Monday, March 25, 2013

साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज---भगतसिंह (1928)


25 मार्च : गणेश शंकर विद्यार्थी  जी के बलिदान दिवस पर विशेष-

1928 मे सांप्रदायिकता पर व्यक्त भगत सिंह जी के विचार ---


(1919 के जालियँवाला बाग हत्याकाण्ड के बाद ब्रिटिष सरकार ने साम्प्रदायिक दंगों का खूब प्रचार शुरु किया। इसके असर से 1924 में कोहाट में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। इसके बाद राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना में साम्प्रदायिक दंगों पर लम्बी बहस चली। इन्हें समाप्त करने की जरूरत तो सबने महसूस की, लेकिन कांग्रेसी नेताओं ने हिन्दू-मुस्लिम नेताओं में सुलहनामा लिखाकर दंगों को रोकने के यत्न किये।
इस समस्या के निश्चित हल के लिए क्रान्तिकारी आन्दोलन ने अपने विचार प्रस्तुत किये। प्रस्तुत लेख जून, 1928 के ‘किरती’ में छपा। यह लेख इस समस्या पर शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के विचारों का सार है। – सं.)

भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।
ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है।
यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं। जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं। और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।
अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्र बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्रकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है।
बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होेना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती। इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए।
लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों मंे लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी।
जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है। अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए। अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं। जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी। इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे। लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आयी।
इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों मंे एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।
यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं। उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से-हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है। भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए। उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं।
1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।
इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं।
यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।
हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमे बचा लेंगे।

आभार : यह फाइल आरोही, ए-2/128, सैक्टर-11, रोहिणी, नई दिल्ली — 110085 द्वारा प्रकाशित संकलन ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ (सम्पादक : राजेश उपाध्याय एवं मुकेश मानस) के मूल फाइल से ली गयी है।
Date Written: June 1928
Author: Bhagat Singh
Title: Communal Riots and their Cure ( Sampradayik dangen aur unka illaj)
First Published: in Punjabi monthly Kirti in June 1928.
* Courtesy: This file has been taken from original file of Aarohi Books' publication Inquilab Zindadad – A Collection of Essays by Bhagat Singh and his friends, edited by Rajesh Upadhyaya and Mukesh Manas.



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Saturday, March 23, 2013

भगत सिंह का बम (पुनर्प्रकाशन)---विजय राजबली माथुर








http://krantiswar.blogspot.in/2011/03/blog-post_22.html

मंगलवार, 22 मार्च 2011

भगत सिंह का बम

 जब स्वामी श्रद्धानंद  स१८८४ ई.में जालंधर में मुंशी राम के रूप में वकालत कर रहे थे तो भगत सिंह जी के बाबा जी सरदार अर्जुन सिंह उनके मुंशी थे.भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह भी उनके साथ थे.इस प्रकार सिख होते हुए भी यह परिवार वैदिक-धर्मी बन गया और मुंशी राम जी (श्रद्धानंद जी) के साथ आर्य समाज के माध्यम से स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय भाग लेने लगा .'सत्यार्थ प्रकाश' में महर्षि दयानंद जी के ये विचार कि,विदेशी शासन यदि माता-पिता से भी बढ़ कर ख्याल रखता हो तब भी बुरा है और उसे जल्दी से जल्दी उखाड़-फेंकना चाहिए पढ़ कर युवा भगत सिंह जी ने भारत को आजादी दिलाने का दृढ निश्चय किया .



 २३ मार्च १९३१ को सरदार भगत सिंह को असेम्बली में बम फेंकने के इल्जाम में फांसी दी गयी थी और फांसी के तख्ते की तरफ बढ़ते हुए वीर भगत सिंह मस्ती के साथ गा रहे थे-



सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.
देखना है जोर कितना बाजुये कातिल में है..


कैसी अपूर्व मस्ती थी,कैसी उग्रता थी उनके संकल्प में जिससे वह हँसते-हँसते मौत का स्वागत कर सके और उनके कंठों से यह स्वर फूट सके-



शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले .
वतन पर मरने वालों का ,यही बाकी निशाँ होगा..


