Thursday, May 24, 2012

प्रेरणादाता को आत्मीय श्रंधाजली --- विजय राजबली माथुर

24 मई पुण्य तिथि पर एक स्मरण -बी पी सहाय साहब


स्व.बिलसपति सहाय एवं स्व.मांडवी देवी

 स्व. बिलासपति सहाय साहब( पूनम के पिताजी ) को यह संसार छोड़े अब 12 वर्ष हो गए हैं और 12 वर्षों का एक युग माना जाता है। मुझे ज्योतिष को व्यवसाय के रूप मे अपनाने का परामर्श उन्होने ही दिया था और उनकी मृत्यु के लगभग 07 माह बाद उनके मत के क्षेत्र दयाल बाग(आगरा) मे मैंने उन्ही की पुत्री के नाम पर अपना ज्योतिष कार्यालय खोला भी था जिसे बाद मे वहाँ घर पर स्थानांतरित कर दिया था। अब यहाँ लखनऊ मे पूनम की राय पर ही कार्यालय का नाम बदल दिया गया है। सहाय साहब के बारे मे ज्योतिषयात्मक विश्लेषण आगरा के अखबार मे छ्पा था जिसकी स्कैन कापी ऊपर के चित्र मे देख सकते हैं।

बी पी सहाय साहब सरकारी सेवा से अवकाश ग्रहण करने के उपरांत मृत्यु पर्यंत 'पटना हाई स्कूल ओल्ड ब्वायज एसोसिएशन'मे सक्रिय रहे। उनके सभी सहपाठी उच्च पदो पर रहे जिनमे बिहार के पूर्व मुख्य सचिव के के श्रीवास्तव साहब का नाम प्रमुख है। 11 अगस्त 1942 के छात्र आंदोलन मे शहीद हुये एक क्रांतिकारी के भाई भी उनके सहपाठी थे। पटना सचिवालय के पास जो सप्तमूर्ती हैं उनमे से एक मूर्ति उनके सहपाठी के अग्रज की भी है। सरकारी सेवा के सम्पूर्ण काल मे उन्होने पूरी ईमानदारी से कार्य किया और न खुद कभी रिश्वत ली न अधीन्स्थों को लेने दी जबकि सिंचाई विभाग मे सर्किल आफिसर थे । नतीजतन उनके अनेक शत्रु रहे और आर्थिक स्थिति सदैव डांवा-डॉल रही। यही कारण है कि जन्म से अपने पिताजी  की ईमानदारी देखने के कारण पूनम को मेरे ईमानदारी पर चलने और परेशानी उठाने पर कोई एतराज़ नहीं है। यही वजह थी कि उन्होने मेरे बाबूजी द्वारा भेजे एक पोस्ट कार्ड को वरीयता दी और पूनम का विवाह मुझ से कर दिया।


जैसा कि अक्सर होता है और मेरे साथ पूरे तौर पर चरितार्थ है कि ईमानदार व्यक्ति को अपने घर-परिवार से भी सहयोग नहीं मिलता है बल्कि खींच-तान का सामना करना पड़ता है। मेरे बाबूजी भी इसी परिस्थिति से अपनी ईमानदारी की वजह से गुजरे और पूनम के बाबू जी भी इसी राह के राही रहे जिनको  पूनम के विवाह के समय उनके भाइयों ने ही उन्हें गुमराह करने का प्रयास किया  किन्तु अंततः वह भटके नहीं। यदि मैंने उनके परामर्श को न माना होता तो आज भी मुनीमगिरी ही कर रहा होता। वह आजीविका का कार्य विरोधाभासी था क्योंकि मै मजदूर आंदोलन मे सक्रिय था और व्यापारी वर्ग मजदूरों का शोषक होता है।उन्होने मेरी मानसिकता और क्षमता का पूर्वाङ्क्लन करते हुये मुझसे ज्योतिष को शौक के स्थान पर व्यवसाय के रूप मे अपनाने को कहा। वह मेरे कम्युनिस्ट आंदोलन मे शामिल रहने को बुरा नहीं समझते थे क्योंकि उनके छोटे बहनोई स्व.शशीभूषण प्रसाद जी मधुबनी के उसी डिग्री कालेज मे एकोनामिक्स पढ़ाते थे जिसमे पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री कामरेड चतुरानन मिश्रा जी भी एकोनामिक्स पढ़ाते थे। कामरेड चतुरानन मिश्र फूफाजी साहब के घर भी आते रहते थे और इनकी बातों का ज़िक्र वह बाबूजी साहब से करते रहते थे।


