Monday, September 30, 2019

हरि सिंह कश्मीरियों के बीच बेहद अलोकप्रिय थे :वे गैर-कश्मीरी शासक थे: ------ अजेय कुमार

 
http://epaper.navbharattimes.com/details/63237-77176-1.html

अजेय कुमार
कश्मीर समस्या के लिए क्या नेहरू जिम्मेदार ? 

शेख अब्दुल्ला पर जब महाराजा ने राजद्रोह का मुकदमा चलाया तो उनकी ओर से लड़ने के लिए बतौर वकील जवाहरलाल नेहरू कश्मीर गए
अगर महाराजा हरि सिंह ने ढुलमुल रवैया नहीं अपनाया होता तो घाटी की यह हालत नहीं होती
बीते 4 सितंबर को बीजेपी के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने एक विडियो जारी किया है जिसमें जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करने और उसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने को एक ऐतिहासिक कदम बताया गया है। यह 11 मिनट का विडियो है, जिसके लगभग अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि पटेल व आंबेडकर दोनों नेहरू की कश्मीर नीति के खिलाफ थे। विडियो के अनुसार सरदार पटेल ने 562 देसी रियासतों का भारत में सफल ढंग से विलय करवा दिया मगर कश्मीर मुद्दे को नेहरू ने अपने हाथों में ले लिया और राज्य को विशेष दर्जा देने की भयंकर भूल की।
गांधी की अपील 

सवाल है कि केवल कश्मीर को नेहरू ने अपने हाथों में क्यों लिया? जिन देसी रियासतों का विलय पटेल ने कराया, वे भारत की भौगोलिक सीमा के अंदर थीं और उनमें से किसी पर विदेशी आक्रमण नहीं हुआ था। कश्मीर भारत-पाकिस्तान की सीमा पर था और 1941 की जनगणना के अनुसार घाटी में मुसलमानों की जनसंख्या 93.45 प्रतिशत, जम्मू में 61.35 प्रतिशत (जम्मू के कुल 6 जिलों में से तीन जिले मुस्लिम बहुल हैं) और लद्दाख, गिलगिट आदि में 86.7 प्रतिशत थी। इस तरह कश्मीर की भौगोलिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियां अन्य रियासतों से अलग थीं। इतनी बड़ी मुस्लिम आबादी के बावजूद जम्मू-कश्मीर की सत्ता महाराजा हरि सिंह के हाथों में थी जो एक डोगरा हिंदू थे। अमृतसर की संधि के बाद केवल 75 लाख रुपये में घाटी और लद्दाख के क्षेत्र जम्मू डोगराशाही के अधीन आ गए थे।

हरि सिंह कश्मीरियों के बीच बेहद अलोकप्रिय थे। वे दरअसल गैर-मुस्लिम से अधिक गैर-कश्मीरी शासक थे। उनके शासन के विरुद्ध शेख अब्दुल्ला ने संघर्ष का आह्वान किया और ‘महाराजा, कश्मीर छोड़ो’ का नारा दिया। कश्मीर के इतिहास में विभाजन रेखा इस्लाम नहीं, बल्कि कश्मीरी से गैर-कश्मीरी शासन का परिवर्तन है। दूसरी ओर, नेहरू और गांधी की अहम भूमिका थी जिन्होंने कश्मीरी मुसलमानों को पाकिस्तान जाने से रोका। जब महाराजा ने शेख अब्दुल्ला पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया तो बतौर वकील उनकी ओर से लड़ने के लिए जवाहरलाल नेहरू कश्मीर गए। गांधी जी ने भी एक अगस्त 1947 को कश्मीर का दौरा किया जिसने कश्मीरियों को प्रभावित किया। गांधी जी ने अमृतसर समझौते, जिसने महाराजा को कश्मीर पर शासन करने का कानूनी अधिकार दिया था, को एक ऐसी सेल-डीड कहा, जिसका अंग्रेजी शासन खत्म होने पर कोई औचित्य न था। उन्होंने कश्मीर की जनता की तारीफ की कि जहां शेष भारत में सांप्रदायिक दंगे हो रहे हैं, कश्मीर एक आशा की किरण है। इस तरह नेहरू और गांधी, दोनों ने अपनी भावनात्मक अपीलों से मुस्लिम सांप्रदायिकता को बेअसर करके जनता में कश्मीरी देशभक्ति की भावना जागृत की। इसलिए आज अगर कश्मीर भारत का हिस्सा है तो उसका बहुत कुछ श्रेय शेख अब्दुल्ला के साथ-साथ नेहरू और गांधी को भी जाता है। 

शेख अब्दुल्ला को भरोसा था कि भारत आजादी के बाद नेहरू के नेतृत्व में एक धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील देश बनेगा। उन्हें जिन्ना की सांप्रदायिक राजनीति से नफरत थी। जिन्ना ने शेख अब्दुल्ला के आंदोलन को ‘गुंडों का आंदोलन’ कहा था। इधर हरि सिंह ‘मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं’ की पसोपेश में थे। 12 अक्टूबर, 1947 को रियासत के उप दीवान राय बहादुर बत्रा ने घोषणा कीः ‘हम हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखना चाहते हैं। भारत या पाकिस्तान में शामिल होने का हमारा कोई इरादा नहीं है।’

कश्मीर समस्या की जड़ यहां है, नेहरू की नीतियों में नहीं। अगर महाराजा सही वक्त पर सही रुख अपनाते तो आज कश्मीर का मुद्दा कहीं न होता! महाराजा के ढुलमुलपन का फायदा पाकिस्तान उठाना चाहता था। पाकिस्तान के दो दूतों ने श्रीनगर में शेख अब्दुल्ला से मुलाकात की और पाकिस्तान के पक्ष में निर्णय कराने पर जोर दिया। वरना, उनका कहना था कि दूसरे तरीके इस्तेमाल किए जाएंगे। यह सरासर धमकी थी। शेख अब्दुल्ला ने अपनी आत्मकथा ‘आतिशे चिनार’ में लिखा है कि जब वे पाकिस्तान के कुछ नेताओं से बातचीत में मशगूल थे, पाकिस्तानी हमलावर कश्मीर के लोगों की जमीन और उनके अधिकारों को अपने पांवों तले कुचल रहे थे।’

कश्मीर पर कई पुस्तकों के लेखक बलराजपुरी ने लिखा है ‘इन घटनाओं के कारण महाराजा हरि सिंह के पास हिंदुस्तान की तरफ मुड़ने के अलावा कोई चारा न था। महाराजा ने नेहरू तक यह संदेश पहुंचाया कि मैं भारत में शामिल हो सकता हूं, शर्त यह है कि भारतीय सेना के जहाज इसी शाम को श्रीनगर पहुंच जाएं, अन्यथा मैं जाकर जिन्ना से बात कर लूंगा। नेहरू को यह सौदेबाजी अच्छी नहीं लगी लेकिन शेख अब्दुल्ला के आग्रह पर वे नरम पड़े और 27 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तानी आक्रमणकारियों का सफाया करने के लिए भारतीय सेना भेजी।’ 
कोई मतभेद नहीं : 


नेहरू ने कश्मीर मामले से जुड़े सभी मुद्दों पर पटेल समेत केंद्रीय मत्रिमंडल से बाकायदा बातचीत की। प्रख्यात पत्रकार दुर्गादास ने 10 खंडों में पटेल के पत्रों (1947 से 1950 तक) का एक बड़ा संकलन ‘सरदार पटेल्ज कॉरेसपॉन्डेंस’ नाम से तैयार किया है। इसमें नेहरू को लिखे कई पत्र हैं जिनमें कहीं भी इसका जिक्र नहीं है कि उनके नेहरू से कोई गहरे मतभेद थे। पटेल जैसे ‘लौह-पुरुष’ क्या अपना अपमान सह सकते थे! अगर कोई मतभेद होते तो वे फौरन केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देते। आज पटेल के उस भाषण को याद करने की जरूरत है जो उन्होंने 30 अक्टूबर, 1948 को बंबई में एक आमसभा को संबोधित करते हुए दिया था, ‘हम कश्मीर में इसलिए हैं क्योंकि वहां के लोग ऐसा चाहते हैं। जिस क्षण हमें लगेगा कि कश्मीर के लोग नहीं चाहते कि हम वहां रहें, उसके बाद हम एक मिनट भी वहां नहीं रुकेंगे.... हम कश्मीर को धोखा नहीं दे सकते।’
साभार : 

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 ~विजय राजबली माथुर ©

Saturday, September 28, 2019

जीत गए तो 71 , हार गये तो 62 ------ मनीष सिंह / संतोष कुमार झा






Santosh Kumar Jha
28-09-2019 
Manish singh
https://www.facebook.com/manish.janmitram/posts/2450682738349362

हर सितारे का एक वक्त होता है। उसके बनने का, चमकने का और धूमिल हो जाने का भी..। नेपोलियन के लिए वाटरलू, हिटलर के लिए ईस्टर्न फ्रंट और नेहरू के लिए चीन..

15 अगस्त 1947 में आजाद भारत की सीमाएं, ब्रिटिश भारत से विरासत में मिली। पश्चिमी सीमा तो बंटवारे में ब्रिटिश ने रेडक्लिफ लाइन से तय कर दी थी। कश्मीर बाद में हमसे जुड़ा, जुड़ने के पहले कुछ हिस्सा पाक दबा चुका था। वहां एक्चुअल कन्ट्रोल की लाइन को फोर्टिफाइ कर सेफ किया गया। मगर पूर्वी सीमा बड़ी अस्पस्ट थी।

पूर्वी सीमाओ का रिफरेंस पॉइंट, अंग्रेजो के दो सौ साल के राज दौरान अलग अलग सन्धियों से तय होनी थी। अंग्रेज युद्ध मे "इलाके" जीत लेते थे, इलाके खरीद भी लेते थे (कुमाऊँ गढ़वाल नेपालियों से खरीदा), इलाके लीज पर लेते थे ( गिलगित बल्टिस्तान, 1930 में कश्मीर राजा से 60 साल की लीज पर लिया था)। इन्ही सन्धियों को रिफरेंस पॉइंट लेकर भारत को अपनी सीमा तय करनी थी, जिसमे पड़ोसी की भी मंजूरी हो।

पर सन्धियों में इलाके लिखे होते हैं, कागज पर डॉटेड लाइन बना दी जाती है, मान ली जाती है। जमीनी बार्डर अलग चीज है,वह जमीन पर पक्की लाइन खींचकर तय की जाती है। इसलिए जॉइंट बॉर्डर कमीशन बनते, सर्वे होता, नक़्शे के आधार पर जमीनी लाइन खिंचती थी।

मगर चीन के साथ ब्रिटीश ऐसा कर नही पाए। पहली बात ये, मजे की.. की ब्रिटिश के लिए चीन से सीमा मिली ही नही थी। वो तिब्बत था, जिसपर ढीला कन्ट्रोल चीन राजा का था जरूर, मगर तिब्बतियन ट्राइब्स लगभग स्वतंत्र थे। ब्रिटिश ने तिब्बतियों को कई झड़पों में दबाया। फिर 1914 में शिमला में एक कान्फ्रेंस हुई। तिब्बती और ब्रिटिश इंडियन अफसरों ने समझौता करके बार्डर तय किये गए। अरुणाचल के इलाके तय करती इस रेखा को "मैकमेंहन लाइन" कहा गया। कई स्थानों पर इस लाइन ने तिब्बती इलाके, ब्रिटिश भारत मे दिखाए। तिब्बती कमजोर थे, दस्तखत कर गए। सो टेक्निकली तिब्बती कल्चर कई इलाके नक़्शे में ब्रिटिश सरकार के हो गए। मगर जमीन पर अंग्रेजो ने इन्हें न अपने प्रशासन में लिया, न फोर्टिफाइ किया। तवांग ऐसा ही इलाका था, जिसका जिक्र आगे आएगा।

47 में इन्ही सीमाओ (नक्शों) को हमनें विरासत में पाया। तिब्बत तो मित्र था, कोई समस्या नही थी। पर समस्या आयी जब माओइस्ट चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। तिब्बत अब चीन था, अग्रेसिव था, अब कम्युनिस्ट भी था, रूस की बैकिंग थी। भारत को देश हुए जुम्मा जुम्मा दो साल हुए थे। सेना कम थी, पश्चिम में पाकिस्तान से उलझी हुई थी। तो पूर्व में चीन से उलझना बेवकूफी थी। नेहरू ने दो चीजें तय की। एक- चीन को संतुष्ट रखना, दो- सीमा मामले पर मैकमैहन लाइन पर दृढ़ रहना।

खुश करने के लिए चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता दी, तब जबकि पूरे पश्चिम ने माओ को चीन का अधिकृत शासक मानने से इनकार कर दिया था। चीन की यूएन में परमानेंट सीट होल्ड हुई, तो नेहरू ने उसकी वकालत की। चीन की सीट इंडिया को दिए जाने के लालच से भी खुद को बचाया।

दूसरी ओर, सीमा के मसले पर चीन के भारतीय राजदूत पणिक्कर के द्वारा मैकमैहन लाइन को फाइनल मानने का संदेश भेजा। चाइनीज पीएम चाऊ का जवाब-"हमे अपनी मित्रता, और सांस्कृतिक आदान प्रदान पर ध्यान देना चाहिए. सीमा का मसला, जैसी परम्पराये हैं, उस आधार पर देख लेंगे"। अब समझना कठिन था की मैकमैहन पर चीन उत्तर हां है या ना??

