Wednesday, May 9, 2018

धर्म आधारित राष्ट्र लोकतंत्र विरोधी अवधारणा है ------ अफलातून अफ़लू / सांप्रदायिकता है साम्राज्यवाद की प्रहरी ------ विजय राजबली माथुर

 * किसी धर्म आधारित राष्ट्र में लोकतंत्र कभी पनप नहीं सकता । संविधान , न्यायपालिका , और प्रेस का हाल के वर्षों में बड़े पैमाने पर अपमान कट्टरपंथियों के लोकतंत्र विरोधी रुख की ही बानगी है । गोलवलकरपंथी राष्ट्रतोड़क ‘राष्ट्रवादियों’ के चंगुल में में देश चला गया तो यह उसके अस्तित्व के लिए घातक होगा । इसलिए समय रहते इनके हिटलरी मंसूबों को उजागर करें और इनके खिलाफ़ चौतरफ़ा ढंग से सक्रिय हों ।
** एडवर्ड थाम्पसन ने 'एनलिस्ट इंडिया फार फ़्रीडम के पृष्ठ 50 पर लिखा है-"मुस्लिम संप्रदाय वादियों  और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों मे गोलमेज़ सम्मेलन के दौरान अपवित्र गठबंधन रहा। "
*** अफलातून साहब की इस चेतावनी " गोलवलकरपंथी राष्ट्रतोड़क ‘राष्ट्रवादियों’ के चंगुल में मे देश चला गया तो यह उसके अस्तित्व के लिए घातक होगा । इसलिए समय रहते इनके हिटलरी मंसूबों को उजागर करें और इनके खिलाफ़ चौतरफ़ा ढंग से सक्रिय हों ।" के मद्देनजर देश की जागरूक जनता और देश हितैषी दलों की मनसा - वाचा - कर्मणा एकता की महती आवश्यकता है।
Aflatoon Afloo
Varanasi
राष्ट्र की हिटलरी कल्पना फासीवाद के नाम से कुख्यात है । हिटलर ने ‘नस्ल’ की कथित शुद्धता और यहूदी विद्वेष की विक्षिप्तता को फैलाकर जर्मनी को भीषण बर्बरता और रक्तपात में डुबो दिया और विश्व भर की लांछना का पात्र बना दिया । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का धर्म आधारित राष्ट्र भी उसी प्रकार का एक बर्बर उद्देश्य है । हिटलर से तुलना करके या हिटलर का उदाहरण देकर हम संघ-परिवार पर कोई काल्पनिक आरोप नहीं लगा रहे हैं । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गौरव-पुरुष गुरु गोलवलकर ने खुद १९३९ में लिखी अपनी पुस्तक ‘ वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड ‘ ( हम या हमारी राष्ट्रीयता परिभाषित ) ( अब उनके चेले अधिकृत रूप से कहने लगे हैं कि यह उनकी लिखी किताब नहीं है , उनका अनुवाद है ) में कहा था –

” नस्ल और इसकी संस्कृति की पवित्रता को बनाए रखने के लिए जर्मनी ने यहूदियों से अपने देश को रिक्त कर दुनिया को स्तम्भित कर दिया । नस्ल का गर्व यहाँ अपनी उच्चतम अभिव्यक्ति पाता है। जर्मनी ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि संस्कृतियों और नस्लों के फर्क जो बुनियाद तक जाते हैं , एक संपूर्ण इकाई में जज़्ब नहीं किए जा सकते । हम भारतीयों के लिए यह एक अच्छा सबक है जिससे लाभ उठाना चाहिए । “

यह सचमुच बड़े शर्म की बात है कि जिस विद्वेष और क्रूरता के लिए हिटलर का जर्मनी पूरी दुनिया में लांछित हुआ , गोलवलकर ने उसी की प्रशंसा की और भारत के लिए उसी हिटलरी रास्ते की सिफारिश की । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गुरु गोलवलकर के बताए हुए फासीवाद के रास्ते पर चल रहा है । वह जिस हिन्दू राष्ट्र की बात करता है , वह सिर्फ मुस्लिम विद्वेष तक सीमित नहीं है । स्त्रियों और शूद्र कही जाने वाली जातियों , जिन्हें सबसे अधिक धर्माचार्यों द्वारा अनुमोदित क्रूर प्रथाओं और परम्परागत ऊँच-नीच का शिकार होना पड़ा है , की दुर्दशा कम होने के बजाए , धर्म आधारित राष्ट्र में काफ़ी बढ़ जाएगी । सती प्रथा और बाल-विवाह पर रोक सम्बन्धी कानून हटाने और वर्ण व्यवस्था को स्थापित करने की मांग धर्म-संसद के प्रस्तावों में होने लगी थीं । स्त्रियों को सम्पत्ति में हक देने वाले हिन्दू कोड बिल का भी गोलवलकर ने विरोध किया था ।

