Monday, September 28, 2015

नेताजी सुभाष के बाद शास्त्री जी की मौत पर भी अब विवाद की वजह --- विजय राजबली माथुर

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नेताजी सुभाष चंद्र बोस की रहस्यपूर्ण मृत्यु के  विवाद के बाद अब पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु के लगभग 50 वर्षों बाद उसे रहस्यपूर्ण बताते हुये जांच की  मांग की गई है। वैसे तो ताशकंद समझौता  होने के बाद जनसंघ ने सारी दिल्ली को काले झंडों से पाट दिया था जो शास्त्री जी की वापसी पर विरोध जताने के लिए था। किन्तु ताशकंद में उनकी मृत्यु की खबर मिलने के बाद वे झंडे हटा लिए गए थे। उस समय के अखबारों में ऐसी खबरें मिल जाएंगी। यह भी खबर उडी थी कि लाल बहादुर जी के बड़े सुपुत्र हरी किशन शास्त्री ने कार्यवाहक प्रधानमंत्री व गृह मंत्री गुलज़ारी लाल नंदा जी से मिल कर अपने पिता की मृत्यु पर संदेह प्रकट किया था। लेकिन नंदा जी ने उनको पारिवारिक संकट से बचने हेतु चुप रहने की सलाह दी थी और बाद में उनको लोकसभा सदस्य बनवा दिया था। 

मोरारजी देसाई को कांग्रेस संसदीय दल में परास्त कर इन्दिरा जी प्रधानमंत्री बन गईं थीं 1967 के आम चुनाव के बाद फिर मोरारजी देसाई ने उनको चुनौती दी थी । इस बार इंदिराजी ने उनको उप-प्रधानमंत्री व वित्तमंत्री बना कर समझौता कर लिया किन्तु  बनवाने वालों के लिए 'गूंगी गुड़िया' न सिद्ध हुईं तो के कामराज नाडार ( जो राष्ट्रपति राधा कृष्णन से मिल कर नेहरू जी को पदच्युत करने का असफल प्रयास कर चुके थे), एस निजलिंगप्पा, एस के पाटिल,अतुल घोष और मंत्रीमंडल से बर्खास्त मोरारजी देसाई ने मिल कर 1969 में  111 सांसदों का अलग गुट बना कर 'कांग्रेस ओ ' का गठन कर लिया था। हरी कृष्ण शास्त्री भी इस गुट में शामिल हो गए थे। 1972  के मध्यावधी चुनावों में कांग्रेस ओ के टिकट पर चौगुटा मोर्चा के समर्थन से वह मेरठ संसदीय क्षेत्र से प्रत्याशी थे। तब पहली बार जनसंघ ने उनको 'ताशकंद के शहीद' का पुत्र कह कर प्रचारित किया था। बाद में उनकी पत्नि रीता शास्त्री भाजपा सांसद भी रही हैं। 

1989 में जब वी पी सिंह ने सुनील शास्त्री को हरा कर संसदीय सीट जीती तब अनिल शास्त्री को अपने मंत्रीमंडल में शामिल किया था। लेकिन तब अनिल शास्त्री ने उन वी पी सिंह के समक्ष अपने पिता की मृत्यु की जांच की मांग नहीं रखी जो खुद शास्त्री जी को पिता-तुल्य मानते थे। वी पी सिंह ने केंद्र में मोरारजी की जनता पार्टी सरकार बनने के बाद विदेशों में इंदिरा जी की एमर्जेंसी के पक्ष में प्रचार किया था और जनसंघ तब जनता पार्टी में विलीन था। लेकिन 1989 में भाजपा का वी पी सिंह को समर्थन व अनिल शास्त्री का केंद्रीय मंत्री होना भी शास्त्री जी की मृत्यु के संबंध में कोई विवाद न उठा सका था, क्यों?

मोदी के नेतृत्व में सरकार गठन के एक वर्ष उपरांत अनिल शास्त्री ने ताशकंद में शास्त्री जी की मृत्यु की पीछे विदेशी हाथ कह कर अप्रत्यक्ष रूप से साम्यवादी रूस की तरफ इशारा किया है। 1945 में हुये विमान हादसे को षड्यंत्र बताने की थ्यौरी में भी नेताजी को रूस के सईबेरिया की जेल में गिरफ्तार होना बताया जाता है। 'सारदानन्द' तथा 'गुमनामी बाबा' दो अलग -अलग हस्तियों को नेताजी बताया जाता है। फाइलें सार्वजनिक करके नेताजी की मृत्यु के विवाद को गहराया जा रहा है लेकिन यह नहीं बताया जा रहा है कि मोदी सरकार के गठन के बाद जो फाइलें नष्ट की गईं थीं उनको सार्वजनिक न करने का कारण क्या था ?

