Thursday, April 27, 2017

आवारा भीड़ के खतरे ------ हरिशंकर परसाई

  


 एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूसी हो गई है। यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है। 
अपने पिता से तत्ववादी, बुनियादपरस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है। दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है। इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारावाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। 

यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।


Girish Malviya
हम परसाई को एक महान व्यंगकार के तौर पर जानते है लेकिन व्यंग की विधा के अलावा उन की लेखनी और भी आयामो को छूती है साल 1991 में उन्होंने एक लेख लिखा था ' आवारा भीड़ के खतरे'
यह लेख पढ़कर मै आश्चर्य मे पड गया कि 25 वर्षो के बाद मे जब इस लेख को पढ़ रहा हूँ तब भी उसका कंटेंट कितना मौजू है, आज की राजनीति और युवाओं का गाय ,हिंदुत्व आदि की बात करना आखिरकार इन सब बातों का मूल क्या है 
आप भी समय निकाल कर जरूर इसे पढ़े ,कम से कम एक समझ डेवलप होती है, फेसबुक पर बहुत सारा कचरा पढ़ने से अच्छा है कि एक सार्थक लेख पूरा पढ़ा जाये ,इस लेख का जहाँ अंत किया गया है वह पढ़ने लायक है must read
आवारा भीड़ के खतरे : by हरिशंकर परसाई
एक अंतरंग गोष्ठी सी हो रही थी युवा असंतोष पर। इलाहाबाद के लक्ष्मीकांत वर्मा ने बताया - पिछली दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर काँच के केस में सुंदर साड़ी से सजी एक सुंदर मॉडल खड़ी थी। एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा। काँच टूट गया। आसपास के लोगों ने पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया? उसने तमतमाए चेहरे से जवाब दिया - हरामजादी बहुत खूबसूरत है। .................
हम 4-5 लेखक चर्चा करते रहे कि लड़के के इस कृत्य का क्या कारण है? क्या अर्थ है? यह कैसी मानसिकता है? यह मानसिकता क्यों बनी? बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ये सवाल दुनिया भर में युवाओं के बारे में उठ रहे हैं - पश्चिम से संपन्न देशों में भी और तीसरी दुनिया के गरीब देशों में भी। अमेरिका से आवारा हिप्पी और ‘हरे राम और हरे कृष्ण’ गाते अपनी व्यवस्था से असंतुष्ट युवा भारत आते हैं और भारत का युवा लालायित रहता है कि चाहे चपरासी का नाम मिले, अमेरिका में रहूँ। ‘स्टेट्स’ जाना यानि चौबीस घंटे गंगा नहाना है। ये अपवाद हैं। भीड़-की-भीड़ उन युवकों की है जो हताश, बेकार और क्रुद्ध हैं। संपन्न पश्चिम के युवकों के व्यवहार के कारण भिन्न हैं।
सवाल है -उस युवक ने सुंदर मॉडल पर पत्थर क्यों फेंका? हरामजादी बहुत खूबसूरत है - यह उस गुस्से का कारण क्यों? वाह, कितनी सुंदर है - ऐसा इस तरह के युवक क्यों नहीं कहते?
युवक साधारण कुरता पाजामा पहिने था। चेहरा बुझा था जिसकी राख में चिंगारी निकली थी पत्थर फेंकते वक्त। शिक्षित था। बेकार था। नौकरी के लिए भटकता रहा था। धंधा कोई नहीं। घर की हालत खराब। घर में अपमान, बाहर अवहेलना। वह आत्म ग्लानि से क्षुब्ध। घुटन और गुस्सा एक नकारात्क भावना। सबसे शिकायत। ऐसी मानसिकता में सुंदरता देखकर चिढ़ होती है। खिले फूल बुरे लगते हैं। किसी के अच्छे घर से घृणा होती है। सुंदर कार पर थूकने का मन होता है। मीठा गाना सुनकर तकलीफ होती है। अच्छे कपड़े पहिने खुशहाल साथियों से विरक्ति होती है। जिस भी चीज से, खुशी, सुंदरता, संपन्नता, सफलता, प्रतिष्ठा का बोध होता है, उस पर गुस्सा आता है। 
बूढ़े-सयाने स्कूल का लड़का अब मिडिल स्कूल में होता है तभी से शिकायत होने लगती है। वे कहते हैं - ये लड़के कैसे हो गए? हमारे जमाने में ऐसा नहीं था। हम पिता, गुरु, समाज के आदरणीयों की बात सिर झुकाकर मानते थे। अब ये लड़के बहस करते हैं। किसी को नहीं मानते। मैं याद करता हूँ कि जब मैं छात्र था, तब मुझे पिता की बात गलत तो लगती थी, पर मैं प्रतिवाद नहीं करता था। गुरु का भी प्रतिवाद नहीं करता था। समाज के नेताओं का भी नहीं। मगर तब हम छात्रों को जो किशोरावस्था में थे, जानकारी ही क्या थी? हमारे कस्बे में कुल दस-बारह अखबार आते थे। रेडियो नहीं। स्वतंत्रता संग्राम का जमाना था। सब नेता हमारे हीरो थे - स्थानीय भी और जवाहर लाल नेहरू भी। हम पिता, गुरु, समाज के नेता आदि की कमजोरियाँ नहीं जानते थे। 
