Monday, January 29, 2018

सती - प्रथा का महिमामंडन है ' पद्मावत ' ------ स्वरा भास्कर / संजय की 'लीला' ------ डॉ.विष्णु राजगढ़िया













  


डॉ.विष्णु राजगढ़िया

मैं शुरू से कह रहा हूं कि पद्मावत का पूरा विवाद संजय की 'लीला' है। किसी फिल्म की पूरी कहानी तो उसके कलाकारों को भी मालूम नहीं होती। तब शूटिंग की शुरुआत में ही किसने उसकी स्टोरी लीक की? शूटिंग शुरू होते ही तोड़फोड़ के खिलाफ प्राथमिकी तक नहीं दर्ज कराई। 

फिर फ़िल्म को सेंसर बोर्ड से पास कराने के दस्तावेज आधे-अधूरे जमा किये। फिर दस दिन के बाद फ़िल्म रिलीज होने की घोषणा कर दी। जबकि सेंसर सर्टिफिकेट में दो महीने लगते हैं। 

सेंसर बोर्ड को नियमानुसार संतुष्ट करने के बजाय कुछ विद्वानों को फ़िल्म दिखाकर उनसे हरी झंडी ली। इस तरह सेंसर बोर्ड को ठेंगा दिखाकर नया विवाद पैदा किया। जो लोग करणी सेना के नाम पर हंगामा कर रहे थे, उन्हें फ़िल्म दिखाने से मना कर दिया। जबकि उन्हें फ़िल्म दिखाई होती, तो मामला सुलझ जाता। 

सबको मालूम है कि आजकल टीवी खबरें और अखबारों के फ़िल्म पेज पर प्रायोजित यानी विज्ञापन नुमा खबरें आती हैं। ढंग से छानबीन हो तो हंगामा करने वालों और मीडिया पर इस विवाद को जिंदा रखने के पीछे संजय की 'लीला' साफ नजर आएगी।
ट्राइलओ *********/ फ़िल्म के ट्रेलर में हरे झंडे लहराते घुड़सवारों की फौज के रूप में आतताई आक्रमण के दृश्य भी इस फ़िल्म को एक खास ध्रुवीकरण की कोशिश भी दिख जाएगी। यह फ़िल्म एक तरफ मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नफरत बढ़ाती है, दूसरी ओर राजपूताना शान के झूठे गौरव के जरिये वर्तमान पीढ़ी को अतीतजीवी और अव्यावहारिक बनाती है। सिनेमाघरों में तोड़फोड़ करने वाली अराजक भीड़ पैदा करके फ़िल्म तो लाभ बटोर लेगी, लेकिन देश-समाज को गहरा नुकसान हुआ है।

फ़िल्म के एजेंडे को समझना बेहद आसान है। ऐसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देश को नरक की ओर ले जा रही है। मैंने शुरू में ही लिखा था कि नकली विरोध के जरिये जबरदस्त पब्लिसिटी के बाद फ़िल्म खूब लाभ कमाएगी।

दुखद है कि अभी कुछ मित्र यह फ़िल्म को देखने का आग्रह कर रहे हैं ताकि लोगों की 'गलतफहमी' दूर हो जाए। मुझे तो कोई गलतफहमी थी ही नहीं। मैं ऐसी फिल्म देखने के बजाय ऐसे प्रपंची फिल्मकारों को बददुआ देना ही पसंद करूंगा। असर जो हो।


(विष्णु राजगढ़िया पत्रकार होने के साथ आरटीआई कार्यकर्ता हैं और आजकल रांची में रहते हैं।)

साभार : http://janchowk.com/ART-CULTUR-SOCIETY/sanjay-leela-padmavat-film-censor-karni/1913



 189 वर्ष बाद ' पद्मावत ' के जरिये बड़ी कठिनाई से बंद हुई ' सती ' कुप्रथा को पुनः महिमामंडित करके देश को सैकड़ों वर्ष पीछे धकेलना केवल एक फ़िल्मकार का खेल नहीं है बल्कि यह एक सोची - समझी साजिश है जो सत्तारूढ़ दल और  उसके नियंता के द्वारा गढ़ी गई है।  ~विजय राजबली माथुर ©