नेताजी की मृत्यु के संबंध में नेहरू जी व शास्त्री जी की मृत्यु के संबंध में इंदिराजी को जनता की नज़रों में गिरा कर भाजपा को मनोवैज्ञानिक जीत दिलाना और सरकार की मजबूती को चिरस्थाई बनाना ही इस अभियान का लक्ष्य है। दुर्भाग्य यह है कि जो साम्यवादी/वामपंथी  खुद को भाजपा/संघ की फासिस्ट नीतियों के प्रबल विरोधी बताते हैं उनका नेतृत्व जन्मना ब्राह्मणों अथवा ब्राह्मण वादियों के हाथ में है जो वस्तुतः अपनी कार्यशैली से भाजपा/संघ की फासिस्टी प्रवृति को दृढ़ता प्रदान कर रही है। गैर वामपंथी और गैर भाजपाई दल भी 'मूल निवासी' की भूल- भुलैया में भटक कर या पोंगापंथी आस्थाओं में उलझ कर अंततः भाजपा/संघ को ही मजबूत करते प्रतीत हो रहे हैं। पाकिस्तान के जरिये अमेरिका और चीन भारत को घेरते जा रहे हैं। चीन का हौआ दिखा कर अमेरिका भारत की भाजपाई सरकार को अपने चंगुल में जकड़ता जा रहा है । 

दिवास्वप्न देखने वाले वामपंथी मोदी सरकार के अपदस्थ होने के लक्षण गिनाते जा रहे हैं और अपने कार्यकर्ताओं तथा जनता को विभ्रम में रख रहे हैं।यदि नेताजी व शास्त्री जी के विषय में बोलते हुये नेहरू जी व इन्दिरा जी का बचाव किया गया तो जनता के बीच देशद्रोही के रूप में प्रचारित किया जाएगा। मार्क्स और भगत सिंह के नाम पर 'नास्तिकता' - एथीस्टवाद का जो नशा साम्यवादियों/वामपंथियों ने चढ़ा रखा है उसके उतरने के कोई लक्षण या संकेत नहीं मिल रहे हैं। संप्रदायों को विभिन्न धर्म बताया जा रहा है। धर्म निरपेक्षता के मंत्र जाप से फासिस्ट शक्तियों को परास्त करने के झूठे आश्वासन दिये जा रहे हैं। सीधे-सीधे यह नहीं कहा जा रहा है कि जिसे 'धर्म' कहा जा रहा है वह तो 'अधर्म' है। वास्तविक धर्म को बताने-समझाने को नास्तिकता की ओट में तैयार नहीं हैं। कारण वही ब्राह्मण वादी नेतृत्व की निजी तिकड़में । बात नेताजी व शास्त्री जी की मृत्यु की नहीं है बल्कि जनता पर आसन्न संकट को टालने की है। उसके लिए गहन व गूढ अध्यन का सहारा लेकर भारतीय दर्शन यथा- वेद आदि (लेकिन पुराणों से नहीं  जो ब्राह्मणों को प्रिय हैं ) से साम्यवाद के सिद्धांतों को सिद्ध करते हुये जनता के बीच जाएँगे तभी जन-समर्थन हासिल करके फासिस्टों को गलत सिद्ध करते हुये परास्त किया जा सकेगा।   

 ~विजय राजबली माथुर ©
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Saturday, September 26, 2015

नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर विवाद क्यों? --- विजय राजबली माथुर




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एशिया न्यूज़ के संपादक पुष्प रंजन साहब ने 15 अप्रैल 2015 को प्रकाशित एक लेख में विस्तृत रूप से बताया है कि जिस जर्मनी से वह सहयोग कर रहे थे उसने भी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पीछे अपने जासूस लगा रखे थे। उनके जिन पौत्र सूर्य बोस के हवाले से भारत में उनकी जासूसी करवाने की जांच की मांग की जा रही है वह इस लेख के मुताबिक नेताजी सुभाष बोस के भतीजे अमियनाथ बोस के पुत्र हैं। 