२३ दिसंबर १९२९ को भी क्रांतिकारियों ने वायसराय की गाडी उड़ाने को बम फेंका था जो चूक गया था.तब गांधी जी ने एक कटुता पूर्ण लेख 'बम की पूजा' लिखा था.इसके जवाब में भगवती चरण वोहरा ने 'बम का दर्शन ' लेख लिखा.सत्यार्थ प्रकाश के अनुयायी भगत सिंह के लिए बम का सहारा लेना आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि उसके रचयिता स्वामी दयानंद अपनी युवावस्था -३२ वर्ष की आयु में १८५७ की क्रांति में सक्रिय भाग खुद ही ले चुके थे.दयानंद जी पर तथाकथित पौराणिक हिन्दुओं ने कई बार प्राण घातक हमले किये और उनके रसोइये जगन्नाथ के माध्यम से उनकी हत्या करा दी,उनके बाद आर्य समाज में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितैषी आर.एस.एस.की घुसपैठ बढ़ गयी थी.अतः भगत सिंह आदि युवाओं के लिए अग्र-गामी कदम उठाना अनिवार्य हो गया था.अतः 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन 'का गठन कर क्रांतिकारी गतिविधियाँ संचालित की गयीं.


२६ जनवरी १९३० को बांटे गए पर्चे में भगत सिंह ने 'करतार सिंह'के छद्म नाम से जो ख़ास सन्देश दिया था उसका सार यह है-"क्या यह अपराध नहीं है कि ब्रिटेन ने भारत में अनैतिक शासन किया ?हमें भिखारी बनाया तथा हमारा समस्त खून चूस लिया?एक जाति और मानवता के नाते हमारा घोर अपमान तथा शोषण किया गया है.क्या जनता अब भी चाहती है कि इस अपमान को भुला कर हम ब्रिटिश शासकों को क्षमा कर दें?हम बदला लेंगे,जनता द्वारा शासकों से लिया गया न्यायोचित बदला होगा.कायरों को पीठ दिखा कर समझौता और शांति की आशा से चिपके रहने दीजिये.हम किसी से भी दया की भिक्षा नहीं मांगते हैं और हम भी किसी को क्षमा नहीं करेंगे.हमारा युद्ध विजय या मृत्यु के निनाय तक चलता ही रहेगा.इन्कलाब जिंदाबाद!"


और सच में हँसते हुए ही उन्होंने मृत्यु का वरण किया.जिस बम के कारण उनका बलिदान हुआ उसका निर्माण आगरा के नूरी गेट में हुआ था जो अब उन्ही के नाम पर 'शहीद भगत सिंह द्वार'कहलाता है.वहां अब बूरा बाजार है.एक छोटी प्रतिमा 'नौजवान सभा',आगरा द्वारा वहां स्थापित की गयी थी जिसे अब आर.एस.एस. वाले अपनी जागीर समझने लगे हैं.यह बम किसी की हत्या करने के इरादे से नहीं बनाया गया था-०६ जून १९२९ को दिल्ली के सेशन जज मि.लियोनार्ड मिडिल्टन की अदालत में भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने कहा था-"हमारे विचार से उन्हें वैज्ञानिक ढंग से बनाया ही ऐसा गया था.पहली बात ,दोनों बम बेंचों तथा डेस्कों के बीच की खाली जगह में ही गिरे थे .दुसरे उनके फूटने की जगह से दो फिट पर बैठे हुए लोगों को भी ,जिनमें श्री पी.आर.राऊ ,श्री शंकर राव तथा सर जार्ज शुस्टर के नाम उल्लेखनीय हैं,या तो बिलकुल ही चोटें नहीं आयीं या मात्र मामूली आयीं.अगर उन बमों में जोरदार पोटेशियम क्लोरेट और पिक्रिक एसिड भरा होता ,जैसा सरकारी विशेषज्ञ ने कहा है,तो इन बमों ने उस लकड़ी के घेरे को तोड़ कर कुछ गज की दूरी पर खड़े लोगों तक को उड़ा दिया होता .और यदि उनमें कोई और भी शक्तिशाली विस्फोटक भरा जाता तो निश्चय ही वे असेम्बली के अधिकाँश सदस्यों को उड़ा देने में समर्थ होते..................लेकिन इस तरह का हमारा कोई इरादा नहीं था और उन बमों ने उतना ही काम किया जितने के लिए उन्हें तैयार किया गया था.यदि उससे कोई अनहोनी घटना हुयी तो यही कि वे निशाने पर अर्थात निरापद स्थान पर गिरे".