 समाज मे ज्योतिषी के रूप मे एक पहचान सम्मानजनक तो है ही इसमे भी छल-छढ्म से दूर रहने के कारण मुझे संतोष रहता है कि मैंने किसी का कुछ भला तो किया । हालांकि कुछ लोग ईमानदारी और सच्चाई पर चलने के कारण मुझे बेवकूफ और कमजोर सिद्ध करने का प्रयास करते रहते हैं। पूना मे प्रवास कर रहे और पटना से संबन्धित एक ब्लागर का कृत्य ऐसा ही रहा। व्यक्तिगत रूप से ज्योतिषयात्मक राय लेने के बाद उक्त ब्लागर ने मेरे विश्लेषण को गलत सिद्ध कराने का असफल प्रयास भी किया जिस कारण मुझे श्रीमती शबाना आज़मी,सुश्री रेखा और X-Y संबन्धित  ज्योतिषयात्मक विश्लेषण देने पड़े। एक सप्ताह के भीतर सुश्री रेखा के राज्यसभा मे मनोनीत हो जाने पर जहां मेरे विश्लेषण की सटीकता सिद्ध होती थी उक्त ब्लागर ने एक अन्य ब्लाग पर उसकी खिल्ली उड़ाई। वस्तुतः पटना से संबन्धित उक्त ब्लागर ने मेरे ज्योतिषीय ज्ञान की खिल्ली नहीं उड़ाई है बल्कि पटना के होनहार भविष्यदृष्टा स्व .बिलासपति सहाय साहब की खिल्ली उड़ाई है क्योंकि ज्योतिष को व्यवसाय बनाने का सुझाव उन्होने ही मुझे दिया था।


यद्यपि उन्होने कभी किसी को कुछ बताया नहीं किन्तु उनकी गणना काफी सटीक थी। 23 मई 2000 को उन्हें देखने आए अपनी बड़ी पुत्र वधू के पिताजी डॉ नरेंद्र कुमार सिन्हा (जो सरकारी सेवा से अवकाश ग्रहण करने के बाद निशुल्क होम्योपैथी इलाज करते थे)से उन्होने कहा था-"my death is sure tomorrow"। यह बात उन्होने मुझसे 25 मई को घाट पर बताई थी  ( जो उस वक्त अपने दूसरे दामाद मुकेश सिन्हा साहब के साथ थे)किन्तु उनके परिवार के किसी सदस्य को यहाँ तक कि अपनी पुत्री को भी पूर्व सूचित नहीं किया था। डॉ एन के सिन्हा साहब मुझे आर्यसमाजी भाई कहते थे सिर्फ इसलिए ही मुझसे कहा था। । यदि बाबूजी साहब ने मुझे अकौण्ट्स छोड़ कर 'ज्योतिष' का कार्य करने को कहा तो  कुछ सोच-समझ कर ही कहा होगा क्योंकि शौकिया तो मै लोगों को ज्योतिषीय परामर्श एक काफी लंबे समय से देता आ रहा ही था।

 1984 मे होटल मुगल शेरटन मे अकौण्ट्स सुपरवाइज़र के रूप मे कार्य करते हुये एक डच नर्स को हाथ देख कर जो कुछ बताया था वह उसकी पूर्ण संतुष्टि का रहा था । न तो ठीक से इंगलिश बोलना  उस डच नर्स को आता था और न मुझे किन्तु वार्ता समझ आ गई थी। होटल के ज्योतिषी महोदय ने उस लेडी को इसलिए हाथ देखने से मना कर दिया था कि उनका उस दिन का कोटा पूरा हो चुका था और उस लेडी की वापिसी फ्लाईट उसी दिन की थी तथा उसे भारत मे ही हाथ दिखाना और हाल जानना था। अतः फ्लोर स्टाफ ने मुझसे उस लेडी के रूम मे हाथ देखने का आग्रह किया था। ज्योतिषी साहब की फीस का 50 प्रतिशत उस लेडी ने रु 100/- मुझे परामर्श शुल्क के रूप मे दिया था। नियमानुसार मै वहाँ ज्योतिषीय परामर्श नहीं दे सकता था अपने सर्विस रूल के मुताबिक भी और उन ज्योतिषी साहब से होटल के काण्टरेक्ट के मुताबिक भी। ज्योतिषी साहब से मेरे संबंध मधुर थे अतः मैंने वह रु 100/- जाकर उनको देना चाहा तो उन्होने मुझसे खुद ही रखने को कह दिया। उन्होने मेरे द्वारा ज्योतिषीय परामर्श देने पर भी एतराज़ नहीं किया  था।


धन-पिपासु लोगों से किसी सच्ची बात को स्वीकारने की उम्मीद मैंने कभी नहीं की इसलिए मुझे इस प्रकार की बेजा हरकतों से कभी कोई फर्क भी नहीं पड़ता है जैसी कि पूना प्रवास कर रहे पटना के ब्लागर ने की । मुझे नहीं लगता कि कभी मेरे किसी कार्य से स्व .बिलासपति सहाय जी का मुझे ज्योतिष अपनाने का सुझाव देने का आंकलन गलत सिद्ध होगा। आज हमारे अपने कम्युनिस्ट नेतागण भी मुझसे ज्योतिषीय परामर्श ले रहे हैं तो यह एक उपलब्धि ही है। इसका पूरा का पूरा श्रेय बाबूजी साहब (स्व .बिलासपति सहाय जी) को है।

Saturday, May 19, 2012

ईमानदारी की समाज मे कद्र नहीं

हिंदुस्तान,लखनऊ,15 मई 2012



"रूखा-सूखा खाय के ठंडा पानी पीव। 


देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जीव। । "