इसलिए यदि आप कूप मंडूकता , धर्मान्धता , स्त्री उत्पीड़न और दलितों तथा पिछड़ों की सामाजिक दुर्दशा को देश की नियति नहीं बनाना चाहते तो हिन्दू राष्ट्र के नारे से सतर्क रहे। हम किस प्रकार पूजा पाठ करें , त्योहार किस ढंग से मनाएं , धार्मिक प्रतीकों का क्या अर्थ ग्रहण करें और दूसरे धर्म के अनुयायियों के साथ क्या व्यवहार करें , इन बातों को संघ परिवार और महंत मठाधीश नियंत्रित करने  की कोशिश करते हैं । इनके चलते हमारे धार्मिक आचरण की स्वाधीनता सुरक्षित नहीं है । ऐसे तत्वों को धार्मिक मान्यता और राजनैतिक समर्थन देना बन्द करें नहीं तो ये हमें एक अन्धी सुरंग में पहुंचा देंगे ।

दुनिया के कई धर्म आधारित राष्ट्रों में जनता का उत्पीड़न और रुदन हमसे छिपा नहीं है। धर्म आधारित राष्ट्र के रूप में हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान के बारे में हम जानते हैं कि इस्लामियत के नाम पर कैसे कठमुल्लों , सामन्तों , फौजी अफसरों , भ्रष्ट नेताओं और असामाजिक तत्वों का वह चारागाह बन गया है । क्या हम भारत में भी उसी दुष्चक्र को स्थापित करना चाहता हैं ? धर्म आधारित राष्ट्र लोकतंत्र विरोधी अवधारणा है । किसी धर्म आधारित राष्ट्र में लोकतंत्र कभी पनप नहीं सकता । संविधान , न्यायपालिका , और प्रेस का हाल के वर्षों में बड़े पैमाने पर अपमान कट्टरपंथियों के लोकतंत्र विरोधी रुख की ही बानगी है । गोलवलकरपंथी राष्ट्रतोड़क ‘राष्ट्रवादियों’ के चंगुल में देश चला गया तो यह उसके अस्तित्व के लिए घातक होगा । इसलिए समय रहते इनके हिटलरी मंसूबों को उजागर करें और इनके खिलाफ़ चौतरफ़ा ढंग से सक्रिय हों ।
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सांप्रदायिकता का आधुनिक इतिहास 1857 की क्रांति की विफलता के बाद शुरू होता है। चूंकि 1857 की क्रांति मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के नेतृत्व मे लड़ी गई थी और इसे मराठों समेत समस्त भारतीयों की ओर से समर्थन मिला था सिवाय उन भारतीयों के जो अंग्रेजों के मित्र थे तथा जिनके बल पर यह क्रांति कुचली गई थी।ब्रिटेन ने सत्ता कंपनी से छीन कर जब अपने हाथ मे कर ली तो यहाँ की जनता को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने हेतु प्रारम्भ मे मुस्लिमों को ज़रा ज़्यादा  दबाया। 19 वी शताब्दी मे सैयद अहमद शाह और शाह वली उल्लाह के नेतृत्व मे वहाबी आंदोलन के दौरान इस्लाम मे तथा प्रार्थना समाज,आर्यसमाज,राम कृष्ण मिशन और थियोसाफ़िकल समाज के नेतृत्व मे हिन्दुत्व मे सुधार आंदोलन चले जो देश की आज़ादी के आंदोलन मे भी मील के पत्थर बने। असंतोष को नियमित करने के उद्देश्य से वाइसराय के समर्थन से अवकाश प्राप्त ICS एलेन आकटावियन हयूम ने कांग्रेस की स्थापना कारवाई। जब कांग्रेस का आंदोलन आज़ादी की दिशा मे बढ्ने लगा तो 1905 मे बंगाल का विभाजन कर हिन्दू-मुस्लिम मे फांक डालने का कार्य किया गया। किन्तु बंग-भंग आंदोलन को जनता की ज़बरदस्त एकता के आगे 1911 मे इस विभाजन को रद्द करना पड़ा। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन  एवं सर आगा खाँ को आगे करके मुस्लिमों को हिंदुओं से अलग करने का उपक्रम किया जिसके फल स्वरूप 1906  मे मुस्लिम लीग की स्थापना हुई और 1920 मे हिन्दू महासभा की स्थापना मदन मोहन मालवीय को आगे करके करवाई गई जिसके सफल न हो पाने के कारण 1925 मे RSS की स्थापना कारवाई गई जिसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करना था । मुस्लिम लीग भी साम्राज्यवाद का ही संरक्षण कर रही थी जैसा कि,एडवर्ड थाम्पसन ने 'एनलिस्ट इंडिया फार फ़्रीडम के पृष्ठ 50 पर लिखा है-"मुस्लिम संप्रदाय वादियों  और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों मे गोलमेज़ सम्मेलन के दौरान अपवित्र गठबंधन रहा। "


