Monday, November 6, 2017

स्त्री सत्तात्मक से पुरुष सत्तात्मक समाज का विकास कैसे हुआ ? ------ विजय राजबली माथुर




आजकल विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं, फेसबुक, ब्लाग वगैरह पर कुछ महिला और कुछ पुरुष लेखकों द्वारा भी समाज के पितृ  सत्तात्मक होने व महिलाओं के दोयम दर्जे की बातें बहुतायत से देखने - पढ़ने को मिल जाती हैं। लेकिन ऐसा हुआ क्यों ? और कैसे ? इस पर कोई चर्चा नहीं मिलती है। अतः यहाँ इसी का विश्लेषण किया जा रहा है जो कि,  समाजशास्त्रीय विधि पर आधारित है । समाजशास्त्रीय विश्लेषण अनुमान विधि को अपनाता है क्योंकि प्राचीन काल के कोई भी प्रमाण आज उपलब्ध नहीं हैं। इस पद्धति में जिस प्रकार 'धुआँ देख कर आग लगने '  का अनुमान   और ' किसी गर्भिणी को देख कर संभोग होने ' का अनुमान किया जाता है  जो कि, पूर्णतया सही निकलते हैं उसी प्रकार प्राप्त संकेतों के अनुसार समाज के विकास - क्रम का अनुमान किया जाता है ।  
"अपने विकास के प्रारंभिक चरण में मानव समूहबद्ध अथवा झुंडों में ही रहता था.इस समय मनुष्य प्रायः नग्न ही रहता था,भूख लगने पर कच्चे फल फूल या पशुओं का कच्चा मांस खा कर ही जीवन निर्वाह करता था.कोई किसी की संपति (asset) न थी,समूहों का नेत्रत्व मातृसत्तात्मक  (mother oriented) था.इस अवस्था को सतयुग पूर्व पाषाण काल (stone age) तथा आदिम साम्यवाद का युग भी कहा जाता है.परिवार के सम्बन्ध में यह ‘अरस्तु’ के अनुसार ‘communism of wives’ का काल था (संभवतः इसीलिए मातृ सत्तामक समूह रहे हों).इस समय मानव को प्रकृति से कठोर संघर्ष करना पड़ता था.मानव के ह्रास –विकास की कहानी सतत संघर्षों को कहानी है......................................... महाभारत काल के बाद समाज में स्थिति बिगड़ने लगी और पौराणिक काल में ब्राह्मणों का प्रभुत्व बढ्ने के साथ - साथ नारियों की स्थिति निम्न से निम्नतर होती गई किन्तु आज स्त्रियाँ संघर्ष के जरिये  समाज में अपना खोया सम्मान प्राप्त करने में सफल हो रही हैं और विवेकवान पुरुष भी इस बात का समर्थन करने लगे हैं। आदिम अवस्था तो वापिस नहीं लौट पाएगी किन्तु केकेयी व सीता के युग को तो पुनः स्थापित किया ही जा सकता है।  "

