Monday, April 25, 2016

‘यह फिल्म देखकर आने वाली पीढ़ियां कहेंगी- हमारे राजनेता कितने छिछोरे हैं!’ ------ कमल स्वरूप

  


कमल स्वरूप 




‘यह फिल्म देखकर आने वाली पीढ़ियां कहेंगी- हमारे राजनेता कितने छिछोरे हैं!’

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दिनेश श्रीनेत/अमर उजाला, दिल्ली

Updated 13:09 शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

http://www.amarujala.com/entertainment/bollywood/battle-of-banaras-2014

भारतीय सिनेमा में अपने किस्म के अनूठे फिल्मकार कमल स्वरूप ने लोकसभा चुनाव के दौरान बनारस जाकर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाई- ‘बैटल ऑफ बनारस’। उनके शब्दों में वे ‘भारतीय जीवन में चुनाव की उत्सवधर्मिता’ और ‘भीड़ के मनोविज्ञान’ का फिल्मांकन करना चाहते थे। मगर उनकी फिल्म सेंसर बोर्ड को आपत्तिजनक लगी और इसे मंजूरी देने इनकार कर दिया गया। वे ट्रिब्यूनल के पास गए उन्होंने भी मंजूरी नहीं दी।

अब फिल्म के निर्माता इसे लेकर हाईकोर्ट जा रहे हैं। ट्रिब्यूनल का तर्क था कि यह डॉक्यूमेंट्री नेताओं के भड़काऊ संवादों से भरी हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यह फिल्म पीएम मोदी के खिलाफ जाती है इसलिए इसे प्रतिबंधित किया जा रहा है। हमने कमल स्वरूप से इस पर एक लंबी बात की और जानना चाहा कि आखिर फिल्म में ऐसा क्या है जिससे इतने विवाद खड़े हो गए। प्रस्तुत है कमल स्वरूप से दिनेश श्रीनेत की बातचीत।

सेंसर बोर्ड- ने किस आधार पर इस फिल्म को सर्टिफिकेट देने से मना किया?
बस सीधे-सीधे यह कहकर रिजेक्ट हो गई कि यह फिल्म सेंसर बोर्ड के लायक नहीं है। जब दिल्ली में ट्रिब्यूनल के पास पहुंचे तो उन्होंने भी यही बोला कि सेंसर बोर्ड का फैसला सही है। इसमें जाति और संप्रदाय के खिलाफ भड़काऊ स्पीच है। जबकि फिल्म में कोई कमेंट्री नहीं है। हमने सिर्फ स्पीच को रिकार्ड किया है। ये वही भाषण हैं जो मोदी, केदरीवाल, सपा नेता और इंडिपेंडेंट कैंडीडेट बोल रहे थे। भाषण भी आम थे। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वे ज्यादा से ज्यादा क्या बोलेंगे? कभी किसी को अंबानी का प्यादा कहा जाएगा तो कभी कांग्रेस के भ्रष्टाचार की चर्चा होगी।


तो आपके मुताबिक ऐसी क्या वजह है कि फिल्म पर रोक लगाने की कोशिश हो रही है?
मैं बताता हूं कि यह फिल्म लोगों को क्यों इतनी भड़काऊ लग रही है! दरअसल इसमें दिखने वाले सारे लोग अब बड़े लोग हो गए हैं। टीवी पर चीजें आती हैं और चली जाती हैं मगर यहां यह एक भारी डाक्यूमेंट बन जाता है। हमारी आने वाली पीढ़ी जब इन्हें देखेगी तो बोलेगी- ये छिछोरे लोग हैं।


