Wednesday, June 29, 2016

मौकापरस्ती की वजह से राज्यसभा के औचित्य पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं ------ केसी त्यागी

  


राज्यसभा के अस्तित्व पर बहस बेमानी

केसी त्यागी, वरिष्ठ जद-यू नेता First Published:28-06-2016 09:53:54 PMLast Updated:28-06-2016 09:53:54 PM



न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा: वृद्धा न ते ये न वदन्ति
धर्मं।/ नासौ धर्मों यत्र न सत्यमस्ति न तत्सत्यं यच्छलेनानुविद्धम्।।
राज्यसभा के प्रवेश द्वार पर लिखा महाभारत का यह श्लोक कहता है कि जिस सभा में वृद्धजन (अनुभवी जन) नहीं, वह सभा नहीं; जो धर्म की बात न कहें, वे वृद्धजन नहीं; जिसमें सत्य नहीं, वह धर्म नहीं और जो कपट से पूर्ण हो, वह सत्य नहीं। लेकिन विडंबना यह है कि आज देश में राज्यसभा के अस्तित्व पर ही प्रश्न उठाए जा रहे हैं।

किसी भी संघीय शासन में विधायिका का ऊपरी सदन सांविधानिक बाध्यता के चलते राज्य के हितों की रक्षा करने के लिए होता है। इसी सिद्धांत के चलते राज्यसभा का गठन हुआ है। राज्यसभा का गठन एक पुनरीक्षण सदन के रूप में हुआ है, जो लोकसभा द्वारा पास किए गए प्रस्तावों की समीक्षा करे। संविधान के अनुच्छेद-80 में राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 निर्धारित की गई है, जिनमें से 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं और 238 सदस्य राज्यों और संघ-राज्य क्षेत्रों के प्रतिनिधि होते हैं।

हालांकि, राज्यसभा के सदस्यों की वर्तमान संख्या 245 है, जिनमें से 233 सदस्य राज्यों और संघ राज्य-क्षेत्र दिल्ली व पुडुचेरी के प्रतिनिधि हैं और 12 राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और समाजसेवा जैसे क्षेत्रों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव होता है। ये 12 मनोनीत सदस्य संसद में विशेषज्ञों की कमी पूरी करते हैं।

संविधान से राज्यसभा को दो ऐसे विशेषाधिकार प्राप्त हैं, जो लोकसभा के पास भी नहीं हैं। अनुच्छेद-249 के अंतर्गत राज्यसभा संसद को राज्य सूची के अंतर्गत सूचीबद्ध किसी भी विषय पर कानून बनाने के लिए प्राधिकृत कर सकता है। केंद्र और राज्य, दोनों में ही समान नई 'ऑल इंडिया सर्विसेज' बनाने का अधिकार संसद को राज्यसभा की ही मंजूरी से मिल सकता है। यह बात सही है कि राज्यसभा का गठन ब्रिटेन के 'हॉउस ऑफ लॉर्ड्स' से प्रेरित होकर किया गया था, पर यह उसकी तरह कमजोर बिल्कुल नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि इसके सांविधानिक विशेषाधिकार ही देश में संघीय साम्यावस्था और संतुलन बनाए रखने में अब तक असाधारण भूमिका निभाते आए हैं।

मोदी सरकार ऐसी पहली सरकार नहीं है, जिसे राज्यसभा में बहुमत न होने के कारण विभिन्न विधेयकों को पारित कराने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री ही ऐसे प्रधानमंत्री रहे हैं, जिन्हें अपने पूरे कार्यकाल के दौरान ऊपरी सदन में पूर्ण बहुमत प्राप्त रहा। ज्यादातर शासक दलों को राज्यसभा में बहुमत न होने के कारण मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। विपक्ष को भरोसे में न ले पाना यह सरकार की कमजोरी हो सकती है, लेकिन इस आधार पर किसी सदन को समाप्त करने का विचार अलोकतांत्रिक है। राज्यसभा वही काम कर रही है, जो उसे सौंपा गया था। किसी भी विधेयक के पास होने से पहले उस पर गहन चिंतन और वाद-संवाद होना चाहिए। संवाद-सहमति के माध्यम से कानून बनाए जाने चाहिए। इस संदर्भ में सरकार की भूमिका काफी अहम है और यह देखना उसकी जिम्मेदारी है कि किस प्रकार से हर पक्ष की जायज मांगों के आधार पर एक समावेशी विधेयक पास हो।

हमारे संविधान में 'चेक ऐंड बैलेंस' के सिद्धांत को आधार बनाया गया है। राज्यसभा को संविधान से मिला हुआ विशिष्ट दर्जा इसी का एक उदाहरण है। कुछ लोगों द्वारा केवल 245 सांसदों को राज्यसभा मान लेना उनके अल्प ज्ञान का सूचक है। भारत की संघीय व्यवस्था में राज्यसभा देश के हर राज्य और उसकी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है। ऐसे में, इसे समाप्त करने की मांग उठाने वाले देश की संसद में राज्यों की अभिव्यक्ति को खत्म कर देना चाहते हैं। इस प्रकार की मांग अलोकतांत्रिक होने के साथ-साथ असांविधानिक भी है। जिन बीमारियों के आधार पर राज्यसभा के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न खड़े किए जा रहे हैं, उनसे तो देश का हर संस्थान ग्रसित है। बाकी सदनों में तो हालत और भी खराब है। राज्यसभा में कुछ ही नाम सामने आए हैं, जिन्होंने इसकी गरिमा को ठेस पहुंचाई है।