नेहरू ने टेस्ट किया। तवांग, जो था मैकमैहन लाइन में हमारी ओर, मगर था तिब्बती इलाका। 1951 में भारतीय प्रशासन वहां पहुंचा औऱ अपने नियंत्रण में ले लिया। पहली बार आजाद भारत ने मैकमैहन लाइन को एक्सरसाइज किया। देश झूम उठा। चीन की कोई प्रतिक्रिया नही आई। हमने इसे मैकमैहन लाइन पर चीन की स्वीकृति माना। अरुणाचल और नॉर्थ ईस्ट में मसला सुलझने का सन्देश समझा गया।

मगर 1952 में एक घटना हुई। ऊपर अक्साई चिन नाम का इलाका है। इसे ब्रिटिश मैप्स में कश्मीर.. (अब भारत) मे दिखाया गया था। इन नक्शो को ब्रिटिश सर्वेयर्स ने एकतरफा बनाया था, और तिब्बत/ चीन को अप्रूवल के लिये भेजा था। तिब्बत या चीन की ओर से कभी वेरिफाई करने का रिकार्ड नही है। ठंडा, निर्जन रेगिस्तान जैसे इस इलाके में कश्मीर राजा, या तिब्बतीयों, या अंग्रेजो ने सुरक्षा या गश्त की जहमत कभी नही की थी। इस अन्डिफेंडेड इलाके से होकर चीन ने एक सड़क बना ली थी।

सड़क थी जिनजियांग इलाके को तिब्बत से जोड़ने के लिए। वहां विद्रोह होते रहते थे। सेना पहुंचाने के लिए उसकी जरूरत थी। मगर विरासत में मिले नक़्शे के लिहाज से हिंदुस्तानी इलाके का वॉयलेशन था। हिंदुस्तान चीत्कार उठा। "नेहरूऊऊऊ.., सुई के नोक के बराबर भारत भूमि चीन को मत देना"।

नेहरू ऐसी वारमोंगरिंग के खतरे समझते थे। समझाने की कोशिश की- "बंजर पहाड़ है, ज्यादा पंगा मत लो"। तो हमने गंजा सिर दिखा दिया-" इस सिर पर कुछ नही उगता, तो कटवा दें क्या??" .

बिल्कुल नही। अब सीमा पर चौकसी मजबूत की जाने लगी। सेना में खूब भर्ती होने लगी। नेशनल डिफेंस कालेज, एनसीसी वगेरह उसी दौर में आये। और आये कृष्णा मेनन। बड़े योग्य, ज्ञानी, प्रॉफेशनल और उतने ही बदतमीज डिफेंस मिनिस्टर। पूर्वी सीमा के लिए अलग से नई कोर बनी। पहाड़ो में सड़कें, हवाई अड्डे बनने लगे।

चीन देख रहा था, आपत्ति कर रहा था। नेहरू ने उसे भी सन्तुष्ट रखने की कोशिश की। 1954 में पंचशील समझौता किया। याने तिब्बत पर चाइनीज अधिकार स्वीकार कर लिया। हिंदी चीनी भाई भाई कहलाए। नेहरू यूएन में उंसके पक्ष में बोलते रहे। मगर फिर धर्मसंकट आ गया।

1958 में दलाई लामा भारत भाग आये। नेहरू ने खुद मिलकर समझाया, मगर लामा वापस जाने को तैयार नही हुए। भारत मे बैठकर तिब्बत की निर्वासित सरकार बना ली। उधर नई नई शुरू हो गई बॉर्डर पेट्रोल में रोज रोज चाइनीज सेना का सामना होता। इसे हमारी फारवर्ड पॉलिसी कहा गया। रोज हेडलाइन्स बनती, संसद में बहस होती, चीन की निगाह में भारत होस्टाइल होता जा रहा था। सीमा पर उसने भी इन्फ्रास्ट्रक्चर और फॉर्मेशन बढ़ाने शुरू किए। उसकी भी खबरें बनती, याने और हेडलाइन, और बहस...

उधर पाकिस्तान में एक जनरल ने सत्ता हाथ मे ले ली। भारत मे जनरल थिमैया और बदतमीज मेनन की रोज किचकीच होती। इसमे नए इलाके में घुसकर पेट्रोलिंग के मुद्दे शामिल थे। थिमैया ने इस्तीफा तक दे दिया, नेहरू के कहने पर वापस लिया। इस किचकिच और अविश्वास का फायदा मिला- बीएम कौल को। कहते है कि वे नेहरू और मेनन के विश्वाशपात्र थे। दर्जन भर अफसर दरकिनार कर उन्हें उप सेनाध्यक्ष बनाया गया, और नई नवेली ईस्टर्न कमांड उनको दी गयी। अपनी जान में नेहरू, मेनन और कौल ..सेना और सीमा मजबूत करने में जुटे थे।

1960 में चाऊ भारत आये। एक प्रस्ताव दिया। नीचे मैकमोहन लाइन हम मान लेते हैं, इस तरह नेफा (अरुणाचल) आपका।। ऊपर अक्साई चिन पर हमारा अधिकार स्वीकार कर लो। बॉर्डर पर झड़पें रोकने के लिए दोनो सेनाएं, स्टेटस क्वो से 20 किमी पीछे लौट जाएं। भारत ने मना कर दिया। काहे सर पे बाल नही, मगर सर थोड़ी कटा सकते हैं। इसलिए- "सीमा वहीं बनाएंगे"

1961 आया। भारत की सेना ने गोआ जीत लिया। यूएन में भी पुर्तगाल को नेहरू ने सुलट लिया। याने सेना भी मजबूत है, और विश्व मे हमारी पकड़ भी। छप्पनिया देश का और क्या सबूत चाहिए। उधर पूर्वी सीमा पर झड़पें खूनी हो चली थी। युद्ध आसन्न था।

20 अक्टूबर 1962 को चीन ने अक्साई चिन इलाके पर धावा बोला। नीचे तवांग के इलाके में भी उसकी फौजें घुसी। नेहरू देश से बाहर थे। भागे भागे आए, तो पता चला, बहादुर जनरल कौल हार्ट अटैक के नाम पर दिल्ली आकर भर्ती थे। उन्हें वापस मोर्चे पर दौड़ाया। वर्ल्ड कम्युनिटी से सहयोग चाहा। मगर सितारे उल्टे चल रहे थे।

क्यूबा का मिसाइल संकट चल रहा था। जब रूस ने अपने परमाणु मिसाइल क्यूबा में लगाकर सारे अमरीका को घेरे में ले रखा हो, अमरीका ने तैनाती तुरन्त न हटाने पर रूस पर सारी मिसाइल तान रखी हो, जब सारा विश्व परमाणु युद्ध के मुहाने पर खड़ा हो। उस वक्त एशिया की पहाड़ियों पर लड़ रहे, तीसरी दुनिया के दो देशों के बीच- बचाव की फुर्सत किसे। हम पिटते रहे.. गाते रहे - कर चले हम फिदा ...।

18 दिन का क्यूबा संकट खत्म हुआ। रूस को फुर्सत मिली, तो चीन को समझाया। चीन का उद्देश्य भारत को सबक सिखाना था। काफी टेरेट्रीज जीत चुका था। 19 नवम्बर को उसने एकतरफा युद्ध विराम कर दिया। भारत की निर्णायक हार हो चुकी थी। अक्साई चिन और अरुणाचल में वो जितना देने को तैयार था, उससे आगे आकर कब्जा कर गया। आज भी वे कब्जे बरक़रार हैं।

इसे सैनिक असफलता कहें, कूटनीतिक असफ़लता कहे, राजनैतिक असफलता कहे, या नेहरू की निजी असफलता.. भारत का मान मर्दन पूरा हो चुका था। मेनन- कौल के इस्तीफे आये। नेहरू अस्ताचल में चले गए। डेढ़ साल बाद मर गए। एसटीडी/एड्स से तो नही.. मगर हार्ट अटैक से।

चीन, नेहरू का वाटरलू था। वाटरलू नेपोलियन की महानता को खत्म नही करता, मगर पूर्ण विराम तो लगाता ही है। चीन से हार के लिए नेहरू जिम्मेदार थे, कोई शक नही। मगर अनिच्छुक नेहरू को इस तरफ धकेलने के लिए उस वक्त की संसद, अखबारो और जनमानस को भी एक छटाँक जिम्मा लेना चाहिए।

नक्शों पर, सैंकड़ो साल पहले.. किसी और के विजयोत्सव के दौरान खींची गई रेखाओं के आधार पर, हम आज विजयी भाव लेकर पड़ोसियों से युद्ध की ताल ठोकें। वर्तमान को नकार दें। सड़को पर, संसद में , मीडिया में , गली कूचों पर " सीमा वहीँ बनाएंगे" का वीरभाव दिखाएं। ये राष्ट्रीय भाव जगाने को अच्छा है, शायद चुनाव जीतने के लिए भी। मगर युद्ध न प्रधानमंत्री को लड़ना होता है, न मीडिया, न सांसदो को, न जनरल को, न गली कूचों बैठी गर्वोंन्मत जनता को। मरते बस सैनिक है।


वे सैनिक, कोई सिख, कोई जाट मराठा, कोई गुरखा कोई मद्रासी... हाड़मांस के आम इंसान, जो सर्द पहाड़ी पर हमारी आपकी शेखी की पताका लेकर ऊंचे से ऊंचा फहराने के लिए वर्दी डालकर जान देते है। जीत गए तो 71 , हार गये तो 62

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  ~विजय राजबली माथुर ©

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Tuesday, September 24, 2019

ह्यूस्टन का तमाशा: इससे किसी सार्थक और सकारात्मक परिणाम की अपेक्षा करना बेमानी है ------ हेमंत कुमार झा





Hemant Kumar Jha
24-09-2019 
डोनाल्ड ट्रम्प की सरकार को नाओम चोम्स्की ने "अमेरिका के लोकतांत्रिक इतिहास की सर्वाधिक मानव द्रोही सरकार" की संज्ञा दी है। जीवित किंवदन्ती बन चुके, अमेरिका में रह रहे वयोवृद्ध विचारक चोम्स्की जब कुछ बोलते हैं तो दुनिया गम्भीरता से उन्हें सुनती है।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत की सरकार के कार्यकलापों को लेकर भी चोम्स्की के कुछ ऐसे ही विचार हैं। जब मोदी केंद्र की सत्ता में आए थे तो चोम्स्की ने इसे "भारत के लिये अंधेरा समय" की संज्ञा दी थी और अभी हाल में एक इंटरव्यू में उन्होंने मोदी सरकार पर "देश की संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को नष्ट करने" के आरोप लगाते हुए कहा कि "इसने लोकतंत्र और मानवाधिकार के लिये खतरा उत्पन्न कर दिया है।"