पृथ्वी की उत्पति और जीवन - विकास : 
आज से दो अरब वर्ष पूर्व हमारी पृथ्वी और सूर्य एक थे.एस्त्रोनोमिक युग में सर्पिल,निहारिका,एवं नक्षत्रों का सूर्य से पृथक विकास हुआ.इस विकास से सूर्य के ऊपर उनका आकर्षण बल आने लगा .नक्षत्र और सूर्य अपने अपने कक्षों में रहते थे तथा ग्रह एवं नक्षत्र    सूर्य की परिक्रमा किया करते थे.एक बार पुछल तारा अपने कक्ष से सरक गया और सूर्य के आकर्षण बल से उससे टकरा गया,परिणामतः सूर्य के और दो टुकड़े चंद्रमा और पृथ्वी उससे अलग हो गए और सूर्य  की परिक्रमा करने लगे.यह सब हुआ कास्मिक युग में.ऐजोइक युग में वाह्य सतह पिघली अवस्था में,पृथ्वी का ठोस और गोला रूप विकसित होने लगा,किन्तु उसकी बाहरी सतह अर्ध ठोस थी.अब भारी वायु –मंडल बना अतः पृथ्वी की आंच –ताप कम हुई और राख जम गयी.जिससे पृथ्वी के पपडे  का निर्माण हुआ.महासमुद्रों व महाद्वीपों  की तलहटी का निर्माण तथा पर्वतों का विकास हुआ,ज्वालामुखी के विस्फोट हुए और उससे ओक्सिजन निकल कर वायुमंडल में HYDROGEN से प्रतिकृत हुई जिससे करोड़ों वर्षों तक पर्वतीय चट्टानों पर वर्षा हुई तथा जल का उदभव हुआ;जल समुद्रों व झीलों के गड्ढों में भर गया.उस समय दक्षिण भारत एक द्वीप  था तथा अरब सागर –मालाबार तट तक विस्तृत समुद्र उत्तरी भारत को ढके हुए था;लंका एक पृथक द्वीप था.किन्तु जब नागराज हिमालय पर्वत की सृष्टि हुई तब इयोजोइक युग में वर्षा के वेग के कारण  उससे ऊपर मिटटी पिघली बर्फ के साथ समुद्र तल  में एकत्र हुई और उसे पीछे हट जाना पड़ा तथा उत्तरी भारत का विकास हुआ.इसी युग में अब से लगभग तीस करोड़ वर्ष पूर्व एक कोशीय  वनस्पतियों व बीस करोड़ वर्ष पूर्व एक कोशीय  का उदभव हुआ.एक कोशिकाएं ही भ्रूण विकास के साथ समय प्रत्येक जंतु विकास की सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं.सबसे प्राचीन चट्टानों में जीवाश्म नहीं पाए जाते,अस्तु उस समय लार्वा थे,जीवोत्पत्ति नहीं हुई थी.उसके बाद वाली चट्टानों में (लगभग बीस करोड़ वर्ष पूर्व)प्रत्जीवों (protojoa) के अवशेष मिलते हैं अथार्त सर्व प्रथम जंतु ये ही हैं.जंतु आकस्मिक ढंग से कूद कर(ईश्वरीय प्रेरणा के कारण ) बड़े जंतु नहीं हो गए,बल्कि सरलतम रूपों का प्रादुर्भाव हुआ है जिन के मध्य हजारों माध्यमिक तिरोहित कड़ियाँ हैं.मछलियों से उभय जीवी (AMFIBIAN) उभय जीवी से सर्पक (reptile) तथा सर्पकों से पक्षी (birds) और स्तनधारी (mamals) धीरे-धीरे विकास कर सके हैं.तब कहीं जा कर सैकोजोइक युग में मानव उत्पत्ति हुई। 
(यह उपरोक्त गणना आधुनिक विज्ञान क़े आधार पर है,परतु  वस्तुतः अब से दस लाख वर्ष पूर्व मानव की उत्पत्ति तिब्बत ,मध्य एशिया और अफ्रीका में एक साथ युवा पुरुष - युवा महिला क़े रूप में हुई)। आधुनिक विज्ञान के दृष्टिकोण में   पहला अंडा या पहले मुर्गी  वाला विवाद  मनुष्यों के संबंध में भी अनसुलझा है। आर्य = आर्ष = श्रेष्ठ  गणना  के अनुसार पहले -पहल  युवा 'पुरुष ' और 'युवा स्त्री ' की सृष्टि की बात युक्तिसंगत है क्योंकि युवा नर - नारी ही प्रजनन करने में सक्षम हो सकते हैं। इसी प्रकार अन्य पशु , पक्षी आदि प्राण धारियों की भी पहले - पहल युवा रूप में ही सृष्टि हुई होगी। इन आदि युवाओं की ही सन्तानें हैं आज का यह संसार। 

