Thursday, December 26, 2019

क्रान्तिकारी - राष्ट्रवादी वीणा दास ------ संतोष कुमार झा / सुनील सिंह





26 दिसंबर:पूण्यतिथि विशेष

#जब_एक_युवती_द्वारा_चलायी_गयी_गोलियों_से_थर्रा_उठा_कलकत्ता_विश्वविद्यालय

6 फरवरी 1932 को कलकत्ता विश्व विद्यालय के कनवोकेशन हाल में दीक्षांत समारोह में सैकड़ों लोग एक युवती द्वारा लगातार चलायी जा रही गोलियों से स्तब्ध रह गए.उस युवती केनिशाने पर बंगाल का तत्कालीन गवर्नर स्टेनले जैक्सन था.जैक्सन के अपने निकट पहुँचते ही उस पर उस युवती ने एक के बाद एक 5 गोलियां दाग दीं.
हालांकि दुर्भाग्य से जैक्सन बच गया और बीना दास को गिरफ्तार कर 9 वर्ष के कठोर कारावास की सजा दीगयी.
उस दीक्षांत समारोह में गोली चलानेवाली क्रान्तिकारी और राष्ट्रवादी विचारों से ओत प्रोत वो युवती थी वीणा दास.वह अन्य स्नातकों के साथ दीक्षांत समारोह में थी.1937 में प्रान्तों में कोंग्रेसी सरकार बनने के बाद अन्य राजबंदियो के साथ बीना भी जेल से बाहर आ गयी.भारत छोड़ो आन्दोलन” के समय उन्हें तीन वर्ष केलिए नजरबंद कर लिया गया था.1946 से 1951 तक वे बंगाल विधानसभा की सदस्य रही . गांधीजी की नौआखाली यात्रा के समय लोगो के पुनर्वास के काम में बीना (Bina Das) ने भी आगे बढकर भाग लिया .

बंगाल के कृष्णानगर में 24 अगस्त 1911 को प्रसिद्द ब्रह्मसमाजी शिक्षक बेनी माधव दास और समाजसेविका सरला देवी के घर पर जन्मीं .बीना दास अपने अध्ययन काल में ही अंग्रेजों के खिलाफ निकाले जाने वाले विरोध मार्चों और रैलियों में बढ़ चढ़ कर भाग लेने लगी.1947 में उनका युगान्तर समूह के भारतीय स्वतन्त्रता कार्यकर्ता जतीश चन्द्र भौमिक से विवाह हो गया.पति के देहान्त के बाद उन्होंने ऋषिकेश में एकान्त जीवन व्यतीत करना आरम्भ किया और अज्ञातवास में ही 26 दिसंबर 1986 को मृत्यु को प्राप्त किया.


Sunil Singh

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  ~विजय राजबली माथुर ©

Thursday, November 21, 2019

ब्रिटीशर्स ने महुआडाबर नाम से ही नया गांव बसा दिया ------ कृष्ण प्रताप सिंह




अवध में गांवों के उजड़ने व बसने का सिलसिला करीब-करीब उसके इतिहास जितना ही लंबा है। इस लिहाज से वहां आज भी गांवों का मोटे तौर पर दो श्रेणियों में विभाजन किया जाता है। इनमें पहली श्रेणी चिरागी गांवों की है और दूसरी गैरचिरागी गांवों की। चिरागी श्रेणी में ऐसे गांव आते हैं जहां चिराग जलते हैं यानी ग्रामीण आबाद हैं। इनके विपरीत गैरचिरागी वे गांव हैं, जो वक्त की मार कहें या सत्ता, सामंतों व जमींदारों के अनाचार-अत्याचार नहीं झेल पाए, उजड़ जाने को अभिशप्त हो गए और अब उनमें कोई ‘दीया-बाती’ तक करने वाला नहीं है।

जानकारों के अनुसार प्रायः हर गैरचिरागी गांव के उजड़ने के पीछे कोई न कोई विचलित कर देने वाला वाकया हुआ करता था। दो तीन दशक पहले तक गैरचिरागी गांवों के इस तरह के वाकये उनके पड़ोसी गांवों के बड़े-बुजर्गों की जुबान पर रहा करते थे। लेकिन अब बदलती पीढ़ियों के साथ वे विस्मृति के गर्त में डूबते जा रहे हैं।

इनमें बस्ती जिले के बहादुरपुर ब्लॉक में ऐतिहासिक मनोरमा नदी के तट पर बसे और हथकरघों का केंद्र रहे महुआडाबर गांव का वाकया इतना अनूठा और अलग है कि पुराना पड़ जाने के बावजूद अब तक जनश्रुतियों का हिस्सा बना हुआ है।

दरअसल, 1857 में दस जून को अवध के फैजाबाद जिले से बिहार के दानापुर जा रही ब्रिटिश सेना कोई पांच हजार की आबादी वाले इस गांव के निकट पहुंची तो बागी ग्रामीणों में उसे लेकर जाने कितना गुस्सा भरा हुआ था कि उन्होंने उसे असावधान पाकर आव देखा न ताव, चारों ओर से घेरकर उस पर हमला बोल दिया। ऐसा विकट हमला, जिसमें न सिर्फ उसे उलटे पांव लौटने को मजबूर होना पड़ा, बल्कि पांच लेफ्टिनेंटों क्रमशः लिंडसे, थामस, इंग्लिश, रिची व काकल के साथ सार्जेंट एडवर्ड की जानें भी चली गईं। 

सच पूछिए तो आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित उस नियमित सेना के लिए यह डूब मरने जैसी बात थी कि वह ग्रामीणों से अप्रत्याशित मुकाबले में उनके लाठियों, भालों व बर्छियों जैसे पारंपरिक हथियारों से भी पार नहीं पा सकी और शिकस्त खाकर बिखर गई। लेकिन उसका सार्जेंट बुशर किसी तरह अपनी जान बचाकर भागने में सफल हो गया तो उसने खुद को खुशकिस्मत समझ ईश्वर को धन्यवाद दिया और शर्मिंदगी का तमगा गले में लटकाए हुए सैन्य शिविर में जाकर वरिष्ठ अधिकारियों को वस्तुस्थिति की जानकारी दी। लेकिन उन अधिकारियों ने, संभवतः रणनीति के तौर पर, और कुमुक लेकर उक्त बागी गांव पर फौरन धावा बोलने से परहेज रखा।

दस दिनों तक इंतजार करने के बाद 20 जून को ,जब उन्होंने समझा कि अब ग्रामीण असावधान हो चुके होंगे, डिप्टी मैजिस्ट्रेट विलियम्स पेपे के नेतृत्व में घुड़सवार सैनिकों से घिरवाकर समूचे गांव में आग लगवा दी। इस अग्निकांड में कितने ग्रामीणों की बलि चढ़ी, कितनी मांओं की गोद सूनी हुई, कितने बच्चे यतीम हुए और कितने सुहाग उजड़ गए, इतिहास की पुस्तकों में इसकी कोई तफसील दर्ज नहीं है। अलबत्ता, ये पुस्तकें बताती हैं कि उस दिन की बदले की कार्रवाई में ब्रिटिश सेना ने गांव के जले हुए मकानों, मस्जिदों व हथकरघों को सायास जमींदोज कर डाला और उसके बाहर एक बोर्ड लगाकर उस पर लिखा दिया था-‘गैरचिरागी’।

यही नहीं लौटते हुए अंग्रेजी सेना पड़ोसी गांव के पांच निवासियों- गुलाम खान, गुलजार खान, निहाल खान, घीसा खान व बदलू खान को अपने साथ लेती आई। महुआडाबर के ग्रामीणों को भड़काने के आरोप में इन पांचो पर मुकदमे चलाए गए और 18 फरवरी, 1858 को इन सबको फांसी दे दी गई। 

ब्रिटिश अधिकारियों की प्रतिहिंसा इतने से ही संतुष्ट हो जाती तो भी गनीमत थी। उन्होंने तब तक चैन नहीं लिया, जब तक सरकारी नक्शों व रिपोर्टों से महुआडाबर का नाम तक नहीं मिटा दिया गया। इसीलिए आज की तारीख में किसी गजेटियर में भी उस गांव का जिक्र नहीं मिलता। 


हां, जानें क्यों इस कांड के कुछ ही दिनों बाद उन्होंने इस गांव से पचास किलोमीटर दूर बस्ती और गोंडा जिलों की सीमा पर गौर ब्लॉक में बभनान के पास महुआडाबर नाम से ही नया गांव बसा दिया, जो आज भी आबाद है।

http://epaper.navbharattimes.com/details/75933-75599-2.html





 ~विजय राजबली माथुर ©

Monday, November 18, 2019

क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त : जिन्हें आजाद भारत में न नौकरी मिली न ईलाज! ------ ओम प्रकाश

  


बटुकेश्वर दत्त: एक क्रांतिकारी की दर्दनाक कहानी, जिन्हें आजाद भारत में न नौकरी मिली न ईलाज!
NOVEMBER 18, 2019, 11:42 AM IST
Batukeshwar Dutt Birth Anniversary: देश की आजादी के लिए कालापानी सहित करीब 15 साल तक जेल की सजा काटने वाले क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त के फैन थे शहीद-ए-आजम भगत सिंह (Bhagat Singh), लेकिन आजादी (Independence) मिलने के बाद हमारे सिस्टम ने उनके साथ कैसा सलूक किया. जयंती पर इस महान क्रांतिकारी को श्रद्धांजलि.------ओम प्रकाश

नई दिल्ली. बटुकेश्वर दत्त (Batukeshwar Dutt) ऐसे महान क्रांतिकारी हैं जिनके फैन शहीद-ए-आजम भगत सिंह (Bhagat Singh) भी थे. तभी तो उन्होंने लाहौर (Lahore) सेंट्रल जेल में दत्त का ऑटोग्राफ लिया था. लेकिन आजाद भारत की सरकारों को दत्त की कोई परवाह नहीं थी. इसका जीता जागता उदाहरण उनका जीवन संघर्ष है. देश की आजादी के लिए करीब 15 साल तक सलाखों के पीछे गुजारने वाले बटुकेश्वर दत्त को आजाद भारत (India) में नौकरी के लिए भटकना पड़ा. उन्हें कभी सिगरेट कंपनी का एजेंट बनना पड़ा तो कभी टूरिस्ट गाइड बनकर पटना की सड़कों पर घूमना पड़ा. जिस आजाद भारत में उन्हें सिर आंखों पर बैठाना चाहिए था उसमें उनकी घोर उपेक्षा हुई.


'गुमनाम नायकों की गौरवशाली गाथाएं' नामक अपनी किताब में विष्णु शर्मा ने दत्त के बारे में विस्तार से लिखा है. उनके मुताबिक दत्त के दोस्त चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा, 'क्या दत्त जैसे कांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है. खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है.'

कहां हुआ था जन्म

बटुकेश्वर दत्‍त, बर्धमान (बंगाल) से 22 किलोमीटर दूर 18 नवंबर 1910 को औरी नामक एक गांव में पैदा हुए थे. हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए वो कानपुर आए और वहां उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आजाद से हुई. वह 1928 में गठित हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य बने. यहीं पर उनकी भगत सिंह से मुलाकात हुई. उन्होंने बम बनाना सीखा. दोनों क्रांतिकारियों में दोस्ती कितनी गहरी थी इसकी एक मिसाल हुसैनीवाला में देखने को मिलती है.

तत्कालीन बिहार सरकार ने नहीं दिया ईलाज पर ध्यान

1964 में बटुकेश्वर दत्त बीमार पड़े. पटना के सरकारी अस्पताल में उन्हें कोई पूछने वाला नहीं था. जानकारी मिलने पर पंजाब सरकार ने बिहार सरकार को एक हजार रुपए का चेक भेजकर वहां के मुख्यमंत्री केबी सहाय को लिखा कि यदि पटना में बटुकेश्वर दत्त का ईलाज नहीं हो सकता तो राज्य सरकार दिल्ली या चंडीगढ़ में उनके इलाज का खर्च उठाने को तैयार है. इस पर बिहार सरकार हरकत में आई. दत्त का इलाज शुरू किया गया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली (Delhi) लाया गया. यहां पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था कि उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था जिस दिल्ली में उन्होंने बम फोड़ा था वहीं वे एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाए जाएंगे.