लेकिन उन दलों का क्या, जो टिकट ही पैसे लेकर देते हैं? कई बार तो उनकी सरकार भी बनती है। तो क्या लोकसभा और विधानसभा समेत ऐसी सभी संस्थाओं को भंग करके देश में संसदीय प्रणाली को ही खत्म कर देना चाहिए? या फिर समस्या का निदान निकालने की तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए? आर्थिक और सामाजिक विधेयकों को, जिनका कि समाज व देश की उन्नति में दूरगामी असर पड़ सकता है, सिर्फ राजनीतिक विरोध के कारण बाधित करना उचित नहीं है। लेकिन जिसे बदलने की जरूरत है, वह तंत्र नहीं, बल्कि पक्षपातपूर्ण व परस्पर टकराव की राजनीति है।

विगत दिनों हुए राज्यसभा सीटों के चुनाव में विधायकों के क्रय-विक्रय, क्रॉस वोटिंग और वोट को खराब करने जैसी अनियमितताएं उजागर हुई हैं। इससे यह साफ हुआ है कि अवैध पूंजी और काले धन के इस्तेमाल से राजनीति की नैतिक पूंजी का तेजी से क्षरण हो रहा है। यह एक गंभीर विषय है, इस पर विस्तृत चर्चा होनी चाहिए। राजनीति को साफ करने के लिए सुधार के प्रयास तेज किए जाने चाहिए। इसके विपरीत देखने में आ रहा है कि राजनीतिक मौकापरस्ती की वजह से हर दिन किसी-न-किसी बहाने से राज्यसभा के औचित्य पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं। राज्यसभा की कार्य-प्रणाली पर बहस होनी चाहिए, बदलते राजनीतिक परिवेश में इसकी बदलती भूमिका पर भी चर्चा होनी चाहिए। लेकिन जो लोग इसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं, क्या वे लोग किसी तरह की रचनात्मक बहस करने को तैयार हैं? या फिर इसी तरह की वाक्पटुता चलती रहेगी? चुनाव सुधार राजनीतिक दलों व चुनाव आयोग के बीच का विषय है। लेकिन इसके नाम से किसी संस्था को कैसे कठघरे में खड़ा किया जा सकता है? कुछ लोगों की गलतियों के लिए पूरी संस्था जिम्मेदार नहीं हो सकती।

हमारी संसद की पूर्णता दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) से है और किसी एक के साथ छेड़छाड़ करने का विचार रखना भी वास्तव में संविधान की आत्मा से खिलवाड़ होगा। संविधान की आत्मा को अक्षुण्ण रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट को संविधान से कई विशेषाधिकार प्राप्त हैं। उसी प्रकार, देश के संघीय ढांचे की आत्मा को बनाए रखने की जिम्मेदारी संविधान निर्माताओं ने राज्यसभा को सौंपी है, जिसे उसने अभी तक बखूबी निभाया है और उम्मीद यही है कि आगे भी वह इसका ईमानदारी से निर्वाह करती रहेगी।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)
http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-meaningless-debate-on-rajya-sabha-existence-541904.html





~विजय राजबली माथुर ©
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Friday, June 24, 2016

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर कीमत पर बचाने की जरूरत है ------ वीरेंद्र यादव

Virendra Yadav
मैसूर के दलित लेखक और पत्रकारिता के प्रोफ़ेसर बी.पी महेश चंद्र्गुरु को धार्मिक भावनाओं केआहत होने का आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया है. इस बीच एक खबर यह भी है कि लखनऊ के केन्द्रीय आंबेडकर विश्वविद्यालय में यह आदेश दिए गए हैं कि विश्वविद्यालय में आयोजित किये जाने वाले सेमिनारों और अन्य आयोजनों में ऐसे विद्वानों ,वक्ताओं और प्रतिभागियों को न आमंत्रित किया जाये जिनके विचारों व अभिव्यक्तियों से किसी कीधार्मिक या जातीय भावनाओं के आहत होने कीआशंका हो. ज्ञातव्य है कि विगत १४ अप्रैल को इस विश्वविद्यालय में दलित और हाशिये के समाज पर हस्तक्षेपकारी लेखन केलिए विख्यात प्रो. कांचा इलय्या द्वारा मांसाहार और हिंदुत्व के मुद्दे पर भाषण के दौरान और उसके बाद एबीवीपी तत्वों द्वारा कांचा इल्लय्या के विरुद्ध अभियान छेड़ा गया था. यह आदेश उसी का दुष्परिणाम है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगातार बढ़ता जा रहा है. इसे हर कीमत पर बचाने की जरूरत है.

