Saturday, August 30, 2014

सच को नकारने के लिए कुतर्क का सहारा व संविधान की आड़ ---विजय राजबली माथुर

श्री कन्हैया लाल वर्मा द्वारा संकलित "भारत का संविधान" के पृष्ठ-68-70 (जैसा कि रस्तोगी एंड कंपनी,मेरठ द्वारा प्रकाशित "भारत का राष्ट्रीय आंदोलन,संवैधानिक विकास एवं संविधान"के पृष्ठ-57 पर उद्धृत किया गया है ) के अनुसार -"मूल अधिकारों द्वारा संसद और न्याय पालिका दोनों की प्रभुता  के सिद्धान्त को, एक दूसरे द्वारा मर्यादित सीमाओं के, भीतर स्वीकार किया गया है। इसके विपरीत इंग्लैंड में पार्लियामेंट की प्रभुता है और सं .रा . अमरीका में न्यायपालिका की प्रभुता  है। "

अनुच्छेद 14 से 18 तक 'समता का अधिकार':
 अनुच्छेद 14 के अनुसार कानून के समक्ष सभी नागरिक बराबर हैं। 
अनुच्छेद 15 -


अनुच्छेद 16 के अंतर्गत सभी नागरिकों को सरकारी नौकरियों तथा पदों हेतु समानता प्रदान की गई है। 

अनुच्छेद 17 के अंतर्गत अस्पृश्यता का अंत किया गया है। 

अनुच्छेद 18 के अंतर्गत सैनिक व शैक्षिक उपाधियों को छोड़ कर अन्य उपाधियों का निषेद्ध किया गया है। 

अनुच्छेद 19 से 22 तक 'स्वातंत्र्य अधिकार' दिये गए हैं। 
अनुच्छेद 20 के अंतर्गत व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा का अधिकार दिया गया है कि कानून का उल्लंघन किए बगैर किसी को बाधित या दंडित नहीं किया जा सकता है। 

 अनुच्छेद 23 के अंतर्गत शोषण के विरुद्ध अधिकार प्रदत्त हैं। 
अनुच्छेद 24 'बाल श्रम' के विरुद्ध अधिकार देता है। 
अनुच्छेद 25 'आर्थिक स्वतन्त्रता' का अधिकार देता है। 
अनुच्छेद 26 के अनुसार सभी व्यक्तियों को 'सार्वजनिक व्यवस्था,सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुये अपने धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी विभाग की रक्षा का अधिकार देता है। 
अनुच्छेद 29 'सांस्कृतिक तथा शिक्षा संबंधी 'एवं अनुच्छेद 31 'संपत्ति 'का अधिकार प्रदान करते हैं। 

संविधान निर्माताओं ने 'धर्म' का अभिप्राय 'रिलीजन' या 'मजहब' या 'संप्रदाय' के संदर्भ में लिया है। जबकि 'धर्म' शब्द 'धार्यति इति धर्म:' अर्थात जो मानव शरीर तथा समाज को  धारण करने हेतु आवश्यक है  वही धर्म है।संविधान सभा के एक महत्वपूर्ण सदस्य डॉ सम्पूर्णानन्द जी (जो बाद में उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री तथा राजस्थान में राज्यपाल भी रहे ) ने 1967 में 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में प्रकाशित अपने लेख द्वारा बताया था कि ,"सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के समुच्य का नाम 'धर्म' है;क्योंकि ये सद्गुण मानव जीवन व समाज को धारण करने हेतु नितांत आवश्यक हैं। 

परंतु संविधान में  वर्णित उपरोक्त प्राविधानों की गलत व्याख्या करके 'व्यवहार व्याकरण' वीर 'धर्म' की अलग व्याख्या प्रस्तुत करके 'ढोंग-पाखंड-आडंबर जैसे 'अधर्म' को ही कवच प्रदान कर रहे हैं जिसका समाज में घोर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।  

 कुतर्क  और उनका परिणाम-



लेकिन क्या कोई व्यक्ति सच्चाई को सामने भी न लाये और सच्चाई से अनभिज्ञ समाज को लुटेरे ठगते रहें?:


सच्चाई न जानने का इससे बड़ा और क्या उदाहरण होगा कि माँ सरीखी वृद्ध महिला के सिर पर नौजवान पोंगा-पंडित अपना पैर रख कर स्नान कराकर उनको अपमानित करे? क्यों? :



और फिर ये पोंगा-पंडित तो न संविधान को मानते हैं और न ही 'वेदों' को जानते हैं तभी तो गैर जिम्मेदाराना बातें करके जनता की बुद्धि कुंद  करते हैं  और 'व्यवहार व्याकरण  वीर' इनके संवैधानिक अधिकारों के पैरोकार  बन कर गौरान्वित होते हैं,क्यों? महात्मा बुद्ध का कथन-