दोस्ती की ऐसी मिसाल कहां मिलेगी?


बटुकेश्वर दत्त को सफदरजंग अस्पताल में भर्ती किया गया. बाद में पता चला कि उनको कैंसर है और उनकी जिंदगी के कुछ ही दिन बाकी हैं. कुछ समय बाद पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन उनसे मिलने पहुंचे. छलछलाती आंखों के साथ बटुकेश्वर दत्त ने मुख्यमंत्री से कहा, 'मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए.' 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर वो यह दुनिया छोड़ चुके थे. बटुकेश्वर दत्त की अंतिम इच्छा को सम्मान देते हुए उनका अंतिम संस्कार भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के पास किया गया.

भगत सिंह ने लिया था ऑटोग्राफ



भगत सिंह स्‍वतंत्रता सेनानी बटुकेश्‍वर दत्‍त के प्रशंसक थे. इसका एक सबूत उनकी जेल डायरी में है. उन्‍होंने बटुकेश्‍वर दत्‍त का एक ऑटोग्राफ लिया था. बटुकेश्‍वर और भगत सिंह लाहौर सेंट्रल जेल में कैद थे. बटुकेश्‍वर के लाहौर जेल से दूसरी जगह शिफ्ट होने के चार दिन पहले भगत सिंह जेल के सेल नंबर 137 में उनसे मिलने गए थे. यह तारीख थी 12 जुलाई 1930. इसी दिन उन्‍होंने अपनी डायरी के पेज नंबर 65 और 67 पर उनका ऑटोग्राफ लिया. डायरी की मूल प्रति भगत सिंह के वंशज यादवेंद्र सिंह संधू के पास है. शहीद भगत सिंह ब्रिगेड के अध्‍यक्ष और उनके प्रपौत्र संधू ने बताया कि शहीद-ए-आजम बटुकेश्‍वर दत्‍त को अपना सबसे खास दोस्‍त मानते थे. यह ऑटोग्राफ भगत सिंह का उनके प्रति सम्‍मान था. शायद दोनों ने भांप लिया था कि अब उनकी मुलाकात नहीं होगी. इसलिए यह निशानी ले ली.



कालापानी की सजा हुई थी

ब्रिटिश पार्लियामेंट (British Parliament) में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया. मकसद था स्वतंत्रता सेनानियों पर नकेल कसने के लिए पुलिस को ज्यादा अधिकार संपन्न करने का. दत्त और भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु इसका विरोध करना चाहते थे. दत्‍त ने 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह के साथ मिलकर सेंट्रल असेंबली में दो बम फोड़े और गिरफ्तारी दी. बटुकेश्‍वर ही सेंट्रल असेंबली में बम ले गए थे. यादवेंद्र संधू कहते हैं कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु पर बम फेंकने के अलावा सांडर्स की हत्या का इल्जाम भी था. इसलिए उन्हें फांसी की सजा सुना दी गई. जबकि बटुकेश्वर को काला पानी की सजा हुई. उन्हें अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल भेजा गया. उन्‍होंने कालापानी की जेल के अंदर भूख हड़ताल की.

वहां से 1937 में वे बांकीपुर सेंट्रल जेल, पटना लाए गए. 1938 में वो रिहा हो गए. फिर वे महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े. इसलिए दत्त को दोबारा गिरफ्तार किया गया. चार साल बाद 1945 में वे रिहा हुए. 1947 में देश आजाद हो गया. उस वक्त वो पटना में रह रहे थे.


यहां उन्हें गुजर-बसर करने के लिए सिगरेट कंपनी का एजेंट बनना पड़ा. टूरिस्ट गाइड की नौकरी करनी पड़ी. उनकी पत्नी अंजली को एक निजी स्कूल में पढ़ाना पड़ा. पूरे सरकारी सिस्टम उनका कोई सहयोग नहीं किया. दत्त ने पटना में बस परमिट के लिए अप्लीकेशन दी. वहां कमिश्नर ने उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का सबूत मांगकर तिरस्कार किया.

फांसी न होने से निराश थे दत्त


भगत सिंह के साथ फांसी न होने से बटुकेश्‍वर दत्त निराश हुए थे. वह वतन के लिए शहीद होना चाहते थे. उन्होंने भगत सिंह तक यह बात पहुंचाई. तब भगत सिंह ने उनको पत्र लिखा कि "वे दुनिया को ये दिखाएं कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते, बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सह सकते हैं." भगत सिंह की मां विद्यावती का भी बटुकेश्वर पर बहुत प्रभाव था, जो भगत सिंह के जाने के बाद उन्हें बेटा मानती थीं. बटुकेश्‍वर लगातार उनसे मिलते रहते थे.
साभार : 

https://hindi.news18.com/news/delhi/batukeshwar-dutt-birth-anniversary-special-painful-story-of-a-freedom-fighter-who-neither-got-a-job-nor-treatment-in-independent-india-bhagat-singh-dlop-2615635.html


~विजय राजबली माथुर ©

Thursday, November 14, 2019

जब दोनों पावर्स भारत को खुश करने की प्रतियोगिता कर रहे थे ------ मनीष सिंह





Manish Singh
दो ध्रुवीय विश्व हमारी पीढ़ी ने देखा है। हमारी सरकारों को कभी रूस और कभी अमरीका की कृपा के लिए जतन करते देखा है। पर एक वक्त था, जब इनके बीच गुटनिरपेक्ष देश तीसरा ध्रुव थे, भारत इनका अगुआ था, और नेहरू इसका चेहरा।

उस जमाने मे हम न परमाणु ताकत थे, न आर्थिक शक्ति, न विश्वयुद्ध के विजेताओं में शुमार थे। फिर भी नेहरू का स्टेट्स अगर वर्ल्ड लीडर्स के बराबर था, तो इसलिए 120 गुटनिरपेक्ष देश नेहरू की अगुआई में, हर मसले पर दुनिया की बड़ी ताकत को चुनौती देने का माद्दा रखते थे।

अन्तराष्ट्रीय राजनय में पहला विश्वस्तरीय फोरम "लीग ऑफ नेशन्स" था। लीग 1920 में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद बनी थी। थ्योरिटिकली इसमें सारे देश बराबर थे। पर असल मे चलती ब्रिटेन की थी, आधी दुनिया पर उसका राज था। अमरीका उसका साइडकिक था। दूसरे विश्वयुद्ध ने इक्वेशन बदल दिया। अमरीका, रूस ताक़तवर हुए। ब्रिटेन- फ्रांस जीतकर भी इतने कमजोर हो गए थे कि धड़ाधड़ कालोनियों को खाली कर वापस जाने लगे। एक और नया विजेता था- चीन। उसने एशिया की वर्ल्ड वार में जापान को हराया था। वो च्यांग काई शेक का चीन था।

ये 1945 का वर्ल्ड आर्डर था। ये पांच विजेता थे, ये पांच बड़े देश थे। इनकी अगुआई में यूनाइटेड नेशन्स बना। विजेताओं ने ताकत बांट ली। परमानेंट मेम्बर, वीटो, न्यूक्लियर ताकत अपने हाथ में रखा। आपस मे छुपा युद्ध लड़े भी, कैपिटलिस्ट- कम्युनिज्म के नाम पर। दुनिया पश्चिम और पूर्व के दो गुटों में बंट गयी।

चीन का किस्सा गजब हुआ। पश्चिमी प्रभाव वाले च्यांग काई शेक के चीन को 1949 में माओ की कम्युनिस्ट पार्टी ने जीत लिया। च्यांग को ताइवान भागना पड़ा। देश रातोरात कम्युनिस्ट हो गया। अमेरिका सहित पश्चिमी देश, चीन की सीट पर कम्युनिस्ट माओ को देखना नही चाहते थे। लेकिन स्टालिन का कम्युनिस्ट रूस, चीन के पक्ष में था। चीन की सीट होल्ड हो गयी।

कुछ गैरसरकारी पत्राचार में रिकार्ड है, की इस वक्त अमरीका ने नेहरू से पूछा था, की क्या वह भारत को चीन की सीट दिलाने की बात चलाये? नेहरू को पता था कि यह सम्भव नही है। इधर स्टालिन वीटो करके प्रस्ताव गिरा देगा, उधर माओ दुश्मनी छेड़ेगा। याने "खाया पिया कुछ नही, गिलास फोड़ा-बारह आना"। अभी भारत की हैसियत इनसे पंगा लेने की नही थी। फिर भी ये अमेरिका का यह पूछना, नेहरू की स्वीकार्यता का पैमाना समझिये।

देखा जाये तो भारत 1945 से ब्रिटिश कालोनी के रूप में भी यूएन का मेम्बर था। मगर सार्वभौम देश के रूप में अब नई चुनोतियाँ थीं। 1947 में आजाद हुआ ही था, की युद्ध मे फंस गया। कश्मीर फँसा था, जूनागढ़ हैदराबाद के एक्सेशन पर राजनीति गर्म थी। भारत पार्टीशन, दंगो में नहाकर सम्विधान निर्माण, प्रथम चुनाव की राह पर था।

मगर आगे आने वाले दस साल भारत अंतरराष्ट्रीय पहचान में वृद्धि के थे। 1954 में स्टालिन की मौत हुई। ख्रुश्चेव आये, तो नेहरू का 1955 का रूस दौरा माइलस्टोन रहा। इसके बाद भारत मे कारखाने, बांध, हाइड्रोइलेक्ट्रिक, न्यूक्लियर और स्पेस रिसर्च में रशियन तकनीक आयी। अमरीका भी भारत को रिझाने की कोशिश में था। कई व्यापारिक कंशेषन दिए, एड दी, खाद्यान्न दिया।

तो वो भी एक जमाना था जब दोनों पावर्स भारत को खुश करने की प्रतियोगिता कर रहे थे। सिक्युरिटी कॉउंसिल में बार बार भारत को द्विवार्षिक सदस्यता मिलती रही। कोरिया युध्द, इंडोचायना और स्वेज केनाल के विवाद प्राधिकरण में भारत चेयरमैन रहा। रंगभेद, ह्यूमन राइट और निरस्त्रीकरण पर भारत की आवाज बुलंद थी।

भारत के साथ और भी देश आजाद हुए थे। सबने साम्राज्यवाद को भुगता था। पीड़ा झेले हुए छोटे छोटे देश किसी का पिछलग्गू नही होना चाहते थे। नेहरू ने गुटनिरपेक्ष नीति अपनाई थी। 1955 में बांडुंग कांफ्रेंस में इसकी नीतियां बनी। 1961 में गुटनिरपेक्ष देश के फोरम बनाकर सामने आए। ऐसी नीति को पसंद करने वाले 120 देश गुटनिरपेक्ष आंदोलन से जुड़े। नेहरू नेता, प्रवक्ता, मार्गदर्शक थे। ये भारत का जलवा था।

1961 याद करने वक्त इसलिए भी है, की भारत ने योरोपीय देश, पुर्तगाल की कालोनी गोआ के सैनिक हस्तक्षेप से जीत लिया। पुर्तगाल यूएन में गया, मगर नेहरू ने कुछ देशो को पक्ष में लिया, कुछ को अनुपस्थित करवा दिया। मामला बराबरी पर आया तो रूस ने वीटो कर दिया। गोआ दमन और दीव पर भारत का तिरंगा लहराया। ये भारत और नेहरू का पीक टाइम था।