अमियनाथ बोस जी ने यह आरोप लगाते हुये कि फारवर्ड ब्लाक (जिसका गठन स्वम्य नेताजी ने किया था ) नेताजी के आदर्शों से भटक गया है 'आज़ाद हिन्द संघ' नामक एक नया राजनीतिक दल बना लिया था। बताया गया था कि इसमें नेताजी की आज़ाद हिन्द फौज के सेनानी शामिल हैं। मेरठ के भैंसाली ग्राउंड में प्रति वर्ष 23 जनवरी को इस संघ की ओर से नेताजी की जयंती मनाई जाती थी। इस कार्यक्रम में प्रतिवर्ष तत्कालीन सयुस और संसोपा नेता  और वर्तमान में भाजपा कार्यकारिणी के सदस्य   सतपाल मलिक  साहब (पूर्व अध्यक्ष- छात्र संघ, मेरठ कालेज, मेरठ) ज़ोर-शोर से नेताजी के विमान हादसे में मृत्यु होने की जांच की मांग उठाते थे। हालांकि 'शाहनवाज़ जांच आयोग' व 'खोसला जांच आयोग' ने विमान हादसे को ही सही घोषित कर दिया था। 
सतपाल मलिक जी तब तक के तीनों प्रधानमंत्रियों पर नेताजी की उपेक्षा किए जाने के संदर्भ में मुकदमा चलाये जाने की मांग भी उठाते थे। एक वर्ष ललिता शास्त्री जी भी उस कार्यक्रम में अतिथि थीं उस वर्ष उनके द्वारा सिर्फ पहले व तीसरे प्रधानमंत्री पर मुकदमे की बात उठाई गई थी व ललिता जी को माताजी का सम्बोधन दिया गया था। उसके बाद से फिर तीनों प्रधानमंत्रियों पर मुकदमे की मांग उनके द्वारा की जाती रही थी। जिस प्रकार 1962 के चीनी आक्रमण को कुछ लोगों द्वारा नेताजी की 'मुक्ति वाहिनी' की संज्ञा दी गई थी उसी प्रकार 1971 के बांगला देश के 'आमार सोनार बांगला' आंदोलन को मलिक जी द्वारा नेताजी प्रेरित बताया जाता था। अपनी बात की पुष्टि  के लिए मलिक जी शेख मुजीबुर रहमान के इस वक्तव्य की ओर ध्यानाकर्षण करते थे जिसमें कथित रूप से उन्होने कहा था- 'मेरे दो गुरु थे, हैं : सुहारा वर्दी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस'। इस आधार पर मलिक जी उस समय तक नेताजी को जीवित मानते थे जैसा कि अमियनाथ बोस जी व उनके आज़ाद हिन्द संघ का कहना था। 

ऐसा भी माना जाता है कि नेताजी जर्मन विनायक दामोदर सावरकर के कहने पर नज़रबंदी से भाग कर गए थे। सावरकर का संघ और जनसंघ देश में लोकप्रियता पाने में विफल रहे थे इसलिए अमियनाथ जी (जिंनका चरित्र संजय गांधी जैसा था ) को आगे करके आज़ाद हिन्द संघ गठित करवाया गया था आज उनके ही पुत्र मोदी के समक्ष मांग उठा रहे हैं जो संघ-नियंत्रित केंद्र सरकार के मुखिया हैं। जो नेताजी समाजवाद और साम्यवाद के लिए संघर्ष करते थे उनको हिटलर का समर्थन लेने के कारण संघी अपने रंग में अब रंग दे रहे हैं जबकि हिटलर से तो अनाक्रमण समझौता खुद स्टालिन ने भी कर रखा था जिसे विंस्टन चर्चिल ने तिकड़म करके हिटलर द्वारा रूस पर आक्रमण करके तुड़वा दिया गया था। इसी वजह से हिटलर का पतन हुआ और नेताजी को जापान जाना पड़ा था।

नेताजी का खुद को भांजा बताने वाले रेलवे के पूर्व क्लर्क प्रभात रंजन सरकार ने आनंद मूर्ती नाम से 'आनंद मार्ग' और इसके राजनीतिक विंग- 'प्राउटिस्ट ब्लाक आफ इंडिया' का गठन किया था जिसने कई चुनावों में विफलता के साथ भाग भी लिया था। इंदिराजी ने प्रेमपाल रावत उर्फ बाल योगेश्वर ( जो अब यू एस ए से अपनी गतिविधियां चला रहा है) के 'डिवाईंन लाईट मिशन'-'दिव्य ज्योति परिषद' , प्रभात रंजन सरकार उर्फ आनंद मूर्ती के आनंद मार्ग तथा लेखराज कृपलानी (पूर्व हीरा व्यापारी) के 'ब्रह्मा कुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय' को पुलिस कारवाई द्वारा नियंत्रित कर लिया था जो कि देशद्रोही गतिविधियों में संलग्न थे और अब पुनः सक्रिय हो गए हैं। 

कार्गिल से लेह जाने वाले मार्ग पर स्थित 'द्रास' क्षेत्र में  ( जो जोजीला दर्रे की वजह व राजग सरकार में पाक से युद्ध के कारण विख्यात है ) 'प्लेटिनम' धातु जो 'स्वर्ण' से भी अधिक मूल्यवान होती है तथा जिसका उपयोग यूरेनियम के निर्माण में भी होता है प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। इसी के कारण काश्मीर 1947 से ही विवादित चल रहा है क्योंकि यू एस ए, जर्मन और कनाडा तथा रूस व चीन की निगाहें भी इसके भंडार पर लगी हुई हैं। यदि जोजीला पर सुरंग- टनल बन जाये तो श्रीनगर से लेह तक का सफर कुछ ही घंटों का हो जाये। कनाडा की एक फर्म ने नाम-मात्र शुल्क पर और जर्मन की फर्म ने निशुल्क इस टनल को बनाने का प्रस्ताव इंदिरा जी को दिया था किन्तु उनकी शर्त थी कि 'मलवा' वे अपने देश ले जाएँगे। इंदिरा जी शुल्क देने को तैयार थीं किन्तु 'मलवा' नहीं तो इसी 'प्लेटिनम' की वजह से ही। 