Friday, January 26, 2018

पद्मावत की आड़ में गणतंत्र की पीठ पर हुड़दंगतंत्र की सवारी ------...जयराम शुक्ल

****** दुनिया के लोग हमारे गणतंत्र के समानांतर चल रहे हुड़दंगतंत्र का भी मजा ले रहे होंगे। दुश्मन देश इन तत्वों का शुक्रिया अदा करते हुए राहत की साँस ले रहे होंगे कि चलो अपना कुछ तो गोला-बारूद बचा।--------------यदि हम गणतंत्र की गरिमा, उसके आदर्श और उसकी अभिलाषा के सम्मान की रक्षा में असमर्थ हैं तो फिर राजपथ में और तमाम जगह-जगह छब्बीस जनवरी का कर्मकाण्ड किसको दिखाने के लिए हर साल रचाते हैं ? ******



Jayram Shukla
गणतंत्र की पीठ पर हुड़दंगतंत्र की सवारी  : 
साँच कहै ता...जयराम शुक्ल

गणतंत्र दिवस के उत्सव में शामिल होने के लिए आसियान के दस देशों के राष्ट्रप्रमुख हमारे अतिथि हैं। वे राजपथ पर देश के शौर्य और सांस्कृतिक विविधता की झाँकी देखेंगे।
हुड़दंगतंत्र का  मजा : 
इसी के समानांतर देश के विभिन्न हिस्सों में एक और दृश्यावली चल रही है। वाहन फूँके जा रहे हैं। आज भी कहीं न कहीं तिरंगी झंडियां लिए स्कूल के समारोह में जा रहे बच्चों की बसें तोड़ी और पंचर की जा रही होंगी, सड़कों पर जलते टायरों का काला गुबार छाया होगा। दूकानदार दुबके और राहगीर सहमे होंगे।

ये सभी के सभी दृश्य राजपथ की झाँकियों के समानांतर उसी टीवी और सोशल मीडिया पर चल रहा होगा। दुनिया के लोग हमारे गणतंत्र के समानांतर चल रहे हुड़दंगतंत्र का भी मजा ले रहे होंगे। दुश्मन देश इन तत्वों का शुक्रिया अदा करते हुए राहत की साँस ले रहे होंगे कि चलो अपना कुछ तो गोला-बारूद बचा।

पिछले तीन-चार दिनों से देश खासतौर पर उत्तर भारत में जो चल रहा है वह तकलीफ़देह है। सुप्रीमकोर्ट की लाज को प्रदेश की सरकारों ने हुड़दंगियों के हवाले कर रखा है। पहली बार ऐसा हो रहा है कि चौराहों के हुजूम के बीच सार्वजनिक तौरपर गोली चलाने और आगजनी करने के ऐलान किए जा रहे हैं। पुलिस और प्रशासन निसहाय है। ऐसा लगता है कि प्रदेश की सरकारों ने हुड़दंगियों के आगे सरेंडर कर रखा है।

विवाद की जड़ बनी फिल्म पद्मावत के प्रसारण की अनुमति सरकार की ही एक संवैधानिक संस्था ने दी है। सुप्रीमकोर्ट का आदेश है कि फिल्म का प्रसारण सुनिश्चित किया जाए। जिनको नहीं देखना है वे इसका बहिष्कार कर सकते हैं। जिन टाँकीजों को अपने परदे पर इस फिल्म को नहीं दिखाना है वे इसके लिए भी पूरी तरह स्वतंत्र हैं।

फिल्म की आलोचना समालोचना, निंदा, प्रशंसा सभी के लिए लोग स्वतंत्र हैं। सुप्रीमकोर्ट ने इसके लिए कोई बाध्यकारी आदेश नहीं जारी किया है कि लोग देखने जाएं ही या सिनेमाघरों में यह फिल्म लगे ही। सुप्रीमकोर्ट ने इतना कहा है कि यदि किसी संवैधानिक संस्था ने अनुमति दी है तो यह राजाग्या है इसका निर्बाध पालन हो। कोई इसे प्रसारित करता है बलपूर्वक इसे अवरोधित करना कानूनन जुर्म है। सरकारें कार्रवाई करें।