मजदूरों की जायज मांगों के लिए उनके आन्दोलन को कुचलने के उद्देश्य से जो 'औद्योगिक विवाद विधेयक 'ब्रिटिश सरकार  लाई थी उसी का विरोध प्रदर्शन ये बम थे.भगत सिंह और उनके साथी क्या चाहते थे वह भी कोर्ट में दिए उनके बयान  से स्पष्ट होता है-"यह भयानक असमानता ....आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठ कर रंगरेलियाँ मना  रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित लोग एक भयानक खड्ड की कगार पर चल पड़े हैं.............साम्यवादी सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निर्माण करें .........क्रांति से हमारा मतलब अन्तोगत्वा एक ऐसी समाज -व्यवस्था की स्थापना से है जो इस प्रकार के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का आधिपत्य सर्वमान्य होगा और जिसके फलस्वरूप स्थापित होने वाला विश्व -संघ पीड़ित मानवता को पूंजीवाद के बंधनों से और साम्राज्यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा."


शहीद भगत सिंह कैसी व्यवस्था चाहते थे उसे लाहौर हाई कोर्ट के जस्टिस एस.फोर्ड ने फैसले में लिखा:"यह बयान  कोई गलती न होगी कि ये लोग दिल की गहराई और पूरे आवेग के साथ वर्तमान समाज के ढाँचे को बदलने की इच्छा से प्रेरित थे.भगत सिंह एक ईमानदार और सच्चे क्रांतिकारी हैं .मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि वे इस स्वप्न को लेकर पूरी सच्चाई से खड़े हैं कि दुनिया  का सुधार वर्तमान सामजिक  ढाँचे को तोड़ कर ही हो सकता है.........."

Monday, March 18, 2013

अपना हाथ जगन्नाथ---विजय राजबली माथुर




चित्र साभार-डी पी दुबे जी


कायस्थसभा,आगरा के अध्यक्ष श्री चंद्र मोहन शेरी के आग्रह पर मैंने यह लेख "जागृति"-स्मारिका-सन2002 ,कायस्थसभा,आगरा के लिए संक्षिप्त रूप मे लिखा था। 
इसे और स्पष्ट करने हेतु ऊपर एक 'हस्त'चित्र भी यहाँ दिया जा रहा है। इसमे सातों ग्रहों को आसानी से देखा व समझा जा सकता है। प्रथ्वी के उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों को छाया ग्रहों के रूप मे ज्योतिष मे अध्यन हेतु 'राहू' व 'केतू' के रूप मे गणना मे लिया जाता है। 'केतू' का स्थान हथेली मे नीचे 'मणिबंध'पर होता है तथा 'राहू' का स्थान बीच मे 'मस्तिष्क'रेखा के नीचे होता है। 

'कनिष्ठा' उंगली के नीचे व चंद्र पर्वत से ऊपर स्थित 'निम्न मंगल'साहस-पराक्रम आदि का द्योतक होता है। शुक्र पर्वत के ऊपर स्थित उच्च मंगल ,ज्ञान-विज्ञान,शिक्षा आदि को दर्शाता है। 

तर्जनी उंगली के नीचे स्थित ब्रहस्पति पर्वत आध्यात्मिक रुझान,प्रशासनिक क्षमता,शिक्षा - योग्यता आदि के बारे मे बताता है। 
बीच की मध्यमा उंगली के नीचे स्थित शनि पर्वत से प्रवृति,कर्म,आदि का पता चलता है। 
इसके बाद की अनामिका उंगली के नीचे सूर्य पर्वत स्थित होता है जो यश,शिक्षा का स्तर व बुद्धि आदि के बारे मे बताता है। 
सबसे छोटी कनिष्ठा उंगली के नीचे बुध पर्वत होता है जो स्वास्थ्य,व्यवसाय आदि का ज्ञान देता है। 
अंगूठे के नीचे स्थित शुक्र पर्वत दया,प्रेम,शारीरिक स्थिति आदि की सूचना देता है। 
राहू और केतू की स्थितियों का जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है क्योंकि वे हमारी प्रथ्वी के ही कोण हैं। 
शनि पर्वत पर पहुँचने वाली रेखा को 'भाग्य रेखा' कहा जाता है परंतु यह बहुतेरे हाथों मे होती ही नहीं है जिसका अभिप्राय है कि वे मनुष्य अपने भाग्य के स्व-निर्माता हैं(SELF MADE MEN)। 