कभी समाज मे इस कथन को जीवन का आदर्श माना जाता था किन्तु आज?उपरोक्त स्कैन मे ईमानदार अधिकारी ए डी एम विनोद राय साहब की आत्म-हत्या के संबंध मे लखनऊ के जिलाधिकारी महोदय की श्रीमती जी ने जो विचार दिये हैं उन पर गौर किए जाने की नितांत आवश्यकता है। वस्तुतः किसी भी व्यक्ति के ईमानदार होने और बने रहने मे उसके पूरे परिवार का सहयोग होता है। प्रस्तुत मामले मे लेखिका ने जो रहस्योद्घाटन किया है उसके अनुसार राय साहब की पत्नी उनकी ईमानदारी से संतुष्ट नहीं थीं और उनकी ईमानदारी उनके पारिवारिक असंतोष का कारण थी जिसने उन्हें आत्म-हत्या को प्रेरित किया। जनता को एक ईमानदार अधिकारी के न रहने से जो क्षति होगी उसका आंकलन कोई नहीं करेगा। भ्रष्टाचार विरोध के नाम पर आंदोलन चलाने वाले और उसका समर्थन करने वाले इस हादसे पर क्या दृष्टिकोण अपनाते हैं उसका भी कुछ पता नहीं चलेगा।

भ्रष्टाचार बहता हुआ पानी है जो ऊपर से नीचे बहता है। अर्थात जब शीर्ष पर भ्रष्टाचार उत्पन्न होता है तभी वह बह कर निचले स्तर पर पहुंचता है किन्तु NGO आंदोलन निचले स्तर पर भ्रष्टाचार का नाम लेकर चल रहा है वह ऊपर के भ्रष्टाचार को सँजो कर रखने का एक उपक्रम है। इसीलिए बड़े सरकारी अधिकारी उसका समर्थन करते है। जब एक बड़ा अधिकारी ईमानदारी पर चलता है तो समाज की कौन कहे उसके परिवार के लोग ही उसे जीने नहीं देते हैं और वह अवसादग्रस्त होकर आत्म-हत्या करने पर मजबूर हो जाता है। समाज की इस सड़ांध को दूर करने के लिए 'सदाचार' को महत्व देना होगा। 'सदाचार'धुए की भांति नीचे से ऊपर को जाता है। यदि समाज की इकाई परिवारों मे सदाचार रहे तो ऊपर तक उसका प्रभाव पड़ेगा ही

आज हो उल्टा रहा है भ्रष्टाचार दूर करने का  आंदोलन चलाने वाले महा-भ्रष्ट ,लुटेरे,शोषक और उत्पीड़क लोग हैं उनका सदाचार से कोई वास्ता नहीं है।  इन परिस्थितियों मे अन्ना/रामदेव आदि का आंदोलन महज ढोंग और पाखंड को बढ़ा कर लूट और भ्रष्टाचार को और पुख्ता करने वाला ही है। जबकि आवश्यकता है -ईमानदारी और सदाचार को बढ़ावा देने की तभी हम अपने होनहार जन-हितैषी अधिकारियों की रक्षा कर सकेंगे एवं भ्रष्टाचार स्वतः ही समाप्त हो सकेगा। 

Tuesday, May 15, 2012

भारतीय संसद


दोनों कटिंग-हिंदुस्तान-लखनऊ-29/03/2012 

अभी 13 मई को भारतीय संसद के 60 वर्ष पूर्ण करने के जश्न काफी धूम-धाम से मनाए गए हैं जबकि हाल ही मे संसदीय लोकतन्त्र और भारतीय संसद पर खौफनाक हमले भी खूब हुये हैं जैसा उपरोक्त स्कैन कापियों से स्पष्ट भी हो रहा है। 1969-71 मे मेरठ कालेज मे बी ए पढ़ते समय अपने प्रो .कैलाश चंद्र गुप्त जी द्वारा बताए गए ये शब्द मुझे आज भी ज्यों के त्यों याद हैं ,"संसद भवन की नींव बहुत गहरी और मजबूत है और उतना ही मजबूत है हमारा संसदीय लोकतन्त्र "। हालांकि प्रो .गुप्ता खुद 'जनसंघ' से संबन्धित थे और अक्सर प्रो .बलराज मधोक को 'राजनीतिक चिंतक'बताते थे किन्तु उनकी रूस मे बनी  'अदृश्य स्याही' के जरिये इंदिरा जी के चुनाव जीतने की बात को उन्होने  हमारी कक्षा मे भ्रामक और असत्य भी कहा था। उनका निजी विचार था कि, संविधान के अनुसार संसद काफी शक्तिशाली है और उस पर किसी भी प्रकार का आघात उसे क्षति नहीं पहुंचा सकेगा। उन्होने मेरठ कालेज मे सम्पन्न एक 'छात्र संसद' का भी कई बार ज़िक्र किया था जिसे देखने तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकुम सिंह जी भी आए थे। यह कार्यक्रम मेरे कालेज ज्वाइन करने से बहुत पहले हुआ था। उन्होने यह भी बताया था कि जिन सतपाल मालिक,पूर्व अध्यक्ष छात्र संघ को प्राचार्य डॉ भट्टाचार्य ने कालेज मे दाखिला देने पर रोक लगा रखी है वह उसी वर्ष कालेज मे दाखिल हुये थे और उन्होने 'राज नारायण' की भूमिका अदा की थी जिसे सरदार हुकुम सिंह जी ने बहुत सराहा था क्योंकि वह राजनारायण जी को प्रत्यक्ष लोकसभा मे वैसा करते देखते रहे थे। तब यह सतपाल मलिक जी मधु लिंमये और राज नारायण वाली संसोपा (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी) और उसके युवा संगठन -समाजवादी युवजन सभा मे सक्रिय थे ,जो अब भाजपा के बड़े नेता हैं)।