विदेशी षड्यंत्र (29 अगस्त 2014 का स्टेटस ) -




कोर्ट में दिये गए बयान के अनुसार संविधान निर्मात्री समिती के अध्यक्ष डॉ भीमराव अंबेडकर की पुण्य तिथि पर विवादित स्थल का ढांचा अमेरिकी एजेंसी की साथ-गांठ व सहयोग से गिराया गया था। कहा तो यह भी जा रहा है कि व्हाईट हाउस की एक योजना ( जिसकी बैठक में शामिल होने वालों में लखनऊ विश्वविद्यालय के एक हिन्दी के विद्वान भी थे ) के अंतर्गत हज़ारे/केजरी आंदोलन चलवा कर 'मोदी सरकार ' के गठन का मार्ग प्रशस्त किया गया है। क्यों? क्योंकि इस लूट को बरकरार रखना है :


हालांकि इस संगठन की सहायता के पीछे भी अमेरिकी हाथ बताया जाता है।साम्राज्यवाद के विरुद्ध जन-संघर्ष की गाथा-'रामचरित मानस' तथा उसके रचियता तुलसी दास जी पर प्रहार इसी कड़ी में है फिर चाहे वह SFI के पूर्व नेता के श्रीमुख से हो अथवा AISF के पूर्व नेता के श्रीमुख से। महत्वपूर्ण यह है कि वे दोनों ही जन्मगत ब्राह्मण हैं और उनको पोंगा-पंडितवाद की रक्षा करनी है एथीस्टवाद तो मात्र बहाना है।  वस्तुतः अमेरिका भारत को विभाजित करके यहाँ 30 छोटे-छोटे देशों का गठन कराना चाहता है और ऐसा ही चीन भी चाहता है। इसी लिए पोंगा-पंथी और एथीस्ट दोनों ही संप्रदाय 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' जैसे अधर्म को 'धर्म कहने की ज़िद्द करते हैं। हिन्दी के विद्वान अपनी वर्ग अस्मिता की रक्षा करने हेतु व्याकरण के हवाले से धर्म की गलत व्याख्या इसीलिए करते नहीं अघाते हैं।
चीन भी पीछे नहीं -


जब तक जन हितैषी लोग 'सच'-'सत्य'-TRUTH की रक्षा हेतु आगे नहीं आएंगे ये समृद्ध पोंगापंथी निरीह जनता को उल्टे उस्तरे से लूटते ही रहेंगे। अतः जन-जन का यह कर्तव्य है कि 'सत्य' के लिए संघर्ष को जारी रखें।
  ~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

Thursday, August 21, 2014

'एथीस्टवादी संप्रदाय ' उत्तरदायी है सांप्रदायिकता के प्रसार के लिए ---विजय राजबली माथुर

एथीस्टवादी संप्रदाय और विभिन्न पाखंडी संप्रदाय परस्पर अन्योनाश्रित हैं :

http://krantiswar.blogspot.in/2014/08/blog-post.html

http://krantiswar.blogspot.in/2014/08/blog-post_9.html



तो यह है 'मार्क्स वाद ' का असली रूप 'एथीस्टवादियों ' की नज़र में जो 'बड़ी मछली ,छोटी मछली 'के खेल में लगे हुये हैं क्या ऐसे ही साम्यवाद या मार्क्स वाद लागू हो पाएगा?-----:


इस रिश्वतखोर इंजीनियर को कोतवाली से छुड़ाने वालों की टीम में वामपंथी ट्रेड यूनियन नेता भी शामिल हैं। आगरा  में एक ट्रेड यूनियन नेता के मुख से सुना था कि भ्रष्टाचार अब शिष्टाचार बन चुका है। एक प्रदेश स्तर के बैंक कर्मचारी नेता अपने पद के आधार पर विभिन्न बैंकों के मेनेजर्स से धन उगाही करते हैं तथा साथी कर्मियों को डरा कर चुप करा देते हैं। क्या इन गतिविधियों से साम्यवाद और वामपंथ मजबूत होगा व देश में अपनी जड़ें जमा सकेगा? एक सी पी एम नेता की पत्रकार पुत्री खुलेआम लिखती हैं कि ट्रेड यूनियन नेता खुद तो मौज-मस्ती करते हैं और उनकी पत्नियाँ कालेज या दफ्तर में रोजगार करके परिवारों का पोषण करती हैं तब क्या इसे महिलाओं के उत्पीड़न की श्रेणी में न रखा जाये? ऐसे मार्क्सवाद के स्वयंभू ठेकेदारों ने मार्क्स को जड़ मूर्ती में परिवर्तित कर दिया है और लकीर के फकीर बन कर बावले की भांति सिर्फ हो-हल्ला मचाते रहते हैं। यह कैसा साम्यवाद/मार्कसवाद है? जनता पर इसका कैसे प्रभाव पड़ेगा?'एथीस्ट' और 'वामपंथी' कहलाने वाले लोगों के श्रीमुख से निकले वचनों का अवलोकन करें:

इस पर मैंने यह प्रतिक्रिया दी थी :
लेकिन इन एथीस्टवादियों को महान उपन्यासकार अमृत लाल नागर जी के 'मानस का हंस' में वर्णित इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि तुलसी दास जी को मांग कर खाने व मस्जिद में शरण लेकर जान बचाने के लिए बनारस के पोंगा पंडितों ने मजबूर किया था। अफलातून अफ़लू साहब ने अपने ब्लाग में विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया है:




"जन्म गत ब्राह्मण चाहे खुद को कितना भी एथीस्ट घोषित करें होते हैं घोर जातिवादी वे नहीं चाहते कि सच्चाई कभी भी जनता के समक्ष स्पष्ट हो क्योंकि उस सूरत में व्यापार जगत के भले के लिए पोंगा पंथियों द्वारा की गई भ्रामक व्याख्याओं की पोल खुल जाएगी और परोपजीवी जाति की आजीविका संकट में पड़ जाएगी।
तुलसी दास जी द्वारा लिखित रामचरित मानस की क्रांतिकारिता,राजनीतिक सूझ-बूझ और कूटनीति के सफल प्रयोग पर पर्दा ढके रहने हेतु मानस में ऐसे लोगों के पूर्वजों ने प्रक्षेपक घुसा कर तुलसी दास जी को बदनाम करने का षड्यंत्र किया है तथा राम को अवतारी घोषित करके उनके कृत्यों को अलौकिक कह कर जनता को बहका रखा है। ढ़ोल,गंवार .... वाले प्रक्षेपक द्वारा बहुसंख्यक तथा कथित दलितों को तुलसी और मानस से दूर रखा जाता है क्योंकि यदि वे समझ गए कि 'काग भुशुंडी' से 'गरुण' को उपदेश दिलाने वाले तुलसी दास उनके शत्रु नहीं मित्र थे। पार्वती अर्थात एक महिला की जिज्ञासा पर शिव ने 'काग भुशुंडी-गरुण संवाद' सुनाया जो तुलसी द्वारा मानस के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसी वजह से काशी के ब्राह्मण तुलसी दास की जान के पीछे पड़ गए थे उनकी पांडु-लिपियाँ जला देते थे तभी उनको 'मस्जिद' में शरण लेकर जान बचानी पड़ी थी और अयोध्या आकर ग्रंथ की रचना करनी पड़ी थी । इसके द्वारा तत्कालीन मुगल-सत्ता को उखाड़ फेंकने का जनता से आह्वान किया गया था । साम्राज्यवादी रावण का संहार राम व सीता की सम्मिलित कूटनीति का परिणाम था। ऐसी सच्चाई जनता समझ जाये तो ब्राह्मणों व व्यापारियों का शोषण समाप्त करने को एकजुट जो हो जाएगी। अतः विभिन्न राजनीतिक दलों में घुस कर ब्राह्मणवादी जनता में फूट डालने के उपक्रम करते रहते हैं। क्या जनता को जागरूक करना पागलपन होता है?"

क्योंकि उससे पूर्व यह पोस्ट आई थी जिसे एथीस्टों के दबाव में थोड़ी देर बाद ही डिलीट कर दिया गया था। :

"प्रगतिशील और वामपंथी सोच के पत्रकार

प्रगतिशील और वामपंथी सोच के पत्रकार विजय राज बली माथुर का रामचरित मानस पर नजरिया -----------Vijai RajBali Mathur रामचरितमानस तुलसीदास की दिमागी उपज नहीं है और न ही यह एक-दो दिन मे लिखकर तैयार किया गया है । इस ग्रंथ की रचना आरम्भ करने के पूर्व गोस्वामी जी ने देश,जाति और धर्म का भली-भांति अध्ययन कर सर्वसाधारण की मनोवृति को समझने की चेष्टा की और मानसरोवर से रामेश्वरम तक इस देश का पर्यटन किया ।
तुलसीदास ने अपने विचारों का लक्ष्य केंद्र राम मे स्थापित किया । रामचरित के माध्यम से उन्होने भाई-भाई और राजा-प्रजा का आदर्श स्थापित किया । उनके समय मे देश की राजनीतिक स्थिति सोचनीय थी । राजवंशों मे सत्ता-स्थापन के लिए संघर्ष हो रहे थे । पद-लोलुपता के वशीभूत होकर सलीम ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया तो उसे भी शाहज़ादा खुर्रम के विद्रोह का सामना करना पड़ा और जिसका प्रायश्चित उसने भी कैदी की भांति मृत्यु का आलिंगन करके किया । राजयोत्तराधिकारी 'दारा शिकोह'को शाहज़ादा 'मूहीजुद्दीन 'उर्फ 'आलमगीर'के रंगे हाथों परास्त होना पड़ा । इन घटनाओं से देश और समाज मे मुरदनी छा गई ।