काश्मीर से आर्टिकल 370 हटवाने की मांग इसी प्लेटिनम पर कब्जे की इच्छुक विदेशी शक्तियों के इशारे पर उठती रही है और अब वहाँ की सत्ता में ऐसे मांग-कर्ता भी शामिल है उनके ही समक्ष जर्मन प्रवासी सूर्य बोस जी ने नेताजी पर ताज़ा विवाद शुरू करा दिया है। नेताजी की पुत्री अनीता बोस जी खामोश हैं जैसा कि पुष्प रंजन जी का लेख कहता है। 

इस वक्त नेताजी पर विवाद को आर्टिकल 370 हटाने की मांग, जोजीला क्षेत्र के 'प्लेटिनम' से अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए और देश-रक्षक शक्तियों को एकजुट होकर षड्यंत्र को विफल करना चाहिए।



  ~विजय राजबली माथुर ©
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Tuesday, September 22, 2015

विद्रोही व्यक्तित्व के साहित्यकार कांमतानाथ :81 वें जन्मदिवस पर स्मरण --- विजय राजबली माथुर




आज दिनांक 22 सितंबर 2015 को सांयकाल जयशंकर प्रसाद सभागार, उमानाथबली प्रेक्षागृह , क़ैसर बाग, लखनऊ में महान कथाकार व उपन्यासकार कांमतानाथ जी का 81 वां जन्मदिवस इप्टा व प्रलेस की ओर से उनके परिवारीजनों की उपस्थिती में विद्वजनों के  द्वारा श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुये मनाया गया। इस स्मरण समारोह सभा की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध साहित्यकार शेखर जोशी जी द्वारा की गई। उनके साथ मंच पर उर्दू साहित्यकार आबिद सुहैल व हिन्दी साहित्यकार गिरिराज किशोर जी भी आसीन थे। सभा का सफल संचालन राकेश जी द्वारा किया गया। 

प्रारम्भिक परिचय देते हुये राकेश जी ने बताया कि कांमतानाथ जी 1980 में उत्तर प्रदेश प्रलेस के महासचिव बने और अधिवेशन में पूर्व राष्ट्रीय महासचिव के रूप में भीष्म साहनी जी भी शामिल हुये थे। प्रथम वक्ता के रूप में राकेश जी ने गिरिराज किशोर जी को आमंत्रित किया जो कांमतानाथ जी के साहित्यिक मित्र व साथी भी रहे हैं। 

 * गिरिराज किशोर जी ने अपने उद्बोधन में बताया कि वह कामतनाथ जी के संपर्क में 1960 में आए थे और उनसे सतत संबंध बने रहे। उनका लेखन व चिंतन सामाजिक परिप्रेक्ष्य में था और भाषा आम-जन की थी। नामवर सिंह व राजेन्द्र यादव ने कांमतानाथ जी के लेखन का विरोध किया था जिसका प्रतिवाद गिरिराज किशोर जी ने किया था। उन्होने बताया कि रचनाकार का लेखन उसके अपने जीवन के बाद के लिए होता है उसकी आस्था दृढ़ होती है। कामतानाथ जी इसके ज्वलंत प्रतीक रहे हैं। उपेक्षा से बल मिलता है, प्रेरणा मिलती है। अपनी उपेक्षा का सम्मान करना चाहिए जैसा कि कामतानाथ जी ने किया। 
** शकील अहमद सिद्दीकी ने बताया कि कामतानाथ जी ने 150 कहानियाँ लिखी हैं जिनमें से 135 का संकलन भी दो खंडों में प्रकाशित हुआ है। उनका मानना था कि जो लेखक अन्याय के विरुद्ध खड़ा नहीं हो सकता वह बड़ा लेखक नहीं बन सकता है। निम्न मध्यम वर्गीय सम्बन्धों की हृदय स्पर्शी रचनाएँ उन्होने सृजित की हैं। 'रिश्ते -नाते' देश विभाजन के पलायन के दौर में आर्थिक संकट से जूझते लोगों की अंतर्कथा है। उनकी विभिन्न पीढ़ियों के मनोविज्ञान पर अच्छी पकड़ थी। स्वभाविक भाषा में 'कहानी' व 'कहानियत' को बचाए रखने के कारण हिन्दी साहित्य में उनका अपार महत्व है। 

***मसूद साहब  ने उनके रचित उपन्यासों का ज़िक्र करते हुये बताया कि ' काल कथा ' लिखने में उनको 30 वर्ष लगे। 1998 में दो अंश आ चुके थे और 2008 में यह पूर्ण हुआ। इसमें राजनीतिक विमर्श और जनता का इतिहास भी मिल जाएगा। 1919 से 1947 तक के विभिन्न आंदोलनों का वर्णन इसमें है और प्रांतीय सरकारों के गठन का भी। सुभाष बोस की INA व CPI के गठन आदि का अच्छा उल्लेख इस उपन्यास में है । आज नहीं है तो अगले 50-100 वर्षों बाद इसे श्रेष्ठ उपन्यास अवश्य ही माना जाएगा। 