यह जानकारी देने का आशय यह है कि,प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष अपने हाथों मे सम्पूर्ण ब्रह्मांड को समेटे हुये है और उसे परमात्मा-भगवान,खुदा,गाड आदि को खोजने के लिए कहीं भी भटकने की आवश्यकता नहीं है। प्रातः काल बिस्तर छोडने से पहले अपने दोनों हाथों को फैला कर परस्पर मिला लें और उनको देखें तो अखिल ब्रह्मांड के दर्शन हो जाएँगे। यदि कोई अडचन  आ रही हो तो ऐसा करते समय मन ही मन मे उसे दूर करने की कल्पना करें  जिससे उससे छुटकारा मिल जाएगा। 
हमे ये हाथ 'कर्म' करने हेतु ही मिले हैं और कर्म ही धर्म है। अकर्म व दुष्कर्म से दूर रहते हुये सदैव सदकर्म ही करने चाहिए। शोषकों-उतपीडकों द्वारा विभिन्न नामों से जो धर्म बताए जाते हैं और जिनके नाम पर मनुष्य-मनुष्य के खून का प्यासा हो जाता है वे सब वस्तुतः अधर्म है जो केवल दुष्कर्म ही कराते हैं और जिंनका प्रतिकूल  प्रतिफल वैसा करने वाले को ही भुगतना पड़ता है। 
मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध बनाना ही धर्म है और उसी का पालन करना चाहिए। सृष्टि मे सभी मानव समान हैं और समान आचरण की अपेक्षा सृष्टा सबसे करता है। जो विषमता व वैमनस्यता फैलते हैं  उनको भी अपने कुकर्मों का फल देर-सबेर इस जन्म नहीं तो आगामी जन्मों मे भुगतना ही पड़ता है। जन्म-जन्मांतर को न मानने से कर्मफल पर कोई अन्तर नही पड़ता है। अपना हाथ ही जगन्नाथ है और उस पर विश्वास रखें ।

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Tuesday, March 12, 2013

क्या साम्यवाद दूर की कौड़ी बना रहेगा?---विजय राजबली माथुर

 आज जब जनता सत्तारूढ़ दल और मुख्य विपक्षी दल से हताश व निराश है और ऐसे मे सभी प्रकार के साम्यवादी गुटों को एकजुट होकर शोषकों/उतपीडकों का पर्दाफाश करने की आवश्यकता है कुछ साम्यवाद के स्वमभू विद्वानों ने 'साम्यवाद को दूर की कौड़ी'बनाने का उपक्रम शुरू कर दिया है। 1885 मे स्थापित कांग्रेस के 1977 मे जनता पार्टी मे विलय के बाद 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' ही सबसे पुराना राजनीतिक दल है।सत्तारूढ़ पार्टी तो  1969 मे स्थापित इन्दिरा कांग्रेस है जो मात्र 44 वर्ष ही पुरानी है और जिसका देश के स्वाधीनता आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है। भाकपा ने भारत के स्वाधीनता आंदोलन मे 'सत्याग्रह' व 'क्रांतिकारी' दोनों प्रकार की भूमिकाओं मे भाग लिया है। किन्तु देश की जनता से खुद को काटे रखने के कारण आज जनता भी इन जांनकारियों से महरूम है और सभी कम्युनिस्ट तमाम सद्भावनाओं के बावजूद जनता को वास्तविकता से अवगत कराने मे विफल रहे हैं।व्यक्तिगत स्तर पर वास्तविकता को जनता के संज्ञान  मे लाने के मेरे प्रयासों पर जातिवादी/ब्राह्मणवादी शोषक-उतपीडकों के समर्थक ही नहीं प्रहार करते हैं बल्कि खुद को साम्यवादी विद्वान बताने वाले भी सबसे आगे -आगे ही रहते हैं। ऐसे दो विद्वानों की टिप्पणियों की फोटो कापी नीचे प्रस्तुत हैं। इनकी ही जाति के एक साम्यवादी विद्वान तो 'राम' की तुलना 'ओबामा' से करते हैं। 'राम' ने तो साम्राज्यवादी रावण का संहार करके वहाँ जनवादी शासन कायम किया था जबकि ओबामा आज साम्राज्यवादियों का सरगना है। राम की तुलना ओबामा से करने वाले ये साम्यवादी विद्वान वस्तुतः जनता को कम्युनिस्टों से दूर रखने का षड्यंत्र कर रहे हैं। सदियों से इन पुरोहितवादी/ब्राह्मण वादियों ने जनता के एक बड़े तबके को उसके 'प्रकृति-प्रदत्त' अधिकारों से वंचित करके उसका सतत शोषण किया है और आज भी विभिन्न राजनीतिक दलों मे बिखर कर ये शोषकों के संरक्षक जनता को जागरूक होने देने से रोकने मे ही अपना वर्ग हित देखते हैं। यही कारण है कि जब भी कोई उनकी जाति से अलग का व्यक्ति 'सत्य' को उद्घाटित करने का प्रयास करता है ये सम्मिलित रूप से उस पर प्रहार प्रारम्भ कर देते हैं। उनकी जाति मे जन्मा कोई भी व्यक्ति 'सत्य' उद्घाटित कर ही नहीं सकता क्योंकि सदियों पुरानी उनकी लूट के खात्मे का भय जो है। नीचे 26 दिसंबर 2012 को पूर्व प्रकाशित लेख का अंश देकर ऐसे लोगों के कृत्य का खुलासा किया जा रहा है--- 