वस्तुतः मेरे विचार मे सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद सहोदरी ही हैं। इसी लिए भारत को आज़ादी देते वक्त भी ब्रिटश साम्राज्यवाद  ने पाकिस्तान और भारत  दो देश बना दिये। पाकिस्तान तो सीधा-सीधा वर्तमान साम्राज्यवाद के सरगना अमेरिका के इशारे पर चला जबकि अब भारत की सरकार  भी अमेरिकी हितों का संरक्षण कर रही है। भारत मे चल रही सभी आतंकी गतिविधियों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन अमेरिका का रहता है। हाल के दिनों मे जब बढ़ती मंहगाई ,डीजल,पेट्रोल,गैस के दामों मे बढ़ौतरी और वाल मार्ट को सुविधा देने के प्रस्ताव से जन-असंतोष व्यापक था अमेरिकी एजेंसियों के समर्थन से सांप्रदायिक शक्तियों ने दंगे भड़का दिये। इस प्रकार जनता को आपस मे लड़ा देने से मूल समस्याओं से ध्यान हट गया तथा सरकार को साम्राज्यवादी हितों का संरक्षण सुगमता से करने का अवसर प्राप्त  हो गया। 
यू एस ए के इशारे पर भारत विभाजन को धार्मिक आधार इसलिए प्रदान किया गया जिससे  इसके पीछे के साम्राज्यवादी मंसूबों को छिपाए रखा जा सके। कश्मीर के राजा हरी सिंह ने बेवजह ही नहीं भारत और पाकिस्तान से अलग एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में रहने का निर्णय किया था बल्कि उनको यू एस ए , ब्रिटेन व आर एस एस का समर्थन प्राप्त था। 




कश्मीर की बाह्य भौगोलिक स्थिति ही नहीं वरन इसके लद्दाख क्षेत्र में जोजीला दर्रे के नीचे पाया जाने वाला प्लेटिनम का आकर्षण भी यू एस ए को ललचा रहा था। ज्ञातव्य है कि प्लेटिनम न केवल स्वर्ण से भी अधिक मूल्यवान धातु है बल्कि यह यूरेनियम के निर्माण में भी सहायक है। यूरेनियम सिर्फ परमाणु बम ही नहीं परमाणु ऊर्जा में भी प्रयोग होता है इसलिए स्वतंत्र कश्मीर के शासकों को बहका कर यू एस ए इस यूरेनियम को भी हासिल करना चाहता था। किन्तु नेहरू, पटेल और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने मिल कर हरी सिंह को भारत में विलय के लिए विवश कर दिया था और कश्मीर में बाहरी लोगों के भूमि - क्रय को प्रतिबंधित करने हेतु अनुच्छेद 370 का प्राविधान संविधान में रखवाया था। यही वजह है कि आर एस एस , हिंदूमहासभा, जनसंघ ( अब भाजपा ) आदि साम्राज्यवादियों के समर्थक दल भारतीय संविधान और इसके प्राविधान अनुच्छेद 370 का शुरू से ही विरोध कर रहे हैं। मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के एक मंत्री भी संविधान बदलने की बात कह चुके हैं और अब सरकार से बाकायदा प्रस्ताव देकर मांग की जा रही है।  





अतएव अफलातून साहब की इस चेतावनी " गोलवलकरपंथी राष्ट्रतोड़क ‘राष्ट्रवादियों’ के चंगुल में देश चला गया तो यह उसके अस्तित्व के लिए घातक होगा । इसलिए समय रहते इनके हिटलरी मंसूबों को उजागर करें और इनके खिलाफ़ चौतरफ़ा ढंग से सक्रिय हों ।" के मद्देनजर देश की जागरूक जनता और देश हितैषी दलों की मनसा - वाचा - कर्मणा एकता की महती आवश्यकता है। 
~विजय राजबली माथुर ©

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (11-05-2018) को "वर्णों की यायावरी" (चर्चा अंक-2967) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'