मैं फिल्म की अच्छाई या बुराई के पचड़े में फँसे बगैर सिर्फ इतना मानता हूँ की सरकार की संस्था फिल्म प्रमाणीकरण बोर्ड ने यदि फिल्म को प्रसारणीय बताते हुए अनुमति दी है तो फिल्म प्रसारणीय ही होगी। बोर्ड में हम लोगों से ज्यादा बुद्धि और विवेक रखने वाले सदस्य और अध्यक्ष हैं।

यह बोर्ड उसी सरकार के आधीन है जिसके प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और मुखिया श्री रामनाथ कोविद हैं,राष्ट्र के प्रति इनकी प्रतिबद्धता सामान्य नागरिकों से ज्यादा ही है। सुप्रीमकोर्ट ने प्रकारान्तर में इन्हीं की सरकार के आदेश की हिफाजत की व्यवस्था के निर्देश दिए हैं।

अब सवाल उठता है कि इन सब के बीच हुड़दंगिए क्यों चौराहों पर नंगानाच कर रहे हैं? इसके सहज दो ही कारण नजर आते हैं, पहला यह कि हुड़दंगियों को कानून और दंड का भय उसी तरह नहीं है जैसा कि गुजरात के आंदोलनकारी पाटीदारों को नहीं, रेल की पटरियां उखाड़ने वाले जाटों और सड़क के काफिले लूटने वाले गूजर आंदोलनकारियों को नहीं था।

ये समूह खुद को संविधान से ऊपर या संविधान को ही नहीं मानते। (नक्सली भी हमारा संविधान कहाँ मानते हैं) दूसरा यह कि सरकारों की ही ऐसी सह हो सकती है कि आप लोग कुछ भी करिए हम आँखें मूदे रहेंगे। दोनों ही स्थितियाँ हमारे गणतंत्र को रक्तरंजित करने वाली हैं। दुनिया के सामने ये स्थितियाँ हमारी कबीलाई चरित्र या यों कहें तालेबानी तेवर से परिचित कराती हैं।

आखिर यह क्यों? जवाब हर विवेकवान नागरिक के पास है। सरकारें राजनीतिक दलों की बनती हैं। उस तख्त-ए-ताऊस पर कब्जा करने के लिए वोट की जरूरत पड़ती है और ऐसे कबीलिआई समूहों को साधना अब वोटबैंक सुनिश्चित करना होता है।

निर्वाचित सरकारों को इसके लिए कास्ट-क्रीड-रेस के भेदभाव से ऊपर उठकर लोकमंगल के लिए ली गई शपथ को भूलना पड़े तो वह भी चलेगा। गणतंत्र इनसब भेदभावों से ऊपर ऐसी समदर्शी व्यवस्था है जिस पर चलने में दुनिया के अधिसंख्य राष्ट्र खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं।

क्या अपना गणतंत्र आज ऐसी स्थिति में है? ध्यान रखियेगा पैदा किए गए प्रेतों को जब शिकार नहीं मिलता तो वे पैदाकरने वाले का ही शिकार करने लगते हैं। आज नहीं चेते तो कल इसे भोगने के लिए तैयार रहिएगा।

मनुस्मृति के सातवें अध्याय में राज्य की व्यवस्था और राजा के कर्तव्यों का वृतांत है। इसमें एक श्लोक है जिसका भावार्थ है- 'यदि राजा दंडित करने योग्य व्यक्तियों के ऊपर दंड का प्रयोग नहीं करता है, तो बलशाली व्यक्ति दुर्बल लोगों को वैसे ही पकाएंगे जैसे शूल अथवा सींक की मदद से मछली पकाई जाती है'।
दंड का भय समाप्त होता जा रहा है :
बढ़ते हुए हुड़दंग और उपद्रवों का सिलसिला यह बताता है कि दंड का भय समाप्त होता जा रहा है इसलिए अब कोई कानून की परवाह नहीं करता। लेकिन यह अर्धसत्य है। सत्य यह है कि दंड समदर्शी नहीं है। उसमें आँखें उग आई हैं तथा वह भी अब चीन्ह-चीन्ह कर व्यवहार करना शुरू कर दिया है। कानून की व्याख्या वोटीय सुविधा के हिसाब से होने लगी है।