साम्यवाद भारतीय अवधारणा हैhttp://krantiswar.blogspot.in/2012/12/blog-post_25.html

चाहे जितने तबके व गुट हों सबमे एक ज़बरदस्त समानता है कि वे 'साम्यवाद' को खुद भी विदेशी अवधारणा मानते हैं। 'Man has created the GOD for his Mental Security only'-मार्क्स साहब का यह वाक्य सभी के लिए 'ब्रह्म वाक्य' है इस कथन को कहने की परिस्थियों व कारणों की तह मे जाने की उनको न कोई ज़रूरत है और न ही समझने को तैयार हैं। उनके लिए धर्म अफीम है। वे न तो धर्म का मर्म जानते हैं और न ही जानना चाहते हैं। वस्तुतः धर्म=जो मानव शरीर एवं मानव सभ्यता को धारण करने हेतु आवश्यक है जैसे --- 'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रह्मचर्य'। अब इन सद्गुणों की मुखालफत करके हम समाज से शोषण और उत्पीड़न को कैसे समाप्त कर सकते हैं?और यही वजह है कि इन सद्गुणों को ठुकराने के कारण सोवियत रूस मे साम्यवाद उखड़ गया और जो चीन मे चल रहा है वह वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी के संरक्षण मे चल रहा 'पूंजीवाद' ही है। 
 प्रकृति में जितने भी जीव हैं उनमे मनुष्य ही केवल मनन करने के कारण श्रेष्ठ है,यह विशेष जीव ज्ञान और विवेक द्वारा अपने उपार्जित कर्मफल को अच्छे या बुरे में बदल सकता है.कर्म तीन प्रकार के होते हैं-सद्कर्म का फल अच्छा,दुष्कर्म का फल बुरा होता है.परन्तु सब से महत्वपूर्ण अ-कर्म होता है  जिसका अक्सर लोग ख्याल ही नहीं करते हैं.अ-कर्म वह कर्म है जो किया जाना चाहिए था किन्तु किया नहीं गया.अक्सर लोगों को कहते सुना जाता है कि हमने कभी किसी का बुरा नहीं किया फिर हमारे साथ बुरा क्यों होता है.ऐसे लोग कहते हैं कि या तो भगवान है ही नहीं या भगवान के घर अंधेर है.वस्तुतः भगवान के यहाँ अंधेर नहीं नीर क्षीर विवेक है परन्तु पहले भगवान को समझें तो सही कि यह क्या है--किसी चाहर दिवारी में सुरक्षित काटी तराशी मूर्ती या  नाडी के बंधन में बंधने वाला नहीं है अतः उसका जन्म या अवतार भी नहीं होता.भगवान तो घट घट वासी,कण कण वासी है उसे किसी एक क्षेत्र या स्थान में बाँधा नहीं जा सकता.भगवान क्या है उसे समझना बहुत ही सरल है--अथार्त भूमि,-अथार्त गगन,व्-अथार्त वायु, I -अथार्त अनल (अग्नि),और -अथार्त-नीर यानि जल,प्रकृति के इन पांच तत्वों का समन्वय ही 'भगवान' है जो सर्वत्र पाए जाते हैं.इन्हीं के द्वारा जीवों की उत्पत्ति,पालन और संहार होता है तभी तो GOD अथार्त Generator,Operator ,Destroyer  इन प्राकृतिक तत्वों को  किसी ने बनाया नहीं है ये खुद ही बने हैं इसलिए ये खुदा हैं.