मुझे बाद में समझ में आया कि मेरे पिता कोयले के भट्टों पर काम करने वाले गोंडों का शोषण करते थे। पर अब मेरा ग्यारह साल का नाती पाँचवी कक्षा का छात्र है। वह सवेरे अखबार पढ़ता है, टेलीवीजन देखता है, रेडियो सुनता है। वह तमाम नेताओं की पोलें जानता है। देवीलाल और ओमप्रकाश चौटाला की आलोचना करता है। घर में उससे कुछ ऐसा करने को कहो तो वह प्रतिरोध करता है। मेरी बात भी तो सुनो। दिन भर पढ़कर आया हूँ। अब फिर कहते ही कि पढ़ने बैठ जाऊँ। थोड़ी देर खेलूँगा तो पढ़ाई भी नहीं होगी। 
हमारी पुस्तक में लिखा है। वह जानता है घर में बड़े कब-कब झूठ बोलते हैं। ऊँची पढ़ाईवाले विश्वविद्यालय के छात्र सवेरे अखबार पढ़ते हैं, तो तमाम राजनीति और समाज के नेताओं के भ्रष्टाचार, पतनशीलता के किस्से पढ़ते हैं। अखबार देश को चलानेवालों और समाज के नियामकों के छल, कपट, प्रपंच, दुराचार की खबरों से भरे रहते हैं। धर्माचार्यों की चरित्रहीनता उजागर होती है। यही नेता अपने हर भाषण हर उपदेश में छात्रों से कहते हैं - युवकों, तुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि हमने नाश कर दिया है) तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं) शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, नैतिक चरित्र को ग्रहण करना है - (हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना सीखा) इन नेताओं पर छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमे? छात्र अपने प्रोफेसरों के बारे सब जानते हैं। उनका ऊँचा वेतन लेना और पढ़ाना नहीं। उनकी गुटबंदी, एक-दूसरे की टाँग खींचना, नीच कृत्य, द्वेषवश छात्रों को फेल करना, पक्षपात, छात्रों का गुटबंदी में उपयोग। छात्रों से कुछ नहीं छिपा रहता अब। वे घरेलू मामले जानते हैं। ऐसे गुरुओं पर छात्र कैसे आस्था जमाएँ। ये गुरु कहते हैं छात्रों को क्रांति करना है। वे क्रांति करने लगे, तो पहले अपने गुरुओं को साफ करेंगे। अधिकतर छात्र अपने गुरु से नफरत करते हैं। बड़े लड़के अपने पिता को भी जानते हैं। वे देखते हैं कि पिता का वेतन तो सात हजार है, पर घर का ठाठ आठ हजार रुपयों का है। मेरा बाप घूस खाता है। मुझे ईमानदारी के उपदेश देता है। हमारे समय के लड़के-लड़कियों के लिए सूचना और जानकारी के इतने माध्यम खुले हैं, कि वे सब क्षेत्रों में अपने बड़ों के बारे में सबकुछ जानते हैं। इसलिए युवाओं से ही नहीं बच्चों तक से पहले की तरह की अंध भक्ति और अंध आज्ञाकारिता की आशा नहीं की जा सकती।
हमारे यहाँ ज्ञानी ने बहुत पहले कहा था - प्राप्तेषु षोडसे वर्षे पुत्र मित्र समाचरेत।
उनसे बात की जा सकती है, उन्हें समझाया जा सकता है। कल परसों मेरा बारह साल का नाती बाहर खेल रहा था। उसकी परीक्षा हो चुकी है और एक लंबी छुट्टी है। उससे घर आने के लिए उसके चाचा ने दो-तीन बार कहा। डाँटा। वह आ गया और रोते हुए चिल्लाया हम क्या करें? ऐसी तैसी सरकार की जिसने छुट्टी कर दी। छुट्टी काटना उसकी समस्या है। वह कुछ तो करेगा ही। दबाओगे तो विद्रोह कर देगा। जब बच्चे का यह हाल है तो किशोरों और तरुणों की प्रतिक्रियाएँ क्या होंगी। 
युवक-युवतियों के सामने आस्था का संकट है। सब बड़े उनके सामने नंगे हैं। आदर्शों, सिद्धांतों, नैतिकताओं की धज्जियाँ उड़ते वे देखते हैं। वे धूर्तता, अनैतिकता, बेईमानी, नीचता को अपने सामने सफल एवं सार्थक होते देखते हैं। मूल्यों का संकट भी उनके सामने है। सब तरफ मूल्यहीनता उन्हें दिखती है। बाजार से लेकर धर्मस्थल तक। वे किस पर आस्था जमाएँ और किस के पदचिह्नों पर चलें? किन मूल्यों को मानें? 
यूरोप में दूसरे महायुद्ध के दौरान जो पीढ़ी पैदा हुई उसे ‘लास्ट जनरेशन’ (खोई हुई पीढ़ी) का कहा जाता है। युद्ध के दौरान अभाव, भुखमरी, शिक्षा चिकित्सा की ठीक व्यवस्था नहीं। युद्ध में सब बड़े लगे हैं, तो बच्चों की परवाह करनेवाले नहीं। बच्चों के बाप और बड़े भाई युद्ध में मारे गए। घर का, संपत्ति का, रोजगार का नाश हुआ। जीवन मूल्यों का नाश हुआ। ऐसे में बिना उचित शिक्षा, संस्कार, भोजन कपड़े के विनाश और मूल्यहीनता के बीज जो पीढ़ी बनकर जवान हुई, तो खोई हुई पीढ़ी इसके पास निराशा, अंधकार, असुरक्षा, अभाव, मूल्यहीनता के सिवाय कुछ नहीं था। विश्वास टूट गए थे। यह पीढ़ी निराश, विध्वंसवादी, अराजक, उपद्रवी, नकारवादी हुई।