ट्रम्प प्रशासन पर भी संस्थाओं की गरिमा को चोट पहुंचाने के गम्भीर आरोप लगते रहे हैं और इस कारण अमेरिका में संवैधानिक पदों पर आसीन अनेक स्वाभिमानी लोगों ने बीते दिनों इस्तीफा दे दिया है।

ट्रम्प ने "अमेरिका फर्स्ट" का नारा दे कर राष्ट्रवाद के जिस नकारात्मक रूप को प्रस्तुत किया है उसने मानवीय त्रासदियों और व्यापारिक संकटों के नए सिलसिलों की शुरुआत कर दी और इन्हें लेकर पूरी दुनिया में चिन्ताएं व्यक्त की जा रही हैं। इधर, मोदी का राष्ट्रवाद भारतीयता की अवधारणा के विरुद्ध सिर उठा रही उन लंपट शक्तियों का मनोबल बढ़ा रहा है जिनकी अराजक कारगुजारियों के समक्ष संवैधानिक तंत्र लाचार नजर आ रहा है।

पोस्ट-ट्रूथ पॉलिटिक्स के अध्येताओं ने ट्रम्प और मोदी, दोनों की चुनावी जीत को "वास्तविकताओं के स्थान पर कृत्रिम सत्य के प्रतिस्थापन का नकारात्मक निष्कर्ष" बताया। 2014 में नरेंद्र मोदी और 2016 में डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के बाद 'पोस्ट-ट्रूथ' शब्द की इतनी चर्चा हुई कि ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने इस शब्द को 2016 का "वर्ड ऑफ द ईयर" घोषित कर दिया।

जब ट्रम्प राष्ट्रपति उम्मीदवार बने और फिर जीत भी गए तो पूरी दुनिया का बौद्धिक तबका हक्का-बक्का रह गया क्योंकि अमेरिकी लोकतंत्र की परिपक्वता को लेकर आमतौर पर एक आश्वस्ति का भाव रहा है। ट्रम्प की जीत को अमेरिका की राजनीतिक संस्कृति में मानवीय आदर्शों के पतनोन्मुख होने का स्पष्ट संकेत माना गया। कहा गया कि यह जीत अप्रत्याशित है और इसके लिये अमेरिका में बढ़ते नस्लभेद, कमजोर वर्गों के साथ ही स्त्री विरोधी मानसिकता को मुख्य रूप से जिम्मेदार माना गया।

नरेंद्र मोदी की जीत अप्रत्याशित तो बिल्कुल नहीं थी लेकिन इस जीत के परिणामों को लेकर भारत सहित दुनिया भर के बौद्धिक हलकों में गहरे संदेह व्यक्त किये गए। नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित आयरिश विचारक मैरीड मेग्योर ने मोदी की जीत को "मानवीय मूल्यों के संदर्भ में अत्यंत निराशाजनक परिणाम" कहते हुए इसे "भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के विरुद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक अराजकताओं को आमंत्रण" बताया।

ट्रम्प और मोदी दोनों बौद्धिकता विरोधी नेता हैं और अपने इस रुख को छिपाने में दोनों को ही कतई यकीन नहीं है। उन्हें पता है कि दुनिया का बौद्धिक तबका अगर उनको संदेह की नजरों से देखता है तो इस तबके को ठेंगे पर रख कर ही वे अपनी राजनीति को आगे बढ़ा सकते हैं। दोनों के समर्थन आधार में भी बौद्धिक व्यक्तियों के प्रति हिकारत और बौद्धिकता के प्रति निषेध के भाव मुखर रहे हैं।

सतह की निचली परतों में बढ़ती सड़ांध के बावजूद जहां मोदी 'न्यू इंडिया' के नारे के साथ आम लोगों को भरमाने में सफल हो रहे हैं वहीं ट्रम्प बढ़ती सामाजिक अराजकताओं और बुरी तरह बढ़ती आर्थिक विषमताओं के बावजूद 'बदलते अमेरिका' का राग अलापते रहते हैं।

प्रभावी रूप से झूठ बोलने में दोनों को ही महारत हासिल है। बतौर शासनाध्यक्ष, नीतियों और सरकारी कार्यकलापों से जुड़े झूठ ये दोनों बोलते ही रहते हैं। अंतर यही है कि जहां ट्रम्प को अमेरिका में खूब एक्सपोज किया जाने लगा है वहीं मोदी के झूठ को सच मानने और मनवाने में उनके समर्थक सोशल मीडिया से लेकर चाय की दुकानों तक अत्यंत सक्रिय रहते हैं। एक और अंतर यह है कि मोदी युग में जहाँ भारत में "मीडिया का भक्तिकाल" चल रहा है वहीं अमेरिका में प्रमुख मीडिया संस्थान ट्रम्प के झूठ को उजागर करने में कोई कोताही नहीं बरत रहे।

अभी हाल में 'वाशिंगटन पोस्ट' ने ट्रम्प के निरन्तर झूठ बोलने पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की है। अखबार के "फैक्ट चेकर्स डेटाबेस" के मुताबिक राष्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रम्प अपनी जनता से और पत्रकारों से 10 हजार 796 बार झूठ और गुमराह करने वाली बातें बोल चुके हैं। बहरहाल, मोदी के झूठों की फेहरिस्त बनाना उतना आसान नहीं क्योंकि उनके नेतृत्व में देश का सत्ता तंत्र झूठ की खेती करने में जिस तरह लगा हुआ है उससे सिर्फ भ्रम ही उपज सकता है, उपज भी रहा है।

दोनों ही बातें लम्बी-लम्बी करते हैं लेकिन दोनों के शासन काल में उनके समाजों में परस्पर असहिष्णुता में बढ़ोतरी हुई है। दोनों ने ही अपने-अपने देशों की अर्थव्यवस्थाओं के कायाकल्प का वादा किया था लेकिन दोनों इस संदर्भ में विफल रहे हैं और अपनी इस विफलता को ढंकने के लिये तरह-तरह के भ्रामक तथ्यों का सहारा लेते हैं।
ट्रम्प अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अपेक्षाओं के अनुरूप गतिशीलता नहीं ला सके वहीं मोदी ने तो भारत की अर्थव्यवस्था का बंटाधार करने में कोई कसर नही छोड़ी है। बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने सनसनी फैलाने के लिये नोटबन्दी का अचानक बिना आगा-पीछा सोचे निर्णय लिया, उसने भारतीय अर्थव्यवस्था, खास कर असंगठित क्षेत्र को जिस तरह बर्बाद किया उसे मानने के लिये आज भी न वे और न उनका थिंक टैंक तैयार हैं।

समकालीन वैश्विक राजनीति में दोनों एक दूसरे को वैधता देते हैं, एक दूसरे की प्रशंसा करते हैं और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके से एक दूसरे के राजनीतिक छद्म को सहयोग देते हैं।

अमेरिका के ह्यूस्टन शहर में जो प्रायोजित तमाशा हुआ उसमें ट्रम्प की मौजूदगी ने मोदी की छवि निर्माण की राजनीति को बढावा दिया और यह बिल्कुल स्वाभाविक था। आम तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपतियों से ऐसी उम्मीद नहीं की जाती, लेकिन ये तो डोनाल्ड ट्रम्प हैं जो अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के नैतिक और राजनीतिक मानदंडों की ऐसी-तैसी करने में कोई संकोच नहीं करते...बात अगर चुनावी फायदे की हो तब तो बिल्कुल नहीं। अगले साल उन्हें राष्ट्रपति चुनाव में फिर उतरना है और अमेरिका में दिन ब दिन मजबूत और प्रभावी होती जा रही भारतीय लॉबी का समर्थन उनके बहुत काम आ सकता है।

इसलिये, भारत में भयंकर मानवीय त्रासदी का रूप लेती जा रही बेरोजगारी और आर्थिक विफलताओं के बावजूद नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी शहर में जो फूहड़ तमाशा आयोजित किया उसमें उन्होंने "भारत में सब कुछ अच्छा चल रहा है" कह कर बेरोजगार भारतीय नौजवानों और नौकरी खोते जा रहे कामगारों का खुलेआम मजाक उड़ाया। उधर, ट्रम्प ने भी मोदी के साथ अपनी दोस्ती की कसमें खाते हुए यह कह कर उनकी हौसला अफजाई की कि..."मोदी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।"

नाटकीयता में दोनों का कोई सानी नहीं है और ट्रम्प के नाटक के बाद उसी नाटकीय अंदाज में मोदी ने भी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के स्थापित मानदण्डों की धज्जियां बिखेरते हुए, हवा में हाथ लहराते हुए..."अबकी बार, ट्रम्प सरकार" का जब नारा लगाया तो यह भारत के प्रधानमंत्री की गरिमा के नितांत विरुद्ध होते हुए भी नरेंद्र मोदी के लिये स्वाभाविक ही था।

यद्यपि, भारत नामक देश ट्रम्प के नेतृत्व वाले अमेरिका से वास्तविक हितैषी होने की अगर उम्मीद करता है तो यह बेकार की उम्मीद ही साबित होगी। 

ह्यूस्टन का तमाशा दो देशों की नहीं, दो नाटकीयता पसंद, छद्म मुद्दों पर राजनीति करने वाले राजनेताओं की सार्वजनिक जुगलबंदी का एक उदाहरण मात्र है जिससे किसी सार्थक और सकारात्मक परिणाम की अपेक्षा करना बेमानी है।
https://www.facebook.com/hemant.kumarjha2/posts/2377500485691184




 ~विजय राजबली माथुर ©

Thursday, September 19, 2019

पूरे घटनाक्रम की पटकथा दिल्ली में लिखी गई थी ------ हेमंत शर्मा



http://epaper.navbharattimes.com/details/60713-77281-2.html


फैसले के 40 मिनट के अंदर खुल गया था ताला


विशुद्ध राजनीति
दास्तान
हेमंत शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार

क्या आपने कभी सुना है कि आजाद भारत में किसी अदालत के फैसले का पालन महज 40 मिनट के अंदर हो गया हो।  अयोध्या में 1 फरवरी 1986 को विवादित इमारत का ताला खोलने का आदेश फैजाबाद के जिला जज देते हैं और राज्य सरकार 40 मिनट के भीतर उसे लागू करा देती है। शाम 4.40 पर अदालत का फैसला आया और 5.20 पर विवादित इमारत का ताला खुल गया। अदालत में ताला खुलवाने की अर्जी लगाने वाले वकील उमेश चंद्र पांडे भी कहते हैं कि उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि सब कुछ इतनी जल्दी हो जाएगा। दूरदर्शन की टीम ताला खुलवाने की पूरी प्रक्रिया कवर करने के लिए वहां पहले से मौजूद थी। तब दूरदर्शन के अलावा देशभर में कोई और चैनल नहीं था। इस कार्रवाई को दूरदर्शन से उसी शाम पूरे देश में दिखाया गया। उस वक्त फैजाबाद में दूरदर्शन का केंद्र भी नहीं था। कैमरा टीम लखनऊ से गई थी। लखनऊ से फैजाबाद जाने में 3 घंटे लगते हैं यानी कैमरा टीम पहले से भेजी गई थी। 

दरअसल इस पूरे घटनाक्रम की पटकथा दिल्ली में लिखी गई थी, अयोध्या में तो सिर्फ किरदार थे। इतनी बड़ी योजना फैजाबाद में घट रही थी पर उत्तर प्रदेश सरकार को इसकी कोई भनक नहीं थी, सिवाय मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के, जिनसे कहा गया था कि वह अयोध्या को लेकर सीधे और सिर्फ अरुण नेहरू के संपर्क में रहें। मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद वीर बहादुर सिंह से मेरी इस मुद्दे पर लंबी चर्चा हुई थी। उनसे कहा गया था कि सरकार अदालत में कोई हलफनामा नहीं दे लेकिन फैजाबाद के कलेक्टर और सुपरिंटेंडेंट अदालत में हाजिर होकर कहें कि अगर ताला खुला तो प्रशासन को कोई एतराज नहीं होगा। वीर बहादुर सिंह ने बताया था कि फैजाबाद के कमिश्नर को दिल्ली से आदेश आ रहे थे। दिल्ली का कहना था, इस बात के सारे उपाय किये जाएं कि ताला खोलने की अर्जी मंजूर हो।