जब भगवान,गाड और खुदा एक ही हैं तो झगड़ा किस बात का?परन्तु झगड़ा है नासमझी का,मानव द्वारा मनन न करने का और इस प्रकार मनुष्यता से नीचे गिरने का.इस संसार में कर्म का फल कैसे मिलता है,कब मिलता है सब कुछ एक निश्चित प्रक्रिया के तहत ही होता है जिसे समझना बहुत सरल है किन्तु निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा जटिल बना दिया गया है.हम जितने भी सद्कर्म,दुष्कर्म या अकर्म करते है उनका प्रतिफल उसी अनुपात में मिलना तय है,परन्तु जीवन काल में जितना फल भोगा  उसके अतिरिक्त कुछ शेष भी बच जाता है.यही शेष अगले जन्म  में प्रारब्ध(भाग्य या किस्मत) के रूप में प्राप्त होता है.अब मनुष्य अपने मनन द्वारा बुरे को अच्छे में बदलने हेतु एक निश्चित प्रक्रिया द्वारा समाधान कर सकता है.यदि समाधान वैज्ञानिक विधि से किया जाए तो सुफल परन्तु यदि ढोंग-पाखंड विधि से किया जाये तो प्रतिकूल फल मिलता है.
लेकिन अफसोस यही कि इस वैज्ञानिक सोच का विरोध प्रगतिशीलता एवं वैज्ञानिकता की आड़ मे साम्यवाद के विद्वानों द्वारो भी किया जाता है और पोंगापंथी ढ़ोंगी पाखंडियों द्वारा भी। अतः नतीजा यह होता है कि जनता धर्म के नाम पर व्यापारियो/उद्योगपतियों/शोषकों के बुने जाल मे फंस कर लुटती रहती है। साम्यवाद-समाजवाद के नारे लगते रहते हैं और नतीजा वही 'ढाक के तीन पात'। 



पहली टिप्पणी कारपोरेट चेनल IBN7 के कारिंदे एक ब्लागर की है जो पूना प्रवासी 'भ्रष्ट-धृष्ट-ठग'ब्लागर  जो शोषण-उत्पीड़न करने वालों का पूज्य है का पृष्ठ-पोषक है। दूसरी और तीसरी टिप्पणिया खुद को 'साम्यवादी विद्वान' बताने वाले दिग्गजों की हैं। दो विपरीत विचार धाराओं का संवाहक बताने वालों की तीनों टिप्पणियों मे ज़बरदस्त समानता है कि,वे सच्चाई को सामने नहीं आने देना चाहते क्योंकि उनका उद्देश्य आम जनता को जागरूक होने देने से रोकना और प्रचलित 'शोषण-उत्पीड़न' को मजबूत बनाए रखना है। इसलिए एक-दूसरे का विरोधी बताते हुये भी अपने जन-विरोधी कृत्यों मे वे एक-दूसरे के पूरक के रूप मे कार्य करते हैं। एक साम्यवादी विद्वान ने मुझे ब्लाक करके 'लाल झण्डा' ग्रुप से हटा दिया तो अब दूसरे साम्यवादी विद्वान को ब्लाक करके उनके द्वारा इंगित दोनों ग्रुपों को मैंने छोड़ दिया जिससे वे निष्कंटक अपनी बातों से साधारण-जन को गुमराह करते रहें और मैं उसमे साझीदार न बनूँ।


मज़ेदार बात यह है कि साम्यवादी विद्वान खुद को स्टालिन विरोधी बताने मे भी गर्व का अनुभव करते हैं। देखिये उनकी टिप्पणी---
निश्चय ही पूँजीपतियों के हितरक्षक विश्वविद्यालय ने 'स्टालिन' विरोधी इन साहब की थीसिस को सिर माथे रखा होगा। 'स्टालिन' की सलाह न मानने के कारण ही हमारे देश मे साम्यवाद की दुर्दशा हुई है। किन्तु ऐसे अडियल विद्वानों को आज भी प्रश्रय यदि देना जारी रहा तो आगे भी साम्यवाद का भारत मे सफल होना संदेहास्पद ही बना रहेगा।

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Tuesday, March 5, 2013

धर्म और कर्म




ज़्यादातर लोग धर्म का मतलब किसी मंदिर,मस्जिद/मजार ,चर्च या गुरुद्वारा अथवा ऐसे ही दूसरे स्थानों  पर जाकर  उपासना करने से लेते हैं। इसी लिए इसके एंटी थीसिस वाले लोग 'धर्म' को अफीम और शोषण का उपक्रम घोषित करके विरोध करते हैं । दोनों दृष्टिकोण अज्ञान पर आधारित हैं। 'धर्म' है क्या? इसे समझने और बताने की ज़रूरत कोई नहीं समझता।