आपको यह डाक्यूमेंट्री बनाने का ख्याल कैसे आया? 
मैंने तो इसलिए शुरु किया था कि मुझे भीड़ के व्यवहार और उसे डाक्यूमेंट करने में काफी दिलचस्पी है। बनारस एक बहुत अच्छा बैकड्राप था। एक ड्रामा था कि कैसे इलेक्शन के दौरान राजनीतिक पार्टियां एक शहर को जीतने की कोशिश करती हैं। नोबेल विजेता एलियस कैनेटी की किताब ‘क्राउड्स एंड पाउडर’ मुझे बहुत पसंद है- इसमें भीड़ के प्रकार, संगठन की बनावट, प्राचीन समाज आदान-प्रदान और त्योहार की चर्चा है। कुल मिलाकर यह एक एंथ्रोपॉलोजिकल किताब है। मुझे लगा कि अपनी डाक्यूमेट्री के लिए मुझे उस किताब को ही अपना आधार बनाना चाहिए। मेरा लेंस वही किताब थी। बाकी मेरा राजनीतिक दिलचस्प खास नहीं थी।

जब आप इस फिल्म की शूटिंग कर रहे थे तो राजनीतिक दलों की क्या प्रतिक्रिया थी?

बीजेपी वालों से मेरा ज्यादा कांटेक्ट नहीं बन पाया। उनकी गुप्त मीटिंग को शूट करने में मेरी दिलचस्पी नहीं थी। संघ के भवन में उनका बहुत बड़ा सा कार्यालय था। वहां गुजरात के टॉप आइटी प्रोफेशनल्स भी बैठते थे। वे शक की निगाह से हमें देखते थे। वे देखते थे कि हम तो हर राजनीतिक पार्टी के साथ बैठते थे। धीरे धीरे हुआ यह कि हर राजनीतक पार्टी हमें शक की निगाह से देखने लगी।

आपको बनारस में शूटिंग के दौरान भी कोई दिक्कत आई?
कम्युनिकेशन की दिक्कत तो बहुत थी। जब रैली निकलती है तो मोबाइल जाम हो जाते हैं। तंग गलियां हैं तो गाड़ियों मे ट्रैवेल नहीं कर सकते। हमे भागकर या मोटरसाइकिल से एक से दूसरी जगह जाना होता था। एक साथ पांच-पांच पार्टियों का प्रोग्राम की शीट बनानी होती थी। मुझे बहुत मजा आया। हम रात को उनके प्रोग्राम देख लेते थे। फिर तय करते थे कि अगले दिन कौन कहां जाकर शूट करेगा। मैं रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ फिल्म में असिस्टेंट था और क्राउड हैंडल करता था, तो वो दिन ताजा हो गए।

अगर भारत में फिल्म पर प्रतिबंध लग गया तो इसका भविष्य क्या होगा?
हमारे प्रोड्यूसर लंदन के रहने वाले भारतीय हैं। वे कोशिश में लगे हैं। वैसे ये फेस्टिवल में जा रही है। फ्रांस में दिखाई जाएगी मगर न्यूयार्क में नहीं जा पाएगी। वहां के फेस्टिवल इंडियन एनआरआई चलाते हैं। वे पंगा नहीं लेना चाहते। मामी फेस्टिवल वाले भी डर गए थे कि कहीं कोई पंगा हो न जाए। जो पंगा नहीं लेना चाहते वे घबराएंगे। नेट-फ्लिक्स भी घबराएगा। वह इसे एंटी बीजेपी मानता है तो भय होगा कि कहीं उसका लाइसेंस न रद हो जाए। बाहर जब हम विदेशों में दिखाएंगे तो बहुत से लोग इंडियन पॉलीटिक्स को समझ नहीं पाएंगे। हमारी पालिटिक्स बड़ी काम्प्लेक्स है। चुनाव एक महोत्सव की तरह है। स्टेज सजते हैं। रैलियां निकलती हैं। लोग नारे लगाते हैं। यह बिल्कुल रामलीला की तरह है। हमें इसमें मजा आता है। इस फिल्म में बनारस बहुत ही भव्य लगा है। इतनी सारी पब्लिक जिंदगी में देखी नहीं है।

इस प्रतिबंध को आप कितना जायज मानते हैं, या दूसरे शब्दों में मैं पूछूं कि सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आप क्या कहना चाहेंगे?