पक्षकार को नहीं सुना गया :

फैजाबाद के जिला जज कृष्ण मोहन पांडे ने ताला खोलने के फैसले का आधार जिला मजिस्ट्रेट आईपी पांडे और एसएसपी कर्मवीर की उस गवाही को बनाया, जिसमें दोनों ने एक स्वर में कहा था कि ताला खोलने से प्रशासन को कोई एतराज नहीं होगा, ना ही उससे कोई कानून व्यवस्था की समस्या पैदा होगी। इतनी विपरीत स्थितियों में जिला प्रशासन का यह रुख बिना शासन की मर्जी के तो हो ही नहीं सकता था। खास बात यह थी कि जिन उमेश चंद्र पांडे की अर्जी पर ताला खुला, वह बाबरी मुकदमे के पक्षकार भी नहीं थे। जो पक्षकार थे, उन्हें जज साहब ने सुना ही नहीं। दरअसल 28 जनवरी 1986 को फैजाबाद के मुंसिफ मजिस्ट्रेट हरिशंकर दुबे एक वकील उमेश चंद्र पांडे की राम जन्म भूमि का ताला खोलने की मांग करने वाली अर्जी को खारिज कर देते हैं। दो रोज बाद ही फैजाबाद के जिला जज की अदालत में पहले से चल रहे मुकदमा संख्या 2/1949 में उमेश चंद्र पांडे एक दूसरी अर्जी दाखिल करते हैं और जिला जज दूसरे ही रोज जिला कलेक्टर और पुलिस कप्तान को तलब कर उनसे प्रशासन का पक्ष पूछते हैं। हलफनामा देने के बजाय दोनों अफसरों ने मौखिक रूप से कहा कि ताला खोलने से कोई गड़बड़ नहीं होगी। दरअसल यह फैसला केंद्र सरकार का था, जिसे राज्य और जिला प्रशासन लागू करा रहे थे। दोनों अफसरों के इस बयान से जज को फैसला लेने में आसानी हुई। 

बाबरी मस्जिद पर मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील मुस्ताक अहमद सिद्दीकी ने इस अर्जी पर अदालत से अपनी बात रखने की पेशकश की। जज ने कहा कि उन्हें सुना जाएगा पर उन्हें बिना सुने ही शाम 4.40 पर जज साहब फैसला सुना देते हैं। इस फैसले में कहा गया कि ‘अपील की इजाजत दी जाती है। प्रतिवादियों को गेट संख्या ओ और पी पर लगे ताले खोलने का निर्देश दिया जाता है। प्रतिवादी आवेदक और उसके समुदाय को दर्शन और पूजा में कोई अड़चन-बाधा नहीं डालेंगे।’ जिला जज के इस फैसले के बाद उनकी सुरक्षा बढ़ा दी जाती है। फिर 40 मिनट के अंदर ही पुलिस की मौजदगी में ताला तोड़ दिया जाता है और अंदर पूजा-पाठ कीर्तन शुरू हो जाता है।



वह दैवी ताकत

जिला जज कृष्ण मोहन पांडे 1991 में छपी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, ‘जिस रोज मैं ताला खोलने का आदेश लिख रहा था, मेरी अदालत की छत पर एक काला बंदर पूरे दिन फ्लैगपोस्ट को पकड़ कर बैठा रहा। वे लोग जो फैसला सुनने के लिए अदालत आए थे, उस बंदर को फल और मूंगफली देते रहे पर बंदर ने कुछ नहीं खाया। चुपचाप बैठा रहा। मेरे आदेश सुनाने के बाद ही वहां से गया। फैसले के बाद जब डीएम और एसएसपी मुझे मेरे घर पहुंचाने आए तो मैंने उस बंदर को अपने घर के बरामदे में बैठा पाया। मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने उसे प्रणाम किया। वह कोई दैवी ताकत थी।’

इस फैसले के बाद उन्हें कम महत्व के स्टेट ट्रांसपोर्ट अपील प्राधिकरण का चेयरमैन बना दिया गया। जब उन्हें हाई कोर्ट में जज बनाने की बात चली तो वीपी सिंह की सरकार ने फच्चर फंसा दिया। उनकी फाइल में प्रतिकूल टिप्पणी कर दी गई। मुलायम सिंह यादव ने भी उनके हाईकोर्ट जज बनने का विरोध किया। इसके बाद चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने और उनकी सरकार में कानून मंत्री बने डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी। चंद्रशेखर सरकार ने पांडेय के जज बनने की फाइल फिर खोली। आखिकार उन्होंने मुलायम सिंह यादव को मना लिया। इसके बाद 24 जनवरी 1991 को केएम पांडेय को इलाहाबाद हाईकोर्ट का जज बनाया गया लेकिन एक महीने के भीतर उनका ट्रांसफर मध्यप्रदेश हाईकोर्ट कर दिया गया। जबलपुर से ही 28 मार्च 1994 को केएम पांडेय रिटायर हो गए।


(हेमंत शर्मा की पुस्तक ‘युद्ध में अयोध्या’ से साभार)

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 ~विजय राजबली माथुर ©

Saturday, September 14, 2019

लोकतंत्र तभी तक फल-फूल सकता है, जब तक ख़बरों में सच्चाई हो ------ रवीश कुमार







नई दिल्ली: हिंदी पत्रकारिता के लिए गौरव का दिन है. आज फिलीपीन्स की राजधानी मनीला में एनडीटीवी इंडिया के रवीश कुमार को रेमॉन मैगसेसे सम्मान प्रदान किया गया है. उनको सम्मान देने वालों ने माना है कि रवीश कुमार उन लोगों की आवाज़ बनते हैं जिनकी आवाज़ कोई और नहीं सुनता. पिछले दो दशकों में एनडीटीवी में अलग-अलग भूमिकाओं में और अलग-अलग कार्यक्रमों के ज़रिए रवीश कुमार ने पत्रकारिता के नए मानक बनाए हैं. एक दौर में रवीश की रिपोर्ट देश की सबसे मार्मिक टीवी पत्रकारिता का हिस्सा बनता रहा. बाद में प्राइम टाइम की उनकी बहसें अपने जन सरोकारों के लिए जानी गईं. और जब सत्ता ने उनके कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया तो रवीश ने जैसे प्राइम टाइम को ही नहीं, टीवी पत्रकारिता को ही नई परिभाषा दे डाली. सरकारी नौकरियों और इम्तिहानों के बहुत मामूली समझे जाने वाले मुद्दों को, शिक्षा और विश्वविद्यालयों के उपेक्षित परिसरों को उन्होंने प्राइम टाइम में लिया और लाखों-लाख छात्रों और नौजवानों की नई उम्मीद बन बैठे. जिस दौर में पूरी की पूरी टीवी पत्रकारिता तमाशे में बदल गई है- राष्ट्रवादी उन्माद के सामूहिक कोरस का नाम हो गई है, उस दौर में रवीश की शांत-संयत आवाज़ हिंदी पत्रकारिता को उनकी गरिमा लौटाती रही है. मनीला में रेमॉन मैगसेसे सम्मान से पहले अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा कि अब लोकतंत्र को नागरिक पत्रकार की बचाएंगे और वे ख़ुद ऐसे ही नागरिक पत्रकार की भूमिका में हैं.

Ramon Magsaysay Award लेने के बाद रवीश कुमार ने कहीं 10 बड़ी बातें   : 
1-जब से रमोन मैगसेसे पुरस्कार की घोषणा हुई है मेरे आस पास की दुनिया बदल गई है। जब से मनीला आया हूँ आप सभी के सत्कार ने मेरा दिल जीत लिया है. आपका सत्कार आपके सम्मान से भी ऊँचा है. आपने पहले घर बुलाया, मेहमान से परिवार का बनाया और तब आज सम्मान के लिए सब जमा हुए हैं.
2-आमतौर पर पुरस्कार के दिन देने वाले और लेने वाले मिलते हैं और फिर दोनों कभी नहीं मिलते हैं. आपके यहां ऐसा नहीं है. आपने इस अहसास से भर दिया है कि ज़रूर कुछ अच्छा किया होगा तभी आपने चुना है. वर्ना हम सब सामान्य लोग हैं. आपके प्यार ने मुझे पहले से ज्यादा ज़िम्मेदार और विनम्र बना दिया है. 
3-हर जंग जीतने के लिए नहीं लड़ी जाती, कुछ जंग सिर्फ इसलिए लड़ी जाती हैं, ताकि दुनिया को बताया जा सके, कोई है, जो लड़ रहा है.  रवीश कुमार ने कहा कि दुनिया असमानता को हेल्थ और इकोनॉमिक आधार पर मापती है, मगर वक्त आ गया है कि हम ज्ञान असमानता को भी मापें. 
4-आज जब अच्छी शिक्षा खास शहरों तक सिमटकर रह गई है, हम सोच भी नहीं सकते कि कस्बों और गांवों में ज्ञान असमानता के क्या ख़तरनाक नतीजे हो रहे हैं. ज़ाहिर है, उनके लिए व्हॉट्सऐप यूनिवर्सिटी का प्रोपेगंडा ही ज्ञान का स्रोत है. युवाओं को बेहतर शिक्षा नहीं पाने दी गई है, इसलिए हम उन्हें पूरी तरह दोष नहीं दे सकते. 
इस संदर्भ में मीडिया के संकट को समझना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है. अगर मीडिया भी व्हॉट्सऐप यूनिवर्सिटी का काम करने लगे, तब समाज पर कितना बुरा असर पड़ेगा.
5-अच्छी बात है कि भारत के लोग समझने लगे हैं. तभी मुझे आ रही बधाइयों में बधाई के अलावा मीडिया के 'उद्दंड' हो जाने पर भी चिंताएं भरी हुई हैं. इसलिए मैं खुद के लिए तो बहुत ख़ुश हूं, लेकिन जिस पेशे की दुनिया से आता हूं, उसकी हालत उदास भी करती है.
6-क्या हम समाचार रिपोर्टिंग की पवित्रता को बहाल कर सकते हैं. मुझे भरोसा है कि दर्शक रिपोर्टिंग में सच्चाई, अलग-अलग प्लेटफॉर्मों और आवाज़ों की भिन्नता को महत्व देंगे. लोकतंत्र तभी तक फल-फूल सकता है, जब तक ख़बरों में सच्चाई हो. 
7-मैं रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार स्वीकार करता हूं. इसलिए कि यह पुरस्कार मुझे नहीं, हिन्दी के तमाम पाठकों और दर्शकों को मिल रहा है, जिनके इलाक़े में ज्ञान असमानता ज्यादा गहरी है, इसके बाद भी उनके भीतर अच्छी सूचना और शिक्षा की भूख काफी गहरी है. 
8 -बहुत से युवा पत्रकार इसे गंभीरता से देख रहे हैं. वे पत्रकारिता के उस मतलब को बदल देंगे, जो आज हो गया है. मुमकिन है, वे लड़ाई हार जाएं, लेकिन लड़ने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं है. हमेशा जीतने के लिए ही नहीं, यह बताने के लिए भी लड़ा जाता है कि कोई था, जो मैदान में उतरा था.
 9--भारत का मीडिया संकट में है और यह संकट ढांचागत है, अचानक नहीं हुआ है, रैन्डम भी नहीं है. पत्रकार होना अब व्यक्तिगत प्रयास हो गया है, क्योंकि समाचार संगठन और उनके कॉरपोरेट एक्ज़ीक्यूटिव अब ऐसे पत्रकारों को नौकरियां छोड़ देने के लिए मजबूर कर रहे हैं, जो समझौता नहीं करते. फिर भी यह देखना हौसला देता है कि ऐसे और भी हैं, जो जान और नौकरी की परवाह किए बिना पत्रकारिता कर रहे हैं.
10-फ्रीलांस पत्रकारिता से ही जीवनयापन कर रही कई महिला पत्रकार अपनी आवाज़ उठा रही हैं. जब कश्मीर में इंटरनेट शटडाउन किया गया, पूरा मीडिया सरकार के साथ चला गया, लेकिन कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने सच दिखाने की हिम्मत की, और ट्रोलों की फौज का सामना किया. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि संगठनों और उनके नेताओं से कब सवाल किए जाएंगे?

https://khabar.ndtv.com/news/india/ravish-kumar-after-receiving-ramon-magsaysay-award-2098016?browserpush=true



Pawan Karan
3 hrs(14-09-2019 )
नमस्कार! मैं रवीश कुमार......शंभूनाथ शुक्ल !