23 hours ago ·01 मार्च,2013 
'धर्म'=धारण करने वाला। जो शरीर व समाज को धारण  करने हेतु आवश्यक है वही धर्म है बाकी सब कुछ अधर्म है उसे धर्म की संज्ञा देना ही अज्ञान को बढ़ावा देना है। धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। कृपया ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म की संज्ञा न दें।
उपरोक्त बात अक्सर ब्लाग एवं फेसबुक के माध्यम से कहता रहा हूँ परंतु खेद इस बात का रहा है कि,विद्वजन भी ढोंग को ही धर्म मानते व उसके पक्ष मे कुतर्क पेश करते रहे हैं। नवगठित फेसबुक ग्रुप 'सोश्यिओलोजिस्ट-फार सोशल पैथोलॉजी'मे भी जब मैंने यही बात कही--- 'धर्म' और ढोंग दो विपरीत तत्व हैं। आजकल लोग (शोषक भी और प्रगतिशील भी)ढोंग को ही धर्म की संज्ञा देते हैं और समस्या यहीं से शुरू होती है। .........................  प्रगीतिशीलता/वैज्ञानिकता की आड़ मे जब धर्म को अफीम कह कर ठुकरा दिया जाये और ढोंग को धर्म माना जाये तो क्या हो सकता है?यदि हम जनता को बेधड़क समझाये कि धर्म ये सद्गुण हैं वे ढोंग नहीं जिंनका प्रवचन उतपीडकों के प्रतिनिधि देते फिरते हैं तब हमारी बात का सकारात्मक प्रभाव अवश्य ही होगा।'

इसके उत्तर मे ग्रुप एडमिन अनीता राठी जी ने कहा--'आप ठीक कहते है विजय जी लेकिन हमारे देश की आबादी को जो की या तो अन्धानुकारन करने लगती है, या फिर कोरी किताबी बातें , या तो पत्थर को दूध पिलाने लगती है या फिर सेधान्तिक हो जाती है।संतुलन नहीं है समझ में।'

इस पर मैंने उनको सूचित किया कि,-'  जी हाँ उसी के लिए मैं अपने ब्लाग-http://krantiswar.blogspot.in के माध्यम से व्यक्तिगत स्तर पर लगातार संघर्ष कर रहा हूँ।'



Anita Rathi -आपके इस नेक काम के लिए बधाई, इंसान होने का फ़र्ज़ अदा कर रहे है आप,
Vijai RajBali Mathur -आपकी सद्भावनाओं हेतु धन्यवाद।

पहली बार किसी विद्वान द्वारा मेरे तर्क  को सही मानने का कारण (अनीता राठी जी  M.A. English / Anthropology / Sociology हैं)उनकी अपनी योग्यता है।वैसे ऊपर कुछ साम्यवादी विद्वानों द्वारा भी  यह तर्क पसंद किया गया है। 

वास्तविकता यही है कि ,मानव जीवन को सुंदर,सुखद और समृद्ध बनाने के लिए जो प्रक्रियाएं हैं वे सभी 'धर्म' हैं। लेकिन जिन प्रक्रियाओं से मानव जीवन को आघात पहुंचता है वे सभी 'अधर्म' हैं। देश,काल,परिस्थिति का विभेद किए बगैर सभी मानवों का कल्याण करने की भावना 'धर्म' है।

ऋग्वेद के इस मंत्र को देखें-
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया :
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद दु : ख भाग भवेत। ।
इस मंत्र मे क्या कहा गया है उसे इसके भावार्थ से समझ सकते हैं- --

सबका भला करो भगवान ,सब पर दया करो भगवान।
सब पर कृपा करो भगवान,सब का सब विधि हो कल्याण। ।
हे ईश सब सुखी हों ,कोई न हो दुखारी।
सब हों निरोग भगवान,धन धान्य के भण्डारी। ।
सब भद्र भाव देखें,सन्मार्ग के पथिक हों।
दुखिया न कोई होवे,सृष्टि मे प्राण धारी । ।
ऋग्वेद का यह संदेश न केवल संसार के सभी मानवों अपितु सभी जीव धारियों के कल्याण की बात करता है।

 भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)।
 क्या इन तत्वों की भूमिका को मानव जीवन मे नकारा जा सकता है?और ये ही पाँच तत्व सृष्टि,पालन और संहार करते हैं जिस कारण इन्ही को GOD कहते हैं  ...
GOD=G(generator)+O(operator)+D(destroyer)। खुदा=और चूंकि ये तत्व' खुद ' ही बने हैं इन्हे किसी प्राणी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं। 'भगवान=GOD=खुदा' - मानव ही नहीं जीव -मात्र के कल्याण के तत्व हैं न कि किसी जाति या वर्ग-विशेष के।  

आज सर्वत्र पोंगा-पंथी,ढ़ोंगी और संकीर्णतावादी  तत्व (विज्ञान और प्रगतिशीलता के नाम पर) 'धर्म' और 'भगवान' की आलोचना करके तथा पुरोहितवादी 'धर्म' और 'भगवान' की गलत व्याख्या करके मानव द्वारा मानव के शोषण को मजबूत कर रहे हैं।