ऐसे समय मे 'रामचरितमानस' मे राम को वनों मे भेजकर और भरत को राज्यविरक्त (कार्यवाहक राज्याध्यक्ष)सन्यासी बना कर तुलसीदास ने देश मे नव-चेतना का संचार किया,उनका उद्देश्य सर्वसाधारण
मे राजनीतिक -चेतना का प्रसार करना था । 'राम'और 'भरत 'के आर्ष चरित्रों से उन्होने जनता को 'बलात्कार की नींव पर स्थापित राज्यसत्ता'से दूर रहने का स्पष्ट संकेत किया । भरत यदि चाहते तो राम-वनवास के अवसर का लाभ उठा कर स्वंय को सम्राट घोषित कर सकते थे राम भी 'मेजॉरिटी हेज अथॉरिटी'एवं 'कक्की-शक्की मुर्दाबाद'के नारों से अयोध्या नगरी को कम्पायमानकर सकते थे । पर उन्होने ऐसा क्यों नहीं किया?उन्हें तो अपने राष्ट्र,अपने समाज और अपने धर्म की मर्यादा का ध्यान था अपने यश का नहीं,इसीलिए तो आज भी हम उनका गुणगान करते हैं । ऐसा अनुपमेय दृष्टांत स्थापित करने मे तुलसीदास की दूरदर्शिता व योग्यता की उपेक्षा नहीं की जा सकती । क्या तुलसीदास ने राम-वनवास की कथा अपनी चमत्कारिता व बहुज्ञता के प्रदर्शन के लिए नहीं लिखी?उत्तर नकारात्मक है । इस घटना के पीछे ऐतिहासिक दृष्टिकोण छिपा हुआ है । (राष्ट्र-शत्रु 'रावण-वध की पूर्व-निर्धारित योजना' को सफलीभूत करना)।
इतिहासकार सत्य का अन्वेषक होता है । उसकी पैनी निगाहें भूतकाल के अंतराल मे प्रविष्ट होकर तथ्य के मोतियों को सामने रखती हैं । वह ईमानदारी के साथ मानव के ह्रास-विकास की कहानी कहता है । संघर्षों का इतिवृत्त वर्णन करता है । फिर तुलसीदास के प्रति ऐसे विचार जो कुत्सित एवं घृणित हैं (जैसे कुछ लोग गोस्वामी तुलसीदास को समाज का पथ-भ्रष्टक सिद्ध करने पर तुले हैं ) लाना संसार को धोखा देना है ।"
  • Rakesh Kumar and 2 others like this.
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  • धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।



    अध्यात्म =अध्यन+ आत्मा = अपनी आत्मा का अध्यन। 

    देवता= जो देता है और लेता नहीं है ,जैसे-नदी,वृक्ष,पर्वत,आकाश,अन्तरिक्ष,अग्नि,जल,वायु आदि न कि जड़ मूर्तियाँ/चित्र आदि। 

    भगवान = भ (भूमि-पृथ्वी)+ग (गगन-आकाश )+व (वायु-हवा )+I (अनल-अग्नि )+न (नीर-जल )। 

    खुदा = चूंकि ये तत्व खुद ही बने हैं इनको किसी भी प्राणी ने नहीं बनाया है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं। 

    GOD = G (जेनरेट )+O(आपरेट )+D(डेसट्राय )। उत्पत्ति,पालन व संहार करने के कारण ही इनको GOD भी कहते हैं। 
    देखिये कैसे?:
    वायु +अन्तरिक्ष =  वात 

    अग्नि  =पित्त

     भूमि + जल = कफ 

    इन तीनों का समन्वय ही शरीर को धारण करता है 

    वात +पित्त + कफ =भगवान=खुदा=GOD 

    शरीर को धारण करने व समाज को धारण करने हेतु
    धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य परमावश्यक है। 

    क्या महर्षि कार्ल मार्क्स अथवा शहीद भगत सिंह जी ने कहीं कहा है कि साम्यवाद के अनुयाइयों को झूठ बोलना चाहिये,हिंसा ही करनी चाहिए,चोरी करना चाहिए,अपनी ज़रूरत से ज़्यादा चीज़ें जमा करना चाहिए और अनियंत्रित सेक्स करना चाहिए। यदि इन विद्वानों से ऐसा नहीं कहा है तो इनका नाम बदनाम करने के लिए 'एथीस्ट वादी' ही जिम्मेदार हैं। और इसी कारण रूस से भी साम्यवाद उखड़ा है। 

    एथीस्ट वादी भी ढोंगियों-पाखंडियों-आडमबरकारियों की ही तरह 'अधर्म' को धर्म कहते हैं व सत्य को स्वीकारना नहीं चाहते हैं क्योंकि वे भी उल्टे उस्तरे से जनता को मूढ़ रहे हैं। इसी कारण खुद को उग्र क्रांतिकारी कहने वाले एथीस्टों ने चुनाव बहिष्कार करके अथवा 'संसदीय साम्यवाद' के समर्थक दलों का विरोध करके केंद्र में सांप्रदायिकता के रुझान वाली सरकार गठित करवा दी है जिसका खामियाजा पूरे देश की जनता को भुगतना होगा। 

    ढ़ोंगी-पाखंडी-आडंबरधारी और एथीस्ट दोनों का ही हित तानाशाही में है दोनों की ही आस्था लोकतन्त्र में नहीं है और दोनों ही परस्पर अन्योनाश्रित हैं । एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही संभव नहीं है। दोनों ही 'सत्य ' उद्घाटित नहीं होने देना चाहते हैं क्योंकि अज्ञान ही उनका संबल है जागरूक जनता को वे दोनों ही उल्टे उस्तरे से मूढ़ नहीं सकेंगे। 