भारतीय संसद ने इंदिरा जी की 'एमर्जेंसी' को भी देखा और उनके कटु आलोचक एवं उन्हें अपदस्थ करने वाले (जिन्हें प्रो . गुप्ता पढ़ाते समय 'राजनीतिक दार्शनिक'-Political Philosphar बताते थे) मोरार जी देसाई ने स्पष्ट कहा था कि इंदिरा जी तानाशाह नहीं थीं। लेकिन आजकल अन्ना/रामदेव आंदोलन के नाम पर RSS/NGOs/देशी-विदेशी कारपोरेट घराने 'भारतीय संसद' और संसदीय लोकतन्त्र के लिए गंभीर खतरा बन कर उभरे हैं। नकसलवादी( जो संसदीय लोकतन्त्र को नहीं मानते और अमेरिकी धन के बल पर संसद के लिए चुनौती बने हुये हैं )से कम खतरनाक नहीं हैं ये एन जी ओ आंदोलनकारी। अन्ना/रामदेव का एक खतरनाक नारा है-सभी राजनीतिज्ञ भ्रष्ट हैं',इन लोगों ने आम जनता को राजनीति से विरक्त रखने का एक सुनियोजित षड्यंत्र चला रखा है। साम्राज्यवादियों के ये पिट्ठू अच्छी तरह जानते हैं कि जनता को राजनीति से दूर कर दो तो जनतंत्र स्वतः ही विफल हो जाएगा। 

दुर्भाग्य यह है कि पढे-लिखे और खुद को खुदा समझने वाले इंटरनेटी वीर भी इस नापाक अभियान मे शामिल हैं। ये वे लोग हैं जो खाते-पीते,सम्पन्न परिवारों से आते हैं और सरकारी नौकरी मे ऊंचे-ऊंचे पदों पर आसीन है या उद्योग-धंधे,व्यापार मे लगे हुये हैं। ये लोग कभी भी अपना 'मत'-Vote देने नहीं जाते और एयर कंडीशंड कमरों मे बैठ कर राजनीति और राजनीतिज्ञों को कोसते रहते हैं। इस प्रकार के लोगों ने आज भारतीय संसद के सम्मुख गंभीर चुनौती संसदीय लोकतन्त्र को नष्ट करने की उपस्थित कर रखी हैं।लेकिन भारत की जनता इन सरमायेदारों और सकारी नौकरशाहों के  नापाक मंसूबों को भलीभाँति समझती है  और उन्हें करारी शिकस्त देती रहती है। अतः भारत की जनता अपने संसदीय जनतंत्र और संसद की रक्षा करने मे सदैव सफल रहेगी। 

Saturday, May 5, 2012

जन्म कुंडली मे 'राज राजेश्वर योग' ने मार्क्स को 'बेताज बादशाह' बनाया

(05 मई ,1818 को जर्मन मे जन्मे कार्ल मार्क्स की कुंडली मे -कुम्भ लग्न का शनि 'राज राजेश्वर योग' बना रहा है)



(जन्म-05-05-1818 एवं मृत्यु-14-03-1818 )



जन्म कुंडलियों मे विभिन्न योगों को दर्शाने वाली एक पुस्तक से महर्षि कार्ल मार्क्स की यह जन्म कुंडली उपलब्ध हुई है। उक्त पुस्तक मे मात्र इतना ही बताया गया है कि,धनु,मीन,तुला,मेष,मकर या कुम्भ लग्न मे 'शनि'स्थित हो तो 'राज राजेश्वर योग'होता है। इस प्रकार का योग कार्ल मार्क्स की कुंडली मे 'कुम्भ लग्न'मे शनि की स्थिति से बन रहा है। इस पर मंगल की पूर्ण-आठवीं दृष्टि भी पड़ रही है।