'मनुष्य' मात्र के लिए सृष्टि के प्रारम्भ मे 'धर्म,अर्थ,काम एवं मोक्ष' हेतु कार्य करने का निर्देश विद्वानों द्वारा दिया गया था। किन्तु आज 'धर्म' का तो कोई पालन करना ही नहीं चाहता और ढोंग -पाखंड-आडंबर को 'पूंजी' ने 'पूजा' अपने शोषण-उत्पीड़न को मजबूत करने हेतु बना दिया है तथा उत्पीड़ित गरीब-मजदूर/किसान इन पूँजीपतियों के दलालों द्वारा दिये गए खुराफाती वचनों को प्रवचन मान कर भटकता व अपना शोषण खुशी-खुशी कराता रहता है। 

'काम'=समस्त मानवीय कामनाए होता है किन्तु आज काम को वासना-सेक्स के अर्थ मे प्रयुक्त किया जा रहा है यह भी पूँजीपतियों/व्यापारियों की ही तिकड़म का नतीजा है जो निरंतर 'संस्कृति' का क्षरण कर रहा है। समाज मे व्याप्त सर्वत्र त्राही इसी निर्लज्ज  पूंजीवादी सड़ांध के कारण है। 

'मोक्ष' की बात तो अब कोई करता ही नहीं है। कभी विज्ञान के नाम पर तो कभी नास्तिकता के नाम पर जन्म-जन्मांतर को नकार दिया जाता है। या फिर अंधकार मे  अबोध जनता को भटका दिया जाता है और वह मोक्ष प्राप्ति की कामना के नाम पर कभी गया मे 'पिंड दान' के नाम पर लूटी जाती है तो कभी अतीत मे 'काशी करवट'मे अपनी ज़िंदगी कुर्बान करती रही है। यह सारा का सारा अधर्म किया गया है धर्म का नाम लेकर और इसे अंजाम दिया है व्यापारियों और पुरोहितों ने मिल कर। सत्ता ने भी इन लुटेरों का ही साथ पहले भी दिया था और आज भी दे रही है। 

'अर्थ' का स्थान 'धर्म' के बाद था किन्तु आज तो-"इस अर्थ पर 'अर्थ' के बिना जीवन का क्या अर्थ "सूत्र सर्वत्र चल रहा है । इसी कारण मार-काट,शोषण-उत्पीड़न,युद्ध-संहार चलता रहता है। हर किसी को धनवान बनने की होड लगी है कोई भी गुणवान बनना नहीं चाहता। सद्गुणों की बात करने पर उपहास उड़ाया जाता है और भेड़चाल का हिस्सा न बनने पर प्रताड़ित किया जाता है। अर्थतन्त्र केवल धनिकों/पूँजीपतियों के संरक्षण की बात करता है उसमे साधारण 'मानव' को कोई स्थान नहीं दिया गया है। 'मानवता'की स्थापना हेतु 'कर्मवाद' पर चलना होगा तभी विश्व का कल्याण हो सकता है।  

'कर्म' तीन प्रकार के होते हैं-1)सदकर्म,2)दुष्कर्म और 3) 'अकर्म'पहले दो कर्मों के बारे मे सभी जानते हैं लेकिन फिर भी अपने दुष्कर्म को सदकर्म सभी दुष्कर्मी बताते हैं। सबसे महत्वपूर्ण है 'अकर्म'अर्थात वह कर्म=फर्ज़=दायित्व जो किया जाना चाहिए था लेकिन किया नहीं गया। भले ही सीधे-सीधे इसमे किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया गया है किन्तु जो नुकसान किसी का बचाया जा सकता था वह बचाया नहीं गया है जो कि,'प्रकृति' की नज़र मे अपराध है और वह इसके लिए उस मनुष्य को दंडित अवश्य ही करती है। 'भगवान'='खुदा'=GOD तत्व सर्वत्र व्यापक हैं और उनको किसी दलाल/बिचौलिये की सहायता की आवश्यकता नहीं है। यह दंड के लिए किसी भी माध्यम का चयन स्वतः कर लेते हैं। अतः ठेकेदार/बिचौलिये/पूरिहितों के झांसे मे आए बगैर प्रत्येक 'मनुष्य' को 'सदकर्म' का पालन और दुष्कर्म व  'अकर्म'से बचना चाहिए तभी हम धरती पर 'सुख' व 'शांति' स्थापित कर सकते हैं अन्यथा यों ही भटकते हुये रोते-गाते अपना मनुष्य जीवन व्यर्थ गँवाते जाएँगे। 
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