लेकिन इसके बाद अगले 40 साल का किस्सा निराशाजनक है। चीन से युद्ध, हार, नेहरू की मौत, पाकिस्तान से युध्द.. भारत का जलवा ढलता गया। रूस पर निर्भरता बढ़ती गयी। माओ मरे, तो 1970 में चीन को सीट वापस मिल गयी। इकोनमिकली भी वो ताकतवर होता गया।

हमें 1971 में बंगलादेश की जीत के जश्न के बाद, औऱ जश्न के मौके नही आये। चीन- अमरीका से रार बढ़ती गयी। अफगान युद्ध के कारण पाकिस्तान का महत्व बढ़ गया। रूस का घटता जलवा, इमरजेंसी, ढीली ग्रोथ, आतंकवाद, टूटी फूटी सरकारें। नरसिंहराव के वक्त एक बार द्विवार्षिक मेम्बरशिप मिलना ही उपलब्धि थी।

जेब मे पैसे हों, तो सब सलाम करते हैं। आर्थिक सुधारों के बाद भारत एशिया में सबसे तेज बढ़त लेने लगा। तब क्लिंटन के दूसरे कार्यकाल में हमे फिर तवज्जो मिलनी शुरू हुई। जार्ज बुश काल मे हम ऑफिशियल न्यूक्लियर पावर स्वीकार हुए तो ओबामा ने भारत की परमानेंट सदस्यता को समर्थन किया, यूएस कांग्रेस में प्रस्ताव पारित कराया। आठ विकसित देशों की बैठकों में बुलाया जाने लगा। ब्रिक्स बना, तो लगा भारत फिर उभर रहा है।

लेकिन जेब फिर खाली हो रही है। चीन हमें काफी पीछे छोड़ चुका है। रूस शनै शनै दूर हो रहा है। अमरीका की कृपा कभी आती है, अटक जाती है। लेकिन कूटनीति स्टेडियमो में झूम रही है। विदेश नीति, विदेशी नेता की निजी ताबेदारी में बदल गयी है।


हमने नेहरू को गरियाने का फैशन बना लिया है। मगर उंसके वक्त की ऊंचाई हम दोबारा कब पा सकेंगे, यह उत्तर भविष्य के गर्भ में है।
साभार : 
https://www.facebook.com/manish.janmitram/posts/2446917952059174

  ~विजय राजबली माथुर ©
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Wednesday, October 2, 2019

वसुंधरा फाउंडेशन के तत्वाधान में "सुराज,स्वदेशी और महात्मा गांधी'' पर विचार गोष्ठी ------ विजय राजबली माथुर

समस्त फोटो सौजन्य से राकेश श्रीवास्तव साहब 

वसुंधरा फाउंडेशन के तत्वाधान में गांधी जयंती की पूर्व संध्या पर दिनांक 01 अक्तूबर 2019 की साँय राष्ट्रीय पुस्तक मेला सभागार, मोतीमहल, लखनऊ   में   एक विचार गोष्ठी "सुराज,स्वदेशी और महात्मा गांधी'' विषय पर राम किशोर जी की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई जिसका कुशल संचालन राकेश श्रीवास्तव ने किया । प्रारम्भ में   राकेश श्रीवास्तव ने  संक्षेप में बताया कि , 12 अप्रैल 2010 को स्थापित वसुंधरा फाउंडेशन गांधी जी की अंतिम आदमी के कल्याण की भावना से प्रेरित होकर कार्यरत है।जिसके द्वारा  बिना सरकारी सहायता के  सरकारी स्कूलों में शिक्षारत गरीब बच्चों की सहायता और पर्यावरण संरक्षण हेतु अभियान चलाये गए हैं। 
राकेश श्रीवास्तव जी ने बच्चों को प्रेरित करने वाला गांधी जी का एक प्रसंग विशेष रूप से उल्लेख किया। एक बार एक बच्चा गांधी जी को एक ही धोती में देख कर अपने घर से अपनी गुल्लक ला कर गांधी जी को देते हुये बोला ' बाबा इन पैसों से आप अपने लिए कपड़े बनवा लेना। ' इस पर गांधी जी ने उस बच्चे को बड़े प्यार से कहा ' बेटा मेरा परिवार बहुत बड़ा है जब सबके लिए कपड़े बन जाएँगे तब मैं भी बनवा लूँगा , यह तुम अपने पास ही रखो। ' 
(मेरे विचार से यह तथ्य देश के हर बच्चे को बताया जाना चाहिए )

गांधी जी के चित्र पर अध्यक्ष द्वारा माल्यार्पण के पश्चात सभागार में उपस्थित सभीजनों ने गांधी जी को अपनी पुष्पांजली अर्पित की उसके बाद मंचस्थ विद्व्जनो  ने दीप प्रज्वलित किया तत्पश्चात गोष्ठी का प्रारम्भ हुआ। 
सर्वप्रथम अखिलेश श्रीवास्तव ' चमन ' ने प्रभावोत्पादक रूप से विषय की व्याख्या प्रस्तुत की। उनके अनुसार ' सुराज ' के संबंध में गांधी जी की धारणा थी अपने लोगों द्वारा अपने लिए शासन व्यवस्था। इस दृष्टिकोण से आज स्वराज के बाद भी सुराज नहीं है क्योंकि समाज का अंतिम आदमी आज भी वहीं है जहां तब था। आज स्वराज एक भ्रम मात्र है क्योंकि आज परिस्थितियाँ पहले से भी बदतर हैं । अंग्रेजों के जमाने में न्याय त्वरित और वास्तविक होता था जो अब नहीं है तथा ' जस्टिस डिलेयड इज़ जस्टिस डिनाईड।
' स्वदेशी ' से गांधी जी का अभिप्राय कुटीर उद्योगों के विकास से था जिसके द्वारा अनेकों लोगों को रोजगार मिलने की संभावना होती है। इस व्यवस्था में परस्पर सौहार्द बना रहता था जिसके समाप्त होने से गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर होता गया है। 
महात्मा गांधी का अस्त्र - शस्त्र अहिंसा और सत्याग्रह थे । सत्य को दबाया और झुठलाया नहीं जा सकता तथा अहिंसा से भयंकर से भयंकर हथियार की धार को भी भोथरा किया जा सकता है और यही गांधी जी ने देश को आज़ादी दिलाने में प्रयोग किया। 
द्वितीय वक्ता के रूप में शीला पाण्डे ने बताया कि गांधी जी के दर्शन की आधार शिला 'न्याय ' थी। वह मनुष्य व मनुष्यता के उपासक थे। सत्य और अहिंसा भारत देश की ऐतिहासिक परंपरा में थे उनको ही गांधी जी द्वारा अपनाया गया था। गांधी जी के अनुसार आर्थिक संस्कृति ही जीवन संस्कृति का निर्माण करती है , इस प्रकार किसानी ही भारत की संस्कृति है। 
1932 में हुआ गोलमेज़ सम्मेलन यद्यपि असफल हो गया था परंतु फिर भी गांधी जी इस अवसर का लाभ उठा कर वहाँ अपनी बात पहुंचाने में सफल रहे। एक तो जार्ज पंचम के उन पर अराजकता फैलाने के इल्जाम के जवाब में गांधी जी ने कहा मैं जनता को अहिंसा द्वारा सत्याग्रह करने के लिए प्रेरित कर रहा हूँ। दूसरे पत्रकारों द्वारा सलीके से कपड़े न धारण करने पर गांधी जी ने जवाब दिया मेरे हिस्से का कपड़ा आपके सम्राट ने पहन रखा है मेरे पास बचा ही नहीं है। 
इसी अवसर पर अभिनेता चार्ली चैपलिन ने गांधी जी से मुलाक़ात में पूछा कि आप मशीनों के प्रति शंकालू और विरोधी क्यों हैं। गांधी जी ने उनको जवाब दिया कि मशीन के हवाले एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का शोषण करता है वह उसके खिलाफ हैं । चार्ली चैपलिन का चार वर्ष बाद हृदय परिवर्तन हुआ और इसी समस्या पर दृश्यों को 1936 में बनी अपनी फिल्म ' माडर्न टाईम्स ' में शामिल किया। 
अर्चना श्रीवास्तव और विपिन मलीहाबादी  ने अपने -अपने काव्यात्मक उद्बोधन में गांधी महात्म्य पर प्रकाश डाला। 
ओ पी सिन्हा ने बताया कि अपनी पुस्तक ' हिन्द स्वराज ' में गांधी जी ने कहा है राजसत्ता दमन का यंत्र है। समाज सुधार के लिए सरकार की नहीं सुधारकों की भूमिका होती है। इस दृष्टि से गांधी जी ने 1-जाति-प्रथा का विरोध,2-हिन्दू -मुस्लिम एकता का  समर्थन,3-श्रम ( विशेष रूप से शारीरिक श्रम ) को  महत्व देने पर बल, 4-अपरिग्रह  और अहिंसा अपनाने पर ज़ोर दिया। 
विजय राजबली माथुर ने प्रोफेसर सिंहासन राय ' सिद्धेश ' को उद्धृत करते हुये कहा- 
' धरा जब जब विकल होती  ,        मुसीबत का समय आता   । 
 किसी न किसी रूप में कोई न कोई महामानव चला आता । । ' 
अपने कथ्य व कृत्य के कारण ही गांधी जी को महात्मा कहा गया है।  आज जब पूर्व वक्ता गणों ने इंगित किया है कि गांधी जी के विचारों का ठीक उल्टा हो रहा है।  लेकिन आज से 52 वर्ष पूर्व 1967 में साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशित एक लेख द्वारा डॉ सम्पूर्णानन्द ने कहा था - " हमारे देश में भी गांधी नाम का एक पागल पैदा हुआ था , संविधान के पन्नों पर उसका एक भी छींटा देखने को नहीं मिलेगा। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और राजस्थान के राज्यपाल तथा संविधानसभा के सदस्य रहे एक विद्वान का यह व्यंग्य नहीं उनके अपने प्रशासनिक अनुभवों से उपजी पीड़ा थी। 
1857 की सशस्त्र क्रान्ति की विफलता के चलते जिसमें भारतीयों ने ही अपने साथियों को कुचलने में विदेशियों का साथ दिया था गांधी जी ने ' सत्याग्रह ' व ' अहिंसा ' का मार्ग अपनाया और सामाजिक सौहार्द व एकता पर बल दिया जिसमें वह सफल भी रहे उनके आह्वान पर नर- नारी बगैर किसी भेदभाव के विदेशी शासन के विरुद्ध उठ खड़े हुये। इसीलिए एक कवि को कहना पड़ा -
'चल पड़े दो डग मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर । 
गड़ गई जिधर भी एक दृष्टि गड़ गए कोटि दृग उसी ओर । । '
मधूलिका श्रीवास्तव ने बताया राम राज्य गांधी जी की परिकल्पना थी जिससे उनका आशय था सत्ता का विकेन्द्रीकरण । असमानता को दूर करने के लिए 1905 के बंग - भंग के बाद गांधी जी ने अंग्रेजों के व्यापार पर चोट करने के लिए स्वदेशी का प्रयोग किया। भारत के किसानों से सस्ता कपास खरीद कर ब्रिटिश मिलों में बना मंहगा सूती कपड़ा बिकता था जिसकी बाज़ारों में गांधी जी ने होली जलवाई और तकली व चरखा चलवाया। 
अमिता दूबे ने वसुंधरा फाउंडेशन को यह कार्यक्रम आयोजित करने के लिए बधाई दी। 
श्रीमती मीनू श्रीवास्तव जी द्वारा धन्यवाद ज्ञापन के पश्चात रामकिशोर जी ने उपसंहार  करते हुये कहा अच्छी और सच्ची बात सुनने के लिए आज कोई तैयार नहीं है , आज गांधी जी के हत्यारे पूजे जा रहे हैं जो शर्मनाक है। 



 

~विजय राजबली माथुर ©

Monday, September 30, 2019

हरि सिंह कश्मीरियों के बीच बेहद अलोकप्रिय थे :वे गैर-कश्मीरी शासक थे: ------ अजेय कुमार

 
http://epaper.navbharattimes.com/details/63237-77176-1.html

अजेय कुमार
कश्मीर समस्या के लिए क्या नेहरू जिम्मेदार ? 