     
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

Friday, August 15, 2014

'हों योग-क्षेमकारी ,स्वाधीनता हमारी '---विजय राजबली माथुर


राजनीतिक रूप से 15 अगस्त स्वतन्त्रता दिवस है परंतु कुछ एथीस्टवादी और संघी लोग इसे आज़ादी का दिन नहीं मानते हैं और प्रश्न उठाते हैं कि किसकी स्वतन्त्रता?नरसिंघ राव जी भी पद-मुक्त होने के बाद THE INSIDER में लिख गए हैं कि हम "स्वतन्त्रता के भ्रमजाल में जी रहे हैं। " किसकी स्वतन्त्रता का जवाब प्रस्तुत  इस गीत में है।

यजुर्वेद के अध्याय 22 मन्त्र 22 मे "ओ 3 म आ---------------योगक्षेमों नः कल्पताम। ।" द्वारा स्वाधीनता की रक्षा हेतु 'राष्ट्रीय प्रार्थना' प्रस्तुत की गई है। किन्तु पाश्चात्य साम्राज्यवादी साहित्य एवं दृष्टिकोण के अनुगामी /विककी पीडिया विशेज्ञ हमारे देशीय विचारक मानते हैं कि राष्ट्रीयता की भावना का संचार अंग्रेज़ शासकों की नीतियों से हुआ है और यह आधुनिक धारणा है। मैं नहीं समझ सकता कि  यजुर्वेद के इस मन्त्र मे जो कहा गया है वह गलत कैसे माना जाता है? इस मन्त्र का भावानुवाद विद्वान कवि के अनुसार यह है-


ब्रहमन! सुराष्ट्र मे हों,द्विज ब्रहमतेजधारी।
क्षत्री महारथी हों अरी-दल -विनाशकारी। ।

होवे दुधारी गौवें,पशु अश्व आशुवाही।
आधार राष्ट्र की हों,नारी सुभग सदा ही। ।

बलवान सभ्य योद्धा,यजमान-पुत्र होवे।
इच्छानुसार वर्षे,पर्जन्य ताप धोवे । ।

फल फूल से लदी हो,औषद्ध अमोघ सारी।
हों योग-क्षेमकारी ,स्वाधीनता हमारी। ।

सृष्टि के प्रारम्भ मे ही मनुष्यों को अपने राष्ट्र के प्रति सदा सजग रहने का निर्देश दिया गया था जिसका उल्लंघन करके वेदों की मनगढ़ंत व्याख्या कर्मकांडी लोगों द्वारा खूब की गई और जनता को गुमराह किया गया परिणामस्वरूप हमारा देश 900 -1100 वर्ष से अधिक गुलाम रहा। गुलामी के दौरान सभी विदेशी शासकों ने इस देश की संस्कृति और सभ्यता को नष्ट किया तथा इसमे हमारे देश के स्वार्थी कर्मकांडी लोगों ने भरपूर उन शासकों की मदद  की। आज आजादी के 67  वर्ष व्यतीत होने के बावजूद उन लोगों ने अपने को अभी तक सुधारा नहीं है और देश की स्वाधीनता पर लगातार हो रहे आक्रमणों का यही सबसे बड़ा कारण है।

लोकसभा के महा सचिव रहे सुभाष कश्यप जी के इन विचारों को पढ़ें -



hindustan-lucknow-04/08/2011


एक तो वैसे ही संसद अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर रही है उसके बावजूद फासिस्ट प्रवृति के लोगों का संरक्षण प्राप्त कर तथाकथित समाज सुधारक अन्ना हज़ारे साहब संसद को पंगु करने हेतु अनशन की धमकी का सहारा ले रहे हैं। कारपोरेट घरानों का भरपूर समर्थन लेकर वह भ्रष्टाचार दूर करने का दिवा-स्वप्न दिखा रहे हैं। पूंजीवाद खुद ही भ्रष्टाचार की जड़ है और उसी पर आधारित कर्मकांडी पद्धति उसकी पोषक। इन दोनों का विरोध तो करना नहीं चाहते और भ्रष्टाचार दूर करने का खुद को ठेकेदार घोषित करते हैं। यह तानाशाही नहीं तो और क्या है?अन्ना ,रामदेव तो भ्रष्ट पूंजीवाद को बचाने के इंस्ट्रूमेंट हैं.भ्रष्टाचार तो पूंजीवाद का बाई-प्रोडक्ट है.देखिये 'आह्वान'का यह सम्पादकीय-(बड़ा देखने के लिए चित्र पर डबल  क्लिक करें)







आजाद हिन्द फौज ने 'एक चूहा हाथी का सरदार' शीर्षक से पर्चे छपवाकर तोप मे भर कर ब्रिटिश सेना मे भारतीय जवानों के समक्ष फिंकवाए थे यह बताने के लिए कि हम लोगों की कमजोरी से विदेशी संख्या मे कम होकर भी हम पर हावी हैं। वही स्थिति आज भी है। मुट्ठी भर पूंजीपति अपने विदेशी साम्राज्यवादी आकाओं के हितार्थ देश की बहुसंख्यक आबादी का शोषण कर रहे हैं। बाबा रामदेव और अन्ना हज़ारे दोनों ही घपलों मे फंस कर कोर्ट को चकमा दे रहे हैं और इतनी बड़ी आबादी को गुमराह करके ठग रहे हैं। दोनों के जैकारे लग रहे है। भ्रष्टाचार तो ये दूर कर सकते नहीं परन्तु त्याग और बलिदान से प्राप्त 'स्वाधीनता' को जरूर खतरे मे डाल देंगे।