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1152239334826764&set=a.165446513506056.56359.100001221268157&type=3

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 लेकिन 1986 से ही अपनी भाकपा - सपा -भाकपा में सक्रियता के आधार पर कुछ निष्कर्षों पर पहुंचा हूँ और समय -समय पर उनको अभिव्यक्त भी करता रहा हूँ। अपनी तमाम राजनीतिक ईमानदारी के बावजूद हम लोग अपनी प्रचलित प्रचार -शैली के चलते उस जनता को जिसके लिए जी - जान से संघर्ष करते हैं प्रभावित करने में विफल रहते हैं। हम लोगों के प्रति लोगों का नज़रिया संकुचित व कुछ हद तक कुत्सित भी रहता है। उदाहरणार्थ  : 





सांप्रदायिकता वस्तुतः साम्राज्यवाद की सहोदरी है। साम्राज्यवाद ने हमारे देश की जनता को भ्रमित करने हेतु 1857 की क्रांति की विफलता के बाद जो नीतियाँ अपनाईं वे ही सांप्रदायिकता का हेतु हैं। जाने या अनजाने हम लोग साम्राज्यवादियो की व्याख्या को ही ले कर चलते हैं जिसके चलते जनता हम लोगों को अधार्मिक मान कर चलती है और इसमें प्रबुद्ध साम्यवादी/ वाम पंथियों का प्रबल योगदान है जो 'एथीस्ट ' कहलाने में गर्व का अनुभव करते हैं। शहीद भगत सिंह और महर्षि कार्ल मार्क्स को हम लोग गलत संदर्भ के साथ उद्धृत करते है जिसका नतीजा सांप्रदायिक शक्तियों ने भर पूर उठाया है। व्यक्तिगत आधार पर अपने लेखों के माध्यम से स्थिति स्पष्ट करने की कोशिशों को अपने ही वरिष्ठों द्वारा किए तिरस्कार का सामना करना पड़ा है। ब्राह्मण वादी मानसिकता के कामरेड्स जान बूझ कर प्रचलित शैली से प्रचार करना चाहते हैं जिससे आगे भी सांप्रदायिक शक्तियाँ लाभ उठाती रहें। इस संदर्भ में एक कामरेड के इस सुझाव को भी नज़र अंदाज़ करना अपने लिए घातक है। 



जो वरिष्ठ  लोग यह कहते हों कि, ओ बी सी और एस सी कामरेड्स से सिर्फ काम लिया जाये और उनको कोई पद न दिया जाये वस्तुतः फासिस्टों का ही अप्रत्यक्ष सहयोग कर रहे हैं और वे ही लोग उत्तर प्रदेश में हावी हैं। ऐसी परिस्थितियों में   सारे संघर्ष पर पानी फिर जाता है। पहले अपने मोर्चे पर भी WAY OF PRESENTATION को बदलना होगा । थोड़ी सी  ही तबदीली करके हम जनता के बीच से फासिस्टों का आधार ही समाप्त करने में कामयाब हो जाएँगे। किन्तु इसके लिए पहले ब्राह्मण वादी कामरेड्स को काबू करना होगा। 

( विजय राजबली माथुर )

~विजय राजबली माथुर ©
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Monday, June 20, 2016

विजय माथुर द्वारा ‘क्रांति स्वर‘ के माध्यम से अनाधिकार चेष्टा ...................................

 ..................................."विजय माथुर जी ने ‘क्रांति स्वर‘ के माध्यम से अपनी विचारधारा को पेश करने की एक अनाधिकार चेष्टर की है। वर्तमान काल में यह देखने में आ रहा है कि जो आदमी धर्म के बुनियादी सिद्धांतों तक से कोरा है और जिसके आचरण में धर्म कम और पश्चिमी कल्चर ज़्यादा है , वह भी नए नए मत खड़े करने की कोशिश कर रहा है। यही वजह है कि विजय माथुर जी सत्य को न पा सके।
दयानंद जी देवी भागवत पुराण सहित सभी पुराणों के विरूद्ध थे। इन्हें वे नदी में डुबोने की प्रेरणा देते थे और मानते थे कि इनमें ईश्वर और ऋषियों की निंदा भरी हुई है। एक ओर तो विजय माथुर दयानंद जी के सिद्धांतों को स्वीकार करते हैं और दूसरी ओर वे पुराणों से प्रमाण देते हैं जिन्हें नदी में डुबाने के बाद ही दयानंद जी को उनके गुरू बिरजानंद जी ने अपने शिष्यत्व में स्वीकार किया था। यह एक खुला विरोधाभास है।
विजय माथुर जी की कोशिश तो यह रही होगी कि रामायण के अनेक प्रसंगों पर उठने वाली आपत्तियों का निराकरण कर दिया जाए और यह प्रयास वाक़ई स्वागतयोग्य है । इसका तरीक़ा यह है कि जो भी प्रसंग श्रीरामचंद्र जी या सीता माता के प्रति लांछन लगाने वाला सिद्ध हो, उसे एक क्षेपक मानकर रामायण का अंश न माना जाए, बस। हरेक आपत्ति का निराकरण हो जाएगा। मैं ऐसे ही करता हूं और इसीलिए मुझे श्रीरामचंद्र जी, उनके पूर्वजों या उनके वंशजों के प्रति कोई भी अश्रृद्धा पैदा नहीं होती।
जो व्यक्ति मेरे मार्ग से हटकर चलेगा, वह पुरानी चली आ रही आपत्तियों का निराकरण तो कर नहीं पाएगा बल्कि नई और खड़ी कर देगा, जैसे कि विजय माथुर जी ने कर डाली हैं और कह दिया है कि
‘साम्राज्यवादी रावण क़े अवसान क़े बाद राम अयोध्‍या क़े शासक क़े रूप में नहीं विश्वपति क़े रूप में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते थे।"
http://www.ghrelunuskhe.tk/2011/04/don-be-confused.html