अंग्रेज लेखक जार्ज ओसबर्न ने इस क्रुद्ध पीढ़ी पर नाटक लिखा था जो बहुत पढ़ा गया और उस पर फिल्म भी बनी। नाटक का नाम ‘लुक बैक इन एंगर’। मगर यह सिलसिला यूरोप के फिर से व्यवस्थित और संपन्न होने पर भी चलता रहा। कुछ युवक समाज के ‘ड्राप आउट’ हुए। ‘वीट जनरेशन’ हुई। औद्योगीकरण के बाद यूरोप में काफी प्रतिशत बेकारी है। ब्रिटेन में अठारह प्रतिशत बेकारी है। अमेरिका ने युद्ध नहीं भोगा। मगर व्यवस्था से असंतोष वहाँ पैदा हो हुआ। अमेरिका में भी लगभग बीस प्रतिशत बेकारी है। वहाँ एक ओर बेकारी से पीड़ित युवक है, तो दूसरी ओर अतिशय संपन्नता से पीड़ित युवक भी।
जैसे यूरोप में वैसे ही अमेरिकी युवकों, युवतियों का असंतोष, विद्रोह, नशेबाजी, यौन स्वच्छंदता और विध्वंसवादिता में प्रगट हुआ। जहाँ तक नशीली वस्तुओं के सेवन के सवाल है, यह पश्चिम में तो है ही, भारत में भी खूब है। दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यवेक्षण के अनुसार दो साल पहले सत्तावन फीसदी छात्र नशे के आदी बन गए थे। दिल्ली तो महानगर है। छोटे शहरों में, कस्बों में नशे आ गए हैं। किसी-किसी पान की दुकान में नशा हर जगह मिल जाता है। ‘स्मैक’ और ‘पॉट’ टॉफी की तरह उपलब्ध हैं। 
छात्रों-युवकों को क्रांति की, सामाजिक परिवर्तन की शक्ति मानते हैं। सही मानते हैं। अगर छात्रों युवकों में विचार हो, दिशा हो संगठन हो और सकारात्मक उत्साह हो। वे अपने से ऊपर की पीढ़ी की बुराइयों को समझें तो उन्हीं बुराइयों के उत्तराधिकारी न बने, उनमें अपनी ओर से दूसरी बुराइयाँ मिलाकर पतन की परंपरा को आगे न बढ़ाएँ। सिर्फ आक्रोश तो आत्मक्षय करता है। 
एक हर्बर्ट मार्क्यूस चिंतक हो गए हैं, जो सदी के छठवें दशक में बहुत लोकप्रिय हो गए थे। वे ‘स्टूडेंट पावर’ में विश्वास करते थे। मानते हैं कि छात्र क्रांति कर सकते हैं। वैसे सही बात यह है कि अकेले छात्र क्रांति नहीं कर सकते। उन्हें समाज के दूसरे वर्गों को शिक्षित करके चेतनाशील बनाकर संघर्ष में साथ लाना होगा। लक्ष्य निर्धारित करना होगा। आखिर क्या बदलना है यह तो तय हो। अमेरिका में हर्बर्ट मार्क्यूस से प्रेरणा पाकर छात्रों ने नाटक ही किए। हो ची मिन्ह और चे गुएवारा के बड़े-बड़े चित्र लेकर जुलूस निकालना और भद्दी ,भौंड़ी, अश्लील हरकतें करना। 
अमेरिकी विश्विद्यालय की पत्रिकाओं में बेहद फूहड़ अश्लील चित्र और लेख कहानी। फ्रांस के छात्र अधिक गंभीर शिक्षित थे। राष्ट्रपति द गाल के समय छात्रों ने सोरोबोन विश्वविद्यायल में आंदोलन किया। लेखक ज्याँ पाल सार्त्र ने उनका समर्थन किया। उनका नेता कोहने बेंडी प्रबुद्ध और गंभीर युवक था। उनके लिए राजनैतिक क्रांति करना संभव नहीं था। फ्रांस के श्रमिक संगठनों ने उनका साथ नहीं दिया। पर उनकी माँगें ठोस थी जैसे शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन। अपने यहाँ जैसी नकल करने की छूट की क्रांतिकारी माँग उनकी नहीं थी। पाकिस्तान में भी एक छात्र नेता तारिक अली ने क्रांति की धूम मचाई। फिर वह लंदन चला गया।
युवकों का यह तर्क सही नहीं है कि जब सभी पतित हैं, तो हम क्यों नहीं हों। सब दलदल में फँसे हैं, तो जो नए लोग हैं, उन्हें उन लोगों को वहाँ से निकालना चाहिए। यह नहीं कि वे भी उसी दलदल में फँस जाएँ। दुनिया में जो क्रांतियाँ हुई हैं, सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उनमें युवकों की बड़ी भूमिका रही है। मगर जो पीढ़ी ऊपर की पीढ़ी की पतनशीलता अपना ले क्योंकि वह सुविधा की है और उसमें सुख है तो वह पीढ़ी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती।
ऐसे युवक हैं, जो क्रांतिकारिता का नाटक बहुत करते हैं, पर दहेज भरपूर ले लेते हैं। कारण बताते हैं - मैं तो दहेज को ठोकर मारता हूँ। पर पिताजी के सामने झुकना पड़ा। यदि युवकों के पास दिशा हो, संकल्पशीलता हो, संगठित संघर्ष हो तो वह परिवर्तन ला सकते हैं। पर मैं देख रहा हूँ एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूसी हो गई है। यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है। 
अपने पिता से तत्ववादी, बुनियादपरस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है। दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है। इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारावाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। 

यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।

https://www.facebook.com/girish.malviya.16/posts/1502250139806629




~विजय राजबली माथुर ©

Wednesday, April 12, 2017

जनवादी मोर्चा ममता बनर्जी के नेतृत्व में बना कर चुनाव लडें तो जीत सकते हैं ------ विजय राजबली माथुर


कामरेड ए बी बर्द्धन जी ने तो 2014 में ही ममता बनर्जी पर एतराज न होने की बात कही थी।किन्तु वाम  मोर्चा ने तब उनकी बात पर तवज्जो नहीं दी थी और नतीजा मोदी की ताजपोशी के रूप में सामने आया। अब इस खतरे से निबटने के लिए  लालू प्रसाद जी 2019 में वामपंथियों का भी सहयोग चाहते हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश में सपा का भाजपा समर्थक खेमा जब अपनी ही सरकार को हरवा सकता है तब लालू जी की बात की कितनी कद्र करेगा ? फिर भी यदि लालू जी व वाम  मोर्चा मिल कर एक व्यापक 'जनवादी मोर्चा '  सुश्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में गठित करने में सफल हो जाते हैं तो निश्चय ही सरकार बनाने में सफल हो जाएँगे।वाम मोर्चा को बर्द्धन जी की इस नसीहत को भी ( जिसका ज़िक्र  छात्र नेता कन्हैया कुमार ने किया है ) ध्यान रखना चाहिए कि, लेफ्ट या वाम का मतलब सिर्फ कम्युनिस्ट होना नहीं है बल्कि वे सभी जनवादी दल जो सांप्रदायिकता व फ़ासिज़्म के विरोधी हैं लेफ्ट या वाम हैं।  तामिलनाडू विधानसभा के आगामी चुनावों में राज्यसभा सदस्य ' रेखा जी ' को मुख्यमंत्री तथा आगामी लोकसभा चुनावों में ममता जी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना सफलता प्राप्त करने हेतु आवश्यक है अन्यथा पुनः फासिस्ट सरकार के दोहराव की संभावना रहेगी।  