उक्त पुस्तक मार्क्स के बारे मे इससे अधिक प्रकाश नहीं डालती है। स्व्भाविक रूप से आप यह प्रश्न उठा सकते हैं कि,मार्क्स को इस राजयोग से कौन सी गद्दी मिली?मार्क्स की कुंडली मे तीसरे भाव मे उच्च का सूर्य उन्हें पराक्रमी,भाग्यशाली व विद्वान बना रहा है।राहू भी वहीं बैठ कर उनमे साहस व पराक्रम का संचार कर रहा है किन्तु उनके कुटुम्ब सुख को नष्ट कर रहा है। वहीं बैठा चंद्र राहू के साथ ग्रहण योग बनाते हुये कुटुम्ब सुख से उन्हें वंचित रखने मे योगदान कर रहा है। चतुर्थ भाव मे बैठे बुध और शुक्र उन्हें  कूटनीतिज्ञता से पूरित कर रहे हैं तथा मित्रों से लाभ के अवसर उत्पन्न कर रहे हैं साथ ही नवम  भाव मे उपस्थित 'केतू' भी मित्र लाभ प्रदान कर रहा है । 'एंजेल्स' का सहयोग एवं साहचर्य सर्व विदित ही है। एकादश भाव मे बैठा स्व-ग्रही ब्रहस्पति उन्हें यशस्वी बना रहा है। षष्ठम भाव मे बैठा नीच का मंगल उन्हें रोगी बना रहा है।


कार्ल मार्क्स का जो जीवन वृतांत उपलब्ध है वह इन ग्रहों के फल को ही स्पष्ट करता है। 'राज राजेश्वर योग' एक राज योग है। भले ही किसी देश की शासन व्यवस्था का संचालन मार्क्स ने नहीं किया किन्तु उन्होने शासन व्यवस्था का जो नया 'दर्शन'(फिलासफ़ी) प्रस्तुत किया उसके अनुसार कई देशों का संचालन हुआ और आज भी हो रहा है। आज भी कार्ल मार्क्स विश्व की कोटि-कोटि जनता के 'बेताज बादशाह 'हैं और जनता के दिलों पर उनका राज चल रहा है ।जनता आज भी कार्ल मार्क्स द्वारा दिखाये गए मार्ग से अपने कल्याण की उम्मीद लगाए है। 




पिछले वर्ष मार्क्स जयंती पर आगरा के एक साप्ताहिक अखबार मे पूर्व प्रकाशित अपने लेख को दिया था आज फिर उसी को उद्धृत कर रहा हूँ। ऊपर जो मार्क्स का ज्योतिषीय विश्लेषण दिया है  उससे प्रस्तुत लेख के संदर्भ समझने मे सहूलियत होगी।







बृहस्पतिवार, 5 मई 2011



समाजवाद और महर्षि कार्लमार्क्स

05  मई जयन्ति के अवसर पर १९९० में सप्तदिवा,आगरा में पूर्व प्रकाशित आलेख 




जब-जब धरा विकल होती,मुसीबत का समय आता.
किसी न किसी रूप में कोई न कोई महामानव चला आता ..