ये उद्गार हैं एक ब्राह्मण विद्वान के जो खुद को स्वामी दयानन्द का सच्चा अनुयाई बता रहे हैं। लेकिन एक और ब्राह्मण विद्वान तथा उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक डॉ सुधाकर अदीब साहब का इस पर कथन है :


एक पत्रकार बंधु कहते हैं :


सबसे पहले यह लेख  Wednesday, June 30, 2010 को 

"रावण वध एक पूर्वनिर्धारित योजना"  शीर्षक से इसी ब्लाग में  दिया था जो दो किश्तों मे 1982 में 'सप्तदिवा', आगरा में प्रकाशित हो चुका था। जिसे इस लिंक पर देखा जा सकता है ---
http://krantiswar.blogspot.in/2010/06/blog-post_30.html

 मैंने कहीं भी इसे अपना मौलिक लेख नहीं बताया है और न ही किसी विचारधारा का वाहक फिर भी पोंगापंथी ब्राह्मण विद्वान नामोल्लेख के साथ व्यक्तिगत प्रहार करते हैं। 
इस लेख की भाषा-शैली, वाक्य - विन्यास मेरे हैं लेकिन विषय -वस्तु संत श्यामजी पाराशर की पुस्तक 'रामायण का ऐतिहासिक महत्व '  तथा डॉक्टर  रघुवीर शरण मित्र के खण्ड काव्य  'भूमिजा'से ली गई है। उनके तर्कों की पुष्टि के लिए वैज्ञानिक प्रमाण मैंने संकलित किए हैं। 
वस्तुतः आर्यसमाज में जो रियूमर स्पीच्युटिंग सोसाइटी के लोग घुसपैठ कर गए हैं उनका कार्य ही पोंगा-पंथ का संरक्षण व झूठ का प्रचार करना है। जैसा कि, अपने ब्लाग के माध्यम से उन ढ़ोंगी ब्राह्मण विद्वान द्वारा किया गया है। ऐसे लोग जनता को जागरूक करने वाले हर प्रयास का विरोध व निंदा करके गफलत फैलाते हैं जिससे शोषकों की लूट को नैतिक व वैध ठहराया जा सके। ऐसे लोगों को मोदीईस्ट /कार्पोरेटी ब्राह्मण कामरेड्स का भी परोक्ष समर्थन रहता है। 

 ~विजय राजबली माथुर ©
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Friday, June 3, 2016

वेद,वैदिक संस्कृति,डॉ रोमिला थापर : भ्रम और निवारण ------ विजय राजबली माथुर/ध्रुव गुप्त

वेद और आर्य शब्दों की साम्राज्यवादी व्याख्या ने भ्रम की स्थिति उत्पन्न की है जिसका पूरा-पूरा लाभ उसकी सहोदरी सांप्रदायिकता ने उठाया है। हालांकि डॉ हरबंस मुखिया ने जे एन यू की राष्ट्रवाद की क्लास में स्पष्ट किया कि, अब अंग्रेजों ने अपने यहाँ इतिहास संशोधित कर लिया है परंतु भारत में अभी भी सांप्रदायिक आधार पर ही इतिहास चल रहा है जिसका लाभ सांप्रदायिक शक्तियों ने भरपूर उठाया है। अतः भ्रम का  शीघ्रातिशीघ्र निवारण होना उचित है ।
http://krantiswar.blogspot.in/2012/11/sampradayikta-dharam-nirpexeta.html
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जे एन यू में डॉ रोमिला थापर एवं डॉ हरबंस मुखिया 



प्रसिद्ध इतिहासकार और चिंतक रोमिला थापर से रणबीर चक्रवर्ती की इतिहास, समाज और संस्कृति पर बातचीत. साक्षात्कारकर्ता प्रो. रणबीर चक्रवर्ती सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज़, जे एन यू में प्राचीन इतिहास के शिक्षक हैं। प्रस्तुत साक्षात्कार, अंग्रेज़ी पाक्षिक फ्रंटलाइन में प्रकाशित, रोमिला थापर के लंबे साक्षात्कार “लिंकिंग द पास्ट एंड द प्रेजेंट” का कुछ संपादित रूप है और यहां इसका पहला आधा हिस्सा प्रकाशित किया जा रहा है। अनुवाद: शुभनीत कौशिक। 
1 ) उदाहरण के लिए, जब हम छात्र थे तो हमें यह बताया जाता था कि ऋग्वेद की भाषा इंडो-आर्यन भाषा ही है। पर आज यदि आप ऐसा वक्तव्य दें, तो वैदिक काल में विशेषज्ञता रखने वाले कुछ विद्वान इस कथन से जरूर अपनी असहमति जताएंगे क्योंकि भाषा-विज्ञान के सिद्धांतों के प्रयोग ने यह दर्शाया है कि ऋग्वेद में द्रविड़ भाषाओं के भी अंश सम्मिलित हैं। इन जानकारियों से इतिहासकार के प्रत्यक्षीकरण और स्रोतों के प्रति उसके दृष्टिकोण में भी बदलाव आते हैं। अब ऋग्वेद के संदर्भ में ही यह जानकारी इतिहासकार को ऐसे ऐतिहासिक संदर्भ के अध्ययन के लिए प्रेरित करती है, जो एकल संस्कृति का न होकर सह-अस्तित्व में विद्यमान उन संस्कृतियों का है, जिनमें एक का प्रभुत्त्व है। तो इतिहासकार को इन अन्य संस्कृतियों के बारे में भी जानकारी जुटानी होगी और उनका अध्ययन करना होगा। इतिहासकार को नदियों के जल तंत्र के अध्ययन (हाइड्रोलॉजी) और आनुवंशिकी के अध्ययन और रिपोर्टों से मिलने वाली जानकारियों का समावेश भी अपने अध्ययन में करना होगा। 