समारोहों में कास्ट-क्रीड और रेस से ऊपर उठकर लोकमंगल के लिए काम करने की जो संवैधानिक शपथें ली जाती हैं वे दिखावटी हैं। इसीलिये हमारे गणतंत्र की पीठपर बैठकर हुड़दंगतंत्र रावणी अट्टहास कर रहा है और हमारा लोकतंत्र प्रौढ़ होने के पहले ही क्षयरोग का शिकार होकर हाँफने लगा है।


यदि हम गणतंत्र की गरिमा, उसके आदर्श और उसकी अभिलाषा के सम्मान की रक्षा में असमर्थ हैं तो फिर राजपथ में और तमाम जगह-जगह छब्बीस जनवरी का कर्मकाण्ड किसको दिखाने के लिए हर साल रचाते हैं? सोचना होगा।
https://www.facebook.com/jayram.shukla/posts/1589798774468584

  



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फेसबुक कमेंट्स : 




~विजय राजबली माथुर ©

Wednesday, January 17, 2018

भारतवर्ष तो आर्य था हिन्दुत्व की राजनीति गुलामी का प्रतीक है ------ विजय राजबली माथुर

दुर्भाग्य से आज विद्वान कम्यूनिज़्म को धर्म विरोधी कहते हैं और कम्युनिस्ट भी इसी मे गर्व महसूस करते हैं। धर्म जिसका अर्थ 'धारण करने'से है को न मानने के कारण ही सोवियत रूस मे कम्यूनिज़्म विफल हुआ और चीन मे सेना के दम पर जो शासन चल रहा है वह कम्यूनिज़्म के सिद्धांतों पर नहीं है। 'कम्यूनिज़्म' एक भारतीय अवधारणा है और उसे भारतीय परिप्रेक्ष्य मे ही सफलता मिल सकती है।

 'नास्तिक ' स्वामी विवेकानंद के अनुसार वह है जिसका अपने ऊपर विश्वास नहीं है और 'आस्तिक' वह है जिसका अपने ऊपर विश्वास है। लेकिन पोंगापंथी उल्टा पाठ सिखाते हैं। परंतु कम्युनिस्ट सीधी बात क्यों नहीं समझाते?....................................................................यह देश का दुर्भाग्य ही है कि पढे - लिखे विद्वान तक 'सत्य ' कहने से बचते हैं और विदेशियों द्वारा हमारे देशवासियों को दिया गया नामकरण ही प्रयोग करते रहते हैं। उसकी हकीकत ...... कि, हिन्दुत्व वस्तुतः शोषण को मजबूत बनाने की एक व्यापारिक राजनीति है।.............................................. 
"गुरुडम में फंस कर जिसने सत्य से मुंह मोड़ लिया ;
पाखण्ड को ओढ़ लिया ...
इसी कारण भारत देश गुलाम हुआ ...
भाई-भाई का आपस में घोर संग्राम हुआ ;
मंदिर ..मस्जिद तोड़े संग्राम हुआ.....
बुत परस्ती में लगा हुआ देश बुरी तरह गुलाम हुआ ;
देश मेरा बदनाम हुआ....."