ये पंक्तियाँ महर्षि कार्ल मार्क्स पर पूरी तरह खरी उतरती हैं.मार्क्स का आविर्भाव एक ऐसे समय में हुआ जब मानव द्वारा मानव का शोषण अपने निकृष्टतम रूप में भयावह रूप धारण कर चुका था.औद्योगिक क्रान्ति के बाद जहाँ समाज का धन-कुबेर वर्ग समृद्धि की बुलंदियां छूता चला जा रहा था वहीं दूसरी ओर मेहनत करके जीवन निर्वाह करने वाला गरीब मजदूर और फटे हाल होता जा रहा था,यह परिस्थिति यूरोप में तब आ चुकी थी और भारत तब तक सामन्तवाद में पूरी तरह जकड चुका था.हमारे देश में जमींदार भूमिहीन किसानों पर बर्बर अत्याचार कर रहे थे.
Man is the product of his Environment .
मार्क्स का पितृ देश जर्मन था,परन्तु उन्हें निर्वासित होकर इंग्लैण्ड में अपना जीवन यापन करना पड़ा.जर्मन के लोग सदा से ही चिंतन-मनन में  अन्य यूरोपीय समाजों से आगे रहे हैं और उन पर भारतीय चिंतन का विशेष प्रभाव पड़ा है.मैक्समूलर सा :तीस वर्ष भारत में रहे और संस्कृत का अध्ययन करके वेद,वेदान्त,उपनिषद और पुरानों की तमाम पांडुलिपियाँ तक प्राप्त करके जर्मन वापिस लौटे.मार्क्स जन्म से ही मेधावी रहे उन्होंने मैक्समूलर के अध्ययन का भरपूर लाभ उठाया और समाज व्यवस्था के लिए नए सिद्धांतों का सृजन किया.
मार्क्स का तप और त्याग 
हालांकि एक गरीब परिवार में जन्में और कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा,परन्तु मार्क्स ने हार नहीं मानी,उन्होंने अपने कठोर तपी जीवन से गहन अध्ययन किया.समाज के विकास क्रम को समझा और भावी समाज निर्माण के लिए अपने निष्कर्षों को निर्भीकता के साथ समाज के सम्मुख रखा.व्यक्तिगत जीवन में अपने से सात वर्ष बड़ी प्रेमिका से विवाह करने के लिए भी उन्हें सात वर्ष तप-पूर्ण प्रतीक्षा करनी पडी.उनकी प्रेमिका के पिता जो धनवान थे मार्क्स को बेहद चाहते थे और अध्ययन में आर्थिक सहायता भी देते थे पर शायद अपनी पुत्री का विवाह गरीब मार्क्स से न करना चाहते थे.लेकिन मार्क्स का प्रेम क्षण-भंगुर नहीं था उनकी प्रेमिका ने भी मार्क्स की तपस्या में सहयोग दिया और विवाह तभी किया जब मार्क्स ने चाहा.विवाह के बाद भी उन्होंने एक आदर्श पत्नी के रूप में सदैव मार्क्स को सहारा दिया.जिस प्रकार हमारे यहाँ महाराणा प्रताप को उनकी रानी ने कठोर संघर्षों में अपनी भूखी बच्चीकी परवाह न कर प्रताप को झुकने नहीं दिया ठीक उसी प्रकार मार्क्स को भी उनकी पत्नी ने कभी निराश नहीं होने दिया.सात संतानों में से चार को खोकर और शेष तीनों बच्चियों को भूख से बिलखते पा कर भी दोनों पति-पत्नी कभी विचलित नहीं हुए और आने वाली पीढ़ियों की तपस्या में लीं रहे.देश छोड़ने पर ही मार्क्स की मुसीबतें कम नहीं हो गईं थीं,इंग्लैण्ड में भी उन्हें भारी परेशानियों का सामना करना पड़ता था.लाईब्रेरी में अध्ययनरत मार्क्स को समय समाप्त हो जाने पर जबरन बाहर निकाला जाता था.
बेजोड़ मित्र 
इंग्लैण्ड के एक कारखानेदार एन्जेल्स ने मार्क्स की उसी प्रकार सहायता की जैसी सुग्रीव ने राम को की थी.एन्जेल्स धन और प्रोत्साहन देकर सदैव मार्क्स के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर खड़े रहे.मार्क्स का दर्शन इन्हीं दोनों के त्याग का प्रतिफल है.विपन्नता और संकटों से झूजते मार्क्स को सदैव एन्जेल्स ने आगे बढ़ते रहने में सहायता की और जिस प्रकार सुग्रीव के सैन्य बल से राम ने साम्राज्यवादी रावण पर विजय प्राप्त की थी.ठीक उसी प्रकार मार्क्स ने एन्जेल्स के सहयोग बल से शोषणकारी -उत्पीडनकारी साम्राज्यवाद पर अपने अमर सिद्धांतों से विजय का मार्ग प्रशस्त किया.गरीब और बेसहारा लोगों के मसीहा के रूप में मार्क्स और एन्जेल्स तब तक याद किये जाते रहेंगें जब तक आकाश में सूरज-चाँद और तारे दैदीप्यमान रहेंगें.
भारतीय संस्कृति और मार्क्सवाद 
हमारे प्राच्य ऋषि-मुनियों नें 'वसुधैव कुटुम्बकम'का नारा दिया था,वे समस्त मानवता में समानता के पक्षधर थे और मनुष्य द्वारा मनुष्य के उत्पीडन और शोषण के विरुद्ध.यही सब कुछ मार्क्स ने अपने देश -काल की परिस्थितियों के अनुरूप नए निराले ढंग से कहा है.कुछ विद्वान मार्क्स के दर्शन को भारतीय वांग्मयके अनुरूप मानते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि,मार्क्सवाद भारतीय संस्कृति में ही सही ढंग से लागू हो सकता है.यूरोप में मार्क्स के दर्शन पर क्रांतियाँ हुईं और मजदूर वर्ग की राजसत्ता स्थापित हुयी और वहां शोषण को समाप्त करके एक संता पर आधारित समाज संरचना हुयी,परन्तु इस प्रक्रिया में यूरोपीय संस्कृति के अनुरूप मार्क्स के अनुयाई शासकों से कुछ ऐसी गलतियां हुईं जो मार्क्स और एन्जेल्स के दर्शन से मेल नहीं खातीं थीं.रूसी राष्ट्रपति मिखाईल गोर्बाचोव ने इस कमी को महसूस किया और सुधारवादी कार्यक्रम लागू कर दिया जिससे समाज मार्क्स-दर्शन का वास्तविक लाभ उठा सके.यूरोप के ही कुछ शासकों ने सामंती तरीके से इसका विरोध किया,परिणामस्वरूप उन्हें जनता के कोप का भाजन बनना पडा.आज विश्व के आधे क्षेत्रफल और एक तिहाई आबादी में मार्क्सवादी शासन सत्ता विद्यमान है जो सतत प्रयास द्वारा जड़ता को समाप्त कर यथार्थ मार्क्सवाद की ओर बढ़ रही है.                                                                                                                                          
स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि,नास्तिक वह नहीं है जिसका ईश्वर पर विशवास नहीं है,बल्कि' नास्तिक वह है जिसका अपने ऊपर विशवास नहीं है' मार्क्सवाद बेसहारा गरीब मेहनतकश वर्ग को अपने ऊपर विशवास करने की प्रेरणा देता है.विवेकानंद ने यह भी कहा था जब तक संसार में झौंपडी में निवास करने वाला हर आदमी सुखी नहीं होता यह संसार कभी सुखी नहीं होगा.मार्क्स ने जिस समाज-व्यवस्था का खाका प्रस्तुत किया उसमें सब व्यक्ति सामान होंगें और प्रत्येक व्यक्ति से उसकी क्षमता व योग्यतानुसार काम लिया जाएगा और प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकतानुसार दिया जाएगा जिससे उसका बेहतर जीवन निर्वाह हो सके.श्री कृष्ण ने भी गीता में यही बताया कि,मनुष्य को लोभवश परिग्रह नहीं करना चाहिए,अर्थात किसी मनुष्य को अपनी आवश्यकता से अधिक कुछ नहीं रखना चाहिए.यह आवश्यकता से अधिक रखने की लालसा अर्थात कृष्ण के बताये गए अपरिग्रह मार्ग का अनुसरण न करना ही शोषण है.और इसी शोषण को समाप्त करने का मार्ग मार्क्स ने आधुनिक काल में हमें दिखाया है.
भारत में गलत धारणा 
हमारे देश में साधन सम्पन्न शोषक वर्ग ने धर्म की आड़ में मार्क्सवाद के प्रति विकृत धारणा का पोषण कर रखा है जब कि यह लोग स्वंय ही 'धर्म से अनभिग्य 'हैं.प्रसिद्ध संविधान शास्त्री  और महात्मा गांधी के अनुयाई डा. सम्पूर्णानन्द ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है :-सत्य,अहिंसा,अस्तेय,अपरिग्रहऔर ब्रह्मचर्य के समुच्य का नाम है-धर्म.अब देखिये यह सोचने की बात है कि,धर्म की दुहाई देने वाले इन पर कितना आचरण करते हैं.यदि समाज में शोषण विहीन व्यवस्था ही स्थापित हो जाए जैसा कि ,मार्क्स की परिकल्पना में-