अपने विकास के प्रारंभिक चरण में मानव समूहबद्ध अथवा झुंडों में ही रहता था.इस समय मनुष्य प्रायः नग्न ही रहता था,भूख लगने पर कच्चे फल फूल या पशुओं का कच्चा मांस खा कर ही जीवन निर्वाह करता था.कोई किसी की संपति (asset) न थी,समूहों का नेत्रत्व मातृसत्तात्मक  (mother oriented) था. संतति की पहचान  सिर्फ माता से होती थी । किस संतान का पिता कौन है इस तथ्य को केवल माता ही जानती थी। उस समय जनसंख्या वृद्धि ही लक्ष्य था अतः स्त्री इस प्रजनन संबंध में ही पूर्ण स्वतंत्र न थी बल्कि परिवार व समाज पर भी स्त्रियॉं ही का नियंत्रण था।  इस अवस्था को सतयुग पूर्व पाषाण काल (stone age) तथा आदिम साम्यवाद का युग भी कहा जाता है.परिवार के सम्बन्ध में यह ‘अरस्तु’ के अनुसार ‘communism of wives’ का काल था (संभवतः इसीलिए मातृ सत्तामक समूह रहे हों).इस समय मानव को प्रकृति से कठोर संघर्ष करना पड़ता था.मानव के ह्रास –विकास की कहानी सतत संघर्षों की  कहानी है.malthas - माल्थस  के अनुसार उत्पन्न संतानों में आहार ,आवास,तथा प्रजनन के अवसरों के लिए –‘जीवन के लिए संघर्ष’ हुआ करता है जिसमे प्रिंस डी लेमार्क के अनुसार ‘व्यवहार तथा अव्यवहार’ के सिद्दंतानुसार ‘योग्यता ही जीवित रहती है’.अथार्त जहाँ प्रकृति ने उसे राह दी वहीँ वह आगे बढ़ गया और जहाँ प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीँ रुक गया.कालांतर में तेज बुद्धि मनुष्य ने पत्थर और काष्ठ के उपकरणों तथा शस्त्रों का अविष्कार किया तथा जीवन पद्धति को और सरल बना लिया.इसे ‘उत्तर पाषाण काल’ की संज्ञा दी गयी.पत्थरों के घर्षण से अग्नि का अविष्कार हुआ और मांस को भून कर खाया जाने लगा. शिकार की तलाश और जल की उपलब्धता के आधार पर इन समूहों को परिभ्रमण करना होता था जिस क्रम में एक स्थान या जलाशय पर नियंत्रण हेतु इन समूहों में परस्पर संघर्ष होने लगे। अपनी शारीरिक संरचना के कारण संघर्ष - युद्धों में स्त्री- नारी - महिला कमजोर पड़ने लगी और बलिष्ठ होने के कारण पुरुषों का प्रभुत्व बढ्ने लगा। अब धीरे - धीरे परिवार व समाज में भी पुरुष वर्चस्व स्थापित होता गया और परिस्थितियों के चलते स्त्री ने भी इसे स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया। अब परिवार की पहचान स्त्री के बजाए पुरुष से होने के कारण संतान की पहचान भी माँ के बजाए पिता से होने लगी। इसी अवस्था से समाज पुरुष - प्रधान होता चला गया है। 
धीरे धीरे मनुष्य ने देखा की फल खा कर फेके गए बीज किस प्रकार अंकुरित होकर विशाल वृक्ष का आकार ग्रहण कर लेते हैं.एतदर्थ उपयोगी पशुओं को अपना दास बनाकर मनुष्य कृषि करने लगा. कृषि के आविष्कार के कारण स्थाई रूप से निवास भी करने लगा।उत्पादित फसलों के आदान - प्रदान से समाज का निर्वहन होने लगा।  
यहाँ विशेष स्मरणीय तथ्य यह है की जहाँ कृषि उपयोगी सुविधाओं का आभाव रहा वहां का जीवन पूर्ववत ही था यत्र - तत्र पाये जाने वाले आदिवासी समाज इसका उदाहरण हैं परंतु उनमें से भी अधिकांश आज पुरुष - प्रधान हो गए हैं।  इस दृष्टि से गंगा-यमुना का दोआबा विशेष लाभदायक रहा और यहाँ उच्च कोटि की सभ्यता का विकास हुआ जो आर्य सभ्यता कहलाती है और यह क्षेत्र आर्यावर्त.कालांतर में यह समूह  सभ्य,सुसंगठित व सुशिक्षित होता  गया . व्यापर कला-कौशल और दर्शन में भी ये सभ्य थे । इनकी सभ्यता और संस्कृति तथा नागरिक जीवन एक उच्च कोटि के आदर्श थे.भारतीय इतिहास में यह काल ‘त्रेता युग’ कें नाम से जाना जाता है और इस का समय ६५०० इ. पू.  आँका गया है(यह गणना आधुनिक गणकों की है,परन्तु अब से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व राम का काल आंका गया है तो त्रेता युग  भी उतना ही पुराना होगा) .आर्यजन काफी विद्वान थे.उन्होंने अपनी आर्य सभ्यता और संस्कृति का व्यापक प्रसार किया.इस प्रकार आर्य अर्थात  भारतीय सभ्यता संस्कृति गंगा-सरस्वती के तट से पश्चिम की और फैली. आर्यों ने सिन्धु नदी की घाटी में एक सुद्रढ़ एवं सुगठित सभ्यता का विकास किया.यही नहीं आर्य भूमि से स्वाहा और स्वधा के मन्त्र पूर्व की और भी फैले तथा आर्यों के संस्कृतिक प्रभाव से ही इसी समय नील और हवांग हो की घाटियों में भी समरूप सभ्यताओं का विकास हो सका.
भारत से आर्यों की एक शाखा पूर्व में कोहिमा के मार्ग से चीन,जापान होते हुए अलास्का के रास्ते  राकी पर्वत श्रेणियों में पहुच कर पाताल लोक(वर्तमान अमेरिका महाद्वीपों ) में अपनी संस्कृति एवं साम्राज्य बनाने में समर्थ हुई.मय ऋषि के नेत्रतव में मयक्षिको (मेक्सिको) तथा तक्षक ऋषि के नेत्रत्व में तकसास  (टेक्सास) के आर्य उपनिवेश विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं कालांतर में कोलंबस द्वारा नयी दुनिया की खोज के बाद इन के वंशजों को red indians  - रेड इंडियंस कहकर निर्ममता से नष्ट किया गया.