देखिए, हम कोर्ट में जा रहे हैं! हमारा प्रोड्यूसर जा रहा है। वहां वकील आते हैं। आपको मौका दिया जाता है अपनी बात रखने का। ट्रिब्लयून में प्रोड्यूसर को अपना पक्ष रखने का मौका ही नहीं दिया जाता। यहां तो सेंसर वाले आंख बंदकर फिल्म देखते हैं। जरा सा शक होगा तो बोलेंगे रहने दो। मेरा मानना है कि वे कट सजेस्ट कर सकते हैं पर पूरी पिक्चर बैन करने का कोई मतलब नहीं होता है। मेरी फिल्म ओम दर-ब-दर को एक साल तक सेंसर सर्टीफिकेट नहीं दिया। बोलते थे पिक्चर समझ मे नहीं आ रही है। वे खोजते रहते कि उसमें दिखाई बातों का मतलब क्या हो सकता। उस समय कांग्रेस की सरकार थी। फिर एऩएफडीसी ने इस फिल्म को दबाकर रखा। सेंसर में ये लोग डांटते थे जैसे कि जजमेंट कर रहे हों। वे ज्ञान देने लगते हैं। वहां के बाबू तक हमें डांटते थे।



~विजय राजबली माथुर ©
 इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

Monday, April 4, 2016

नेता की कथनी और करनी एक जैसी होनी चाहिए ------ अनुराधा बेनीवाल



ये सवाल सब सरकारों से है। इस से या उससे नहीं। सब कुर्सी वालो से हैं।
सवाल ही सवाल हैं और जवाब में हमे सिर्फ सुनाई देता है, "भारत माता की जय!" किसानों की बात करो तो "फौजियों की जय!" फौजियों की बात करो तो, "किसानों की जय!"

इस कोरी जय से क्या मिलेगा! कैसे बोलदे जय! जब है ही नहीं जय! 