*************** यह देश का दुर्भाग्य ही है कि पढे - लिखे विद्वान तक 'सत्य ' कहने से बचते हैं और विदेशियों द्वारा हमारे देशवासियों को दिया गया नामकरण ही प्रयोग करते रहते हैं। उसकी हकीकत ऊपर और नीचे प्रस्तुत वीडियो देख कर समझी जा सकती है कि, हिन्दुत्व वस्तुतः शोषण को मजबूत बनाने की एक व्यापारिक राजनीति है। निम्नलिखित पूर्व प्रकाशित नोट्स इसे समझने में सहायक हो सकते हैं*************** 

December 21, 2011 ·

वेद प्रचारक ने कहा था
दौलत के दीवानों उस दिन को पहचानों ;
जिस दिन दुनिया से खाली हाथ चलोगे..
चले दरबार चलोगे....
ऊंचे-ऊंचे महल अटारे एक दिन छूट जायेंगे सारे ;
सोने-चांदी तुम्हारे बक्सों में धरे रह जायेंगे...
जिस दिन दुनिया से खाली हाथ चलोगे...
चले दरबार चलोगे.......
दो गज कपडा तन की लाज बचायेगा ;
बाकी सब यहाँ पड़ा रह जाएगा......
चार के कन्धों पर चलोगे..
.चले दरबार चलोगे......
पत्थर की पूजा न छोडी-प्यार से नाता तोड़ दिया...
मंदिर जाना न छोड़ा -माता-पिता से नाता तोड़ दिया...
बेटे ने बूढ़ी माता से नाता तोड़ दिया ;
किसी ने बूढ़े पिता का सिर फोड़ दिया....
पत्थर की पूजा न छोडी ;मंदिर जाना न छोड़ा....
दया धर्म कर्म के रिश्ते छूट रहे;
माता-पिता से नाता छोड़ दिया....
उल्टी सीधी वाणी बोलकर दिल तोड़ दिया;
बूढ़ी माता से नाता तोड़ दिया.....
पत्थर की पूजा न छोडी मंदिर जाना न छोड़ा 
बूढ़ी माँ का दिल तोड़ दिया.....
वे क्या जाने जिसने प्रभु गुण गाया नहीं ;
वेद-शास्त्रों से जिसका नाता नहीं..
जिसने घर हवन कराया नहीं...
गुरुडम में फंस कर जिसने सत्य से मुंह मोड़ लिया ;
पाखण्ड को ओढ़ लिया ...
इसी कारण भारत देश गुलाम हुआ ...
भाई-भाई का आपस में घोर संग्राम हुआ ;
मंदिर ..मस्जिद तोड़े संग्राम हुआ.....
बुत परस्ती में लगा हुआ देश बुरी तरह गुलाम हुआ ;
देश मेरा बदनाम हुआ.....

March 23, 2012 
साम्यवादी विद्वान आर एस एस की अफवाहों को सही क्यों मानते हैं ?
बेहद अफसोसनाक है साम्यवादी विद्वानों द्वारा आर एस एस की अफवाहों को सही मानना 

साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासकों ने अपने चहेते पुराण वादियों के सहारे आर एस एस की स्थापना अफवाहों के जरिये देश को बांटने हेतु करवाई थी जिसमे वे पूरी तरह सफल रहे। आर एस एस ने अफवाह उड़ा दी कि नव-संवत हिंदुओं का केलेनडर है और साम्यवादी विद्वानों ने उसी को सच मान कर नव-संवत का विरोध आँखें बंद करके करना शुरू कर दिया। यह प्रवृति साम्यवाद के लिए आत्म-घाती है । 

सर्व प्रथम बौद्धों ने अपने मठ उजाड़ने ,विहारों को जलाने,साहित्य को नष्ट करने वाले उग्रवादियों हेतु 'हिन्दू' शब्द का प्रयोग -'हिंसा देने वाले' के संदर्भ मे किया था। फिर जब विदेशी आक्रांता भारत मे शासन करने आए तो फारसी भाषा की एक गंदी गाली-हिन्दू का प्रयोग यहा के निवासियों हेतु करने लगे और आर एस एस जो विदेशी साम्राज्यवादियों की हितचिंतक संस्था है यहाँ के लोगों को 'गर्व से हिन्दू' कहने लगी। 