कार्पोरेटी दलाल अवश्य ही ममता जी को पी एम बनने से रोकने की गंभीर साजिश करेंगे ।
केंद्र  (दशम भाव मे )'शनि' उनको 'शश योग' प्रदान कर रहा है  
जो 'राज योग' है।

ममता जी की कुंडली मे 'बुध-आदित्य'योग भी है वह भी 'राज योग' है। षष्ठम भाव का 'केतू' उनके शत्रुओं का संहार करने मे सक्षम है। सप्तम मे उच्च के 'ब्रहस्पति' ने जहां उनको अविवाहित रखा वहीं वह उनकी लग्न को पूर्ण दृष्टि से देखने के कारण 'बुद्धि चातुर्य'प्रदान करते हुये सफलता कारक है। जहां दशम मे उच्च का शनि उनको राजनीति मे सफलता प्रदान कर रहा है वहीं यही शनि पूर्ण दृष्टि से उनके सुख भाव को देखने के कारण सुख मे क्षीणता प्रदान कर रहा है। द्वितीय भाव मे शनि क्षेत्रीय 'मंगल' होने के कारण ही उनकी बात का प्रभाव उनके विरोधियों के लिए 'आग' का काम करता है जबकि यही जनता को उनके पक्ष मे खड़ा कर देता है।
 "






"अखिलेश ने ममता की मदद की यूपी विधानसभा चुनाव की कैम्पेनिंग के दौरान जब ममता ने नोटबंदी के खिलाफ लखनऊ में अपना विरोध प्रदर्शन किया था तो अखिलेश ने ही उनकी मदद की थी। खुद अखिलेश उन्हें रिसीव करने एयरपोर्ट गए थे। इससे पहले जब अखिलेश के परिवार में कलह चल रही थी तब भी ममता ने उन्हें फोन करके अपना समर्थन जाहिर किया था। मुलायम से नाराज थीं ममता बताया जाता है कि ममता बनर्जी पिछले प्रेसिडेंट इलेक्शन में मुलायम सिंह के यू-टर्न से काफी नाराज थीं। इस वजह से उन्होंने अखिलेश यादव को ही सपोर्ट करने पर फैसला लिया था।"
http://www.janshakti.co.in/category/national/-2019--177573





 











April 1 at 10:32am
DCM साहब के अनुसार इसके राजनीतिक निहितार्थ नहीं हैं। पूर्व राज्यपाल के एम मुंशी साहब जब केंद्रीय शिक्षामंत्री के रूप मे ब्रिटिश काउंसिल इन इंडिया का उदघाटन करने गए थे तब उन्होने स्पष्ट कहा था कि, वह वहाँ एक राजनीतिज्ञ की हैसियत से नहीं आए हैं क्योंकि एक राजनीतिज्ञ जब कहे हाँ तब समझें शायद और जब कहे शायद तब समझें नहीं और नहीं तो वह कभी कहता ही नहीं। बड़ी ही सफाई से पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार की पराजय में स्पष्ट भीतरघात को नकार दिया गया है। राजनीतिक नहीं तो व्यापारिक निहितार्थ तो होंगे ही और रिश्तेदारी की बात तो कही ही गई है 
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/1383745161687456








~विजय राजबली माथुर ©

Sunday, April 2, 2017

'जो चुनाव सॉफ्टवेयर को मैनिपुलेट करेगा वही तय करेगा कि देश पर शासन कौन करेगा' : आईटी एक्सपर्ट रूवॉफ ------ : ध्रुव गुप्त / गिरीश मालवीय