Anuradha Saroj
 03-04-2016  at 1:29pm · 
पूरा स्पीच। 
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अगर सद्भावना सवालों को हवन-कुंड में जलाती है, तो सद्भावना नहीं कवर-अप है, ढोंग है!
हमारे प्रदेश में हिंसा हुई है, दंगे हुए है। let us accept that first. नुकसान हुआ है। कितना कम-ज्यादा इसका आंकलन लोग करते रहेंगे। लेकिन let us accept के नुकसान हुआ है। नुकसान करने बाहर से लोग नहीं आये थे। मराठी आके, बांग्लादेशी आके, मंगल ग्रह से आके किसी ने नहीं हमारी दुकानें फूंकी, हमारे स्कूल नहीं जलाये! हमी थे नुकसान करने वाले, और हमी हैं नुकसान सहने वाले।
Let us also know that के कोई हिंसा यूँही नहीं बस भड़क जाती। इसके लिए बारूद लगता है। जिसपे हम हमेशा बैठे रहते हैं, बस एक चिंगारी की जरुरत होती है। यूँही कोई किसी की दुकान जलाने नहीं निकल पड़ता। यूँही कोई स्कूल नहीं फूँक देता। राह खड़ी गाड़ियां नहीं जला देता। यूँही कोई अमानव नहीं हो जाता। इसके पीछे की पृष्ठभूमि समझने की जरुरत है। हमे खुद से, समाज से, सरकार से सवाल करने की जरुरत है। इस बारूद को खत्म करने की जरुरत है।
कैसे हम इतनी नफरत से भर जाते हैं? के पड़ोसी-पड़ोसी का दुश्मन हो जाता है। एक सेकंड के लिए जात को भूल जाएँ, तो सोचें हमने अपने दोस्तों, पड़ोसियों, भाइयों, यारों के घर जलाए हैं। दुकानें जलाई हैं। हमने अपना ही नुकसान किया है। कहाँ पल रही है ये नफरत? कौन पाल रहा है इस नफरत को? इस नफरत को पाल के किसे फायदा है? ये सवाल आज हमें उस हवन/यज्ञ में पूछने हैं। संस्कृत में ना समझ में आने वाले मन्त्र नहीं रटने, सीधे-साफ़ सवाल हमें करने हैं।
और हमे सही सवाल करने हैं।
सवाल ये नहीं होना चाहिए, के इसे नौकरी क्यों मिली मुझे क्यों नहीं? सवाल अब ये होना चाहिए के हम दोनों को नौकरी क्यों नहीं मिल रही? हमारे घर में सब के पास नौकरियां क्यों ना हों? सबके पास काम क्यों ना हो? सब इज़्ज़त की रोटी क्यों ना खा सकें? सब के पास बेसिक साधन क्यों ना हों? सवाल मिल के करने हैं। एक जाती को नहीं हर जाती को करने हैं! हम सब साथ मिलके सवाल करेंगे तो जवाब देना पड़ेगा! ये जरुरी सवाल हैं, मुश्किल सवाल हैं। लेकिन साथ में पूछेंगे तो जवाब देना पड़ेगा। हमारी आवाज कोई दबा नहीं पाएगा। न्यारे होके पूछेंगे, एक-दूसरे से लड़ झगड़ के पूछेंगे को हमारे सवालों को दबाना आसान होगा। और वो यही चाहते हैं के हमारे जरुरी सवाल दबते रहें, हम आपस में लड़ते-भिड़ते रहें। और वो अपनी रोटियां सकते रहें।
सवाल नंबर एक - दंगे क्यों भड़के? क्या कारन था? प्रशाषन इस बात का जवाब दे। किसी राज्य में जब इस सत्र पे दंगे होते हैं, जान माल का नुकसान होता है, तब सरकारी प्रशाषन जिम्मेदार होता है। हमेशा! वो अपना पल्ला किसी जाती विशेष को ब्लेम कर के नहीं झाड़ सकता। (इस तरह तो रोज दंगे होंगे, और हम देखते रह जाएंगे) प्रशाषन के पास पुलिस फोर्से होती है, बैरिकेड होते हैं, वाटर केनन, टियर गैस, माइक्रो-फ़ोन, सैकड़ों प्रबंध होते हैं। इस स्केल पर दंगा कैसे फैला? क्या फैलवाया गया? दंगे में फायदा किसका था?
पहले सवाल से दूसरा सवाल निकलता है।