****साहित्यकार प्रकाश साहब ने भी  कहा कि 'काल कथा' में सामाजिक इतिहास का अवलोकन होता है। इसकी तुलना दूसरी रचनाओं से की गई है जो लेखक के साथ ज्यादती है। उनका 'पिघलेगी बर्फ' उपन्यास तिब्बत की भौगोलिक सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि पर आधारित है। INA के बहुत से लोग भटक कर तिब्बत पहुँच गए थे उनमें से ही एक को नायक बना कर यह उपन्यास लिखा गया है। इसमें दिवतीय विश्व युद्ध का काल समाहित है। चीन के हमले के बाद तिब्बत का सांस्कृतिक अपहरण भी इसमें मिल जाएगा। विभाजन का वर्णन करते हुये ज़िक्र किया गया है कि विश्व इतिहास में राजा तो बदलते रहे हैं लेकिन भारत विभाजन के बाद विश्व में पहली बार जनता भी बदली गई है। 

*****शिवमूर्ती जी ने अपने संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित उद्बोधन में बताया कि 'काल कथा' प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से सामान्यजन की मनोदशा का वर्णन करता है जो कि अप्रतिम है। 

****** कामतानाथ जी के पुत्र आलोक ने बताया कि उनके पिताजी लेखन कार्य रात में किया करते थे उनको पढ़ने की आदत उन्होने शिक्षा ग्रहण करने से पूर्व ही डाल दी थी।आजकल पढ़ने की आदत कम होती जा रही है। आज शिक्षा को 'रोजगार' से जोड़ दिया गया है। पढ़ने में कमी के कारण शिक्षा में गिरावट आ गई है। आलोक जी ने खुद 'काल कथा' को 15 दिन में पढ़ लिया था। उस उपन्यास के आधार पर आज़ादी के बाद भी गुलामी जैसी ही 'विषमताएं' पाई जाती हैं। फिर कभी जनता को शासकों से वैसा ही 'संघर्ष' करना पड़ सकता है। 

******* आबिद सुहैल साहब ने बताया कि कामतानाथ जी की एक कहानी में दूसरों के गम बांटने की प्रेरणा मिलती है। उनकी   कथनी व करनी  में कोई फर्क नहीं होता था इसका एक छोटा सा उदाहरण देते हुये उन्होने  बताया   कि रात में जब वह उनको द्वार तक छोडने आए तो उतनी देर के लिए कमरे की लाईट बंद कर दी क्योंकि वह बरबादी के खिलाफ थे। वह जो कहते थे उसी पर खुद भी अमल करते थे। 

अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में सुप्रसिद्ध साहित्यकार शेखर जोशी ने बताया कि 'यशपाल' व 'अमृतलाल नागर' की परंपरा को उन्होने कायम रखा। उनका जैसा 'विद्रोही व्यक्तित्व' था उनके साहित्य में उसकी पूरी छाप है। 'काम का पहिया' कहानी में पीड़ित अपनी आस्था पर टिका है। स्वाधीनता आंदोलन विशेषकर उत्तर प्रदेश में सवर्णों के नेतृत्व में रहा है इसी लिए आज भी देश की दुर्दशा है। यदि नेतृत्व 'सर्वहारा ' के हाथों में होता तो दृश्य दूसरा ही होता। 

प्रलेस की सचिव किरण सिंह जी ने धन्यवाद ज्ञापन करते हुये आगंतुकों व कामता नाथ जी के परिवारी जनों के प्रति कार्यक्रम को सफल कराने हेतु आभार व्यक्त किया। 

संचालक राकेश जी ने कामतानाथ जी के जीवन से जुड़ी तमाम बातों का उल्लेख बीच-बीच में किया। उन्होने बताया कि कामतानाथ जी एक श्रेष्ठ मजदूर नेता और श्रेष्ठ साहित्यकार दोनों ही थे। वे सभी दायित्वों का सम्यक निर्वहन करते थे। रिज़र्व बैंक ,कानपुर के एक घटना क्रम का उल्लेख करते हुये उन्होने बताया कि एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के अधिकारों की रक्षा के लिए उनको एक सीनियर मेनेजर को थप्पड़ भी मारना पड़ा लेकिन यूनियन और मेनेजमेंट के टकराव के चलते जनता को होने वाले नुकसान का आंकलन करते हुये उन्होने मेनेजर से क्षमा मांग कर टकराव का पटाक्षेप भी कर दिया था।यह घटना उनके सामाजिक सरोकारों व विशाल हृदयता का प्रतीक है।  