पश्चिम की ओर  हिन्दुकुश पर्वतमाला को पार कर आर्य जाति  आर्य नगर (ऐर्यान-ईरान) में प्रविष्ट हुई.कालांतर में यहाँ के प्रवासी आर्य,अ-सुर (सुरा न पीने के कारण) कहलाये.दुर्गम मार्ग की कठिनाइयों के कारण  इनका अपनी मातृ भूमि  आर्यावर्त से संचार –संपर्क टूट सा गया,यही हाल धुर-पश्चिम -जर्मनी आदि में गए प्रवासी आर्यों का हुआ.एतदर्थ प्रभुसत्ता को लेकर निकटवर्ती  प्रवासी-अ-सुर आर्यों से गंगा-सिन्धु के मूल आर्यों का दीर्घकालीन भीषण देवासुर संग्राम हुआ.हिन्दुकुश से सिन्धु तक भारतीय आर्यों का  नेतृत्व  एक कुशल सेनानी इंद्र कर रहा था.यह विद्युत्  शास्त्र का प्रकांड विद्वान और हाईड्रोजन  बम का अविष्कारक था.इसके पास बर्फीली गैसें थीं.इसने युद्ध में सिन्धु-क्षेत्र  में असुरों को परास्त  किया,नदियों के बांध तोड़ दिए,निरीह गाँव में आग लगा दी और समस्त प्रदेश को पुरंदर (लूट) लिया.यद्यपि इस युद्ध में अंतिम विजय मूल भारतीय आर्यों की ही हुई और सभी प्रवासी(अ-सुर) आर्य  परांग्मुख हुए.परन्तु सिन्धु घाटी के आर्यों को भी भीषण नुकसान हुआ।