आजादी के बाद से मिलेटरी शासन की एक तबका वकालत करता आ रहा है ,पाकिस्तान मे इसी प्रकार के शासन ने उस देश के अस्तित्व पर ही खतरा पैदा कर रखा है। भारत को लोकतान्त्रिक देश होने के कारण ही साम्राज्यवादी उस प्रकार दबोच नहीं पाये जिस प्रकार पाकिस्तान की 'संप्रभुता' को ठेंगा दिखा कर नग्न ताण्डव करते रहते हैं। अन्ना-रामदेव को समर्थन देने वाले यह तय कर लें कि क्या अब आजादी को बरकरार नहीं रखना चाहते? 06 अगस्त 2011 के हिंदुस्तान ,लखनऊ के पृष्ठ 14 पर छापे गए इस समाचार को कुछ लोग खुशी से सराहेंगे परंतु मुझे संदेह है कि यह भारत विशेषकर काश्मीर के अंदरूनी मामले मे साम्राज्यवादी हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त करने की चाल है। आतंकवाद को क्या पाकिस्तान मे घुस कर ड्रोगन हमले की भांति ही भारत मे घुस कर समाप्त करने का इशारा तो नहीं है यह प्रस्ताव।


hindustan-lucknow-06/08/2011


अमेरिका की चाल अब पाकिस्तान को टुकड़ों मे बाँट कर कमजोर करने की है भारत मे एक तबका इस बात से बेहद खुश होगा। लेकिन गंभीरता से सोचे तो समझ आ जाएगा कि पाकिस्तान के संभावित छोटे-छोटे टुकड़े पूरी तरह अमेरिका के कब्जे मे होंगे जो भारत के लिए किसी भी तरह से हितकर नहीं होगा। जो संगठन ब्रिटिश साम्राज्यवाद की रक्षा हेतु अस्तित्व मे आया था वह आज पूरी तरह से अमेरिकी साम्राज्यवाद का भारत मे हितचिंतक बना हुआ है और धर्म की गलत व्याख्या एवं दुरुपयोग द्वारा जनता को अपने साथ बांध लेता है,उसके द्वारा ऐसे अमेरिकी प्रस्तावों पर खुश होना लाजिमी है ।

अमेरिकी कूटनीतिज्ञ लगातार अन्ना के आंदोलन का समर्थन करती रही हैं। अमेरिका से पूर्ण रूप से समर्थित अन्ना आंदोलन देश की जनता को सही मार्ग पर नहीं चलने देना चाहता है। आजादी के बाद जब तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज  के रूप मे फहरा दिया गया तो भी यूनियन जैक को उतारा नहीं गया था और वह संसद के गुंबद पर कई सप्ताह बाद तक फहराता रहा था। हिंदुस्तान,आगरा,16 अगस्त,2009 अंक मे प्रकाशित सत्येन महापात्र की दिल्ली से भेजी रिपोर्ट मे सप्रमाण इसका उल्लेख किया गया है। आप खुद ही इसकी स्कैन कापी का अध्ययन करें-


खेद और अफसोस की बात है कि जो बामपंथ भारत की एकता और  अखंडता का हामी है उसे जनता धर्म-विरोधी कह कर ठुकरा देती है। धर्म क्या है इसे बामपंथ ने अधार्मिकों के हवाले कर रखा है क्योंकि वह इसे मानता ही नहीं तो जनता को समझाये कैसे?अधार्मिक तत्व इस स्थिति का लाभ उठा कर धर्म की पूंजीवादी व्याख्या अपने हित मे प्रस्तुत कर देते हैं। कुल मिला कर हानि मजदूर और शोषित वर्ग की ही होती है और इजारेदार शोषक वर्ग दानी एवं धार्मिक कहलाकर उसी उत्पीड़ित वर्ग से ही पूजा जाता है। आजादी के आंदोलन मे त्याग और बलिदान का लम्बा अनुभव और इतिहास रखते हुये भी आज बामपंथ का जनता से जुड़ाव न हो पाना इसी धर्म-अधर्म का झंझट है।बामपंथ ने यदि धर्म को अधार्मिक और साम्राज्यवादी/सांप्रदायिक लोगों के लिए खुला न छोड़ा होता और जनता को धर्म का वास्तविक अर्थ समझाया होता तो आज देश की दिशा और दशा  कुछ और ही होती। जन्म से मृत्यु तक जीवन मे अनेक संस्कारों की आवश्यकता होती है जिन्हें मजबूरन पोंगा-पंथियों से ही लोग सम्पन्न कराते हैं और उनके प्रभाव मे आकर गलत दिशा मे वोटिंग कर जाते हैं। यह सब प्रशिक्षण के आभाव का ही दुष्परिणाम है।  आज आजादी के 68 वे सालगिरह को मनाते हुये प्रबुद्ध जनों का परम दायित्व है कि आगे इस आजादी को कैसे बचाए रखा जाये इस बात पर गंभीरता से विचार करें  जबकि पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंघा राव जी  बहुत पहले अपने -'The Insider' मे खुलासा कर गए हैं कि ,"हम स्वतन्त्रता के भ्रम जाल मे जी रहे हैं । "