सवाल नंबर दो - प्रशाषन ने क्या किया दंगे रोकने के लिए? क्या आर्मी बुलाना आखरी उपाय था? पॉइंट ब्लेंक पे जवान मौतें हुई। क्या इसे रोका नहीं जा सकता था? Where were our leaders? So called leaders of the masses. Those who were voted by the people, for the people. Why were they not among the people?
सब नेता कहाँ थे, जब आग लगने लगी? जब लोग घरों से निकल कर बर्बादी करने निकल पड़े? किसी सांसद, किसी विधायक, किसी सरपंच जी ने उन रोका क्या? आखिर समाज अपने बीच नेता क्यों चुनता है? सही राह दिखाने के लिए, या गलत राह पे मोड़ने के लिए? असल मौके पर समझदारी देने के लिए या अपने घरों में दुबक कर तमाशा देखने के लिए? सिर्फ नफरत की गन्दी आग को भड़काने वाले नेताओं के अलावा सब कहाँ गए थे? और जिन्होंने नेगेटिव रोल प्ले किया, और जिन्होंने कोई रोल ही नहीं प्ले किया, उनके ऊपर आगे कैसी कारवाही होगी?
सवाल नंबर तीन - अब अहम सवाल। बारूद को पैदा करने वाले कारणों पे सवाल।
कॉलेजों में स्कूलों में टीचर्स नहीं हैं, लेकिन वेकन्सी भी नहीं हैं! लोग बाहर NET पास कर के बेरोजगार फिर रहे हैं, और बच्चे बिना टीचर के परेशांन हैं। ये कॉन्ट्रैक्ट-टीचर का क्या स्कैम है? पक्की नौकरियां क्यों नहीं मिल रही?
सवाल नंबर चार - प्राइवेट सेक्टर और सरकारी सेक्टर की नौकरीयों में दिन रात का अंतर क्यों है? एक पीएन की, चपड़ासी की सरकारी नौकरी पाने के लिए लोग लाइन लगा के खड़े हैं, प्राइवेट सेक्टर में कोई स्कूल में टीचर नहीं लगना चाहता! ये क्या माजरा है? 
मैं लंदन में रहती हूँ तो देखती हूँ के सरकारी नौकरी पाने की कोई होड़ नहीं है, बल्कि ऐसे ऐसे लोग बहुत है जो सरकारी नौकरी छोड़ के प्राइवेट सेक्टर में टीचर लगते हैं। क्यूंकि वहां प्राइवेट और सरकारी दोनों में तन्खा सेम है, बेनिफिट सेम हैं।
हमारे गांव में प्राइवेट स्कूल में टीचर की पे तीन हज़ार है! तीन हज़ार रुपए महीना! फॉर एन एम इन इंग्लिश! इस ईट ए जोक!! स्कूल खोल खोल के लोगों ने कोठी बना ली, निरी पूंजी जोड़ ली, लेकिन वहां काम करने वाले अपने गुजारे तक के पैसे नहीं कमा रहा! यही हाल प्राइवेट फैक्ट्रीज, मॉल, कम्पनीयों का है। एम्प्लोयी को तीन से आठ हज़ार रुपए पे और कंपनी ओनर्स बन गए लखपती! इस घोर पूंजीवाद पे हमे सवाल करने हैं!
सवाल में कई सवाल हैं। हमारी प्राइवेट सेक्टर में मिनिमम बेसिक वेज क्या है? क्या उसपे कोई रेगुलेशन है? प्राइवेट और सरकारी का अंतर कम क्यों नहीं होना चाहिए?
सवाल नंबर पांच - हर साल वोट बैंक की राजनीति करके हम किसी जात को कुछ तो किसी जात को कुछ और लालच देते हैं। कभी कुछ गिफ्ट देते हैं, तो कभी कुछ साधन देते हैं। क्या ये गिफ्ट्स उनको सच में ऊपर उठाने के लिए दिए जाते हैं या सिर्फ अंधी राजनीति है? गरीब आदमी हर जात में है। गरीब जिसके पास रिजर्वेशन नहीं है, वो ये देख के कुढ़ता है। नफरत पनपती है। बारूद बनती है। क्या जात-पात को खत्म करने के लिए कुछ किया जा रहा है या सिर्फ इसे बचाए रखना है क्यूंकि इलेक्शन हर पांच साल में होता है और बिना जात-पात के फिक्स्ड वोट कहाँ?
सवाल नंबर छः - हर जात में गरीब हैं। किसान पिछड़ी जाती ना होते हुए भी सुसाइड कर रहे हैं। इनके options क्या हैं? इनके लिए क्या opportunities हैं?