सत्य-पूंजीपति शोषक वर्ग सत्य बोल और उस पर चल कर समृद्धत्तर नहीं हो सकता .

अहिंसा-मनसा-वाचा-कर्मणा अहिंसा का पालन करने वाला शोषण कर ही नहीं सकता.
अस्तेय-अस्तेय का पालन करके पूंजीपति वर्ग अपनी पूंजी नष्ट कर देगा.गरीब का हक चुराकर ही धनवान की पूंजी सृजित होती है.
अपरिग्रह-जिस पर वेदों से लेकर श्रीकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द सभी मनीषियों ने ज्यादाजोर दिया यदि समाज में अपना लिया जाए तो कोई किसी का हक छीने ही नहीं और स्वतः समानता स्थापित हो जाए.
ब्रह्मचर्य-जिसकी जितनी उपेक्षा पूंजीपति वर्ग में होती है ,गरीब तबके में यह संभव ही नहीं है.अपहरण,बलात्कार और वेश्यालय पूंजीपति समाज की संतुष्टि का माध्यम हैं.

आखिर फिर क्यों धर्म का आडम्बर दिखा कर पूंजीपति वर्ग जनता को गुमराह करता है?ज़ाहिर है कि,ऐसा गरीब और शोषित वर्ग को दिग्भ्रमित करने के लिए किया जाता है,जिससे धर्म की आड़ में शोषण निर्बाध गति से चलता रहे.

कसूरवार मार्क्सवादी भी हैं
हमारे देश में धर्म का अनर्थ करके जहां पूंजीपति वर्ग शोषण को मजबूत कर लेता है;वहीं साम्राज्यवादी  उसे इसके लिए प्रोत्साहित करते हैं जबकि मार्क्स के अनुयायी  अंधविश्वास में जकड कर और शब्द जाल में फंस कर भारतीय जनता को भारतीय संस्कृति और धर्म से परिचित नहीं कराते.ऐसा करना वे मार्क्सवाद के सिद्धांतों के विपरीत समझते हैं.और यही कारण है अपनी तमाम लगन और निष्ठा के बावजूद भारत में मार्क्सवाद को  विदेशी विचार-धारा समझा जाता है और यही दुष्प्रचार  करके साम्राज्यवादी-साम्प्रदायिक शक्तियां विभिन्न धर्मों के झण्डे उठा कर जनता को उलटे उस्तरे से मूढ़ती  चली जा रहीं हैं.इस परिस्थिति के लिए १९२५ से आज तक का हमारा मार्क्सवादी आन्दोलन स्वंय जिम्मेदार है.
अब समय आ गया है 
जब हम प्रति वर्ष २२अप्रैल से ०५ मई तक मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सिद्धांतों को भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में 'चेतना पक्ष' के रूप में मनाएं और स्वंय मार्क्स के अनुयाई भी भारतीय वांग्मय के अनुकूल भाषा-शैली अपना कर राष्ट्र को प्राचीन 'वसुधैव कुटुम्बकम'की भावना फैलाने के लिए महर्षि कार्ल मार्क्स की चेतना से अवगत कराएं,अन्यथा फिर वही 'ढ़ाक के तीन पात'.

