Wednesday, June 15, 2011

सन्त कबीर की प्रासंगिकता --- विजय राजबली माथुर



"चौदह सौ पचपन साल गये,चंद्रवार एक ठाट ठये.
जेठ सुदी बरसायत को ,पूरनमासी प्रगट भये .."   

'कबीर चरित्र बोध' ग्रन्थ के अनुसार कबीर-पंथियों ने सन्त कबीर का जन्म सम्वत १४५५ की जेठ शुक्ल पूर्णिमा को माना है.अतः आज जयंती पर सन्त कबीर को श्रन्धान्ज्ली देने का यही उचित विकल्प लगा कि आज भी उनकी प्रासंगिकता क्यों है ?इस तथ्य पर विचार किया जाए.कबीर स्कूली शिक्षा से वंचित रहे-'मसि कागद छूह्यो नहीं'कह कर उन्होंने यही जतलाया है.उन्होंने' सूफी सन्त शेख तकी' से दीक्षा ली थी ,किन्तु अपनी रचनाओं में जिस श्रद्धा और सम्मान के साथ 'रामानन्द' का उल्लेख किया है उससे यही सिद्ध होता है कि रामानन्द ही इनके गुरु थे.

कबीर की रचनाओं में काव्य के तीन रूप मिलते हैं-साखी,रमैनी और सबद .साखी दोहों में,रमैनी चौपाइयों में और सबद पदों में हैं.साखी और रमैनी मुक्तक तथा सबद गीत-काव्य के अंतर्गत आते हैं .इनकी वाणी इनके ह्रदय से स्वभाविक रूप में प्रवाहित है और उसमें इनकी अनुभूति की तीव्रता पाई जाती है.

इधर कुछ समय पूर्व ब्लाग जगत में सन्त कबीर का उपहास रामविलास पासवान की रेलवे के कुत्ते की भविष्यवाणी के रूप में जम कर किया गया था.आज के आपा-धापी के युग में जब माडर्न लोग 'मेरा पेट हाउ मैं न जानू काऊ'के सिद्धांत पर चल रहे हों तो उनसे इससे अधिक की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती!वैसे सभी रोते रहते हैं भ्रष्टाचार को और कोसते रहते हैं राजनेताओं को ;लेकिन वास्तविकता समझने की जरूरत और फुर्सत किसी को भी नहीं है.भ्रष्टाचार-आर्थिक,सामजिक,राजनीतिक,आध्यात्मिक और धार्मिक सभी क्षेत्रों में है और सब का मूल कारण है -ढोंग-पाखंड पूर्ण धर्म का बोल-बाला.

कबीर के अनुसार धर्म  

कबीर का धर्म-'मानव धर्म' था.मंदिर,तीर्थाटन,माला,नमाज,पूजा-पाठ आदि बाह्याडम्बरों ,आचार-व्यवहार तथा कर्मकांडों की इन्होने कठोर शब्दों में निंदा की और 'सत्य,प्रेम,सात्विकता,पवित्रता,सत्संग (अच्छी सोहबत न कि ढोल-मंजीरा का शोर)इन्द्रिय -निग्रह,सदाचार',आदि पर विशेष बल दिया.पुस्तकों से ज्ञान प्राप्ति की अपेक्षा अनुभव पर आधारित ज्ञान को ये श्रेष्ठ मानते थे.ईश्वर की सर्व व्यापकता और राम-रहीम की एकता के महत्त्व को बता कर इन्होने समाज में व्याप्त भेद-भाव को मिटाने प्रयास किया.यह मनुष्य मात्र को एक समान मानते थे.वस्तुतः कबीर के धार्मिक विचार बहुत ही उदार थे.इन्होने विभिन्न मतों की कुरीतियों संकीर्णताओं  का डट कर विरोध किया और उनके श्रेयस्कर तत्वों को ही ग्रहण किया.

लोक भाषा को महत्त्व 

कबीर ने सहज भावाभिव्यक्ति के लिए साहित्य की अलंकृत भाषा को छोड़ कर 'लोक-भाषा' को अपनाया-भोजपुरी,अवधी,राजस्थानी,पंजाबी,अरबी ,फारसी के शब्दों को उन्होंने खुल कर प्रयोग किया है.यह अपने सूक्ष्म मनोभावों और गहन विचारों को भी बड़ी सरलता से इस भाषा के द्वारा व्यक्त कर लेते थे.कबीर की साखियों की भाषा अत्यंत सरल और प्रसाद गुण संपन्न है.कहीं-कहीं सूक्तियों का चमत्कार भी दृष्टिगोचर होता है.हठयोग और रहस्यवाद की विचित्र अनुभूतियों का वर्णन करते समय कबीर की भाषा में लाक्षणिकता आ गयी है.'बीजक''कबीर-ग्रंथावली'और कबीर -वचनावली'में इनकी रचनाएं संगृहीत हैं.
(उपरोक्त विवरण का आधार हाई-स्कूल और इंटर में चलने वाली उत्तर-प्रदेश सरकार की पुस्तकों से लिया गया है)

कबीर के कुछ  उपदेश 

ऊंचे कुल क्या जनमियाँ,जे करणी उंच न होई .
सोवन कलस सुरी भार्या,साधू निंदा सोई..

हिन्दू मूये राम कही ,मुसलमान खुदाई.
कहे कबीर सो जीवता ,दुई मैं कदे न जाई..

सुखिया सब संसार है ,खावै अरु सोवै.
दुखिया दास कबीर है ,जागे अरु रोवै..

दुनिया ऐसी बावरी कि,पत्थर पूजन जाए.
घर की चकिया कोई न पूजे जेही का पीसा खाए..

कंकर-पत्थर जोरी कर लई मस्जिद बनाये.
ता पर चढ़ी मुल्ला बांग दे,क्या बहरा खुदाय

..इस प्रकार हम देखते हैं कि,सन्त कबीर की वाणी आज भी ज्यों की त्यों जनोपयोगी है.तमाम तरह की समस्याएं ,झंझट-झगडे  ,भेद-भाव ,ऊँच-नीच का टकराव ,मानव द्वारा मानव का शोषण आदि अनेकों समस्याओं का हल कबीर द्वारा बताये गए धर्म-मार्ग में है.कबीर दास जी ने कहा है-

दुःख में सुमिरन सब करें,सुख में करे न कोय.
जो सुख में सुमिरन करे,तो दुःख काहे होय..


अति का भला न बरसना,अति की भली न धुप.
अति का भला न बोलना,अति की भली न चूक..

मानव जीवन को सुन्दर,सुखद और समृद्ध बनाने के लिए कबीर द्वारा दिखाया गया मानव-धर्म अपनाना ही एकमात्र विकल्प है-भूख और गरीबी दूर करने का,भ्रष्टाचार और कदाचार समाप्त करने का तथा सर्व-जन की मंगल कामना का.

1 comment:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत सुंदर पोस्ट आभार आपका ..... संत कबीर के विचारों की प्रासंगिकता सदैव बनी रहेगी.......