बौद्धों  को सताये जाने और फारसी आक्रांताओं के आने से बहुत पहले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को सिंहासन पर बैठने के उपलक्ष्य मे चंद्र गुप्त  ने 'विक्रमादित्य '  की उपाधि धारण की और इसी दिन से 'विक्रमी संवत' नामक नया कलेंडर  चालू किया था। भारतीय इतिहास मे गुप्त काल को 'स्वर्ण युग'कहा जाता है जिसमे चंद्र गुप्त 'विक्रमादित्य'का शासन जनता के हित मे श्रेष्ठ था। भारतीय खुद को श्रेष्ठ अर्थात 'आर्ष'कहते थे जो अब अपभ्रंश रूप मे 'आर्य' कहा जाता है। यूरोप के विदेशियों ने आर्यों को यूरोप का बता दिया और 'गुलाम प्रवृति' के विद्वानों ने उसे भी सही मान लिया । इसी कारण 'विक्रमी संवत' को साम्यवादी विद्वान भी  आर एस एस की भांति ही हिन्दू  संवत मानते हैं जो सर्वथा गलत है। हिन्दू शब्द की उत्पत्ति से बहुत पहले लागू 'विक्रमी संवत' हिंदुओं का नही भारत के श्रेष्ठ आर्य शासक चंद्र गुप्त 'विक्रमादित्य' की याद दिलाता है जिस पर प्रत्येक स्वाभिमानी भारतीय को गर्व करना चाहिए और साम्यवादी विद्वानों को इसका विरोध करके आर एस एस का दावा मजबूत नहीं करना चाहिए। 
शिव अर्थात भारतवर्ष : 
"ॐ नमः शिवाय च का अर्थ है-Salutation To That Lord The Benefactor of all "यह कथन है संत श्याम जी पाराशर का.अर्थात हम अपनी मातृ -भूमि भारत को नमन करते हैं.वस्तुतः यदि हम भारत का मान-चित्र और शंकर जी का चित्र एक साथ रख कर तुलना करें तो उन महान संत क़े विचारों को ठीक से समझ सकते हैं.शंकर या शिव जी क़े माथे पर अर्ध-चंद्राकार हिमाच्छादित हिमालय पर्वत ही तो है.जटा से निकलती हुई गंगा -तिब्बत स्थित (अब चीन क़े कब्जे में)मानसरोवर झील से गंगा जी क़े उदगम की ही निशानी बता रही है.नंदी(बैल)की सवारी इस बात की ओर इशारा है कि,हमारा भारत एक कृषि -प्रधान देश है.क्योंकि ,आज ट्रेक्टर-युग में भी बैल ही सर्वत्र हल जोतने का मुख्य आधार है.शिव द्वारा सिंह-चर्म को धारण करना संकेत करता है कि,भारत वीर-बांकुरों का देश है.शिव क़े आभूषण(परस्पर विरोधी जीव)यह दर्शाते हैंकि,भारत "विविधताओं में एकता वाला देश है."यहाँ संसार में सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र चेरापूंजी है तो संसार का सर्वाधिक रेगिस्तानी इलाका थार का मरुस्थल भी है.विभिन्न भाषाएं बोली जाती हैं तो पोशाकों में भी विविधता है.बंगाल में धोती-कुर्ता व धोती ब्लाउज का चलन है तो पंजाब में सलवार -कुर्ता व कुर्ता-पायजामा पहना जाता है.तमिलनाडु व केरल में तहमद प्रचलित है तो आदिवासी क्षेत्रों में पुरुष व महिला मात्र गोपनीय अंगों को ही ढकते हैं.पश्चिम और उत्तर भारत में गेहूं अधिक पाया जाता है तो पूर्व व दक्षिण भारत में चावल का भात खाया जाता है.विभिन्न प्रकार क़े शिव जी क़े गण इस बात का द्योतक हैं कि, यहाँ विभिन्न मत-मतान्तर क़े अनुयायी सुगमता पूर्वक रहते हैं.शिव जी की अर्धांगिनी -पार्वती जी हमारे देश भारत की संस्कृति (Culture )ही तो है.भारतीय संस्कृति में विविधता व अनेकता तो है परन्तु साथ ही साथ वह कुछ  मौलिक सूत्रों द्वारा एकता में भी आबद्ध हैं.हमारे यहाँ धर्म की अवधारणा-धारण करने योग्य से है