शेख अब्दुल्ला पर जब महाराजा ने राजद्रोह का मुकदमा चलाया तो उनकी ओर से लड़ने के लिए बतौर वकील जवाहरलाल नेहरू कश्मीर गए
अगर महाराजा हरि सिंह ने ढुलमुल रवैया नहीं अपनाया होता तो घाटी की यह हालत नहीं होती
बीते 4 सितंबर को बीजेपी के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने एक विडियो जारी किया है जिसमें जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करने और उसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने को एक ऐतिहासिक कदम बताया गया है। यह 11 मिनट का विडियो है, जिसके लगभग अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि पटेल व आंबेडकर दोनों नेहरू की कश्मीर नीति के खिलाफ थे। विडियो के अनुसार सरदार पटेल ने 562 देसी रियासतों का भारत में सफल ढंग से विलय करवा दिया मगर कश्मीर मुद्दे को नेहरू ने अपने हाथों में ले लिया और राज्य को विशेष दर्जा देने की भयंकर भूल की।
गांधी की अपील 

सवाल है कि केवल कश्मीर को नेहरू ने अपने हाथों में क्यों लिया? जिन देसी रियासतों का विलय पटेल ने कराया, वे भारत की भौगोलिक सीमा के अंदर थीं और उनमें से किसी पर विदेशी आक्रमण नहीं हुआ था। कश्मीर भारत-पाकिस्तान की सीमा पर था और 1941 की जनगणना के अनुसार घाटी में मुसलमानों की जनसंख्या 93.45 प्रतिशत, जम्मू में 61.35 प्रतिशत (जम्मू के कुल 6 जिलों में से तीन जिले मुस्लिम बहुल हैं) और लद्दाख, गिलगिट आदि में 86.7 प्रतिशत थी। इस तरह कश्मीर की भौगोलिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियां अन्य रियासतों से अलग थीं। इतनी बड़ी मुस्लिम आबादी के बावजूद जम्मू-कश्मीर की सत्ता महाराजा हरि सिंह के हाथों में थी जो एक डोगरा हिंदू थे। अमृतसर की संधि के बाद केवल 75 लाख रुपये में घाटी और लद्दाख के क्षेत्र जम्मू डोगराशाही के अधीन आ गए थे।

हरि सिंह कश्मीरियों के बीच बेहद अलोकप्रिय थे। वे दरअसल गैर-मुस्लिम से अधिक गैर-कश्मीरी शासक थे। उनके शासन के विरुद्ध शेख अब्दुल्ला ने संघर्ष का आह्वान किया और ‘महाराजा, कश्मीर छोड़ो’ का नारा दिया। कश्मीर के इतिहास में विभाजन रेखा इस्लाम नहीं, बल्कि कश्मीरी से गैर-कश्मीरी शासन का परिवर्तन है। दूसरी ओर, नेहरू और गांधी की अहम भूमिका थी जिन्होंने कश्मीरी मुसलमानों को पाकिस्तान जाने से रोका। जब महाराजा ने शेख अब्दुल्ला पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया तो बतौर वकील उनकी ओर से लड़ने के लिए जवाहरलाल नेहरू कश्मीर गए। गांधी जी ने भी एक अगस्त 1947 को कश्मीर का दौरा किया जिसने कश्मीरियों को प्रभावित किया। गांधी जी ने अमृतसर समझौते, जिसने महाराजा को कश्मीर पर शासन करने का कानूनी अधिकार दिया था, को एक ऐसी सेल-डीड कहा, जिसका अंग्रेजी शासन खत्म होने पर कोई औचित्य न था। उन्होंने कश्मीर की जनता की तारीफ की कि जहां शेष भारत में सांप्रदायिक दंगे हो रहे हैं, कश्मीर एक आशा की किरण है। इस तरह नेहरू और गांधी, दोनों ने अपनी भावनात्मक अपीलों से मुस्लिम सांप्रदायिकता को बेअसर करके जनता में कश्मीरी देशभक्ति की भावना जागृत की। इसलिए आज अगर कश्मीर भारत का हिस्सा है तो उसका बहुत कुछ श्रेय शेख अब्दुल्ला के साथ-साथ नेहरू और गांधी को भी जाता है। 

शेख अब्दुल्ला को भरोसा था कि भारत आजादी के बाद नेहरू के नेतृत्व में एक धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील देश बनेगा। उन्हें जिन्ना की सांप्रदायिक राजनीति से नफरत थी। जिन्ना ने शेख अब्दुल्ला के आंदोलन को ‘गुंडों का आंदोलन’ कहा था। इधर हरि सिंह ‘मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं’ की पसोपेश में थे। 12 अक्टूबर, 1947 को रियासत के उप दीवान राय बहादुर बत्रा ने घोषणा कीः ‘हम हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखना चाहते हैं। भारत या पाकिस्तान में शामिल होने का हमारा कोई इरादा नहीं है।’

कश्मीर समस्या की जड़ यहां है, नेहरू की नीतियों में नहीं। अगर महाराजा सही वक्त पर सही रुख अपनाते तो आज कश्मीर का मुद्दा कहीं न होता! महाराजा के ढुलमुलपन का फायदा पाकिस्तान उठाना चाहता था। पाकिस्तान के दो दूतों ने श्रीनगर में शेख अब्दुल्ला से मुलाकात की और पाकिस्तान के पक्ष में निर्णय कराने पर जोर दिया। वरना, उनका कहना था कि दूसरे तरीके इस्तेमाल किए जाएंगे। यह सरासर धमकी थी। शेख अब्दुल्ला ने अपनी आत्मकथा ‘आतिशे चिनार’ में लिखा है कि जब वे पाकिस्तान के कुछ नेताओं से बातचीत में मशगूल थे, पाकिस्तानी हमलावर कश्मीर के लोगों की जमीन और उनके अधिकारों को अपने पांवों तले कुचल रहे थे।’

कश्मीर पर कई पुस्तकों के लेखक बलराजपुरी ने लिखा है ‘इन घटनाओं के कारण महाराजा हरि सिंह के पास हिंदुस्तान की तरफ मुड़ने के अलावा कोई चारा न था। महाराजा ने नेहरू तक यह संदेश पहुंचाया कि मैं भारत में शामिल हो सकता हूं, शर्त यह है कि भारतीय सेना के जहाज इसी शाम को श्रीनगर पहुंच जाएं, अन्यथा मैं जाकर जिन्ना से बात कर लूंगा। नेहरू को यह सौदेबाजी अच्छी नहीं लगी लेकिन शेख अब्दुल्ला के आग्रह पर वे नरम पड़े और 27 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तानी आक्रमणकारियों का सफाया करने के लिए भारतीय सेना भेजी।’ 
कोई मतभेद नहीं : 


नेहरू ने कश्मीर मामले से जुड़े सभी मुद्दों पर पटेल समेत केंद्रीय मत्रिमंडल से बाकायदा बातचीत की। प्रख्यात पत्रकार दुर्गादास ने 10 खंडों में पटेल के पत्रों (1947 से 1950 तक) का एक बड़ा संकलन ‘सरदार पटेल्ज कॉरेसपॉन्डेंस’ नाम से तैयार किया है। इसमें नेहरू को लिखे कई पत्र हैं जिनमें कहीं भी इसका जिक्र नहीं है कि उनके नेहरू से कोई गहरे मतभेद थे। पटेल जैसे ‘लौह-पुरुष’ क्या अपना अपमान सह सकते थे! अगर कोई मतभेद होते तो वे फौरन केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देते। आज पटेल के उस भाषण को याद करने की जरूरत है जो उन्होंने 30 अक्टूबर, 1948 को बंबई में एक आमसभा को संबोधित करते हुए दिया था, ‘हम कश्मीर में इसलिए हैं क्योंकि वहां के लोग ऐसा चाहते हैं। जिस क्षण हमें लगेगा कि कश्मीर के लोग नहीं चाहते कि हम वहां रहें, उसके बाद हम एक मिनट भी वहां नहीं रुकेंगे.... हम कश्मीर को धोखा नहीं दे सकते।’
साभार : 

http://epaper.navbharattimes.com/details/63237-77176-1.html


 ~विजय राजबली माथुर ©

Saturday, September 28, 2019

जीत गए तो 71 , हार गये तो 62 ------ मनीष सिंह / संतोष कुमार झा






Santosh Kumar Jha
28-09-2019 
Manish singh
https://www.facebook.com/manish.janmitram/posts/2450682738349362

हर सितारे का एक वक्त होता है। उसके बनने का, चमकने का और धूमिल हो जाने का भी..। नेपोलियन के लिए वाटरलू, हिटलर के लिए ईस्टर्न फ्रंट और नेहरू के लिए चीन..

15 अगस्त 1947 में आजाद भारत की सीमाएं, ब्रिटिश भारत से विरासत में मिली। पश्चिमी सीमा तो बंटवारे में ब्रिटिश ने रेडक्लिफ लाइन से तय कर दी थी। कश्मीर बाद में हमसे जुड़ा, जुड़ने के पहले कुछ हिस्सा पाक दबा चुका था। वहां एक्चुअल कन्ट्रोल की लाइन को फोर्टिफाइ कर सेफ किया गया। मगर पूर्वी सीमा बड़ी अस्पस्ट थी।

पूर्वी सीमाओ का रिफरेंस पॉइंट, अंग्रेजो के दो सौ साल के राज दौरान अलग अलग सन्धियों से तय होनी थी। अंग्रेज युद्ध मे "इलाके" जीत लेते थे, इलाके खरीद भी लेते थे (कुमाऊँ गढ़वाल नेपालियों से खरीदा), इलाके लीज पर लेते थे ( गिलगित बल्टिस्तान, 1930 में कश्मीर राजा से 60 साल की लीज पर लिया था)। इन्ही सन्धियों को रिफरेंस पॉइंट लेकर भारत को अपनी सीमा तय करनी थी, जिसमे पड़ोसी की भी मंजूरी हो।

पर सन्धियों में इलाके लिखे होते हैं, कागज पर डॉटेड लाइन बना दी जाती है, मान ली जाती है। जमीनी बार्डर अलग चीज है,वह जमीन पर पक्की लाइन खींचकर तय की जाती है। इसलिए जॉइंट बॉर्डर कमीशन बनते, सर्वे होता, नक़्शे के आधार पर जमीनी लाइन खिंचती थी।

मगर चीन के साथ ब्रिटीश ऐसा कर नही पाए। पहली बात ये, मजे की.. की ब्रिटिश के लिए चीन से सीमा मिली ही नही थी। वो तिब्बत था, जिसपर ढीला कन्ट्रोल चीन राजा का था जरूर, मगर तिब्बतियन ट्राइब्स लगभग स्वतंत्र थे। ब्रिटिश ने तिब्बतियों को कई झड़पों में दबाया। फिर 1914 में शिमला में एक कान्फ्रेंस हुई। तिब्बती और ब्रिटिश इंडियन अफसरों ने समझौता करके बार्डर तय किये गए। अरुणाचल के इलाके तय करती इस रेखा को "मैकमेंहन लाइन" कहा गया। कई स्थानों पर इस लाइन ने तिब्बती इलाके, ब्रिटिश भारत मे दिखाए। तिब्बती कमजोर थे, दस्तखत कर गए। सो टेक्निकली तिब्बती कल्चर कई इलाके नक़्शे में ब्रिटिश सरकार के हो गए। मगर जमीन पर अंग्रेजो ने इन्हें न अपने प्रशासन में लिया, न फोर्टिफाइ किया। तवांग ऐसा ही इलाका था, जिसका जिक्र आगे आएगा।

47 में इन्ही सीमाओ (नक्शों) को हमनें विरासत में पाया। तिब्बत तो मित्र था, कोई समस्या नही थी। पर समस्या आयी जब माओइस्ट चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। तिब्बत अब चीन था, अग्रेसिव था, अब कम्युनिस्ट भी था, रूस की बैकिंग थी। भारत को देश हुए जुम्मा जुम्मा दो साल हुए थे। सेना कम थी, पश्चिम में पाकिस्तान से उलझी हुई थी। तो पूर्व में चीन से उलझना बेवकूफी थी। नेहरू ने दो चीजें तय की। एक- चीन को संतुष्ट रखना, दो- सीमा मामले पर मैकमैहन लाइन पर दृढ़ रहना।

खुश करने के लिए चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता दी, तब जबकि पूरे पश्चिम ने माओ को चीन का अधिकृत शासक मानने से इनकार कर दिया था। चीन की यूएन में परमानेंट सीट होल्ड हुई, तो नेहरू ने उसकी वकालत की। चीन की सीट इंडिया को दिए जाने के लालच से भी खुद को बचाया।

दूसरी ओर, सीमा के मसले पर चीन के भारतीय राजदूत पणिक्कर के द्वारा मैकमैहन लाइन को फाइनल मानने का संदेश भेजा। चाइनीज पीएम चाऊ का जवाब-"हमे अपनी मित्रता, और सांस्कृतिक आदान प्रदान पर ध्यान देना चाहिए. सीमा का मसला, जैसी परम्पराये हैं, उस आधार पर देख लेंगे"। अब समझना कठिन था की मैकमैहन पर चीन उत्तर हां है या ना??