उच्च वर्ग के लिए आजादी का कोई विशेष महत्व नहीं है। अतः मध्य वर्ग का ही यह दायित्व है कि वह आगे बढ़ कर जनता को राजनीतिक रूप से जागरूक करे और आजादी पर मंडरा रहे खतरे के प्रति आगाह करे एवं इसकी रक्षा हेतु आवश्यक कदम उठाए।
(मूल रूप से इसी ब्लाग में 15 अगस्त 2011 को यह लेख प्रकाशित हो चुका है जिसका यह पुनर्प्रकाशन है )

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Comments in 'Unify Communists in one party' group :
 

Saturday, August 9, 2014

ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम्:रक्षा बंधन---विजय राज बली माथुर

' ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम् ' यह लिखा है कादम्बरी में सातवीं शताब्दी में आचार्य बाणभट्ट ने.अर्थात  महाश्वेता ने जनेऊ पहन रखा है, तब तक लड़कियों का भी उपनयन होता था.(अब तो सबका उपहास अवैज्ञानिक कह कर उड़ाया जाता है).श्रावणी पूर्णिमा अर्थात रक्षा बंधन पर उपनयन क़े बाद नया विद्यारम्भ होता था.लेकिन कालांतर में पोंगा-पंडितों ने अपने निजी स्वार्थ में इस रक्षा-सूत्र-बंधन  अर्थात जनेऊ धारण करने के पावन-पर्व को राखी बांधने-बँधवाने तथा बहन-भाई के बीच सीमित कर दिया .
 उपनयन अर्थात जनेऊ के लाभों से साधारण जनता को छल पूर्वक वंचित कर दिया गया है.
 उपनयन अर्थात जनेऊ क़े तीन धागे तीन महत्वपूर्ण बातों क़े द्योतक हैं-
१ .-माता,पिता,तथा गुरु का ऋण उतारने  की प्रेरणा.
२ .-अविद्या,अन्याय ,आभाव दूर करने की जीवन में प्रेरणा.
३ .-हार्ट,हार्निया,हाईड्रोसिल (ह्रदय,आंत्र और अंडकोष -गर्भाशय )संबंधी नसों का नियंत्रण ;इसी हेतु कान पर शौच एवं मूत्र विसर्जन क़े वक्त धागों को लपेटने का विधान था.आज क़े तथा कथित पश्चिम समर्थक विज्ञानी इसे ढोंग, टोटका कहते हैं क्या वाकई ठीक कहते हैं?
विश्वास-सत्य द्वारा परखा  गया तथ्य
अविश्वास-सत्य को स्वीकार न  करना
 अंध-विश्वास--विश्वास अथवा अविश्वास पर बिना सोचे कायम रहना
विज्ञान-किसी भी विषय क़े नियमबद्ध एवं क्रमबद्ध अध्ययन को विज्ञान कहते हैं.
इस प्रकार जो लोग साईंस्दा होने क़े भ्रम में भारतीय वैज्ञानिक तथ्यों को झुठला रहे हैं वे खुद ही घोर अन्धविश्वासी हैं.वे तो प्रयोग शाळा में बीकर आदि में केवल भौतिक पदार्थों क़े सत्यापन को ही विज्ञान मानते हैं.यह संसार स्वंय ही एक प्रयोगशाला है और यहाँ निरन्तर परीक्षाएं चल रहीं हैं.परमात्मा एक निरीक्षक (इन्विजीलेटर)क़े रूप में देखते हुए भी नहीं टोकता,परन्तु एक परीक्षक (एक्जामिनर)क़े रूप में जीवन का मूल्यांकन करके परिणाम देता है.इस तथ्य को विज्ञानी होने का दम्भ भरने वाले नहीं मानते.यही समस्या है.


लगभग सभी बाम-पंथी विद्वान सबसे बड़ी गलती यही करते हैं कि हिन्दू को धर्म मान लेते हैं फिर सीधे-सीधे धर्म की खिलाफत करने लगते हैं। वस्तुतः 'धर्म'=शरीर को धारण करने हेतु जो आवश्यक है जैसे-सत्य,अहिंसा,अस्तेय,अपरिग्रह,और ब्रह्मचर्य।  इंनका  विरोध करने को आप कह रहे हैं जब आप धर्म का विरोध करते हैं तो। अतः 'धर्म' का विरोध न करके  केवल अधार्मिक और मनसा-वाचा- कर्मणा 'हिंसा देने वाले'=हिंदुओं का ही प्रबल विरोध करना चाहिए।
विदेशी शासकों की चापलूसी मे 'कुरान' की तर्ज पर 'पुराणों' की संरचना करने वाले छली विद्वानों ने 'वैदिक मत'को तोड़-मरोड़ कर तहस-नहस कर डाला है। इनही के प्रेरणा स्त्रोत हैं शंकराचार्य। जबकि वेदों मे 'नर' और 'नारी' की स्थिति समान है। वैदिक काल मे पुरुषों और स्त्रियॉं दोनों का ही यज्ञोपवीत संस्कार होता था। कालीदास ने महाश्वेता द्वारा 'जनेऊ'धरण करने का उल्लेख किया है।  नर और नारी समान थे। पौराणिक हिंदुओं ने नारी-स्त्री-महिला को दोयम दर्जे का नागरिक बना डाला है। अपाला,घोशा,मैत्रेयी,गार्गी आदि अनेकों विदुषी महिलाओं का स्थान वैदिक काल मे पुरुष विद्वानों से  कम न था। अतः वेदों मे नारी की निंदा की बात ढूँढना हिंदुओं के दोषों को ढकना है। वस्तुतः 'हिन्दू' कोई धर्म है ही नही।बौद्धो के विरुद्ध क्रूर हिंसा करने वालों ,उन्हें उजाड़ने वालों,उनके मठों एवं विहारों को जलाने वाले लोगों को 'हिंसा देने' के कारण बौद्धों द्वारा 'हिन्दू' कहा गया था। फिर विदेशी आक्रांताओं ने एक भद्दी तथा गंदी 'गाली' के रूप मे यहाँ के लोगों को 'हिन्दू' कहा।साम्राज्यवादियों के एजेंट खुद को 'गर्व से हिन्दू' कहते हैं। ढोंगवाद धर्म नहीं है---