Tuesday, May 1, 2012

काम के घंटे हों -चार --- विजय राजबली माथुर


पहली मई 'मजदूर दिवस' पर विशेष :




आज पूरी दुनिया मे हर जाति,संप्रदाय,धर्म के लोग 'मजदूर दिवस' के पर्व को अपने -अपने तरीके से मना रहे हैं। लगभग सवा सौ वर्षों पूर्व अमेरिका के शिकागो शहर मे मजदूरों ने व्यापक प्रदर्शन का आयोजन किया था ,तब से ही आज के दिन को प्रतिवर्ष 'मजदूर दिवस' के रूप मे मनाने की परिपाटी चली आ रही है। वस्तुतः आज का दिन उन शहीद मजदूरों की कुर्बानी को याद करने का दिन है जिन्हों ने अपने साथियों के भविष्य के कल्याण हेतु अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया था। ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लोभ मे उद्योगपति मजदूरों से 12-12 और 14-14 घंटे काम लेते थे। उनका शोषण -उत्पीड़न तो करते ही थे उन्हें बंधक भी बना लेते थे। समय-समय पर मजदूर संगठित होकर अपने ऊपर हो रहे जुल्मों का विरोध करते थे। व्यापारियो -उद्योगपतियों की समर्थक सत्ता की गोली वर्षा से अनेकों मजदूर शहीद हुये और तभी से मजदूरों का सफ़ेद 'झण्डा' 'लाल' रंग मे तब्दील कर दिया गया जो इन वीरों की शहादत याद दिलाता है। इसी के फलस्वरूप  बाद मे काम के घंटे -8 नियमित किए गए थे।

मजदूरों ने किसानों को भी अपने साथ मिलाया और दुनिया मे उनको पहली सफलता 1917 मे रूस मे मिली भी। रूसी क्रांति का ही असर था कि, भारत आदि कई उपनिवेशों को साम्राज्यवाद से मुक्ति मिली। 1949 मे चीन मे भी मजदूरों की सत्ता की स्थापना हुई। रूस और चीन मे मजदूरों का नेतृत्व करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां जिस तरीके से साम्यवाद को लागू करती रहीं वह त्रुटिपूर्ण रहा। यही कारण है कि 1991 मे रूस से कम्युनिस्ट शासन विदा हो गया और अब वहाँ पुनः पूंजीवादी व्यवस्था लागू है। चीन मे भी कम्युनिस्ट पार्टी ने पूंजीवाद पर चलना चालू कर रखा है।

भारत मे भी आज मजदूर आंदोलन बिखरा हुआ है। मजदूरों के नाम पर पूँजीपतियों ने अपने हितैषी संगठन खड़े करवा लिए हैं जो मजदूर एकता मे बाधा हैं। वैसे भी जाति और धर्म भारत मे मजदूरों के संगठित होने मे बाधक रहे हैं। आबादी तेज़ी से बढ़ी है,वैज्ञानिक प्रगति खूब हुई है परंतु रोजगारों मे छ्टनी भी खूब हुई है। बेरोजगारी और गरीबी के कारण मनुष्यों का जीना दूभर हो गया है। जिन को रोजगार मिला भी है उनका शोषण बहुत बढ़ गया है। श्रम क़ानूनों के मौजूद होते हुये भी कामगारों से आज फिर 12-12 घंटे,14-14 घंटे काम लिया जा रहा है। दूसरी ओर अमीर और अमीर हुआ है। उद्योपातियों के मुनाफे मे बेतहाशा वृद्धि हुई है और मजदूरों का जीना मुहाल हुआ है।

मजदूरों का उत्पीड़न और शोषण बरकरार रखने के लिए उद्योगपतियों-पूँजीपतियों के दलाल-तथाकथित पुरोहित जनता को अधर्म का पाठ धर्म के नाम पर पढ़ा रहे हैं। हमारे कम्युनिस्ट मजदूर नेता धर्म के उसी गलत स्वरूप को धर्म मानते हुये धर्म का कडा विरोध करते हैं। नतीजा यह होता है कि मजदूर और गरीब जनता अधर्मिकों के मकड़-जाल मे उलझ कर रह जाती है।

आज इस मजदूर दिवस पर मजदूरों को संकल्प लेना चाहिए कि अधार्मिक पुरोहितों का पर्दाफाश करके वास्तविक 'धर्म' के मर्म को समझते हुये अपनी मुक्ति हेतु एकजुट संघर्ष करेंगे। बढ़ती बेरोजगारी पर काबू पाने और बेतहाशा मुनाफा ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए काम के घंटे कम करके 'चार' करवाने का संघर्ष प्रारम्भ करना होगा। 8 घंटे के कानूनी प्रविधान को 4 घंटे करने पर तत्काल दुगुने लोगों को रोजगार संभव होगा और वह मुनाफा इस प्रकार चंद हाथों से निकाल कर एक बड़े वर्ग की ज़िंदगी संवार सकेगा।


'काम के घंटे हों-चार 'इस आंदोलन को चलाने के लिए हमारे नेता अपने वेदिक विद्वानों के विचारों को साथ लें तो जनता का भला कर सकेंगे।मथुरावासी विजय सिंह जी का लिखा मेरे स्वर मे यह गीत सुनें और स्पष्ट समझें कियह मजदूर आंदोलन को संगठित करने मे बहुत मददगार होगा। काश नेतृत्व स्वीकार कर सके?






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01-05-2016