नेहरू ने टेस्ट किया। तवांग, जो था मैकमैहन लाइन में हमारी ओर, मगर था तिब्बती इलाका। 1951 में भारतीय प्रशासन वहां पहुंचा औऱ अपने नियंत्रण में ले लिया। पहली बार आजाद भारत ने मैकमैहन लाइन को एक्सरसाइज किया। देश झूम उठा। चीन की कोई प्रतिक्रिया नही आई। हमने इसे मैकमैहन लाइन पर चीन की स्वीकृति माना। अरुणाचल और नॉर्थ ईस्ट में मसला सुलझने का सन्देश समझा गया।

मगर 1952 में एक घटना हुई। ऊपर अक्साई चिन नाम का इलाका है। इसे ब्रिटिश मैप्स में कश्मीर.. (अब भारत) मे दिखाया गया था। इन नक्शो को ब्रिटिश सर्वेयर्स ने एकतरफा बनाया था, और तिब्बत/ चीन को अप्रूवल के लिये भेजा था। तिब्बत या चीन की ओर से कभी वेरिफाई करने का रिकार्ड नही है। ठंडा, निर्जन रेगिस्तान जैसे इस इलाके में कश्मीर राजा, या तिब्बतीयों, या अंग्रेजो ने सुरक्षा या गश्त की जहमत कभी नही की थी। इस अन्डिफेंडेड इलाके से होकर चीन ने एक सड़क बना ली थी।

सड़क थी जिनजियांग इलाके को तिब्बत से जोड़ने के लिए। वहां विद्रोह होते रहते थे। सेना पहुंचाने के लिए उसकी जरूरत थी। मगर विरासत में मिले नक़्शे के लिहाज से हिंदुस्तानी इलाके का वॉयलेशन था। हिंदुस्तान चीत्कार उठा। "नेहरूऊऊऊ.., सुई के नोक के बराबर भारत भूमि चीन को मत देना"।

नेहरू ऐसी वारमोंगरिंग के खतरे समझते थे। समझाने की कोशिश की- "बंजर पहाड़ है, ज्यादा पंगा मत लो"। तो हमने गंजा सिर दिखा दिया-" इस सिर पर कुछ नही उगता, तो कटवा दें क्या??" .

बिल्कुल नही। अब सीमा पर चौकसी मजबूत की जाने लगी। सेना में खूब भर्ती होने लगी। नेशनल डिफेंस कालेज, एनसीसी वगेरह उसी दौर में आये। और आये कृष्णा मेनन। बड़े योग्य, ज्ञानी, प्रॉफेशनल और उतने ही बदतमीज डिफेंस मिनिस्टर। पूर्वी सीमा के लिए अलग से नई कोर बनी। पहाड़ो में सड़कें, हवाई अड्डे बनने लगे।

चीन देख रहा था, आपत्ति कर रहा था। नेहरू ने उसे भी सन्तुष्ट रखने की कोशिश की। 1954 में पंचशील समझौता किया। याने तिब्बत पर चाइनीज अधिकार स्वीकार कर लिया। हिंदी चीनी भाई भाई कहलाए। नेहरू यूएन में उंसके पक्ष में बोलते रहे। मगर फिर धर्मसंकट आ गया।

1958 में दलाई लामा भारत भाग आये। नेहरू ने खुद मिलकर समझाया, मगर लामा वापस जाने को तैयार नही हुए। भारत मे बैठकर तिब्बत की निर्वासित सरकार बना ली। उधर नई नई शुरू हो गई बॉर्डर पेट्रोल में रोज रोज चाइनीज सेना का सामना होता। इसे हमारी फारवर्ड पॉलिसी कहा गया। रोज हेडलाइन्स बनती, संसद में बहस होती, चीन की निगाह में भारत होस्टाइल होता जा रहा था। सीमा पर उसने भी इन्फ्रास्ट्रक्चर और फॉर्मेशन बढ़ाने शुरू किए। उसकी भी खबरें बनती, याने और हेडलाइन, और बहस...

उधर पाकिस्तान में एक जनरल ने सत्ता हाथ मे ले ली। भारत मे जनरल थिमैया और बदतमीज मेनन की रोज किचकीच होती। इसमे नए इलाके में घुसकर पेट्रोलिंग के मुद्दे शामिल थे। थिमैया ने इस्तीफा तक दे दिया, नेहरू के कहने पर वापस लिया। इस किचकिच और अविश्वास का फायदा मिला- बीएम कौल को। कहते है कि वे नेहरू और मेनन के विश्वाशपात्र थे। दर्जन भर अफसर दरकिनार कर उन्हें उप सेनाध्यक्ष बनाया गया, और नई नवेली ईस्टर्न कमांड उनको दी गयी। अपनी जान में नेहरू, मेनन और कौल ..सेना और सीमा मजबूत करने में जुटे थे।

1960 में चाऊ भारत आये। एक प्रस्ताव दिया। नीचे मैकमोहन लाइन हम मान लेते हैं, इस तरह नेफा (अरुणाचल) आपका।। ऊपर अक्साई चिन पर हमारा अधिकार स्वीकार कर लो। बॉर्डर पर झड़पें रोकने के लिए दोनो सेनाएं, स्टेटस क्वो से 20 किमी पीछे लौट जाएं। भारत ने मना कर दिया। काहे सर पे बाल नही, मगर सर थोड़ी कटा सकते हैं। इसलिए- "सीमा वहीं बनाएंगे"

1961 आया। भारत की सेना ने गोआ जीत लिया। यूएन में भी पुर्तगाल को नेहरू ने सुलट लिया। याने सेना भी मजबूत है, और विश्व मे हमारी पकड़ भी। छप्पनिया देश का और क्या सबूत चाहिए। उधर पूर्वी सीमा पर झड़पें खूनी हो चली थी। युद्ध आसन्न था।

20 अक्टूबर 1962 को चीन ने अक्साई चिन इलाके पर धावा बोला। नीचे तवांग के इलाके में भी उसकी फौजें घुसी। नेहरू देश से बाहर थे। भागे भागे आए, तो पता चला, बहादुर जनरल कौल हार्ट अटैक के नाम पर दिल्ली आकर भर्ती थे। उन्हें वापस मोर्चे पर दौड़ाया। वर्ल्ड कम्युनिटी से सहयोग चाहा। मगर सितारे उल्टे चल रहे थे।

क्यूबा का मिसाइल संकट चल रहा था। जब रूस ने अपने परमाणु मिसाइल क्यूबा में लगाकर सारे अमरीका को घेरे में ले रखा हो, अमरीका ने तैनाती तुरन्त न हटाने पर रूस पर सारी मिसाइल तान रखी हो, जब सारा विश्व परमाणु युद्ध के मुहाने पर खड़ा हो। उस वक्त एशिया की पहाड़ियों पर लड़ रहे, तीसरी दुनिया के दो देशों के बीच- बचाव की फुर्सत किसे। हम पिटते रहे.. गाते रहे - कर चले हम फिदा ...।

18 दिन का क्यूबा संकट खत्म हुआ। रूस को फुर्सत मिली, तो चीन को समझाया। चीन का उद्देश्य भारत को सबक सिखाना था। काफी टेरेट्रीज जीत चुका था। 19 नवम्बर को उसने एकतरफा युद्ध विराम कर दिया। भारत की निर्णायक हार हो चुकी थी। अक्साई चिन और अरुणाचल में वो जितना देने को तैयार था, उससे आगे आकर कब्जा कर गया। आज भी वे कब्जे बरक़रार हैं।

इसे सैनिक असफलता कहें, कूटनीतिक असफ़लता कहे, राजनैतिक असफलता कहे, या नेहरू की निजी असफलता.. भारत का मान मर्दन पूरा हो चुका था। मेनन- कौल के इस्तीफे आये। नेहरू अस्ताचल में चले गए। डेढ़ साल बाद मर गए। एसटीडी/एड्स से तो नही.. मगर हार्ट अटैक से।

चीन, नेहरू का वाटरलू था। वाटरलू नेपोलियन की महानता को खत्म नही करता, मगर पूर्ण विराम तो लगाता ही है। चीन से हार के लिए नेहरू जिम्मेदार थे, कोई शक नही। मगर अनिच्छुक नेहरू को इस तरफ धकेलने के लिए उस वक्त की संसद, अखबारो और जनमानस को भी एक छटाँक जिम्मा लेना चाहिए।

नक्शों पर, सैंकड़ो साल पहले.. किसी और के विजयोत्सव के दौरान खींची गई रेखाओं के आधार पर, हम आज विजयी भाव लेकर पड़ोसियों से युद्ध की ताल ठोकें। वर्तमान को नकार दें। सड़को पर, संसद में , मीडिया में , गली कूचों पर " सीमा वहीँ बनाएंगे" का वीरभाव दिखाएं। ये राष्ट्रीय भाव जगाने को अच्छा है, शायद चुनाव जीतने के लिए भी। मगर युद्ध न प्रधानमंत्री को लड़ना होता है, न मीडिया, न सांसदो को, न जनरल को, न गली कूचों बैठी गर्वोंन्मत जनता को। मरते बस सैनिक है।


वे सैनिक, कोई सिख, कोई जाट मराठा, कोई गुरखा कोई मद्रासी... हाड़मांस के आम इंसान, जो सर्द पहाड़ी पर हमारी आपकी शेखी की पताका लेकर ऊंचे से ऊंचा फहराने के लिए वर्दी डालकर जान देते है। जीत गए तो 71 , हार गये तो 62

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  ~विजय राजबली माथुर ©

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Tuesday, September 24, 2019

ह्यूस्टन का तमाशा: इससे किसी सार्थक और सकारात्मक परिणाम की अपेक्षा करना बेमानी है ------ हेमंत कुमार झा





Hemant Kumar Jha
24-09-2019 
डोनाल्ड ट्रम्प की सरकार को नाओम चोम्स्की ने "अमेरिका के लोकतांत्रिक इतिहास की सर्वाधिक मानव द्रोही सरकार" की संज्ञा दी है। जीवित किंवदन्ती बन चुके, अमेरिका में रह रहे वयोवृद्ध विचारक चोम्स्की जब कुछ बोलते हैं तो दुनिया गम्भीरता से उन्हें सुनती है।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत की सरकार के कार्यकलापों को लेकर भी चोम्स्की के कुछ ऐसे ही विचार हैं। जब मोदी केंद्र की सत्ता में आए थे तो चोम्स्की ने इसे "भारत के लिये अंधेरा समय" की संज्ञा दी थी और अभी हाल में एक इंटरव्यू में उन्होंने मोदी सरकार पर "देश की संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को नष्ट करने" के आरोप लगाते हुए कहा कि "इसने लोकतंत्र और मानवाधिकार के लिये खतरा उत्पन्न कर दिया है।"