सभा समारोह में अन्य लोगों के अलावा शिव मूर्ती ,अखिलेश,वीरेंद्र यादव,रमेश दीक्षित,राम किशोर,ओ पी सिन्हा,डॉ सुधाकर अदीब,डॉ अमिता दुबे,वीर विनोद छाबड़ा,किरण सिंह, कामरेड मुख्तार , ओ पी अवस्थी,फूलचंद यादव,राजीव यादव,महेश देवा,प्रदीप घोष, विजय राजबली माथुर,कांमतानाथ जी के सुपुत्र आलोक एवं उनकी पुत्रियाँ- रश्मि व इरा आदि की उपस्थिती उल्लेखनीय है। 

 ~विजय राजबली माथुर ©
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Saturday, September 19, 2015

सत्ता हमेशा कलाकार से डरती है..... मंजुल भारद्वाज

 सत्ता हमेशा कलाकार से डरती है..... मंजुल भारद्वाज


सत्ता हमेशा कलाकार से डरती है चाहे वो सत्ता तानाशाह की हो या लोकतान्त्रिक व्यस्था वाली हो . तलवारों , तोपों या एटम बम का मुकाबला ये सत्ता कर सकती है पर कलाकार , रचनाकार , नाटककार , चित्रकार या सृजनात्मक कौशल से लबरेज़ व्यक्तित्व का नहीं . क्योंकि कलाकार मूलतः विद्रोही होता है , क्रांतिकारी होता है और सबसे अहम बात यह है कि उसकी कृति का जनमानस पर अद्भुत प्रभाव होता है .इसलिए कलाकार को काटा या सत्ता के पैरों से रौंदा नहीं जा सकता . सत्ता ने कलाकार से निपटने के लिए उसकी प्रखर बुद्धि ,चेतना और गजब के आत्मविश्वास की पहचान कर उसके अन्दर के भोगी व्यक्तित्व को शह , लोभ , लालच और प्रश्रय देकर उसे राजाश्रित बनाया और सबसे बड़े  षड्यंत्र के तहत सदियों से उसके समयबद्ध कर्म करने की क्षमता पर प्रहार किया और जुमला चलाया अरे भाई ये क्रिएटिव काम है और क्रिएटिव काम समयबद्ध नहीं हो सकता ...और क्रिएटिव कर्म का समय निर्धारण नहीं हो सकता ..पता नहीं कब पूरा हो ...और मज़े की बात है की सत्ता के इस षड्यंत्र को कलाकार वर्ग समझ ही नहीं पाया और ऐसा शिकार हुआ है की बड़े शान से इस जुमले को बहुत शान से दोहराता है  अरे भाई ये क्रिएटिव काम है” ..और इस जुमले को सुनकर , बोलकर आनन्दित और आह्लादित होता है बिना किसी तरह का विचार किये ?
कलाकार वर्ग एक बार भी विचार नहीं करता या अपने आप से प्रश्न नहीं पूछता कि क्या कला या सृजन का समय से पहले या समय से अभियक्त होना आवश्यक नहीं है ! जो अपनी कला से समय को ना बाँध पाए वो कलाकार कैसा ? सदियों से पढने ,पढ़ाने के पाठ्यक्रम की पुस्तकों से लेकर आर्ट गैलेरी तक में किस्से गुप्तगू मशहूर है अरे भाई ये क्रिएटिव काम है” और क्रिएटिव कर्म का समय निर्धारण नहीं हो सकता .!