  ईवीएम का बड़ा घोटाला सरेआम कैमरे पर पकड़ा गया है।भिंड में विधानसभा के आगामी उपचुनावों के संदर्भ में प्रदेश की मुख्य चुनाव आयुक्त सेलिना सिंह द्वारा ईवीएम के प्रदर्शन के लिए बुलाये गए पत्रकार सम्मेलन में उस समय हंगामा खड़ा हो गया जब कोई भी बटन को दबाने पर सिर्फ और सिर्फ बीजेपी के पर्चे निकले। हद तब हो गई जब चुनाव आयुक्त ने यह खबर दिखाए जाने पर पत्रकारों को जेल में डाल देने की धमकी दी। विडियो सामने आने के बाद देश भर में इवीएम के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर तेज हो चला है। इवीएम के साथ छेड़खानी की किसी संभावना से अबतक इनकार करने वाले चुनाव आयोग को भी भिंड के कलेक्टर और एस.पी समेत जिले के उन्नीस अधिकारियों को हटाना पड़ा है। हालांकि यह साफ नहीं हुआ है कि उन् सबों को गड़बड़ी करने के आरोप में हटाया गया या गड़बड़ी छुपा नहीं पाने के आरोप में ! ------ ध्रुव गुप्त 


Dhruv Gupt
बात निकली है तो फिर दूर तलक जाएगी !
इवीएम के साथ बरसो के अनुभव के आधार पर मुझे लगता रहा था कि इन मशीनों के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ संभव नहीं। पिछले असम और उत्तर प्रदेश के चुनावों के बाद कुछ सॉफ्टवेयर इंजिनियरों ने मशीन के साथ छेड़छाड़ के विडियो सोशल साइट्स पर अपलोड भी किए थे, लेकिन किसी ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया था। आज पहली बार लगा है कि सॉफ्टवेयर तकनीक हमारे जैसे लोगों की समझ से बहुत आगे निकल चुकी है। अभी-अभी मध्य प्रदेश में ईवीएम का बड़ा घोटाला सरेआम कैमरे पर पकड़ा गया है।भिंड में विधानसभा के आगामी उपचुनावों के संदर्भ में प्रदेश की मुख्य चुनाव आयुक्त सेलिना सिंह द्वारा ईवीएम के प्रदर्शन के लिए बुलाये गए पत्रकार सम्मेलन में उस समय हंगामा खड़ा हो गया जब कोई भी बटन को दबाने पर सिर्फ और सिर्फ बीजेपी के पर्चे निकले। हद तब हो गई जब चुनाव आयुक्त ने यह खबर दिखाए जाने पर पत्रकारों को जेल में डाल देने की धमकी दी। विडियो सामने आने के बाद देश भर में इवीएम के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर तेज हो चला है। इवीएम के साथ छेड़खानी की किसी संभावना से अबतक इनकार करने वाले चुनाव आयोग को भी भिंड के कलेक्टर और एस.पी समेत जिले के उन्नीस अधिकारियों को हटाना पड़ा है। हालांकि यह साफ नहीं हुआ है कि उन् सबों को गड़बड़ी करने के आरोप में हटाया गया या गड़बड़ी छुपा नहीं पाने के आरोप में !
अब वक़्त आ गया है कि इवीएम की धांधली के खिलाफ़ हाल में लगाए गए सभी आरोपों की प्राथमिकता के आधार पर एक तय समय के भीतर जांच कराई जाय। चुनाव आयोग से अब कोई उम्मीद नहीं। पिछले दशकों में आयोग इतना बेचारा कभी नज़र नहीं आया था जितना हाल के उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान नज़र आया था। प्रदेश में कड़े क़ानून के बावज़ूद सभी पार्टियां धर्म और जाति के नाम पे वोट मांगती रहीं और चुनाव आयोग मूक दर्शक बना रहा। लोकतंत्र के हित में अब सुप्रीम कोर्ट ख़ुद इवीएम मामले का संज्ञान लेकर इस कथित घोटाले की न्यायिक जांच कराए। जबतक जांच के निष्कर्ष सामने नहीं आ जाते तबतक किसी भी चुनाव में इवीएम का इस्तेमाल प्रतिबंधित किया जाय।




http://www.aajnewsindia.com/election-commission-of-india-accepted-that-there-is-some-sort-of-jumbled-up-in-elections/

