुल गांधी हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या के खिलाफ छात्रों के विरोध कार्यक्रम में शामिल हुए। शाम को उन्होंने वहां मौजूद नौजवानों को संबोधित किया। उपस्थित श्रोताओं में अंबेडकरवादी व्यक्तियों की बहुसंख्या थी। मगर वहां राहुल गांधी ने अपना भाषण गांधीजी को श्रद्धांजलि देते हुए शुरू किया। गुजरे दशकों में गांधी के प्रति अंबेडकरवादी समूहों का कड़ा आलोचनात्मक रुख जग-जाहिर रहा है। लेकिन वहां राहुल गांधी के भाषण के बीच कोई टोका-टाकी नहीं हुई। अबेंडकरवादी श्रोता समूह ने धीरज और सहिष्णुता के साथ गांधी की तारीफ में कहे गए शब्द सुने।
कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के बाद राहुल गांधी जेएनयू पहुंचे तो वहां श्रोता समूह में बहुसंख्या वाम रुझान वाले छात्रों-शिक्षकों की थी। राहुल गांधी सीताराम येचुरी और डी राजा जैसे नेताओं के साथ बैठे। फिर भाषण दिया। एक बार फिर सबका ध्यान मुद्दे पर रहा। आपसी राजनीतिक मतभेद वहां गौण हो गए।
kanhaiyaकन्हैया कुमार ने अपनी रिहाई के बाद जब मीडिया को दिए इंटरव्यू में मार्क्स, अंबेडकर, पेरियार, फुले, गांधी, नेहरू के नाम एक क्रम में लिए, तो जाहिर है उनके ध्यान में देश में होता वही ध्रुवीकरण रहा होगा, जो इस वक्त का तकाजा है। आधुनिक भारत का विचार इन तमाम और अन्य कई (मसलन, बिरसा मुंडा) विरासतों का साझा परिणाम है। भारत के इस विचार के जन्म और आगे बढ़ने का इतिहास 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम से शुरू होता है। इस विचार के सार-तत्व को एक वाक्य में कहना हो तो वो यह होगा कि भारतीय भूमि पर जन्मा हर व्यक्ति भारतीय है और उसका दर्जा समान है। सबके आर्थिक हित समान हैं, विचारों का खुलापन, एक-दूसरे की जीवन-शैली के प्रति सहिष्णुता, लोकतंत्र, सामाजिक-आर्थिक न्याय और प्रगति का एजेंडा भारतीय राष्ट्रवाद की इस विचारधारा के आधार हैँ।
धर्म आधारित राष्ट्रवाद के विचार से उपरोक्त भारतीय राष्ट्रवाद का संघर्ष स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों से जारी है। 2014 के आम चुनाव में उभरे जनादेश से हिंदू राष्ट्रवाद का विचार देश की केंद्रीय सत्ता पर काबिज हो गया। इससे न्याय एवं स्वतंत्रता की दिशा में हुई वह तमाम प्रगति खतरे में पड़ गई है, जो भारतीय जनता ने अपने लंबे संघर्ष से हासिल की। इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखें तो कन्हैया कुमार की बातों का महत्त्व स्वयंसिद्ध हो जाता है।
यह संकट का समय है, लेकिन उम्मीद की किरण यह है कि भारतीय जन के एक बड़े हिस्से ने समय रहते इसकी पहचान कर ली है। सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के बरक्स न्याय और प्रगति की विचारधाराओं से प्रेरित राष्ट्रवाद की शक्तियां जाग्रत हो रही हैँ। कन्हैया कुमार से जुड़े घटनाक्रम ने इस विश्वास को मजबूती दी है। कन्हैया के भाषणों को मिली लोकप्रियता मिसाल है कि आधुनिक भारत के सपने को नया जन-समर्थन मिल रहा है।
रोहित वेमुला और कन्हैया कुमार के मामलों से सामाजिक विषमता एवं विभाजनों पर परदा डालकर अन्याय और गैर-बराबरी की व्यवस्था को कायम रखने के प्रयोजन बेनकाब हुए हैँ। जेएनयू में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के तीन नेताओं का अपने संगठन से इस्तीफा इसकी ही मिसाल था। वे तीनों मनुस्मृति जलाना चाहते थे, लेकिन उनके संगठन ने उसकी इजाजत नही दी। यह घटना बताती है कि हिंदुत्व के नाम पर जातीय (प्रकारांतर में आर्थिक) शोषण को मजबूत रखने की कोशिशों का सफल होना आज कठिन है। बाबा साहेब अंबेडकर के सपनों और उद्देश्य को नाकाम करने के लिए उनकी जय बोलने का पाखंड ज्यादा देर तक नहीं चल सकता।
फिर भी यह एक लंबी राजनीतिक लड़ाई है। बेशक इसका तात्कालिक परिणाम आने वाले सभी चुनाव नतीजों से तय होगा। मगर इसके साथ उस आधार पर प्रहार करना भी जरूरी है जिस वजह से पुराने आधिपत्य को कायम रखने पर आमादा ताकतें आधुनिक समय में भी अपनी चुनाव प्रणाली के अंदर राजनीतिक बहुमत बना लेने में सफल हो जाती हैँ। यह आधार वर्ग-विभाजन, जातिवाद और अज्ञानता के कारण कायम है। इस बुनियाद तो तोड़ना तभी संभव है जब वर्तमान बहस को विकल्पों पर विचार की तरफ ले जाया जाए। कन्हैया कुमार ने इसमें योगदान किया है। रोहित वेमुला और जेएनयू प्रकरणों से इस दिशा में आगे बढ़ने की संभावना बनी है।
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14-03-2016 |
~विजय राजबली माथुर ©
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