सत्ता वर्ग की ये साज़िश कलाकारों के डीएनए में घुस गयी है कि जो महा आलसी हो वो कलाकार , आकार , वेशभूषा से सामान्य ना दीखे वो कलाकार , जिसका चेहरा और आँखें बालों से बेतरतीब ढकी हों जो समयबद्ध सृजन ना करे ,जीवन में समय का अनुपालन ना करे वो कलाकार ! सत्ता के लोलुपों , मुनाफाखोरों ने उसको ऐसा बनाया है और ऐसा ढांचा खड़ा किया है , ऐसी व्यूह रचना रची है कलाकारों के इर्द गिर्द की उसके बाहर वो देख ही नहीं पाते जैसे कलाकृति को बोली लगाकर महंगा कर देना ,जनता से कटी और विशेष वर्ग के अनुकूल प्रदर्शनी स्थल या आर्ट गैलरी में प्रदर्शन , आम जनता को आर्ट की क्या समझ  यानि पूरा मामला विशेष होने का और विशेष बनने का हो जाता है और उपर से सत्ता और बाज़ार की मेहरबानियाँ जिसके अहसान और बोझ से कलाकार वर्ग ताउम्र निकल ही नहीं पाता . जिंदगी के शोषण ,तफावत , बगावत , विद्रोह की आवाज़ , न्याय की पुकार , हक और बराबरी की चीख अपने ही  कैनवास के दायरे में कैद हो जाती हैं शोषण के प्रकार  और दमन के धब्बे , अदृस्य  आकार में निर्जीव , मुर्दे की भांति टंगे रहते हैं और घोड़े या महिला के अंग प्रत्यंग , उसका रंग रूप . आकार और उसका वक्षस्थल , यानि सारी भोग्य सामग्री सुन्दरता ,अस्थेटिक, क्रिएटिव फ्रीडम के नाम पर कैनवास पर उभर आती है और नहीं उभरती है कैनवास पर वो है कला !
ज़रा ठहर कर कलाकार विचार करें की उनकी कृति को कौन खरीदता है और वो अमीर वर्ग उस कृति का क्या करता है उसे कला का सम्मान या दर्जा देता है या रंग रोगन की वस्तु समझ कर अपने गलीचे के उपर दीवार पर टांग देता है या उसके  जीवन से उसका कोई सम्बन्ध होता है ?
कला जो जीवन से कटी हो वो कला नहीं होती ! सत्ता और बाज़ार के इस षड्यंत्र से कलाकार वर्ग  को निकलने की ज़रूरत है और अपनी कला को जीवन और उसके समग्र अहम् पहलुओं से जोड़ने की आवश्यकता है . सबसे बड़ी बात समयबद्ध होने की ज़रूरत है . किसी भी कलाकार की आत्मकथा पढने के बाद एक बात उभर कर सामने आती है खुबसूरत महिलाओं का भोग उसने कैसे किया और महंगी शराब का लुत्फ़ कैसे उठाया और उस आत्मकथा से गायब होता है कला और उसको साधने का हुनर , शिल्प , तप और समयबद्ध सृजन प्रतिबद्धता !
अमीर वर्ग साल में ‘किसी कलाकार’ की कितनी कृति खरीदता है ? चूँकि खरीददार सीमित है इसलिए कलाकार का उत्साह समयबद्ध ‘कृति’ के सृजन को नकारता है .कलाकार को ‘समयबद्ध’ होकर जीवन को बेहतर बनाने वाली कलाकृति का सृजन करने के लिए सत्ता के षड्यंत्रों से बाहर निकलने की ज़रूरत है . अपनी राजनैतिक भूमिका के सक्रिय निर्वहन की प्रतिबद्धता का समय आवाज़ दे रहा है हर कलाकार और रचनाकार को . इस चेतना की आवाज़ को सुनने का हुनर हर कलाकार को सीखना  है और जन मानस की चेतना को जागृत कर उसे शोषण मुक्त होने के लिए उत्प्रेरित करने वाली कलाकृतियों का समयबद्ध सृजन करना है !
...मंजुल भारद्वाज 