2 ) 
प्राचीन भारत पर काम करने वाले विद्वानों का मानना है कि आर्य भाषा मध्य एशिया से ईरान होते हुए भारत पहुँची। पर अब भारत में कुछ लोगों द्वारा इस दृष्टिकोण का प्रचार किया जा रहा है कि आर्यभाषा भाषी भारत के स्थानीय निवासी ही थे। कुछ तो हड़प्पा सभ्यता के निवासियों को भी आर्य साबित करते हुए यह सुझाना चाहते हैं कि भारतीय सभ्यता की उत्पत्ति में कोई गैर-आर्य तत्त्व था ही नहीं! यह ऐसा तर्क है जो मुझे विभिन्न कारणों से कतई स्वीकार नहीं। भाषाई और पुरातात्विक आधार पर भी यह किसी तरह से संभव नहीं जान पड़ता। हम कहते हैं कि ऋग्वैदिक संस्कृति उत्तर-हड़प्पाकालीन थी, तो जाहिर है कि इसका मतलब हुआ कि इसमें इसकी पूर्वतर संस्कृति परिलक्षित नहीं होगी। हड़प्पा संस्कृति का संपर्क ओमान और मेसोपोटामिया से था, जिनका जिक्र ऋग्वेद में नहीं मिलता।

3 )  
हाँ, ऋग्वेद में इस रूप में महापाषाणकालीन (मेगालिथिक) संस्कृति का जिक्र नहीं है। पर इस टेक्स्ट में अन्य समूहों की चर्चा जरूर की गयी है, जैसे असुर, दास, दस्यु आदि। ऋग्वेद दो वर्णों की चर्चा करता है – आर्य और दास। ‘दास’ कौन थे? उनके बारे में ऋग्वेद में जो विवरण मिलता है वह यह है कि वे उन कर्मकांडों और रीति-रिवाजों को मानने वाले थे, जो आर्यों से भिन्न थे। ‘दास’ अलग देवताओं की उपासना करते थे, और वे वैदिक ग्रंथों के लेखकों की भाषा से भिन्न भाषाएँ बोलते थे। वे समृद्ध थे, मवेशियों के रूप में उनकी संपत्ति ईर्ष्या का विषय थी और वे अलग बसावटों में रहते थे। इसलिए कुछ विद्वान यह भी सोचते हैं कि वे अलग संस्कृति के थे। इतिहासकार के रूप में हमें यह सवाल करना होगा कि ‘दास कौन थे’ और उनका मिथकीकरण क्यों किया गया?

इसी तरह ‘दासी-पुत्र ब्राह्मणों’ का भी उल्लेख मिलता है। जिन्हें पहले तो अस्वीकार्य माना गया, पर बाद में जब इन लोगों ने अपनी शक्ति दिखाई तो उन्हें ब्राह्मण के रूप में स्वीकार कर लिया गया। ‘दासी-पुत्र ब्राह्मण’ स्वयं में ही एक विरोधाभाषी शब्द है क्योंकि ‘दासी-पुत्र’ (यानि एक दासी से उत्पन्न हुआ पुत्र) होना और ब्राह्मण की हैसियत दोनों में विरोध भाव है। वैदिक ग्रंथों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि देवों और असुरों में अक्सर संघर्ष होते रहते थे। यह एक स्तर पर मिथक है, पर यह मिथक भी तत्कालीन समाज की अवधारणाओं से बिलकुल अलग नहीं है। इतिहासकारों के मत में, वैदिक ग्रंथों में उत्तर-हड़प्पा काल से लेकर ईसापूर्व पाँचवी सदी के ऐतिहासिक नगरों के रूप में नगरीय संस्कृति के उदय तक का उल्लेख मिलता है। ऐसी स्थिति में क्या यह कहना संभव है कि ये वैदिक ग्रंथ संस्कृति के एक पैटर्न के उद्विकास के परिचायक भर हैं!