Girish Malviya
'जो चुनाव सॉफ्टवेयर को मैनिपुलेट करेगा वही तय करेगा कि देश पर शासन कौन करेगा'
यह कहना है नीदरलैंड के मशहूर आईटी एक्सपर्ट रूवॉफ का ......
पोस्ट लंबी जरूर है लेकिन एक बार अंत तक पढ़ लीजियेगा और हो सके तो शेयर भी कर दीजियेगा, ........
रूवॉफ एक एथिकल हैकर हैं कुछ साल पहले स्थानीय टीवी चैनल आरटीएल के लिए उन्होंने चुनाव सॉफ्टवेयर ओएसवी की जांच की और एक ही शाम में 26 खामियों का पता कर लिया,
वैसे एक अन्य हैकर रोप गोंगग्रिप ने दस साल पहले साबित कर दिया था कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को टेंपर किया जा सकता है और स्वतंत्र जांचकर्ताओं को इसका पता नहीं नहीं चलेगा
उसके बाद से ही नीदरलैंड फिर से चुनाव की परंपरागत विधि पर वापस लौट आया है नीदरलैंड में इसी 15 मार्च को संसदीय चुनाव की वोटिंग लाल पेन और कागज से हुई । पूरे देश के मतदान केंद्रों पर लाखों लाल पेन रखे गए और लाल पेन से ही वोटरों ने अपना वोट दिया है.................
लेकिन अब भी हम बस आँख मूंद कर बैठे हुए है ........ हम लगभग 99 प्रतिशत बूथों पर बिना vvpat मशीनों के चुनाव भी करवा रहे है तो भी हम अपने आपको सबसे सही मानते है ..............
ऐसा नही है कि दो दिन पहले सामने आयी भिंड वाली घटना कोई पहली घटना थी..............
असम के जोरहाट जिले में साल 2014 में एक ऐसी वोटिंग मशीन पकड़ी गई थी जिसमें आप किसी को भी वोट डालें, लेकिन वोट, केवल बीजेपी के खाते में ही काउंट होता था।
इसके पिछले वाले चुनाव के दौरान भी इलाहबाद की “सोरांव” विधानसभा पर उस समय एक हैरतअंगेज़ वाक्या सामने आया कि जब चेकिंग के दैरान यह पता चला कि एक बूथ पर 11 बजे 2699 वोट पड़ चुके हैं जबकि उस बूथ पर कुल वोटो की संख्या मात्र 1080 थी.............
अब आते है ताजा हालात पर, यहाँ evm की गड़बड़ी का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया है भिंड मे चुनाव अधिकारियो व्दारा पत्रकारों के सामने इन evm मशीनों की गड़बड़ी फिर एक बार कैमरे मे कैद हुई है 
और आप ध्यान दीजिए क़ि , यह गड़बड़ी सिर्फ इसलिए पकड़ी जा सकी क्यों क़ि वहा vvpat मशीनों पर डेमो दिखाया जा रहा था, यानि जहा vvpat मशीने नही लगी है वहा का तो चुनाव परिणाम केवल भगवान ही जानता है..............
अगर इस गड़बड़ी का पता लगाना है तो हमे यह समझना होगा क़ि ईवीएम मशीनों को बनाता कौन है? यह कार्य इलेक्ट्रॉनिक कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया और भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड करती है ..............और ध्यान दीजियेगा क़ि यह कंपनियां अपना काम चुनाव आयोग के अन्तर्गत न करके केंद्र सरकार के अंतर्गत काम करती हैं.............. चुनाव आयोग ने कहा है कि 1990 में और 2006 में उसने एक्सपर्ट्स से इसकी जांच करवाई है।जब मैंने उस जांच के बारे में पढ़ा तो बड़ी ही हैरान करने वाली जानकारियां मिली क्योंकि निर्माता कंपनी ने मशीन के सोर्स कोड तो एक्सपर्ट्स कमेटी के साथ साझा ही नहीं किये और न ही एक्सपर्ट्स को कंप्यूटर का कोई खासा ज्ञान था। अब सवाल यहाँ पर यह उठता है कि बिना सोर्स कोड के एक मशीन के सॉफ्टवेयर की अच्छे तरीक़े से जांच कैसे की जा सकती है............
ईवीएम का सॉफ्टवेयर कोड वन टाइम प्रोग्रामेबल नॉन वोलेटाइल मेमोरी के आधार पर बना है यदि किसी से छेड़छाड़ करनी हो तो उसे केवल निर्माता से कोड हासिल होगा। ईवीएम का सॉफ्टवेयर अलग से रक्षा मंत्रालय और परमाणु ऊर्जा मंत्रालय के यूनिट बनाते है और यह भी केंद्र सरकार के अधीन है
यदि इन सॉफ्टवेयर का सोर्स कोड यदि मालुम हो तो एक विशेष प्रकार का लूप प्रोग्राम डालकर पहले 500 या हजार वोट के सही होने और बाद मे अपनी मर्जी के हिसाब से चलने को निश्चित किया जा सकता है............
लेकिन हां यदि vvpat मशीन लगी हो तो ऐसा किया जाना मुश्किल है.........क्योकि मतदाता को अपनी पर्ची 7 सेकण्ड के लिए जरूर नजर आएगी...........
तो क्या यही वजह है कि सरकार चुनाव आयोग की इस मांग पर ध्यान नही दे रही है क्योंकि 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से हर बूथ पर वीवीपीएटी की व्यवस्था करने को कहा था. चुनाव आयोग ने तब कहा था कि वो 2019 के आम चुनावों तक ये काम पूरा कर लेगा. सुप्रीम कोर्ट में आयोग के खिलाफ इसी मामले को लेकर अवमानना की सुनवाई चल भी रही है. पैसा मिलने में देरी को लेकर चुनाव आयोग सरकार को जून 2014 के बाद से दस रिमाइंडर भेज चुका है. इसके अलावा अक्टूबर 2016 में मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम ज़ैदी सीधे प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख कर इस ओर ध्यान देने के लिए कह चुके हैं. ज़ैदी ने एक लेटर 10 जनवरी 2017 को कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को भी लिखा, जिसमें उन्होंने कहा कि अगर फरवरी 2017 तक वीवीपीएटी के ऑर्डर नहीं दिए जाते, तो सितंबर 2018 तक उनका प्रॉडक्शन नहीं हो पाएगा, लेकिन कोई कार्यवाही नही हुई है, ..........
मुझे नही लगता कि इस विषय पर और कुछ लिखने की जरूरत बची है......................
 यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन और भारत के कुछ वैज्ञानिकों ने एक एथिकल हैकिंग करने वाले बन्दे के साथ मिलकर एक रिसर्च पेपर पब्लिश किया था जिसमे उन्होंने निष्कर्ष निकाला था कि बहुत आसानी से वोटिंग मशीन की सिक्योरिटी को ध्वस्त करके चुनाव परिणामों को प्रभावित किया जा सकता है,............