मैंने रवीश कुमार के साथ कई बार लंबी बैठकें कीं और उनसे कोई ‘क्रांतिकारी’ चर्चा करने की बजाय इस व्यक्ति को करीब से देखने और समझने का प्रयास किया। गाजियाबाद के वैशाली इलाक़े में स्थित एक अपार्टमेंट के ग्यारहवें माले के जिस फ़्लैट में वे रहते हैं, वह असाधारण सिर्फ इस मामले में है कि चारों तरफ पुस्तकें ही पुस्तकें दिखती हैं। अलमारी में भी और टेबल पर भी। टीवी पर सूट-टाई में दिखने वाले रवीश घर में सिर्फ टी-शर्ट और लोअर में ही मिले। चाहे सुबह हो या शाम। और इतना सहज अंदाज़ कि उनके घर में हर एक का स्वागत है, चाहे कोई बिल्डिंग में काम करने वाला मजदूर, उनके घर आकर एक गिलास पानी की डिमांड करे या कोई लंबी कार से आया आदमी उनके साथ सेल्फी खिंचवाने को आतुर दिखे। हर एक को वे अपने ड्राइंग रूम में पड़े सोफे पर प्यार से बिठाते हैं, भले वह वह अपने गंदे जूतों से बिछी कालीन को धूल-धूसरित करता रहे। चूंकि उनकी पत्नी बंगाली हैं और बंगाली घरों में प्रवेश करने के पूर्व जूते देहरी पर ही उतारने का चलन है, इसलिए मैं तो जब भी उनके घर जाता हूँ, जूते उतार कर ही घुसता हूँ। यह एक बंग गृहणी की संस्कृति का सम्मान है।

जब भी मैं गया रवीश अपनी छोटी बिटिया से खेलते मिले। और उसकी तर्कबुद्धि से परास्त होते भी। उनकी सारी गम्भीरता और वाक-पटुता इस पांच या छह साल की बच्ची के आगे गायब हो जाती है। पर बच्ची है बड़ी खिलंदड़ी और कुशाग्र। उनके ड्राइंग रूम का बड़ा-सा एलईडी टीवी दिखावटी है। रवीश का कहना है कि वे कभी टीवी नहीं खोलते। बस पढ़ते हैं या अपनी बिटिया की शंकाओं का समाधान करते हैं। इसी ड्राइंग रूम में एक म्यूजिक सिस्टम है, जिसमें से मद्धम आवाज़ में सुर-लहरियां निकला करती हैं। वे बैठे बात कर रहे थे कि अचानक इंटरकाम पर बेल बजी। रवीश ने खुद जाकर फोन उठाया। नीचे आया बंदा रवीश को अपनी भतीजी की शादी में बुलाना चाहता था, और इसी वास्ते वह उन्हें न्योता देने आया था। रवीश ने उसे ऊपर बुला लिया। उसने कार्ड दिया और कहा भाई को बता देता हूँ, लेकिन फोन मिला नहीं तो रवीश के साथ सेल्फी लेकर उसे व्हाट्सएप पर भाई को भेज दी। रवीश से मिलकर वह अभिभूत था। रवीश ने उसको बचन दिया कि आएँगे। उसके जाने के बाद मैंने पूछा कि कौन था, तो रवीश ने बताया कि एसी की सफाई करता है। रवीश की यही सहजता मन को छूती है। इतना ख्यातनाम पत्रकार कि हारवर्ड यूनिवर्सिटी के छात्र जिसे सुनने के लिए बुलाते हैं, जिसे विश्व विश्व का प्रख्यात रेमन मैग्सेसे पुरस्कार मिला है। वह व्यक्ति एसी साफ़ करने वाले की भतीजी की शादी में जाने को तैयार है।

‘एक डरा हुआ पत्रकार एक डरा हुआ नागरिक पैदा करता है’ का स्लोगन देने वाले रवीश उन सारे डरे हुए लोगों के साथ हैं, जो अपना डर बाहर निकालना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि लोग उन्हें अपना डर बताएं, वे उन्हें प्लेटफ़ॉर्म देंगे। मालूम हो कि उनका अपना ब्लॉग ही इतना लोकप्रिय है कि वह देश में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लॉग है। और उनका प्राइम टाइम सबसे ज्यादा देखा जाने वाला शो।

एक पत्रकार का आकलन उसकी लेखन-शैली या प्रस्तुतीकरण के कौशल से नहीं होता। उसका आकलन उसके द्वारा उठाये गए सवालों और मुद्दों से होता है। पत्रकार का अपने समय के सरोकारों और उन पर तत्कालीन सरकार के रवैये की समीक्षा करना, ज्यादा बड़ा कर्म है। वह कैसा लिखता है, या किस तरह चीजों को पेश करता है, यह उसकी व्यावसायिक कुशलता है। लेकिन प्राथमिकता नहीं। रवीश कुमार में यही खूबी, उन्हें आज के तमाम पत्रकारों से अलग करती है। रवीश कुमार के प्रोफेशनलिज्म में सिर्फ कौशल ही नहीं एकेडेमिक्स का भी योगदान है। रवीश की नजर तीक्ष्ण है और उनका टारगेट रहा है कि आजादी के बाद शहरीकरण ने किस तरह कुछ लोगों को सदा-सदा के लिए पीछे छोड़ दिया है, उनकी व्यथा को दिखाना। रवीश कुमार की यह प्रतिबद्घता उन्हें कहीं न कहीं आज के चालू पत्रकारिता के मानकों से अलग करती है। जब पत्रकारिता के मायने सिर्फ चटख-मटक दुनिया को दिखाना और उसके लिए चिंता व्यक्त करना हो गया हो तब रवीश उस दुनिया के स्याह रंग की फिक्र करते हैं। आज स्थिति यह है, कि जब भी मैं किसी पत्रकारिता संस्थान में जाता हूँ, और वहाँ के छात्रों से पूछता हूँ, कि कोर्स पूरा क्या बनना चाहते हो, तो उनका जवाब होता है, टीवी एंकर या टीवी रिपोर्टर। कोई भी अखबार में नहीं जाना चाहता। क्योंकि टीवी में चकाचौंध है, जगमगाहट है और नाम है। लेकिन इसके विपरीत अखबार में निल बटा सन्नाटा! हर उभरते पत्रकार की मंजिल होती है, रवीश कुमार बन जाना। लेकिन कोई भी रवीश की तरह पढ़ना नहीं चाहता। रवीश की तरह अपने को रोज़मर्रा की घटनाओं से जोड़ना नहीं चाहता, रवीश की तरह वह विश्लेषण नहीं करना चाहता। मगर वह बनना रवीश चाहता है।

बिहार के मोतिहारी ज़िले के गाँव जीतवार पुर के रवीश की शुरुआती शिक्षा पटना के लोयला स्कूल में हुई। फिर वहीं के बीएन कालेज से इंटर साइंस से किया। दिल्ली आए और देशबंधु कालेज से बीए किया। हिस्ट्री में एमए करने के लिए किरोड़ीमल कालेज में दाखिला लिया। एम.फिल, को बीच में ही छोड़ कर भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) से पत्रकारिता की पढ़ाई की। कुछ दिनों तक उन्होंने जनसत्ता के लिए फ्री-लांसिंग की। तब मंगलेश डबराल जनसत्ता के रविवारीय संस्करण के संपादक थे। मंगलेश जी इसी ‘रविवारी जनसत्ता’ के लिए उन्हें स्टोरी असाइन करते, और वे उसे लिख लाते। इसके बाद जब वो एनडीटीवी में गए, तो जाते ही एंकरिंग करने को नहीं मिली। बल्कि उनका काम था सुबह के शो “गुड मॉर्निंग इंडिया” के लिए चिट्ठियाँ छांटना। इस काम के बदले उन्हें पहले सौ रुपए रोज़ मिलते थे, जो बाद में बढ़ा कर डेढ़ सौ कर दिये गए। इस शो के दर्शक देश भर से चिट्ठियाँ भेजते थे। वे चिट्ठियाँ बोरों में भर कर आतीं, जिन्हें रवीश छांटते। इसके बाद वहीं पर अनुवादक हुए। फिर रिसर्च में लगाया गया। इसके बाद रिपोर्टर और तब एंकर। आज वे एनडीटीवी में संपादक हैं। और उनका शो “प्राइम टाइम” अकेला ऐसा शो है, जिसे देखने और समझने के लिए लोगों ने हिन्दी सीखी।

जन-सरोकारों के उनके सवालों से कुढ़े कुछ लोग उनको मोदी विरोध या मोदी समर्थन के खाँचे में रख कर यह घोषणा कर देते हैं, कि वे मोदी विरोधी हैं, और इसीलिए उन्हें यह मैग्सेसे सम्मान मिला है। मुझे लगता है, कि ऐसे लोग धूर्त हैं। रवीश तब भी ऐसी ही रिपोर्टिंग करते थे, जब देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह थे। रवीश ने हर सरकार के कामकाज की समीक्षा की है। मेरा स्पष्ट मानना है, कि मोदी से न उनकी विरक्ति है न आसक्ति। जितना मैं उन्हें जानता हूँ, निजी बातचीत में कभी भी उन्होंने मोदी के प्रति घृणा या अनुराग का प्रदर्शन नहीं किया न कभी कांग्रेस का गुणगान किया। वे एक सच्चे और ईमानदार तथा जन सरोकारों से जुड़े पत्रकार हैं। कुछ उन्हें जबरिया एक जाति-विशेष के खाने में फ़िट कर देते हैं। उनका नाम रवीश कुमार पांडे बता कर उनके भाई पर लगे आरोपों का ताना मारने लगते हैं। पर जितना मुझे पता है, मैं अच्छी तरह जानता हूँ, कि उनके भाई ब्रजेश पांडेय अपनी ईमानदारी और कर्मठता के बूते ही बिहार कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने थे। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में टिकटों के वितरण के वक़्त कुछ लोग उनसे फ़ेवर चाहते थे, लेकिन उन्होंने कोई सिफ़ारिश नहीं सुनी, पैसा नहीं लिया। इसलिए उनके विरुद्ध कांग्रेस और राजद वालों ने ही षड्यंत्र किया था। बाद में भाजपा के लोगों ने तिल का ताड़ बना दिया। ब्रजेश जी की बेटी की शादी रुक गई। उन्हें बिहार में कोई वकील नहीं मिला। सच तो यह है, कि रवीश गणेश शंकर विद्यार्थी की परंपरा के पत्रकार हैं। उन्हें बधाई दीजिये।
https://www.facebook.com/pawan.karan.5/posts/2739756816035716

  ~विजय राजबली माथुर ©

Saturday, September 7, 2019

रेमन मैगसेसे अवॉर्ड में रवीश कुमार का भाषण ------ पवन करण




https://khabar.ndtv.com/video/show/news/i-am-for-all-people-of-india-made-me-what-i-am-ravish-kumar-in-magsaysay-speech-526333
Pawan Karan
06-09-2019 
नमस्कार, भारत चांद पर पहुंचने वाला है. गौरव के इस क्षण में मेरी नज़र चांद पर भी है और ज़मीन पर भी, जहां चांद से भी ज़्यादा गहरे गड्ढे हैं. दुनियाभर में सूरज की आग में जलते लोकतंत्र को चांद की ठंडक चाहिए. यह ठंडक आएगी सूचनाओं की पवित्रता और साहसिकता से, न कि नेताओं की ऊंची आवाज़ से. सूचना जितनी पवित्र होगी, नागरिकों के बीच भरोसा उतना ही गहरा होगा. देश सही सूचनाओं से बनता है. फेक न्यूज़, प्रोपेगंडा और झूठे इतिहास से भीड़ बनती है. रैमॉन मैगसेसे फाउंडेशन का शुक्रिया, मुझे हिन्दी में बोलने का मौका दिया, वरना मेरी मां समझ ही नहीं पातीं, कि क्या बोल रहा हूं. आपके पास अंग्रेज़ी में अनुवाद है और यहां सब-टाइटल हैं.