आर्यों ने दक्षिण और सुदूर दक्षिण पूर्व की अनार्य जातियों में भी सांस्कृतिक  प्रसार किया.आस्ट्रेलिया (मूल द्रविड़ प्रदेश) में जाने वाले सांस्कृतिक  दल का नेतृत्व  पुलस्त्य मुनि कर रहे थे.उन्होंने आस्ट्रेलिया में एक राज्य की स्थापना की (आस्ट्रेलिया की मूल जाति  द्रविड़ उखड कर पश्चिम की और अग्रसर हुई तथा भारत के दक्षिणी -समुद्र तटीय निर्जन भाग पर बस गयी.समुद्र तटीय जाति  होने के कारण ये-निषाद जल मार्ग से व्यापार  करने लगे,पश्चिम के सिन्धी आर्यों से इनके घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध हो गए.) तथा लंका आदि द्वीपों से अच्छे व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए उनकी मृत्यु के पश्चात् राजा  बनने  पर उन के पुत्र विश्र्व मुनि की गिद्ध दृष्टि लंका के वैभव की ओर गयी.उसने लंका पर आक्रमण किया और राजा  सोमाली को हराकर भगा दिया(सोमाली भागकर आस्ट्रेलिया के निकट एक निर्जन  द्वीप पर बस गया जो  उसी के नाम पर सोमालिया कहलाता है.)इस साम्राज्यवादी लंकेश्वर के तीन पुत्र थे-कुबेर,रावण,और विभीषण -ये तीनों परस्पर सौतेले भाई थे.पिता की म्रत्यु के पश्चात् तीनों में गद्दी के लिए संघर्ष हुआ.अंत में रावण को सफलता मिली.(आर्यावर्त से परे दक्षिण के ये आर्य स्वयं को रक्षस - राक्षस अथार्त आर्यावर्त और आर्य संस्कृति की रक्षा करने वाले ,कहते थे;परन्तु रावण मूल आर्यों की भांति सुरा न पीकर मदिरा का सेवन करता था इसलिए  वह भी अ-सुर अथार्त सुरा  न पीने वाला कहलाया)। 

लंका के रावण ने  पाताल ( वर्तमान यू एस ए ) के ऐरावण और  साईबेरिया के कुंभकरण के साथ मिल कर सम्पूर्ण विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित करने के  बाद आर्यावृत को भी अपने आधिपत्य में लेना चाहा।किन्तु राष्ट्र वादी केकेयी कूटनीतिज्ञ सीता जैसी विदुषी नारियों की सूझ  - बूझ व सहयोग से राम ने रावण के साम्राज्य को ध्वस्त कर दिया था। तब तक समाज में नारियों का मान - सम्मान कायम था। महाभारत काल के बाद समाज में स्थिति बिगड़ने लगी और पौराणिक काल में ब्राह्मणों का प्रभुत्व बढ्ने के साथ - साथ नारियों की स्थिति निम्न से निम्नतर होती गई किन्तु आज स्त्रियाँ संघर्ष के जरिये  समाज में अपना खोया सम्मान प्राप्त करने में सफल हो रही हैं और विवेकवान पुरुष भी इस बात का समर्थन करने लगे हैं। आदिम अवस्था तो वापिस नहीं लौट पाएगी किन्तु केकेयी व सीता के युग को तो पुनः स्थापित किया ही जा सकता है।  









~विजय राजबली माथुर ©

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (07-11-2017) को
समस्यायें सुनाते भक्त दुखड़ा रोज गाते हैं-; 2781
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'