4 ) एक प्रचलित तर्क यह भी है कि आर्य मूल रूप से भारत के ही निवासी थे और भारत से ही वे दुनिया के अन्य हिस्सों में गए और यूरोप में भी सभ्यता लेकर आर्य ही गए। इस सिद्धांत की खोज की गयी 19वीं सदी में, पर यह आज भी उतना ही लोकप्रिय है। सबसे पहले अमेरिका के थिओसोफिस्ट, कर्नल हेनरी एस ओलकाट ने इसे प्रतिपादित किया और यह सिद्धांत थिओसोफिस्टों ने अपना लिया। यद्यपि थिओसोफिस्ट कुछ समय के लिए आर्य समाज के निकट थे, पर स्वयं आर्य समाज के संस्थापक दयानन्द सरस्वती का मानना था कि आर्य तिब्बत से आए थे। 

ये वे सिद्धांत हैं जो भारत के प्राचीनतम अतीत से जुड़े ऐतिहासिक विवादों से गहरे जुड़े हुए हैं। इनकी शुरुआत 19वीं सदी में हुई। हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि यह वही समय था जब ‘नस्ल विज्ञान’ के अधीन यूरोपीय सर्वोच्चता पर, आर्य उत्पत्ति को आधार बनाकर चर्चा की जा रही थी। इनमें से कुछ सिद्धांत, बीसवीं सदी के यूरोप में ‘आर्यवाद’ को विनाशकारी दिशा की ओर ले गए। अतिरेक राष्ट्रवाद और अस्मिता की राजनीति के साथ ऐतिहासिक सिद्धांतों की जुगलबंदी के भयानक नतीजे हो सकते हैं, इसलिए यह ज़रूरी है इन सिद्धांतों पर चर्चा की जाए। 

स्त्रोत :
http://hashiya.blogspot.in/2015/11/blog-post_24.html
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भ्रम निवारण : 
Dhruv Gupt
 02-06-2016  

क्या वैदिक ऋषि सचमुच गोमांस खाते थे ? :

फेसबुक पर और अन्यत्र भी कई मित्रों ने वैदिक साहित्य का हवाला देते हुए बार-बार यह साबित करने की कोशिश की है कि वैदिक ऋषि और उस कालखंड के लोग गोमांस का भक्षण किया करते थे। इस विषय पर मेरे भी मन में भी कुछ उलझनें थीं। कहीं भी अपने प्रश्न का संतोषजनक उत्तर नहीं पाकर अंततः मैंने देश के कुछ गिने-चुने वेद मर्मज्ञों में एक 'मातृसदन', कनखल, हरिद्वार के संस्थापक अध्यक्ष स्वामी शिवानंद जी के सामने अपनी जिज्ञासा रखी। उन्होंने बताया कि ज्ञान जब अधकचरा हो तो वेद की ऋचाओं और उपनिषद के मंत्रों के शाब्दिक अर्थ लेकर लोग ऐसी ही स्थापनाएं निकालते हैं। वेद और उपनिषद मूलतः यौगिक साहित्य हैं जिनमें योग की गूढ़ और रहस्यमय क्रियाओं को लौकिक शब्दों और उपमाओं के माध्यम से समझाने के प्रयास किए गए हैं। यह गुरू और शिष्यों के बीच का हजारों वर्षों तक श्रुति परंपरा में चला संवाद है जिसे योग विद्या में प्रवेश करने वाले जिज्ञासु ही समझ सकते हैं। आमलोग जब इन ऋचाओं और मन्त्रों के शाब्दिक अर्थ लगाएंगे तो अर्थ का अनर्थ तो होगा ही। उन्होंने वृहदकारण्य उपनिषद से यह उद्धरण सुनाकर मेरी तमाम जिज्ञासाओं का शमन कर दिया। 

वाचं धेनुमुपासीत तस्याश्चतवारहः स्तनाः स्वाहाकारो वषट्कारो हंतकारहः स्वधाकारस्तस्यै द्वौ स्तनौ देवा उपजीवन्ति स्वाहाकारं च वषट्कारं च हंतकारं मनुष्याः स्वधाकारं पितरस्तस्याः प्राण ऋषभो मनो वत्सः। (छा. उ. 5/8/1) 

अर्थात वाक् ही धेनु या गाय है। उस धेनु का प्राण वृषभ है और बछड़ा उसका मन। उसके चार स्तन हैं-स्वाहाकार, वषट्कार, हन्तकार और स्वाधाकार। उसके दो स्तनों- स्वाहाकार और वषट्कार उपजीवी देवगण हैं जो उनका उपभोग करते हैं। हन्तकार का उपभोग मनुष्य करते हैं और स्वाधाकार का पितृगण। यह एक रूपक है जिसके द्वारा यौगिक क्रिया प्राणोपासना की व्याख्या की गई है। ऐसे कई मंत्रों और ऋचाओं के सतही अर्थ लगाने वाले लोगों ने यह भ्रांति फैलाई है कि वैदिक ऋषि और आमजन गोमांस का भक्षण करते थे।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1062190717190859&set=a.379477305462207.89966.100001998223696&type=3&permPage=1
********************************************************जी हाँ इसी प्रकार 5 वर्ष से अधिक पुराना वह 'जौ ' जिसे बोने से उगे नहीं को 'अश्व ' कहा जाता था और उसकी हवन में आहुतियाँ दी जाती थीं। पोंगा पंडितों ने अश्व का अर्थ 'घोडा ' लगा कर घोड़े की आहुती देने की बेसुरी तान छेड़ दी । वैदिक संस्कृत को साहित्यिक रूप में न लेकर बीज गणित के सूत्रों की भांति लेंगे तभी सही समाधान पर पहुंचेंगे। लेकिन क्या पोंगा-पंथी और एथीस्ट सच को स्वीकार करेंगे?