MONDAY, MARCH 7, 2016
शिव का अर्थ है ‘कल्याण' अर्थात मानव मात्र के कल्याण हेतु जो संदेश दे वही शिव है। शिव बुद्धि,ज्ञान व विवेक का द्योतक है। 
हमारे विद्वान बुद्धिजीवी जिनमे बामपंथी भी शामिल हैं 'धर्म' का अर्थ ही नहीं समझते और न ही समझना चाहते हैं। पुरोहितवादियो ने धर्म को आर्थिक शोषण के संरक्षण का आधार बना रखा है और इसीलिए बामपंथी पार्टियां धर्म का विरोध करती हैं। जब कि वह धर्म है ही नहीं जिसे बताया और उसका विरोध किया जाता है। धर्म का अर्थ समझाया है 'शिवरात्रि' पर बोध प्राप्त करने वाले मूलशंकर अर्थात दयानंद ने। उन्होने 'ढोंग-पाखंड' का प्रबल विरोध किया है उन्होने 'पाखंड खंडिनी पताका' पुस्तक द्वारा पोंगापंथ का पर्दाफाश किया है। 
दयानन्द ने आजादी के संघर्ष को गति देने हेतु1875 मे  'आर्यसमाज' की स्थापना की थी ,उसे विफल करने हेतु ब्रिटिश शासकों ने 1885 मे  कांग्रेस की स्थापना करवाई तो आर्यसमाँजी उसमे शामिल हो गए और आंदोलन को आजादी की दिशा मे चलवाया।1906 मे अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग स्थापित करवाकर देश मे एक वर्ग को आजादी के आंदोलन से पीछे हटाया। 1920 मे हिन्दू महासभा की स्थापना करवा कर दूसरे वर्ग को भी आजादी के आंदोलन से पीछे हटाने का विफल प्रयास किया। 1925 मे साम्राज्यवादी हितों के पोषण हेतु आर एस एस का गठन करवाया जिसने मुस्लिम लीग के समानान्तर सांप्रदायिकता को भड़काया और अंततः देश विभाजन हुआ। आर्यसमाज के आर  एस एस के नियंत्रण मे जाने के कारण राष्ट्रभक्त आर्यसमाजी जैसे स्वामी सहजानन्द ,गेंदा लाल दीक्षित,राहुल सांस्कृत्यायन आदि 1925 मे स्थापित 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' मे शामिल हुये जिसका गठन आजादी के क्रांतिकारी आंदोलन को गति देने हेतु हुआ था। सरदार भगत सिंह,राम प्रसाद 'बिस्मिल' सरीखे युवक 'सत्यार्थ प्रकाश'पढ़ कर ही क्रांतिकारी कम्युनिस्ट बने थे। 
दुर्भाग्य से आज विद्वान कम्यूनिज़्म को धर्म विरोधी कहते हैं और कम्युनिस्ट भी इसी मे गर्व महसूस करते हैं। धर्म जिसका अर्थ 'धारण करने'से है को न मानने के कारण ही सोवियत रूस मे कम्यूनिज़्म विफल हुआ और चीन मे सेना के दम पर जो शासन चल रहा है वह कम्यूनिज़्म के सिद्धांतों पर नहीं है। 'कम्यूनिज़्म' एक भारतीय अवधारणा है और उसे भारतीय परिप्रेक्ष्य मे ही सफलता मिल सकती है।

 'नास्तिक ' स्वामी विवेकानंद के अनुसार वह है जिसका अपने ऊपर विश्वास नहीं है और 'आस्तिक' वह है जिसका अपने ऊपर विश्वास है। लेकिन पोंगापंथी उल्टा पाठ सिखाते हैं। परंतु कम्युनिस्ट सीधी बात क्यों नहीं समझाते? 