दो महीने पहले जब मैं ‘Prime Time’ की तैयारी में डूबा था, तभी सेलफोन पर फोन आया. कॉलर आईडी पर फिलीपीन्स फ्लैश कर रहा था. मुझे लगा कि किसी ट्रोल ने फोन किया है. यहां के नंबर से मुझे बहुत ट्रोल किया जाता है. अगर वाकई वे सारे ट्रोल यहीं रहते हैं, तो उनका भी स्वागत है, मैं आ गया हूं.


ख़ैर, फिलीपीन्स के नंबर को उठाने से पहले अपने सहयोगियों से कहा कि ट्रोल की भाषा सुनाता हूं. मैंने फोन को स्पीकर फोन पर ऑन किया, लेकिन अच्छी-सी अंग्रेज़ी में एक महिला की आवाज़ थी, “May I please speak to Mr Ravish Kumar…?” हज़ारों ट्रोल में एक भी महिला की आवाज़ नहीं थी. मैंने फोन को स्पीकर फोन से हटा लिया. उस तरफ से आ रही आवाज़ मुझसे पूछ रही थी कि मुझे इस साल का रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार दिया जा रहा है. मैं नहीं आया हूं, मेरी साथ पूरी हिन्दी पत्रकारिता आई है, जिसकी हालत इन दिनों बहुत शर्मनाक है. गणेश शंकर विद्यार्थी और पीर मूनिस मोहम्मद की साहस वाली पत्रकारिता आज डरी-डरी-सी है. उसमें कोई दम नहीं है. अब मैं अपने विषय पर आता हूं.


नागरिक पत्रकारिता..

यह समय नागरिक होने के इम्तिहान का है. नागरिकता को फिर से समझने का है और उसके लिए लड़ने का है. यह जानते हुए कि इस समय में नागरिकता पर चौतरफा हमला हो रहे हैं और सत्ता की निगरानी बढ़ती जा रही है, एक व्यक्ति और एक समूह के तौर पर जो इस हमले से ख़ुद को बचा लेगा और इस लड़ाई में मांज लेगा, वही नागरिक भविष्य के बेहतर समाज और सरकार की नई बुनियाद रखेगा. दुनिया ऐसे नागरिकों की ज़िद से भरी हुई है. नफ़रत के माहौल और सूचनाओं के सूखे में कोई है, जो इस रेगिस्तान में कैक्टस के फूल की तरह खिला हुआ है. रेत में खड़ा पेड़ कभी यह नहीं सोचता कि उसके यहां होने का क्या मतलब है, वह दूसरों के लिए खड़ा होता है, ताकि पता चले कि रेत में भी हरियाली होती है. जहां कहीं भी लोकतंत्र हरे-भरे मैदान से रेगिस्तान में सबवर्ट किया जा रहा है, वहां आज नागरिक होने और सूचना पर उसके अधिकारी होने की लड़ाई थोड़ी मुश्किल ज़रूर हो गई है. मगर असंभव नहीं है.

नागरिकता के लिए ज़रूरी है कि सूचनाओं की स्वतंत्रता और प्रामाणिकता हो. आज स्टेट का मीडिया और उसके बिज़नेस पर पूरा कंट्रोल हो चुका है. मीडिया पर कंट्रोल का मतलब है, आपकी नागरिकता का दायरा छोटा हो जाना. मीडिया अब सर्वेलान्स स्टेट का पार्ट है. वह अब फोर्थ एस्टेट नहीं है, बल्कि फर्स्ट एस्टेट है. प्राइवेट मीडिया और गर्वनमेंट मीडिया का अंतर मिट गया है. इसका काम ओपिनियन को डायवर्सिफाई नहीं करना है, बल्कि कंट्रोल करना है. ऐसा भारत सहित दुनिया के कई देशों में हो रहा है.


न्यूज़ चैनलों की डिबेट की भाषा लगातार लोगों को राष्ट्रवाद के दायरे से बाहर निकालती रहती है. इतिहास और सामूहिक स्मृतियों को हटाकर उनकी जगह एक पार्टी का राष्ट्र और इतिहास लोगों पर थोपा जा रहा है. मीडिया की भाषा में दो तरह के नागरिक हैं – एक, नेशनल और दूसरा, एन्टी-नेशनल. एन्टी नेशनल वह है, जो सवाल करता है, असहमति रखता है. असहमति लोकतंत्र और नागरिकता की आत्मा है. उस आत्मा पर रोज़ हमला होता है. जब नागरिकता ख़तरे में हो या उसका मतलब ही बदल दिया जाए, तब उस नागरिक की पत्रकारिता कैसी होगी. नागरिक तो दोनों हैं. जो ख़ुद को नेशनल कहता है, और जो एन्टी-नेशनल कहा जाता है.


दुनिया के कई देशों में यह स्टेट सिस्टम, जिसमें न्यायपालिका भी शामिल है, और लोगों के बीच लेजिटिमाइज़ हो चुका है. फिर भी हम कश्मीर और हांगकांग के उदाहरण से समझ सकते हैं कि लोगों के बीच लोकतंत्र और नागरिकता की क्लासिक समझ अभी भी बची हुई है और वे उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं. आख़िर क्यों हांगकांग में लोकतंत्र के लिए लड़ने वाले लाखों लोगों का सोशल मीडिया पर विश्वास नहीं रहा. उन्हें उस भाषा पर भी विश्वास नहीं रहा, जिसे सरकारें जानती हैं. इसलिए उन्होंने अपनी नई भाषा गढ़ी और उसमें आंदोलन की रणनीति को कम्युनिकेट किया. यह नागरिक होने की रचनात्मक लड़ाई है. हांगकांग के नागरिक अपने अधिकारों को बचाने के लिए उन जगहों के समानांतर नई जगह पैदा कर रहे हैं, जहां लाखों लोग नए तरीके से बात करते हैं, नए तरीके से लड़ते हैं और पल भर में जमा हो जाते हैं. अपना ऐप बना लिया और मेट्रो के इलेक्ट्रॉनिक टिकट ख़रीदने की रणनीति बदल ली. फोन के सिमकार्ड का इस्तेमाल बदल लिया. कंट्रोल के इन सामानों को नागरिकों ने कबाड़ में बदल दिया. यह प्रोसेस बता रहा है कि स्टेट ने नागरिकता की लड़ाई अभी पूरी तरह नहीं जीती है. हांगकांग के लोग सूचना संसार के आधिकारिक नेटवर्क से ख़ुद ही अलग हो गए.


कश्मीर में दूसरी कहानी है. वहां कई दिनों के लिए सूचना तंत्र बंद कर दिया गया. एक करोड़ से अधिक की आबादी को सरकार ने सूचना संसार से अलग कर दिया. इंटरनेट शटडाउन हो गया. मोबाइल फोन बंद हो गए. सरकार के अधिकारी प्रेस का काम करने लगे और प्रेस के लोग सरकार का काम करने लग गए. क्या आप बग़ैर कम्युनिकेशन और इन्फॉरमेशन के सिटिज़न की कल्पना कर सकते हैं…? क्या होगा, जब मीडिया, जिसका काम सूचना जुटाना है, सूचना के तमाम नेटवर्क के बंद होने का समर्थन करने लगे, और वह उस सिटिज़न के खिलाफ हो जाए, जो अपने स्तर पर सूचना ला रहा है या ला रही है या सूचना की मांग कर रहा है.


यह उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत के सारे पड़ोसी प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में निचले पायदान पर हैं. पाकिस्तान, चीन, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और भारत. नीचे की रैंकिंग में भी ये पड़ोसी हैं. पाकिस्तान में एक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी है, जो अपने न्यूज़ चैनलों को निर्देश देता है कि कश्मीर पर किस तरह से प्रोपेगंडा करना है. कैसे रिपोर्टिंग करनी है. इसे वैसे तो सरकारी भाषा में सलाह कहते हैं, मगर होता यह निर्देश ही है. बताया जाता है कि कैसे 15 अगस्त के दिन स्क्रीन को खाली रखना है, ताकि वे कश्मीर के समर्थन में काला दिवस मना सकें. जिसकी समस्या का पाकिस्तान भी एक बड़ा कारण है.


दूसरी तरफ, जब ‘कश्मीर टाइम्स’ की अनुराधा भसीन भारत के सुप्रीम कोर्ट जाती हैं, तो उनके खिलाफ प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया कोर्ट चला जाता है. यह कहने कि कश्मीर घाटी में मीडिया पर लगे बैन का वह समर्थन करता है. मेरी राय में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और पाकिस्तान के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया रेगुलेटरी अथॉरिटी का दफ्तर एक ही बिल्डिंग में होना चाहिए. गनीमत है कि एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने कश्मीर में मीडिया पर लगी रोक की निंदा की और प्रेस कांउंसिल ऑफ इंडिया की भी आलोचना की. पी.सी.आई. बाद में स्वतंत्रता के साथ हो गया. दोनों देशों के नागरिकों को सोचना चाहिए, लोकतंत्र एक सीरियस बिज़नेस है. प्रोपेगंडा के ज़रिये क्या वह एक दूसरे में भरोसा पैदा कर पाएंगे…? होली नहीं है कि इधर से गुब्बारा मारा, तो उधर से गुब्बारा मार दिया. वैसे, भारत के न्यूज़ चैनल परमाणु हमले के समय बचने की तैयारी का लेक्चर दे रहे हैं. बता रहे हैं कि परमाणु हमले के वक्त बेसमेंट में छिप जाएं. आप हंसें नहीं. वे अपना काम काफी सीरियसली कर रहे हैं.


अब आप इस संदर्भ में आज के विषय के टॉपिक को फ्रेम कीजिए. यह तो वही मीडिया है, जिसने अपने खर्चे में कटौती के लिए ‘सिटिज़न जर्नलिज़्म’ को गढ़ना शुरू किया था. इसके ज़रिये मीडिया ने अपने रिस्क को आउटसोर्स कर दिया. मेनस्ट्रीम मीडिया के भीतर सिटिज़न जर्नलिज़्म और मेनस्ट्रीम मीडिया के बाहर के सिटिज़न जर्नलिज़्म दोनों अलग चीज़ें हैं. लेकिन जब सोशल मीडिया के शुरुआती दौर में लोग सवाल करने लगे, तो यही मीडिया सोशल मीडिया के खिलाफ हो गया. न्यूज़रूम के भीतर ब्लॉग और वेबसाइट बंद किए जाने लगे. आज भी कई सारे न्यूज़रूम में पत्रकारों को पर्सनल ओपिनियन लिखने की अनुमति नहीं है. यह अलग बात है कि उसी दौरान बगदाद बर्निंग ब्लॉग के ज़रिये 24 साल की छात्रा रिवरबेंड (असल नाम सार्वजनिक नहीं किया गया) की इराक पर हुए हमले, युद्ध और तबाही की रोज की स्थिति ब्लॉग पोस्ट की शक्ल में आ रही थी और जिसे साल 2005 में ‘Baghdad Burning: Girl Blog from Iraq’ शीर्षक से किताब की शक्ल में पेश किया गया, तो दुनिया के प्रमुख मीडिया संस्थानों ने माना कि जो काम सोशल मीडिया के ज़रिये एक लड़की ने किया, वह हमारे पत्रकार भी नहीं कर पाते. यह सिटिजन ज़र्नलिज़्म है, जो मेनस्ट्रीम मीडिया के बाहर हुआ.


आज कोई लड़की कश्मीर में ‘बगदाद बर्निंग’ की तरह ब्लॉग लिख दे, तो मेनस्ट्रीम मीडिया उसे एन्टी-नेशनल बताने लगेगा. मीडिया लगातार सिटिज़न जर्नलिज़्म के स्पेस को एन्टी-नेशनल के नाम पर डि-लेजिटिमाइज़ करने लगा है, क्योंकि उसका इंटरेस्ट अब जर्नलिज़्म में नहीं है. ज़र्नलिज़्म के नाम पर मीडिया स्टेट का कम्प्राडोर है, एजेंट है. मेरे ख़्याल से सिटिज़न ज़र्नलिज़्म की कल्पना का बीज इसी वक्त के लिए है, जब मीडिया या मेनस्ट्रीम जर्नलिज़्म सूचना के खिलाफ हो जाए. उसे हर वह आदमी देश के खिलाफ नज़र आने लगे, जो सूचना पाने के लिए संघर्ष कर रहा होता है. मेनस्ट्रीम मीडिया नागरिकों को सूचना से वंचित करने लगे. असमहति की आवाज़ को गद्दार कहने लगे. इसीलिए यह टेस्टिंग टाइम है.