****** आर्य न कोई जाति थी न है  : ******
Vijai RajBali Mathur
May 29, 2012 · 
आर्य न कोई जाति थी न है। आर्य=आर्ष=श्रेष्ठ। अर्थात श्रेष्ठ कार्यों को करने वाले सभी व्यक्ति आर्य हैं। 'कृंणवनतों विश्वार्यम' के अनुसार सम्पूर्ण विश्व को आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनाना है। लेन पूल,कर्नल टाड आदि-आदि विदेशी और आर सी मजूमदार सरीखे भारतीय इतिहासकारों ने साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ती हेतु आर्यों को एक जाति के रूप मे निरूपित करके बेकार का झगड़ा खड़ा किया है।
अब से लगभग 10 लाख वर्ष पूर्व जब मानव-सृष्टि इस पृथ्वी पर हुई तो विश्व मे तीन स्थानों-
1-मध्य यूरोप,
2- मध्य अफ्रीका ,
3-मध्य एशिया –मे एक साथ ‘युवा स्त्री और युवा पुरुषों’के जोड़े सृजित हुये। भौगोलिक स्थिति की भिन्नता से तीनों के रूप-रंग ,कद-काठी मे भिन्नता हुई। इन लोगों के माध्यम से जन-संख्या वृद्धि होती रही। जहां-जहां प्रकृति ने राह दी वहाँ-वहाँ सभ्यता और संस्कृति का विकास होता गया और जहां प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीं-वहीं रुक गया। 
मध्य एशिया के ‘त्रिवृष्टि’जो अब तिब्बत कहलाता है उत्पन्न मानव तीव्र विकास कर सके जबकि दूसरी जगहों के मानव पिछड़ गए। आबादी बढ्ने पर त्रिवृष्टि के लोग दक्षिण के निर्जन प्रदेश आर्यावृत्त मे आकर बसने लगे।जब ‘जंबू द्वीप’उत्तर की ओर ‘आर्यावृत्त’ से जुड़ गया तो यह आबादी उधर भी फ़ेल गई। चूंकि आबादी का यह विस्तार निर्जन प्रदेशों की ओर था अतः किसी को उजाड़ने,परास्त करने का प्रश्न ही न था। साम्राज्यवादियों ने फूट परस्ती की नीतियों के तहत आर्य को जाति बता कर व्यर्थ का बखेड़ा खड़ा किया है। त्रिवृष्टि से आर्यावृत्त आए इन श्रेष्ठ लोगों अर्थात आर्यों ने सम्पूर्ण विश्व को ज्ञान-विज्ञान से परिचित कराने का बीड़ा उठाया। इस क्रम मे जिन विद्वानों ने पश्चिम से प्रस्थान किया उनका पहला पड़ाव जहाँ स्थापित हुआ उसे ‘आर्यनगर’ कहा गया जो बाद मे एर्यान और फिर ईरान कहलाया। ईरान के अंतिम शासक तक ने खुद को आर्य मेहर रज़ा पहलवी कहा। आगे बढ़ कर ये आर्य मध्य एशिया होकर यूरोप पहुंचे। यूरोपीयो ने खुद को मूल आर्य घोषित करके भारत पर आक्रमण की झूठी कहाने गढ़ दी जो आज भी यहाँ जातीय वैमनस्य का कारण है। 
‘तक्षक’ और ‘मय’ऋषियों के नेतृत्व मे पूर्व दिशा से विद्वान वर्तमान साईबेरिया के ब्लादिवोस्तक होते हुये उत्तरी अमेरिका महाद्वीप के अलास्का (जो केनाडा के उत्तर मे यू एस ए के कब्जे वाला क्षेत्र है)से दक्षिण की ओर बढ़े। ‘तक्षक’ ऋषि ने जहां पड़ाव डाला वह आज भी उनके नाम पर ही ‘टेक्सास’ कहलाता है जहां जान एफ केनेडी को गोली मारी गई थी। ‘मय’ ऋषि दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप के जिस स्थान पर रुके वह आज भी उनके नाम पर ‘मेक्सिको’ कहलाता है। 
दक्षिण दिशा से जाने वाले ऋषियों का नेतृत्व ‘पुलत्स्य’ मुनि ने किया था जो वर्तमान आस्ट्रेलिया पहुंचे थे। उनके पुत्र ‘विश्रवा’मुनि महत्वाकांक्षी थे। वह वर्तमान श्रीलंका पहुंचे और शासक ‘सोमाली’ को आस्ट्रेलिया के पास के द्वीप भेज दिया जो आज भी उसी के नाम पर ‘सोमाली लैंड’कहलाता है। विश्रवा के बाद उनके तीन पुत्रों मे सत्ता संघर्ष हुआ और बीच के रावण ने बड़े कुबेर को भगा कर और छोटे विभीषण को मिला कर राज्य हसगात कर लिया। वह साम्राज्यवादी था। उसने साईबेरिया के शासक (जहां 06 माह का दिन और 06 माह की रात होती है अर्थात उत्तरी ध्रुव प्रदेश)’कुंभकर्ण’तथा पाताल-वर्तमान यू एस ए के शासक ‘एरावन’ को मिला कर भारत –भू के आर्यों को चारों ओर से घेर लिया और खुद अपने गुट को ‘रक्षस’=रक्षा करने वाले (उसका दावा था कि यह गुट आर्य सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करने वाला है)कहा जो बाद मे अपभ्रंश होकर ‘राक्षस’कहलाया। 
राम-रावण संघर्ष आर्यों और आर्यों के मध्य राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद का संघर्ष था जिसे विदेशी इतिहासकारों और उनके भारतीय चाटुकारों ने आर्य-द्रविड़ संघर्ष बता कर भारत और श्रीलंका मे आज तक जातीय तनाव /संघर्ष फैला रखा है। 
जब अब आपने यह विषय उठाया है तो विदेशियों के कुतर्क और विकृति को ठुकराने का यही सही वक्त हो सकता है। जनता के बीच इस विभ्रम को दूर किया जाना चाहिए कि ‘आर्य’ कोई जाति थी या है। विश्व का कोई भी व्यक्ति जो श्रेष्ठ कर्म करे आर्य था और अब भी होगा।