Girish Malviya
https://www.facebook.com/girish.malviya.16/posts/1471114496253527

~विजय राजबली माथुर ©

Saturday, April 1, 2017

निराधार नहीं हैं आधार पर उठ रही आशंकायेँ ------ शशांक दिववेदी

***हिंदुस्तान,  लखनऊ,  दिनांक 01-04-2017, पृष्ठ --- 12 पर प्रकाशित ***









कारपोरेट के तीन दलाल - नीलकेनी,मोदी और केजरीवाल।

The UIDAI was set up by executive notification on 28th January, 2009 to be initially located in the Planning Commission. It was decided early on that the law would be thought about at some, indefinite, later date. A Bill was actually introduced only on 3rd December 2010, over two months after the UIDAI had begun to enroll and data base the citizenry. It happened even then only because many groups and individuals were insistent, demanding to know how a project that was collecting personal information, including fingerprints and iris, was proceeding without public discussion and parliamentary consideration. The Bill was referred to the Standing Committee on Finance which on 13th December 2011, which roundly rejected the Bill, and recommended that the project be sent back to the drawing board. What did the UIDAI do? They carried straight on with enrolment, and the law fell into a well of silence. When the Supreme Court began to hear cases that had been filed before it challenging the UID project, then it was that talk of a revised Bill was briefly revived, but it led to nothing. So, there is still no law, nothing to define the limits of the project and protect the citizenry against situations such as loss of the data, data theft, abuse by anyone gaining access to the data, and recognise the privacy interest of the individual.
http://www.kractivist.org/aadhaar-the-many-wrongs-of-an-unseemly-project-uid/

And so it goes on. No respect for law, for court orders, for the individual’s privacy. Using a technology that is uncertain and untested. Deploying coercion and compulsion. Making a business without our data. And more, much more. Such as creating a database that make surveillance, tagging, tracking so much simpler than it was. Such as handing over our data to foreign companies with close links with intelligence agencies including the CIA and Homeland Security in the US, and then saying, most amazingly (in an RTI) that they had no means of knowing that they were foreign companies! And, most unforgivably, causing a culture to emerge when every person will be presumed to be a potential wrongdoer and therefore with each person having to ensure that they are transparent to those who want to control us, and our actions.

The hard-earned gains of getting the state to be transparent by using the RTI is turned on its head, and it is now we who are to be transparent to the state and to whoever else has access to the data and in the many places where the number resides. This, we are told, is how the system is being set right. How much more irony can our democracy bear!

Usha Ramanathan 
http://krantiswar.blogspot.in/2014/04/blog-post_15.html
हिंदुस्तान       ~विजय राजबली माथुर ©