ट्रम्प प्रशासन पर भी संस्थाओं की गरिमा को चोट पहुंचाने के गम्भीर आरोप लगते रहे हैं और इस कारण अमेरिका में संवैधानिक पदों पर आसीन अनेक स्वाभिमानी लोगों ने बीते दिनों इस्तीफा दे दिया है।

ट्रम्प ने "अमेरिका फर्स्ट" का नारा दे कर राष्ट्रवाद के जिस नकारात्मक रूप को प्रस्तुत किया है उसने मानवीय त्रासदियों और व्यापारिक संकटों के नए सिलसिलों की शुरुआत कर दी और इन्हें लेकर पूरी दुनिया में चिन्ताएं व्यक्त की जा रही हैं। इधर, मोदी का राष्ट्रवाद भारतीयता की अवधारणा के विरुद्ध सिर उठा रही उन लंपट शक्तियों का मनोबल बढ़ा रहा है जिनकी अराजक कारगुजारियों के समक्ष संवैधानिक तंत्र लाचार नजर आ रहा है।

पोस्ट-ट्रूथ पॉलिटिक्स के अध्येताओं ने ट्रम्प और मोदी, दोनों की चुनावी जीत को "वास्तविकताओं के स्थान पर कृत्रिम सत्य के प्रतिस्थापन का नकारात्मक निष्कर्ष" बताया। 2014 में नरेंद्र मोदी और 2016 में डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के बाद 'पोस्ट-ट्रूथ' शब्द की इतनी चर्चा हुई कि ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने इस शब्द को 2016 का "वर्ड ऑफ द ईयर" घोषित कर दिया।

जब ट्रम्प राष्ट्रपति उम्मीदवार बने और फिर जीत भी गए तो पूरी दुनिया का बौद्धिक तबका हक्का-बक्का रह गया क्योंकि अमेरिकी लोकतंत्र की परिपक्वता को लेकर आमतौर पर एक आश्वस्ति का भाव रहा है। ट्रम्प की जीत को अमेरिका की राजनीतिक संस्कृति में मानवीय आदर्शों के पतनोन्मुख होने का स्पष्ट संकेत माना गया। कहा गया कि यह जीत अप्रत्याशित है और इसके लिये अमेरिका में बढ़ते नस्लभेद, कमजोर वर्गों के साथ ही स्त्री विरोधी मानसिकता को मुख्य रूप से जिम्मेदार माना गया।

नरेंद्र मोदी की जीत अप्रत्याशित तो बिल्कुल नहीं थी लेकिन इस जीत के परिणामों को लेकर भारत सहित दुनिया भर के बौद्धिक हलकों में गहरे संदेह व्यक्त किये गए। नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित आयरिश विचारक मैरीड मेग्योर ने मोदी की जीत को "मानवीय मूल्यों के संदर्भ में अत्यंत निराशाजनक परिणाम" कहते हुए इसे "भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के विरुद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक अराजकताओं को आमंत्रण" बताया।

ट्रम्प और मोदी दोनों बौद्धिकता विरोधी नेता हैं और अपने इस रुख को छिपाने में दोनों को ही कतई यकीन नहीं है। उन्हें पता है कि दुनिया का बौद्धिक तबका अगर उनको संदेह की नजरों से देखता है तो इस तबके को ठेंगे पर रख कर ही वे अपनी राजनीति को आगे बढ़ा सकते हैं। दोनों के समर्थन आधार में भी बौद्धिक व्यक्तियों के प्रति हिकारत और बौद्धिकता के प्रति निषेध के भाव मुखर रहे हैं।

सतह की निचली परतों में बढ़ती सड़ांध के बावजूद जहां मोदी 'न्यू इंडिया' के नारे के साथ आम लोगों को भरमाने में सफल हो रहे हैं वहीं ट्रम्प बढ़ती सामाजिक अराजकताओं और बुरी तरह बढ़ती आर्थिक विषमताओं के बावजूद 'बदलते अमेरिका' का राग अलापते रहते हैं।

प्रभावी रूप से झूठ बोलने में दोनों को ही महारत हासिल है। बतौर शासनाध्यक्ष, नीतियों और सरकारी कार्यकलापों से जुड़े झूठ ये दोनों बोलते ही रहते हैं। अंतर यही है कि जहां ट्रम्प को अमेरिका में खूब एक्सपोज किया जाने लगा है वहीं मोदी के झूठ को सच मानने और मनवाने में उनके समर्थक सोशल मीडिया से लेकर चाय की दुकानों तक अत्यंत सक्रिय रहते हैं। एक और अंतर यह है कि मोदी युग में जहाँ भारत में "मीडिया का भक्तिकाल" चल रहा है वहीं अमेरिका में प्रमुख मीडिया संस्थान ट्रम्प के झूठ को उजागर करने में कोई कोताही नहीं बरत रहे।

अभी हाल में 'वाशिंगटन पोस्ट' ने ट्रम्प के निरन्तर झूठ बोलने पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की है। अखबार के "फैक्ट चेकर्स डेटाबेस" के मुताबिक राष्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रम्प अपनी जनता से और पत्रकारों से 10 हजार 796 बार झूठ और गुमराह करने वाली बातें बोल चुके हैं। बहरहाल, मोदी के झूठों की फेहरिस्त बनाना उतना आसान नहीं क्योंकि उनके नेतृत्व में देश का सत्ता तंत्र झूठ की खेती करने में जिस तरह लगा हुआ है उससे सिर्फ भ्रम ही उपज सकता है, उपज भी रहा है।

दोनों ही बातें लम्बी-लम्बी करते हैं लेकिन दोनों के शासन काल में उनके समाजों में परस्पर असहिष्णुता में बढ़ोतरी हुई है। दोनों ने ही अपने-अपने देशों की अर्थव्यवस्थाओं के कायाकल्प का वादा किया था लेकिन दोनों इस संदर्भ में विफल रहे हैं और अपनी इस विफलता को ढंकने के लिये तरह-तरह के भ्रामक तथ्यों का सहारा लेते हैं।
ट्रम्प अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अपेक्षाओं के अनुरूप गतिशीलता नहीं ला सके वहीं मोदी ने तो भारत की अर्थव्यवस्था का बंटाधार करने में कोई कसर नही छोड़ी है। बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने सनसनी फैलाने के लिये नोटबन्दी का अचानक बिना आगा-पीछा सोचे निर्णय लिया, उसने भारतीय अर्थव्यवस्था, खास कर असंगठित क्षेत्र को जिस तरह बर्बाद किया उसे मानने के लिये आज भी न वे और न उनका थिंक टैंक तैयार हैं।

समकालीन वैश्विक राजनीति में दोनों एक दूसरे को वैधता देते हैं, एक दूसरे की प्रशंसा करते हैं और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके से एक दूसरे के राजनीतिक छद्म को सहयोग देते हैं।

अमेरिका के ह्यूस्टन शहर में जो प्रायोजित तमाशा हुआ उसमें ट्रम्प की मौजूदगी ने मोदी की छवि निर्माण की राजनीति को बढावा दिया और यह बिल्कुल स्वाभाविक था। आम तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपतियों से ऐसी उम्मीद नहीं की जाती, लेकिन ये तो डोनाल्ड ट्रम्प हैं जो अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के नैतिक और राजनीतिक मानदंडों की ऐसी-तैसी करने में कोई संकोच नहीं करते...बात अगर चुनावी फायदे की हो तब तो बिल्कुल नहीं। अगले साल उन्हें राष्ट्रपति चुनाव में फिर उतरना है और अमेरिका में दिन ब दिन मजबूत और प्रभावी होती जा रही भारतीय लॉबी का समर्थन उनके बहुत काम आ सकता है।

इसलिये, भारत में भयंकर मानवीय त्रासदी का रूप लेती जा रही बेरोजगारी और आर्थिक विफलताओं के बावजूद नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी शहर में जो फूहड़ तमाशा आयोजित किया उसमें उन्होंने "भारत में सब कुछ अच्छा चल रहा है" कह कर बेरोजगार भारतीय नौजवानों और नौकरी खोते जा रहे कामगारों का खुलेआम मजाक उड़ाया। उधर, ट्रम्प ने भी मोदी के साथ अपनी दोस्ती की कसमें खाते हुए यह कह कर उनकी हौसला अफजाई की कि..."मोदी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।"

नाटकीयता में दोनों का कोई सानी नहीं है और ट्रम्प के नाटक के बाद उसी नाटकीय अंदाज में मोदी ने भी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के स्थापित मानदण्डों की धज्जियां बिखेरते हुए, हवा में हाथ लहराते हुए..."अबकी बार, ट्रम्प सरकार" का जब नारा लगाया तो यह भारत के प्रधानमंत्री की गरिमा के नितांत विरुद्ध होते हुए भी नरेंद्र मोदी के लिये स्वाभाविक ही था।

यद्यपि, भारत नामक देश ट्रम्प के नेतृत्व वाले अमेरिका से वास्तविक हितैषी होने की अगर उम्मीद करता है तो यह बेकार की उम्मीद ही साबित होगी। 

ह्यूस्टन का तमाशा दो देशों की नहीं, दो नाटकीयता पसंद, छद्म मुद्दों पर राजनीति करने वाले राजनेताओं की सार्वजनिक जुगलबंदी का एक उदाहरण मात्र है जिससे किसी सार्थक और सकारात्मक परिणाम की अपेक्षा करना बेमानी है।
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 ~विजय राजबली माथुर ©

Thursday, September 19, 2019

पूरे घटनाक्रम की पटकथा दिल्ली में लिखी गई थी ------ हेमंत शर्मा



http://epaper.navbharattimes.com/details/60713-77281-2.html


फैसले के 40 मिनट के अंदर खुल गया था ताला


विशुद्ध राजनीति
दास्तान
हेमंत शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार

क्या आपने कभी सुना है कि आजाद भारत में किसी अदालत के फैसले का पालन महज 40 मिनट के अंदर हो गया हो।  अयोध्या में 1 फरवरी 1986 को विवादित इमारत का ताला खोलने का आदेश फैजाबाद के जिला जज देते हैं और राज्य सरकार 40 मिनट के भीतर उसे लागू करा देती है। शाम 4.40 पर अदालत का फैसला आया और 5.20 पर विवादित इमारत का ताला खुल गया। अदालत में ताला खुलवाने की अर्जी लगाने वाले वकील उमेश चंद्र पांडे भी कहते हैं कि उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि सब कुछ इतनी जल्दी हो जाएगा। दूरदर्शन की टीम ताला खुलवाने की पूरी प्रक्रिया कवर करने के लिए वहां पहले से मौजूद थी। तब दूरदर्शन के अलावा देशभर में कोई और चैनल नहीं था। इस कार्रवाई को दूरदर्शन से उसी शाम पूरे देश में दिखाया गया। उस वक्त फैजाबाद में दूरदर्शन का केंद्र भी नहीं था। कैमरा टीम लखनऊ से गई थी। लखनऊ से फैजाबाद जाने में 3 घंटे लगते हैं यानी कैमरा टीम पहले से भेजी गई थी। 