https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/364918650236784

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Thursday, June 2, 2016

विश्वास खोने के अनुभव के साथ ब्लाग का 7वें वर्ष में प्रवेश ------ विजय राजबली माथुर

 
पुष्पा अनिल जी से साभार 

वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी जी की यह पोस्ट गंभीर चिंतन की अपेक्षा करती है। 
इसमें मैं इतना और जोड़ना चाहता हूँ कि, पढे-लिखे और विद्वान होने के बावजूद ट्विटर,फेसबुक व ब्लाग्स लेखक अपने में कुछ घोर स्वार्थी एवं दुष्ट लोगों को भी समेटे हुये हैं। एक-दो उदाहरण देना चाहूँगा। 
1- एक उल्टी टोपी वाले साहब खुद को जोशी जी का मित्र कहते हैं और अपने घर पर उनको बासी खाना तक खिलाने का दावा भी करते हैं। मुझसे फेसबुक पर जुड़े थे तब खुद अपनी व अपनी बेटी की जन्म पत्रियों का निशुल्क विश्लेषण प्राप्त कर ले गए थे। फिर बजाए एहसान मानने के मेरे विरुद्ध अभियान चलाने वाले मिश्रा गैंग के गुण गान करने लगे उनको अंफ्रेंड करना पड़ा। 
2- खुद अपनी व अपने दो पुत्रों की जन्म पत्रियों का निशुल्क विश्लेषण प्राप्त करने वाले एक और एफ बी फ्रेंड से जब कुछ उनके व्यवसाय से संबन्धित सलाह मांगी तो उनके द्वारा मौन साध लिया गया है। 
3- एक बुजुर्ग साहब ने खुद अपनी व अपनी एक बेटी की जन्म पत्रियों का निशुल्क विश्लेषण प्राप्त करने के बाद मिश्रा गैंग के प्रभाव में ही मेरे विरुद्ध षडयंत्रों में खुद को शामिल किया तो उनको अंफ्रेंड कर दिया था। 
परंतु बेशर्म इतने हैं कि कार्यक्रमों में मिलने पर लिभड़- लिभड़ करने लगते थे सफाई देते हुये फिर से फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी; उनकी बुज़ुर्गीयत और सफ़ेद बालों को देखते हुये पुन: एफ बी फ्रेंड बना दिया तो फिर से पुरानी रंगत पर ही नहीं आ गए बल्कि मुझे परेशान करने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं। अंफ्रेंड करके उनका सामाजिक बहिष्कार करना ही अब विकल्प शेष है। 

एक-दो लोग भले भी हैं किन्तु प्रतिशत नगण्य है।

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1093189710743004&set=a.154096721318979.33270.100001559562380&type=3



https://www.facebook.com/pramod.joshi/posts/10208150162863434



आज से छह वर्ष पूर्व आज की ही तारीख 02 जून 2010 को इस ब्लाग का प्रारम्भ इस पोस्ट के साथ किया था। आज से यह ब्लाग 7वें वर्ष मे प्रवेश कर गया है।
'आठ और साठ घर में नहीं '

http://krantiswar.blogspot.in/2010/06/blog-post.html


तब से अब तक कुल 457 पोस्ट्स प्रकाशित हो चुकी हैं ।  कुल 132216 बार ब्लाग अवलोकन हो चुका है। 

'क्रांतिस्वर' ब्लाग के अतिरिक्त कुल छह और ब्लाग्स भी चल रहे हैं। 

प्रारम्भ में जिन तीन फेसबुक फ्रेंड्स का ज़िक्र है वैसा ही कुछ ब्लागर्स का भी व्यवहार रहा है कि पहले तो मुझसे निशुल्क जन्म पत्रियों के विश्लेषण प्राप्त कर लिए फिर मेरे ही विरुद्ध षडयंत्रों में लग गए। इसलिए अबसे किसी भी फेसबुक फ्रेंड अथवा ब्लागर साथी का भला न करने का निश्चय किया है। सातवें वर्ष में इस ब्लाग के प्रवेश के साथ यह निर्णय लेना कटु अनुभवों की देन ही है। 

 ~विजय राजबली माथुर ©
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