सवाल नंबर सात: हमारी पढाई, कॉलेजेस का इतना धुम्मा क्यों उठ्या हुआ है? इतनी फ़र्ज़ी क्यों पढाई हो गयी के MA/MBA करे जवान चपड़ासी की एप्लीकेशन भरते हांडे सै? घूम फिर के बात आती है फिर सवाल तीन पे। टीचर्स क्यों नहीं हैं?
ये सवाल सब सरकारों से है। इस से या उससे नहीं। सब कुर्सी वालो से हैं।
सवाल ही सवाल हैं और जवाब में हमे सिर्फ सुनाई देता है, "भारत माता की जय!" किसानों की बात करो तो "फौजियों की जय!" फौजियों की बात करो तो, "किसानों की जय!"
इस कोरी जय से क्या मिलेगा! कैसे बोलदे जय! जब है ही नहीं जय! ना वीरू है, ना ही है जय, रह गयी है खाली माँ!
जो नेता जनता को सही दिशा में बढ़ने की बुद्धि ना दे, वह नेता नहीं है। बाकी चाहे जो कुछ हो! नेता की कथनी और करनी एक जैसी होनी चाहिए। बोलतु संत नहीं, असल का संत चाहिए। लेकिन इनको जब हम वोट देते हैं, इनकी सरपरस्ती कबूल करते हैं, तब हम क्या इस बारे में सोचते हैं? नहीं सोचते हैं! तब हम जात देखते हैं! धर्म देखते हैं! और तब हमारे आदरणीय साधू संत, जो अब हवन कराएँगे, ये लोग तब सही मनुष्य को चुनने का ज्ञान नहीं देते। बल्कि ऐसे भी संत हैं कुछ जो जब वोट दिलवाने निकलते हैं तब कुछ और बोलते हैं, चुनाव जीता कर कुछ और बोलते हैं। संतो को तो कम से कम नेताओं की भाषा नहीं बोलनी चाहिए! उनको तो मानवता की, समाज के हित की बात सिर्फ करनी चाहिए।
जब आग लगायी जा रही थी, तब कौन हमारे साधु संत घर या दुकान के आगे लेट गए, की पहले मुझे जलाओ, अपनी मनुष्यता को जलाओ, तब दुकान या स्कूल जलाना? कौनसे बाबा जी, माता जी, पानी लेकर दौड़े थे आग बुझाने? मैं अभी उन संत लोगो के पाँव छू लूँ, कोई जरा नाम बताओ!
ये बोलते तो कैसे कोई ना रुकता! हम तो बड़े धार्मिक लोग हैं!
अब हवन-यज्ञ से क्या अचीव होगा? लकड़ी जलेगी, जो पहले ही काफी कम है। लेकिन शान्ति आती हो तो पूरा जंगल जला दूँ! लेकिन क्या छत्तीस, छप्पन जातिओं या सभी बिरादरी धर्म के भाई बहनो के मन में जो एक दूसरे के लिए नफरत है, ईर्ष्या है, दुर्विचार हैं, क्रोध है, द्वेष है, ये सब क्या उस हवन में स्वः हो जायेगा? या उसके लिए कुछ और करना होगा? ये सोचने की बात है?
जाते जाते आखरी सवाल खुद से, अपने लोगो से। ये नेता, साधू-संत, तो लेरे हैं सुवाद, इनका नहीं बिगड़ता किम्मे! पर क्या हमे नहीं दिखता के तोड़-फोड़, लूट-पाट, आग लगाने में तो किसे का फायदा नहीं सै! सरकार तै तो मिलके सवाल करेंगे ही, अपने आप से भी करेंगे। इक्कठे चलने में फायदा है, या अकेले में? हम कब मजबूत होंगे? कब हमारे सवालों को जवाब मिलेंगे?
तब जब हम सिर्फ अपनी नहीं अपने पडोसी की नौकरी के लिए भी आवाज़ उठाएंगे। जब वो हमारे लिए आवाज उठाएगा। तो यही है सद्भावना। यही है अपील। यही है हवन और यही है कुंड। जात-पात की आहुति देके, कट्ठे रहन का समय आया है। दुनिया मंगल पे बसन नै होरी है, अर हम रिजर्वेशन की लाइन में लाग रे हाँ! आज हाम लाग रे हाँ, काल कोई और लठ ठावेगा। आज या नफरत, लड़ाई, बैर की बळी देनी है! जब्बे गुजारा है, जब्बे विकास है, जब्बे हरियाणा है, जब्बे दूध दही का खाना है!

जय माता की!

साभार : 

https://www.facebook.com/anuradha.beniwal/posts/10156718251635285





   ~विजय राजबली माथुर ©
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