वेद जाति,संप्रदाय,देश,काल से परे सम्पूर्ण विश्व के समस्त मानवों के कल्याण की बात करते हैं। उदाहरण के रूप मे 'ऋग्वेद' के कुछ मंत्रों को देखें -

'संगच्छ्ध्व्म .....उपासते'=
प्रेम से मिल कर चलें बोलें सभी ज्ञानी बनें।
पूर्वजों की भांति हम कर्तव्य के मानी बनें। ।


'समानी मंत्र : ....... हविषा जुहोमी ' =


हों विचार समान सबके चित्त मन सब एक हों।
ज्ञान पाते हैं बराबर भोग्य पा सब नेक हों। ।


'समानी व आकूति....... सुसाहसती'=


हों सभी के दिल तथा संकल्प अविरोधी सदा।
मन भरे हों प्रेम से जिससे बढ़े सुख सम्पदा। ।


'सर्वे भवनतु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पशयन्तु मा कश्चिद दुख भाग भवेत। । '=


सबका भला करो भगवान सब पर दया करो भगवान ।
सब पर कृपा करो भगवान ,सब का सब विधि हो कल्याण। ।
हे ईश सब सुखी हों कोई  न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवनधन-धान्यके भण्डारी। ।
सब भद्रभाव देखें,सन्मार्ग के पथिक हों।
दुखिया न कोई होवे सृष्टि मे प्राण धारी। ।  

ऋग्वेद न केवल अखिल विश्व की मानवता की भलाई चाहता है बल्कि समस्त जीवधारियों/प्रांणधारियों के कल्याण की कामना करता है। वेदों मे निहित यह समानता की भावना ही साम्यवाद का मूलाधार है । जब मैक्स मूलर साहब भारत से मूल पांडुलिपियाँ ले गए तो उनके द्वारा किए गए जर्मन भाषा मे अनुवाद के आधार पर महर्षि कार्ल मार्क्स ने 'दास केपिटल'एवं 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो'की रचना की। महात्मा हेनीमेन ने 'होम्योपैथी' की खोज की और डॉ शुसलर ने 'बायोकेमी' की। होम्योपैथी और बायोकेमी हमारे आयुर्वेद पर आधारित हैं और आयुर्वेद आधारित है 'अथर्ववेद'पर। अथर्ववेद मे मानव मात्र के स्वास्थ्य रक्षा के सूत्र दिये गए हैं फिर इसके द्वारा नारियों की निंदा होने की कल्पना कहाँ से आ गई। निश्चय ही साम्राज्यवादियो के पृष्ठ-पोषक RSS/भाजपा/विहिप आदि के कुसंस्कारों को धर्म मान लेने की गलती का ही यह नतीजा है कि,कम्युनिस्ट और बामपंथी 'धर्म' का विरोध करते हैं । मार्क्स महोदय ने भी वैसी ही गलती यथार्थ को समझने मे कर दी। यथार्थ से हट कर कल्पना लोक मे विचरण करने के कारण कम्युनिस्ट जन-समर्थन प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं। नतीजा यह होता है कि शोषक -उत्पीड़क वर्ग और-और शक्तिशाली होता जाता है। 

आज समय की आवश्यकता है कि 'धर्म' को व्यापारियों/उद्योगपतियों के दलालों (तथाकथित धर्माचार्यों)के चंगुल से मुक्त कराकर जनता को वास्तविकता का भान कराया जाये।संत कबीर, दयानंद,विवेकानंद,सरीखे पाखंड-विरोधी भारतीय विद्वानों की व्याख्या के आधार पर वेदों को समझ कर जनता को समझाया जाये तो जनता स्वतः ही साम्यवाद के पक्ष मे आ जाएगी। काश साम्यवादी/बामपंथी विद्वान और नेता समय की नजाकत को पहचान कर कदम उठाएँ तो सफलता उनके कदम चूम लेगी। 

 ~विजय राजबली माथुर ©
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Comment in 'Unify Communists in one Party'group :
 
29-08-2015 ---