 ~विजय राजबली माथुर ©
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Friday, September 18, 2015

क्या हम इतने कमजोर हो चुके हैं कि इन आतंक फैलाने वालों से डरते हैं ? --- अनिल पुष्कर



(अनिल पुष्कर)

Anil Pushker

हिंदुत्व की राजनीति करने वाले और हिन्दू होने का दावा करने वाले कुछ सवालों के जवाब दें या बताएं कि -
'हिन्दू' शब्द धर्म कब, किन, सन-शताब्दी, ईसा-पूर्व में बना? रामायण में हिन्दू और मुसलमान नहीं मिलते, गीता में हिन्दू और मुसलमान नहीं मिलते, वेदों में 'हिन्दू' और 'मुसलमान' नहीं मिलते तो हिन्दू शब्द राम के नाम पर राजनीति करने वालों ने कहाँ से लिया?
'हिंदुत्व' केवल मनुष्य के हत्या की राजनीति है. वरना हिंदुत्व धर्म कब, किस महाकाव्य और ग्रन्थ में लिखा गया. रामायण, महाभारत, गीता? किसमें?
'रामराज्य' कब भगवा रंग में रंगा गया? सीता ने कब भगवा रंग के वस्त्र पहने? केसरिया कहने वाले जो राजनीतिक पार्टी हिन्दू राजनीति क्र रही हैं वह इस बात को इतिहास में प्रमाणित करें.
'भगवा' रंग यानी 'केसरिया' रंग 'राम' के साथ क्या बाल्मीकि लेकर आये? तुलसीदास ने कहीं केसरिया रंग में क्या 'राम' का चरित्र दिखाया है? क्या मनुस्मृति में हिन्दू शब्द आया है? क्या मनुस्मृति में राम केसरिया/भगवा दिखाए गये हैं?
दरअसल केसरिया रंग तो सूफी परम्परा से आया है उनके गीतों में. वहां तो हिन्दू जैसा कोई कांसेप्ट नहीं था.
तो क्या हिन्दू होने का दावा करने वाले सूफी परम्परा से आये हैं? क्या श्रीराम कहीं भी सूफी परम्परा में दीखते हैं? अगर ऐसा नहीं है तो हिन्दू और हिंदुत्व को केसरिया में रंगने वाले लोग, सम्प्रदाय, केसरिया राम की राजनीति कब शुरू हुई?
जो खुद को हिन्दू और राम से जोडकर देखते हैं. जो इन शब्दों पर राजनीति करते हैं. वो चाहते क्या हैं? इस बात को समझना होगा. ये हत्या और दंगों की राजनीति करना चाहते हैं. ये दो सम्प्रदायों में हिंसा चाहते हैं, ये दो अलग ईश्वर को मानने वालों में खूनी जंग चाहते हैं. राम ने कब हिन्दू मुसलमान की लड़ाई लड़ी? मनुस्मृति ने कब हिन्दू मुसलमान की लड़ाई लड़ी? रामायण ने कब हिन्दू और महाभारत और गीता और वेदों में कब हिन्दू-मुसलमान की लड़ाई चली?
हिन्दू-मुसलमान की लड़ाई में 'राम' और 'अल्लाह' किस युग/शताब्दी/सन में आया?
जब मालूम हो जाय तो ये इतिहास मुझे भी पढ़ा देना. वरना हिन्दू और हिंदुत्व की राजनीति करने वालों का मकसद समझो. राम के नाम पर इनकी चाहत केवल सत्ता हासिल करना है. सियासत करना है. आदमियों की हत्यायों से केवल आतंक का शासन करना है? एक शब्द राम का आतंक. एक शब्द भगवा का आतंक. क्या हम इतने कमजोर हो चुके हैं कि इन आतंक फैलाने वालों से डरते हैं.
हिन्दू और हिंदुत्व के नाम पर जो लोग आतंक की राजनीति करना चाहते हैं उन्हें इन सभी सवालों के जवाब देने पड़ेंगे. वरना हिन्दू, हिंदुत्व और 'राम' का नाम लेना बंद करें. ये हत्या की राजनीति अब नहीं चलेगी. दंगों की राजनीति अब नहीं चलेगी. धार्मिक हिंसा की राजनीति अब नहीं चलेगी.
हमारे यहाँ इतिहास की परम्परा में राम के नाम पर कई तरह के रूप हैं एक कबीर के राम, जो इन हिन् हिन्दू राजनीतिक पार्टियों की तरह कतई दंगाई नहीं थे, एक तुलसीदास के राम जो इन हिन्दू ब्रिगेडियर्स की तरह कतई साम्प्रदायिक नहीं थे, एक बाल्मीकी के 'राम' जो इन हिन्दू राजनीतिक पार्टियों की तरह राम को लाखों मनुष्यों की हत्याओं में लिप्त नहीं होने देते.


(अनिल पुष्कर)
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17 सितंबर 2015 :

एक ओर पोंगापंथी और दूसरी ओर एथीस्ट वादी दोनों अपने -अपने तरीके से जनता को गुमराह करते रहते हैं। जहां पोंगापंथी 'गणेश' को चमत्कारी व पूज्य बनाए हुये हैं वहीं एथीस्ट वादी 'गणेश' को अपमानित करने में गौरान्वित महसूस कर रहे हैं। 
वास्तविकता स्वीकारना व समझाना दोनों में से कोई नहीं चाहता क्योंकि 'सत्य ' प्रचारित होने पर दोनों का गोरख-धंधा चौपट हो जाएगा। 
गणेश = गण + ईश अर्थात जो गण यानि जनता का ईश यानि नायक हो। 
जो स्वरूप गणेश का चित्रित किया गया है वह एक राजनेता के गुणों को स्पष्ट करता है। हाथी सरीखे कान सबकी सुनने वाला हो इसका प्रतीक हैं तो सूँड सूंघने अर्थात अनुमान से समझने की शक्ति का प्रतीक है। खाने के दाँत और दिखाने के दाँत एक राजनेता के उस गुण पर प्रकाश डालते हैं जिसके द्वारा वह प्रशासनिक गतिविधियों को 'गोपनीय' रखे तथा वही बोले जो आवश्यक हो। कुप्पा ऐसा पेट यह जतलाने के लिए है कि एक राजनेता में तमाम विपरीत बातों को भी हजम करने की क्षमता होनी चाहिए। 
चूहे की सवारी यह सिद्ध करने के लिए है कि घर,समाज,देश को कुतरने वाले पंचमारगियों को दबा कर रखना चाहिए उनको कुतरने का मौका नहीं मिलने देना चाहिए। 
लोकतन्त्र में जनता का नायक देश का राष्ट्रपति हुआ। अतः जब कहा जाता है-ॐ गनेशाय नमः तब उसका अर्थ होता है-THE FIRST SALUTATION TO THE "PRSIDENT" OF THE NATION केकिन आज हो क्या रहा है चतुर्दिक 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' का बोलबाला और व्यापारियों की मौज। गरीब का शोषण-उत्पीड़न एवं धन्ना-सेठों का मनोरंजन। 
'सत्य' को कब स्वीकार करके अनुसरण किया जाएगा। या फिर पढे-लिखे मूर्ख व अनपढ़ मूर्ख एक सी हरकतें करके जनता को त्राहिमाम-त्राहिमाम करने को मजबूर करते रहेंगे ?




  ~विजय राजबली माथुर ©
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