दरअसल इस पूरे घटनाक्रम की पटकथा दिल्ली में लिखी गई थी, अयोध्या में तो सिर्फ किरदार थे। इतनी बड़ी योजना फैजाबाद में घट रही थी पर उत्तर प्रदेश सरकार को इसकी कोई भनक नहीं थी, सिवाय मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के, जिनसे कहा गया था कि वह अयोध्या को लेकर सीधे और सिर्फ अरुण नेहरू के संपर्क में रहें। मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद वीर बहादुर सिंह से मेरी इस मुद्दे पर लंबी चर्चा हुई थी। उनसे कहा गया था कि सरकार अदालत में कोई हलफनामा नहीं दे लेकिन फैजाबाद के कलेक्टर और सुपरिंटेंडेंट अदालत में हाजिर होकर कहें कि अगर ताला खुला तो प्रशासन को कोई एतराज नहीं होगा। वीर बहादुर सिंह ने बताया था कि फैजाबाद के कमिश्नर को दिल्ली से आदेश आ रहे थे। दिल्ली का कहना था, इस बात के सारे उपाय किये जाएं कि ताला खोलने की अर्जी मंजूर हो।



पक्षकार को नहीं सुना गया :

फैजाबाद के जिला जज कृष्ण मोहन पांडे ने ताला खोलने के फैसले का आधार जिला मजिस्ट्रेट आईपी पांडे और एसएसपी कर्मवीर की उस गवाही को बनाया, जिसमें दोनों ने एक स्वर में कहा था कि ताला खोलने से प्रशासन को कोई एतराज नहीं होगा, ना ही उससे कोई कानून व्यवस्था की समस्या पैदा होगी। इतनी विपरीत स्थितियों में जिला प्रशासन का यह रुख बिना शासन की मर्जी के तो हो ही नहीं सकता था। खास बात यह थी कि जिन उमेश चंद्र पांडे की अर्जी पर ताला खुला, वह बाबरी मुकदमे के पक्षकार भी नहीं थे। जो पक्षकार थे, उन्हें जज साहब ने सुना ही नहीं। दरअसल 28 जनवरी 1986 को फैजाबाद के मुंसिफ मजिस्ट्रेट हरिशंकर दुबे एक वकील उमेश चंद्र पांडे की राम जन्म भूमि का ताला खोलने की मांग करने वाली अर्जी को खारिज कर देते हैं। दो रोज बाद ही फैजाबाद के जिला जज की अदालत में पहले से चल रहे मुकदमा संख्या 2/1949 में उमेश चंद्र पांडे एक दूसरी अर्जी दाखिल करते हैं और जिला जज दूसरे ही रोज जिला कलेक्टर और पुलिस कप्तान को तलब कर उनसे प्रशासन का पक्ष पूछते हैं। हलफनामा देने के बजाय दोनों अफसरों ने मौखिक रूप से कहा कि ताला खोलने से कोई गड़बड़ नहीं होगी। दरअसल यह फैसला केंद्र सरकार का था, जिसे राज्य और जिला प्रशासन लागू करा रहे थे। दोनों अफसरों के इस बयान से जज को फैसला लेने में आसानी हुई। 

बाबरी मस्जिद पर मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील मुस्ताक अहमद सिद्दीकी ने इस अर्जी पर अदालत से अपनी बात रखने की पेशकश की। जज ने कहा कि उन्हें सुना जाएगा पर उन्हें बिना सुने ही शाम 4.40 पर जज साहब फैसला सुना देते हैं। इस फैसले में कहा गया कि ‘अपील की इजाजत दी जाती है। प्रतिवादियों को गेट संख्या ओ और पी पर लगे ताले खोलने का निर्देश दिया जाता है। प्रतिवादी आवेदक और उसके समुदाय को दर्शन और पूजा में कोई अड़चन-बाधा नहीं डालेंगे।’ जिला जज के इस फैसले के बाद उनकी सुरक्षा बढ़ा दी जाती है। फिर 40 मिनट के अंदर ही पुलिस की मौजदगी में ताला तोड़ दिया जाता है और अंदर पूजा-पाठ कीर्तन शुरू हो जाता है।



वह दैवी ताकत

जिला जज कृष्ण मोहन पांडे 1991 में छपी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, ‘जिस रोज मैं ताला खोलने का आदेश लिख रहा था, मेरी अदालत की छत पर एक काला बंदर पूरे दिन फ्लैगपोस्ट को पकड़ कर बैठा रहा। वे लोग जो फैसला सुनने के लिए अदालत आए थे, उस बंदर को फल और मूंगफली देते रहे पर बंदर ने कुछ नहीं खाया। चुपचाप बैठा रहा। मेरे आदेश सुनाने के बाद ही वहां से गया। फैसले के बाद जब डीएम और एसएसपी मुझे मेरे घर पहुंचाने आए तो मैंने उस बंदर को अपने घर के बरामदे में बैठा पाया। मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने उसे प्रणाम किया। वह कोई दैवी ताकत थी।’

इस फैसले के बाद उन्हें कम महत्व के स्टेट ट्रांसपोर्ट अपील प्राधिकरण का चेयरमैन बना दिया गया। जब उन्हें हाई कोर्ट में जज बनाने की बात चली तो वीपी सिंह की सरकार ने फच्चर फंसा दिया। उनकी फाइल में प्रतिकूल टिप्पणी कर दी गई। मुलायम सिंह यादव ने भी उनके हाईकोर्ट जज बनने का विरोध किया। इसके बाद चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने और उनकी सरकार में कानून मंत्री बने डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी। चंद्रशेखर सरकार ने पांडेय के जज बनने की फाइल फिर खोली। आखिकार उन्होंने मुलायम सिंह यादव को मना लिया। इसके बाद 24 जनवरी 1991 को केएम पांडेय को इलाहाबाद हाईकोर्ट का जज बनाया गया लेकिन एक महीने के भीतर उनका ट्रांसफर मध्यप्रदेश हाईकोर्ट कर दिया गया। जबलपुर से ही 28 मार्च 1994 को केएम पांडेय रिटायर हो गए।


(हेमंत शर्मा की पुस्तक ‘युद्ध में अयोध्या’ से साभार)

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 ~विजय राजबली माथुर ©

Saturday, September 14, 2019

लोकतंत्र तभी तक फल-फूल सकता है, जब तक ख़बरों में सच्चाई हो ------ रवीश कुमार







नई दिल्ली: हिंदी पत्रकारिता के लिए गौरव का दिन है. आज फिलीपीन्स की राजधानी मनीला में एनडीटीवी इंडिया के रवीश कुमार को रेमॉन मैगसेसे सम्मान प्रदान किया गया है. उनको सम्मान देने वालों ने माना है कि रवीश कुमार उन लोगों की आवाज़ बनते हैं जिनकी आवाज़ कोई और नहीं सुनता. पिछले दो दशकों में एनडीटीवी में अलग-अलग भूमिकाओं में और अलग-अलग कार्यक्रमों के ज़रिए रवीश कुमार ने पत्रकारिता के नए मानक बनाए हैं. एक दौर में रवीश की रिपोर्ट देश की सबसे मार्मिक टीवी पत्रकारिता का हिस्सा बनता रहा. बाद में प्राइम टाइम की उनकी बहसें अपने जन सरोकारों के लिए जानी गईं. और जब सत्ता ने उनके कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया तो रवीश ने जैसे प्राइम टाइम को ही नहीं, टीवी पत्रकारिता को ही नई परिभाषा दे डाली. सरकारी नौकरियों और इम्तिहानों के बहुत मामूली समझे जाने वाले मुद्दों को, शिक्षा और विश्वविद्यालयों के उपेक्षित परिसरों को उन्होंने प्राइम टाइम में लिया और लाखों-लाख छात्रों और नौजवानों की नई उम्मीद बन बैठे. जिस दौर में पूरी की पूरी टीवी पत्रकारिता तमाशे में बदल गई है- राष्ट्रवादी उन्माद के सामूहिक कोरस का नाम हो गई है, उस दौर में रवीश की शांत-संयत आवाज़ हिंदी पत्रकारिता को उनकी गरिमा लौटाती रही है. मनीला में रेमॉन मैगसेसे सम्मान से पहले अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा कि अब लोकतंत्र को नागरिक पत्रकार की बचाएंगे और वे ख़ुद ऐसे ही नागरिक पत्रकार की भूमिका में हैं.

Ramon Magsaysay Award लेने के बाद रवीश कुमार ने कहीं 10 बड़ी बातें   : 
1-जब से रमोन मैगसेसे पुरस्कार की घोषणा हुई है मेरे आस पास की दुनिया बदल गई है। जब से मनीला आया हूँ आप सभी के सत्कार ने मेरा दिल जीत लिया है. आपका सत्कार आपके सम्मान से भी ऊँचा है. आपने पहले घर बुलाया, मेहमान से परिवार का बनाया और तब आज सम्मान के लिए सब जमा हुए हैं.
2-आमतौर पर पुरस्कार के दिन देने वाले और लेने वाले मिलते हैं और फिर दोनों कभी नहीं मिलते हैं. आपके यहां ऐसा नहीं है. आपने इस अहसास से भर दिया है कि ज़रूर कुछ अच्छा किया होगा तभी आपने चुना है. वर्ना हम सब सामान्य लोग हैं. आपके प्यार ने मुझे पहले से ज्यादा ज़िम्मेदार और विनम्र बना दिया है. 
3-हर जंग जीतने के लिए नहीं लड़ी जाती, कुछ जंग सिर्फ इसलिए लड़ी जाती हैं, ताकि दुनिया को बताया जा सके, कोई है, जो लड़ रहा है.  रवीश कुमार ने कहा कि दुनिया असमानता को हेल्थ और इकोनॉमिक आधार पर मापती है, मगर वक्त आ गया है कि हम ज्ञान असमानता को भी मापें. 
4-आज जब अच्छी शिक्षा खास शहरों तक सिमटकर रह गई है, हम सोच भी नहीं सकते कि कस्बों और गांवों में ज्ञान असमानता के क्या ख़तरनाक नतीजे हो रहे हैं. ज़ाहिर है, उनके लिए व्हॉट्सऐप यूनिवर्सिटी का प्रोपेगंडा ही ज्ञान का स्रोत है. युवाओं को बेहतर शिक्षा नहीं पाने दी गई है, इसलिए हम उन्हें पूरी तरह दोष नहीं दे सकते. 
इस संदर्भ में मीडिया के संकट को समझना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है. अगर मीडिया भी व्हॉट्सऐप यूनिवर्सिटी का काम करने लगे, तब समाज पर कितना बुरा असर पड़ेगा.
5-अच्छी बात है कि भारत के लोग समझने लगे हैं. तभी मुझे आ रही बधाइयों में बधाई के अलावा मीडिया के 'उद्दंड' हो जाने पर भी चिंताएं भरी हुई हैं. इसलिए मैं खुद के लिए तो बहुत ख़ुश हूं, लेकिन जिस पेशे की दुनिया से आता हूं, उसकी हालत उदास भी करती है.
6-क्या हम समाचार रिपोर्टिंग की पवित्रता को बहाल कर सकते हैं. मुझे भरोसा है कि दर्शक रिपोर्टिंग में सच्चाई, अलग-अलग प्लेटफॉर्मों और आवाज़ों की भिन्नता को महत्व देंगे. लोकतंत्र तभी तक फल-फूल सकता है, जब तक ख़बरों में सच्चाई हो. 
7-मैं रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार स्वीकार करता हूं. इसलिए कि यह पुरस्कार मुझे नहीं, हिन्दी के तमाम पाठकों और दर्शकों को मिल रहा है, जिनके इलाक़े में ज्ञान असमानता ज्यादा गहरी है, इसके बाद भी उनके भीतर अच्छी सूचना और शिक्षा की भूख काफी गहरी है. 
8 -बहुत से युवा पत्रकार इसे गंभीरता से देख रहे हैं. वे पत्रकारिता के उस मतलब को बदल देंगे, जो आज हो गया है. मुमकिन है, वे लड़ाई हार जाएं, लेकिन लड़ने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं है. हमेशा जीतने के लिए ही नहीं, यह बताने के लिए भी लड़ा जाता है कि कोई था, जो मैदान में उतरा था.
 9--भारत का मीडिया संकट में है और यह संकट ढांचागत है, अचानक नहीं हुआ है, रैन्डम भी नहीं है. पत्रकार होना अब व्यक्तिगत प्रयास हो गया है, क्योंकि समाचार संगठन और उनके कॉरपोरेट एक्ज़ीक्यूटिव अब ऐसे पत्रकारों को नौकरियां छोड़ देने के लिए मजबूर कर रहे हैं, जो समझौता नहीं करते. फिर भी यह देखना हौसला देता है कि ऐसे और भी हैं, जो जान और नौकरी की परवाह किए बिना पत्रकारिता कर रहे हैं.
10-फ्रीलांस पत्रकारिता से ही जीवनयापन कर रही कई महिला पत्रकार अपनी आवाज़ उठा रही हैं. जब कश्मीर में इंटरनेट शटडाउन किया गया, पूरा मीडिया सरकार के साथ चला गया, लेकिन कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने सच दिखाने की हिम्मत की, और ट्रोलों की फौज का सामना किया. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि संगठनों और उनके नेताओं से कब सवाल किए जाएंगे?

https://khabar.ndtv.com/news/india/ravish-kumar-after-receiving-ramon-magsaysay-award-2098016?browserpush=true



Pawan Karan
3 hrs(14-09-2019 )
नमस्कार! मैं रवीश कुमार......शंभूनाथ शुक्ल !