जब मीडिया ही सिटिज़न के खिलाफ हो जाए, तो फिर सिटिज़न को मीडिया बनना ही पड़ेगा. यह जानते हुए कि स्टेट कंट्रोल के इस दौर में सिटिज़न और सिटिज़न जर्नलिज़्म दोनों के ख़तरे बहुत बड़े हैं और सफ़लता बहुत दूर नज़र आती है. उसके लिए स्टेट के भीतर से इन्फॉरमेशन हासिल करने के दरवाज़े पूरी तरह बंद हैं. मेनस्ट्रीम मीडिया सिटिज़न जर्नलिज़्म में कॉस्ट कटिंग और प्रॉफिट का स्कोप बनाना चाहता है और इसके लिए उसका सरकार का PR होना ज़रूरी है. सिटिज़न जर्नलिज़्म संघर्ष कर रहा है कि कैसे वह जनता के सपोर्ट पर सरकार और विज्ञापन के जाल से बाहर रह सके.


भारत का मेनस्ट्रीम मीडिया पढ़े-लिखे नागरिकों को दिन-रात पोस्ट-इलिटरेट करने में लगा है. वह अंधविश्वास से घिरे नागरिकों को सचेत और समर्थ नागरिक बनाने का प्रयास छोड़ चुका है. अंध-राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता उसके सिलेबस का हिस्सा हैं.


यह स्टेट के नैरेटिव को पवित्र-सूचना (प्योर इन्फॉरमेशन) मानने लगा है. अगर आप इस मीडिया के ज़रिये किसी डेमोक्रेसी को समझने का प्रयास करेंगे, तो यह एक ऐसे लोकतंत्र की तस्वीर बनाता है, जहां सारी सूचनाओं का रंग एक है. यह रंग सत्ता के रंग से मेल खाता है. कई सौ चैनल हैं, मगर सारे चैनलों पर एक ही अंदाज़ में एक ही प्रकार की सूचना है. एक तरह से सवाल फ्रेम किए जा रहे हैं, ताकि सूचना के नाम पर धारणा फैलाई जा सके. इन्फॉरमेशन में धारणा ही सूचना है. (perception is the new information), जिसमें हर दिन नागरिकों को डराया जाता है, उनके बीच असुरक्षा पैदा की जाती है कि बोलने पर आपके अधिकार ले लिए जाएंगे. इस मीडिया के लिए विपक्ष एक गंदा शब्द है.


जब मेनस्ट्रीम मीडिया में विपक्ष और असहमति गाली बन जाए, तब असली संकट नागरिक पर ही आता है. दुर्भाग्य से इस काम में न्यूज़ चैनलों की आवाज़ सबसे कर्कश और ऊंची है. एंकर अब बोलता नहीं है, चीखता है.


भारत में बहुत कुछ शानदार है, एक महान देश है, उसकी उपलब्धियां आज भी दुनिया के सामने नज़ीर हैं, लेकिन इसके मेनस्ट्रीम और TV मीडिया का ज़्यादतर हिस्सा गटर हो गया है. भारत के नागरिकों में लोकतंत्र का जज़्बा बहुत ख़ूब है, लेकिन न्यूज़ चैनलों का मीडिया उस जज़्बे को हर रात कुचलने आ जाता है. भारत में शाम तो सूरज डूबने से होती है, लेकिन रात का अंधेरा न्यूज चैनलों पर प्रसारित ख़बरों से फैलता है.


भारत में लोगों के बीच लोकतंत्र ख़ूब ज़िंदा है. हर दिन सरकार के खिलाफ ज़ोरदार प्रदर्शन हो रहे हैं, मगर मीडिया अब इन प्रदर्शनों की स्क्रीनिंग करने लगा है. इनकी अब ख़बरें नहीं बनती. उसके लिए प्रदर्शन करना, एक फालतू काम है. बगैर डेमॉन्स्ट्रेशन के कोई भी डेमोक्रेसी डेमोक्रेसी नहीं हो सकती है. इन प्रदर्शनों में शामिल लाखों लोग अब खुद वीडियो बनाने लगे हैं. फोन से बनाए गए उस वीडियो में खुद ही रिपोर्टर बन जाते हैं और घटनास्थल का ब्योरा देने लगते हैं, जिसे बाद में प्रदर्शन में आए लोगों के व्हॉट्सऐप ग्रुप में चलाया जाता है. इन्फॉरमेशन का मीडिया उन्हें जिस नागरिकता का पाठ पढ़ा रहा है, उसमें नागरिक का मतलब यह नहीं कि वह सरकार के खिलाफ नारेबाज़ी करे. इसलिए नागरिक अपने होने का मतलब बचाए रखने के लिए व्हॉट्सएप ग्रुप के लिए वीडियो बना रहा है. आंदोलन करने वाले सिटिज़न जर्नलिज़्म करने लगते हैं. अपना वीडियो बनाकर यूट्यूब पर डालने लगते हैं.


जब स्टेट और मीडिया एक होकर सिटिज़न को कंट्रोल करने लगें, तब क्या कोई सिटिज़न जर्नलिस्ट के रूप में एक्ट कर सकता है…? सिटिज़न बने रहने और उसके अधिकारों को एक्सरसाइज़ करने के लिए ईको-सिस्टम भी उसी डेमोक्रेसी को प्रोवाइड कराना होता है. अगर कोर्ट, पुलिस और मीडिया होस्टाइल हो जाएं, फिर सोसायटी का वह हिस्सा, जो स्टेट बन चुका है, आपको एक्सक्लूड करने लगे, तो हर तरह से निहत्था होकर एक नागरिक किस हद तक लड़ सकता है…? नागरिक फिर भी लड़ रहा है.


मुझे हर दिन व्हॉट्सएप पर 500 से 1,000 मैसेज आते हैं. कभी-कभी यह संख्या ज़्यादा भी होती है. हर दूसरे मैसेज में लोग अपनी समस्या के साथ पत्रकारिता का मतलब भी लिखते हैं. मेनस्ट्रीम न्यूज़ मीडिया भले ही पत्रकारिता भूल गया है, लेकिन जनता को याद है कि पत्रकारिता की परिभाषा कैसी होनी चाहिए. जब भी मैं अपना व्हॉट्सएप खोलता हूं, यह देखने के लिए कि मेरे ऑफिस के ग्रुप में किस तरह की सूचना आई है, मैं वहां तक पहुंच ही नहीं पाता. मैं हज़ारों लोगों की सूचना को देखने में ही उलझ जाता हूं, इसलिए मैं अपने व्हॉट्सएप को पब्लिक न्यूज़रूम कहता हूं. देशभर में मेरे नंबर को ट्रोल ने वायरल किया कि मुझे गाली दी जाए. गालियां आईं, धमकियां भी आईं. आ रही हैं, लेकिन उसी नंबर पर लोग भी आए. अपनी और इलाके की ख़बरों को लेकर. ये वे ख़बरें हैं, जो न्यूज़ चैनलों की परिभाषा के हिसाब से ख़त्म हो चुकी हैं, मगर उन्हीं चैनलों को देखने वाले ये लोग जब ख़ुद परेशानी में पड़ते हैं, तो उन्हें पत्रकार का मतलब पता होता है. उनके ज़हन से पत्रकारिता का मतलब अभी समाप्त नहीं हुआ है.


जब रूलिंग पार्टी ने मेरे शो का बहिष्कार किया था, तब मेरे सारे रास्ते बंद हो गए थे. उस समय यही वे लोग थे, जिन्होंने अपनी समस्याओं से मेरे शो को भर दिया. जिस मेनस्ट्रीम मीडिया ने सिटिज़न जर्नलिज़्म के नाम पर ज़र्नलिज़्म और सत्ता के खिलाफ बोलने वाले तक को आउटसोर्स किया था, जिससे लोगों के बीच मीडिया का भ्रम बना रहे, सिटिज़न के इस समूह ने मुझे मेनस्ट्रीम मीडिया में सिटिज़न जर्नलिस्ट बना दिया. मीडिया का यही भविष्य होना है. उसके पत्रकारों को सिटिज़िन जर्नलिस्ट बनना है, ताकि लोग सिटिज़न बन सकें.


ठीक उसी समय में, जब न्यूज़ चैनलों से आम लोग ग़ायब कर दिए गए, और उन पर डिबेट शो के ज़रिये पोलिटिकल एजेंडा थोपा जाने लगा, एक तरह के नैरेटिव से लोगों को घेरा जाने लगा, उसी समय में लोग इस घेरे को तोड़ने का प्रयास भी कर रहे थे. गालियों और धमकियों के बीच ऐसे मैसेज की संख्या बढ़ने लगी, जिनमें लोग सरकार से डिमांड कर रहे थे. मैं लोगों की समस्याओं से ट्रोल किया जाने लगा. क्या आप नहीं बोलेंगे, क्या आप सरकार से डरते हैं…? मैंने उन्हें सुनना शुरू कर दिया.


‘Prime Time’ का मिजाज़ (नेचर) बदल गया. हज़ारों नौजवानों के मैसेज आने लगे कि सेंट्रल गर्वनमेंट और स्टेट गर्वनमेंट सरकारी नौकरी की परीक्षा दो से तीन साल में भी पूरी नहीं करती हैं. जिन परीक्षाओं के रिज़ल्ट आ जाते हैं, उनमें भी अप्वाइंटमेंट लेटर जारी नहीं करती हैं. अगर मैं सारी परीक्षाओं में शामिल नौजवानों की संख्या का हिसाब लगाऊं, तो रिज़ल्ट का इंतज़ार कर रहे नौजवानों की संख्या एक करोड़ तक चली जाती है. ‘Prime Time’ की ‘जॉब सीरीज़’ का असर होने लगा और देखते-देखते कई परीक्षाओं के रिज़ल्ट निकले और अप्वाइंटमेंट लेटर मिला. जिस स्टेट से मैं आता हूं, वहां 2014 की परीक्षा का परिणाम 2018 तक नहीं आया था. बस मेरा व्हॉट्सऐप नंबर पब्लिक न्यूज़रूम में बदल गया. सरकार और पार्टी सिस्टम में जब मेरे सीक्रेट सोर्स किनारा करने लगे, तब पब्लिक मेरे लिए ओपन सोर्स बन गई.


‘Prime Time’ अक्सर लोगों के भेजे गए मैसेज के आधार पर बनने लगा है. ये व्हॉट्सऐप का रिवर्स इस्तेमाल था. एक तरफ राजनीतिक दल का आईटी सेल लाखों की संख्या में सांप्रदायिकता और ज़ेनोफोबिया फैलाने वाले मैसेज जा रहे थे, तो दूसरी तरफ से असली ख़बरों के मैसेज मुझ तक पहुंच रहे थे. मेरा न्यूज़रूम NDTV के न्यूज़रूम से शिफ्ट होकर लोगों के बीच चला गया है. यही भारत के लोकतंत्र की उम्मीद हैं, क्योंकि इन्होंने न तो सरकार से उम्मीद छोड़ी है और न ही सरकार से सवाल करने का रास्ता अभी बंद किया है. तभी तो वे मेनस्ट्रीम में अपने लिए खिड़की ढूंढ रहे हैं. जब यूनिवर्सिटी की रैंकिंग के झूठे सपने दिखाए जा रहे थे, तब कॉलेजों के छात्र अपने क्लासरूम और टीचर की संख्या मुझे भेजने लगे. 10,000 छात्रों पर 10-20 शिक्षकों वाले कॉलेज तक मैं कैसे पहुंच पाता, अगर लोग नहीं आते. जर्नलिज़्म इज़ नेवर कम्प्लीट विदाउट सिटिज़न एंड सिटिज़नशिप. मीडिया जिस दौर में स्टेट के हिसाब से सिटिज़न को डिफाइन कर रहा था, उसी दौर में सिटिज़न अपने हिसाब से मुझे डिफाइन करने लगे. डेमोक्रेसी में उम्मीदों के कैक्टस के फूल खिलने लगे.