~विजय राजबली माथुर ©

Monday, January 15, 2018

'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था : अब पतन की पराकाष्ठा पर है ------ विजय राजबली माथुर



  प्रतिवर्ष विभिन्न कायस्थ समाजों की ओर से देश भर मे भाई-दोज के अवसर पर कायस्थों के उत्पत्तिकारक के रूप मे 'चित्रगुप्त जयंती'मनाई जाती है ।  'कायस्थ बंधु' बड़े गर्व से पुरोहितवादी/ब्राह्मणवादी कहानी को कह व सुना तथा लिख -दोहरा कर प्रसन्न होते रहे हैं। परंतु सच्चाई को न कोई समझना चाह रहा है न कोई बताना चाह रहा है।
 आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा मे दीपावली पर्व के प्रवचनों मे स्वामी स्वरूपानन्द जी ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था और उनसे पूर्व प्राचार्य उमेश चंद्र कुलश्रेष्ठ जी ने पूर्ण सहमति व्यक्त की थी। यथा : 

"प्रत्येक प्राणी के शरीर मे 'आत्मा' के साथ 'कारण शरीर' व 'सूक्ष्म शरीर' भी रहते हैं। यह भौतिक शरीर तो मृत्यु होने पर नष्ट हो जाता है किन्तु 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म शरीर' आत्मा के साथ-साथ तब तक चलते हैं जब तक कि,'आत्मा' को मोक्ष न मिल जाये। इस सूक्ष्म शरीर मे -'चित्त'(मन)पर 'गुप्त'रूप से समस्त कर्मों-सदकर्म,दुष्कर्म और अकर्म अंकित होते रहते हैं। इसी प्रणाली को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है। इन कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद पुनः दूसरा शरीर और लिंग इस 'चित्रगुप्त' मे अंकन के आधार पर ही मिलता है। अतः यह  पर्व 'मन'अर्थात 'चित्त' को शुद्ध व सतर्क रखने के उद्देश्य से मनाया जाता था। इस हेतु विशेष आहुतियाँ हवन मे दी जाती थीं।" 

आज कोई ऐसा नहीं करता है। बाजारवाद के जमाने मे भव्यता-प्रदर्शन दूसरों को हेय समझना आदि ही ध्येय रह गया है। यह विकृति और अप-संस्कृति है। काश लोग अपने अतीत को पहचान सकें और समस्त मानवता के कल्याण -मार्ग को पुनः अपना सकें। 

इस पर्व को एक जाति-वर्ग विशेष तक सीमित कर दिया गया है।
  पौराणिक-पोंगापंथी -ब्राह्मणवादी व्यवस्था मे जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
 'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित। 
'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म से अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति।  
आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव जब अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। क्योंकि ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे  अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी  अस्पताल मे आज भी जेनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही लिखा मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-

1- जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 
2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 
3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको  'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 
4-जो लोग विभिन्न  सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने तथा इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य माना जाता था। 
ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ  ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था। ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे। 

 कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके  शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता  आधारित उपाधि-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया। खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है। 
यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुये भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।
लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि, अब पतन की पराकाष्ठा पर  पहुंचे कायस्थ क्या कह और कर रहे हैं। एक मुस्लिम का हुक्का गुड़गुड़ाने पर आक्षेप लगने से आहत हुये नरेन्द्र्नाथ दत्त  ने रामकृष्ण  परमहंस से जो ज्ञान प्राप्त किया उसी के आधार पर समाज में व्याप्त कुरीतियों, ढोंग और पाखंड पर करारा प्रहार किया था । स्वामी विवेकानंद के रूप में उनका कहना था जब तक भारत की एक भी झोंपड़ी में प्रकाश का आभाव रहता है और एक भी आदमी भूखा रहता है तब तक भारत का विकास नहीं हो सकता है। 
यह एक विडम्बना ही है कि, भारत के कम्युनिस्टों ने स्वामी विवेकानंद को नहीं अपनाया बल्कि, विभाजन, विग्रह और द्वेष पर आधारित संगठनों ने उनके नाम का भारी दुरुपयोग कर रखा है जिसका उदाहरण न भा  टा की प्रस्तुत कटिंग से मिलता है। यह कायस्थों के बुद्धि - विपर्याय को दर्शाता है और उनके पतन की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है ? 

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~विजय राजबली माथुर ©