मैंने रवीश कुमार के साथ कई बार लंबी बैठकें कीं और उनसे कोई ‘क्रांतिकारी’ चर्चा करने की बजाय इस व्यक्ति को करीब से देखने और समझने का प्रयास किया। गाजियाबाद के वैशाली इलाक़े में स्थित एक अपार्टमेंट के ग्यारहवें माले के जिस फ़्लैट में वे रहते हैं, वह असाधारण सिर्फ इस मामले में है कि चारों तरफ पुस्तकें ही पुस्तकें दिखती हैं। अलमारी में भी और टेबल पर भी। टीवी पर सूट-टाई में दिखने वाले रवीश घर में सिर्फ टी-शर्ट और लोअर में ही मिले। चाहे सुबह हो या शाम। और इतना सहज अंदाज़ कि उनके घर में हर एक का स्वागत है, चाहे कोई बिल्डिंग में काम करने वाला मजदूर, उनके घर आकर एक गिलास पानी की डिमांड करे या कोई लंबी कार से आया आदमी उनके साथ सेल्फी खिंचवाने को आतुर दिखे। हर एक को वे अपने ड्राइंग रूम में पड़े सोफे पर प्यार से बिठाते हैं, भले वह वह अपने गंदे जूतों से बिछी कालीन को धूल-धूसरित करता रहे। चूंकि उनकी पत्नी बंगाली हैं और बंगाली घरों में प्रवेश करने के पूर्व जूते देहरी पर ही उतारने का चलन है, इसलिए मैं तो जब भी उनके घर जाता हूँ, जूते उतार कर ही घुसता हूँ। यह एक बंग गृहणी की संस्कृति का सम्मान है।

जब भी मैं गया रवीश अपनी छोटी बिटिया से खेलते मिले। और उसकी तर्कबुद्धि से परास्त होते भी। उनकी सारी गम्भीरता और वाक-पटुता इस पांच या छह साल की बच्ची के आगे गायब हो जाती है। पर बच्ची है बड़ी खिलंदड़ी और कुशाग्र। उनके ड्राइंग रूम का बड़ा-सा एलईडी टीवी दिखावटी है। रवीश का कहना है कि वे कभी टीवी नहीं खोलते। बस पढ़ते हैं या अपनी बिटिया की शंकाओं का समाधान करते हैं। इसी ड्राइंग रूम में एक म्यूजिक सिस्टम है, जिसमें से मद्धम आवाज़ में सुर-लहरियां निकला करती हैं। वे बैठे बात कर रहे थे कि अचानक इंटरकाम पर बेल बजी। रवीश ने खुद जाकर फोन उठाया। नीचे आया बंदा रवीश को अपनी भतीजी की शादी में बुलाना चाहता था, और इसी वास्ते वह उन्हें न्योता देने आया था। रवीश ने उसे ऊपर बुला लिया। उसने कार्ड दिया और कहा भाई को बता देता हूँ, लेकिन फोन मिला नहीं तो रवीश के साथ सेल्फी लेकर उसे व्हाट्सएप पर भाई को भेज दी। रवीश से मिलकर वह अभिभूत था। रवीश ने उसको बचन दिया कि आएँगे। उसके जाने के बाद मैंने पूछा कि कौन था, तो रवीश ने बताया कि एसी की सफाई करता है। रवीश की यही सहजता मन को छूती है। इतना ख्यातनाम पत्रकार कि हारवर्ड यूनिवर्सिटी के छात्र जिसे सुनने के लिए बुलाते हैं, जिसे विश्व विश्व का प्रख्यात रेमन मैग्सेसे पुरस्कार मिला है। वह व्यक्ति एसी साफ़ करने वाले की भतीजी की शादी में जाने को तैयार है।

‘एक डरा हुआ पत्रकार एक डरा हुआ नागरिक पैदा करता है’ का स्लोगन देने वाले रवीश उन सारे डरे हुए लोगों के साथ हैं, जो अपना डर बाहर निकालना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि लोग उन्हें अपना डर बताएं, वे उन्हें प्लेटफ़ॉर्म देंगे। मालूम हो कि उनका अपना ब्लॉग ही इतना लोकप्रिय है कि वह देश में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लॉग है। और उनका प्राइम टाइम सबसे ज्यादा देखा जाने वाला शो।

एक पत्रकार का आकलन उसकी लेखन-शैली या प्रस्तुतीकरण के कौशल से नहीं होता। उसका आकलन उसके द्वारा उठाये गए सवालों और मुद्दों से होता है। पत्रकार का अपने समय के सरोकारों और उन पर तत्कालीन सरकार के रवैये की समीक्षा करना, ज्यादा बड़ा कर्म है। वह कैसा लिखता है, या किस तरह चीजों को पेश करता है, यह उसकी व्यावसायिक कुशलता है। लेकिन प्राथमिकता नहीं। रवीश कुमार में यही खूबी, उन्हें आज के तमाम पत्रकारों से अलग करती है। रवीश कुमार के प्रोफेशनलिज्म में सिर्फ कौशल ही नहीं एकेडेमिक्स का भी योगदान है। रवीश की नजर तीक्ष्ण है और उनका टारगेट रहा है कि आजादी के बाद शहरीकरण ने किस तरह कुछ लोगों को सदा-सदा के लिए पीछे छोड़ दिया है, उनकी व्यथा को दिखाना। रवीश कुमार की यह प्रतिबद्घता उन्हें कहीं न कहीं आज के चालू पत्रकारिता के मानकों से अलग करती है। जब पत्रकारिता के मायने सिर्फ चटख-मटक दुनिया को दिखाना और उसके लिए चिंता व्यक्त करना हो गया हो तब रवीश उस दुनिया के स्याह रंग की फिक्र करते हैं। आज स्थिति यह है, कि जब भी मैं किसी पत्रकारिता संस्थान में जाता हूँ, और वहाँ के छात्रों से पूछता हूँ, कि कोर्स पूरा क्या बनना चाहते हो, तो उनका जवाब होता है, टीवी एंकर या टीवी रिपोर्टर। कोई भी अखबार में नहीं जाना चाहता। क्योंकि टीवी में चकाचौंध है, जगमगाहट है और नाम है। लेकिन इसके विपरीत अखबार में निल बटा सन्नाटा! हर उभरते पत्रकार की मंजिल होती है, रवीश कुमार बन जाना। लेकिन कोई भी रवीश की तरह पढ़ना नहीं चाहता। रवीश की तरह अपने को रोज़मर्रा की घटनाओं से जोड़ना नहीं चाहता, रवीश की तरह वह विश्लेषण नहीं करना चाहता। मगर वह बनना रवीश चाहता है।

बिहार के मोतिहारी ज़िले के गाँव जीतवार पुर के रवीश की शुरुआती शिक्षा पटना के लोयला स्कूल में हुई। फिर वहीं के बीएन कालेज से इंटर साइंस से किया। दिल्ली आए और देशबंधु कालेज से बीए किया। हिस्ट्री में एमए करने के लिए किरोड़ीमल कालेज में दाखिला लिया। एम.फिल, को बीच में ही छोड़ कर भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) से पत्रकारिता की पढ़ाई की। कुछ दिनों तक उन्होंने जनसत्ता के लिए फ्री-लांसिंग की। तब मंगलेश डबराल जनसत्ता के रविवारीय संस्करण के संपादक थे। मंगलेश जी इसी ‘रविवारी जनसत्ता’ के लिए उन्हें स्टोरी असाइन करते, और वे उसे लिख लाते। इसके बाद जब वो एनडीटीवी में गए, तो जाते ही एंकरिंग करने को नहीं मिली। बल्कि उनका काम था सुबह के शो “गुड मॉर्निंग इंडिया” के लिए चिट्ठियाँ छांटना। इस काम के बदले उन्हें पहले सौ रुपए रोज़ मिलते थे, जो बाद में बढ़ा कर डेढ़ सौ कर दिये गए। इस शो के दर्शक देश भर से चिट्ठियाँ भेजते थे। वे चिट्ठियाँ बोरों में भर कर आतीं, जिन्हें रवीश छांटते। इसके बाद वहीं पर अनुवादक हुए। फिर रिसर्च में लगाया गया। इसके बाद रिपोर्टर और तब एंकर। आज वे एनडीटीवी में संपादक हैं। और उनका शो “प्राइम टाइम” अकेला ऐसा शो है, जिसे देखने और समझने के लिए लोगों ने हिन्दी सीखी।

जन-सरोकारों के उनके सवालों से कुढ़े कुछ लोग उनको मोदी विरोध या मोदी समर्थन के खाँचे में रख कर यह घोषणा कर देते हैं, कि वे मोदी विरोधी हैं, और इसीलिए उन्हें यह मैग्सेसे सम्मान मिला है। मुझे लगता है, कि ऐसे लोग धूर्त हैं। रवीश तब भी ऐसी ही रिपोर्टिंग करते थे, जब देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह थे। रवीश ने हर सरकार के कामकाज की समीक्षा की है। मेरा स्पष्ट मानना है, कि मोदी से न उनकी विरक्ति है न आसक्ति। जितना मैं उन्हें जानता हूँ, निजी बातचीत में कभी भी उन्होंने मोदी के प्रति घृणा या अनुराग का प्रदर्शन नहीं किया न कभी कांग्रेस का गुणगान किया। वे एक सच्चे और ईमानदार तथा जन सरोकारों से जुड़े पत्रकार हैं। कुछ उन्हें जबरिया एक जाति-विशेष के खाने में फ़िट कर देते हैं। उनका नाम रवीश कुमार पांडे बता कर उनके भाई पर लगे आरोपों का ताना मारने लगते हैं। पर जितना मुझे पता है, मैं अच्छी तरह जानता हूँ, कि उनके भाई ब्रजेश पांडेय अपनी ईमानदारी और कर्मठता के बूते ही बिहार कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने थे। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में टिकटों के वितरण के वक़्त कुछ लोग उनसे फ़ेवर चाहते थे, लेकिन उन्होंने कोई सिफ़ारिश नहीं सुनी, पैसा नहीं लिया। इसलिए उनके विरुद्ध कांग्रेस और राजद वालों ने ही षड्यंत्र किया था। बाद में भाजपा के लोगों ने तिल का ताड़ बना दिया। ब्रजेश जी की बेटी की शादी रुक गई। उन्हें बिहार में कोई वकील नहीं मिला। सच तो यह है, कि रवीश गणेश शंकर विद्यार्थी की परंपरा के पत्रकार हैं। उन्हें बधाई दीजिये।
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  ~विजय राजबली माथुर ©