मुझे चंडीगढ़ की उस लड़की का मैसेज अब भी याद है. वह ‘Prime Time’ देख रही थी और उसके पिता TV बंद कर रहे थे. उसने अपने पिता की बात नहीं मानी और ‘Prime Time’ देखा. वह भारत के लोकतंत्र की सिटिज़न है. जब तक वह लड़की है, लोकतंत्र अपनी चुनौतियों को पार कर लेगा. उन बहुत से लोगों का ज़िक्र करना चाहता हूं, जिन्होंने पहले ट्रोल किया, गालियां दीं, मगर बाद में ख़ुद लिखकर मुझसे माफ़ी मांगी. अगर मुझे लाखों गालियां आई हैं, तो मेरे पास ऐसे हज़ारों मैसेज भी आए हैं. महाराष्ट्र के उस लड़के का मैसेज याद है, जो अपनी दुकान पर TV पर चल रहे नफरत वाले डिबेट से घबरा उठता है और अकेले कहीं जा बैठता है. जब घर में वह मेरा शो चलाता है, तो उसके पिता और भाई बंद कर देते हैं कि मैं देशद्रोही हूं. मेनस्ट्रीम मीडिया और आईटी सेल ने मेरे खिलाफ यह कैम्पेन चलाया है. आप समझ सकते हैं कि इस तरह के कैम्पेन से घरों में स्क्रीनिंग होने लगी है.


यह मैं इसलिए बता रहा हूं कि आज सिटिज़न जर्नलिस्ट होने के लिए आपको स्टेट और स्टेट की तरह बर्ताव करने वाले सिटिज़न से भी जूझना होगा. चुनौती सिर्फ स्टेट नहीं है, स्टेट जैसे हो चुके लोग भी हैं. सांप्रदायिकता और अंध-राष्ट्रवाद से लैस भीड़ के बीच दूसरे नागरिक भी डर जाते हैं. उनका जोखिम बढ़ जाता है. आपको अपने मोबाइल पर यह मैसेज देखकर घर से निकलना होता है कि मैसेज भेजने वाला मुझे लिंच कर देना चाहता है. आज का सिटिज़न दोहरे दबाव में हैं. उसके सामने चुनौती है कि वह इस मीडिया से कैसे लड़े. जो दिन-रात उसी के नाम पर अपना धंधा करता है.


हम इस मोड़ पर हैं, जहां लोगों को सरकार तक पहुंचने के लिए मीडिया के बैरिकेड से लड़ना ही होगा. वर्ना उसकी आवाज़ व्हॉट्सऐप के इनबॉक्स में घूमती रह जाएगी. पहले लोगों को नागरिक बनना होगा, फिर स्टेट को बताना होगा कि उसका एक काम यह भी है कि वह हमारी नागरिकता के लिए ज़रूरी निर्भीकता का माहौल बनाए. स्टेट को क्वेश्चन करने का माहौल बनाने की ज़िम्मेदारी भी सरकार की है. एक सरकार का मूल्यांकन आप तभी कर सकते हैं, जब उसके दौर में मीडिया स्वतंत्र हो. इन्फॉरमेशन के बाद अब अगला अटैक इतिहास पर हो रहा है, जिससे हमें ताकत मिलती है, प्रेरणा मिलती है. उस इतिहास को छीना जा रहा है.


आज़ादी के समय भी तो ऐसा ही था. बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, डॉ अम्बेडकर, गणेश शंकर विद्यार्थी, पीर मुहम्मद मूनिस – अनगिनत नाम हैं. ये सब सिटिज़न जर्नलिस्ट थे. 1917 ईस्वी में चंपारण सत्याग्रह के समय महात्मा गांधी ने कुछ दिनों के लिए प्रेस को आने से रोक दिया. उन्हें पत्र लिखा कि आप चंपारण सत्याग्रह से दूर रहें. गांधी ख़ुद किसानों से उनकी बात सुनने लगे. चंपारण में गांधी के आस-पास पब्लिक न्यूज़रूम बनाकर बैठ गई. वह अपनी शिकायतें प्रमाण के साथ उन्हें बताने लगी. उसके बाद भारत की आज़ादी की लड़ाई का इतिहास आप सबके सामने है.


मैं ऐसे किसी दौर या देश को नहीं जानता, जो ख़बरों के बग़ैर धड़क सकता है. किसी भी देश को ज़िंदादिल होने के लिए सूचनाओं की प्रामाणिकता बहुत ज़रूरी है. सूचनाएं सही और प्रामाणिक नहीं होंगी, तो नागरिकों के बीच का भरोसा कमज़ोर होगा. इसलिए एक बार फिर सिटिज़न जर्नलिज़्म की ज़रूरत तेज़ हो गई है. वह सिटिजन जर्नलिज्म, जो मेनस्ट्रीम मीडिया की कारोबारी स्ट्रेटेजी से अलग है. इस हताशा की स्थिति में भी कई लोग इस गैप को भर रहे हैं. कॉमेडी से लेकर इन्डिविजुअल यूट्यूब शो के ज़रिये सिटिजिन जर्नलिज़्म के एसेंस को ज़िंदा किए हुए हैं. उनकी ताकत का असर यह है कि भारत के लोकतंत्र में अभी सब कुछ एकतरफा नहीं हुआ है. जनता सूचना के क्षेत्र में अपने स्पेस की लड़ाई लड़ रही है, भले ही वह जीत नहीं पाई है.


रेमन मैगसेसे अवॉर्ड लेक्चर सीरीज़ में भाषण देते रवीश कुमार

महात्मा गांधी ने 12 अप्रैल, 1947 की प्रार्थनासभा में अख़बारों को लेकर एक बात कही थी. आज के डिवाइसिव मीडिया के लिए उनके प्रवचन काम आ सकते हैं. गांधी ने एक बड़े अख़बार के बारे में कहा, जिसमें ख़बर छपी थी कि कांग्रेस की वर्किंग कमेटी में अब गांधी की कोई नहीं सुनता है. गांधी ने कहा था कि यदि अख़बार दुरुस्त नहीं रहेंगे, तो फिर हिन्दुस्तान की आज़ादी किस काम की. आज अख़बार डर गए हैं. वे अपनी आलोचना को देश की आलोचना बना देते हैं, जबकि मैं मेनस्ट्रीम मीडिया और खासकर न्यूज़ चैनलों की आलोचना अपने महान देश के हित के लिए ही कर रहा हूं. गांधी ने कहा था – आप इन निकम्मे अखबारों को फेंक दें. कुछ ख़बर सुननी हो, तो एक दूसरे से पूछ लें. अगर पढ़ना ही चाहें, तो सोच-समझकर अख़बार चुन लें, जो हिन्दुस्तानवासियों की सेवा के लिए चलाए जा रहे हों. जो हिन्दू और मुसलमान को मिलकर रहना सिखाते हों. भारत के अखबारों और चैनलों में हिन्दू-मुसलमान को लड़ाने-भड़काने की पत्रकारिता हो रही है. गांधी होते, तो यही कहते, जो उन्होंने 12 अप्रैल, 1947 को कहा था और जिसे मैं यहां आज दोहरा रहा हूं.

आज बड़े पैमाने पर सिटिज़न जर्नलिस्ट की ज़रूरत है, लेकिन उससे भी ज्यादा ज़रूत है सिटिज़न डेमोक्रेटिक की…


DEMOCRACY NEED MORE CITIZEN JOURNALISTS, MORE THAN THAT, DEMOCRACY NEEDS DEMOCRATIC CITIZEN .


मैं NDTV के करोड़ों दर्शकों का शुक्रिया अदा करता हूं. NDTV के सभी सहयोगी याद आ रहे हैं. डॉ प्रणय रॉय और राधिका रॉय ने कितना कुछ सहा है. मैं हिन्दी का पत्रकार हूं, मगर मराठी, गुजराती से लेकर मलयालम और बांग्लाभाषी दर्शकों ने भी मुझे ख़ूब प्यार दिया है. मैं सबका हूं. मुझे भारत के नागरिकों ने बनाया है. मेरे इतिहास के श्रेष्ठ शिक्षक हमेशा याद आते रहेंगे. मेरे आदर्श महानतम अनुपम मिश्र को याद करना चाहता हूं, जो मनीला चंडीप्रसाद भट्ट जी के साथ आए थे. अनुपम जी बहुत ही याद आते हैं. मेरा दोस्त अनुराग यहां है. मेरी बेटियां और मेरी जीवनसाथी. मैं नॉयना के पीछे चलकर यहां तक पहुंचा हूं. काबिल स्त्रियों के पीछे चला कीजिए. अच्छा नागरिक बना कीजिए.

– रवीश कुमार


ट्रूथ एंड डेयर से

Ajit Anjum जी ने लिखा है कि :

"रवीश कुमार को कोसने वाले , गाली देने वाले अपनी कुंठा निकालकर भी उसकी लंबी लकीर को छोटा नहीं कर पाएंगे ..15 साल में रवीश ने सैकडों ऐसी स्टोरी की है ,जिसे TV वाले चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करते .उसने उन विषयों को उठाया है , जो इस लोकतंत्र में चौथे दर्जे के नागरिक की दर्दनाक कहानी है ..बदरंग ज़िंदगी की हकीकत है ..उसने खोड़ा कॉलोनियों की जमीनी हकीकत दिखाकर हुक्मरानों से सवाल किया है , उसने पचासों ऐसी स्पेशल स्टोरी की है , जो उसे बिना किसी अवार्ड के भी बहुत ऊपर उठा देता है .. 10 -15 साल पहले चाहता तो वो भी नेताओं के दरबार वाली पत्रकारिता का शॉर्टकट रास्ता पकड़ सकता था ,बहुत आसान था लेकिन उसने गांवों और गलियों की खाक छानी ..जब सारे चैनल TRP के बुलडोजर से NDTV पर चलने वाले उसके कॉन्टेंट को रौंद रहे थे तब भी वो खुद को जीरो TRP वाला एंकर कहकर अपने ही बनाए रास्ते पर चल रहा था ..
सत्ता के सामने लेटने और लोटने के हर दौर में रवीश कुमार जैसों का होना ज़रूरी है ..
चाटूकारिता का रिकॉर्ड बनाकर पत्रकारिता को सत्ता की बांदी बनाने के हर दौर में रवीश कुमार जैसों का होना ज़रूरी है ..
जब पत्रकारों की बड़ी फौज किसी सत्ता के लिए मुनादी ब्रिगेड का काम करने लगे तो ऐसी आवाज़ें भी ज़रूरी हैं ..
जब 10 बार चाटूकारिता करके एक बार निष्पक्षता का ढोंग करने का दौर हो तो ऐसे पत्रकार भी ज़रूरी हैं ..
कई बार रवीश से असहमत रहा हूं .आज भी होता हूँ . कई बार लगता है कि वो भी अतिवादी हो जाते हैं कई मामलों में, लेकिन जब चाटूकारिता का अतिवाद हिमालय से ऊंचा हो चुका हो तो रवीश कुमार जैसों का होना ज़रूरी है ..
मैं कभी उसके दोस्तों की दुनिया का हिस्सा भी नहीं रहा लेकिन मानने में गुरेज नहीं कि पत्रकारिता में तनकर खड़े रहने के लिए नैतिक ताकत चाहिए .. दरबारी ऐसा नहीं कर सकते . चाहे किसी दौर के दरबारी हों ..
हां , हिन्दू -मुसलमान वाली पत्रकारिता को लेकर वो हमेशा मुखर रहा है . आप उसके कहे से असहमत होने और गाली देकर खारिज करने से पहले कुछ शाम तो गुजारिए चैनलों के सामने ..
आज Ravish Kumar को बधाई देने का दिन है .. और उसकी तारीफ में कुछ लिखकर मेरे लिए गाली खाने का भी दिन है ..

तो स्वागत है आपका .."









 ~विजय राजबली माथुर ©